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ऋद्धिमंत्रों के माध्यम से उन उन ऋद्धिधारी मुनिराजों का स्मरण करके अपनी आत्मिक शक्ति को वृद्धिंगत किया।
इस प्रकार समाधि के लगभग ५ माह पूर्व इस महान् ग्रंथ की प्रश्नोत्तरी टीका पूर्ण हुई। श्रुताराधना रूप लेखनी अभी भी चलती रही। प्रतिदिन के अपने अनुभव - चिन्तन को अपने प्रति ही संबोधन के रूप में लिखते रहे। इस समय पू. माताजी का भीतर से इतना उत्साह और आह्लाद दिखाई देता था कि उस आनंद में उन्होंने अपने ही मृत्यु महोत्सव के उपलक्ष्य में कई भजन बनाये। बेला-बेला, तेला-तेला उपवास होने के कारण शारीरिक कमजोरी बढ़ गई। शय्या ग्रहण करने के पूर्व तक अर्थात् १ माह २२ दिन पूर्व तक अनवरत जिनवाणी की सेवा में तत्पर लेखनी चलती रही। संस्तरारोहण के समय पूज्य माताजी का मृत्यु के आह्वान का अदम्य साहस और उनके भीतर का अतीव हर्ष उल्लास अत्यन्त सराहनीय था । इस सल्लेखना के काल में मैं पूज्य माताजी से कई बार पूछती कि माताजी ! आपको कभी ऐसा विचार नहीं आता है कि अब मेरा बहुत कम समय शेष है। पूज्य माताजी यही कहते कि जन्म के बाद मरण होना जब अकाट्य सत्य है और जिस मृत्यु को १२ वर्ष पूर्व हमने आमंत्रित करके कषाय एवं काय की कृशतापूर्वक तैयारी कर ली है, अब उस मरण से भय होने का प्रश्न ही नहीं है। अब तो मेरी अंतिम यही भावना है। कि अंत तक मेरे श्वास श्वास में, मेरी रग-रग में जिनेन्द्र भगवान ही बसे रहें। मेरे नेत्रों से देव-शास्त्रगुरु के दर्शन करती रहूँ। मेरे कानों से उन जिनेन्द्र भगवान की दिव्य वाणी का श्रवण करती रहूँ। मैं वचनों से अंत तक जिनेन्द्र भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करता रहूं, अंत तक मेरा कंठ अकुंठित रहे।
संयमी जीवन में ज्ञानभावना, तपोभावना आदि भावनाओं को निरन्तर भाने से जीवन के अंत तक आपकी स्मृति सही बनी रही । १६ जनवरी २००२ को अंतिम जलग्रहण करने के दिन आहार हेतु पैदल गये । अंतिम जलग्रहण करके अत्यन्त हर्षपूर्वक चारों प्रकार के आहार जल का त्याग कर दिया। उस दिन भी २०-२५ मिनट तक पूज्य माताजी ने संबोधित किया। अंतरंग हृदय से पुन: पुन: सबसे क्षमायाचना की । अंतिम पाँच दिनों में अनवरत पंच परमेष्ठी के गुणानुवाद रूप स्तोत्र स्तुति आदि बराबर सुनते रहे । २२ जनवरी सन् २००२ प्रातः काल ४.२९ की घड़ी ऐसी आई कि उस घड़ी को पूज्य माताजी ने ' णमोकार 'मंत्र', 'अरिहंत सिद्ध' और 'सिद्धाय नमः' मंत्रों का श्रवण करते हुए अपने जीवन की मंगलमय घड़ी बना दी। पर वह घड़ी हम सबके लिए बड़ी असहनीय थी। वह महान् आत्मा हम सबके बीच से स्वर्गारोहण कर गई ।
अंत में, स्व-पर- कल्याणरत, दृढ़ संकल्पी, अनुशासनप्रिय, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, निर्भीक उपदेशक, आगम एवं गुरु परम्परा की रक्षा में प्राण-पण से तत्पर परम पूज्य महान् विदुषी आर्यिकारत्न विशुद्धमती माताजी को कोटि-कोटि वंदन, कोटि-कोटि नमन ।
१७ सितम्बर २००३
खूंता (श्रीनगर) तहसील - धरियावद
आर्यिका प्रशान्तमती
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