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परणकण्डिका - ४८५
अर्थ - इस प्रकार निर्यापकाचार्य के उपदेश से उत्तम चारित्र से भावित होता हुआ वह क्षपक जब तक शरीर में शक्ति रहती है तब तक उठने, बैठने एवं सोने आदि की सर्व क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्ति करता है ।।१७७७ ।।
क्षीण-शक्तेयंदा चेष्टा, स्वल्पा भवति सर्वथा।
तदा देह-प्रहाणाय, यतते निःस्पृहाशयः।।१७७८ ।। अर्थ - जब शक्तिहीन हो जाने पर उसकी शारीरिक चेष्टाएँ सर्वथा मन्द अल्प पड़ जाती हैं तब निःस्पृह भाव युक्त होता हुआ क्षपक शरीर का त्याग करने हेतु प्रयत्नशील होता है ।।१७७८ ।।
शरीर आदि की त्याज्यता उपधिं संस्तरं शय्यां, पानं व्यावृत्तिकारिणः।
शरीरं मुञ्चते योगी, सम्यक्त्वारूढ-मानसः ।।१७७९ ।। अर्थ - सम्यक्त्वारूढ़ मानसयुक्त वह योगी क्षपक पीछी, कमण्डलु, संस्तर, शय्या, जल, वैयावृत्य करने वाले मुनिपरिकर एवं शरीर को छोड़ देता है अर्थात् उन सबसे निरपेक्ष हो जाता है ।।१७७९ ।।
निराकृत्य वचो-योगं, काय-योगं च सर्वथा ।
स विशुद्धे मनोयोगे, स्थिरात्मा व्यवतिष्ठते ।।१७८० ।। अर्थ - वह क्षीणकाय क्षपक काययोग अर्थात् शारीरिक क्रियाओं का एवं वचनयोग अर्थात् वचनप्रलाप का निराकरण कर विशुद्ध मनोयोग में अर्थात् आत्मस्वरूप में या पंच परमेष्ठी के चिन्तन में स्थिर-चित्त हो जाता है।।१७८० ॥
समत्वमिति सर्वत्र, प्रपद्यामल-मानसः।
स मैत्री-करुणोपेक्षा-मुदिताः प्रतिपद्यते ॥१७८१ ॥ अर्थ - इस प्रकार सब पदार्थों में और सब जीवों में समता भाव धारण करने वाला वह क्षपक निर्मलचित्त होकर मैत्री, करुणा, उपेक्षा और मुदित अर्थात् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ्य भावनाओं को भाता है ।।१७८१ ॥
मैत्री आदि भावनाओं का स्वरूप जीवेषु सेव्या सकलेषु मैत्री, परानुकम्पा करुणा पवित्रा।
बुधैरुपेक्षा सुख-दुःख-साम्यं, गुणानुरागो मुदितावगम्या ।।१७८२ ।। अर्थ - बुद्धिमानों को सदा ही सकल जीवों में मैत्री भाव, दीन-दुखी जीवों में उत्कृष्ट एवं पवित्र करुणा भाव, सुख-दुख में अथवा विपरीत आचरण करने वाले जीवों में माध्यस्थ्य अर्थात् समताभाव और गुणवान पुरुषों में प्रमोद भाव रखना चाहिए ।।१७८२ ।।
प्रश्न - उपर्युक्त चारों भावनाओं के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - मेरा आत्मा अनादि काल से घटीयन्त्र सदृश चारों गतियों में परिभ्रमण कर रहा है, इस बीच