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________________ मरणकण्डिका- ३१२ एक दिन अपनी प्राणप्रियाके कपोल पर तिलक रचना कर रहा था। इतने में आहारार्थ मुनिका आगमन हुआ । राजा रानीका श्रृंगार करना छोड़कर आहार देनेको चला गया। रानीको इससे क्रोध आया। उस पापिनीने बहुत अपशब्द गाली अपवाद आदिसे मुनिकी महान् निंदा की। सब सखी दास-दासियोंके समक्ष बहुत कुछ दुष्ट निंद्य वाक्य कहती ही रही। इससे मुनिनिंदारूप भयंकर पापसे उसके शरीरमें तत्काल गलित कुष्ठ हो गया। दुर्गंध आने लगी। राजा आहार देकर लौटता है और रानीकी दशा देखकर स्तंभित हो जाता है। उसको वैराग्य होता है। सर्व राज्यपाट छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करता है। रानी कुछ समय बाद मरकर दुर्गतिमें चली जाती है। इस प्रकार यौवनका जोश, रूपका गर्व करनेसे रानीकी दुर्दशा हुई । हन्तुमग्रे कृतो मूढो, दुर्निवारेण मृत्युना । सेवते विषयं वध्यः, पाणेनेव सुरादिकम् ।।१११३ ।। अर्थ - जैसे किसी अपराधी को मारने के लिए ले जाते समय भी वह मरने की चिन्ता न करके मस्ती से शराब पिये एवं पान खावे; वैसे ही मूढ़ मनुष्य मृत्यु निकट आ जाने पर भी उसको चिन्ता न करके विषयों का सेवन करता है ।। १११३ ॥ व्याघ्रेणाग्रे कृतो हन्तुं, बिले साऽजगरे गतः । छिद्यमाने दृढं लग्नो, मूले विविध मूषकैः ।। १११४ ।। अपश्यन्नग्रत्तो मृत्युं यथा कश्चन मूढ-धीः । पतन्मधुकणास्वादे, विधत्ते परमां रतिम् ॥ १११५ ।। मृत्यु - व्याघ्रेक्षितो दुःख - सर्पे जन्म- बिले गतः । लूयमानस्तथा मूढो, बहुभिर्विघ्न - मूषकैः ।। १११६ ।। आशा - मूले दृढं लो, विषयास्वादने रतिम् । महतीं कुरुते नाशमपश्यन्नग्रतः स्थितः ।। १११७ ॥ इति अध्रौव्यम् ॥ अर्थ - जैसे मारने हेतु पीछे लगे व्याघ्र के भय से भागता हुआ कोई मनुष्य ऐसे कुए में जा गिरा जिसमें अजगर रहता था। उस कुए की दीवाल के सहारे एक वृक्ष था। उस वृक्ष की जड़ को पकड़कर वह व्यक्ति लटक गया, उस जड़ को चूहे काट रहे थे, किन्तु उस वृक्ष पर मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा हुआ था और उसमें से टपकने वाली मधु की बूँद उसके होठों पर आ रही थी। ऐसी भयानक स्थिति में पड़ा हुआ वह मूढ़-बुद्धि आगे खड़ी मृत्यु को नहीं देखता अपितु उन टपकती हुई मधुबिन्दुओं के स्वाद में परम रति करता हुआ आसक्त हो जाता है। उसी महामूढ़ मनुष्य के सदृश मृत्युरूपी व्याघ्र से भयभीत प्राणी अनेक दुखरूपी सर्पों से भरे हुए संसार रूपी कूप में पड़ा हुआ है, और आशा रूपी वृक्ष की जड़ को दृढ़ता से पकड़े हुए है, किन्तु उस जड़ को विघ्न रूपी चूहे काट रहे हैं। इस भयानक स्थिति में भी वह महामूढ़ निर्लज्ज निर्भय होकर आगे खड़ी मृत्यु को न
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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