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________________ मरणकण्डिका - ४२३ शरीर का भार उतारने के लिए, अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए, मोक्ष एवं स्वर्गादि सुख प्राप्त करने के लिए एवं कर्मरूपी विषवृक्ष को उखाड़ने के लिए मैं दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना एवं तप आराधना में प्रीति करता हूँ। अहो ! आज मैं ऐसी अपूर्व आराधनाओं की आराधना करने में उद्यमशील हूँ जिसे मैंने कभी अनन्तभवों में भी प्राप्त नहीं किया है। आज मैं धन्य हूँ, पुण्य स्वरूप हूँ इत्यादि। इस प्रकार चारों आराधनाओं में एवं रत्नत्रय में प्रीतिरूप भावना की जाग्रति से निद्रा भाग जाती है। शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक एवं स्वाभाविक ऐसे चार प्रकार के महाभयंकर दुख इस परिभ्रमणरूप संसार में मैंने अनन्त बार भोगे हैं, मैं इन दुखों से अब अत्यधिक भयभीत हूँ। यदि इन उत्तम आराधनाओं से मैं च्युत होता हूँ तो मुझे भविष्य में पुन: ऐसे ही दुख भोगने पड़ेंगे, इस विचार से मेरा हृदय कम्पित हो रहा है एवं भय के कारण मेरे शरीर में कम्पन आ रहा है। इस प्रकार भयातुर परिणामों के चिन्तन से भी निद्रा नहीं आती है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, मिथ्यात्व, कषाय एवं अशुभ मन, वचन एवं काय ये सब नाना प्रकार के कर्मानव के मूल हैं और चार प्रकार के बन्ध में निमित्त हैं। मैं अभागा निरन्तर इन्हीं पापों में लिप्त रहा। क्योंकि हिताहित के विचार में मूढबुद्धि होने से, या सन्मार्ग का उपदेश देने वालों की प्राप्ति न होने से, या प्रबल ज्ञानावरण कर्म का उदय होने से, या उनके द्वारा कहे गये अर्थ एवं तत्त्व को न जान सकने के कारण, या जान लेने पर भी श्रद्धा न बन पाने के कारण तथा चारित्र मोहनीय कर्म की वशवर्तिता के कारण सन्मार्ग में प्रवृत्ति न कर पाने के कारण मैं भयानक दुख समुद्र में डूबा रहा। इस प्रकार के चिन्तन से चित्त उद्विग्न हो जाता है और उद्विग्न चित्त वाले को निद्रा नहीं आती। व्यवहार में भी यही देखा जाता है कि जब कोई विवाहादि का प्रीतिजन्य कार्य घर में उपस्थित हो जाता है तब निद्रा नहीं आती, घर में सर्पादि का भय हो जाने पर निद्रा नहीं आती और इष्टवियोग या इष्ट वस्तु के मष्ट हो जाने पर शोकाकुल मनुष्य को या उद्विग्न चित्त वाले को निद्रा नहीं आती। सदैवमुपयुक्तेन, निद्रां निर्जयता त्वया। ... न ध्यानेन विना स्थेयं, पवित्रेण कदाचन ।।१५२० ।। ___ अर्थ - हे क्षपक ! तुम निद्रा पर विजय प्राप्त करने में सदा उद्यमशील रहो । देखो ! पवित्र या शुभ ध्यान के बिना कदाचित् भी चित्त में स्थिरता नहीं आ सकती है अत: ध्यान बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए ||१५२०॥ न दोषाननपाकृत्य, स्वप्तुं जन्मनि युज्यते। अनर्थकारिणो रौद्रान्, पन्नगानिव मन्दिरे॥१५२१ ।। अर्थ - जिस घर । अनर्थकारी एवं क्रूर सर्प घुस गया हो उस घर में जैसे सोना शक्य नहीं है, वैसे ही इस जन्म में अथवा साधु पर्याय में मिथ्यात्वादि दोषों को दूर किये बिना सोना उचित नहीं है ।।१५२१ ।। संसारे युज्यते स्वप्नु, कस्य दोषैः प्रदीपिते । महाताप-करै हे, पावकैरिव भीषणे ॥१५२२ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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