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________________ मरणकण्डिका - ५२७ कल्मषं कार्यते घोरं, सदृष्टिरपि यैर्जनः । रागद्वेष-विपक्षांस्तान्धिक् संज्ञा-गौरवात्मनः॥१९२० ।। अर्थ - सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी जिनके दोष से घोर पाप कर बैठता है उन राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को, चारों संज्ञाओं को, ऋद्धि आदि गारों को, इन्द्रियों को और मद आदिकों को धिक्कार है ॥१९२० ।। विषयेष्वभिलाषो यः, पुरुषस्य प्रवर्तते। न ततो जायते सौख्यं, पातकं बध्यते परम् ॥१९२१॥ अर्थ - पंचेन्द्रियों के स्पर्शनादि मनोहर विषयों में पुरुष की जो अभिलाषा उत्पन्न होती है वह सुखप्राप्ति के लिए नहीं होती, अपितु उस अभिलाषा के निमित्त से वह कर्मबन्ध ही करता है ।।१९२१ ॥ इन्द्रियार्थ-सुखे येन, मानुष्यं प्राप्य योज्यते। भस्मार्थ प्लोषते काष्ठं,महामौल्यमसौ स्फुटम् ॥१९२२॥ ___ अर्थ - जैसे कोई मूर्ख मनुष्य राख/भस्म के लिए महामूल्यवान् हरिचन्दन का काष्ठ अर्थात् लकड़ी जला देता है, वैसे ही मूढ मनुष्य इन्द्रिय-विषय भोगों में रत रहकर अर्थात् इन्द्रियसुख के अर्थ निश्चयतः महादुर्लभ मनुष्य पर्याय को उन विषयसुखों में लगाकर नष्ट कर देता है ।।१९२२॥ प्रश्न - मनुष्य पर्याय को मूल्यवान् और विषयसुखों को तुच्छ क्यों कहा जा रहा है? उत्तर - धर्म पुरुषार्थ एवं मोक्ष पुरुषार्थ द्वारा इस मनुष्य पर्याय से अतीन्द्रिय एवं अनन्त सुख प्राप्त हो सकता है अतः मनुष्य पर्याय को महामूल्यवान् कहा गया है। इन्द्रियविषय रसीले ज्ञात होते हैं तथा आनन्द भी उत्पन्न करते हैं किन्तु विष से संस्कारित किये गये भोजन के सदृश विषय-भोगों को भोगने के पश्चात् अत्यन्त भयंकर परिणाम प्राप्त होता है अर्थात् जिसका चंचल चित्त विषयसुख में आसक्त रहता है, वह विषयों की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के अनिष्ट कार्य और पापाचरण करता है, जिसके फलस्वरूप कुयोनियों में जन्म लेकर दुख ही दुख भोगता है अत: इन्हें तुच्छ कहा गया है। नृत्वे योऽक्ष-सुखं मूढो, धर्म मुक्त्वा निषेवते । लोष्ठं गृह्णात्यसौ मुक्त्वा , रत्नद्वीपेऽनधं मणिम् ॥१९२३ ।। अर्थ - जैसे कोई मूर्ख मनुष्य उत्कृष्ट रत्नों की खान स्वरूप रत्नद्वीप जाकर रत्नों को छोड़कर लोष्ठ या लकड़ी या मिट्टी के ढेलों का संचय करता है, वैसे ही विषयाभिलाषी मूढ़ मनुष्य, उत्तम नर पर्याय प्राप्त कर भी धर्म को छोड़ देता है और इन्द्रियविषयों के संचय एवं सेवन में संलग्न रहता है ।।१९२३ ॥ यो नृत्वे सेवते भोगं, हित्वा धर्ममकल्मषम्। असौ विमुच्य पीयूषं, विषं गृह्णाति नन्दने ॥१९२४॥ अर्थ - जैसे कोई मनुष्य नन्दन वन में जाकर भी अमृत को छोड़कर विष पीता है, वैसे ही मनुष्यपर्याय प्राप्त कर भी मूढ़ मानव निर्दोष धर्म को छोड़ भोगों का सेवन करता है ।।१९२४ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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