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________________ मरणकण्डिका - २३३ अर्थ - इस प्रकार सर्व संघ को क्षमा प्रदान करके उत्कृष्ट वैराग्य को धारण कर तप और समाधि में लीन हुआ क्षपक पाप कर्मों की निर्जरा करने में प्रयत्नशील रहता है ।।७४५ ।। अप्रमत्ता-गुणाधाराः, कुर्धन्तः कर्मनिर्जराम् । अनारत प्रवर्तन्ते, व्यावृत्तौ परिचारकाः ।।७४६ ।। अर्थ - जो गुणों के खजाना हैं और प्रमाद रहित हैं, बिना थके अहर्निश सेवा में तत्पर ऐसे निर्यापक मुनिगण वैयावृत्य द्वारा अपने कर्मों की भारी निर्जरा करते हैं ।।७४६ ।। यज्जन्म-लक्ष-कोटीभिरसंख्याभी रजोऽर्जितम्। तत्सम्यग्दर्शनोत्पादे, क्षणेनैकेन हन्यते ॥७४७॥ अर्थ - असंख्यातलक्ष-कोटि जन्मों द्वारा जो कर्म अर्जित होता है वह सब सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर एक क्षण में नष्ट हो जाता है ||७४७ ।। धुनीते क्षणत: कर्म-सञ्चितं बहुभिर्भवैः। व्यावृत्तौऽन्यतमे योगे, प्रत्याख्याने विशेषतः ।।७४८ ।। अर्थ - बारह प्रकार के तपों में से जिस किसी नप में एवं वामृन्दादि बिस किसी योग में लीन हुआ क्षपक अनेक भवों में संचित कर्मों को अल्पसमय में ही निर्जीर्ण कर देता है और सल्लेखनागत जीवन में जब यावज्जीव चतुराहार का त्याग कर देता है तब तो वह विशेष रूप से कर्मों की निर्जरा करता है ॥७४८ ।। प्रतिक्रान्ती तनूत्सर्गे, स्वाध्याये विनये रतः । अनुप्रेक्षासु कर्मेति, धुनीते संस्तर-स्थितः ॥७४९॥ अर्थ - इस प्रकार संस्तरारूढ़ क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय और बारह भावनाओं के चिन्तनादि में से जिस किसी में तल्लीन हो जाने पर कर्मों की निर्जरा करता है ।।७४९ ।। छन्द प्रहरणकलिता अनशन-निरते तनुभृति सकलं, भवभय-जनकं विगलति कलिलम् । अनुहिमकिरणे ह्युदयति तरणी, कमल-विकसने घ धनमिव तमः ।।७५० ॥ अर्थ - जैसे चन्द्रमा के पीछे कमलों के विकास का कारण ऐसे सूर्य के उदित होने पर गाढ़ भी अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही क्षपक के अनशनतप में उद्यत हो जाने पर अर्थात् यावज्जीव चतुराहार का त्याग कर देने पर संसार का भय उत्पन्न करने वाला समस्त पाप कर्म नष्ट हो जाता है ||७५० ।। इस प्रकार क्षपणनामा-अधिकार समाप्त हआ॥३२॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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