SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 542
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परणकण्डिका - ५१८ अर्थ - अज्ञान अंधकार से आच्छादित यह मोही प्राणी दुखों से डरता है और सुखप्राप्ति की अभिलाषा करता है तथा उस अभिलाषा की पूर्ति हेतु हिंसा, झूठ, चोरी एवं आरम्भ आदि पाप करता है। इस प्रकार वह हिंसा-आरम्भादि दोषों के कारण नये-नये असातावेदनीय, नौचगोत्र एवं नरकायु आदि पाप प्रकृतियों का बन्ध करता है। जिसके फलस्वरूप वह कुगतियों में प्रविष्ट हो अत्यधिक दुखों से उसी प्रकार जलता है, जिस प्रकार एक अग्नि से निकल कर दूसरी अग्नि में प्रविष्ट होने वाला मूर्ख प्राणी सदा जलता रहता है॥१८८७-१८८८ ।। गृह्णता मुञ्चता दारुणं कल्मषं, सौख्य-कांक्षेण जीवेन मूढात्मना । भ्रम्यते संसृतौ सर्वदा दुःखिना, पावनं मुक्तिमार्ग ततोऽपश्यता ॥१८८१ ।। इति जन्मानुप्रेक्षा। अर्थ - मूढ़ अज्ञानी जीव, जो कर्म उदय में आकर फल दे चुकते हैं, उन्हें छोड़ देता है तथा कर्मफल भोगते समय होने वाले राग-द्वेष रूप परिणामों से एवं भविष्य में इन्द्रिय सुख की वांछा से दारुण नवीन पापकर्मों का बन्ध करता है। इस ग्रहण-मोचन में संलग्न रहने के कारण वह परम-पावन रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग को न जान पाता है और न देख पाता है, इसलिए बहुत भयंकर दुखों से भरे संसार में भ्रमण कर संतप्त होता रहता है।।१८८९॥ इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा पूर्ण हुई ।।५।। लोक भावना सर्वे सर्वैः समं प्राप्ताः, सम्बन्धा जन्तुनाङ्गिभिः । भवति भ्रमत: कस्य, तत्र तत्रास्य बान्धवाः ॥१८९०॥ अर्थ - इस लोक में सभी जीव सभी जीवों के साथ सम्बन्ध प्राप्त कर चुके हैं। भ्रमण करते हुए इस जीव ने चारों गति सम्बन्धी नाना योनियों में जहाँ-जहाँ जन्म लिया, वहीं-वहीं कौन-कौन इसका बन्धु-बांधव नहीं हुआ ? अपितु सभी जीव अनेक बार बाँधव हो चुके हैं ॥१८९० ॥ माता सुता स्नुषा भार्या, सुता कान्ता स्वसा स्नुषा। पिता पुत्रो नृपो दासो, जायतेऽनन्तशो भवे ॥१८९१॥ अर्थ - संसार में जो इस जन्म में माता है, वही किसी भव में पुत्री हो जाती है, पुत्रवधू पत्नी हो जाती है, पुत्री पत्नी, और बहिन-पुत्रवधू बन जाती है। जो पूर्व भव में पिता था वह पुत्र, जो राजा था वह दास और जो दास था वह राजा बन जाता है। इस प्रकार का यह परिवर्तन अनन्तबार हो चुका है ।१८९१ ॥ वसन्ततिलका माता, भगिनी कमला च ते। एकत्र धनदेवस्य, भार्या जाता भवे ततः ॥१८९२ ।। अर्थ - देखो ! अन्य भवों में सम्बन्ध बदलने की तो बात ही क्या है ? किन्तु एक ही भव में धनदेव की माता वसन्ततिलका एवं बहिन कमला, ये दोनों उसी धनदेव की पत्नियाँ हुई ।।१८९२ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy