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________________ मरणकण्डिका - २३९ सम्यक्त्व भावना मा स्म कार्षीः प्रमादं त्वं, सम्यक्त्वे भद्र-वर्धके। तपो-ज्ञान-चरित्राणां, सस्यानामिव पुष्करम् ॥७६७ ।। अर्थ - जैसे मेघ धान्यों की वृद्धि करते हैं, वैसे ही सम्यक्त्व तप, ज्ञान एवं चारित्र की वृद्धि करता हैं, अतः हे क्षपक ! तुम कल्याण की वृद्धि करने वाले सम्यक्त्व में किञ्चित् भी प्रमाद मत करो ।।७६७ ।। सारं द्वारं पुरस्येव, वक्त्रस्येव विलोचनम्। मूलं महीरुहस्येव, संज्ञानादे: सुदर्शनम् ॥७६८॥ अर्थ - जैसे नगर का सार गोपुरद्वार है, मुख का सार नेत्र हैं और वृक्ष का सार उसकी जड़ है ; वैसे ही तप, ज्ञान एवं चारित्र अदि का सार सम्यग्दर्शन है ।।१७६८ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का विशेष भाव क्या है ? उत्तर - इसक. त्रि विस्तार यह है कि जैसे ना .. करने का उपाय है, वैसे तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य के आत्मप्रवेश हेतु सम्यग्दर्शन द्वार सदृश है। अर्थात् जब आत्मा में सम्यक्त्वादि की उत्पत्ति हो जाती है. तभी उसमें सम्यग्ज्ञान-चारित्र एवं तप आदिकों का प्रवेश होता है। क्योंकि सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञानादिकों की प्राप्ति होती ही नहीं है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में इस जीव को मन:पर्ययज्ञान, यथाख्यातचारित्र एवं कर्म की अतिशय निर्जरा करने वाला तप प्राप्त नहीं हो पाता। जैसे नेत्रों से मुख को सौंदर्यपना प्राप्त होता है वैसे ही सम्यग्दर्शन से ज्ञानादिकों को सम्यक्पना प्राप्त होता है, तथा जैसे झाड़ की स्थिरता में उसकी जड़ कारण है, वैसे ही ज्ञानादि की स्थिरता एवं दृढ़ता में सम्यग्दर्शन कारण है। बलानि नायकेनेव, शरीराणीव जन्तुना। ज्ञानादीनि प्रवर्तन्ते, सम्यक्त्वेन बिना कुतः ॥७६९।। अर्थ - जैसे सेनापति के बिना सेना अपने कार्य में प्रवर्त्त नहीं हो पाती, जीव के बिना शरीर प्रवर्तन नहीं कर पाता। वैसे ही क्या कभी सम्यक्त्व के बिना ज्ञान, चारित्र और तप अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ॥७६९॥ भ्रष्टोस्ति दर्शन-भ्रष्टो, व्रत-भ्रष्टोऽपि नो पुनः। पत्तनं हयस्ति संसारे, न दर्शनममुञ्चतः ॥७७०।। अर्थ - जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वहीं यथार्थतः भ्रष्ट है, किन्तु जो व्रत अर्थात् चारित्र से भ्रष्ट है, वह भ्रष्ट नहीं है। चारित्र से भ्रष्ट होकर भी जो सम्यग्दर्शन को नहीं छोड़ता उसका संसार में पतन नहीं होता ।।७७० ।। प्रश्न - चारित्र से भ्रष्ट जीव का संसार में पतन नहीं होता, किन्तु दर्शनभ्रष्ट का संसार-पतन होता है, ऐसा कैसे कहा गया है ?
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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