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________________ मरणकण्डिका - ५१६ उत्तर - इस जीव ने देवगति के, भोगभूमि के, विद्याधरों के एवं राजा-महाराजा आदि के सुख अनेक बार भोग लिये हैं, किन्तु गणधर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, पंच अनुत्तर विमान-वासी, अनुदिश विमानवासी देव, सौधर्मेन्द्र, उसकी शची, उसके लोकपाल एवं लौकान्तिक देव इनके सुख प्राप्त नहीं किए, क्योंकि इन स्थानों में से कुछ स्थान आसन्नभव्यों को, कुछ स्थान सम्यग्दृष्टि को और कुछ स्थान तद्भव मोक्षगामी जीव को ही प्राप्त होते हैं। स चतुर्भिस्त्रिभिाभ्यामेकेनाक्षेण वर्जितः । संसार-सागरेऽनन्ते, जायतेऽनन्तशोऽसुमान् ॥१८७७ ।। अर्थ - इस जीव ने इस अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए कभी चार इन्द्रियों से, कभी तीन इन्द्रियों से, कभी दो इन्द्रियों से और कभी एक इन्द्रिय से रहित होकर एक-एक पर्याय में अनन्त-अनन्त बार जन्म लिया है अर्थात् अनन्त-अनन्त बार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय पर्यायों में जन्म लिया है ।।१८७७ ।। प्रश्न - इन पर्यायों में सबसे अधिक काल और सबसे कम काल किसका होता है? उत्तर - संसारी जीव का सबसे अधिक काल एकेन्द्रिय पर्याय में, उससे कम द्वीन्द्रिय में, उससे कम श्रीन्द्रिय में और उससे भी कम चतुरिन्द्रिय पर्याय में व्यतीत होता है। विचक्षुर्बधिरो मूको, वामन: पामनः कुणिः। दुर्वर्णो-दुःस्वरो मूर्खश्चुल्लश्चिपिट-नासिकः॥१८७८ ।। व्याधितो व्यसनी शोकी, मत्सरी पिशुन: शठः । दुर्भगो गुण-विद्वेषी, वञ्चको जायते भवे ॥१८७९ ।। क्षुधितस्तृषितः श्रान्तो, दुःखभार-वशीकृतः। एकाकी दुर्गमे दीनो, हिण्डते भव-कानने ॥१८८० ।। अर्थ - यह जीव किसी पुण्योदय से मनुष्य भी हो गया तो अंधा या बहरा, मूक अर्थात् गूंगा, या बौना, पंगु, कुबड़ा, बदसूरत, कर्कश वाणी बोलने वाला, मूर्ख, चिड़चिड़े स्वभाव वाला, चिपटी नाक वाला, दीर्घरोगी, व्यसनी, सदा शोक से संतप्त, मत्सरस्वभावी, चुगलखोर, शठ, दरिद्री या दुर्भग, गुणों से द्वेष करने वाला, छलकपट स्वभाव वाला, हीन-दीन, दुखी एवं पापमय अवस्थाओं को प्राप्त कर दुख पाता है। संसाररूपी भयानक अटवी में दुखभार के वशवर्ती हुआ यह दीन-अनाथ प्राणी भूखा, प्यासा, थका-माँदा अकेला ही परिभ्रमण करता है अर्थात् मार्गभ्रष्ट पथिक सदृश मोक्षमार्ग से भ्रष्ट होकर जन्मरूपी वन में असहाय होकर अकेला ही भ्रमण करता रहता है।।१८७८-१८७९-१८८०॥ एकेन्द्रियेष्वयं जीव:, पञ्चस्वपि निरन्तरम् । उत्थान-वीर्य-रहितो, दीनो बंभ्रमते घिरम् ॥१८८१।। अर्थ - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक इन पाँच प्रकार के स्थावर की एकेन्द्रिय पर्यायों में यह जीव बल-वीर्य से रहित होता हुआ चिरकाल तक परिभ्रमण करता है अर्थात्
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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