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________________ मरणकण्डिका - ३१४ अर्थ - मल के भण्डार इस विनश्वर शरीर के स्वभाव को जानने-देखने वाला मनुष्य जब अपने शरीर से भी विरक्त हो जाता है तब वह दोष के स्थान स्वरूप स्त्री के शरीर से क्या विरक्त नहीं होगा ? अवश्य होगा ||११२१॥ इस प्रकार कामदोष और स्त्रीदोष के पश्चात् देह की अशुचिता का वर्णन समाप्त हुआ। ब्रह्मचर्यव्रत की सहायक वृद्धसेवा वृद्धवृद्धा नराः शीलस्तरुणैस्तरुणा यतः। जायन्ते तरुणा वृद्धास्ततः शीलं बुधैः स्तुतम् ॥११२२ ।। अर्थ - साधु अवस्था से वृद्ध हो या तरुण हो, जिनके शील अर्थात् ब्रह्मचर्य, क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं सन्तोषादि गुण वृद्धिंगत हैं वे वृद्ध हैं। तथा अवस्था से वृद्ध हों या तरुण जिनके शीलादि गुण वृद्धिंगत नहीं हैं, या अल्प हैं या अभी वे गुण किंचित् भी नहीं हैं, वे साधु तरुण हैं, क्योंकि शीलवान् को ही यहाँ वृद्ध कहा है। अतः बुद्धिमानों द्वारा शील ही स्तुत्य है।।११२२ ।। यथा-यथा वयो हानिः, पुरुषस्य तथा-तथा। मन्दा: काम-रतिक्रीड़ा-दर्परूप बलादयः ।।११२३॥ अर्थ - जैसे-जैसे मनुष्य की वयहानि अर्थात् युवा एवं मध्य-अवस्था बीतती जाती है वैसे-वैसे उसकी कामवासना, रतिक्रीड़ा की वांछा, घमण्ड, रूप एवं बल आदि मन्द होते जाते हैं ॥११२३ ।। प्रश्न - इस श्लोक का क्या आशय है ? उत्तर - इसका आशय यह है कि तरुण अवस्था में जो काम-विकारादि दुर्निवार होते हैं वे विकार जैसेजैसे वृद्धत्व आता जाता है, वैसे-वैसे स्वयं मन्द होते जाते हैं, अतः आयु से वृद्ध जनों का सहवास भी ब्रह्मचर्य आदि अनेक गुणों के उत्कर्ष में परम सहयोगी सिद्ध होता है। शान्तोऽपि क्षोभ्यते मोहो, युव-सङ्गेन देहिनः। कर्दमः पतता क्षिप्रं, प्रस्तरेणेव वारिणः ।।११२४ ॥ अर्थ - जैसे तालाब में गिरा हुआ पत्थर उसके तल में जमी हुई कीचड़ को उभार कर निर्मल जल को एक क्षण में मलिन कर देता है, वैसे ही तरुणों का संसर्ग प्रशान्त मन वाले पुरुष के भी मोह को उद्रिक्त कर परिणार्मों को एक क्षण में ही मलिन कर देता है ।।११२४॥ उदीर्णोऽप्यङ्गिनो मोहो, वृद्ध-सङ्गेन निश्चितम्।। पङ्कः कतक-योगेन, सलिलस्येव शाम्यति ।।११२५॥ अर्थ - जैसे मलिन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही कलुषित भी मोह शील-वृद्धों के संसर्ग से शान्त हो जाता है ।।११२५॥ शान्तोप्युदीयते मोहः, पुंसस्तरुण-सङ्गतः । लीन: किं मृत्तिका-गन्धो, नोदेति जल-योगतः॥११२६ ॥ अर्थ - प्रशान्त हो जाने वाला भी पुरुष का मोह तरुण पुरुष की संगति से पुन: प्रगट हो जाता है अथवा
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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