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________________ मरणकण्डिका- ५३४ - प्रश्न उत्तर - पूर्वबद्ध पुद्गल स्कन्धों के अवयवों का जीवप्रदेशों से अलग होना निर्जरा है । अथवा प्राचीन कर्मों का एकदेशरूप से झड़ना या क्षय होना या नष्ट होना निर्जरा है । निर्जरा के दो भेद हैं-द्रव्य निर्जरा एवं भावनिर्जरा । भावनिर्जरा के भी दो भेद हैं- सविपाक निर्जरा एवं अविपाक निर्जरा । इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है? सविपाक निर्जरा - कर्मबन्ध के पश्चात् आबाधाकाल व्यतीत हो जाने के तुरन्त बाद ही कर्मों का प्रवाहक्रम से एक - एक निषेक रूप उदय में आकर तथा फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाना सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा सभी संसारी जीवों के होती है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि हों या सम्यग्दृष्टि हों, तपश्चरण में प्रवृत्त हों अथवा भोगों में संलग्न हों, सभी के कर्म उदयपंक्ति में प्रवेश कर तथा अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं। यह सविपाक निर्जरा अल्प होती है, क्योंकि सब कर्मों की स्थिति भिन्न-भिन्न रहती है। द्रव्य-क्षेत्र, काल एवं भावरूप सहकारी कारण सबको अतिशीघ्र प्राप्त नहीं हो पाते अतः सब कर्म एक साथ उदय में आकर फल देकर नष्ट नहीं होते हैं। जो उदय में आता है वही फल देकर नष्ट होता है, अन्य नहीं । अविपाक निर्जरा- जो कर्म अभी उदय के योग्य नहीं हैं उनको तपस्या द्वारा हठात् उदीर्ण करके अर्थात् उदयावली में लाकर असमय में निर्जीर्ण कर देना अविपाक निर्जरा है। सजातीय अन्य प्रकृति रूप कर्मों में संक्रमण करा कर नष्ट कर देना भी अविपाक निर्जरा है, क्योंकि अनेक कर्मप्रकृतियाँ सजातीय कर्मों में संक्रमित होकर परमुख से नष्ट हो जाती हैं। जैसे क्षपक श्रेणी में अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषायें संज्वलन कषाय में संक्रमित होकर नष्ट कर दी जाती हैं। इस अविपाक निर्जरा का हेतु बहिरंग और अन्तरंग तप है। इन तपों में भी धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान रूप तप ही निर्जरा का परमोत्कृष्ट कारण है। यह निर्जरा मोक्षमार्ग में परम सहायक होती है। इस प्रकार दोनों प्रकार की निर्जरा का स्वरूप दर्शाना ही इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ है। निर्जरा में तपश्चरण का माहात्म्य अनिर्दिष्ट फलं कर्म, तपसा दह्यते परम् । - सस्यं हुताशनेनेष, बहुभेदमुपार्जितम् ।।१९४३ ।। अर्थ - जैसे गेहूँ, चावल, मूँग, मोठ आदि बहुत भेद वाला एकत्र किया हुआ धान्य का समूह अनि द्वारा भस्मसात् हो जाता है, वैसे ही जिन कर्मों ने अभी तक जीव को फल नहीं दिया वे कर्म तपरूपी अग्नि से भस्मसात् हो जाते हैं अर्थात् तपश्चरण द्वारा फल दिये बिना ही कर्मों की निर्जरा हो जाती है ।। १९४३ ॥ तपसा दीयमानेन, नाश्यते कर्म - सञ्चयः । आशुशुक्षणिना क्षिप्रं दीप्तेनेव तृणोत्करः ।। १९४४ ॥ अर्थ - जैसे जाज्वल्यमान अनि द्वारा तृणों का समूह अर्थात् घास का ढेर शीघ्र ही जल जाता है, वैसे ही मुनिजन द्वारा ग्रहण किया हुआ तप कर्मसमूह को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है || १९४४ ॥ स्वयं पलायते कर्म, तपसा विरसी - कृतम् । trisaतिष्ठते कुत्र, नीरले स्फटिकेऽश्मनि ।। १९४५ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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