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________________ मरणकण्डिका - ५९७ आत्मप्रदेश दक्षिण-उत्तर सात राजू चौड़े और उत्तराभिमुख स्थित जिनेन्द्र के आत्मप्रदेश जैसे लोकाकाश की पूर्व-पश्चिम चौड़ाई सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण है वैसे ही हानि - वृद्धिरूप फैलते हैं। तीसरे समय में वे आत्मप्रदेश प्रतराकार हो जाते हैं अर्थात् मोटाई में भी वातवलयों के अतिरिक्त समस्त लोक में फैल जाते हैं। इस प्रकार दण्डाकार में लम्बे, कपाटाकार में चौड़े और प्रतराकार में मोटाई रूप से आत्मप्रदेश फैलते हैं। चतुर्थ समय में वे आत्मप्रदेश वातवलयों तक फैल कर सर्व लोक को व्याप्त कर लेते हैं जिसे लोकपूरण कहते हैं। इसके अनन्तर ही इनका संकोच होता है अतः पाँचवें समय में पुनः प्रतराकार, छठे समय में कपाटाकार सातवें समय में दण्डाकार और आठवें समय में मूलशरीर प्रमाण हो जाते हैं। इस प्रकार समुद्घात में कुल आठ समय लगते हैं। प्रश्न - समुद्घात में कौन-कौन से योग होते हैं ? उत्तर - समुद्रघात में दण्डाकार के समय औदारिक काययोग, दूसरे कपाटाकार समय में औदारिक मिश्रयोग, तीसरे प्रतराकार, चौथे लोकपूरण तथा संकोच करते हुए पाँचवें समय के प्रतराकार में ऐसे तीन समयों में कार्मण काययोग होता है। संकोच रूप कपाटाकार में औदारिक मिश्र योग और दण्डाकार में औदारिक काययोग होता है। इस प्रकार विस्तार-संकोच दोनों दण्डाकारों के समय औदारिक काययोग, दोनों कपाटाकारों के समय औदारिक मिश्र काययोग तथा दोनों प्रतराकार और लोकपूरण के समय कार्मण काययोग होता है। सिद्धिवधू को प्राप्त करने का उद्यम वेद्यायुर्नाम - गोत्राणि, समानानि विधाय सः । प्राप्तुं सिद्धिवधूं धीरो, विधत्ते योग - रोधनम् ॥ २१९१ ।। - अर्थ इस प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति के बराबर करके सिद्धिवधू को प्राप्त करने के लिए वे धीर जिनेन्द्र योगों का निरोध करते हैं ।। २१९१ ॥ प्रश्न- पूर्व में ही कहा जा चुका है कि विवर्धमान चारित्रो, ज्ञान-दर्शन-भूषित: । शेषकर्म - विघाताय, योगरोधं करोति सः ॥। २१८३ ।। अर्थात् ज्ञान दर्शन के साथ वृद्धिंगत चारित्र वाले वे सयोगी जिन शेष कर्मों का नाश करने के लिए योगनिरोध करते हैं। उपर्युक्त श्लोक २१९१ में भी यही कहा गया है कि सिद्धिवधू की प्राप्ति के लिए वे सयोगी जिन योगनिरोध करते हैं। इन दोनों में क्या अन्तर है ? उत्तर - केवलज्ञान हो जाने के बाद सयोगी अरहन्त जिन देश देश में विहार करते हैं एवं दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश देते हैं जिसके लिए समोसरण की रचना होती है, इत्यादि बाह्य क्रिया रूप योगों के निरोध की सूचना श्लोक २१८३ में दी गई है। जैसे आदिनाथ भगवान ने चौदह दिन पूर्व, अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थंकरों ने एक मास पूर्व और महावीर भगवान ने दो दिन पूर्व योगनिरोध किया था। चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करने हेतु जो योगनिरोध होता है उसकी सूचना उपर्युक्त श्लोक २१९१ में दी गई है, इन दोनों में यही अन्तर है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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