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________________ मरणकण्डिका - ३४ अप्रशस्त लिंग वाला भी औत्सर्गिक लिंग धारण कर सकता है यस्य त्रि-स्थानगो दोषो, दुर्निवारो विरागिणः। लिंगमौत्सर्गिकं तस्मै, संस्तरस्थाय दीयते ।।८।। अर्थ - जिसके लिंग और दोनों अण्डकोष इन तीन स्थानों में कोई ऐसा दोष हो जो औषधि आदि से भी दूर नहीं हो सकता हो और वह गृहस्थ वैराग्यवान हो तो उसे वसतिका में संस्तर ग्रहण करा देने के बाद औत्सर्गिक लिंग दिया जा सकता है।।८।। प्रशस्त लिंग वाला भी आपवादिक लिंगी होता है समृद्धस्य सलज्जस्य, योग्यं स्थानमविंदतः । मिथ्यादृक् प्रचुरज्ञातेरनौत्सर्गिक मिष्यते ।।८१॥ अर्थ - जो महान् सम्पत्तिशाली है, या लज्जाशील है या जिसके स्वजन अर्थात् बन्धुवर्ग मिथ्यादृष्टि या विधर्मी हैं या लोगों के आवागमन आदि के कारण स्थान अयोग्य है तो उस गृहस्थ को आपबादिक लिंग में अर्थात् वस्त्र सहित अवस्था में ही यथायोग्य सल्लेखना करा देनी चाहिए ॥८१॥ औत्सर्गिक लिंग का स्वरूप औत्सर्गिकमचेलत्वं, लोचो व्युत्सृष्ट-देहता। प्रतिलेखनमित्येवं, लिझामुक्तं चतुर्विधम् ।।८२ ।। अर्थ - अचेलता अर्थात् वस्त्रमात्र का त्याग, हाथ से शिर और दाढ़ी-मूंछ के केश उखाड़ना, व्युत्सृष्टदेहता अर्थात् शरीर से ममत्व त्याग तथा प्रतिलेखन अर्थात् पिच्छिका ग्रहण, औत्सर्गिक लिंग में ये चार बातें होना आवश्यक है। अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिराजों के ये चार चिह्न महत्त्वपूर्ण हैं। इन चार के बिना मुनिवेष असंभव है।।८२॥ उत्सर्ग लिंग के गुण यात्रासाधन-गार्हस्थ्य-विवेकात्मस्थितिक्रिया। परमो लोक-विश्वासो, गुणा-लिङ्नामुपेयुषः ॥८३॥ अर्थ - उत्सर्ग लिंग यात्रा का साधन है, गृहस्थ से पृथक्करणरूप है, आत्मस्थितिरूप है, श्रेष्टहै और जगत् के विश्वास का कारण है। उत्सर्ग लिंग में ये गुण प्रमुख हैं ।।८३ ।। प्रश्न - इन प्रमुख गुणों का विशेष क्या है? उत्तर - (१) यात्रा साधन - दिगम्बर मुद्रा मोक्षमार्ग की हेतु है, इसका हेतु साधु का शरीर है और शरीर स्थिति का हेतु आहार है तथा इस आहार का साधन उत्सर्ग लिंग है। अर्थात् गृहस्थ आदि के वेष में जनता गुणज्ञ नहीं मानती और उसके बिना आहार नहीं मिल सकता । ये रत्नत्रय धर्मधारी होने से मोक्षमार्ग के पथिक हैं, ऐसी श्रद्धा ही - गृहस्थ को आहारदान आदि की प्रेरक है अतः उत्सर्गलिंग यात्रा का साधन कहा गया है। (२) गृहस्थ से पृथक्करण - गृहस्थ आरम्भ-परिग्रह से युक्त होने के कारण वस्त्रधारी होते हैं अत: यह निर्ग्रन्थ लिंग उन गृहस्थों से भिन्नता का द्योतक है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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