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________________ मरणकण्डिका - ४०२ प्राणी नष्ट हो जाते हैं तब जो एक ही पुरुष पाँचों इन्द्रियों के द्वारा पाँचों विषयों का सेवन करता है वह कौनसा सुख प्राप्त कर सकेगा? ॥१४२३ ।। मायां गध-रिवारज्यो, मोन्द्रिय-वशं गतः। विष-प्रसूनमाघ्राय, विपद्य नरकं गतः॥१४२४ ।। अर्थ - अयोध्यापुरी का राजा गन्धमित्र घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर नदी में विषैले फूल को सूंघ कर मरा और नरक चला गया ||१४२४ ।। * गंधमित्र की कथा ** अयोध्यानरेश विजयसेन के दो पुत्र थे, जयसेन और गंधमित्र । एक दिन राजा ने बड़े पुत्र जयसेन को राजा एवं छोटे पुत्र को युवराजका पद दिया और स्वयं मुनि दीक्षा लेकर वन में चले गये। गंधमित्र को युवराजपद अच्छा नहीं लगा, उस अन्यायी ने कूटनीति द्वारा जयसेन को राज्य से च्युत कर दिया। इससे जयसेन भी कुपित हुआ और गंधमित्र को मारने का विचार करने लगा। गंधमित्र विविध प्रकार के फूलों को सूंघने में सदा आसक्त रहता था। एक दिन रानियों के साथ वह सरयू नदी में जलक्रीड़ा कर रहा था । जयसेन ने मौका पाकर नदी के प्रवाह में ऊपर की ओर से भयकर विष जिनमें छिड़का गया है ऐसे फूलों को छोड़ दिया। गंधमित्र ने उन फूलों को सूंघा, उससे वह तत्काल प्राण रहित हुआ और घ्राणेन्द्रिय के विषय सुगंधि की आसक्ति के कारण नरकगति में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक घ्राणेन्द्रिय के विषय के दोष से राजा महादुःख को प्राप्त हुआ था। मूर्छिता पाटलीपुत्रं, श्रव्य-पञ्चाल-गीतितः। मृता गन्धर्वदत्तापि, प्रासादात्पतिता सती ।।१४२५॥ अर्थ - पाटलीपुत्र नगर में पांचाल नामक गायनाचार्य का गीत सुन कर गन्धर्वदत्ता नामक गणिका मूर्छित हो महल से नीचे गिरकर मर गई ।।१४२५ ॥ * गंधर्वदत्ता की कथा * पाटलीपुत्रके नरेशकी गंधर्वदत्ता नामकी अनिंद्य सुंदरी राजकन्या थी। वह गानविद्या में महानिपुण थी उसने प्रतिज्ञा की कि जो मुझे गायन कलामें जीतेगा उसे मैं वरूंगी। बहुतसे राजकुमार उसकी सुंदरतासे आकृष्ट होकर आये किन्तु कोई उस कन्याको जीत नहीं सका । एक दिन बहुत दूर देशसे एक गानविद्या का पंडित पंचाल नामका संगीताचार्य अपने पाँचसौ शिष्यों के साथ उस नगरीमें आया । राजकन्याकी प्रतिज्ञासे वह परिचित हुआ। उसने राजासे कहा कि आपकी कन्या गानविद्या में चतुर है। मैं भी इस विद्यासे परिचित हूँ। मैं आपकी पुत्रीका गीत-संगीत सुननेका इच्छुक हूँ। इसतरह की युक्तिसे उसने गंधर्वदत्ताके महलके पास अपना निवास स्थान प्राप्त किया। मध्य रात्रिके अनंतर शांत वातावरणमें वीणा की झंकारके साथ उसने सुमधुर गान प्रारंभ किया। गंधर्वदत्ता गहरी नींदमें सो रही थी, धीरे-धीरे उसके कर्णप्रदेश में संगीतकी लहरियाँ पहुँची और सहसा वह उठी। संगीत की ध्वनिने उसको ऐसा आकृष्ट किया कि वह बेभान हो जिधरसे वह मधुर शब्द आरहा था, उधर दौड़कर जाने लगी और उसका पैर चूक जानेसे महलसे गिरकर मृत्युको प्राप्त हुई।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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