SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - १६४ उसका पालन करने में इसका उत्साह कैसा है? यह प्रायश्चित्त क्यों लेना चाहता है ? साथ रहना चाहता है या यश या लाभ या कर्मों की निर्जरा के लिए प्रायश्चित्त लेना चाहता है। शरीर बल कैसा है, चिरदीक्षित है या अल्पकाल का दीक्षित है, शास्त्रज्ञ है या अल्पज्ञ है एवं वैराग्यवान् है या सुखिया स्वभावी है ; इत्यादि अनेक प्रकार के ऊहापोहात्मक ज्ञान से परिपक्व आचार्य ही प्रायश्चित्त देने के योग्य हैं। राग-द्वेषावपाकृत्य, व्यवहार-विशारदः । व्यवहारी ददात्यस्मै, प्रायश्चित्तं विधानतः ।।४६८।। अर्थ - व्यवहार विशारद अर्थात् प्रायश्चित्तज्ञ आचार्य राग और द्वेष भावना को छोड़कर अर्थात् मध्यस्थ भाव धारण कर विधिपूर्वक दोषी मुनिराजों को प्रायश्चित्त देते हैं ।।४६८ ।। व्यवहारापरिच्छेदी, व्यवहारं ददाति यः। अवाप्यासोऽयशो घोरं, संसारमवगाहते ॥४६९॥ अर्थ - जो आचार्य व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र को नहीं जानता, वह यदि प्रायश्चित्त देता है तो वह अपयश को प्राप्त कर अन्त में घोर संसार में डूबता है।।४६९ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या अभिप्राय है? उत्तर - जो प्रायश्चित्त शास्त्र को ग्रन्थ रूप से, अर्थरूप से एवं कर्मरूप से नहीं जानता वह आचार्य यदि अतिचार विनाश के इच्छुक मुनि को आलोचना आदि नौ प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह संसाररूपी कीचड़ में फँस कर दुख उठाता है और यहाँ अपयश पाता है। लोग कहते हैं कि यह तुण्डाचार्य है, इसके मुख पर जो आता है वही प्रायश्चित्त दे देता है। कौन सा प्रायश्चित्त कहाँ देना चाहिए जब इसे इसका ज्ञान ही नहीं है तब यह मुनियों को अपराधों से मुक्त कैसे करेगा? संसारभीरु साधुओं को यह व्यर्थ ही कष्ट दे रहा है, जगत् में ऐसी अपकीर्ति होगी। इच्छानुसार प्रायश्चित्त देने से जिनाज्ञा का उल्लंघन होता है, उन्मार्ग का उपदेश करने से सन्मार्ग का नाश होता है जो दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध का कारण है, अत: अज्ञ आचार्य या मुनि प्रायश्चित्त देने का प्रयत्न न करें ऐसी आगम की आज्ञा है। जो आचार्य प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता हैं उन्हें भी प्रायश्चित्त देते समय सावधानी रख कर ही प्रायश्चित्त देना चाहिए और जैसे न्यायाधीश धारा के माध्यम से दण्ड व्यवस्था लिखता है वह ऐसा कभी नहीं लिखता या कहता है कि मैं न्यायाधीश हैं, मैं कहता हूँ कि इसे फाँसी दे इसी प्रकार 'हम आचार्य हैं, हमने जो प्रायश्चित्त दिया है उसे करो' इस प्रकार नहीं बोलना चाहिए क्योंकि किस अपराध में क्या प्रायश्चित्त देना है यह निर्धारण आगम का है। इस प्रकार व्यवहारज्ञ आचार्यों को ही सावधानी पूर्वक प्रायश्चित्त देना चाहिए, अज्ञ-आचार्यों को नहीं। श्लोक का यही अभिप्राय है। ___ व्यवहाराबुधः शक्तो, न विशोधयितुं परम्। किं चिकित्सामजानानो, रोगग्रस्तं चिकित्सति ॥४७० ॥ अर्थ - प्रायश्चित्त की विधि न जाननेवाला आचार्य रत्नत्रय विशुद्धि के इच्छुक को शुद्ध नहीं कर सकता । क्या चिकित्साविधि को न जाननेवाला अनिपुण वैद्य रोगग्रस्त की चिकित्सा कर सकता है? ||४७० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy