SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - २०२ नस्य सूत्रार्थ तथे, नशितय-शालिता । व्यवहारविदा दत्तं प्रायश्चित्तं यथोचितम् ||६२३ ॥ अर्थ- कोई क्षपक अत्यन्त भक्ति के भार से नम्र हुआ आचार्य के पादमूल में जाकर और मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक वन्दना करके सभी दोषों को विधिवत् कहता है और सूत्रार्थ में निपुण, रत्नत्रय के पालन में तत्पर एवं व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र के वेत्ता आचार्य द्वारा उस अपराध के अनुरूप ही यथोचित प्रायश्चित्त दिया जा रहा है ।। ६२२-६२३ ।। यत्कल्प-व्यवहाराङ्ग-पूर्वादि श्रुत-भाषितम् । तदालोच्य विधानेन, दत्तं सूत्र - पटीयसा ।। ६२४ ॥ अश्रद्धाय वचस्तस्य, स यथा पृच्छते परम् । आचार्यैः कथितो दोषस्तदालोचन - गोचरः ॥६२५ ॥ अर्थ - अंगबाह्य श्रुत में कल्प नामक प्रकरण में, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में तथा शेष अंगों और प्रकीर्णकों में जो प्रायश्चित्त का कथन है उन सब सूत्रों में विशारद आचार्य द्वारा उस क्षपक की आलोचना के अनुसार ही उसे योग्य प्रायश्चित्त दिया गया है किन्तु उस परम योग्य आचार्य के वचनों पर विश्वास ना कर यदि वह क्षपक अन्य आचार्यों से पूछता है, तो वह आलोचना का आठवाँ दोष है ।। ६२४-६२५ ।। दोषावतीर्णोऽपि ददाति पीडां परप्रकारेण विशोध्यमानः । व्रणो हि शुष्कोऽपि करोति बाधां प्रचाल्यमानः किमुत्ताविषयः ॥ ६२६ ॥ इति भूरि सूरि-दोष: ॥ अर्थ - ऊपर से शुष्क हुआ किन्तु अभ्यन्तर में कील सहित घाव जैसे पीछे बढ़कर बहुत कष्ट देता है, वैसे ही यद्यपि माया रहित की जानेवाली यह आलोचना अति सुन्दर थी किन्तु गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त के प्रति अश्रद्धान रूपी शल्य से युक्त होने के कारण और अन्य आचार्यों द्वारा उसका विशोधन कराने के कारण वह दुखदायी है || ६२६ ॥ इस प्रकार बहुजन नामक दोष का कथन पूर्ण हुआ । ९. अव्यक्त दोष आगमेन चरित्रेण, बालो भवति यो यतिः । तस्यालोचयतो दोषं, स्वं दोषो नवमो मतः ॥६२७ ॥ अर्थ- जो मुनि आगमज्ञान से बाल है तथा चारित्र से बाल है अर्थात् जिसे शास्त्रज्ञान भी नहीं है और जिसका चारित्र भी हीन है, ऐसे आचार्य के निकट अपने दोषों की आलोचना करना अव्यक्त नाम का नौवाँ दोष है ||६२७ ॥ निवेदितं मया सर्वं, नासौ जानाति दूषणम् । विश्राणयति मे शुद्धिं प्रणिधायेति मानसे । ६२८ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy