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________________ अर्थ - शास्त्रों में पारंगत निर्यापक क्षपक की प्रत्येक समस्या की समाधानविधि करता है तथा उसके कानों में धर्मोपदेश की आहुति देकर उसकी दीपित ध्यान रूपी अग्नि को और भी अधिक दीप्त करता है। अर्थात् क्षपक धर्मध्यान में लीन रहे, ऐसा ही उपदेश देता है ।।४५९ ।। मरणकण्डिका - १६० शास्त्रज्ञ निर्यापक से होने वाले लाभ समाधानविधिं तस्य, विधत्ते शास्त्रपारग: । दीप्यते दीपितः कर्णाहुतिभिर्ध्यान- पावकः ॥ ४५९ ॥ प्रश्न - उपर्युक्त श्लोक का सहज-सरल अर्थं या भाव क्या है ? उत्तर - शास्त्रज्ञ निर्यापक क्षपक के समाधिमरण की सर्व क्रिया आगमानुसार करते हैं और यदि क्षपक क्षुधादि वेदना से पीड़ित दिखाई देता है तो कर्णप्रिय, मधुर एवं हृदयग्राही उपदेशामृत पिलाकर धर्मध्यान में लीन रखते हैं, आर्तध्यान से रक्षा कर उसकी समुचित सल्लेखना कराते हैं। अर्थ - शास्त्रज्ञ निर्यापक क्षपक की इच्छानुसार उनकी शारीरिक प्रक्रियाओं को करते हुए रत्नत्रय में स्थिर रखते हैं और अन्य अन्य समीचीन उपायों द्वारा क्षपक की समाधि करा देते हैं ||४६० || - क्षपकेच्छा - विधानेन, शरीर - प्रतिकर्मणा । समाधिं कुरुते सम्यगुपायैरपरैरपि ।।४६० ।। प्रश्न क्षपक की इच्छाविधान की पूर्णता का क्या भाव है? क्या वे उसे इच्छानुसार जलादि पिला देते हैं ? तथा सम्यक् उपाय कौन-कौन से हैं ? उत्तर - शास्त्रज्ञ आचार्य क्षपक की इच्छापूर्ति आगमानुसार ही करते हैं अन्यथा नहीं। जैसे प्यास आदि की तीव्र बाधा उत्पन्न हो जाने पर शीतोपचार आदि के द्वारा उनकी इच्छा को शान्त कर देते हैं। हृदय का उमड़ता हुआ धर्मवात्सल्य, परिचारकों का सम्यक् समर्पण, अनुकूल वैयावृत्य, शान्तिदायक वचन, उत्तम उपकरणदान और प्राचीन क्षपकों के हृदयग्राही आख्यान आदि सम्यक् उपाय हैं। वैयावृत्यकरैस्त्यक्तं मा भैषीरिति भाषते । 2 निषिध्य संसृतिं तस्य समाधानं करोति सः ॥ ४६१ ॥ अर्थ - वैयावृत्य करनेवाले यदि क्षपक को छोड़ देते हैं तो शास्त्रज्ञ निर्यापक कहते हैं तुम डरो मत, हम तुम्हारी सेवा करेंगे। जिससे संसार बढ़ता है ऐसे कार्य या ऐसे परिणामों का निषेध कर ज्ञानवान् निर्यापक क्षपक और परिचारक दोनों का समाधान कर देते हैं ।। ४६१ ॥ - प्रश्न- परिचारक मुनि क्षपक का परित्याग क्यों कर देते हैं और गुणज्ञ निर्यापक दोनों का समाधान कैसे करते हैं ? उत्तर यदि क्षपक परीषह आदि सहन नहीं कर पाता है तो परिचारक साधुगण उनकी भर्त्सना करते हैं कि "तुम कायर हो, परीवह सहन तो नहीं करते हो और रोते-चिल्लाते हो, तुम्हारा मन बहुत चंचल है, हमारा
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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