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________________ मरणकण्डिका - ५६० इत्थं विराध्य ये जीवा, म्रियन्ते संयमादिकम्। तेषां बालमृतिस्तस्याः , फलं पूर्वत्र' वर्णितम् ।।२०४० ।। अर्थ - इस प्रकार संयम या रत्नत्रय या समाधि आदि की विराधना करके जो जीव मरते हैं, उनका वह मरण बालमरण कहलाता है, उस बालमरण का फल पूर्व में बता दिया गया है ।।२०४०।। विराध्य ये विपद्यन्ते, सम्यक्त्वं नष्ट-बुद्धयः । ज्योतिर्भावन-भौमेषु, ते जायन्ते वितेजसः ॥२०४१॥ अर्थ - जो नष्टबुद्धि सम्यक्त्व की विराधना करके मरण करते हैं, वे भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिषियों में भी हीन जाति के देव होते हैं ।।२०४१॥ दर्शन-ज्ञान-हीनास्ते, प्रच्युता देव-लोकतः।। संसार-सागरे घोरे, बंभ्रमन्ति निरन्तरम् ॥२०४२ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित वे जीव देवलोक से च्युत होकर घोर संसार सागर में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं।।२०४२ ।। ये मृता मुक्त-सम्यक्त्वाः , कृष्णलेश्यादि-भाविताः। तथा लेश्या भवाम्भोधी, ते भ्रमन्ति दुरुत्तरे ।।२०४३ ॥ अर्थ - जिनका अन्त:करण कृष्ण, नील या कापोत लेश्या से भावित है और जो सम्यक्त्वरूपी रत्न को छोड़ चुके हैं वे साधु मरण कर उसी प्रकार की लेश्या से युक्त हो संसार रूपी भयंकर समुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं।२०४३ ।। निवेशयन्ती भुवनाधिपत्ये, मनीषितं कामदुधेव धेनुः । आराधिता किं न ददाति पुंसामाराधना सिद्धि-वधू-वयस्या ।।२०४४ ॥ इति फलम्। अर्थ - सम्यग्दर्शन आदि चार प्रकार की आराधना के आराधक मुनियों को यह आराधनादेवी तीन लोक के स्वामित्व में स्थापित करती है। समीचीन रीत्या आराधित यह आराधना मनोवांछित फल प्रदान करने के लिए कामदुधा धेनु/गाय है। सिद्धि रूपी वधू की सखी यह आराधना मनुष्य को क्या फल नहीं देती ? अर्थात् अभ्युदय एवं निःश्रेयस सभी सुखों को देती है।।२०४४ ।। इस प्रकार आराधनाफल नाम का अधिकार पूर्ण हुआ ॥३९॥ १. बालबालमरण नामक दूसरे अधिकार में श्लोक ५.८ से।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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