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________________ मरणकण्डिका - ६०१ उत्तर - पूर्व में श्लोक २१९६-२१९७ में कथित ही तेरह प्रकृतियाँ हैं। यथा-साता-असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र, बादर और तीर्थकर ये तेरह प्रकृतियाँ है। प्रश्न - मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय तो विग्रह गति में आता है और चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में उदयागत-प्रकृतियाँ ही नष्ट होती हैं तब मनुष्यगत्यानुपूर्वी का यहाँ नष्ट होना अर्थात् तेरह प्रकृतियों का यहाँ नष्ट होना कैसे सम्भव है? उत्तर - मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय मात्र विग्रहगति में ही होता है यह सत्य है, किन्तु मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति का बन्ध मनुष्यगति के साथ ही होता है, क्योंकि बन्ध की अपेक्षा इन दोनों प्रकृतियों में अविनाभावी सम्बन्ध है । इन आचार्यदेत की दृष्टि नभ दे इस अतिनाभानी सम्बन्ध पर रही है अत: इन्होंने चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में बहत्तर का और चरम समय में उपर्युक्त तेरह प्रकृतियों का नाश स्वीकार किया है। प्रश्न - कुछ आचार्यों ने चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में तिहत्तर और चरम समय में बारह प्रकृतियों का नाश होना स्वीकार किया है, इसमें क्या कारण है ? उत्तर - सयोग केवली भगवान् के पिच्चासी प्रकृतियों की सत्ता रहती है जो अयोगकेवली अर्थात् चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय तक यथावत् पाई जाती है। इनमें से मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति सहित अनुदय रूप तिहत्तर प्रकृतियों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम में और उदयरूप बारह प्रकृतियों का क्षय चरम समय में स्वीकार किया है, इसका कारण यह है कि चौदहवें गुणस्थान में मनुष्यगति प्रकृति का स्वमुख उदय रहता है और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का परमुख उदय रहता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति का द्रव्य चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में सत्ता में नहीं रहता। इस बात पर दृष्टि रखने वाले आचार्यों ने मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में स्वीकार कर तिहत्तर प्रकृतियों का क्षय होना कहा है। इस प्रकार इस विषय में दृष्टिभेद से दो मत हैं। प्रश्न - परमुख-उदय का क्या भाव है ? उत्तर - परमुख-उदय का भाव है स्तिबुक संक्रमण अर्थात् अनुदयरूप संक्रमण द्वारा संक्रमित हो जाना । मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति चौदहवें गुणस्थान में अनुदय रूप प्रकृति है अत: इसका द्रव्य उदयरूप मनुष्यगति प्रकृति में स्तिबुक संक्रमण द्वारा संक्रमित हो सत्ता से समाप्त हो जाता है अतः यहाँ तिहत्तर का और चरमसमय में बारह प्रकृतियों का क्षय कहा गया है। नामकर्म-क्षयात्तस्य, तेजो-बन्धः प्रलीयते । औदारिक-वपुर्बन्धो, न सत्यायुः क्षये सति ।।२२०५ ।। एरण्डबीजवज्जीयो, बन्ध-व्यपगमे सति । ऊर्ध्वं याति निसर्गेण, शिखेव विषमाच्चिषः ॥२२०६ ।। अर्थ - उनके नामकर्म का क्षय हो जाने से तैजस शरीर बन्धन का क्षय हो जाता है और आयु कर्म का क्षय हो जाने से औदारिक शरीर बन्धन का भी क्षय हो जाता है। इस प्रकार जैसे बन्धनमुक्त एरण्ड का बीज
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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