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________________ मरणकण्डिका · - १६१ तुमसे अब कुछ प्रयोजन नहीं है, ” ऐसा कह कर परिचारक मुनि जब क्षपक का त्याग कर देते हैं तब निर्यापकाचार्य 'तुम डरो मत, हम हैं' ऐसा कह कर उसे निर्भयता प्रदान करते हैं, आश्वासन देते हैं और उसे रत्नत्रय में स्थिर करते हैं, तथा जो परिचारक कटु भाषण कर क्षपक का उत्साह भंग करते हैं, उनका निवारण कर आचार्य उन्हें भी समझाते हैं कि "हे मुनिजन ! इस संसार में शरीर और आहार ये दो पदार्थ दुस्त्याज्य हैं फिर भी इस क्षपक का साहस देखो ! जो इसने उन दोनों से मोह छोड़ दिया है, अतः यह क्षपक महापुरुष हैं, इसकी अवज्ञा मत करो और इससे कटु वचन मत कहो। आपका यह व्यवहार दोनों के संसार की अभिवृद्धि करनेवाला है।" इस प्रकार आचार्य दोनों का समाधान कर दोनों को अपने-अपने कार्य में उत्साहित कर देते हैं । जानाति प्रासुकं द्रव्यं, गीतार्थो व्याधि-नाशनम् । श्लेष्म-मारुत-पित्तानां विकृतानां च विग्रहम् ।।४६२ ।। अर्थ शास्त्रज्ञ निर्यापक व्याधिनाशक अर्थात् भूख-प्यास की वेदना को नष्ट करने में समर्थ प्रासुक द्रव्य देना जानते हैं तथा कफ, वात और पित्त का प्रकोप हो जाने पर उनका प्रतिकार करना भी जानते हैं । ४६२ ॥ श्रुतपानं यतस्तस्मै दत्ते शिक्षण-भोजनम् । क्षुत्तृष्णाकुल- चित्तोऽपि ततो ध्याने प्रवर्तते ॥ ४६३ ॥ अर्थ - ज्ञानवान् निर्यापक क्षपक को शास्त्रोपदेश रूपी पेय और हितकारी शिक्षा रूपी भोजन देते हैं, उस भोजन - पान से भूख और प्यास से भी पीड़ित क्षपक ध्यान में एकाग्रचित्त होकर प्रवर्तन करता है ।।४६३ ।। गुणा: स्थितस्येति बहु-प्रकारा, गीतार्थ-मूले क्षपकस्य सन्ति । सम्पद्यते काचन नो विपत्तिः, संक्लेश-जालं न च किञ्चनापि ।। ४६४ ।। इति आधारी ॥ अर्थ - इस प्रकार शास्त्रज्ञनिर्यापक के चरण-मूल में स्थित क्षपक के बहुत से गुण होते हैं । उस क्षपक को योग्य निर्यापक के निकट न कोई विपत्ति आती है और न कुछ संक्लेश भाव होता है, वह शान्तभाव से समाधिमरण में अग्रसर होता है || ४६४ ॥ इस प्रकार आधारी गुण का कथन पूर्ण हुआ । व्यवहारी गुण का विवेचन जानाति व्यवहारं यः, पञ्चभेदं सविस्तरम् । दत्तालोकित - शुद्धिश्च, व्यवहारी स भण्यते ॥ ४६५ ॥ अर्थ - जो पाँच भेदवाले व्यवहार को विस्तारपूर्वक जानता है, जिसने बहुत बार शिष्यों को प्रायश्चित्त
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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