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मरणकण्डिका - १६
प्रश्न - उदयाभावीक्षय और सदवस्थारूप उपशम किसे कहते हैं और मिथ्यात्वादि छहों प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय कैसे होता है?
उत्तर - उदयाभावी क्षय - विवक्षित कर्म प्रकृति का उदय आने के एक समय पहले ही स्तिबुक संक्रमण द्वारा सजातीय अन्य कर्म प्रकृतिरूप होकर उदय में आना और निर्जीर्ण होना 'उदयाभावीक्षय' है।
अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयकाल प्राप्त कर्म निषेकों का प्रतिसमय एक-एक निषेक अप्रत्याख्यान आदि बारह कषायरूप संक्रमित होकर परमुख से उदय में आकर निर्जीर्ण होते रहना अनन्तानुबन्धी चारों कषायों का 'उदयाभावी क्षय' है।
इसी प्रकार मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतियों का भी उसी प्रक्रिया से सम्यक्त्व प्रकृतिरूप उदय में आकर निर्जीर्ण होना, उनका अपना-अपना उदयाभावी क्षय है।
सदवस्थारूप उपशम - जो कर्म निषेक अभी वर्तमान में उदयप्राप्त नहीं हैं उनको सत्ता में ही अवस्थित रखना, असमय में उदय में नहीं आने देना अर्थात् उन्हें दबा कर रखना-सदवस्थारूप उपशम है। जैसे अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियों का जो द्रव्य उदय प्राप्त था उसे तो पर में संक्रमित कर निर्जीर्ण कर दिया था। अब जो सर्वशेष द्रव्य है उसे बीच में उदयरूप नहीं होने देना ; यही उनका सदवस्था रूप उपशम है।
क्षायिक सम्यक्त्व - दर्शन मोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियों के सर्वधा क्षय हो जाने से जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व निर्मल है, नित्य है एवं सर्व कर्मों के क्षय का कारण है। यह श्रद्धा भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तर्क-कुतर्कों से, भयोत्पादक भयंकर रूपों से, बीभत्स और जुगुप्सित पदार्थों से यहाँ तक कि त्रैलोक्य के द्वारा भी चलायमान नहीं होता। अर्थात् यह सम्यक्त्व मेरु सदृश निष्कम्प है।
सम्यग्दृष्टि शब्द से जो वाच्य है वह जीव इस प्रकार होता है मन्यते दर्शितं तत्त्वं, जन्तुना शुभ-दृष्टिना !
पूर्वं ततोऽन्यथापीदमजानानेन रोच्यते ।।३५ ।। अर्थ - दर्शन आराधना का आराधक जीव उपदिष्ट जिनागम में तो श्रद्धान करता ही है तथा अजानकार गुरु द्वारा अन्यथा प्रतिपादित तत्त्व पर भी 'गुरु-उपदिष्ट' मानकर श्रद्धा करता है ।।३५ ॥
प्रश्न - आगम से विपरीत तत्त्व पर श्रद्धा करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है?
उत्तर - 'गुरु द्वारा प्रतिपादित यह तत्त्व आगम के विरुद्ध है' ऐसा नहीं जानते हुए जो असत्य अर्ध का श्रद्धान करता है किन्तु सर्वज्ञ प्रणीत आगम का अर्थ आचार्य परम्परा से जो ठीक-ठीक सुनकर अवधारित किया है वही अर्थ आचार्यदेव ने मुझे समझाया है इस प्रकार सर्वज्ञ की आज्ञा में रुचि होने से वह सम्यग्दृष्टि है।
ऐसी विपरीत श्रद्धा करने वाला सदा सम्यग्दृष्टि नहीं रहता दर्यमानं यदा सम्यक्, श्रद्दधाति न सूत्रतः । तमर्थं स तदा जीवो, मिथ्यादृष्टिनिंगद्यते ।।३६ ।।