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मरणकण्डिका - २२५
अर्थ - कुटिला नारियाँ सुखरूपी लकड़ियों को जलाने के लिए अग्नि सदृश हैं, दुख रूपी जल के ठहरने का स्थल हैं, व्रतरूपी रत्नों के नाश का कारण हैं और सर्व अनर्थों का घर हैं ।।१०२२ ।।
असत्यानां गृहं योषा, वञ्चनानां वसुन्धरा ।
कुठारी धर्म-वृक्षाणां, सिद्धि-सौध-महार्गला ॥१०२३।। अर्थ - स्त्री असत्य भाषणों का घर है, ठगाई या मायाचारी की भूमि है, धर्मरूपी वृक्षों को काटने के लिए कुठारी है और मोक्षमहल की महा अर्गल है।।१०२३ ।।
दोषाणामालयो रामा, मीनानामिव वाहिनी।
गुणानां नाशिका माया, व्रतानामिव जायते ॥१०२४॥ __ अर्थ - जैसे मछलियों के रहने का स्थान नदी है, वैसे ही दोर्षों का स्थान नारी है। जैसे छल-कपट रूप माया व्रता को नष्ट करने वाली है, वैसे ही गुणों को नष्ट करने वाली स्त्री है॥१०२४ ।।
बंधने महिला पाशः, खड्गः पुंसां निकर्तने ।
छेदने निशित: कुन्तः, पङ्कोऽगाथो निमज्जने।।१०२५ ॥ अर्थ - यह नारी पुरुषादि को बाँधने के लिए पाश अर्थात् जाल के सदृश, उन्हें काटने के लिए तलवार सदृश, छेदने के लिए पैने भाला सदृश और उन्हें डूबने के लिए अगाध कीचड़ के सदृश है॥१०२५।।
नराणां भेदने शूलं, वहने नग-वाहिनी।
मारणे दारुणो मृत्युर्मलिनी-करणे मषी ॥१०२६ ॥ अर्थ - यह नारी पुरुषों को छेदन करने के लिए शूल सदृश, बहा कर ले जाने के लिए पर्वतीय नदी सदृश, मारने के लिए दारुण मृत्यु सदृश एवं मलिन करने के लिए स्याही सदृश है ।।१०२६॥
अनलो दहने पुंसां, मुद्गरश्चूर्णने परः।
ज्वलन्ती पवने कण्डू:, करपत्रं विपाटने ॥१०२७ ।। अर्थ - नारी पुरुषों को जलाने के लिए मानों अग्नि ही है, चूर्ण कराने में मुद्गर समान है, वासना रूप अग्नि को वृद्धिंगत करने के लिए पवन है और पुरुष का हृदय विदारण करने के लिए कर्रोत है॥१०२७॥
उष्णश्चन्द्रो रविः शीतो, जायते गगनं घनम् ।
नादोषा प्रायशो रामा, कुलपुत्र्यपि जातु चित् ॥१०२८॥ अर्थ - कदाचित् चन्द्रमा उष्ण हो सकता है, सूर्य शीतल हो सकता है, गगन घनीभूत हो सकता है, किन्तु कुलवन्ती स्त्रियाँ भी प्रायः दोषरहित नहीं देखी जाती हैं।।१०२८ ।।
सर्पिणीव कुटिला विभीषणा, वैरिणीव बहु-दोषकारिणी। मण्डलीव मलिना नितम्बिनी, चाटुकर्म वितनोति यच्छतम् ।।१०२९॥