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________________ मरणकण्डिका - ५५३ और समाधान बुद्धि युक्त एवं शुभध्यान अर्थात् धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान में संलग्न, मध्यम आराधना देवी के आराधक वे मुनिराज शरीर छोड़कर अनुत्तर विमानवासी देव हो जाते हैं ।।२०१३-२०१४-२०१५ ॥ प्रश्न - अनुत्तर विमानों के नाम, वहाँ के जीवों की संज्ञा, अवगाहना एवं आयु आदि क्या है और वहाँ पर कौन उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नाम वाले अनुत्तर विमान पाँच हैं। इनमें शुक्ल लेश्याधारी और एक हाथ की अवगाहना वाले अहमिन्द्रों का निवास है। ये नियमतः सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। सर्वार्थसिद्धिवासी अहमिन्द्रों की जघन्योत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर प्रमाण होती है तथा विजयादि चार विमानवासियों की जघन्य आयु बत्तीस सागर और उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर प्रमाण होती है। सर्वार्थसिद्धि वाले एक भवावतारी होते हैं और विजयादि विमानवासी अधिक-से-अधिक दो भव लेते हैं। इस प्रकार शुक्ल लेश्या के साथ मध्यम आराधना करने वाले क्षपक मुनि पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होकर दिव्य सुखों का अनुभव करते हैं। सुखं साप्सरसो देवाः, कल्पगा निर्विशन्ति यत् । ततोऽनन्त-गुणं स्वस्थं, लभन्ते लवसत्तमाः ॥२०१६ ।। अर्थ कल्पवासी देन आनी देवांगनाओं के साथ जो सुख भोगते हैं उससे अनन्तगुणा स्वस्थ सुख लवसत्तमदेव अर्थात् अहमिन्द्र देवों को प्राप्त होता है ।।२०१६ ।। प्रश्न - देवांगनाओं के अभाव में अहमिन्द्रदेव कल्पवासी देवों से अधिक सुखी कैसे हो सकते हैं? उत्तर - सोलह स्वर्गों तक कामेच्छा आग्रत रहती है अतः कल्पवासी देवों के अन्य ऋद्धियों के साथसाथ देवांगनाएँ भी रहती हैं, किन्तु अहमिन्द्रों को देवांगनाओं के अभाव में भी उनसे अनन्तगुणा सुख प्राप्त होता है क्योंकि अहमिन्द्रों की कामेच्छा जाग्रत नहीं रहती और विषयों की चाहरूपी दाह भी अल्प होती है अतः वे स्वयं में तृप्त, स्वस्थ और सुखी रहते हैं। विशुद्ध-दर्शन-ज्ञानाः, सयथाख्यात-संयमाः। शश्वन्निर्मल-लेश्याका, वर्धमान-तपो-गुणाः ॥२०१७॥ अदीन-मनसो मुक्त्वा , कचारमिव विग्रहम् । देवेन्द्र-चरम-स्थानं, प्रपद्यन्ते बुधार्चिताः ॥२०१८॥ अर्थ - जो क्षपक विशुद्ध ज्ञान, दर्शन एवं (उपशान्त कषाय सम्बन्धी) यथाख्यात चारित्र में लीन रहते हैं, सदा निर्मल अर्थात् शुक्ललेश्या को धारण करने वाले हैं, वर्धमान तप गुणों से संयुक्त हैं एवं बुद्धिमानों द्वारा पूज्य हैं वे श्रेष्ठ आराधक क्षपक दीन भावों से रहित होते हुए कचरे के समान शरीर को छोड़ कर देवेन्द्र के चरम पद को अर्थात् सोलहवें स्वर्ग के देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेते हैं॥२०१७-२०१८ ॥ वर्य-रत्नत्रयोद्योगाः, कषायाराति-मर्दिनः । सन्ति लौकान्तिका देवा, देहोद्योतित-पुष्कराः ॥२०१९॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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