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________________ मरणकण्डिका - १०८ अर्थ - जैसे माजरि की आवाज पहले तीव्र फिर क्रमशः मन्द-मन्द हो जाती है, रत्नत्रय के आचरण में वैसा तुम कदापि और किसी प्रकार भी नहीं करना, न संघ से कराना । ऐसा आचरण कर अपना और संघ का नाश मत करना।।२९१॥ प्रश्न - किस प्रकार के आचरण से स्व-पर का नाश होता है? उत्तर - आत्मा और शरीर का अनादिकालीन सम्बन्ध है। प्रत्येक पर्याय में इस शरीर का पोषण ही किया गया है, तथा 'इसे किंचित् भी कष्ट न हो' इस पर पूर्ण सतर्कता बरती गई है। इस मनुष्य पर्याय में कोई महान् पुण्योदय से व्रत-संयम ग्रहण के परिणाम बने हैं। अर्थात् आत्मा और शरीर के भिन्नत्व की भावना बनी है। इस भावना को यथावत् बनाये रखना आवश्यक है। नवीन दीक्षाग्रहण के हर्षोत्साह में बिल्ली के प्रारम्भिक स्वर सदृश यदि दुर्द्धर तपों का अनुष्ठान स्वयं कर लिया या शिष्यों से करा लिया तो कष्टसहिष्णु संस्कार के अभाव में या तो शरीर में कोई रोग उत्पन्न हो जायेगा, या शारीरिक दौर्बल्य सहन न होने से व्रतोत्साह मन्द पड़ जायेगा, श्रद्धा शिथिल हो जायेगी, उसके फलस्वरूप वह उग्रतप और चारित्र भी मन्द-मन्द होता जायेगा, जो स्वयं के और संघ के नाश का कारण होगा। अर्थात् स्वपर रत्नत्रय की हानि होगी, कर्म बन्ध होगा, संसार परिभ्रमण वृद्धिंगत होगा और जगहँसाई होगी। जिसने कभी हाथी नहीं देखा वह यदि एकाएक हाथी को उठाने का प्रयास करेगा, तो मारा जायेगा, किन्तु जन्मजात गज शिशु को दिन-प्रतिदिन उठाता रहे तो एक दिन हाथी भी उठा लिया जायेगा। उसी प्रकार पूर्व पर्यायों में अनभ्यस्त ऐसे कठोर तपों को अनायास धारण करने से हानि की सम्भावना है, दीक्षा के बाद ही उनका प्रारम्भ मन्द-मन्द गति से करें। पश्चात् जैसे-जैसे शरीर अभ्यस्त होता जाय, अर्थात् कष्टसहिष्णु बनता जाय, श्रद्धा एवं आत्मदृढ़ता वृद्धिंगत होती जाय वैसे-वैसे तपादि में वृद्धि करते हुए कठोर आचरण पर पहुँच जाना चाहिए। विध्यापयति यो वेश्म, नात्मीयमलसत्वतः। पर-वेश्म-शमे तत्र, प्रतीति: क्रियते कथम् ।।२९२ ॥ अर्थ - जो आलस्यवश जलते हुए अपने घर को भी नहीं बचाना चाहता, उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरों के जलते हुए घर को बचावेगा ।।२९२।। प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है ? उत्तर - यहाँ नवीन आचार्य को शिक्षा दी जा रही है कि जो आलसी मनुष्य अपने जलते हुए घर की आग बुझाने में भी सक्रिय नहीं हो पाता उससे कैसे आशा की जाय कि वह दूसरों के जलते हुए घर की आग बुझाने का पुरुषार्थ करेगा ? अर्थात् जो आचार्य स्वयं आलसी हो, प्रमादी हो, शबल चारित्री हो, लोक-रंजना में तन्मय हो, ख्याति, पूजा, लाभ की चाह से ग्रसित हो और ध्यान-अध्ययन से उदासीन हो वह संघ के रत्नत्रय की वृद्धि कैसे करा सकेगा ? जो आचार्य उपर्युक्त दोषों से रहित होंगे वे ही अपने संघ को मोक्षमार्ग पर सहजता पूर्वक चला सकेंगे, अत: आपको भी इन दोषों से अपनी रक्षा करनी है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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