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________________ मरणकण्डिका - १७७ अक्षमाभाववाला आचार्य क्षपक पर क्षमाभाव नहीं रख पायेगा । तेजस्विता के अभाव में आचार्य क्षपक पर अपने वचनों का प्रभाव ही नहीं डाल पायेगा, तब भूखप्यास से पीड़ित क्षपक असमाधि कर दुर्गति का पात्र बन जायेगा, अतः निर्यापकाचार्य को शान्तपरिणामी, निरभिमानी, क्षमाशील, धैर्यशाली और तेजस्वी होना चाहिए । बहुप्रकार पूर्वाङ्ग - श्रुत- रत्नकरण्डकः । सर्वानुयोग - निष्णातो, वक्ता कर्ता महामतिः ॥ ५२१ ॥ अर्थ - जैसे पिटारे में रत्न भरे रहते हैं, वैसे ही जो आचार्य बहुत प्रकार के अंग और पूर्व रूप रत्नों के खजाने हैं, सर्व अनुयोगों में निपुण हैं, वक्ता हैं, कर्ता हैं और महाबुद्धिशाली हैं वे ही कलुषचित्त क्षपक को शान्त कर सकते हैं ॥ ५२१ ॥ प्रश्न आचार्य के इन विशेषणों का विशेष अर्थ क्या है ? उत्तर- श्रुतज्ञान के अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य नामक दो भेद हैं। अंग प्रविष्ट के आचारांग आदि बारह भेद हैं। अंग बाह्य के भी बहुत भेद हैं। जैसे -सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक इत्यादि । आचार्यदेव सर्वश्रुत के अथवा समयानुसार जितना श्रुत उपलब्ध होता है उसके ज्ञाता होते हैं, अत: उन्हें श्रुत का पिटारा कहा गया है। - सर्वानुयोग निष्णात जो-जो वस्तुविषय प्रस्तुत हैं, उस उस विषय में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व आदि अनुयोगों की योजना करने में जो आचार्य कुशल होते हैं, वे आचार्य ही क्षपक की अशान्ति का शमन कर सकते हैं। - - वे आचार्य वक्तृत्व कला में अर्थात् व्याख्यान करने में कुशल होते हैं। वक्ता कर्ता - जो विधिपूर्वक सम्पूर्ण विनय एवं वैयावृत्य करने में निष्णात होते हैं और प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों में अत्यन्त कुशल होते हैं। वे ही कुपित शिष्य को शान्त कर पाते हैं। कथानां कथने दक्षो, हेयादेय-विशारदः । क्रुद्धं शास्ति यतिर्धीरः, प्रकृत- प्रतिपादकः ॥ ५२२ ॥ अर्थ - आराधना एवं वैराग्य वर्धक कथाएँ कहने में दक्ष, हेय और उपादेय का भली प्रकार विवेचन करने में निपुण तथा प्रकृत अर्थात् समाधि के विषय का प्रतिपादन करने में प्रयत्नशील धीर नियपिकाचार्य ही कुपित हुए क्षपक को शान्त एवं प्रसन्न कर सकते हैं ॥ ५२२ ॥ गम्भीरां मधुरां श्रव्यां, शिष्य-चित्त-प्रसादिनीम् । सुखकारी ददात्यस्मै, स्मृत्यानयनकारिणीम् ॥५२३ ।। अर्थ - वे निर्यापक अर्थ की प्रगाढ़ता होने से गम्भीर, कठोराक्षर न होने से मधुर, प्रिय वचनों की
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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