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________________ हैं तो वे पुन: अनंत संसारी होते हैं। इसलिए मरण तक चारों आराधनाओं को निरतिचार ले जाने, पालन करने और निभाने के लिए आराधक मुनिराजों को सदा ही आराधनाओं के सहायभूत परिकर में प्रयत्नशील रहना चाहिए, जिससे साधक मरणसमय रत्नत्रय धर्म से च्युत न होवें। प्रथम अधिकार में प्रधानभूत पाँच मरणों का विस्तृत विवेचन है एवं उनके स्वामियों का कथन है। चार आराधनाओं के अन्तर्गत दर्शन आराधना का विशेष महत्त्व श्लोक ४२ में कहा है कि तत्त्वार्थ के प्रतिपादक अक्षर-समुदाय में से एक अक्षर का भी यदि अश्रद्धान किया जाता है तो वह व्यक्ति निश्चय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है भले ही उस शेष सारे अक्षरों का श्रद्धान हो। तृतीय अधिकार में पंडितमरण के प्रथम भेद भक्तप्रत्याख्यान मरण का ४० सूत्राधिकारों में विस्तृत वर्णन किया गया है। भावना नामक अधिकार में भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाले मुनिजन पाँच प्रकार की खोटी भावनाओं का त्याग कर तपोभावना, ज्ञानभावना, सत्त्वभावना, एकत्व भावना और धृतिभावना भाते हैं। तपोभावना के भाने से मरणकाल में परी एवं धादि वेदना सहने में होते हैं। माना अर्थात् भली प्रकार शास्त्रज्ञान में लगे रहने से ज्ञान सदा जाग्रत रहता है। मरणकाल में शास्त्राभ्यासी साधु की स्मृति का नाश नहीं होता है। सत्त्वभावना के बल से उपसर्ग आदि आने पर विचलित नहीं होते हैं। एकत्व भावना से काम, भोग, संघ और शरीर से निस्पृह होते हैं एवं धृतिभावना से परीषह आदि पर विजय पाते हैं। सल्लेखनादि चौथे अधिकार में कषायों को आत्मभावना द्वारा कम करना कषाय या अभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को अनशनादि द्वारा कृश करना काय या बाह्य सल्लेखना कहा है। क्षमण नामक अधिकार में वैयावृत्य को इतना महत्त्वपूर्ण बताया है कि जिसने वैयावृत्य किया उसने विशुद्ध चित्त से सभी तीर्थंकर, सभी सिद्ध एवं साधु परमेष्ठी की अर्चना की, ऐसा समझना चाहिए। पाँच प्रकार के पार्श्वस्थ मुनियों की संगति त्याज्य बताकर कहा है कि लाखों पार्श्वस्थ मुनियों की अपेक्षा एक ही संयमी मुनि श्रेष्ठ है। सुस्थितादि पाँचवें अधिकार में आचार्य के ४ गुणों का वर्णन है। शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्त का जो निर्यापक मर्मज्ञ नहीं है वह क्षपक की लोकपूजित चार आराधनाओं को नष्ट कर देता है। निर्यापक क्षपक को प्रतिसमय श्रुतरूपी पान और हितकारी शिक्षा देते हैं। पैर से ताड़ित करके भी क्षपक के दोषों को निकलवाते हैं। आलोचना अधिकार में निर्यापक क्षपक को संबोधित करते हैं कि हे साधो! राग-द्वेष, कषाय, मोह, इन्द्रियविषय, संज्ञा से रहित होकर, ऋद्धि-रस-सात गारव को छोड़कर एवं द्रव्य-भाव शल्य रहित होकर जो अपने दोषों की आलोचना करते हैं वे ही परम सुख को प्राप्त होते हैं। अनुशिष्टि नामक सातवें महाधिकार में निर्यापक सर्वप्रथम क्षपक को मिथ्यात्व का वमन कराके सम्यक्त्व में दृढ़ करते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र का
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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