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________________ मरणकण्डिका - ३७४ दी और घरका दरवाजा बंद कर दिया। उसे उस समय अपना शृंगार करना था। उसमें मुनिको आहार देनेसे व्यवधान पड़ता, इस कारणसे तथा मुनिके स्नान रहित शरीरसे ग्लानि होनेसे लक्ष्मीमतीने अपने रूपके गर्वमें आकर मुनिनिंदाका महान् पापकर डाला | मुनि शांतभावसे अन्यत्र चले गये। किन्तु मुनिनिंदाके पापसे लक्ष्मीमतीको सातवें दिन गलित कुष्ठ रोग होगया। उसे लोगोंने दुर्गंधताके कारण गाँवके बाहर निकाल दिया। वहाँ वेदना सहन नहीं होनेसे वह आगमें जलकर मरी और गधी हुई। पुन: क्रमशः सुअरी, दो बार कुत्ती हुई। फिर धीवरकी दुर्गंधा पुत्री हुई। इस पर्यायमें उन्हीं समाधिगुप्त मुनिराज द्वारा धर्म श्रवणकर शांतभावको प्राप्त हुई। इसप्रकार मानकषायके दोषसे लक्ष्मीमतीको अनेक भवोंमें महान् कष्ट सहना पड़ा। नीचगोत्री तिर्यंचनी पर्यायको बार-बार प्राप्त करना पड़ा। सुभगत्वमसौभाग्यं, स्वरूपत्वं विरूपता । आज्ञानाज्ञादरो निन्दा, चित्ते कृत्या न धीमता ॥१२९५॥ अर्थ - अतः बुद्धिमानों द्वारा सौभाग्य एवं दुर्भाग्य, सुन्दरता और विरूपता तथा आज्ञा और अनाज्ञा आदि होने पर न आदर भाव होना चाहिए और न निन्दा भाव ही होना चाहिए। अर्थात् चित्त में मध्यस्थता रखनी चाहिए।१२९५ ॥ प्रश्न - यहाँ मान कषाय के सदृश सौभाग्य आदि में आदर-भाव करने का और दुर्भाग्यादि में निन्दा भाव करने का निषेध क्यों किया जा रहा है? उत्तर - क्योंकि ये सौभाग्य-दुर्भाग्य आदि न शाश्वत हैं और न आत्म-प्रदेशों की वृद्धि-हानि ही करते हैं, इनके संकल्प मात्र से प्रीति और सन्ताप उत्पन्न होते हैं। इसीलिए बुद्धिमान मनुष्यों को चिन्तन करना चाहए कि जो अपने निर्मल गुणों के कारण मधुर वचन पुंजों से स्तुत्य होता है, वही किसी एक दिन निन्दा का पात्र हो जाता है। मनुष्यों का स्वामी होकर भी दास हो जाता है, पवित्र होकर पुनः अपवित्र हो जाता है, सभी को प्रिय होते हुए भी दुर्भाग्य आने पर द्वेष का पात्र बन जाता है, जो कभी उत्तम रत्नाभरणों से विभूषित देखा जाता है, वही कभी दरिद्री देखा जाता है तथा जो कभी बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों से घिरा हुआ देखा जाता है, विपत्ति आने पर वही एकाकी देखा जाता है। इस प्रकार संसाररूपी अटवी में भटकता हुआ यह प्राणी अनेक प्रकार के कर्मफल भोगता है और निरन्तर सुखी-दुखी होता रहता है। इस मिथ्या कल्पना जाल से बचने के लिए ही इनमें आदर भाव और निन्दा भाव करने का निषेध किया गया है। एतेषां चिन्तनाम्मानो, वर्धते सर्वदाऽग्निवत् । संसार-वर्धकः सद्यो, हीयते तत्त्व-चिन्तने ॥१२९६ ॥ अर्थ - इन सौभाग्य एवं सम्पत्ति आदि के चिन्तन से मनुष्य का अभिमान अग्नि सदृश सदा वृद्धिंगत होता रहता है, जो संसार की वृद्धि का ही कारण होता है, किन्तु इन सौभाग्य-दुर्भाग्य एवं उच्चत्व-नीचत्वादि के परिवर्तनों का और उसके कारणों के यथार्थ बोध के साथ तत्त्वचिन्तन करने पर अभिमान तत्काल नष्ट हो जाता है और कषायें उपशान्त हो जाती हैं जिससे संसार का किनारा निकट आ जाता है ।।१२९६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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