SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका १५५ 7 १०. पर्या या पाद्य स्थितिकल्प वर्षा काल के चार माह में एक ही स्थान पर रहना, विहार नहीं करना, यह पाद्य नाम का दसवाँ कल्प है। हिंसादि दोषों से बचने के लिए साधुजन आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा पर्यन्त अर्थात् एक सौ बीस दिन एक ही स्थान पर रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारणवश इससे कम या अधिक समय तक भी ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से कार्तिक पूर्णिमा के बाद आगे एक मास तक और रह सकते हैं। शास्त्रपठन, शक्ति का अभाव, वैयावृत्य तथा वर्षा आदि की अधिकता होने पर इससे अधिक समय तक भी वहाँ ठहर सकते हैं। इसी प्रकार दुर्भिक्ष, महामारी आदि रोग, भय आदि के निमित्त ग्राम या नगरवासी ही अपना स्थान छोड़कर देशान्तर जा रहे हों अथवा संघ नाश का कोई निमित्त उपस्थित हो रहा हो तो संघ की और रत्नत्रय की रक्षा के लिए चातुर्मास में भी अन्यत्र विहार कर सकते हैं। ये दस कल्प यत्याचार के भेद हैं। अवद्य - भीरुको नित्यं, दशस्वेतेषु यः स्थितः । क्षपकस्य समर्थोऽसौ वक्तुं चर्यामदूषणाम् ॥ ४४० ॥ अर्थ - जो आचार्य सदा पापों से भयभीत रहता है और उपर्युक्त दश स्थितिकल्पों में स्थित रहता है, वही आचार्य क्षपक के लिए निर्दोष चर्या का प्रतिपादन करने में समर्थ होता है ॥४४० ॥ आचार्य आचारवान् होना चाहिए उद्यतः पञ्चधाचारं यः कर्तुं समितक्रियः । क्षपकः पञ्चधाचारे, प्रेर्यते तेन सर्वदा ॥४४१ ।। अर्थ - जो आचार्य पाँच प्रकार के आचार में उद्यमशील रहता है और जिसकी सर्व क्रियाएँ सम्यक्रूप से होती हैं, वही आचार्य क्षपक को सदा पंचाचार में प्रेरित कर सकता है ||४४१ ।। अशुद्धमुपधिं शय्यां भक्तं पानं च संस्तरम् । सहायानप्यसंविग्नान्, विधत्ते च्यवनस्थितिः ॥ ४४२ ।। अर्थ - जो आचार्य क्षपक के लिए उद्गमादि दोषों से अशुद्ध उपकरण, वसतिका, आहार, जल और संस्तर आदि की व्यवस्था करता है, तथा ऐसे ही अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करनेवाले एवं वैराग्य भावना से विहीन परिचारक मुनियों को क्षपक की वैयावृत्य के लिए नियुक्त करता है तो वह नियम से क्षपक को समाधि से च्युत कर देगा, अतः आचार्य आचारवान् ही होना चाहिए || ४४२ ॥ सल्लेखनायाः कुरुते प्रकाशनां कथामयोग्यां क्षपकस्य भाषते । स्वैरं पुरस्तस्य करोति मन्त्रं, गन्ध- प्रसूनादि - विधिं च मन्यते ॥४४३ ॥ अर्थ - आचारविहीन अयोग्य आचार्य क्षपक की सल्लेखना को लोगों के सामने असमय में ही प्रकाशित कर देगा, क्षपक के समक्ष अशुभ परिणाम करनेवाली अयोग्य कथा वार्ता करने लगेगा, योग्य-अयोग्य का विचार किये बिना क्षपक के समक्ष स्वच्छन्दतापूर्वक बात करेगा और लोगों को गन्ध - पुष्पादि लाने को कहेगा, अथवा क्षपक को गन्धादि सेवन करने की अनुमति देगा ||४४३ ||
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy