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________________ मरणकण्डिका -५७५ प्रश्न - अवीचार या अविचार का क्या अर्थ है और इस अवीचार मरण के तीन भेद करने का क्या कारण है ? उत्तर - इस मरण के नाम में अवीचार और अविचार इन दोनों शब्दों का प्रयोग आया है। ये दोनों एकार्थवाची हैं। इन दोनों का अर्थ है विचार नहीं करपाना या सोच नहीं पाना । अर्थात् इस मरण में सोच-विचार का अधिक अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। आयु को ह्रास की ओर उन्मुख देखकर इस मरण का वरण कर लिया जाता है। इसमें मरण की सम्भावना शीघ्र, शीघ्रतर और शीघ्रतम होती है अतः इस मरण के निरुद्ध, निरुद्धतर और निरुद्धतम ये तीन भेद हो जाते हैं। इन तीनों के लक्षण ऊपर कहे जा चुके हैं। अल्प समय में शीघ्रतापूर्वक मरण करने वालों को भी आराधना की सिद्धि हो जाती है आराध्याराधना-देवी, आशुकारं मृतावपि । केचिसिध्यन्ति जायन्ते, केचिद्वैमानिकाः सुराः ।।२०९९ ॥ अर्थ - इस प्रकार चार आराधनारूप देवी की सहसा शीघ्रता पूर्वक आराधना करने वाले आराधक मुनिराजों में कोई-कोई तो कर्मों को तत्क्षण नष्ट कर सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं और कोई-कोई वैमानिक देव हो जाते हैं।॥२०९९ ॥ प्रमाणं काल-बाहुल्यमस्य नाराधना-विधेः। तीर्णा मुहूर्त-मात्रेण, बहवो भव-नीरधिम् ॥२१०० ।। ____ अर्थ - बहुत अधिक काल में ही आराधना की विधि सम्पन्न हो पाती है ऐसा नहीं है, क्योंकि बहुत से मुनिराज एक मुहूर्त मात्र में आराधनाओं का आराधन कर संसार-समुद्र को पार कर गये हैं ।।२१०० ।। __ प्रश्न - एक मुहूर्त जैसे अल्पकाल में आराधनाओं की सम्यक् आराधना कर मुक्ति की प्राप्ति कैसे सम्भव है? उत्तर - कर्मों को नष्ट करने या उच्चगति को प्राप्त करने के लिए परिणामों की विशुद्धि ही अपेक्षित है, कालप्रमाण की बहुलता अपेक्षित नहीं है। बारह वर्ष पर्यन्त रत्नत्रय की या समाधि की साधना-विधि चलती रहे किन्तु यदि परिणामों में विशुद्धि की उद्भूति न हो पावे तो उच्चगति या मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है, किन्तु परिणामों की विशुद्धि के साथ अल्पकाल में आराधित आराधनाएँ भी मोक्ष पद की प्राप्ति करा देती हैं। सिद्धो विवर्धनो राजा, चिरं मिथ्यात्व-भावितः। वृषभ-स्वामिनो मूले, क्षणेन थुत-कल्मषः ॥२१०१।। इति निरुद्धतमम्। अर्थ - अनादि मिथ्यादृष्टि विवर्धन नाम का राजा भगवान वृषभदेव के पादमूल में अर्थात् समवसरण में बोध को प्राप्त हो कर अर्थात् दीक्षा लेकर मोक्ष चला गया ।।२१०१॥ * विवर्धन की कथा * ___ इस अवसर्पिणीकालके चतुर्थकालके प्रारंभमें आदि तीर्थंकर वृषभनाथने जिन-दीक्षा ग्रहणकर तपस्या
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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