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________________ परणकण्डिका - ५ चारित्र आराधना के साथ तप आराधना की प्रतिपत्ति का क्रम चारित्राराधने व्यक्त, भवत्याराधनं तपः। तपस्याराधने भाज्या, चारित्राराधना पुन: ।।९।। अर्थ - चारित्र की आराधना हो जाने पर तप की आराधना नियमत: होती है, किन्तु तप की आराधना होने पर चारित्र की आराधना भजनीय है अर्थात् होतो भी है और नहीं भी होती॥९॥ प्रश्न - यहाँ चारित्राराधना के साथ तप आराधना का अविनाभाव और तप आराधना के साथ चारित्र आराधना को भजनीय क्यों कहा गया है? उत्तर - कर्मग्रहण में कारणभूत अशुभ क्रियाओं के त्याग को चारित्र कहते हैं। छह प्रकार के बाह्य और छह प्रकार के अन्तरंग, बारह प्रकार के ये सम्यक् तप अशुभ क्रियाओं के निरोधक हैं क्योंकि ये सब अविरति, प्रमाद और कषाय के त्याग रूप हैं, अत: जहाँ चारित्र की आराधना है वहाँ तप आराधना अवश्य है, मात्र अनशन आदि तप अर्थात् उपवास आदि करने वालों के अशुभ क्रियाओं का निरोध होता भी है और नहीं भी होता, अतः इसे भजनीय कहा है। अव्रती का तप गुणकारी नहीं होता महागुणमवृत्तस्य, सद्वृष्टेरपि नो तपः । गज-स्नानमिवास्येदं, मन्थरज्जुरिवाथवा ॥१० ।। अर्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि का तप भी महा-उपकारी नहीं होता। उसका वह तप हाथी के स्नान सदृश या मथानी की रस्सी के सदृश होता है।१०।। प्रश्न - यहाँ दो दृष्टान्तों द्वारा क्या समझाया जा रहा है? उत्तर - यहाँ यह कहा जा रहा है कि - मिथ्यादृष्टि के तप की बात तो दूर, तत्त्वों की समीचीन श्रद्धा करने वाला भी यदि असंयमी है अर्थात् विषयभोगों में प्रवृत्त रहता है तो उसका तप भी मुक्ति के लिए अधिक उपकारी नहीं है। जैसे हाथी स्नान करके अपने गीले शरीर पर अपनी ही सूंड द्वारा धूल डाल कर बहुत अधिक नवीन मल का संचय कर लेता है, उसी प्रकार वह तप द्वारा जितनी निर्जरा करता है, असंयम द्वारा उससे अधिक कर्मबन्ध करता रहता है। दूसरे दृष्टान्त द्वारा यह दर्शाया गया है कि बन्ध सहित निर्जरा मोक्ष के लिए कार्यकारी नहीं है। छाछ बिलोते समय अर्थात् मथानी घुमाते समय जैसे एक ओर से रस्सी छूटती जाती है किन्तु साथ ही दूसरी ओर से उसी मथानी में लिपटतो भी जाती है, वैसे ही अविरत सम्यग्दृष्टि के तप द्वारा पुराने कर्म निजीर्ण होते जाते हैं और असंयम द्वारा नवीन कर्म बँधते जाते हैं। संक्षेप से आराधना के अन्य प्रकार आराधने चरित्रस्य, सर्वस्याराधनाऽथवा । शेषस्याराधना भाज्या, चारित्राराधना पुनः ॥११॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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