SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तर्ध्वनि भगवान जिनेन्द्र के मुखारविन्द से निःसृत दिव्यवाणी का ग्रन्थन गणधरदेव ने बारह अंगों में किया है। इनमें सर्वप्रथम अंग का नाम आचारांग है जिसका श्रुत अठारह हजार पद प्रमाण है । अनेकानेक आचार्यों की परम्परा से आगत यह अनुपम श्रुत अद्यावधि प्रवाहित है । ईसा की प्रथम शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र के शिष्य शिवकोटि आचार्य हुए हैं। आपने परम्परागत आगम के आधार पर मूलाराधना अपरनाम भगवती आराधना की रचना की, यह सोलापुर से प्रकाशित हुई है, जिसमें प्राकृत भाषा बद्ध २२७९ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में श्री अपराजित सूरि कृत एवं पण्डितप्रवर आशाधर जी कृत संस्कृत टीकाएँ तथा मूल गाथाओं की प्रतिच्छाया स्वरूप अमितगति आचार्य कृत संस्कृत श्लोक छपे हैं। इन श्लोकों की संख्या २२४० है । ये श्लोक मरणकण्डिका नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। मरणकण्डिका : सन् १९८९ के पूर्व तक तो यह ग्रन्थ पृथकरूपेण अप्रकाशित ही था और भगवती आराधना की प्रारम्भिक उन्नीस गाथाओं तक इसके उन्नीस श्लोक भी अनुपलब्ध थे। परमपूज्य अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी आचार्य श्री अजितसागर जी महाराज अनुपलब्ध एवं त्रुटित गाथाओं आदि को पूर्ण करने में सदा संलग्न रहते थे। आप पुराने शास्त्र भण्डारों के देखने में और उपयोगी सामग्री का संग्रह करने में अत्यधिक रुचि रखते थे। आप विहार करते हुए नागौर पहुँचे। वहाँ का शास्त्रभण्डार बहुत विशाल है, आपने कई दिनों तक शास्त्र भण्डार देखा, उसमें अमितगति आचार्य कृत मरणकण्डिका की एक पूर्ण प्रति प्राप्त हो गई। आपने वह पूरा ग्रन्थ अपनी कॉपी में लिख लिया । पूर्ण प्रति प्राप्त होते ही आपके मन में ग्रन्थ के अनुवाद की एवं उसके प्रकाशन की भावना उत्पन्न हो गई। परम पूज्य परम तपस्वी आचार्य शिवसागर जी महाराज की सुयोग्य एवं विदुषी शिष्या आर्यिकारत्न १०५ जिनमती माताजी संस्कृत की विदुषी थी अतः गुरुभाई आचार्य अजितसागरजी महाराज ने विदुषी आर्यिका माताजी को ग्रन्थ के अनुवाद की प्रेरणा दी, जिसे पूज्य माताजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और मात्र ढाई मास में पूरे ग्रन्थ का अनुवाद कर दिया, जिसका प्रकाशन सन् १९८९ में हो चुका है । परम पूज्य आचार्यरत्न अजितसागर जी महाराज से मैंने सन् १९९० में बारह वर्ष की सल्लेखना धारण की थी । समय समीप आता जा रहा था और मेरे निर्यापकाचार्य गुरु पूज्य आचार्य वर्धमानसागरजी दूर प्रदेश में अर्थात् जयपुर की ओर विराज रहे थे अतः मैंने अपनी सल्लेखना के मार्गदर्शन हेतु ग्रन्थ का स्वयं स्वाध्याय किया और प्रतिष्ठाचार्य श्री हँसमुख जी को भी स्वाध्याय कराया। पश्चात् प्रश्नोत्तर रूप में इसे लिखना प्रारम्भ कर दिया। इसके लेखन में मुझे मस्तिष्क का कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, क्योंकि संस्कृत श्लोक मूलाराधना से, अर्थ में अधिकाधिक सहयोग पूज्य १०५ आर्यिका जिनमती माताजी द्वारा अनूदित मरणकण्डिका से और प्रश्नोत्तर मरणकण्डिका एवं भगवती आराधना के विशेषार्थों का सहयोग लेकर लिखे हैं । इस प्रकार वि. सं. २०५८ वैशाख कृष्ण प्रतिपदा सोमवार, दिनांक ९.४.२००१ को प्रात:काल ग्रन्थलेखन पूर्ण हुआ ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy