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________________ मरणकण्डिका - २१७ से डरते हैं, प्रसिद्धि को प्राप्त हैं, क्षपक के अभिप्राय को बिना कहे संकेत मात्र में जान लेनेवाले हैं और योग्यअयोग्य को जानने में कुशल हैं । त्याग अर्थात् प्रत्याख्यान के क्रम को जानने वाले हैं, धैर्यवान् हैं और क्षपक को समाधान कराने में सदा उद्यमशील स्वभाव वाले हैं, ऐसे गुणज्ञ छह से गुणित आठ अर्थात् अड़तालीस परिचारक अर्थात् निर्यापक मुनि समाधि कराने के लिए ग्रहण करने चाहिए ।।६७७-६७८ ।। प्रश्न - इन उपर्युक्त गुणों का क्या अभिप्राय है? उत्तर - यद्यपि सम्यग्दृष्टि होने से यतिजन चारित्र में अनुराग रखते हैं तथापि चारित्रमोह का उदय होने से चारित्र में दृढ़ नहीं रह पाते, और जिनका चारित्र दृढ़ नहीं होता वे क्षपक के असंयम का परिहार नहीं कर सकते, अत: निर्यापक दृढ़ चारित्री होना चाहिए। यहाँ 'प्रियधर्मा' में धर्म शब्द से चारित्र ही ग्रहण किया है। जिन यतिजनों को चारित्र प्रिय होगा वे ही क्षपक को चारित्र में प्रवृत्ति करने हेतु उत्साहित कर उसमें उनकी सहायता कर सकते हैं। वे विचित्र दुखों की खानरूप चार गतियों में भ्रमण के भय से व्याकुल रहते हैं, अतः क्षपक के असंयम के परिहारमें विशेष सावधान रहते हैं। वे गुरुजनों में भी प्रसिद्धि को प्राप्त होते हैं कि ये परिचारक विश्वासपात्र हैं, ये असंयम नहीं करते, ये क्षपक की वैयावृत्य में सदा तत्पर रहते हैं। क्षपक न कहने पर भी उसके संकेत मात्र से उसका अभिप्राय समझ कर तदनुकूल वैयावृत्य में प्रवृत्ति करते हैं। यह योग्य है और यह अयोग्य है इस प्रकार क्षपक : १.६ पानादि की परा में 31 मत होते हैं। जो साकार और निराकार प्रत्याख्यान के क्रम को जानने वाले हैं, जो स्वयं परिषह सहन करने में धीर हैं अर्थात् जो परिषहों से स्वयं पराजित हो जाते हैं वे क्षपक को संयम में दृढ़ रखने में असमर्थ देखे जाते हैं और जो क्षपक के चित्त का समाधान करने में एकदम सतर्क रहते हैं, ऐसे उपर्युक्त गुणयुक्त होने पर भी जिन्होंने पूर्व में गुरुजनों को अनेक बार समाधि कराते देखा है उन्हीं अड़तालीस परिचारक मुनिजों का चयन किया जाता है। आमर्शन-परामर्श-गमस्थान-शयादिषु । उद्वर्तन-परावर्त-प्रसाराकुञ्चनादिषु ।।६७९॥ देह-कर्मसु चेष्टन्ते, क्षपकस्य समाधिदाः । चत्वारो यतयो भक्त्या , परिचर्या-परायणाः ।।६८० ।। अर्थ - उपर्युक्त अड़तालीस मुनिजनों में जो चार मुनि क्षपक को समाधान देने में और भक्ति से उनकी सेवा करने में तत्पर रहते हैं, वे मुनि शरीर के एकदेश में हाथ फेरना, सर्वांग में हाथ फेरना, गमन कराना, खड़ा करना, सुला देना, करवट दिलाना, उल्टा सुलाना, हाथ-पैर फैलाना और सिकोड़ना इत्यादि शारीरिक कार्य करने में प्रयत्नशील रहते हैं ।।६७९-६८० ।। स्त्री-राज-मन्मथाहार-द्रव्य-देशादि-गोचराः। विमुच्य विकथाः सर्वाः, समाधान-निषूदनीः ॥६८१॥ अर्थ - चार मुनिराज समता भाव को नष्ट करनेवाली स्त्रीकथा, राजकथा, कामकथा, भोजन कथा तथा द्रव्य एवं देश आदि से सम्बद्ध अन्य सर्व विकथाओं को छोड़कर मात्र धर्म का उपदेश देते हैं ।।६८१॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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