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________________ मरणकण्डिका - १३५ द्वारा प्राप्त सम्मान तेरे चारित्र की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं कर सकता, वे भले संख्या में एक लाख से भी अधिक हों और सच्चारित्री एक ही क्यों न हो, तुझे अपनी आत्मा का हित करने के लिए ताड़ना या कटुवचन कहनेवाले साधु के पास ही रहना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार गुण-दोषी प्रजायेते, संसर्ग-वशतो यतः। संसर्ग: पावन: कार्यो, विमुच्यापावनं ततः ।।३६६ ।। अर्थ - अच्छे बुरे आश्रय के कारण पुरुष गुण और दोषों को प्राप्त हो जाते हैं, अत: दुष्ट जनों का संसर्ग त्याग कर पवित्र अर्थात् प्रशस्त गुण युक्त पुरुषों का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए ||३६६ ।। वाच्यो गणस्थितः पथ्य-मनभीष्टमपि स्फुटम् । तत्तस्य कटुकं पाके, भैषज्यमिव सौख्यदम् ।।३६७।। अर्थ - अपने गण के वासी साधु को हितकारी किन्तु हृदय को अनिष्ट भी लगनेवाले वचन अवश्य बोलने चाहिए क्योंकि वे वचन कडुवी औषधि के सदृश उसके लिए मधुर फलदायक होते हैं ।।३६७ ।। प्रश्न - भले हितकारी ही हों किन्तु दूसरों को अनिष्ट वचन बोलने से क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? उत्तर - चार घातिया कर्मों का नाश कर देनेवाले परम वीतरागी अर्हन्तदेव भी भव्यजनों का उपकार करने के लिए जब तीर्थविहार करते हैं तब अन्य सब को भी परोपकार करने में तत्पर रहना चाहिए। "जब उसने दीक्षा ली है तब क्या यह अपना हित नहीं जानता ? उसे कटुक वचनों द्वारा शिक्षा देने से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है" ऐसा विचार कर दूसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि परोपकार के कार्यों में कमर कसके तत्पर रहना ही बड़प्पन है। अत: तत्काल कडुवे लगने पर, जिनका विपाक मधुर है, ऐसे हितकारी और पथ्यभूत वचन समय-समय पर संघस्थ साधुओं को अवश्य ही कहते रहना चाहिए। किसी कवि ने कहा है कि इस जगत् में अपना कार्य करने में ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारों की संख्या में विद्यमान हैं किन्तु परोपकार ही जिनका स्वार्थ है ऐसा सत्पुरुषों में अग्रणी पुरुष एकाध ही होता है। स्वान्तानिष्टमपि ग्राह्य, पथ्यं बुद्धिमता वक्षः। हठत: किं न बालस्य, दीयमानं घृतं हितम् ॥३६८॥ इति दुर्जनसङ्ग-वर्जनम्॥ अर्थ - हृदय को अनिष्ट भी वचन गुरुजनों के द्वारा कहे जाने पर बुद्धिमान मनुष्य को पथ्य रूप से अवश्य ही ग्रहण करने चाहिए। क्या, बालक को जबरदस्ती मुख खोलकर पिलाया गया घृत हितकारी नहीं होता ? अवश्य ही होता है ।।३६८॥ इस प्रकार दुर्जनसंगतिवर्जन प्रकरण पूर्ण हुआ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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