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________________ मरणकण्डिका - २०६ प्रश्न - सम्यग्दर्शनादि के प्रतिकूल क्या आचरण होता है ? उत्तर - व्रतों आदि में अतिचार लगाना ही उनके प्रति प्रतिकूल आवरा है . पक्षिा, कक्षा सात कर सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं। मन से सम्यग्ज्ञान की अवज्ञा करना, इस ज्ञान से क्या लाभ है, तप एवं चारित्र ही फलदायक हैं, अत: उन्हीं को करना चाहिए ऐसे भाव करना, या सम्यग्ज्ञान को दूषण लगाना, या मन, वचन अथवा काय से उसमें अरुचि प्रगट करना और मुख की विरूपता से या सिर आदि हिलाकर उसका निषेध करना सम्यग्ज्ञान के अतिचार हैं। समिति आदि के पालन में शिथिलता तथा चारित्र-पालन में कष्ट बहुत है और इसका फल अल्प है इत्यादि भाव होना चारित्र के अतिचार हैं। उपवास आदि तप करते समय असंयम रूप प्रवृत्ति करना तप के अतिचार हैं तथा आहार, उपकरण और वसतिका आदि के ग्रहण में छियालीस दोष लगाना ही इनके अतिचार हैं। इन सर्वातिचारों की मैं आज आलोचना करता हूँ। दुर्भिक्षे मरके मार्गे, वैरि-चौरादि-रोधने। योऽपराधो भवेत्कश्चिन्मनो-वाक्काय-कर्मभिः ।।६३९॥ सर्वदोष-क्षयाकांक्षी, संसार-श्रम-भीलुकः। आलोचयति तं सर्वं, क्रमतः पुरतो गुरोः ।।६४०॥ अर्थ - दुर्भिक्ष के समय, रोग आने पर एवं मार्ग में चोर या शत्रुओं आदि के द्वारा रुकावट डाले जाने पर मेरे द्वारा मन, वचन एवं काय से जो अपराध हुए हैं उन सभी की क्रमश: गुरु के आगे वह क्षपक आलोचना करता है जो समस्त दोषों को नष्ट करना चाहता है तथा संसार के कष्टों से भयभीत है ||६३९-६४०॥ प्रश्न - दुर्भिक्ष आदि के समय अतिचार कैसे लगते हैं? उत्तर - भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर अवमौदर्य तप को भंग करके स्वयं ने जो अयोग्य सेवन किया हो या अन्य साधुओं को अमुक प्रकार से अयोग्य भिक्षा ग्रहण करने में प्रवृत्त किया हो। अथवा संघ में मारी रोग का उपद्रव होने पर विद्या या मन्त्रादि के द्वारा उसके शमन करने में जो अतिचार लगे हों। अथवा देश या नगर आदि से बाहर निकलने के जितने मार्ग हैं वे शत्रुओं अथवा चोरों आदि के द्वारा बन्द कर दिये जाने पर उस परवशता में भिक्षाचर्या आदि के लिए जो संक्लेश उत्पन्न हुआ हो अथवा कोई अयोग्य पदार्थ का सेवन कर लिया हो। नदी में बाढ़ आना, आग लग जाना, महती आँधी चलना, भयंकर वर्षा होना, राज्य पर शत्रुसेना का आक्रमण; रोग, शोक या कष्ट से पीड़ित होना, रस युक्त भोजन में आसक्ति, बकवाद में आसक्ति, यह सचित्त है या अचित्त ऐसी आशंका हो जाने पर उसे तोड़ना, फोड़ना, खाना, अशुभ मन और वचन की सहसा झट-पट प्रवृत्ति कर बैठना; चोर, श्वान एवं सर्प आदि के प्रवेश के भय से वसतिका का द्वार बन्द कर देना; हस्त-पादादि का मोड़ना, संकोचना एवं फैलाना; पत्थर एवं मिट्टी का ढेला आदि फेंकना; दौड़ना, कण्टक आदि की बाड़ का उल्लंघन करना; अज्ञानीजनों का आचरण देखकर स्वयं भी वैसा ही करना और उसमें दोष नहीं मानना; अज्ञानी द्वारा लाये गये उद्गम आदि दोषों से दूषित उपकरणादि का सेवन करना; शरीर में, उपकरणों में, वसति में, कुल में, ग्राम में, देश में, बन्धु वर्ग में, चश्मा, पेन, कलम आदि में एवं पार्श्वस्थ साधुओं में ममत्वभाव रखना; आनेवाली शीतल हवा को चटाई आदि से रोकना; आग तापना, उबटन लगाना, तेल
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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