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________________ मरणकण्डिका - १११ प्रव्रज्या संयम-ध्वंसी, दूराजमपराजकम्। न क्षेत्रमात्मनीनेन, सेवनीयं कदाचन ॥३०० ।। अर्थ - जिस क्षेत्र में संयम का नाश होता हो, जिसमें राजा दुष्ट हो या देश राजा रहित हो और जिस . क्षेत्र में दीक्षा लेनेवाले न हों, उस क्षेत्र में आप कदापि नहीं रहना ॥३०० ।। संस्थाओं को प्राचार्य की शिक्षा माषश्यके कृथा जातु, प्रमादं वृत्त-वर्धके । विज्ञाय दुर्लभा बोधि, नि:सारे मानुषे भवे ।।३०१॥ अर्थ - इस नि:सार मनुष्य भव में रत्नत्रय स्वरूप बोधि को दुर्लभ जान कर भो मुनिगण ! चारित्रवर्धक आवश्यकों में कभी प्रमाद नहीं करना ॥३०१ ॥ प्रश्न - आवश्यकों को चारित्रवर्धक क्यों कहा गया है ? उत्तर - जब मुनिराज सामायिक आदि आवश्यकों में सावधानीपूर्वक प्रवृत्त होते हैं, तब उनको संयम प्राप्त होता है। सावध क्रिया का त्याग होने पर जो कर्मों को सन्तप्त करता है, वही तप संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि संयम के बिना मात्र तप मुक्तिदायक नहीं होता। यह मनुष्यपर्याय सार रहित, अनित्य और अपवित्र है। इसमें दीक्षा लेना दुर्लभ है। यदि दीक्षा भी हो जाय तो प्रमादरहित आवश्यकों का अनुष्ठान दुर्लभ है और आवश्यकों में प्रमाद होने से संयम तथा तप में निर्मलता नहीं आती, तथा संयम एवं तप की निर्मलता न होने से चारित्र की वृद्धि नहीं होती। इसलिए ही प्रमादरहित आवश्यकों का अनुष्ठान चारित्रवर्धक कहा गया है। संज्ञा-गौरव-रौद्रार्तध्यान-कोपादि-वर्जिताः। समिताः पञ्चभिर्गुप्तास्त्रिभिर्भवत सर्वदा॥३०२।। अर्थ - हे मुनिगण ! आप सदा पाँच समितियों से एवं अशुभ मन, वचन, काय रूप तीन गुप्तियों से युक्त तथा चार संज्ञा, तीन गारव, आर्तरौद्र ध्यान और क्रोधादि कषायों से रहित प्रवर्तन करें ॥३०२।। हृषीक-दन्तिनो दुष्टान्विषयारण्यगामिनः । जिनवाक्याङ्कुशेनाशु, वशे कुरुत यत्नतः ।।३०३।। अर्थ - आप सब विषयरूपी वन में विचरण करनेवाले इस इन्द्रिय रूपी दुष्ट हाथी को जिनवचन रूपी अंकुश द्वारा शीघ्र ही वश में करें ॥३०३ ।। प्रश्न - यहाँ गज आदि के रूपक द्वारा क्या शिक्षा दी गई है? उत्तर - जंगलों में स्वच्छन्द विचरण करनेवाले मदोन्मत्त हाथी को भी चतुर मनुष्य जैसे अंकुश के बल से वश में कर लेते हैं, वैसे ही पंचेन्द्रियों के स्पर्श, रस, गन्धादि मनोहर विषय रूपी वन में स्वच्छन्द विचरण करने के स्वभाववाले इन्द्रिय रूपी हाथी को आप सब जिनेन्द्र भगवान के वचनरूप अंकुश से अपने वश में रखना, तब आपका साधुपन सार्थक होगा। अर्थात् पंचेन्द्रियों के विषयों की लोलुपता के कारण अद्यावधि संसार-भ्रमण हो
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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