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________________ मरणकण्डिका - ४४३ * सुकौशल मुनिकी कथा * अयोध्या नगरीमें प्रजापाल राजा राज्य करते थे। उसी नगरमें सिद्धार्थ नामके सेठ अपनी सहदेवी आदि ३२ स्त्रियोंके साथ सुखसे रहते थे। बहुत समय व्यतीत हो जाने के बाद उनके सुकौशल नामका पुत्र हुआ, जिसका मुख देखते ही सिद्धार्थ सेठ मुनि हो गये। सुकौशलकुमार का भी ३२ कन्याओंसे विवाह हुआ, उनके साथ वे महाविभूतिका उपभोग करते हुए सुखसे जीवन यापन करने लगे। एक समय विहार करते हुए सिद्धार्थ मुनि भिक्षार्थ अयोध्या आये। “इन्हें देखकर मेरा पुत्र मुनि हो जायेगा" इस भयसे सेठानी ने उन्हें नगरसे बाहर निकलवा दिया। “जो एक दिन इस नगरंके स्वामी थे, उन्हींका आज इतना अनादर किया जा रहा है" यह सोचकर सुकौशलकी धायको बहुत दुःख हुआ और वह रोने लगी। सुकौशलने उसके रोनेका कारण पूछा। धायसे (अपने पिता) मुनिराजके अपमानकी बात सुनकर उन्हें दुःख हुआ और उसी समय उन्हीं मुनिराजके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा की बात सुनते ही सुकौशल की माँ अत्यन्त दुःखी हुई और पुत्रवियोगजन्य आर्तध्यानसे मरकर मगध देशके मौगिल नामक पर्वतपर व्याघ्री हुई। सिद्धार्थ और सुकौशल मुनिराज ने उसी पर्वत पर योग धारण किया था। योग समाप्त होनेपर भिक्षाके लिए पर्वतसे उतरते हुए युगल मुनिराजोंको व्याघ्रीने देखा और झपट कर अपने ही पुत्र सुकौशल मुनिको खाने लगी। मुनिराजने उपसर्ग प्राप्त होनेपर समाधि द्वारा प्राण त्यागे और साथींसद्धिर्भ गये। धरण्यामा-चर्मेव, किल-कीलित-विग्रहः । प्रापद्-गजकुमारोऽपि, स्वार्थ निर्मल-मानसः॥१६२१।। अर्थ - पृथ्वी के साथ गीले चमड़े के सदृश शरीर में कीलें ठोक कर एकमेक कर देने पर भी निर्मल परिणाम वाले महामुनि गजकुमार उत्तमार्थ को प्राम हुए। अर्थात् अन्तःकृत केवली हुए ॥१६२१ ।। * गजकुमार मुनि की कथा * श्रीकृष्ण नारायणके सुपुत्र गजकुमार अति सुकुमार थे। वे अपने पिता आदि के साथ धर्मोपदेश सुननेके लिए भगवान नेमिनाथके समोशरणमें जा रहे थे। मार्गमें एक ब्राह्मण की नव-यौवना, सर्वगुणसम्पन्ना, सुलक्षणा और सौन्दर्यमूर्ति पुत्रीको देखकर श्रीकृष्ण ने उसे उसके पितासे गजकुमारके लिए मंगनी कर ली और उसे अन्तःपुरमें भिजवा दिया। भगवान का उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण तो सपरिवार द्वारका लौट आये परन्तु गजकुमार नहीं लौटे और जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके किसी एकान्त स्थानमें ध्यानारूढ़ हो गये। जिस लड़की का संबंध गजकुमार से हुआ था उसका पिता जंगलसे काष्ठ-भार लेकर लौट रहा था, उसकी दृष्टि जैसे ही गजकुमार पर पड़ी, वह आगबबूला हो उठा और बोला - "अरे दुष्ट ! मेरी अत्यन्त प्रिय सुकुमारी पुत्रीको विधवा बनाकर तू साधु बन गया है, मैं देखता हूँ तेरी साधुता को।" ऐसा कहकर उस दुष्ट ने मुनिराज के शरीरमें कीलें ठीक दी। उस घोर वेदना को सहनकर गजकुमार महामुनि अंतकृत केवली हुए। कास-शोषाधिश्च्छर्दि-कच्छु-प्रभृति-वेदनाः। सोदाः सनत्कुमारण, यतिना शरदां शतम् ॥१६२२ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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