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________________ ř मरणकण्डिका - ३३ ये भक्तप्रत्याख्यान के अयोग्य हैं प्रवर्तते सुखं यस्य श्रामण्यमपदूषणम् । दुर्भिक्षान्न भयं योग्या, दुरापा न च सूरयः ॥ ७७ ॥ अर्थ - जिसका चारित्र बिना किसी क्लेश या अतिचार के सुख-शान्तिपूर्वक पालित हो रहा है, दुर्भिक्ष का भय नहीं है और समाधि कराने में सहायक निर्यापकाचार्य की प्राप्ति भी आगे दुर्लभ नहीं है तो ऐसे साधु भक्तप्रत्याख्यान मरण के अयोग्य हैं अर्थात् उन्हें उस समय समाधि धारण नहीं करनी चाहिए ॥ ७७ ॥ नासार्हति संन्यासमदृष्टे पुरतो भये । मरणं याचमानोऽसौ निर्विण्णो वृत्ततः परम् ॥ ७८ ॥ ॥ इति अर्हः ॥ अर्थ - जिसके सामने आगामी काल में भय उपस्थित नहीं है वह साधु अनर्ह है, उसका भक्तप्रत्याख्यान योग्य नहीं है। यदि भय न होने पर भी कोई मुनि भरण की प्रार्थना करता है तो वह मुनिधर्मरूप उत्तम चारित्र से विरक्त हुआ है ऐसा समझना चाहिए ॥ ७८ ॥ || इस प्रकार अर्ह अधिकार पूर्ण हुआ ।। - २. लिंगाधिकार लिंग के भेद तदत्सर्गिक-लिङ्गानां, लिङ्गमौत्सर्गिकं परम् । अनौरसर्गिक लिङ्गानामपीदं वर्ण्यते जिनैः ।। ७९ ।। अर्थ - जिनेन्द्रदेव ने लिंग के दो भेद कहे हैं। औत्सर्गिक लिंग और अनौत्सर्गिक लिंग। औत्सर्गिक लिंग वालों के औत्सर्गिक लिंग होता है। इसे उत्सर्ग भी कहते हैं, यह सर्वोत्कृष्ट लिंग है। अनौत्सर्गिक लिंग वालों के अनौत्सर्गिक लिंग होता है। इसे अपवाद लिंग भी कहते हैं ।। ७९ ।। प्रश्न औत्सर्गिक और अनौत्सर्गिक लिंग किसे कहते हैं और इनके स्वामी कौन हैं? उत्तर - सकल परिग्रह के त्याग को उत्सर्ग कहते हैं, और इससे होने वाले निर्ग्रन्थरूप को औत्सर्गिक या उत्सर्ग लिंग कहते हैं। जो इस औत्सर्गिक लिंग का धारी है और वह यदि भक्तप्रत्याख्यान मरण का इच्छुक है तो उसका वही लिंग रहता है जिसे उसने पूर्व में ग्रहण किया था । अर्थात् औत्सर्गिक लिंग ही रहता है। यह लिंग निर्ग्रन्थ मुनिराजों के ही होता है। परिग्रह को अपवाद कहते हैं, अतः परिग्रह सहित लिंगवाले को आपवादिक या अनौत्सर्गिक कहते हैं। ये यदि भक्तप्रत्याख्यान करना चाहते हैं तो उन्हें सकल परिग्रह का त्याग कर अर्थात् दीक्षा ग्रहण कर निर्ग्रन्थ होना पड़ता है, किन्तु यह नग्नता वही धारण कर सकता है जिसका पुरुष लिंग प्रशस्त हो । अर्थात् लिंग चर्म सहित हो, अति दीर्घ न हो, अति स्थूल न हो, बार-बार उत्तेजित न होता हो और अण्डकोष भी लटकते हुए लम्बे न हों। अर्थात् पुरुष लिंग अप्रशस्त न हो तो वह औत्सर्गिक लिंग धारण कर सल्लेखना ग्रहण कर सकता है I
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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