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________________ मरणकण्डिका - ११९ मूत्र आदि निक्षेपण करने की क्रियाएँ उन्हें करनी पड़ती हैं वे सब प्राणी रक्षण पूर्वक करते हैं तथा सत्कार और लाभ आदि की अपेक्षाओं से पराङ्मुख हो अपने मन को समता भावों में निश्चल रखते हैं। निरपेक्षस्वभावी वे मुनिराज धन्य हैं। ऐसे हों यतिराज अपनी आत्मा स संसर्गित कर्मरज की तपश्चरणरूपी समीरण अर्थात् महावायु से उड़ा देते हैं। जिन यतियों की वैयावृत्य कर रहे हैं उनके महान् गुणों में वैयावृत्त्य करनेवाले का जो दृढ़ अनुराग उत्पन्न होता है उसे ही गुणपरिणाम कहते हैं । अभिप्राय यह है कि इन मुनिराज में जितेन्द्रियता, रत्नत्रय में एकाग्रता, समितियों का पालन, पूजा-सत्कारादि से निरपेक्षता और कर्मनाश करने में समर्थ ऐसे तप में तल्लीनता या तत्परता आदि महान् गुण हैं, यदि मैं दत्तचित्त हो इनकी सेवा नहीं करूंगा तो इनके ये महनीय गुण नष्ट हो जावेंगे ऐसा विचार गुणों में होने वाले अनुराग को प्रगट करता है। इस प्रकार जिनका वैयावृत्य किया जाता है, वे यति उन गुणों से च्युत नहीं हो पाते और वैयावृत्य करनेवाले स्वयं उन महनीय गुणों से सुवासित हो जाते हैं अतः स्वपर के उपकार हेतु ही जिनेन्द्रदेव ने वैयावृत्य करके गुणपरिणामरूपी गुण को प्राप्त करने की आज्ञा दी है। २. श्रद्धा गुण यथा-यथाऽनिशं साधोवर्धते गुणवासना । जिनेश-शासने श्रद्धा, परोदेति तथा-तथा॥३१८॥ अर्थ - जैसे-जैसे अहर्निश साधु की गुणवासना वृद्धिंगत होती है, वैसे-वैसे ही जिनेन्द्रदेव के शासन में उत्कृष्ट श्रद्धा वृद्धिंगत होती जाती है ।।३१८॥ प्रश्न - यह श्रद्धा कैसे बढ़ती है और इसकी वृद्धि से क्या लाभ है? उत्तर - वैयावृत्त्य करते समय उन मुनिराज के गुणों का जैसे-जैसे स्मरण होता है अर्थात् स्मरण द्वारा उनके गुणों में बहुमान आता है वैसे-वैसे ही उन गुणों में रुचि वृद्धिंगत होती है। उस समय वह प्रफुल्लित होते हुए सोचता है कि-अहो ! यह जिनशासन महान है जिसने हमें ऐसे गुणज्ञ-तपस्वियों की वैयावृत्य करने की आज्ञा प्रदान कर इन गुणों से सुवासित होने का मार्ग दर्शाया । यह श्रद्धा यतियों को रत्नत्रय में दृढ़ करती है और संसार से भय उत्पन्न कराती है। ३. श्रद्धा वृद्धि से वात्सल्य गुण की उत्पत्ति विना गुणपरीणामं, वैयावृत्यं करोति नो । यतस्ततो मुमुक्षूणां, वैयावृत्यं व्यनक्ति सः॥३१९॥ प्रवृद्ध-धर्म-संवेगः, श्रद्धया वर्धमानया। यतिः करोति वात्सल्यं, लोकव्य-सुखप्रदम् ।।३२०॥ अर्थ - गुणपरिणाम से ही वैयावृत्त्य व्यक्त अर्थात् प्रकट होता है, क्योंकि गुणपरिणाम के बिना मुमुक्षुओं की वैयावृत्त्य कोई नहीं कर सकता॥३१९ ।। श्रद्धागुण की वृद्धि से संवेग भाव रूपी धर्म वृद्धिंगत होता है, ऐसे वृद्धिंगत भाववाला साधु इस लोक और परलोक में सुख देनेवाले वात्सल्य भाव को करता है ।।३२० ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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