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________________ मरणकपिडका - ४६७ दयालोः सर्व-जीवानामौषधेन व्यथा-शमम्। प्रार्थनाप्नेन किं साधोः, प्रासुकेन करिष्यति ।।१६९५ ॥ अर्थ - जो राजा आदि असंयमी हैं, बहुत कुटुम्बादि परिचारकों से युक्त हैं, प्रचुर सम्पत्तिवान् हैं एवं धन्वन्तरि जैसे वैद्य जिनके उपचारक हैं, तीव्र कर्मोदय के कारण जब उनके रोगों का या पीड़ा का भी शमन करने में कोई समर्थ नहीं है, तब जो निर्यापकाचार्य सब जीवों पर दया करने वाले हैं अर्थात् संयमी हैं वे याचना से प्राप्त प्रासुक औषधियों द्वारा क्षपक की वेदना का शमन कैसे कर सकेंगे ? ॥१६९४-१६९५ ।। प्रश्न - यहाँ राजा आदि का दृष्टान्त क्यों दिया गया है ? उत्तर - रोग की अत्यन्त पीड़ा से आकुलित कोई क्षपक ऐसा विचार करे कि इस समय यदि मैं राजा या मन्त्री होता और असंयमी होता तो इतना कष्ट न भोगना पड़ता, मैं धन्वन्तरि आदि उत्तम वैद्यों की जिस किसी प्रकार की भी औषधियों का प्रयोग करके ठीक हो जाता । उसे आचार्यदेव समझा रहे हैं कि राजा आदि अतिशय धनवान होते हैं, मन्त्री एवं राजकुमार आदि उनके पुत्र शुश्रूषा करने में सदा तत्पर रहते हैं, धन्वन्तरि जैसे उत्तम वैद्य उनके रोग का निदान करते हैं, अति बहुमूल्य औषधियों का प्रयोग करने में समर्थ हैं एवं संयम या प्रासुकता की सीमा से बहुत दूर हैं। अर्थात् असंयमवर्धक अप्रासुक औषधियों का भी प्रयोग कर लेते हैं तथा जो दिन में कई बार औषधि ले रहे हैं; जब पापकर्म की प्रबलता के कारण उनकी वेदना का भी शमन नहीं हो पाता है तब जो दयालु हैं, सर्व परिग्रह के त्यागी हैं, वैद्य आदि की खोज में कहीं जा-आ नहीं सकते है, उपचारक भी अल्प से अल्प हैं और जो भी हैं वे सब भी संयम-रक्षण की डोर से बंधे हैं, अप्रासुक औषधि के त्यागी हैं तथा औषधियाँ प्राप्त करने में असमर्थ हैं और औषधि भी दिन में एक बार से अधिक नहीं दे सकते हैं वे निर्यापकाचार्य पापोदय से प्रेरित तुम्हारी तीव्र वेदना का तत्काल शमन करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? संयतस्य वरं साधोर्मरणं मोक्ष-कांक्षिणः। वेदनोपशमं कर्तुं, नाप्रासुक-निषेवणम् ॥१६९६ ॥ __ अर्थ - हे क्षपक ! मोक्ष के इच्छुक संयमी साधु का मरण हो जाना श्रेष्ठ है, किन्तु वेदना की शान्ति के लिए अप्रासुक एवं अयोग्य औषधि का सेवन करना योग्य नहीं है ।।१६९६ ।। एकत्र निधनं नाशो, न तु भाविषु जन्मसु। असंयमः पुनर्नाशं, दत्ते बहुषु जन्मसु॥१६९७ ।। अर्थ - प्रासुक औषधि के अभाव में संयम की रक्षा करते हुए यदि मरण होता है तो उससे एक ही भव का विनाश है, भावी जन्मों का नाश नहीं है, किन्तु अप्राप्सुक औषधि अथवा पीडाजन्य शोकादि से प्राप्त असंयम तो भविष्य के अनेक जन्मों का नाश कर देता है॥१६९७॥ प्रश्न - प्रासुक औषधि प्राप्त न हो रही हो अथवा औषधि एवं उपचार का प्रयोग करते हुए भी यदि पीड़ा शमित न हो रही हो तो पीड़ित साधु को क्या करना चाहिए ? उत्तर - असह्य पीड़ा होने पर भी साधु को शोक या व्याकुलता नहीं करना चाहिए; क्योंकि दुख, शोक,
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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