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मरणकण्डिका -४४२
स्वारोपित-भराः केचिनिःसङ्गा निःप्रतिक्रियाः।
गिरि-प्राग्भारमापन्नाश्चित्र-श्वापद-सङ्कटम् ॥१६१७॥ अर्थ - कितने ही महापुरुष समस्त परिग्रह का त्याग कर और अपने आत्मा को आत्मा में ही आरोपित कर, आगत विपत्तियों के प्रतिकार से रहित हो, हिंस्रश्वापद आदि पशुओं से भरे हुए पर्वतों की गुफाओं में जाकर रत्नत्रय की सिद्धि करते हैं।।१६१७ ।। ।
राधान्त-सचिवा: सारा, सन्तुष्टाः गुला-मुत्तमः ।
साधयन्ति स्थिताः स्वार्थं, व्याल-दन्तान्तरेष्वपि ॥१६१८ ।। अर्थ - जो सिद्धान्तग्रन्थों में कुशल हैं अर्थात् श्रुत के पारगामी हैं, संतोष-भाक्युक्त हैं एवं अत्यन्त शुद्ध चारित्रधारी हैं, ऐसे सन्त पुरुष क्रूर सिंहादि पशुओं की दाढ़ों के मध्य जाकर भी उत्तमार्थ रत्नत्रय-रूप अपने स्वार्थ को सिद्ध कर लेते हैं ॥१६१८ ॥
धीरोऽवन्तिकुमारोऽगात्रिरात्रं शुद्ध-मानसः।
शृगाल्या खाद्यमानोऽपि, देवीमाराधनां प्रति ।।१६१९ ॥ अर्थ - अहो क्षपक ! देखो ! अत्यन्त धीर एवं शुद्धमानस अर्थात् शुद्धचारित्र के धारी अवन्ति सुकुमार महामुनि तीन रात्रि पर्यन्त शृगाली द्वारा खाये जाने पर भी आराधना देवी अर्थात् रत्नत्रय की आराधना को प्राप्त हुए॥१६१९ ॥
* सुकुमाल मुनिकी कथा * अवन्ति देश के उज्जैन नगरमें रहने वाले सुरेन्द्रदत्त सेठ और यशोभद्रा सेठानी के एक सुकुमाल नामका पुत्र था, जो इतना सुकुमार था कि उसको आसन पर पड़े हुए राई के दाने भी चुभते थे। दीपक की लौ भी वे देख नहीं सकते थे और अतुल वैभव के बीच स्वर्गापम भोगोंको भोगते हुए सुखपूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे थे। एक दिन आपके मामा यशोभद्र मुनिराज त्रिलोकप्रज्ञप्ति का पाठ कर रहे थे, उसे सुनकर इन्हें जातिस्मरण हो गया। उसी समय महल से निकलकर मुनिराज के पास जाकर दीक्षित हो गये। अपनी आयु मात्र तीन दिन की जानकर सुकुमाल मुनि जंगलमें चले गये और वहाँ प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। उसी समय पूर्व-भवके वैर संस्कारके वशीभूत होती हुई एक स्यालनी बच्चों सहित आई और उनके शरीरको खाना शुरू कर दिया तथा तीन दिन तक निरन्तर खाती रही। इस भयंकर उपसर्गके आ जाने पर भी सुकुमाल मुनि सुमेरु सदृश निश्चल रहे और अपनी चारों आराधनाओं के अवलम्बन से समतापूर्वक शरीर त्याग कर अच्युत-स्वर्ग में महर्धिक देव हुए।
शिश्रायाराधनां देवीं, मुद्गलाद्रौ सुकोशलः।
भक्ष्यमाणो मुनिर्व्याघ्रया, सैद्धार्थिरविषण्णा-धीः ॥१६२०॥ अर्थ - मुद्गल नामक पर्वत पर सिद्धार्थ राजा के पुत्र निर्मल बुद्धिधारी सुकौशल महामुनि (पूर्व जन्म की माता) व्याघ्री द्वारा खाये जाने पर भी आराधनादेवी को अर्थात् उत्तमार्थ को प्राप्त हुए ।।१६२०॥