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________________ मरणकण्डिका - ४६१ अत्राण-पतित: क्षोण्यां, निःप्रतीकार-विग्रहः । दुःसहा वेदनां सोढ्वा, बहुभिर्वासरैर्मृतः ।।१६६६ ।। अर्थ - जिन दीन पशुओं का कोई स्वामी नहीं होता अथवा स्वामी जिन अपंग या वृद्ध पशुओं को छोड़ देता है वे रक्षक विहीन पशु रोगादि हो जाने पर या चलने में असमर्थ हो जाने से कहीं भी जमीन पर या गड्ढे आदि में गिर जाने पर बिना औषधि-उपचार एवं रक्षण के वहीं पर पड़े-पड़े दुःसह वेदना सहन करते रहते हैं। बहुत समय के बाद वे बेचारे भूखे-प्यासे, दीन एवं अनाथ पशु मर जाते हैं ।।१६६६ ॥ क्षुत्तृष्णा-व्याधि-संहार-विह्वलीभूत-मानसः । यहुःखं बहुश: प्रामस्तत्सर्वं हृदये कुरु ॥१६६७॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! अतीत काल में तिर्यंचगति में अनन्तबार भूख-प्यास, भयंकर रोग एवं मार-पीट से विह्वल होकर तुम्हारा मन जितना दुखी हुआ है उन सब दुखों को हृदय में धारण कर स्मरण करो॥१६६७ ।। तिर्यग्गति तीव्र-विचित्र-वेदनां, गतोजरा-जन्म-विपर्ययाकुलम्। दुःखासिकां यां गतवाननारतं, विचिन्तयेस्तामपहाय दीनताम् ।।१६६८ ॥ इति तिर्यग्गतिः॥ अर्थ - तिर्यंचगति को प्राप्त कर तुमने अत्यन्त तीव्र नाना प्रकार की वेदनाएँ भोगी हैं। जन्म, जरा, मरण आदि से आकुलित हो निरन्तर जिस दुखमय अवस्था को तुमने अतीतकाल में पाया था उसका बार-बार चिन्तन करो। हे क्षपकोत्तम! तुम दीनता का त्याग करो और अतीत में भोगे हुए कष्टों का ऐसा चिन्तन करो जिससे वर्तमान के क्षुधा-तृषादि जन्य अत्यल्प दुख सहन करने का साहस तुम्हें प्राप्त हो सके ।।१६६८ ।। प्रश्न - तिर्यंचगति में पंचेन्द्रिय तिर्यच और क्या-क्या दुख भोगते हैं ? उत्तर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच परस्पर एक दूसरे से, पापी मनुष्यों से एवं भूख, प्यास एवं रोगादि से जो महा भयंकर दुख भोगते हैं उनकी कोई उपमा नहीं है। वे अपने बच्चों को भी खा जाते हैं। परस्पर एक दूसरे का घात करने के लिए प्रहार करते हैं, उसको मारने के लिए दूसरा कोई पशु उसके पीछे दौड़ता है, उसी समय कोई अन्य तीसरा पशु उसे मार देता है, धिक्कार है ऐसी पर्याय को, इससे भयानक और क्या हो सकता है ? जो एक दूसरे को मार कर ही जीना चाहते हैं; जो परस्पर में एक-दूसरे के भय से निश्चिंतता पूर्वक सो भी नहीं सकते वे भला सुखी कैसे रह सकते हैं ? वन में रहने वाले मृग तृण खाकर और जल पीकर अपनी सहचरी हिरणी के साथ प्रेम से रहते हैं किन्तु वे अपराध बिना ही व्याघ्र आदि द्वारा या शिकारियों द्वारा अनायास मार दिये जाते हैं। स्वभाव से पापी, दुर्गति से न डरने वाले तथा शिकार आदि हिंसक कार्यों से ही अपना हित मानने वाले मनुष्यों द्वारा और हिंसक पशुओं द्वारा अन्य पशु निरन्तर मारे जाते हैं, काटे जाते हैं, पेले जाते हैं, भूने जाते हैं, पकाये जाते हैं, घसीटे जाते हैं और नोच-नोच कर खाये जाते हैं। हाथी अंकुश आदि के भेदने से, घोड़े कोड़े आदि की मार से और बैल पैनी आरी आदि के घात से मरण पर्यन्त मनुष्यों का कार्य करते हैं। जंगल में लगी आग के वेग से जलते हुए अथवा महा जलसमूह के प्रबल प्रहार से बहाये जाते हुए मृग, सर्प, सरीसृप तथा पक्षी आदि बहुत से तिर्यंच जीव अनायास एक साथ मारे जाते हैं। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दुख कहने में कौन समर्थ है? - --+ -----
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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