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________________ मरणकण्डिका - ४६० प्रश्न - विकलत्रय जीव किस प्रकार के दुख भोगते हैं? उत्तर - जैसे जन्म से अन्धे, गूंगे एवं बहिरे बालक रक्षा एवं शरण से विहीन हो जाने पर विवश हो मार्गों में हाथी, घोड़े एवं रथादि सवारियों से कुचल कर मर जाते हैं, विकलेन्द्रिय जीवों की भी ऐसी ही दशा है । उनका दुख भी नारकियों के समान है, गृह, ग्राम एवं वन आदि में उन्हें कहीं भी कोई शरण नहीं है। सदा ही उनकी घोर मृत्यु होती रहती है। वे मार्ग में गाय-बैल आदि पशुओं से, सवारियों द्वारा कुचले जाते हैं। गाड़ी आदि के चक्कों से पिस जाते हैं, परस्पर एक दूसरे के मुखों द्वारा पीड़ित होकर वे दुखों तथा मृत्यु को प्राप्त होते हैं, सिर आदि भंग हो जाने पर, पैर आदि टूट जाने पर तथा रोगग्रस्त हो जाने पर बिना प्रतिकार के वे चिरकाल तक तड़फड़ाते रहते हैं। जो जल की एक बूंद में भी डूब जाते हैं, प्राणियों की श्वास वायु से भी पीड़ित हो उठते हैं एवं जरा सी भी गर्मी प्राप्त कर मर जाते हैं, उनकी क्या कथा कही जाय ? जैसे कोई स्वाधीन वयस्क पुरुष क्रीड़ासक्त हो, सरोवर में प्रवेश कर बहुत बार जल में डूबता एवं उतरता है, वैसे ही ये विकलत्रय जीव जन्म रूपी समुद्र के मध्य प्रवेश करके दुखरूपी कटुकजल पीते हुए एक अन्तर्मुहूर्त में अनेक बार जन्म लेते हैं और मरते हैं। जिनका ज्ञान अत्यल्प है, जिनका कोई रक्षक नहीं, जिन्हें भोजन-पान सहज उपलब्ध नहीं और उसके लिए विशेष पुरुषार्थ की सामर्थ्य नहीं उन्हें सुख कैसे हो सकता है ? माता का वियोग हो जाने पर भी मनुष्य को असह्य दुख होता है फिर जिनके माता ही नहीं, उनकी दुख-राशि का तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार के और भी अनेक दुख विकलत्रय पर्याय में अनन्त बार परवशता से भोगे हैं। उस दुखराशि का शतांश दुख भी इस पर्याय में नहीं है अत: उन पर्यायों के अपरिमित एवं असह्य दुखों का चिन्तन कर हे क्षपक! समता धारण करने में ही तुम्हारा कल्याण है। ___ पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याय के दुख ताजने वाहने बन्धने त्रासने, नासिका-तोदने कर्णयो:कर्तने। लांछने दाहने दोहने हण्डने, पीडने मर्दने हिंसने शातने ॥१६६४॥ अर्थ - लकड़ी आदि से ताड़ना, बोझा लादना एवं गाड़ी आदि में जोतमा, रस्सी आदि से बाँधना, भय दिखाना, नाक में नकेल डालना, कान कतरना, शरीर की चमड़ी पर चिह्न बनाना, दाग लगाना, दुहना, कष्ट देना, यातनाएँ देना, मसल देना, मारना एवं छीलना, इत्यादि क्रियाओं द्वारा बैल, गधा, ऊँट एवं बकरा आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को भी नाना प्रकार के असह्य दुख भोगने पड़ते हैं ।।१६६४।। सलिल-मारुत-शीत-महातप-भ्रमण-भक्षण-पान-निरोधनैः। दमन-तोदन-गालन-भजन, जल-वियोजन भोजन-वर्जने ॥१६६५ ॥ अर्थ - वर्षाऋतु में जल से, शीत ऋतु में ठण्ड से, ग्रीष्म ऋतु में महान् आतप से एवं घुमाने और आहार-पान रोकने रूप अनेक क्रियाओं से अनेक कष्ट होते हैं। दमन अर्थात् इच्छित स्थान पर जाने से रोक देना, तोदन अर्थात् व्यथा पहुँचाना, पानी में गीले रहना, पेलना, पानी नहीं दिया जाना एवं घास आवि सामने होते हुए नहीं खाने देना, इस प्रकार के और भी अनेक कष्ट तिर्यंच जीवों को भोगने पड़ते हैं ।।१६६५ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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