SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ४०० अर्थ - अन्तरंग मल की विशुद्धि के लिए बाह्य क्रियाशुद्धि मानी जाती है क्योंकि चावल के तुषादि बाह्यमल के क्षय होने पर ही उसकी लालिमादि अन्तरंग मल की विशुद्धि होना सम्भव है ।।१४१५ ।। प्रश्न - बाह्य तप भी अपना फल देता है तब उसे गौण क्यों किया जा रहा है ? उत्तर - "जो जिसके लिए होता है वही प्रधान होता है" इस नीत्यनुसार अभ्यन्तर तप प्रधान है। जैसे चावल का तुषादि बाह्य मल निकालने के बाद ही उसका लालिमादि अन्तरंग मल शुद्ध किया जा सकता है वैसे ही शीघ्र ही बहुत सारे कर्मों की निर्जरा करने की क्षमता वाले अभ्यन्तर तप की वृद्धि के लिए अनशनादि बाह्य तप किये जाते हैं, फिर भी जैसे चावल का बाह्य तुष पहले निकाला जाता है पश्चात् अभ्यन्तर की लालिमा निकलती है, उसी प्रकार सर्वप्रथम बाह्य-क्रियाशुद्धि होती है, पश्चात् अन्तरंग शुद्धि होती है। यदि अन्तरंग शुद्धि नहीं हुई तो बाह्य क्रियाशुद्धि व्यर्थ है। अन्त: शुद्धौ बहिः शुद्धिनिश्चिता जायते यतः। बाां हि कुरुते दोषमन्तर्दोष विना कुत्तः ॥१४१६ ।। __ अर्थ - अन्तरंग शुद्धि होने पर नियमतः बाह्य शुद्धि होती है, क्योंकि इन्द्रियकषायादि परिणामरूप अभ्यन्तर दोर्षों के बिना साधु असत्य भाषणादि बाह्य दोष कहाँ से करेगा ? नहीं करेगा, अतः अन्तरंग परिणाम निर्मल बनाये रखने का पुरुषार्थ सतत करते रहना चाहिए ।।१४१६॥ बहिः शुद्धिर्यतो लिङ्गमन्तः शुद्धेः प्रजायते। नान्त: कोप-विमुक्तेन, भृकुटि: क्रियते बहिः ॥१४१७ ।। अर्थ - जो अन्तरंग में क्रोधादि कषायों से रहित है वह पुरुष बाह्य में भौंहादि टेढ़ी नहीं करता, इमा सिद्ध होता है कि अनशनादि तप विषयक बाह्य शुद्धि अभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि का चिह्न है ।।१४१८ । प्रश्न - बाह्य एवं अन्तरंग शुद्धि में क्या सम्बन्ध है ? उत्तर - जैसे आग होने पर ही धूम्र होता है वैसे ही बाह्य शुद्धि, अभ्यन्तर शुद्धि पर अवलम्बित है। जैसे धूम्र लिंग है और अग्नि लिंगी है, वैसे ही साधु की बाह्य शुद्धि लिंग है और अभ्यन्तर शुद्धि लिंगी है। इन दोनों शुद्धियों में जैसे लिंग-लिंगी सम्बन्ध है, वैसे ही अविनाभाव सम्बन्ध भी है। प्रश्न - अविनाभाव सम्बन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसके होने पर जो होता ही है उसे अविनाभाव सम्बन्ध कहते हैं। जैसे जहाँ धूम्र होता है, वहाँ अग्नि अवश्य होती है, वैसे ही जिन साधुओं की अभ्यन्तर शुद्धि होती है उनकी बाह्य शुद्धि अवश्यंभावी है, होती ही है। यन्त्र प्रयान्ति स्थिति-जन्म-वृद्धीस्तद्दाते यैहृदयं कषायैः । काष्ठं हुताशैरिवतीव्र-तापैस्ते कस्य कुर्वन्ति न दुःखमुग्रम् ॥१४१८॥ अर्थ - जैसे तीव्र ताप युक्त अग्नि के द्वारा काष्ठ सन्तप्त किया जाता है, अर्थात् जलाया जाता है वैसे ही जिन कषायों के द्वारा हृदय संतप्त किये जाते हैं और जहाँ अर्थात् जिनसे संसार की स्थिति एवं जन्म की वृद्धि होती है, वे कषायें किसको भयंकर दुख नहीं देती ? सभी को दुख देती हैं ।।१४१८॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy