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सचित्र स्थानागसत्र
प्रवर्तक श्री अमर मुनि Illustrated STTAVANGA SUTRA pravartak Shri Amar Muni
For Private
Personal Use Only
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सचित्र
स्थानांग सत्र Flustrated STILANANGA SUTRA
स्थानांग सूत्र अपनी विशिष्ट संख्याप्रधान शैली में संकलित स्थानांगसूत्र अनेक दृष्टियों से ज्ञान व सूचना का महत्त्वपूर्ण भण्डार है। इसमें तत्त्व-ज्ञान, आचार-दर्शन के साथ ही ज्योतिष, भूमण्डल, गणित, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, पुरुष की मन:स्थितियों का दृष्टान्त प्रधान चित्रण आदि विविध विषयों पर सूत्र शैली में वर्णन है।
शास्त्र की विशालता के कारण प्रथम भाग में स्थान १ से ४ के तीसरे स्थान तक की सामग्री है। शेष दसवें स्थान तक दूसरे भाग में है। सूत्र शैली में होने के कारण आगम का आशय स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर संक्षिप्त विवेचन भी किया है। जिसमें संस्कृत टीका तथा अन्य अनेक प्राचीन ग्रन्थों का उपयोग किया है। विद्वान सम्पादक श्री अमर मुनिजी ने विवेचन में काफी ज्ञानवर्धक सामग्री संकलित की है।
SHRI STHAANANGA SUTRA
With its unique numerical style of compilation Shri Sthaananga Sutra is an important compendium of knowledge and information. In erudite aphoristic style it envelopes a variety of subjects including metaphysics, philosophy, code of conduct astrology, cosmology, mathematics, ethics, psychology, and vivid analogical presentation of human psyche. All these subjects are edifying as well as useful in life.
As this is a voluminous work this first part contains Sthaans 1 to third lesson of Sthaan 4. The remaining Sthaans up to the tenth are included in the second part. As its style is aphoristic, brief elaborations have been included where needed. For this many ancient works including the Sanskrit commentary (Tika) have been used. Shri Amar Muni ji M. , the scholarly editor, has compiled ample useful information in elaborations on Interational
For Private 8 Personal use only
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| गणधर श्री सुधर्मा स्वामि प्रणीत तृतीय अंग
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सचित्र श्री स्थानांगसूत्र (द्वितीय भाग)
)
| मूल पाठ-हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद, विवेचन एवं रंगीन चित्रों सहित )
* प्रधान सम्पादक * उत्तर भारतीय प्रवर्तक जैनधर्म दिवाकर
श्री अमर मुनि जी महाराज
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*सह-सम्पादक*
श्रीचन्द सुराना 'सरस'
पद्म प्रकाशन पद्म धाम, नरेला मण्डी, दिल्ली-११००४०
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उत्तर भारतीय प्रवर्त्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. सा. द्वारा सम्प्रेरित सचित्र आगममाला का सोलहवाँ पुष्प
■ सचित्र श्री स्थानांगसूत्र ( भाग २ )
■ प्रधान सम्पादक
प्रवर्त्तक श्री अमर मुनि जी
■ सह-सम्पादक
श्रीचन्द सुराना 'सरस'
■ अंग्रेजी अनुवादक
सुरेन्द्र बोथरा, जयपुर
■ संशोधन
राजकुमार जी जैन, दिल्ली
■ प्रथमावृत्ति
वि. सं. २०६१, चैत्र
ईस्वी सन् २००४ अप्रैल
■ चित्रांकन
डॉ. त्रिलोक शर्मा
■ प्रकाशक एवं प्राप्ति-स्थान
पद्म प्रकाशन
पद्म धाम, नरेला मण्डी, दिल्ली- ११००४०
■ मुद्रण-व्यवस्था
संजय सुराना
श्री दिवाकर प्रकाशन
ए-७, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा - २८२००२ दूरभाष : (०५६२) २१५११६५
■ मूल्य
छह सौ रुपया मात्र (६०० /- रुपये)
© सर्वाधिकार : पद्म प्रकाशन, दिल्ली
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THE THIRD ANGA WRITTEN BY GANADHAR SHRI SUDHARMA SWAMI
ILLUSTRATED
SHRI STHAANANGA SUTRA
(SECOND PART)
Original Text with Hindi and English Translations, Elaboration and Multicolored Illustrations
*EDITOR-IN-CHIEF *
Uttar Bharatiya Pravartak Jain Dharma Diwakar
Shri Amar Muni ji Maharaj
*ASSOCIATE-EDITORS * Srichand Surana 'Saras'
PADMA PRAKASHAN
PADMA DHAM, NARELA MANDI, DELHI-110 040
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THE SIXTEENTH NUMBER OF THE ILLUSTRATED AGAM SERIES INSPIRED BY UTTAR BHARATIYA PRAVARTAK GURUDEV BHANDARI
SHRI PADMACHANDRA JI M. S.
55 456 457 455 456 457 45545
• ILLUSTRATED SHRI STHAANANGA SUTRA (PART 2)
• Editor-in-Chief
Pravartak Shri Amar Muni ji
456 455 456 455 454 4
Associate-Editor Srichand Surana 'Saras'
English Translator Surendra Bothara, Jaipur
• Copy Editing
Raj Kumar Jain, Delhi
First Edition Chaitra, 2061 V. April, 2004 A.D.
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Illustrator Dr. Trilok Sharma
Publisher and Distributor Padma Prakashan Padma Dham, Narela Mandi, Delhi-110 040
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456 457 458 45 45 4
Printer Sanjay Surana Shri Diwakar Prakashan A-7, Awagarh House, M.G. Road, Agra-282 002 Phone : (0562) 2151165
Price Six Hundred Rupees only (Rs. 600/-)
451 454 455 456 455
© Copyright : Padma Prakashan, Delhi
444546454545454545454545454541414141414141451454545454545454545454545451
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धर्म दिवाकर प्रवर्त्तक अमर मुनि जी महाराज
राष्ट्रसन्त अनन्त उपकारी उत्तर भारतीय प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्म चन्द्र जी
महाराज
की पुण्य स्मृति में सादर सविनय भेंट
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श्रुत सेवा में सहयोग दाता
परम विदुषी उपप्रवर्तिनी महासती श्री आज्ञावती जी महाराज
श्री उग्रसैन जी सुन्दरी देवी जैन
विवेक विहार, दिल्ली
श्री जय भगवान जी विद्या देवी जैन
योजना विहार, दिल्ली
श्री सुभाष चन्द शशि जैन विवेक विहार, दिल्ली
श्री सुशील कुमार कौशल्या देवी जैन
योजना विहार, दिल्ली
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jalnelitary.one
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श्रुत सेवा में सहयोग दाता
श्री अभय कुमार रेणु जैन
शास्त्री नगर, दिल्ली
श्री सतपाल जी प्रेमलता गोयल
पेहवा निवासी
बहन सुशीला जैन (लोहटिया) लुधियाना
श्री बोधराज सन्तोष रानी जैन
घरौंडा मण्डी
श्री श्यामलाल जी जैन शास्त्री नगर, दिल्ली
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श्रुत सेवा में सहयोग दाता
श्री सुभाष सुलोचना जैन हुड्डा कॉलोनी, पानीपत
श्री रमेशभाई जैन (शाह) मालती बेन शाह
गुजरात विहार, दिल्ली
श्री मोती लाल जैन (बनूड़ वाले) लुधियाना
श्री राजपाल जैन
सोनीपत
श्री अनिल मंजु जैन विश्वा अपार्टमेंट, दिल्ली
डॉ. मोजीराम जी जैन श्रीमती पुष्पा जैन सैनिक फार्म, दिल्ली
Jain Education
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प्रकाशकीय
श्रुत-सेवा के महान कार्य में हम निरन्तर असीम उत्साह के साथ आगम-भक्तिपूर्वक आगे बढ़ रहे हैं और शासनदेव तथा स्व. गुरुदेव उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. का आशीर्वाद हमारा पथ प्रशस्त कर रहा है। ___ उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. जैसे दृढ़ अध्यवसायी, संकल्पबली, गुरुभक्त और आगम ज्ञाता संत वर्तमान समय में बहुत कम मिलेंगे। देखा जाता है, अधिकतर विद्वानों में अपनी रचित-निर्मित कृति के प्रकाशन की उत्कंठा रहती है और उसे ही वे सबसे अधिक महत्त्व देते हैं तथा हर जगह सबसे 5 आगे अपने नाम को ही प्रतिष्ठापित करने को उत्सुक रहते हैं। प्रचार व ख्याति की प्रतिस्पर्धा के इस युग में 5 प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. एक अलग किस्म के संत हैं। इन्हें न अपने नाम के प्रचार की भूख है, न ही अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने की उत्सुकता। प्रवर्तकश्री जी के प्रवचनों व भजनों की २-३ पुस्तकें सम्पादित हो प्रकाशन के लिए तैयार रखी हैं, किन्तु प्रवर्तकश्री जी का मानना है, पहले मुझे जिनवाणी का प्रकाशन करना है, इसी में समूचे संसार का लाभ कल्याण निहित है। अतः श्रुत-सेवा में ही मुझे पूरी निष्ठा व शक्ति का सदुपयोग करना है।
उन्हीं की इस विस्मयकारक प्रेरक श्रुत-भक्ति का यह परिणाम है कि हम अब तक धीरे-धीरे सचित्र आगमों की १५ पुस्तकों में १७ आगमों का प्रकाशन करने में सफल हुए हैं और हम निरन्तर इसी श्रुत-सेवा में संलग्न रहकर अपनी शक्ति व धन का सदुपयोग करने के लिए कृतसंकल्प हैं। ____ हमें प्रसन्नता है, सचित्र आगममाला की इस श्रृंखला में इस वर्ष हम श्री स्थानांगसूत्र जैसे विशालकाय आगम को दो भागों में प्रकाशित कर पाठकों के हाथों में पहुंचा रहे हैं।
प्रथम भाग में लुधियाना निवासी धर्मवीर दानवीर सुश्रावक श्री त्रिलोकचन्द जी जैन 'भगत' जी के परिवार ने बहुत ही उदार हृदय से सहयोग प्रदान किया। इस दूसरे भाग के प्रकाशन में पूज्य गुरुदेव के भक्तगण जो प्रतिवर्ष ही जिनवाणी के प्रति असीम श्रुत-भक्ति और गुरु-भक्ति का परिचय देते हुए सहयोग प्रदान करते हैं, इस वर्ष भी उन गुरु-भक्तों का उदार अर्थ सौजन्य प्राप्त हुआ है। हम उन सबके प्रति हार्दिक धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं अगले वर्ष जैन आगम साहित्य की महामूल्यवान निधि श्री भगवतीसूत्र के प्रकाशन में भी हमें इसी प्रकार सबका सहयोग प्राप्त होता रहेगा। - पूज्य प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. की हार्दिक भावना है कि जिनवाणी का यह सुन्दर सर्वोपयोगी प्रकाशन निर्विघ्न सम्पन्न होता रहे। हम इस श्रुत-सेवा में सभी धर्म-प्रेमी बंधुओं का हार्दिक सहयोग आमंत्रित करते हैं।
महेन्द्रकुमार जैन
अध्यक्ष पद्म प्रकाशन
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PUBLISHER'S NOTE
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We are steadily progressing in the great mission of promoting the scriptures 4 with boundless enthusiasm and devotion for Agams. The blessings of the 4 Protective Deity and late Gurudev Uttar Bharatiya Pravartak Bhandari Shri 41 Padma Chandra Ji M. acts as a beacon on our path.
ur path. In modern times assiduous, unwaveringly resolute, devout and saintly ascetic scholars of Agams like Uttar Bharatiya Pravartak Shri Amar Muni ji M. are rare to find. It is common that most of the scholars are eager to get their
work published and that is what they consider to be of prime importance. They 4 crave to put their name at the fore front always. In this age of competitive
publicity and fame Pravartak Shri Amar Muni ji M. is a sage with a difference. He neither has the hunger for publicity nor the eagerness to get his works 4 published. Two-three compilations of his discourses and Bhajans are lying ready for publication but Pravartak Shri ji believes that his primary mission is to get Jinavani (Sermon of the Jina) published because that embodies the uplift and beatitude of the whole world. Thus, he says that, he has to devote all his faith
and energy to the mission of service to the Shrut (Sermon of the Jina). 41 As a result of his astonishingly inspiring devotion for the Shrut we have, in $ due course, published seventeen Agams in fifteen volumes of this Illustrated
Agam Series and we are committed to put our energy and wealth to a noble cause by remaining ever involved in this mission of service to the Shrut.
We are pleased to bring a voluminous Agam like Shri Sthaananga Sutra this year to our readers in two volumes.
For the first part of this book we got liberal donations from the family of si Dharmavira Daanvira Sushravak Shri Trilok Chand ji Jain 'Bhagat ji'. For this second part contributions have come once again from many devout gurudevotees who year after year continue to display their devotion for the Guru and
scriptures through their financial assistance towards publication of the pious 15 sermon of the Jina; and the process continues. We express our sincere gratitude 4 for them all and hope that they will extend their help for the publication of Shri 5 Bhagavati Sutra, he great and invaluable treasure of Agam literature.
It is the heartfelt desire of respected Pravartak Shri Amar Muni ji that this 65 beautiful and useful project of publication of Jinavani continues unabated. We solicit co-operation of all devout friends in this mission of Shrut Seva.
-Mahendra Kumar Jain
PRESIDENT Padma Prakashan
0441456441415454545454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 45454545454545
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स्व-कथ्य
श्री स्थानांगसूत्र का यह दूसरा भाग है। प्रथम भाग में स्थान एक से चतुर्थ स्थान के तृतीय उद्देशक तक की सामग्री है। चतुर्थ स्थान के चौथे उद्देशक से दशम स्थान तक का सम्पूर्ण आगम इस द्वितीय भाग में है।
यों तो स्थानांगसूत्र स्वयं ही बहुत विशाल और विस्तृत है। इसमें इतने विविध विषय हैं कि उन पर संक्षिप्त विवेचन किया जाय तब भी कम से कम तीन भाग तो हो ही जाते । फिर सूत्र रूप में आये विषयों पर विवेचन की अपेक्षा भी है। जैसे न्यायदर्शन के अन्तर्गत हेतु - अहेतु का वर्णन, सात नयों का वर्णन, सात निन्हवों का वर्णन, दस आचार्यों का वर्णन तथा अन्य भी अनेक ऐसे विषय हैं।
सूत्र में आये हुए विषयों पर टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने प्राचीन परम्परा के अनेक उदाहरण व दृष्टान्त भी दिये हैं, जो ज्ञानवर्धक होने के साथ ही विषय को विशद रूप में उजागर करते हैं ।
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इसी के साथ जैन, बौद्ध व वैदिक ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से इसका अनुशीलन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, अट्ठकथा और वैदिक ग्रन्थ महाभारत आदि में भी अनेक विषय 5 स्थानांगसूत्र से बहुत ही समानता रखते हैं और उस वर्णन में ऐसा अनुमान होता है कि लोक, स्वर्ग-नरक - आरोग्य व नीति सम्बन्धी, पुरुष - परीक्षा सम्बन्धी बहुत से विषय उस समय सभी धर्माचार्यों द्वारा अपनीअपनी शैली में उक्त रूप में कथन किये जाते थे । उन विषयों पर तुलनात्मक शोधपरक अध्ययन अपेक्षित हैं । किन्तु ऐसे कार्यों में समय और श्रम शक्ति के साथ विविध ग्रन्थों की उपलब्धता तथा विद्वानों का सहयोग भी नितांत अपेक्षित है । अस्तु
प्रस्तुत सम्पादन में तो हमने अपने स्तर पर तथा अपनी समय व शक्ति की सीमा में रहकर कार्य किया है और मुझे विश्वास है यह आगमों के आधारभूत ज्ञान के लिए उपयोगी सिद्ध होगा ।
अनेक
स्थानांगसूत्र के सम्बन्ध में प्रथम भाग की प्रस्तावना में विस्तार से लिखा जा चुका है। अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं करके पाठकों से यही अनुरोध है कि आगमों का स्वाध्याय करते समय अनाध्याय काल का वर्जन करके पूर्ण शुद्ध उच्चारण व शुद्ध भावपूर्वक पाठ करें। जिनवाणी अत्यन्त ही पवित्र धर्मग्रन्थ है, धर्मग्रन्थों की अपनी विशेष मर्यादा और महत्त्व होता है । असावधानी व अशातनापूर्वक पढ़ा हुआ शास्त्र भी शस्त्र का 5 काम कर देता है। अतः शास्त्र को शास्त्र के बहुमानपूर्वक ही पढ़ें।
हमने अगले वर्ष पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (श्री भगवतीसूत्र) के सम्पादन कार्य में जुटने का संकल्प किया है, कार्य आरम्भ भी हो चुका है। जिनेश्वर देव की भक्ति, जिनवाणी की श्रद्धा और गुरुदेव की शक्ति तथा आप सबके सहयोग की भावना से हम अपना संकल्प पूर्ण करने में समर्थ होंगे, यह पूर्ण विश्वास है । विशेषकर मैं श्रुत-सेवा में सहयोग प्रदान करने वाले सभी उदारमना सद्गृहस्थों को पुनः धन्यवाद देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ।
(7)
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- प्रवर्त्तक अमर मुनि
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FROM THE EDITOR'S PEN
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This is the second part of Shri Sthaananga Sutra. The first part contained matter starting from the first Sthaan to the third lesson of the fourth Sthaan. The remaining matter from the fourth lesson of the fourth Sthaan to the tenth Sthaan is included in this second part.
Sthaananga Sutra itself is a voluminous work. It contains so many subjects that had we given even brief elaborations it would have taken three such volumes. Many topics stated in aphoristic style, indeed, require elaborations. Some examples are description of Hetu and Ahetu from logic; seven Nayas, seven Nihnavas, ten Acharyas and many other important topics
On many topics Abhayadev Suri, the commentator (Tika), has quoted many examples and incidents from ancient tradition. These references are enlightening and edifying to a great extant..
Besides this a comparative study of this work with Jain, Buddhist and Vedic literature is also important. Buddhist works like Anguttara Nikaya and Atthakatha as well as Vedic works like Mahabharat have many topics that have great similarity with similar descriptions in Sthaananga Sutra. These passages indicate that during that period each religious preceptors discussed numerous topics like universe, heaven and hell, health and ethics, and attributes of humans in his individual and unique style. A comparative and research oriented study on those topics is very much desired. But such task requires considerable time and labour besides availability of variety of books and co-operation of many scholars. As such...
In this edition we have worked with limitations of means, time and resources but we are confident that this would be very useful for acquiring the basic knowledge of the Agams.
Much has been written about the Sthaananga Sutra in the preface of the first part. A repetition of that introduction is not required. I would only advise the readers to read the Agams at
4 5454545454545454545454 455 456 454 455 456
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the right time (avoiding the proscribed periods) with correct pronunciation and pious feelings. Jinavani is compiled in pious religious books having their own importance and discipline of study. Careless and negligent reading turns a Shaastra (scripture) into a shastra (weapon). Therefore, read a scripture giving it the due respect.
We have resolved to take up the editing of the fifth Anga, Vyakhya Prajnapti (Bhagavati Sutra) next year; in fact, the work has already begun. I am sure that with the devotion for Jineshvar Deva, faith in Jinavani, blessings of Gurudev and your co-operation this mission will be accomplished.
I consider it my duty to once again thank all those generous and pious householders who liberally contribute towards the pious mission of Shrut Seva.
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(9)
-Pravartak Amar Muni
2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555555595555555595555 55552
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अनुक्रमणिका
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
१-८६
३४
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१४
प्रसर्पक पद आहार पद आशीविष पद व्याधिचिकित्सा पद व्रणकर पद अन्तर्बहिण पद श्रेयस्-पापीयस् पद आख्यायक पद वृक्षविक्रिया पद वादिसमवसरण पद
मेघ पद + अम्बा-पितृ पद
राज पद मेघ पद
आचार्य पद भिक्षाक पद गोल पद पत्र पद
कट पद ॐ तिर्यक् पद म भिक्षुक पद
कृश-अकृश पद बुध-अबुध पद
१ अनुकम्पक पद
संवास पद अपध्वंस पद आसुरी भावना आभियोगी भावना सम्मोही भावना देवकिल्विषी भावना प्रव्रज्या पद संज्ञा पद काम पद
उत्तान-गंभीर पद १८ तरक पद १९ . पूर्ण-तुच्छ पद
चारित्र पद २१ मधु-विष कुम्भ पद २५ उपसर्ग पद
कर्म पद संघ पद बुद्धि पद मति पद जीव पद
मित्र-अमित्र पद ३४ मुक्त-अमुक्त पद
गति-आगति पद संयम-असंयम पद क्रिया पद गुण पद शरीर पद धर्मद्वार पद नरकायु पद तिर्यंचायु पद मनुष्यायु पद देवायुष्य पद वाद्य-नृत्यादि पद विमान पद गर्भ पद पूर्ववस्तु पद काव्य पद समुद्घात पद चतुर्दशपूर्वि पद वादि पद कल्प-विमान पद समुद्र पद कषाय पद नक्षत्र पद पापकर्म पद पुद्गल पद
६७
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
८७-१३७
८७
९४
प्राथमिक परिचय महाव्रत-अणुव्रत पद इन्द्रियविषय पद
८७
आस्रव-संवर पद प्रतिमा पद स्थावरकाय पद
९३ ९३ ९४
अतिशेष-ज्ञान-दर्शन पद शरीर पद तीर्थभेद पद
१०० १०१
(10)
895
55555555555558
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१२३
१२३
ܗܗܗܗ
। भिक्षाभिग्रह पद
ध्यान मुद्रा पर महानिर्जरा पद विसंभोग पद पारंचित पद व्युद्ग्रहस्थान पद निषद्या पद आर्जवस्थान पद
११४ ११४ ११५ ११६
१०३ १०७ १०८ १०९ ११० १११ ११३ ११४
ज्योतिष्क पद देव पद परिचारणा पद अग्रमहिषी पद अनीक-अनीकाधिपति
पद देवस्थिति पद प्रतिघात पद
आजीव पद राजचिह्न पद उदीर्णपरीषहोपसर्ग पद हेतु पद अहेतु पद अनुत्तर पद पंचकल्याणक पद
११६ १२२ १२२
पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
१३८-१७८
१६० १६० १६० १६१
१७२
महानदी-उत्तरण पद १३८ प्रथम प्रावृष विहार पद १३९ वर्षावास विहार पद १४० अनुद्घात्य (प्रायश्चित्त) पद १४२ राजान्तःपुरप्रवेश पद १४३ गर्भधारण पद
१४५ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी--
एकत्रवास पद आसव-संवर पद दंड पद
१५२ क्रिया पद
१५२ व्यवहार पद
१५६ सुप्त-जागरण पद १५९
रज-आदान-वमन पद दत्ति पद उपघात-विशोधि पद सुलभ-दुर्लभबोधि पद प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन
पद संवर-असंवर पद संयम-असंयम पद तृणवनस्पति पद आचार पद आचारप्रकल्प पद आरोपणा पद वक्षस्कारपर्वत पद
१६२ १६३ १६४
महाद्रह पद
१७० वक्षस्कारपर्वत पद १७१ धातकीषंड-पुष्करवर पद १७१ समयक्षेत्र पद
१७१ अवगाहना पद विबोध पद
१७२ निर्ग्रन्थी-अवलम्बन पद १७३ आचार्य-उपाध्याय
अतिशेष पद १७५ आचार्य-उपाध्याय
गणापक्रमण पद १७६ ऋद्धिमत पद
१७८
१४९ १५१
१६७ १६७ १६८ १६९
पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
१७९-२१४
१७९ १७९
१८०
०
अस्तिकाय पद धर्मास्तिकाय पद । अधर्मास्तिकाय पद
आकाशास्तिकाय पद जीवास्तिकाय पद पुद्गलास्तिकाय पद गति पद इन्द्रियार्थ पद मुण्ड पद बादर पद
०
१८१ १८२ १८३ १८४ १८५ १८५ १८६
अचित्त वायुकाय पद निर्ग्रन्थ पद उपधि पद निश्रास्थान पद निधि पद शौच पद छद्मस्थ-केवली पद महानरक पद महाविमान पद सत्त्व पद
१८८ १९० १९३ १९४ १९५ १९५ १९६ १९७
भिक्षाक पद वनीपक पद अचेल पद उत्कल पद समिति पद जीव पद गति-आगति पद जीव पद योनिस्थिति पद संवत्सर पद
२०१ २०१ २०२
२०२
१९८
२०३
(11)
卐5555555555555555555)
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
5555555555555
प्रतिक्रमण पद
सूत्रवाचना पद कल्प (विमान) पद
卐
5 जीवप्रदेश निर्याणमार्ग पद २०५
२०६
२०६
२०७
२०८
२०९
षष्ठ स्थान
फ्र
5 छेदन पद
5
आनन्तर्य पद
5
5 अनन्त पद
5 ज्ञान पद
5
फ्र
प्रत्याख्यान पद
सार संक्षेप
गण-धारण पद
निर्ग्रन्थी-अवलम्बन पद 5 साधर्मिक अन्तकर्म पद
छद्मस्थ केवली पद
असंभव पद जीव पद
फ्र गति आगति पद
5 जीव पद
तृण-वनस्पति पद
卐
नो-सुलभ पद
卐
फ इन्द्रियार्थ पद
5 संवर-असंवर पद
सात-असात पद
प्रायश्चित्त पद
फ्र मनुष्य पद
5 कालचक्र पद
5 संहनन पद
संस्थान पद अनात्मवत्-आत्मवत् पद
आर्य पद लोकस्थिति पद दिशा पद
सार संक्षेप
गणापक्रमण पद
5 विभंगज्ञान पद
5
5
फ्र
२१५
२१७
२१८
२१९
२२१
२२१
२२२
२२३
२२३
२२४
२२५
२२५
२२६
२२६
२२७
२२७
२३१
२३२
२३२
बन्ध पद
महानदी पद
तीर्थंकर पद
२७२
२७४
२७५
आहार पद
उन्माद पद
प्रमाद पद
प्रतिलेखना पद
लेश्या पद
अग्रमहिषी पद
स्थिति पद
महत्तरिका पद
अग्रमहिषी पद
सामानिक पद
मति पद
तप पद
विवाद पद
गोचरचर्या पद
महानरक पद
विमानप्रस्तट पद
नक्षत्र पद
इतिहास पद
संयम - असंयम पद
क्षेत्र - पर्वत पद
२३६
२३७
२३९
२३९
सप्तम स्थान
महाद्रह पद
नदी पद
धातकीखंड-पुष्करवर पद
योनिसंग्रह पद गति आगति पद
संग्रहस्थान पद
फफफफफफफफफफफफफ
( 12 )
२०९
२१०
२१०
२११
२११
२१२
२३९
२४२
२४२
२४३
२४४
२४४
२४५
२४५
२४५
२४६
२४६
२४८
२४९
२५०
२५०
२५१
२५१
२५२
२५३
२५४
२५५
२५६
५५७
२८१
२८१
२८२
सभा पद
नक्षत्र पद
पापकर्म पद
पुद्गल पद
२१५-२७१
ऋतु पद
अवमरात्र पद
अतिरात्र पद
अर्थावग्रह पद
अवधिज्ञान पद
अवचन पद
कल्पप्रस्तार पद
पलिमन्धु पद
कल्पस्थिति पद
महावीरषष्ठभक्त पद
विमान पद
देव पद
भोजनपरिणाम पद
विषपरिणाम पद
प्रश्न पद
विरहित पद
आयुर्बन्ध पद पारभविकायुर्बन्ध पद
भाव पद
प्रतिक्रमण पद
नक्षत्र पद
पुद्गल पद
२७२-३४८
संग्रहस्थान पद प्रतिमा पद
आचारचूला पद
७
5
२१२ फ्र
२१३
२१३
२१३
555555
२५७
२५८
२५८ फ्र
२५९ फ्र
२५९
卐 卐
२६० फ्र
२६० फ
२६१ 5
5
२६२
5
२६३ फ्र
२६३ फ्र
卐
२६४
5
२६४ फ्र
२६४ फ्र
२६५
२६५
२६६ फ
२६६
卐
२६८
२६९ फ
२७० फ
卐
२७१
फफफफ
5
फ्र
फ्र
卐
२८३ फ
२८४ 5
२८७
卐
卐
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०९ ३१०
३२५
IFIFIR
३२६
२९०
३११
३२६
२९०
३१३ ३१६
३१७
३२६ ३२८ ३२९ ३३१ ३३५
३१७
सात
३१८
1 प्रतिमा पद
२८७ कुलकर पद ! अधोलोकस्थिति पद २८९ कल्पवृक्ष पद बादरवायुकायिक पद
दण्डनीति पद संस्थान पद
चक्रवर्तीरल पद भयस्थान पद
२९१ दुःषम-सुषमा लक्षण पद छद्मस्थ पद
२९१ जीव पद केवली पद
२९२ आयुर्भेद पद गोत्र पद
२९२ जीव पद नय पद
२९५ ब्रह्मदत्त पद स्वरमण्डल पद
२९५ मल्लीप्रव्रज्या पद स्वरोत्त्पत्तिस्थान पद २९६ दर्शन पद जीव निश्रित सप्त स्वर २९७ छद्मस्थ केवली पद अजीव निश्रित सप्त स्वर २९७ महावीर पद स्वरों के लक्षण तथा फल २९८ । विकथा पद i स्वरों के ग्राम और
आचार्य-उपाध्यायमूर्च्छनाएँ
२९९ अतिशेष पद कायक्लेश पद
३०५ संयम-असंयम पद क्षेत्र-पर्वत-नदी-पद ३०६ आरंभ पद
३१८
योनिस्थिति पद स्थिति पद अग्रमहिषी पद देव पद नन्दीश्वरद्वीप पद श्रेणि पद अनीक-अनीकाधिपति अनीकाधिपति कक्षा पद वचन-विकल्प पद विनय पद समुद्घात पद प्रवचन निह्नव पद अनुभाव पद नक्षत्र पद कूट पद कुलकोटि पद पापकर्म पद पुद्गल पद
३१९
Kalam
३१९ ३२०
३४४ ३४४
३२१
३२१
३४५
३४६
३४७
३२१ ३२२ ३२३
३४७
my my my
अष्टम स्थान
३४९-४०८
३७९
३८०
३८०
३५३
My my my my
३८२
855555))))))))55555555555555555555555
३८३
३८४
अध्ययन सार एकलविहार-प्रतिमा पद योनिसंग्रह पद गति-आगति पद कर्मबन्ध पद आलोचना पद संवर-असंवर पद स्पर्श पद लोकस्थिति पद गणिसम्पदा पद महानिधि पद समिति पद आलोचना पद प्रायश्चित्त पद मदस्थान पद
W
३४४ अक्रियावदी पद ३५१ ___ महानिमित्त पद ३५३ वचनविभक्ति पद
छद्मस्थ-केवलि पद ३५४ आयुर्वेद पद ३५५ अग्रमहिषी पद ३६५ महाग्रह पद ३६५ तण-वनस्पति पद
संयम-असंयम पद ३६६ सूक्ष्म पद ३६७ भरतक्रवर्ती पद
पार्श्वगण पद ३६८ दर्शन पद ३६९ औपमिक काल पद ३६९ अरिष्टनेमि पद
३७० ३७० ३७१ ३७३ ३७४ ३७४ ३७५ ३७५ ३७६ ३७७ ३७७ ३७८ ३७८ ३७८ ३७९
महावीर पद आहार पद कृष्णराजि पद मध्यप्रदेश पद महापद्म पद कृष्ण-अग्रमहिषी पद गति पद द्वीप-समुद्र-पद काकणिरल पद मागधयोजन पद जम्बूद्वीप पद विजय पद राजधानी पद अरिहंत चक्रवर्ती पद पर्वत गुफा पद
३६६
सयम
३८६
२८
३६७
AWN
३९० ३९०
(13)
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९२
३९२
३९३ ३९३
' धातकीपंडद्वीप पद
पुष्करवरद्वीप पद कूट पद जगती पद कूट पद महत्तरिका पद कल्प पद प्रतिमा पद
जीव पद संयम पद पृथ्वी पद अभ्युत्थातव्य पद. विमान पद वादि-सम्पदा पद केवलीसमुद्घात पद अनुत्तरौपपातिक पद
३९९ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ ४०४ ४०४
वाण-व्यंतर पद ज्योतिष्क पद द्वार पद बन्धस्थिति पद कुलकोटि पद पापकर्म पद पुद्गल पद
३९३
३९७ ३९८
३९९
नवम स्थान
४०९-४६१
४३९
बलदेव-वासुदेव पद महानिधि पद विकृति पद बोन्दी (शरीर) पद
४०९ ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१४ ४१४ ४१५
पुण्य पद
सार : संक्षेप विसंभोग पद ब्रह्मचर्य-अध्ययन पद ब्रह्मचर्यगुप्ति पद
तीर्थंकर पद 卐 सद्भावपदार्थ पद
जीव पद गति-आगति-पद जीव पद अवगाहना पद
संसार पद 卐 रोगोत्पत्ति पद
दर्शनावरणीयकर्म पद ज्योति पद मत्स्य पद
४२० ४२२ ४२६ ४२७ ४२७ ४२८ ४२९ ४२९ ४३०
पापश्रुतप्रसंग पद नैपुणिक पद गण पद भिक्षाशुद्धि पद
उत्तरवर्ती कूट पद पार्श्व-उच्चत्व पद तीर्थंकरनामनिर्वतन पद भावितीर्थंकर महापद्मतीर्थकर पद नक्षत्र पद विमान पद कुलकर पद तीर्थं प्रवर्तन पद अन्तर्वीप पद शुक्रग्रहवीथी पद कर्म पद कुलकोटि पद पापकर्म पद पुद्गल पद
४५७ ४५८
B卐5555555555555555555555555555555555555599996
B$$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$$$$$$ 5FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF
४५८
४१६ ४१६
देव पद
४३०
४५८
४५८
४१७ ४१७ ४१९
आयुपरिणाम पद प्रतिमा पद प्रायश्चित्त पद कूट पद मध्यवर्ती कूट पद
४३३ ४३५ ४३५ ४३५ ४३६
४६०
४१९ ४२०
दशम स्थान
४६२-५६६
सार : संक्षेप लोकस्थिति पद इन्द्रियार्थ पद अच्छिन्नपुद्गलचलन पद क्रोधोत्पत्ति पद संयम-असंयम पद संवर-असंवर पद
४६२ अहंकार पद ४६४ समाधि-असमाधि पद ४६६ प्रव्रज्या पद ४६७ श्रमणधर्म पद ४७० वैयावृत्त्य पद ४७१ परिणाम पद ४७२ अस्वाध्याय पद
४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७७ ४७९
संयम-असंयम पद सूक्ष्मजीव पद महानदी पद राजधानी पद राज पद मन्दर पद रुचक प्रदेश क्षेत्र
४८२
४८३ ४८३
४८४
(14)
Page #21
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________________
1555555555555555
5
;
गोतीर्थ पद
पाताल कलश पद
पर्वत पद
जम्बूद्वीप क्षेत्र पद
विविध पर्वत पद
i
द्रव्यानुयोग पद
उत्पातपर्वत पद
अवगाहना पद
तीर्थंकर पद
अनन्तभेद पद पूर्ववस्तु पद
i प्रतिसेवना पद
आलोचना पद
प्रायश्चित्त पद
मिथ्यात्व पद
तीर्थंकर वासुदेव पद
भवनवासि पद सौख्य पद ; उपघाताविशोधि पद संक्लेश असंक्लेश पद
बल पद
भाषा पद
दृष्टिवाद पद
शस्त्र पद
दोष पद
४८४
४८५
४८७
४८७
४८८
४८९
४९१
४९४
४९५
४९५
४९६
४९६
४९७
५०१
५०२
५०२
५०४
५०४
५०५
५०६
५०७
५०८
५१२
५१३
५१४
परिशिष्ट
विशेष पद
शुद्धवाग-अनुयोग पद
दान पद
गति पद
मुण्ड पद
संख्यान पद
प्रत्याख्यान पद
सामाचारी पद
दस महा स्वप्न
स्वप्न फल पद
सम्यक्त्व पद
संज्ञा पद
वेदना पद
छद्मस्थ पद
दशा पद
कालचक्र पद
अनन्तर परम्परउपपन्नादि पद
नरक पद
स्थिति पद
भाविभद्रत्व पद
आशंसा प्रयोग पद
धर्म पद
स्थविर पद
पुत्र पद
( 15 )
५१५
५१५
५१७
५१८
५१९
५२०
५२०
५२२
५२३
५२४
५२८
५२९
५२९
५३०
५३१
५३७
५३७
५३८
५३८
५४०
५४१
५४२
५४३
५४४
अनुत्तर पद
कुरा पद
दुःषमालक्षण पद सुषमालक्षण पद
[कल्प] वृक्ष पद
कुलकर पद
वक्षस्कार पद
कल्प पद
प्रतिमा पद
जीव पद
शतायुष्कदशा पद
तृण वनस्पति पद
श्रेणि पद
ग्रैवेयक पद
तेज सा भस्मकरण
आश्चर्य पद
काण्ड पद
उद्बध पद
नक्षत्र पद
ज्ञानवृद्धिकर पद कुलकोटि पद
पापकर्म पद
पुद्गल पद
५६७-५७६
555555555555555555555555555
५४४ फ्र
५४५
५४५
५४६
५४६
५४७
५४८
५४९
५५०
५५१
५५२
५५३
५५३
५५४
५५४
५५९
५६१
५६२
५६३
५६३
५६४
५६४
फफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ
५६६
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙55555555555555555
CONTENTS
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
1-84
457 4554
451 455 456 457 455 456 455 456 457 451 451
1 41 41 41 455 456 457 454 455 456 457 454 455 456 454
10
41 41 41 41 41 41 41 55 456 457 454
Prasarpak-Pad (Segment of itinerant)
1 Ahar-Pad (Segment of food)
1 Ashivish-Pad
(Segment of the poisonous) Vyadhi Chikitsa-Pad (Segment of treatment of ailments)
6 4 Vrankar-Pad
7 Antarbahirvran-Pad (Segment of
inner and outer infection) 8 Shreyas-Paapiyas-Pad (Segment of
noble and ignoble) Akhyayak-Pad (Segment of commentator)
12 Vriksha-Vikriya-Pad (Segment of development of a tree)
13 Vaadi-Samavasaran-Pad (Segment of sects)
13 Megh-Pad (Segment of clouds) 14 Amba-Pitra-Pad (Segment of
parents) Raaj-Pad (Segment of kings) 19 fi Megh-Pad (Segment of clouds) 19 Acharya-Pad (Segment of preceptor)
21 Vriksha-Pad (Segment of trees) Bhikshaak-Pad (Segment of
alms eater) Gol-Pad (Segment of ball)
26 Patra-Pad (Segment of sharp edge) 28 Cut-Pad (Segment of mattress) 29 Tiryak-Pad (Segment of animals) 31 Bhikshuk-Pad (Segment of alms-seeker)
32
Krish-Akrish-Pad (Segment of
weak and not weak) Budha-Abudha-Pad (Segment of
prudent and imprudent) Anukampak-Pad Samvas-Pad (Segment of
sexual gratification) Apadhvans-Pad (Segment of
decline) Aasuri Bhaavana Aabhiyogi Bhaavana Sammohi Bhaavana Devakilvishi Bhaavana Pravrajya-Pad (Segment of
ascetic initiation) Sanjna-Pad (Segment of desire) Kaam-Pad (Segment of carnality) Uttan-Gambhir-Pad (Segment of
shallow and deep) Tarak-Pad (Segment of swimmer) Purna-Tuchchha-Pad (Segment of
full and empty) Chaaritra-Pad (Segment of
ascetic conduct) Madhu-Vish-Kumbh-Pad
(Segment of honey,
poison and pitcher) Upsarg-Pad (Segment of affliction) Karma-Pad (Segment of karmas) 59 Sangh-Pad (Segment of
religious organization) Buddhi-Pad (Segment of wisdom) 63 Mati-Pad (Segment of intelligence) 63 Jiva-Pad (Segment of living beings) 64
18
41 41
& 445 446 447 41 41 41 41 41 41 41 45 45 454 455 456 457 454 455 456 414 415 41 41 41 4
22
1
25
454 455 456 457 41 41 41 41 4
( 16 )
@4
44 445 446 44 445 446 4474544545454545454545454 4 4 4 4 4 4 4 4
2
Page #23
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________________
44444
$$$$$444
69
因牙牙牙牙555555步步步步步步步步步步步步步55555555555 Mitra-Amitra-Pad (Segment of
Vadya-Nrityadi-Pad (Segment of friend and non-friend)
66
music, dance etc.) Mukta-Amukta-Pad (Segment of
Vimaan-Pad (Segment of liberated and non-liberated)
celestial vehicles) 4 Gati-Aagati-Pad (Segment of
Garbh-Pad (Segment of womb) reincarnation and incarnation)
Purvavastu-Pad (Segment of Samyam-Asamyam-Pad
purvavastu) (Segment of discipline and
Kavya-Pad (Segment of poetry) indiscipline)
Chaturdash Purvi-Pad (Segment of Kriya-Pad (Segment of activity) 70
chaturdash purvi) Guna-Pad (Segment of virtues) 70
Vaadi-Pad (Segment of vadi) Sharira-Pad (Segment of body) 71
Kalp-Viman-Pad (Segment of 4 Dharmadvar-Pad (Segment of 41
divine realms)
72 doors of religion)
Samudra-Pad (Segment of seas) 45 Narakayu-Pad (Segment of infernal life)
Kashaya-Pad (Segment of passions) Tiryanchayu-Pad (Segment of
Nakshatra-Pad (Segment of animal life span)
72 constellations) Manushyayu-Pad (Segment of
Paap-Karma-Pad (Segment of human life span)
73 demeritorious Devaayu-Pad (Segment of
karma) divine life span)
73 Pudgal-Pad (Segment of matter)
2441 444 445 455 456 4541 41 41 41 5$$$414141414141454545454545454545454545454 41 451 4545454
Fifth Sthaan : First Lesson
87-137
445454545454 455 456 457 455 454 455 456 4444444444444444
Introduction
88 Mahavrat-Anuvrat-Pad
(Segment of minor and great vows)
89 Indriya Vishaya-Pad (Segment of
subjects of sense organs) 90 Asrava-Samvar-Pad (Segment of
inflow and blockage of karmas) 93 4i Pratima-Pad (Segment of special codes)
93 Sthavarakaya-Pad (Segment of
immobile bodied beings) 94 Atishesh Jnana-Darshan-Pad 94 5 Sharira-Pad (Segment of body) 100 Tirthabhed-Pad (Segment of
difference in religious orders) 101
Bhikshabhigraha-Pad (Segment of
special resolves for
alms collection) Dhyanamudra-Pad (Segment of
meditational postures) Mahanirjara-Pad (Segment of
great karma-shedding) Visambhog-Pad (Segment of
ostra cization) Paranchit-Pad (Segment of
expulsion) Vyudgrahasthaan-Pad
(Segment of cause of dispute) Nishadya-Pad (Segment of
method of sitting) Arjava-Sthaan-Pad (Segment of
purity)
( 17 )
2454545454545454545454545454545454545454541414141414141414141414144
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 45 46 47 46 45 455 456 414141414149555555 Jyotishk-Pad (Segment of
Ajiva-Pad (Segment of subsistence) 123 4 stellar gods)
114
Rajachinha-Pad (Segment of $ Dev-Pad (Segment of gods) 114
regal symbols) 4 Paricharana-Pad (Segment of
Udirnaparishahopasarg-Pad sexual gratification)
115
(Segment of precipitated Agramahishi-Pad (Segment of
afflictions and torments) chief queens)
116
Hetu-Pad (Segment of cause) Anika-Anikadhipati-Pad
Ahetu-Pad (Segment of army and commander)
116
Anuttar-Pad (Segment of Devasthiti-Pad (Segment of
133
superlatives) life span of gods)
122 Panch Kalyanak-Pad Pratighat-Pad (Segment of
(Segment of five auspicious impediment)
122 events)
454 455 456 41 41 41 41 41 41 4146564141414141414 41 41 41 $56456 451 454545454545454 455 456 457 455 456 457 41 41 41 41 44
160
Fifth Sthaan : Second Lesson 138--178 Mahanadi-Uttaran-Pad
Vyavahar-Pad (Segment of (Segment of crossing
behaviour) great rivers)
Supt-Jagaran-Pad (Segment of 5 Pratham Pravrit-Vihar-Pad
asleep and awake) (Segment of movement
Raj-Adaan-Vaman-Pad during early monsoon season) 139
(Segment of inflow and Varshavas-Vihar-Pad
shedding of karma-dust) (Segment of movement
Datti-Pad (Segment of servings) 160 during monsoon-stay)
Upghat-Vishodhi-Pad (Segment of Anudghatya-Pad (Segment of serious atonement)
impurity and purity)
142 $i Rajanatahpur-Pravesh-Pad
Durlabh-Sulabh-Bodhi-Pad
(Segment of difficult and $ (Segment of entering the $ palace)
143
easy enlightenment) Garbh-Dharan-Pad (Segment of
Pratisamlinata-Apratisamlinata conception)
145
Pad (Segment of engrossment Nirgranth Nirgranthi
and counter-engrossment) 162 Ekatravas-Pad (Segment of
Samvar-Asamvar-Pad
163 male and female ascetics
Samyam-Asamyam-Pad residing together)
149 (Segment of discipline and 4 Asrava Samvar-Pad (Segment of
indiscipline)
164 si inflow and blockage of karmas) 151 Trinavanaspati-Pad 4 Dand-Pad (Segment of
(Segment of gramineous punishment or abuse) 152 plants)
166 Kriya-Pad (Segment of activity) 152 Achar-Pad (Segment of conduct) 167
140
( 18 )
44 445 446 447 448 414 415 414 415 416 4141414141414 415 416 417 41
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
4545454545454545454141414141414141414141414141414141414141414 415 416 41
Achar-Prakalp-Pad (Segment of
conduct atonement) Aropana-Pad (Segment of stalling) 168 Vakshaskar Parvat-Pad
(Segment of Vakshaskar mountains)
169 Mahadrah-Pad (Segment of great lakes)
170 Vakshaskar-Parvat-Pad
(Segment of Vakshaskar mountains)
171 Dhatkikhand-Pushkaravar-Pad 171 Samayakshetra-Pad (Segment of samayakshetra)
171
Avagahana-Pad (Segment of
height) Vibodh-Pad (Segment of awakening)
172 Nirganthi Avalamban-Pad (Segment of support)
173 Acharya Upadhyaya Atishesh-Pad
(Segment of special privilege of
acharya and upadhyaya) Acharya Upadhyaya
Ganapakraman-Pad (Segment of acharya and
upadhyaya leaving the group) 176 Riddhimat-Pad (Segment of
the endowed)
175
455 456 457 454 455 456 457 454 455 455 456 457 455 456 457 4545454545
Fifth Sthaan : Third Lesson
179-214
180
Astikaya-Pad (Segment of agglomerative entity)
179 Dharmastikaya
179 Adharmastikaya Aakashastikaya
181 Jivastikaya
182 Pudgalastikaya
183 Gati-Pad (Segment of genuses) 184 Indriyarth-Pad (Segment of
subjects of sense organs) 185 Mund-Pad (Segment of victors) 185 Badar-Pad (Segment of gross) 186 Achitta-Vayukaya-Pad
(Segment of lifeless air-bodied beings)
188 Nirgranth-Pad (Segment of ascetics)
188 Udadhi-Pad (Segment of means of sustenance)
193 Nishra-Sthaan-Pad (Segment of support)
194 Nidhi-Pad (Segment of treasure) 195 Shauch-Pad (Segment of cleansing) 195
Chhadmasth-Kevali-Pad
(Segment of Chhadmasth
Kevali) Mahanarak-Pad (Segment of
worst hells) Mahavimaan-Pad (Segment of
great celestial vehicles) Sattva-Pad (Segment of courage) Bhikshaak-Pad (Segment of
alms eater) Vanipak-Pad (Segment of beggar) 199 Achel-Pad (Segment of
scantily clad ascetic) Utkal-Pad (Segment of the
extremely powerful) Samiti-Pad (Segment of
self regulation) Jiva-Pad (Segment of
living beings) Gati-Aagati-Pad (Segment of
birth from and to) Jiva-Pad (Segment of beings) Yonisthiti-Pad (Segment of
productive life)
944 455 456 4545454545454545454545454 455 456 454 455 456 457 454
( 19 )
444444444444444444444444444444444444
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
4444444444444444444444444444444444444 4 Samvatsar-Pad (Segment of year) 203 Sutravachana-Pad (Segment of Jivapradesh-Niryanamarg-Pad
recitation of sutra) (Segment of departure of
Kalp-Pad (Segment of soul-space-points)
205 divine realms) Chhedan-Pad (Segment of
Bandh-Pad (Segment of bondage) 211 4 division)
206 Mahanadi-Pad (Segment of Anantarya-Pad (Segment of
great rivers) non-interruption)
206 Tirthankar-Pad (Segment of Anant-Pad (Segment of the
Tirthankar) endless of infinite)
Sabha-Pad (Segment of Jnana-Pad (Segment of
assemblies) knowledge)
208 Nakshatra-Pad (Segment of Pratyakhyan-Pad (Segment of
constellations) obstainment)
209 Paap Karma-Pad (Segment of Pratikraman-Pad (Segment of
demeritorious karmas) critical review)
209 Pudgal-Pad (Segment of matter) 214
207
Sabha-ra
Sixth Sthaan
215-271
Indroduction
216 Ganadhaaran-Pad (Segment of heading the group)
217 Nirgranth Avalamban-Pad (Segment of support)
218 Sadharmik-Antkarma-Pad
(Segment of last rites of
co-religionist) Chhadmasth-Kevali-Pad
(Segment of ChhadmasthKevali)
221 Asambhava-Pad (Segment of 1 impossible)
221 5 Jiva-Pad (Segment of living organisms)
222 Gati-Aagati-Pad (Segment of birth from and to)
223 Jiva-Pad (Segment of beings) 223 Trina-Vanaspati-Pad (Segment of gramineous plants)
224 45 No Sulabh-Pad (Segment of not easy)
225
219
Indriyarth-Pad (Segment of
subjects of sense organs) Samvar-Asamvar-Pad (Segment of
blockage and non-blockage of
inflow of karmas) Saat-Asaat-Pad (Segment of
happiness and sorrow) Prayashchit-Pad (Segment of
atonement) Manushya-Pad (Segment of
human beings) Kaal-Chakra-Pad (Segment of
cycle of time) Samhanan-Pad (Segment of
body constitution) Sansthan-Pad (Segment of
body structure) Anatmavan-Atmavan-Pad
(Segment of non-spiritualist
and spiritualist) Arya-Pad (Segment of arya) Lok-Sthiti-Pad (Segment of structure of universe)
239
4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 455 456 457 455 45 44 45 46 454545454545454545454545454545454
( 20 )
44 41 41 41 41 414
4 4 4 4
4 4 4 4 4 4
4 4
4 4 4 4
4 4 4 4 4 4
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
259
454 455 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41
4 41 41 41 41 44 45 46 47 46 45 4 Disha-Pad (Segment of directions) 239 Ritu-Pad (Segment of seasons) Ahar-Pad (Segment of food) 241 Avamaratra-Pad (Segment of Unmaad-Pad (Segment of madness) 242 date skipping) Pramad-Pad (Segment of stupor) 242 Atiratra-Pad (Segment of Pratilekhana-Pad (Segment of
date skipping) inspection)
243 Arthavagrah-Pad (Segment of Leshya-Pad (Segment of
acquiring information) complexion of soul)
244 Avadhi-Jnana-Pad (Segment of Agramahishis-Pad (Segment of
avadhi-jnana) chief queens)
244 Avachan-Pad (Segment of Sthiti-Pad (Segment of life span) 245
ignoble words) Mahattarika-Pad (Segment of
Kalp-Prastaar-Pad (Segment of principal goddess)
245 formulating atonements) Agramahishis-Pad (Segment of
Palimanthu-Pad (Segment of chief queens)
245 detriments of ascetic praxis) Samanik-Pad (Segment of
Kalpasthiti-Pad (Segment of gods of equal status)
246 praxis observation) Mati-Pad (Segment of intellectual Mahavir Shasht-Bhakt-Pad faculty)
246 (Segment of Mahavir's Tapah-Pad (Segment of austerities) 248 two-day fasting) Vivaad-Pad (Segment of debate) 249
Vimaan-Pad (Segment of Gochar-Charya-Pad (Segment of
celestial vehicles) moving for alms)
250 Deva-Pad (Segment of gods) Mahanarak-Pad (Segment of
Bhojan-Parinam-Pad (Segment of worst hell)
250 benefits of food) Vimaan-Prastat-Pad (Segment of Vish-Parinam-Pad (Segment of
gap between celestial vehicles) 251 effects of poison) Nakshatra-Pad (Segment of
Prashna-Pad (Segment of constellations) 251 question)
265 Itihas-Pad (Segment of history) 252 Virahit-Pad (Segment of Samyam-Asamyam-Pad
ommission)
265 (Segment of discipline and
Ayurbandh-Pad (Segment of indiscipline) 253 life span bondage)
266 Kshetra Parvat-Pad (Segment of Parbhavik Ayurbandh-Pad
areas and mounatians) 254 (Segment of life span Mahadraha-Pad (Segment of
bondage for next birth) great lakes)
255 Bhaava-Pad (Segment of state) Mahanadi-Pad (Segment of
Pratikraman-Pad (Segment of great rivers)
256 critical review) Dhatakikhand-Pushkarvar-Pad
Nakshatra-Pad (Segment of (Segment of Dhatakikhand
constellations)
270 Pushkarvar) 257 Pudgal-Pad
271
455 456 457 455 456 457 455 456 457 4545454545454545454545454545454545454545454545455 456 457 455 456 457 456 457 455 456 457 455 456 457 4554
266
( 21 )
141414141414141414141414141414 454 455 456 414141414141414141414141414141
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
244444444444444444444444444444444444
Seventh Sthaan
272-348
455 456 457 455 456 457 4545454545454 455 456 457 4554545454545454545454545454545454545454545454545454545454545454 %
Introduction
273 Ganapakraman-Pad (Segment of leaving the gana)
274 Vibhang-Jnana-Pad (Segment of
unrighteous knowledge) 275 Yoni-Sangraha-Pad (Segment of place of origin)
281 Gati-Aagati-Pad (Segment of birth from and to)
281 Sangrahasthaan-Pad (Segment of proper management)
282 Asangrahasthaan-Pad (Segment of
improper management) 283 Pratima-Pad (Segment of special codes)
284 Achaarachula-Pad (Segment of achaarachula)
287 Pratima-Pad (Segment of special codes)
287 Adholok-Sthiti-Pad (Segment of
structure of lower world) Badar-Vayukayik-Pad (Segment of
gross air bodied beings) 290 Samsthan-Pad (Segment of structure)
290 Bhaya-Sthaan-Pad (Segment of fear)
291 Chhadmasth-Pad (Segment of the unrighteous)
291 Kevali-Pad (Segment of omniscient)
292 Gotra-Pad (Segment of clan name)
292 Naya-Pad (Segment of stand-points)
295 Svaramandal-Pad (Segment of
sphere of musical scales) 295 Svarotpattisthaan (Points of
origin of musical notes) 296
Jiva Nishrit Sapt Svar
(Seven musical notes
produced by living beings) Ajiva Nishrit Sapt Svar
(Seven musical notes
produced by non-living things) Characteristics and results of
seven svars Gram and Murchchhana of
seven svars Kayaklesh-Pad (Segment of
mortification of body) Kshetra, Parvat, Nadi-Pad
(Segment of areas,
mountains, rivers) Kulakar-Pad (Segment of
clan founders) Kalpavriksh-Pad (Segment of
wish fulfilling tree) Dandaniti-Pad (Segment of
penal code) Chakravarti Ratna-Pad
(Segment of gems of
chakravarti) Dukhama-Sukhama-Lakshan-Pad
(Segment of signs of
dukhama-sukhama) Jiva-Pad (Segment of
living beings) Ayurbhed-Pad (Segment of
accidental death) Jiva-Pad (Segment of
living beings) Brahmadatt-Pad (Segment of
Brahmadatt) Malli-Pravrajya-Pad (Segment of
initiation of Malli) Darshan-Pad (Segment of
perception/faith)
441 41 41 41 41 41 454 455 456 457 45 46 47 46 45 46 41 41 41 41 41 41 45 41 41 41 41 41 41 41 45 456 41 41 45 44 45 46 47 441
289
( 22 )
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
2454 455 456 457 451 445 446 447 44 45 46 454 455 456
457 458 454 455 455 454 455 456 45
320
321
Tamahhhh
f Chhadmasth-Kevali-Pad fi (Segment of Chhadmasthfi Kevali) fi Mahavir-Pad (Segment of
Mahavir) fi Vikatha-Pad (Segment of gossip) 321 Acharaya Upadhyaya Atishesh-Pad
(Segment of special privilege of
Acharya and Upadhyaya) 321 E Samyam-Asamyam-Pad
(Segment of discipline and indiscipline)
322 Arambh-Pad (Segment of sinful activity)
323 f Yonisthiti-Pad (Segment of F productive life)
325 Sthiti-Pad (Segment of life span) 326 Agramahishis-Pad (Segment of chief queens)
326 Deva-Pad (Segment of gods)
326 Nandishvar-Dveep-Pad
(Segment of NandishvarDveep)
328 f Shreni-Pad (Segment of rows)
Anika-Anikadhipati-Pad
(Segment of army and
commander) Anikadhipati-Kakshaa-Pad
(Segment of brigades) Vachan-Vikalp-Pad (Segment of categories of speech)
338 Vinaya-Pad (Segment of modesty) 338 Samudghat-Pad (Segment of
samudghat) Pravachan-Nihnava-Pad
(Segment of mendacious receder)
344 Anubhaava-Pad (Segment of
fruits of karma) Nakshatra-Pad (Segment of
constellations) Koot-Pad (Segment of peaks) Kulkoti-Pad (Segment of species) 347 Paap-Karma-Pad (Segment of
demeritorious karma) 347 Pudgal-Pad (Segment of matter) 348
345 346
117
555 44 445 44 455 456 457 455 456 45 44 45 46 45 44 445 446 44 445 446 447 448 449 455 4 4 4 4 4 4 4
Eighth Sthaan
349-408
350
351
alalalalalalal
353
353
Introduction 5 Ekal-Vihar-Pratima-Pad
(Segment of solitary stay) Yoni-Sangrahe-Pad (Segment of
place of origin) Gati-Aagati-Pad (Segment of
birth from and to) Karma Bandh-Pad (Segment of i bondage of karmas)
Alochana-Pad (Segment of i criticism) Samvar-Asamvar-Pad
(Segment of blockage and non-blockage of inflow of karmas)
Sparsh-Pad (Segment of touch) Lok-Sthiti-Pad (Segment of
structure of universe) Ganisampada-Pad (Segment of
wealth of a gani) Mahanidhi-Pad (Segment of
great wealth) Samiti-Pad (Segment of
self regulation) Alochana-Pad (Segment of
atonement) Prayashcht-Pad (Segment of
atonement) Mad-Sthaan-Pad (Segment of
reasons of conciet)
354
355
110 111 11
365
( 23 )
1455 456 457 4545454545454545454 455 456 457 454 455 456 457 455
456 457
4545454545454545
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 414 415 41456454 455 456 457 454 455 456 41 41 41 41 41 41 41 41 41
373
374
Akriyavadi-Pad (Segment of akriyavadi)
370 Mahanimitt-Pad (Segment of
compendiums of augury) Vachan-Vibhakti-Pad (Segment of infections of words)
371 Chhadmasth-Kevali-Pad
(Segment of Chhadmasth
Kevali) Ayurveda-Pad (Segment of Ayurveda)
374 Agramahishi-Pad (Segment of
chief queens) 4 Mahagraha-Pad (Segment of great planets)
375 4 Trina-Vanaspati-Pad (Segment of gramineous plants)
375 Samyam-Asamyam-Pad
(Segment of discipline and indiscipline)
376 Sukshma-Pad (Segment of minute)
377 Bharat Chakravarti-Pad.
(Segment of Bharat Chakravarti)
377 Parshva-Gana-Pad (Segment of
parshva-gana) 15 Darshan-Pad (Segment of 4 perception/faith)
378 Aupamik-Kaal-Pad (Segment of
conceptual units of time) 378 Arishtanemi-Pad (Segment of Arishtanemi)
379 Mahavir-Pad (Segment of Mahavir)
379 Ahar-Pad (Segment of foods) 380 Krishnaraji-Pad (Segment of rows of darkness)
380 Madhya Pradesh-Pad
(Segment of middle sections) 382 Mahapadma-Pad (Segment of Mahapadma)
383
Krishna-Agramahishi-Pad
(Segment of chief queens of Krishna)
384 Gati-Pad (Segment of genuses) 384 Dveep-Samudra-Pad (Segment of
islands and seas) Kakaniratna-Pad (Segment of
Kakani gem) Maagadh Yojan-Pad (Segment of
Maagadh yojan) Jambudveep-Pad (Segment of Jambu continent)
386 Vijaya-Pad (Segment of Vijaya) 387 Rajdhani-Pad (Segment of capital cities)
389 Arihant-Chakravarti-Pad
(Segment of Arihant and
Chakravarti) Parvat-Gufa-Pad (Segment of
mountains and caves) Dhatakikhand-Dveep-Pad
(Segment of Dhatakikhand
continent) Pushkarvar-Dveep-Pad
(Segment of Pushkarvar continent)
392 Koot-Pad (Segment of peaks) 393 Jagati-Pad (Segment of plateau) 393 Koot-Pad (Segment of peaks) Mahattarika-Pad (Segment of
Mahattarikas) Kalp-Vimaan-Pad (Segment of
divine realms) Pratima-Pad (Segment of
special codes) Jiva-Pad (Segment of living
beings) Samyam-Pad (Segment of
ascetic-discipline) Prithvi-Pad (Segment of lands) 4 Abhyutthatavya-Pad (Segment of alertness)
402
S$ 46 47 46 45 4444544545454 455 454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 451 451 4 4 4 4 4 4 4 4 455 456 457 4551 448
378
( 24 )
$441 41 41 41 41 41 41
41 414 4 4 4 4 4
4 4 4 4 4
4 4 4
4 4 4 4
4 4 4 4 4
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
445455 456 457 455 456 457 458 454 455 456 451555
44 445 446 447 441 41 41 41 41 41 41
405
4 Vimaan-Pad (Segment of celestial vehicles)
403 Vaadi-Sampada-Pad (Segment of wealth of vaadis)
404 Kevali-Samudghat-Pad
(Segment of KevaliSamudghat)
404 Anuttaraupapatik-Pad
(Segment of Anuttaraupapatik) 404 Vanavyantar-Pad (Segment of
interstitial gods)
Jyotishk-Pad (Segment of
stellar gods) Dvar-Pad (Segment of gates) 406 Bandhasthiti-Pad (Segment of duration of bondage)
406 Kulakoti-Pad (Segment of species) 407 Paap-Karma-Pad (Segment of
demeritorious karma) 407 Pudgal-Pad (Segment of matter) 408
1 414141414141455 456 457 455 456 457 451 4545454545454
405
Ninth Sthaan
409-461
4545454545454545454545454464444444444 445454545454545454545454545454545454545454545
Introduction
410 4 Visambhog-Pad (Segment of expulsion)
411 Brahamcharya-Adhyayan-Pad
(Segment of chapters on Brahamcharya)
412 i Brahamcharya-Gupti-Pad 451 (Segment of fences of celibacy) 412 Brahamcharya-Agupti-Pad
(Segment of detriments of celibacy)
413 Tirthankar-Pad (Segment of Tirthankar)
414 Sadbhaava-Padarth-Pad
(Segment of eternal things) 55 Jiva-Pad (Segment of 4 living organisms)
414 Gati-Aagati-Pad (Segment of birth from and to)
415 Jiva-Pad (Segment of living beings)
416 Avagahan-Pad (Segment of 15 space occupation)
416 Samsar-Pad (Segment of cycles of birth)
417 Rogotpatti-Pad (Segment of origin of disease)
417
Darshanavaraniya Karma-Pad
(Segment of darshanavaraniya karma)
419 Jyotish-Pad (Segment of
astrology) Matsya-Pad (Segment of fish) Baladeva-Vaasudeva-Pad
(Segment of Baladeva
Vaasudeva) Mahanidhi-Pad (Segment of
great treasure) Vikriti-Pad (Segment of
contaminants) Bondi-Pad (Segment of body) Punya-Pad (Segment of
meritorious activity) Paap-Shrut-Prasang-Pad
(Segment of elaboration of
evil literature) Naipunik-Pad (Segment of expert) Gana-Pad (Segment of
group of ascetics) Bhikshashuddhi-Pad
(Segment of righteous
alms-seeking) Deva-Pad (Segment of gods) Devanikaya-Pad (Segment of abodes of gods)
431
454 455 456 457 45414141414141414141414141414141414141414
( 25 )
2414454647454464444444444444444444444444
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
©S********************************தி
5555555555555555555555555555555555555
卐
45
卐
卐
卐
卐
卐
(Segment of
Ayu-Parinaam-Pad capacity of ayushya karma)
Pratima-Pad (Segment of special codes)
Prayashchit-Pad (Segment of atonement)
Koot-Pad (Segment of peaks) (Segment of the
Madhyavarti-Pad middle peacks)
Northern peaks
Parshva-Uchchatva-Pad
Bhaavi Tirthankar-Pad (Segment of future Tirthankaras)
Mahapadma Tirthankar-Pad (Segment of Mahapadma Tirthanakar)
(Segment of height of parshva) 440
Tirthankar-Naam-Nirvatan-Pad (Segment of acquiring
Tirthankar naam karma)
Tenth Sthaan
Introduction Lokasthiti-Pad (Segment of state of occupied space) Indriyarth-Pad (Segment of subjects of sense organs)
Achchhinna Pudgal-Chalan-Pad (Segment of shift of
integrated particle)
Krodhotpattisthaan-Pad
(Segment of origin of anger)
Samyam-Asamyam-Pad
(Segment of discipline and indiscipline)
Samvar-Asamvar-Pad
433
435
435
435
436
439
441
443
444
463
464
466
469
470
471
(Segment of blockage of inflow of karmas)
472
Ahankar-Pad (Segment of conceit) 473
Nakshatras-Pad (Segment of constellations)
Vimaan-Pad (Segment of celestial vehicles) Kulakar-Pad (Segment of
kulakars)
Tirtha Pravartan-Pad (Segment of ford establishment)
Antardveep-Pad (Segment of middle islands)
Shukra Graha-Vithi-Pad
(Segment of orbits of venus) Karma-Pad (Segment of karma) Kulakoti-Pad (Segment of
species)
Paap-Karma-Pad (Segment of demeritorious karma)
Samadhi-Asamadhi-Pad
(26)
462-566
(Segment of equanimity and its absence)
Pravrajya-Pad (Segment of
initiation)
Samyam-Asamyam-Pad
(Segment of discipline and indiscipline)
Sukshma-Pad (Segment of minutes)
4575
457
Pudgal-Pad (Segment of matter) 461
458
458
458
458
459
460
Shraman Dharma-Pad
(Segment of shraman dharma) 476 Vaiyavritya-Pad (Segment of
service)
Parinaam-Pad (Segment of manifestation)
Asvadhyaya-Pad (Segment of prohibition of studies)
460
474 5
4755
477
477
479
55555555555555555555555555555555555
480
481
5 46 46 46 46 46 4
卐
卐
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
194555555555555555555555555555555
Mahanadi-Pad (Segment of great rivers)
Rajadhani-Pad (Segment of capital cities)
482
483
Raj-Pad (Segment of kings) Mandar-Pad (Segment of mandar) 483 Disha-Pad (Segment of directions) 484 Gotirtha-Pad (Segment of sloping bank)
Patal Kalash-Pad (Segment of patal kalash)
Parvat-Pad (Segment of mountains)
Jambudveep Kshetra-Pad (Segment of areas in Jambudveep)
Vividh Parvat-Pad (Segment of miscellaneous mountains) Dravyanuyoga-Pad (Segment of disquisition of entities) Utpataparavt-Pad (Segment of utpataparvat)
Avagahana-Pad (Segment of space occupation) Tithankar-Pad (Segment of Tirthankar)
Anant-Pad (Segment of the endless or infinite)
Purvavastu-Pad (Segment of
purvavastu)
Pratisevana-Pad (Segment of
misconduct)
Alochana-Pad (Segment of self-criticism)
Prayashchit-Pad (Segment of
atonement)
Mithyatva-Pad (Segment of
unrighteousness)
Tirthankar Vaasudeva-Pad (Segment of Tirthankar Vaasudeva)
481
484
485
487
487
488
489
491
494
495
495
496
496
497
501
502
502
Sanklesh-Asanklesh-Pad
(Segment of perturbed and unperturbed state of mind) Bal-Pad (Segment of strength) Bhasha-Pad (Segment of speech or language) Drishtivaad-Pad (Segment of
drishtivaad)
( 27 )
Bhavan-Vasi-Pad (Segment of abode dwelling gods)
504
Saukhya-Pad (Segment of joy) 504 卐 Upaghat-Vishodhi-Pad
卐
(Segment of impurity and purity)
Shastra-Pad (Segment of
weapons)
Dosh-Pad (Segment of faults) Vishesh-Pad (Segment of
special faults) Shuddhavag-Anuyoga-Pad (Segment of independent phrases)
Daan-Pad (Segment of charity) Gati-Pad (Segment of
reincarnation)
Mund-Pad (Segment of victors) Sankhyan-Pad (Segment of mathematics)
Pratyakhyan-Pad (Segment of
obstainment)
Samachari-Pad (Segment of
ascetic-behaviour)
Das-Maha-Svapna-Pad
506
507
5055
508
514
515
5125
515
5135
520
520
522
(Segment of ten great dreams) 523 Samyaktva-Pad (Segment of righteousness)
255 595555555 5 55 5 5 5 5 5 55595555 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 55 55 55 2
5175
Sanjna-Pad (Segment of desire) 529 Vedana-Pad (Segment of pain) Chhadmasth-Pad (Segment of Chhadmasth)
卐
528
5185
卐
5195
529
Dasha-Pad (Segment of chapters) 531
530
55555555555546466 467 46 46
卐
45
卐
45
卐
卐
Page #34
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________________
457 458
549
541
554
44 45 46 47 48 414 415 416 41 $555555555554545454545454545454545454545 Kaal-Chakra-Pad (Segment of
Kalp-Pad (Segment of time cycle)
537 divine realms) Anantar-Parampar-Pad
Pratima-Pad (Segment of (Segment of anantar
special codes)
550 parampar)
537 Jiva-Pad (Segment of i Narak-Pad (Segment of hell) 538
living beings)
551 4 Sthiti-Pad (Segment of life span) 538 Shatayushk-Pad (Segment of Bhavibhadratva-Pad (Segment of
hundred years of age) future nobility)
540 Trinavanaspati-Pad (Segment of Ashamsa-Prayoga-Pad
gramineous plants) (Segment of having desires)
Shreni-Pad (Segment of ranges) 553 Dharma-Pad (Segment of
Graiveyak-Pad (Segment of Dharma)
542
graiveyak) 45 Sthavir-Pad (Segment of
Tejasa-Bhasmakaran-Pad 15 senior person)
543
(Segment of burning by Putra-Pad (Segment of son) 544
fire-power)
554 $ Anuttar-Pad (Segment of
Ashcharyak-Pad (Segment of the matchless things)
544
miraculous) Kura-Pad (Segment of Kura) 545
Kaand-Pad (Segment of sections) Dukhama-Lakshan-Pad
Udvedh-Pad (Segment of depth) (Segment of signs of dukhama)
545 Nakshatra-Pad (Segment of
563
constellations) - Sukhama-Lakshan-Pad (Segment of signs of
Jnanavriddhikar-Pad sukhama)
546
(Segment of enhancement of Kalpavriksha-Pad (Segment of
knowledge) wish fulfilling tree)
Kulakoti-Pad (Segment of Kulakar-Pad (Segment of
species) clan founders)
547 Paap-Karma-Pad (Segment of Vakshaskar-Pad (Segment of
demeritorious karma)
564 vakshaskar)
548 Pudgal-Pad (Segment of matter) 566
554414141414141414141414141414141414 415 414141414145454545454545454545454545454554 455 456
56 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 4554
559
563
546
564
Appendix
567-576
45 46 451 451 454 455 4
4
456 457 4
95455
( 28 )
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Page #35
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ॐ नमो समणस्स भगवओ महावीरस्स
Om Namo Samanassa Bhagavao Mahavirassa
पंचमगणहर - सिरिसुहम्मसामिविरइयं तइयं अंगं
ठाणं
पंचमगणधर श्रीसुधर्मास्वामिविरचिततृतीयअंग
स्थानांग
The third Anga Agam by the fifth Ganadhar, Shri Sudharma Swami
THANAM
| 4 5 5 55 5 55 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555597555952
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Page #36
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Page #37
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक FOURTH STHAAN (Place Number Four) : FOURTH LESSON
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ב ו
म प्रसर्पक-पद PRASARPAK-PAD (SEGMENT OF ITINERANT) __५०९. चत्तारि पसप्पगा पण्णत्ता, तं जहा-(१) अणुप्पण्णाणं भोगाणं उप्पाएत्ता एगे पसप्पए, (२) पुबुप्पण्णाणं भोगाणं अविप्पओगेणं एगे पसप्पए, (३) अणुप्पण्णाणं सोक्खाणं उप्पाइत्ता एगे पसप्पए, (४) पुब्बुप्पण्णाणं सोक्खाणं अविप्पओगेणं एगे पसप्पए।
५०९. प्रसर्पक चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई अप्राप्त भोगों को प्राप्त करने के लिए देश-विदेश में भ्रमण करता है, (२) कोई भोग जनित प्राप्त भोगों के संरक्षण के लिए, (३) कोई अप्राप्त सुखों को प्राप्त करने के लिए, और (४) कोई प्राप्त सुखों के संरक्षण के लिए प्रयत्न करता रहता है।
509. Prasarpak (itinerants) are of four kinds-(1) Someone takes to itinerant life (moving around within and outside the country) in order to seek unobtained bhogas (enjoyments). (2) Someone takes to itinerant life in order to sustain obtained experiences. (3) Someone takes to itinerant life in order to seek unavailable happiness (through gratifying
experiences). (4) Someone takes to itinerant life in order to sustain 4 F available happiness.
आहार-पद AHAR-PAD (SEGMENT OF FOOD) __५१०. णेरइयाणं चउविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-इंगालोवमे, मुम्मुरोवमे, सीतले, हिमसीतले।
५१०. नारकीय जीवों का आहार चार प्रकार का है-(१) अंगारोपम-अंगार के समान 5 अल्पकालीन दाह उत्पन्न करने वाला, (२) मुर्मुरोपम-मुर्मुर भोभर की अग्नि के समान दीर्घकाल तक
दाह उत्पन्न करने वाला, (३) शीतल-शीत वेदना उत्पन्न करने वाला, और (४) हिमशीतल-अत्यन्त : शीत वेदना उत्पन्न करने वाला आहार।
510. The ahar (food) of naarakiya jivas (infernal beings) is of four si kinds-(1) angaropam (spark-like)-that which gives spark-like short lived suffering of burn, (2) murmuropam (oven-like)-that which gives sustained suffering of burn like hot ash of a oven, (3) sheetal (cold)— which gives suffering of cold and (4) himasheetal (ice-like cold)—which gives extreme suffering of intense cold.
विवेचन-जिन नरकों में उष्णवेदना निरन्तर रहती है, वहाँ के नारक अंगारोपम और मुर्मुरोपम मृत्तिका का आहार करते हैं और जिन नरकों में शीतवेदना निरन्तर रहती है वहाँ के नारक शीतल +
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गागागागाग नागगगगगगगगगगना
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(3)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙乐55555555558 F और हिमशीतल मृत्तिका का आहार करते हैं। पहले नरक से लेकर तीसरे नरक तक उष्णवेदना और चौथे से आगे सातवें तक शीतवेदना उत्तरोत्तर अधिक-अधिक पाई जाती है।
Elaboration-The infernal beings of hells, where heat-suffering is a norm, eat spark-like and ember-like clay. The infernal beings of hells, where cold-suffering is a norm, eat cold and icy clay. From first hell to the third hell there is a gradual increase in heat-suffering and from fourth to seventh hell there is a gradual increase in cold-suffering.
५११. तिरिक्खजोणियाणं चउविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-कंकोवमे, बिलोवमे, ॐ पाणमंसोवमे, पुत्तमंसोवमे।
५११. तिर्यक्योनिक जीवों का आहार चार प्रकार का है-(१) कंकोपम-कंक' पक्षी के आहार के ॐ समान सुभक्ष्य और सुपाच्य आहार; (२) बिलोपम-बिना चबाये निगला जाने वाला आहार। जैसे-सर्प, # मछली आदि; (३) पाण-मांसोपम-चण्डाल के मांस के समान घृणित आहार; और (४) पुत्र-मांसोपमपुत्र के मांस-सदृश निन्द्य और कठिनाई से खाया जाने वाला आहार।
511. The ahar (food) of tiryakyonik jivas (animal beings) is of 'four kinds-(1) kankopam (kank-like)-food that is easy to eat and digest like the food of bird Kank' (white kite or heron), (2) bilopam (swallowed food)—food that is swallowed without chewing (as done by snake and
fish), (3) paan-masopam-detestable meat like that of a low born F (chandal) and (4) putra-mamsopam (like son's flesh)-detestable and unpalatable food like son's flesh.
५१२. मणुस्साणं चउविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-असणे, पाणे, खाइमे, साइमे।
५१२. मनुष्यों का आहार चार प्रकार का है-(१) अशन-चौबीस प्रकार के धान्यादि से बनी रोटी, + दाल आदि का भोजन, (२) पान-पानी आदि पेय पदार्थ, (३) खाद्य-गुड़, शक्कर, मेवा, फल, मिष्ठान
आदि, और (४) स्वाय-लोंग, इलायची, पान-सुपारी औषध आदि सुगन्धित पदार्थ।
512. The ahar (food) of manushyas (human beings) is of four kinds(1) Ashan-staple food made from twenty four kinds of grains including wheat, rice, pulses, etc. (2) Paan-That which is drunk, such as water,
juice, etc. (3) Khadya--all other eatables including jaggery, sugar, dry$i fruits, fruits, sweets etc. (4) Svadya-Cardamom, clove, beetle-leaf, and $i
suchlike fragrant things.
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१. कंक नामक पक्षी दुष्पाच्य आहार को भी सुख से खाता है और सुख से पचा लेता है-टीका पत्र, २५१॥ 1. Kank (white kite) conveniently eats and digests unpalatable and indigestible food.
(Tika, leaf 251)
स्थानांगसूत्र (२)
(4)
Sthaananga Sutra (2) |
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५१३. देवाणं चउब्विहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते।।
५१३. देवों का आहार चार प्रकार का होता है-(१) वर्णवान्-उत्तम वर्ण (रंग) वाला, (२) गन्धवान्-उत्तम सुगन्ध वाला, (३) रसवान-उत्तम मधुर रस वाला, और (४) स्पर्शवान-मृदु और स्निग्ध स्पर्श वाला। __513. The ahar (food) of devas (divine beings) is of four kinds! (1) Varnavaan--of good colour, (2) gandhavaan-of excellent smell,
(3) rasavaan-of good and sweet taste and (4) sparshavaan-having soft and smooth touch.
विवेचन-देव और नारक जीव कवलाहार नहीं करते है, वे मन से ही पुद्गलों का आकर्षण कर रोमाहार करते हैं। तिर्यंच तथा मनुष्य कवलाहार करते हैं।
Elaboration-Divine and infernal beings do not eat morsels through mouth. They mentally draw particles and ingest through body-pores. + i Animals and human beings eat morsels through mouth.
आशीविष-पद ASHIVISH-PAD (SEGMENT OF THE POISONOUS) _५१४. चत्तारि जातिआसीविसा पण्णत्ता, तं जहा-विच्छुयजातिआसीविसे, मंडुक्कजातिआसीविसे, उरगजातिआसीविसे, मणुस्सजातिआसीविसे।
विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ?
पभू णं विच्छ्यजातिआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा।
मंडुक्कजातिआसीविसस्स [ णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ] ? ___पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे 'भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं' [करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा ] करिस्संति वा।
उरगजाति [ आसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ] ?
पभू णं उरगजातिआसीविसे जंबुद्दीवपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं (संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा) करिस्संति वा।
मणुस्सजाति (आसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते) ?
पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे समयखेत्तपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करेत्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं (संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा) करिस्संति वा।
IPIPIPPPIPI-I-In-.-.-.
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(5)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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________________
५१४. चार प्रकार के जीव जाति (जन्म) से आशीविष होते हैं, जैसे-(१) वृश्चिक, (२) मेंढक, म (३) सर्प, और (४) मनुष्य। ॐ प्रश्न-भगवन् ! जाति-आशीविष वृश्चिक के विष में कितना सामर्थ्य होता है ?
उत्तर-गौतम ! जाति-आशीविष वृश्चिक अपने विष के प्रभाव से आधे भरत क्षेत्र प्रमाण क्षेत्र में ॐ रहने वाले शरीरों को विष-परिणत (व्याप्त) और विदलित कर सकता है। उसके विष में इतना सामर्थ्य के + है, किन्तु कार्य रूप में न कभी उसने अपने इस सामर्थ्य-शक्ति का उपयोग किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में कभी करेगा।
प्रश्न-भगवन् ! जाति-आशीविष मेंढक के विष में कितना सामर्थ्य है ? ॐ उत्तर-गौतम ! जाति-आशीविष मेंढक अपने विष के प्रभाव से भरत क्षेत्र-प्रमाण प्रदेश में रहने + वाले शरीरों को विष से व्याप्त और विष विदलित करने के लिए समर्थ है। उसके विष में इतना सामर्थ्य
है, किन्तु न कभी उसने अपने इस सामर्थ्य का उपयोग किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य 卐 में करेगा।
प्रश्न-भगवन् ! जाति-आशीविष सर्प के विष का कितना सामर्थ्य है ?
उत्तर-गौतम ! जाति-आशीविष सर्प अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप प्रमाण (एक लाख योजन वाले) प्रदेश में रहने वाले शरीरों को विष-परिणत और विदलित करने में लिए समर्थ है। उसके विष म में इतना सामर्थ्य मात्र है, किन्तु न कभी उसने इस सामर्थ्य का उपयोग किया है, न करता है और न
कभी करेगा। म प्रश्न-भगवन् ! जाति-आशीविष मनुष्य के विष का कितना सामर्थ्य है ?
उत्तर-गौतम ! जाति-आशीविष मनुष्य अपने विष के प्रभाव से समय क्षेत्र-प्रमाण (पैंतालीस लाख म योजन) क्षेत्र में रहने वाले शरीरों को विष-परिणत और विदलित करने में लिए समर्थ है। उसके विष
में इतना सामर्थ्य मात्र है, किन्तु न कभी उसने इस सामर्थ्य का उपयोग किया है, न करता है और न ॐ कभी करेगा।
514. Four kinds of beings are jati-ashivish (poisonous by birth(1) vrishchik (scorpion), (2) mendhak (frog), (3) sarp (snake) and (4) manushya (man).
(Question) Bhagavan ! How strong is the venom of jati-ashivish vrishchik (venomous breed of scorpion)?
(Answer) Gautam ! A jati-ashivish urishchik can harm bodies living $i in half the area of Bharat. Its venom is as strong as that but it did not, does not and will not ever employ all that strength.
(Question) Bhagavan ! How strong is the venom of jati-ashivish mendhak (venomous breed of frog)?
| स्थानांगसूत्र (२)
(6)
Sthaananga Sutra (2)
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जाति आशीविष
संपूर्ण भरत क्षेत्र
अर्द्ध भरत क्षेत्र
HARMA
उसन
अढ़ाई द्वीप
चर्म करण्डक
वेश्या करण्डक
ॐ
राज करण्डक
ग्रहपातिक करण्डक
Fon Private & Personal Use Only
wwhiskeletary.org
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| चित्र परिचय-१ |
Illustration No. 1
जाति आशीविष
माताहा
जिसके जन्म से ही दाढ़ों में अथवा जन्मजात विष होता है, उसे जाति आशीविष कहा जाता है।
(१) बिच्छू की पूँछ में जहर होता है। अति विशालकाय बिच्छू के विष में इतनी उत्कृष्ट सामर्थ्य होती है कि वह क्रमशः फैलता हुआ आधे भरत क्षेत्र तक फैल सकता है।
(२) मेंढक की दाढ़ों में रहे विष का उत्कृष्ट प्रभाव सम्पूर्ण छह खण्ड भरत क्षेत्र तक व्याप्त हो सकता है। (३) सर्प जाति के विष का उत्कृष्ट प्रभाव सम्पूर्ण जम्बूद्वीप तक फैल सकता है।
(४) मनुष्य अपने मुख (दाढ़ों) के विष से सम्पूर्ण ढाई द्वीप तक को प्रभावित कर सकता है। किन्तु आज तक किसी ने इतनी सामर्थ्य का उपयोग नहीं किया है।
-स्थान ४, सूत्र ५१४
करण्डक दृश्य-२
(१) चर्मकार करण्डक-जिसमें चमड़े के टुकड़े या चमड़ा छीलने के औजार रखे रहते हैं। (२) वेश्या करण्डक-वेश्या अपनी पेटी में लाख, पीतल, चाँदी आदि के साधारण आभूषण भरकर रखती है। (३) गृहपति करण्डक-श्रेष्ठी अपने बक्से में सोने, मोती आदि के कीमती आभूषण रखता है। (४) राज-करण्डक-राजा अपने बक्से में अत्यन्त मूल्यवान हीरे आदि के आभूषण रखता है। ये चारों क्रमशः एक-दूसरे से श्रेष्ठ माने गये हैं।
-स्थान ४, सूत्र ५४१ JATI-ASHIVISH First Ilustration
A jati-ashivis being is poisonous by birth.
(1) A scorpion has poison in its tail. The poison of a giant scorpion is so strong that spreading gradually it can harm bodies living in half the area of Bharat.
(2) The venom of a frog can harm bodies living in the whole area of Bharat. (3) The venom of a snake can harm bodies living in the whole area of Jambu Dveep.
(4) The venom of a man can harm bodies living in the whole area of Adhai Dveep. However no one has ever employed all that strength.
--Sthaan 4, Sutra 514
KARANDAK Second Illustration
(1) Box of a shoemaker-contains leather cutting tools and pieces of leather.
(2) Box of a prostitute-contains ordinary ornaments made of silver, brass shellac etc.
(3) Box of householder---contains costly ornaments made of real pearls and gold. (4) Box of a king contains invaluable diamond studded ornaments. Each one of these is better than the preceding one.
-Sthaan 4, Sutra 541
Page #43
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(Answer) Gautam ! A jati-ashivish mendhak can harm bodies living 4 in the whole area of Bharat. Its venom is as strong as that but it did not, 4 41 does not and will not ever employ all that strength.
(Question) Bhagavan ! How strong is the venom of jati-ashivish sarp (venomous breed of snake)? ।
(Answer) Gautam ! A jati-ashivish sarp can harm bodies living in the whole area of Jambu Dveep (one hundred thousand Yojans). Its venom is as strong as that but it did not, does not and will not ever employ all that strength.
(Question) Bhagavan ! How strong is the venom of jati-ashivish manushya (venomous breed of man)?
(Answer) Gautam ! A jati-ashivish manushya can harm bodies living " in the whole area of Samaya Kshetra (fourty five hundred thousand
Yojans). Its venom is as strong as that but it did not, does not and will
not ever employ all that strength. ॐ विवेचन-आशी का अर्थ दाढ़ है। जाति अर्थात् जन्म से ही जिनकी दाढ़ों में विष होता है, उन्हें 卐 जाति-आशीविष कहा जाता है। यद्यपि वृश्चिक (बिच्छू) की पूँछ में विष होता है, किन्तु जन्म-जात
विषवाला होने से उसकी भी गणना जाति-आशीविषों के साथ की गई है। म प्रस्तुत सूत्र में जिन चार प्रकार के आशीविष जीवों के विष के सामर्थ्य का निरूपण किया है, वे
सभी जीव आगम-प्ररूपित उत्कृष्ट शरीरावगाहना वाले जानने चाहिए। मध्यम या जघन्य अवगाहना
वालों के विष में इतना सामर्थ्य नहीं होता। इसका एक भाव यह भी हो सकता है कि ये जीव इतने क्षेत्र + में ही पाये जाते हैं। इसलिए उनका क्षेत्र सूचित किया हो।
हिन्दी टीकाकार ने इन सूत्रों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है बिच्छू के डंक में संखिया विष होता म है। बिच्छू ने किसी को डंक मारा, उस प्राणी का शव किसी मांसाहारी जीव ने खाया तो वह भी विषाक्त
होता जायेगा। इस प्रकार परम्परा में वह विष फैलता हुआ आधे भरत क्षेत्र तक फैल सकता है। 卐 बिच्छू व उरग जाति के प्राणियों में विष होता है, यह तो सभी जानते हैं, किन्तु मनुष्य जाति के 5
दाढ़ों में इतना उग्र विष होता है, यह सर्व ज्ञात नहीं है। कहा जाता है जिस मनुष्य ने जीवनभर खटाई, 卐 मिठाई और नमक नहीं खाया हो उसके रक्त में अत्यधिक तेज विष होता है, वह कुपित होकर किसी
को काट ले तो उसके सम्पूर्ण शरीर में विष व्याप्त हो जायेगा। विषैले जीव भी मनुष्य को काटने से मर
जाते हैं। मनुष्य के विष का प्रभाव सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र तक व्याप्त हो सकता है। साथ ही शास्त्रकार यह ॐ भी कहते हैं कि उनके विष में इतनी शक्ति तो है, परन्तु आज तक ऐसा किसी प्राणी ने प्रयोग नहीं
किया। (हिन्दी टीका भाग १ पृष्ठ १०२५) 4 Elaboration-Ashi means molar teeth. Jati-ashivish are beings having 4 venomous teeth or fangs by birth. Although scorpion has poison in its
tail it has been included here because it is also poisonous by birth.
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(7)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson 牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙
Page #44
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46 47 46 456 45
244141414 444 445 446 44 45 46 47 48 449 454 455 456 457 455 456 454 455 456 457 454 4. This aphorism describes the strength of the venom of four kinds of 15
beings that are poisonous by birth. The body size of the beings mentioned here should be taken to be the maximum mentioned in Agams. The venom
of those with medium and minimum size is not so potent. Another 4 interpretation of these statements could be that the area covered refers to 41 the availability of the poisonous beings referred therein.
The commentator (Tika), explaining these aphorisms states--"Sting of a scorpion contains arsenic. If a scorpion stings an animal the arsenic 4 kills it. This toxic dead body when consumed by some carnivore transfers
the toxicity into the body of the flesh eater. If this process continues in progression, the toxicity may spread in an area equivalent to half the area of Bharat.
The fact that scorpion and reptiles are poisonous is universally known but the molars of human beings also contain so strong a poison is a lesser known fact. It is said that the blood of a person who strictly
avoids sour, sweet, and salty things becomes highly toxic. If such person Si bites someone in a fit of anger this poison will spread throughout his
body. Even poisonous beings die when they bite such person. The area where this toxicity may spread is said to be the whole area inhabited by human beings. However, the author also adds that although their poison is so strong no being has ever used the poison to that effect. (Hindi Tika, part 1. p. 1025)
$1455 456 457 454 455 456 457 455 456 44 45 46 47 46 45
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fe-forfanal-T6 VYADHI CHIKITSA-PAD
(SEGMENT OF TREATMENT OF AILMENTS) ५१५. चउविहे वाही पण्णत्ते, तं जहा-वातिए, पित्तिए, सिंभिए, सण्णिवातिए।
५१५. व्याधियाँ चार प्रकार की होती हैं-(१) वातिक-वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली, 卐 (२) पैत्तिक-पित्त शास्त्र विकार से उत्पन्न होने वाली, (३) श्लेष्मिक-कफ के विकार से उत्पन्न होने ॥
वाली, और (४) सानिपातिक-वात, पित्त और कफ के सम्मिलित विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि।। 4 515. Vyadhis (ailments) are of four kinds--(1) vatik-caused due to $
disturbed vaayu (air), (2) paittik-caused due to disturbed pitta (bile), (3) shleshmik-caused due to disturbed kaf (phlegm) and (4) sannipatik---caused due to combined disturbance of all the three said
body humours. $ 496. Esferat farfiras queren, -faw, STHETS, 3187, afara
457 456 457 458 455 456 45 46 47 46 45
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FEITE (2)
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Sthaananga Sutra (2)
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५१६. चिकित्सा के चार अंग हैं-(१) वैद्य, (२) औषध, (३) आतुर (रोगी), और (४) परिचारक ! (परिचर्या करने वाला)। ____516. There are four organs of chikitsa (treatment)—(1) vaidya (doctor), (2) aushadh (medicine), (3) aatur (patient) and (4) paricharak (nurse) __५१७. चत्तारि तिगिच्छगा पण्णत्ता, तं जहा-आततिगिच्छए णाममेगे णो परतिगिच्छए, परतिगिच्छए णाममेगे णो आततिगिच्छए, एगे आततिगिच्छएवि परतिगिच्छएवि, एगे णो आततिगिच्छए णो परतिगिच्छए। ___५१७. चिकित्सक (वैद्य) चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई वैद्य अपनी चिकित्सा करता है, दूसरे । की नहीं करता; (२) कोई दूसरे की चिकित्सा करता है, अपनी नहीं करता; (३) कोई अपनी भी है चिकित्सा करता है और दूसरे की भी करता है; तथा (४) कोई न अपनी चिकित्सा करता है और न दूसरे की ही करता है।
517. Chikitsak (doctors) are of four kinds-(1) some doctor cures himself and not others, (2) some doctor cures others and not himself, (3) some doctor cures himself as well as others and (4) some doctor neither cures himself nor others. व्रणकर-पद VRANKAR-PAD
५१८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-वणकरे णाममेगे णो वणपरिमासी, वणपरिमासी । णाममेगे णो वणकरे, एगे वणकरेवि वणपरिमासीवि, एगे णो वणकरे णो वणपरिमासी।
५१८. व्रण (ऑप्रेशन या शल्यचिकित्सा) करने वाले पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई चिकित्सक व्रण-(घाव) करता है, किन्तु उसका परिमर्श-अच्छी प्रकार सफाई आदि नहीं करता; (२) कोई व्रण (घाव) का परिमर्श-(सफाई) करता है, किन्तु व्रण नहीं करता; (३) कोई व्रण भी करता है और व्रण-परिमर्श भी करता है; तथा (४) कोई न व्रण करता है और न व्रण का परिमर्श करता है। '
518. There are four kinds of men who do surgery (vran)-(1) some doctor incises but does not clean the wound (uran-parimarsh), (2) some doctor cleans the wound but does not incise, (3) some doctor incises as well as cleans the wound and (4) some doctor neither incises nor cleans the wound.
५१९. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-वणकरे णाममेगे णो वणसारक्खी, वणसारक्खी णाममेगे णो वणकरे, एगे वणकरेवि वणसारक्खीवि, एगे णो वणकरे णो वणसारक्खी।
५१९. व्रण करने वाले पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई व्रण करता है, किन्तु व्रण पर पट्टी आदि बाँधकर उसकी रक्षा नहीं करता; (२) कोई व्रण का संरक्षण करता है, किन्तु व्रण नहीं करता;
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(9)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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ॐ (३) कोई व्रण करता है और उसका संरक्षण भी करता है; तथा (४) कोई न व्रण करता है और न म उसका संरक्षण करता है।
519. There are four kinds of men who do surgery (vran)-(1) some doctor 卐 incises but does not protect the wound by bandaging (uran-samrakshan), 卐 (2) some doctor protects the wound by bandaging but does not incise,
(3) some doctor incises as well as protects the wound by bandaging and
(4) some doctor neither incises nor protects the wound by bandaging. म ५२०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा–वणकरे णाममेगे णो वणसरोही, वणसरोही ॐणाममेगे णो वणकरे, एगे वणकरेवि वणसरोहीवि, एगे णो वणकरे णो वणसरोही।
__ ५२०. व्रणकर करने वाले पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) व्रण कर, न व्रणरोही-कोई व्रण म करता है, किन्तु व्रणसंरोही नहीं होता अर्थात् घाव भरने के लिए औषधि नहीं देता; (२) कोई व्रणरोही होता है (घाव भरने की दवा देता है), किन्तु व्रण नहीं करता; (३) कोई व्रण भी करता है और व्रणरोही भी होता है; तथा (४) कोई न व्रणकर होता है और न व्रणसरोही ही होता है।
520. There are four kinds of men who do surgery (vran)–(1) some doctor incises but does not administer healing medicine (vran-samrohi), (2) some doctor administers healing medicine but does not incise, (3) some doctor incises as well as administers healing medicine and (4) some doctor neither incises nor administers healing medicine. अन्त-बहिण-पद ANTARBAHIRVRAN-PAD
(SEGMENT OF INNER AND OUTER INFECTION) ५२१. चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा-अंतोसल्ले णाममेगे णो बाहिंसल्ले, बाहिंसल्ले णाममेगे + णो अंतोसल्ले, एगे अंतोसल्लेवि बाहिंसल्लेवि, एगे णो अंतोसल्ले णो बाहिंसल्ले। म एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-अंतोसल्ले णाममेगे णो बाहिंसल्ले, बाहिंसल्ले णाममेगे णो अंतोसल्ले, एगे अंतोसल्लेवि बाहिंसल्लेवि, एगे णो अंतोसल्ले णो बाहिंसल्ले।
५२१. व्रण चार प्रकार के होते हैं-(१) अन्तःशल्य, न बहिःशल्य-कुछ घावों में भीतर शल्य होता है, पर बाहर दिखाई नहीं देता; (२) कुछ घावों के बाहरी सतह पर ही शल्य होता है, भीतर नहीं; ॐ (३) कुछ घावों का शल्य बाहर दिखाई देता है और भीतर भी गहरा होता है; तथा (४) कुछ घावों में
शल्य न बाहर होता है और न भीतर। + पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई भीतरी शल्य वाला (गूढ़ कपट वाला) होता है, किन्तु + बाहरी शल्य वाला नहीं; (२) कोई बाहरी शल्य वाला होता है, भीतरी शल्य वाला नहीं; (३) कोई
भीतरी शल्य वाला भी होता है और बाहरी शल्य वाला भी तथा (४) कोई न भीतरी शल्य वाला होता है 卐 और न बाहरी शल्य वाला।
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स्थानांगसूत्र (२)
(10)
Sthaananga Sutra (2)
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521. There are four kinds of vran (wounds)-(1) some vran (wound) has infection (shalya) inside but it is not visible on the surface, (2) some wound has infection on the surface and not inside, (3) some wound has infection inside as well as on the surface and (4) some wound has infection neither inside nor the surface.
Men are also of four kinds—(1) some man is crooked (shalya) inside but not in appearance, (2) some man is deceitful in appearance and not inside, (3) some man is deceitful inside as well as in appearance and (4) some man is deceitful neither inside nor in appearance.
५२२. चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा-अंतोदुढे णाममेगे णो बाहिंदुढे, बाहिंदुढे णाममेगे णो ॐ अंतोदुढे, एगे अंतोदुडेवि बाहिंदुद्वेवि, एगे णो अंतोदुढे णो बाहिंदुहे।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-अंतोदुढे णाममेगे णो बाहिंदुद्वे, बाहिंदुढे णाममेगे + णो अंतोदुढे, एगे अंतोदुडेवि बाहिंदुडेवि, एगे णो अंतोदुढे णो बाहिंदुढे।
५२२. व्रण चार प्रकार के होते हैं-(१) अन्तर्दुष्ट, न बहिर्दुष्ट-कोई व्रण भीतर से दुष्ट (विकृत सड़ा-गला) होता है, किन्तु बाहर से दुष्ट नहीं होता; (२) कोई व्रण बाहर से दुष्ट होता है, किन्तु भीतर
से दुष्ट नहीं होता; (३) कोई व्रण भीतर से भी दुष्ट होता है और बाहर से भी; तथा (४) कोई व्रण न ॐ भीतर से दुष्ट होता है और न बाहर से। है इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई अन्दर से (मन से) दुष्ट होता है, किन्तु बाहर
से दुष्ट नहीं होता (दीखने में सौम्य दिखता है); (२) कोई बाहर (आकृति, वाणी व व्यवहार) से दुष्ट 卐 होता है, किन्तु भीतर से नहीं होता; (३) कोई अन्दर से भी दुष्ट होता है और बाहर से भी, तथा (४) कोई न अन्दर से दुष्ट होता है और न बाहर से।
522. There are four kinds of uran (wounds)-(1) some vran (wound) has 卐 virulent (dusht) infection (shalya) inside but not on the surface, (2) some
wound has virulent infection on the surface and not inside, (3) some wound has virulent infection inside as well as on the surface and (4) some wound has no virulent infection either inside or on the surface.
Men are also four kinds—(1) some man is evil (dusht) inside but not in appearance (appears good), (2) some man is evil in appearance (speech and disposition) and not inside, (3) some man is evil inside as well as in
appearance and (4) some man is evil neither inside nor in appearance. क विवेचन-व्रण अर्थात् घाव। व्रण दो प्रकार के होते हैं-(१) बाह्य व्रण-शरीर के किसी अंग में चाकू, + सुई, काँटा, काँच आदि नुकीले पदार्थ चुभने से घाव हो जाते हैं, ऐसे घाव बाह्य व्रण कहे जाते हैं।
(२) फोड़ा, फुसी आदि के रूप में फूटकर जो भीतर में घाव का रूप धारण कर लेते हैं, वे अन्तव्रण म (अन्तःशल्य) कहे जाते हैं।
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(11)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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द्रव्य-भाव भेद से भी व्रण के दो भेद हैं-शरीर के घाव द्रव्य व्रण हैं, तथा स्वीकृत व्रतों में दोष, अतिचार आदि भाव व्रण है। भाव व्रण की चिकित्सा आलोचना, निंदा, प्रतिक्रमण आदि से होती है। शास्त्र 4 में भावशल्य तीन प्रकार के बताये हैं-(१) माया शल्य, (२) निदान शल्य, और (३) मिथ्यादर्शन शल्य। म इन चौभंगियों को द्रव्य, भाव दोनों पक्षों में घटित कर समझना चाहिए। (संस्कृत वृत्ति भाग २ पृष्ठ ४५४)
Elaboration-Vran means wound. They are of two types-(1) bahya 5 vran (outer wound)--the wound made by a sharpe edged thing like knife,
needle, thorn, glass etc. (2) Antar vran-boil, tumour and other such inner infections that burst open.
There are two classes of wound from the angles of dravya (physical) and bhaava (mental). Wounds on the body are dravya-vran (physical wounds) and transgressions or faults in accepted vows are bhaava-vran (mental wounds). The cure of mental wounds is effected through selfcriticism, self-reproach and critical review. In scriptures there is a mention of three classes of bhaava-shalya (mental thorn)-(1) maaya shalya (thorn of deceit), (2) nidaan shalya (thorn of desires) and (3) mithyadarshan-shalya (thorn of unrighteousness). All these quads should be interpreted both ways, physical and mental. श्रेयस्-पापीयस्-पद SHREYAS-PAAPIYAS-PAD
(SEGMENT OF NOBLE AND IGNOBLE) ५२३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सेयंसे णाममेगे सेयंसे, सेयंसे णाममेगे पावंसे, के पावंसे णाममेगे सेयंसे, पावंसे णाममेगे पावंसे। ॐ ५२३. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष ज्ञान व सद्भाव की अपेक्षा श्रेयान्+ श्रेष्ठ/प्रशंसनीय होता है और आचरण की अपेक्षा भी श्रेष्ठ होता है; (२) कोई ज्ञान की अपेक्षा तो श्रेयान्
होता है, किन्तु आचरण की अपेक्षा पापीयान् (अत्यन्त निकृष्ट) होता है; (३) कोई मिथ्या-ज्ञान की ॐ अपेक्षा पापीयान् होता है, किन्तु आचार की अपेक्षा श्रेयान्; तथा (४) कोई मिथ्या-ज्ञान की अपेक्षा भी + पापीयान् और कदाचार की अपेक्षा भी पापीयान् होता है।
523. Purush (men) are of four kinds—(1) Some person is shreyan 45 (noble) in terms of right knowledge and good disposition and also in terms 4
of aachar (conduct). (2) Some person is shreyan (noble) in terms knowledge but paapiyan (ignoble) in terms of conduct. (3) Some person is
ignoble in terms of false knowledge and noble in terms of conduct. 9 (4) Some person is ignoble in terms of false knowledge as well as conduct.
५२४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्तिसालिसए, सेयंसे ॐ णाममेगे पावंसेत्तिसालिसए, पावंसे णाममेगे सेयंसेत्तिसालिसए, पावंसे णाममेगे पावंसेत्तिसालिसए।
स्थानांगसूत्र (२)
(12)
Sthaananga Sutra (2)
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५२४. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष ज्ञान की दृष्टि से श्रेयान् (श्रेष्ठ) होता है, किन्तु आचरण की दृष्टि से श्रेयानूसदृश अर्थात् श्रेष्ठ के समान होता है; (२) कोई ज्ञान की अपेक्षा तो श्रेयान, किन्तु आचरण की अपेक्षा पापीयान् सदृश होता है; (३) कोई ज्ञान की अपेक्षा पापीयान् किन्तु आचरण की अपेक्षा श्रेयान्सदृश होता है; तथा (४) कोई कु-ज्ञान की अपेक्षा पापीयान् और कदाचरण की अपेक्षा पापीयान् सदृश होता है।
524. Purush (men) are of four kinds--(1) Some person is shreyan (noble) in terms of knowledge and shreyan-sadish (noble-like) in terms of aachar (conduct). (2) Some person is noble in terms knowledge but paapiyan-sadrish (ignoble-like) in terms of conduct. (3) Some person is ignoble in terms of knowledge and noble-like in terms of conduct. (4) Some person is ignoble in terms of knowledge and ignoble-like in terms of conduct.
५२५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णति, सेयंसे ॥ णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति, पावंसे णाममेगे सेयंसेत्ति मण्णति, पावंसे णाममेगे पावंसेत्ति मण्णति।।
५२५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष श्रेष्ठ होता है और दूसरों द्वारा भी श्रेष्ठ माना जाता है; (२) कोई श्रेष्ठ होता है, किन्तु दूसरों द्वारा पापात्मा माना जाता है; (३) कोई पापात्मा होता है, # किन्तु दूसरों द्वारा श्रेष्ठ माना जाता है; तथा (४) कोई पापात्मा होता है और दूसरों द्वारा भी पापात्मा म माना जाता है। $ 525. Purush (men) are of four kinds (1) Some person is shreyan
(noble) and accepted as noble by others. (2) Some person is noble but accepted as paapiyan (ignoble) by others. (3) Some person is ignoble but accepted as noble by others. (4) Some person is ignoble but accepted as ignoble by others. ___ ५२६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सेयंसे णाममेगे सेयंसेत्तिसालिसए मण्णति, सेयंसे णाममेगे पावंसेत्तिसालिसए मण्णति, पावंसे णाममेगे सेयंसेत्तिसालिसए मण्णति, पावंसे णाममेगे पावंसेत्तिसालिसए मण्णति।
५२६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) श्रेयान्, श्रेयान्-सदृशम्मन्य-कोई पुरुष श्रेष्ठ होता है और लोगों द्वारा श्रेष्ठ के समान माना जाता है; (२) श्रेयान् और पापीयान्-सदृशम्मन्य-कोई श्रेष्ठ होता है, किन्तु पापात्मा के समान माना जाता है; (३) कोई पापात्मा होता है, किन्तु श्रेष्ठ के समान माना जाता है;
तथा (४) कोई पापात्मा होता है और पापात्मा के समान ही माना जाता है। : 526. Purush (men) are of four kinds-(1) Some person is shreyan
(noble) and is accepted as shreyan-sadrish (noble-like) by others. (2) Some 卐 person is noble but accepted as paapiyan-sadrish (ignoble-like) by others.
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(13)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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4i (3) Some person is ignoble and is accepted as noble-like by others. $1 (4) Some person is ignoble and is accepted as ignoble-like by others.
विवेचन-श्रेयान् का अर्थ है-श्रेष्ठ अथवा प्रशंसा योग्य। पापीयान् का अर्थ है-पापात्मा और निन्दनीय। श्रेयान्मन्य का अर्थ है-दूसरों द्वारा ऐसा माना जाता है अथवा स्वयं को ऐसा मानता है। वास्तव में वह कुछ और होता है, परन्तु लोगों में ऐसा माना जाता है। श्रेयान्सदृश का अर्थ है-सर्वथा श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु श्रेष्ठ के समान। कुछ आंशिक श्रेष्ठ होते हैं, किन्तु अपने आपको अधिक श्रेष्ठ मानते हैं। कुछ अल्प पापी होते हैं, ॐ परन्तु अपने आपको बहुत अधिक पापी मानते हैं। यह सब कथन द्रव्य और भाव की अपेक्षा , अन्तर और बाह्य की अपेक्षा से अनेक चौभंगियों द्वारा कहा जा सकता है। (हिन्दी टीका, पृ. १०४०-४१)
___Elaboration-Shreyan means noble, good or praiseworthy. Paapiyan Si means ignoble, sinner or reprehensible. Shreyanmanya means accepted
by himself or others as noble. In fact such a person is different than what he is considered. Shreyan-sadrash means noble-like but not exactly noble. Some people are partially noble but believe themselves to be more noble than what they are. Some are partially sinful but believe themselves to be more ignoble than they are. All these statements can be elaborated into many quads from physical and mental or outer and inner angles. (Hindi Tika pp. 1040-1041) 37764742-46 AKHYAYAK-PAD (SEGMENT OF COMMENTATOR)
५२७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आघवइत्ता णाममेगे णो पविभावइत्ता, पविभावइत्ता णाममेगे णो आघवइत्ता, एगे आघवइत्तावि पविभावइत्तावि, एगे णो आघवइत्ता णो म पविभावइत्ता।
५२७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष प्रवचन का आख्यायक (कथन करने वाला) 卐 होता है, किन्तु प्रभावक (शासन की प्रभावना करने वाला) नहीं होता; (२) कोई प्रभावक तो होता है,
किन्तु आख्यायक नहीं; (३) कोई आख्यायक भी होता है और प्रभावक भी, तथा (४) कोई न (श्रमण) ॐ आख्यायक होता है और न प्रभावक ही।
527. Purush (men) are of four kinds-(1) Some person is akhyayak (commentator of scriptures) but not prabhavak (popularizer of religious order). (2) Some person is prabhavak but not akhyayak. (3) Some person is akhyayak as well as prabhavak. (4) Some person is neither akhyayak nor prabhavak.
५२८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आघवइत्ता णाममेगे णो उंछजीविसंपण्णे, उंछजीविसंपण्णे णाममेगे णो आघवइत्ता, एगे आघवइत्तावि उंछजीविसंपण्णेवि, एगे णो आघवइत्ता ॐ णो उंछजीविसंपण्णे।
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५२८. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष आख्यायक (शास्त्र व्याख्याता) तो होता है, किन्तु उञ्छजीविकासम्पन्न (निर्दोष भिक्षाचरी करने वाला) नहीं होता है; (२) कोई उञ्छजीविकासम्पन्न तो होता है, किन्तु आख्यायक नहीं; (३) कोई आख्यायक भी होता है और उञ्छजीविकासम्पन्न भी, तथा 5 (४) कोई न आख्यायक ही होता है और न उञ्छजीविकासम्पन्न। ___528. Purush (men) are of four kinds-(1) Some person (ascetic) is; akhyayak (commentator of scriptures) but not unchhajivika sampanna (faultless in alms-seeking). (2) Some person is unchhajivika sampanna but not akhyayak. (3) Some person is akhyayak as well as unchhajivika sampanna. (4) Some person is neither akhyayak nor unchhajivika sampanna. वृक्ष-विक्रिया-पद VRIKSHA-VIKRIYA-PAD
(SEGMENT OF DEVELOPMENT OF A TREE) ५२९. चउबिहा रुक्खविगुव्वणा पण्णत्ता, तं जहा-पवालत्ताए, पत्तत्ताए, पुष्फत्ताए, फलत्ताए।
५२९. वृक्षों की विक्रिया (विकास) चार प्रकार की होती है-(१) प्रवाल (कोंपल) के रूप से, (२) पत्र के रूप से, (३) पुष्प के रूप से, और (४) फल के रूप से।
529. Vriksha-vikriya (development of a tree) is of four kinds (1) context of praval (sprouts), (2) in context of patra (leaves), (3) in context of pushp (flowers) and (4) in context of phal (fruits). वादि-समवसरण-पद VAADI-SAMAYASARAN-PAD (SEGMENT OF SECTS)
५३०. चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता, तं जहा-किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणियावादी, वेणइयावादी।
५३०. वादियों के चार समवसरण (समुदाय) हैं-(१) क्रियावादि-समवसरण-पुण्य-पाप रूप क्रियाओं को मानने वाले आस्तिकों का समुदाय, (२) अक्रियावादि-समवसरण-पुण्य-पापरूप क्रियाओं के को नहीं मानने वाले नास्तिकों का समवसरण. (३) अज्ञानवादि-समवसरण-अज्ञान को ही शान्ति या सुख का कारण मानने वालों का और (४) विनयवादि-समवसरण-सभी जीवों की विनय करने से मुक्ति के मानने वालों का समुदाय।
530. Vadi-sanavasaran (gathering of schools of thought; sects) are of four kinds-(1) Kriyavadi-samavasaran-those who believe in salvation through righteous and unrighteous activity (astik), (2) Akriyavadisamavasaran-those who do not believe in salvation through righteous and unrighteous activity (nastik), (3) Ajnanavadi-samavasaran—those 45 who consider ignorance to be the cause of bliss and peace and
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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5555555555555555555555555555555555558 (4) Vinayavadi-samavasaran-those believe that salvation can be
achieved only through modest behaviour towards all beings. * ५३१. णेरइयाणं चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता, तं जहा-किरियावादी, जाव म (अकिरियावादी, अण्णाणियावादी) वेणइयावादी। ५३२. एवमसुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं। एवं-विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं।
५३१. नारकों के चार समवसरण हैं-(१) क्रियावादि-समवसरण, (२) अक्रियावादी-समवसरण, (३) अज्ञानवादि-समवसरण, और (४) विनयवादि-समवसरण। ५३२. इसी प्रकार असुरकुमारों से ॐ लेकर स्तनितकुमारों तक चार-चार वादिसमवसरण कहे हैं। इसी प्रकार विकलेन्द्रियों को छोड़कर + वैमानिक-पर्यन्त सभी दण्डकों के चार-चार समवसरण जानना चाहिए।
531. Naaraks (infernal beings) have four vadi-samavasaran 卐 (sects)-(1) Kriyavadi-samavasaran, (2) Akriyavadi-samavasaran, 卐 (3) Ajnanavadi-samavasaran and (4) Vinayavadi-samavasaran. 532. In
the same way divine beings from Asur Kumars to Stanit Kumars have four vadi-samavasaran (sects) each. In the same way except vikalendriya (two to four sensed) beings all beings belonging to all
dandaks (places of suffering) up to Vaimanik gods have four vadi4 samavasaran (sects) each.
विवेचन-जहाँ पर विभिन्न मत वाले एकत्र हों, उस स्थान को समवसरण कहते हैं। भगवान महावीर के समय में सूत्रोक्त चारों प्रकार के वादियों के समवसरण (समुदाय) थे और उनके भी उत्तर भेद बहुत ॐ थे, जैसे-(१) क्रियावादियों के १८०, (२) अक्रियावादियों के ८४, (३) अज्ञानवादियों के ६७, और फ़
(४) विनयवादियों के ३२ उत्तरभेद। ॐ इस प्रकार भगवान महावीर के समय में तीन सौ तिरेसठ वादियों के होने का उल्लेख श्वेताम्बर ॥ 9 और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में पाया जाता है।
Elaboration-A place where people belonging to different schools of thought (vaadi) congregate is called samavasaran. During the period of Bhagavan Mahavir aforesaid four sects existed. These four sects had numerous branches each-(1) Kriyavadis-180 sub-sects, (2) Akriyavadi84 sub-sects, (3) Ajnanavadi-67 sub-sects and (4) Vinayavadi-32 subsects. The mention of these three hundred sixty three vaadis (sects) contemporary to Bhagavan Mahavir is available in both Digambar as well as Shvetambar scriptures. मेघ-पद MEGH-PAD (SEGMENT OF CLOUDS)
५३३. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-गज्जित्ता णाममेगे णो वासित्ता, वासित्ता णाममेगे णो # गज्जित्ता, एगे गज्जित्तावि वासित्तावि, एगे णो गज्जित्ता णो वासित्ता। | स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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___ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-गज्जित्ता णाममेगे णो वासित्ता, वासित्ता णाममेगे णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्तावि वासित्तावि, एगे णो गज्जित्ता णो वासित्ता।
५३३. मेघ चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई मेघ (बादल) गरजता है, किन्तु बरसता नहीं; (२) कोई मेघ बरसता है, किन्तु गरजता नहीं; (३) कोई मेघ गरजता भी है और बरसता भी है; तथा . (४) कोई मेघ न गरजता है और न बरसता ही है। ____ इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष गरजता है, किन्तु बरसता नहीं। अर्थात् बड़े-बड़े कामों को करने की उद्घोषणा व प्रतिज्ञाएँ करता है, किन्तु उन कामों को पूरा नहीं करता है; (२) कोई बरसता है, कार्यों को पूर्ण करता है, किन्तु गरजता नहीं, उद्घोषणा नहीं करता; (३) कोई कार्यों को करने की गर्जना भी करता है और उन्हें पूरा भी करता है; तथा (४) कोई कार्यों को करने की न घोषणा करता है और न उन्हें पूरा करता ही है।
533. Megh (clouds) are of four kinds—(1) Some cloud thunders but i does not rain. (2) Some cloud rains but does not thunder. (3) Some cloud thunders as well as rains. (4) Some cloud neither rains nor thunders.
In the same way purush (men) are of four kinds—(1) Some man thunders but does not rain. In other words he boasts and promises about i great deeds but does not accomplish them. (2) Some man rains but does
not thunder. In other words he acts and does not boast. (3) Some man 4 i thunders as well as rains. In other words he acts as well as boasts. (4) Some man neither rains nor thunders. In other words he neither acts nor boasts.
५३४. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-गज्जित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता । णाममेगे णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्तावि विज्जुयाइत्तावि, एगे णो गज्जित्ता णो विज्जुयाइत्ता।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-गज्जित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्तावि विज्जुयाइत्तावि, एगे णो गज्जित्ता णो विज्जुयाइत्ता। __५३४. मेघ चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई मेघ गरजता है, किन्तु चमकता नहीं है; (२) कोई 5 मेघ चमकता है, किन्तु गरजता नहीं है; (३) कोई मेघ गरजता भी है और चमकता भी है; और (४) कोई मेघ न गरजता है न चमकता है।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष दानादि करने की घोषणा गर्जना-तो म करता है, किन्तु चमकता नहीं अर्थात् देता नहीं है; (२) कोई दानादि देकर चमकता तो है, किन्तु
घोषणा नहीं करता; (३) कोई गर्ज कर घोषणाएँ भी करता है और देकर चमकता भी है; तथा । । (४) कोई न घोषणा करता है और न देकर के चमकता ही है।
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| चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(17)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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In the same way purush (men) are of four kinds – (1) Some man 5 thunders (boasts of donating ) but does not flash (donate ). ( 2 ) Some man 5 5 flashes (donates) but does not thunder (boast of donating ). ( 3 ) Some man फ्र thunders (boasts of donating) as well as flashes (donates). (4) Some man फ्र neither flashes (boasts of donating ) nor thunders (donates). ५३५. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा - वासित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे णो वासित्ता, एगे वासित्तावि विज्जुयाइत्तावि, एगे णो वासित्ता णो विज्जुयाइत्ता । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - वासित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे णो वासित्ता, एगे वासित्तावि विज्जुयाइत्तावि, एगे णो वासित्ता णो विज्जुयाइत्ता ।
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534. Megh (clouds) are of four kinds (1) Some cloud thunders but 5 does not flash (flash of lightening ). ( 2 ) Some cloud flashes but does not 5 thunder. (3) Some cloud thunders as well as flashes. ( 4 ) Some cloud neither flashes nor thunders.
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५३५. मेघ चार प्रकार के होते हैं - (१) कोई मेघ बरसता है, किन्तु चमकता नहीं; (२) कोई मेघ चमकता है, किन्तु बरसता नहीं; (३) कोई मेघ बरसता भी है और चमकता भी है; तथा (४) कोई मेघ न बरसता है और न चमकता ही है।
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In the same way purush (men) are of four kinds (1) Some man rains 5 (donates) but does not flash (flaunt about his donation). (2) Some man
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फ rains (flaunts about donating) as well as flashes (donates ) (4) Some man फ
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - (१) कोई पुरुष दानादि देता है, किन्तु उसका दिखावा 5 या प्रदर्शन नहीं करता (२) कोई दानादि देने की बड़ी-बड़ी बातें करता है, किन्तु देता कुछ नहीं; (३) कोई दानादि की वर्षा भी करता है और उसका दिखावा कर चमकता भी है; तथा (४) कोई न दानादि की वर्षा करता है और न देकर के चमकता ही है ।
535. Megh (clouds) are of four kinds – ( 1 ) Some cloud rains but does not flash (flash of lightening). (2) Some cloud flashes but does not rain. (3) Some cloud rains as well as flashes. (4) Some cloud neither flashes nor rains.
flashes (flaunts about donating ) but does not rain (donate). ( 3 ) Some man
५३६. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा - कालवासी णाममेगे णो अकालवासी, अकालवासी 5 णाममेगे णो कालवासी, एगे कालवासीवि अकालवासीवि, एगे णो कालवासी णो अकालवासी ।
neither flashes (flaunts about donating ) nor rains (donates).
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - कालवासी णाममेगे णो अकालवासी, अकालवासी णाममेगे णो कालवासी, एगे कालवासीवि अकालवासीवि, एगे णो कालवासी णो अकालवासी
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स्थानांगसूत्र ( २ )
(18)
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Sthaananga Sutra (2)
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५३६. मेघ चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई मेघ समय पर बरसता है, किन्तु असमय में नहीं है बरसता; (२) कोई मेघ असमय में बरसता है, किन्तु समय पर नहीं बरसता; (३) कोई मेघ समय पर भी बरसता है और असमय में भी बरसता है; तथा (४) कोई मेघ न समय पर ही बरसता है और न 5 असमय में ही बरसता है।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष समय पर (अवसर आने पर) दानादि देता है, किन्तु असमय में नहीं देता; (२) कोई असमय में, (बिना प्रसंग के) दानादि देता है, किन्तु समय पर (प्रसंग पर) नहीं देता; (३) कोई समय पर भी दानादि देता है और असमय में भी देता है; तथा ऊ (४) कोई न समय पर ही देता है और न असमय में ही देता है।
536. Megh (clouds) are of four kinds—(1) Some cloud rains timely and does not rain untimely. (2) Some cloud rains untimely but does not rain timely. (3) Some cloud rains timely as well as untimely. (4) Some cloud neither rains timely nor untimely.
In the same way purush (men) are of four kinds—(1) Some man rains 45 timely (donates at the right opportunity) but does not rain untimely (donate without right opportunity). (2) Some man rains untimely
(donates without right opportunity) but does not rain timely (donate at i F the right opportunity). (3) Some man rains timely as well as untimely h. (donates at and also without right opportunity). (4) Some man neither
rains timely nor untimely (does not donate at or without right opportunity).
५३७. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी, अखेत्तवासी णाममेगे णो खेत्तवासी, एगे खेत्तवासीवि अखेत्तवासीवि, एगे णो खेत्तवासी णो अखेत्तवासी। ___ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी, अखेत्तवासी है
णाममेगे णो खेत्तवासी, एगे खेत्तवासीवि अखेत्तवासीवि, एगे णो खेत्तवासी णो अखेत्तवासी। __ ५३७. मेघ चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई मेघ क्षेत्र-(उपजाऊ भूमि) पर बरसता है, किन्तु म अक्षेत्र-(ऊसरभूमि) पर नहीं बरसता है; (२) कोई अक्षेत्र पर बरसता है, किन्तु क्षेत्र पर नहीं बरसता; (३) कोई क्षेत्र पर भी बरसता है और अक्षेत्र पर भी बरसता है; तथा (४) कोई न क्षेत्र पर बरसता है
और न अक्षेत्र पर बरसता है। ___ इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष क्षेत्र पर बरसता (दया और दान के पात्र को दान देता है), किन्तु अक्षेत्र (अपात्र) पर नहीं बरसता; (२) कोई अक्षेत्र (अपात्र) पर बरसता है, किन्तु क्षेत्र (सुपात्र) पर नहीं बरसता; (३) कोई क्षेत्र पर भी बरसता है और अक्षेत्र पर भी बरसता है; एवं (४) कोई न क्षेत्र पर बरसता है और न अक्षेत्र पर बरसता है।
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| चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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537. Megh (clouds) are of four kinds-(1) Some cloud rains on kshetra ॥ (deserving area; fertile land) and does not rain on akshetra (unsuitable area; sterile land). (2) Some cloud rains on unsuitable area but does not rain on deserving area. (3) Some cloud rains on deserving area as well as unsuitable area. (4) Some cloud neither rains on deserving area nor on unsuitable area.
In the same way purush (men) are of four kinds-(1) Some man rains on deserving area (donates to the deserving) and does not rain on unsuitable area (donate to the undesreving). (2) Some man rains on unsuitable area (donates to non-deserving) but does not rain on 15 deserving area (donate to the right person). (3) Some man rains on deserving area as well as unsuitable area (donates to both). (4) Some man neither rains on deserving area nor on unsuitable area. अम्बा-पितृ-पद AMBA-PITRA-PAD (SEGMENT OF PARENTS)
५३८. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-जणइत्ता णाममेगे णो णिम्मवइत्ता, णिम्मवइत्ता णाममेगे णो जणइत्ता, एगे जणइत्तावि णिम्मवइत्तावि, एगे णो जणइत्ता णो णिम्मवइत्ता।
एवामेव चत्तारि अम्मापियरो पण्णत्ता, तं जहा-जणइत्ता णाममेगे णो णिम्मवइत्ता, णिम्मवइत्ता णाममेगे णो जणइत्ता, एगे जणइत्तावि णिम्मवइत्तावि, एगे णो जणइत्तावि णो णिम्मवइत्ता।
५३८. मेघ चार प्रकार के होते हैं (१) कोई मेघ अन्न का जनयिता-जन्म दाता, (अंकुरित करने वाला) होता है, किन्तु निर्मापक-(पकाकर फसल देने वाला) नहीं होता; (२) कोई अन्न की फसल को ॐ पकाता है, किन्तु अंकुरित नहीं करता; (३) कोई अन्न को अंकुरित भी करता है और फसल तैयार भी है
करता है; और (४) कोई न अन्न का जनक होता है और न निर्मापक। म इसी प्रकार माता-पिता भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई माता-पिता सन्तान के जनयिता-(जन्म + देने वाले) होते हैं, किन्तु निर्मापक (भरण-पोषण अथवा शिक्षण कर उनका जीवन-निर्माण करने वाले)
नहीं होते; (२) कोई सन्तान के निर्मापक होते हैं, किन्तु जनक नहीं होते; (३) कोई सन्तान के जनक भी के होते हैं और निर्मापक भी; तथा (४) कोई न सन्तान के जनक ही होते हैं और न निर्मापक ही।
538. Megh (clouds) are of four kinds—(1) Some cloud is janayita (which causes sprouting) of anna (grain) but not nirmaapak (which causes ripening).. (2) Some cloud is nirmaapak of anna (helps in ripening) but not janayita (helps in sprouting). (3) Some cloud is janayita as well as nirmaapak of grain. (4) Some cloud is neither nirmaapak nor janayita of grain.
In the same way ammapiyaro (parents) are of four kinds-(1) Some parents are janayita (who give birth) of santaan (offspring) but not
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F nirmaapak (who bring up a child by feeding, nursing and educating). F (2) Some parents are nirmaapak of santaan but not janayita. (3) Some
parents are janayita as well as nirmaapak of santaan. (4) Some parents are neither nirmaapak nor janayita of santaan.
राज-पद RAAJ-PAD (SEGMENT OF KINGS) ___ ५३९. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, तं जहा-देसवासी णाममेगे णो सबवासी, सव्ववासी णाममेगे णो देसवासी, एगे देसवासीवि सव्ववासीवि, एगे णो देसवासी णो सव्ववासी।
एवामेव चत्तारि रायाणो पण्णत्ता, तं जहा-देसाधिवती णाममेगे णो सव्वाधिवती, सव्वाधिवती णाममेगे णो देसाधिवती, एगे देसाधिवतीवि सव्वाधिवतीवि, एगे णो देसाधिवती णो सव्वाधिवती।।
___ ५३९. मेघ चार प्रकार के होते हैं-(१) देशवर्षी, न सर्ववर्षी-कोई मेघ किसी एक देश (क्षेत्र) में म बरसता है, किन्तु सब देशों (क्षेत्रों) में नहीं बरसता; (२) सर्ववर्षी, न देशवर्षी-कोई सब देशों में बरसता है में है, किन्तु किसी एक देश में नहीं; (३) कोई किसी एक देश में भी बरसता है और सब देशों में भी; तथा (४) कोई न किसी एक देश में बरसता है और न सब देशों में ही बरसता है।
इसी प्रकार राजा भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई राजा देशाधिपति-किसी एक देश का ही # स्वामी होता है, न सर्वाधिपति-सब देशों का स्वामी नहीं होता (जैसे-सामान्य राजा); (२) कोई राजा । सब देशों का स्वामी होता है, किन्तु किसी एक देश विशेष का नहीं; (३) कोई राजा किसी एक देश का # स्वामी भी होता है और सब देशों का भी (जैसे-वासुदेव चक्रवर्ती); तथा (४) कोई राजा न किसी एक
देश का स्वामी होता है और न सब देशों का, ही स्वामी होता है (जैसे-राज्य से भ्रष्ट हआ राजा)। P 539. Megh (clouds) are of four kinds (1) Some cloud is deshavarshi
(which rains in one state or in a specific area) but not sarvavarshi (which Frains in all states or a very wide area). (2) Some cloud is sarvavarshi but 41 fi not deshavarshi. (3) Some cloud is deshavarshi as well as sarvavarshi.
(4) Some cloud is neither sarvavarshi nor deshavarshi. # In the same way rajas (kings) are of four kinds--(1) Some king is f deshadhipati (one who rules over one state) but not sarvadhipati (one
who rules over all states) (for example an ordinary king). (2) Some king Eis sarvadhipati but not deshadhipati. (3) Some king is deshadhipati as
well as sarvadhipati (for example a Vasudev or a Chakravarti). (4) Some king is neither sarvadhipati nor deshadhipati (for example a dethroned
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। मेघ-सूत्र MEGH-PAD (SEGMENT OF CLOUDS) # ५४०. चत्तारि मेहा पण्णत्ता, -पुक्खलसंवट्टए, पंज्जुण्णे, जीमूते, जिम्हे।
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Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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पुक्खलसंवट्टए णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससहस्साइं भावेति । पज्जुण्णे णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवाससयाई भावेति । जीमूते णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवासाइं भावेति । जिम्हे णं महामे बहूहिं वासेहिं एगं वासं भावेति वा णं वा भावेति ।
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५४०. मेघ चार प्रकार के होते हैं - ( १ ) पुष्कलसंवर्तक मेघ (पुष्कलावर्त), (२) प्रद्युम्न मेघ, (३) जीमूत मेघ, और (४) जिम्ह मेघ । (१) पुष्कलसंवर्तक महामेघ - एक वर्षा से दश हजार वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध (उपजाऊ ) कर देता है, (२) प्रद्युम्न महामेघ - एक वर्षा से एक हजार वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध कर देता है, (३) जीमूत महामेघ - एक वर्षा से दश वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध कर देता है, और ( ४ ) जिम्ह महामेघ - बहुत बार बरस कर भी एक वर्ष तक भूमि को जल से स्निग्ध करता है और नहीं भी करता है।
540. Megh (clouds) are of four kinds-(1) Pushkalasmavartak megh, (2) Pradyumna megh, (3) Jeemut megh and (4) Jimha megh. (1) Pushkalasmavartak megh-with just one rain this cloud makes the land fertile for ten thousand years. (2) Pradyumna megh-with just one rain it makes the land fertile for one thousand years. (3) Jeemut meghwith just one rain it makes the land fertile for ten years. (4) Jimha megh-with numerous rains it may or may not make the land fertile even for one year.
विवेचन - टीकाकार
उक्त चारों प्रकार के मेघों के समान पुरुषों के भंग स्वयं जान लेने की सूचना की है। जिसे इस प्रकार से जानना चाहिए - (१) कोई दानी या उपदेशक पुष्कलसंवर्तक मेघ के समान एक बार के दान से या उपदेश से बहुत लम्बे काल तक याचकों को और जिज्ञासुओं को तृप्त कर देता है; (२) कोई दानी या उपदेशक प्रद्युम्न मेघ के समान बहुत काल तक दान या उपदेश देकर अर्थी और जिज्ञासुओं को तृप्त कर देता है; (३) कोई दानी या उपदेशक जीमूत मेघ के समान कुछ वर्षों के लिए दान या उपदेश देकर तृप्त करता है; एवं (४) कोई दानी या उपदेष्टा जिम्ह मेघ के समान अनेक बार दिये गये दान या उपदेश से एक वर्ष के लिए तृप्त करता भी है और कभी नहीं कर पाता है।
Elaboration-The commentator informs that like clouds the aforesaid 5 quads should be applied to men. It would read as follow – ( 1 ) Like 5 Pushkalasmavartak megh some donor or preacher satisfies seekers for a 卐 very long period with just one donation or sermon. (2) Like Pradyumna megh some donor or preacher satisfies seekers for a long period with just one donation or sermon. (3) Like Jeemut megh some donor or preacher satisfies seekers for a few years with just one donation or sermon. (4) Like Jimha megh some donor or preacher may or may not satisfy seekers for one year even with many donations or sermons.
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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आचार्य-सूत्र ACHARYA-PAD (SEGMENT OF PRECEPTOR)
५४१. चत्तारि करंडगा पण्णत्ता, तं जहा-सोवागकरंडए, वेसियाकरंडए, गाहावतिकरंडए, म रायकरंडए। एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-सोवागकरंडगसमाणे,
वेसियाकरंडगसमाणे, गाहावतिकरडंगसमाणे, रायकरंडगसमाणे। __५४१. करण्डक चार प्रकार के होते हैं-(१) श्वपाककरण्डक, (२) वेश्याकरण्डक,
(३) गृहपतिकरण्डक, और (४) राजकरण्डक। इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के होते हैंम (१) श्वपाक-करण्डक समान, (२) वेश्या-करण्डक समान, (३) गृहपति-करण्डक समान, और (४) राज-करण्डक समान।
541. Karandak (box) are of four kinds-(1) shvapaak karandak (shoemaker's box), (2) veshya karandak (prostitute's box), (3) grihapati karandak (householder's box) and (4) raj karandak (king's box). In the same way acharya (preceptor) are of four kinds-(1) like shvapaak
karandak, (2) like veshya karandak, (3) like grihapati karandak and fi (4) like raj karandak. - विवेचन-करण्डक का अर्थ पिटारा, या सन्दूक है। वह बांस व बैंत की शलाकाओं से बनाया जाता में है। यहाँ पर 'करण्डक' की उपमा देकर उसके समान आचार्यों के गुण, महत्त्व आदि बताये हैं। जैसे- (१) श्वपाक (चाण्डाल, चर्मकार) के करण्डक में चमड़े को छीलने-काटने सादि के उपकरणों और है चमड़े के टुकड़ों आदि रखे रहने से वह असार या निकृष्ट कोटि का माना जाता है, उसी प्रकार जो , आचार्य सामान्य ज्ञानी होता है और गण या संघ में शिथिलाचार व संयमहीनता को बढ़ावा देता है, वह # आचार्य श्वपाक-करण्डक के समान है।
(२) साधारण वेश्या का करण्डक लाख भरे सोने के दिखाऊ आभूषणों से भरा होता है, वैसे ही जो # आचार्य अल्पज्ञानी होने पर भी अपने वचनचातुर्य व लोक लुभावन क्रियाओं से साधारण जनों को
आकर्षित करते हैं, वे वेश्या-करण्डक के समान है। 4 (३) किसी गृहपति या सम्पन्न गृहस्थ का करण्डक (पेटी) सोने-मोती आदि के आभूषणों से भरा रहता
है, वैसे ही जो आचार्य बहश्रुत और चारित्रसम्पन्न होते हैं, उन्हें गृहपति-करण्डक के समान कहा है। 4 (४) राजा का करण्डक मणि-माणिक आदि बहुमूल्य रत्नों से भरा होता है, उसी प्रकार जो आचार्य में अपने पद के योग्य सर्वगुणों से सम्पन्न होते हैं, उन्हें राज-करण्डक के समान कहा है। # Elaboration-Karandak means bag or box. It used to be made of fi bamboo or cane. Here the virtues and importance of preceptors have been explained using karandak as a metaphor. For example
(1) Like shvapaak karandak-As the box of a shoemaker contains leather cutting tools and pieces of leather it is considered to be of worst
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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555555555555555555555555555555555555 15 type. Therefore an acharya with ordinary knowledge who encourages lax $i conduct and indiscipline is said to be like the loose of a shoemaker.
(2) Like veshya karandak--The box of a prostitute contains ornaments made of gold foil filled with shellac (like costume jewellery).
Therefore an acharya with little knowledge who attracts ordinary people i with his clever speech and crowd pulling antics is said to be like the box of a prostitute.
(3) Like grihapati karandak—The box of a well to do householder contains ornaments made of real pearls and gold. Therefore a scholarly acharya steadfast in his ascetic conduct is said to be like a householder's box.
(4) Like raj karandak-The box of a king contains invaluable 4 ornaments and gems. Therefore an acharya endowed with all virtues
befitting his status is said to be like a king's box. ॐ वृक्ष-पद VRIKSHA-PAD (SEGMENT OF TREES)
५४२. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा-साले णाममेगे सालपरियाए, साले णाममेगे + एरंडपरियाए, एरंडे णाममेगे सालपरियाए, एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए।
एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-साले णाममेगे सालपरियाए, साले णाममेगे एरंडपरियाए, एरंडे णाममेगे सालपरियाए, एरंडे णाममेगे एरंडपरियाए। ऊ ५४२. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं-(१) शाल और शाल-पर्याय-कोई वृक्ष शाल जाति का होता है ॥
और शाल-पर्याय- (सघन छाया वाला व पूर्ण विकसित) होता है; (२) शाल और एरण्ड-पर्याय-कोई ॐ वृक्ष शाल जाति का होता है, किन्तु एरण्ड-पर्याय-(एरण्ड के वृक्ष के समान अल्प छायावाला व पतझड़ 卐 में पत्रहीन होने वाला) होता है; (३) एरण्ड और शाल-पर्याय-कोई वृक्ष एरण्ड के समान छोटा, किन्तु
शाल के समान सघन छाया वाला होता है; तथा (४) एरण्ड और एरण्ड-पर्याय-कोई वृक्ष एरण्ड के ॐ समान छोटा और उसी के समान अल्प छाया वाला होता है।
इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई आचार्य शाल के समान उत्तम जाति व ॐ रूप वाले और उसी के समान उत्तम ज्ञान व आचार आदि से प्रभावशाली होता है; (२) कोई आचार्य मशाल के समान उत्तम जाति व रूपवान होकर भी ज्ञान, आचार और प्रभाव से शून्य होते हैं; (३) कोई
आचार्य एरण्ड के समान रूप हीन, किन्तु ज्ञान, आचार आदि से प्रभावशाली होते हैं; एवं (४) कोई । आचार्य एरण्ड के समान रूप हीन और उसी के समान ज्ञान, आचार से भी हीन होते हैं।
542. Vriksha (trees) are of four kinds-(1) Shaal and shaal-paryayasome tree is of Shaal species and also has qualities of a Shaal tree (fully
grown and with thick foliage providing dense shade), (2) Shaal and 4 Erand-paryaya-some tree is of Shaal species but has qualities of an i
卐55555555卐555555555555555555555555558
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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ת ת ת ת ת ת ת ת ת ו
LE LE LE LE IF IP IP
A Erand (castor-oil plant) tree (with sparse foliage and no leaves in Fautumn season providing no shade), (3) Erand and Shaal-paryaya
some tree is of Erand species but has qualities of a Shaal tree and (4) Erand and Erand-paryaya-some tree is of Erand species and also
has qualities of an Erand tree. F In the same way acharya (preceptor) are of four kinds-(1) Some fi acharya is of high class and good appearance like a Shaal tree, and
impressive as well due to excellent knowledge and conduct. (2) Some
acharya is of high class and good appearance like a Shaal tree but Funimpressive like an Erand tree due to absence of knowledge and
conduct. (3) Some acharya is of ordinary appearance like an Erand tree 6 but impressive like a Shaal tree due to excellent knowledge and conduct.
(4) Some acharya is of ordinary appearance like an Erand tree and equally unimpressive due to absence of knowledge and conduct.
५४३. चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा-साले णाममेगे सालपरिवारे, साले णाममेगे एरंडपरिवारे, एरंडे णाममेगे सालपरिवारे, एरंडे णाममेगे एरंडपरिवारे। ___ एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-साले णाममेगे सालपरिवारे, साले णाममेगे एरंडपरिवारे, एरंडे णाममेगे सालपरिवारे, एरंडे णाममेगे एरंडपरिवारे।
सालदुममज्झयारे, जह साले णाम होइ दुमराया। इय सुंदरआयरिए, सुंदरसीसे मुणेयव्ये॥१॥ एरंडमज्झयारे, जह साले णाम होई दुमराया। इय सुंदरआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्ये॥२॥ सालदुममज्झयारे, एरंडे णाम होइ दुमराया। इय मंगुलआयरिए, सुंदरसीसे मुणेयव्ये॥३॥ एरंडमज्झयारे, एरंडे णाम होइ दुमराया।
इय मंगुलआयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्ये॥४॥ (संग्रहणी-गाथा) ५४३. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं-(१) शाल और शालपरिवार-कोई वृक्ष शाल जाति और शालपरिवार वाला-(शाल के अनेक वृक्षों से घिरा हुआ) होता है; (२) शाल और एरण्डपरिवार-कोई शाल जाति का, किन्तु एरण्डपरिवार वाला (छोटे वृक्षों से घिरा हुआ) होता है; (३) कोई जाति से एरण्ड, किन्तु शालपरिवार वाला होता है; तथा (४) कोई जाति से एरण्ड और एरण्डपरिवार वाला होता है।
इसी प्रकार आचार्य भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई आचार्य शाल के समान स्वयं गुणवान और शालपरिवार के समान उत्तम शिष्य-परिवार वाले होते हैं; (२) कोई आचार्य शाल के समान स्वयं
फ॥॥॥॥॥॥555555555555555555
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54))))))))))5555555555558 ॐ तो सुयोग्य, किन्तु एरण्डपरिवार के समान अयोग्य शिष्य-परिवार वाले होते हैं; (३) कोई स्वयं तो + एरण्ड के समान हीन जाति व संयम आदि से साधारण होते हैं, किन्तु शाल के समान उत्तम
शिष्य-परिवार वाले होते हैं; तथा (४) कोई आचार्य एरण्ड के समान हीन व हीन आचार वाले और ॐ एरण्डपरिवार के समान अयोग्य शिष्य-परिवार वाले होते हैं।
संग्रहणी गाथार्थ + (१) जिस प्रकार शाल वृक्ष शालवृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी प्रकार उत्तम आचार्य उत्तम - शिष्यों के परिवार वाला आचार्यराज होता है। (२) जिस प्रकार शाल वृक्ष एरण्ड वृक्षों के मध्य में ॐ वृक्षराज होता है, उसी प्रकार उत्तम आचार्य मंगुल (अधम) शिष्यों के परिवार वाला होता है। (३) जिसके
प्रकार एरण्ड वृक्ष शाल वृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी प्रकार सुन्दर शिष्यों के परिवार वाला
मंगुल आचार्य होता है। (४) जिस प्रकार एरण्ड वृक्ष एरण्ड वृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी ऊ प्रकार मंगुल शिष्मों के परिवार वाला मंगुल आचार्य होता है।
543. Vriksha (trees) are of four kinds—(1) Shaal and Shaal-parivarsome tree is of Shaal species and also Shaal-parivar (surrounded by 卐 many Shaal trees), (2) Shaal and Erand-parivar-some tree is of Shaal
species but Erand-parivar (surrounded by many Erand trees), (3) Erand and Shaal-parivar-some tree is of Erand species but Shaal-parivar (s'irrounded by many Shaal trees) and (4) Erand and Erand-parivar
some tree is of Erand species and also Erand-parivar (surrounded by 卐 many Erand trees).
In the same way acharya (preceptor) are of four kinds—(1) Some acharya is highly endowed like a Shaal tree, and Shaal-parivar (surrounded by many Shaal-like well endowed disciples) as well. (2) Some acharya is highly endowed like a Shaal tree but Erand-parivar (surrounded by many Erand-like poorly endowed disciples). (3) Some acharya is poorly endowed like an Erand tree but Shaal-parivar (surrounded by many Shaal-like well endowed disciples). (4) Some acharya is poorly endowed like an Erand tree and Erand-parivar (surrounded by many Erand-like poorly endowed disciples) as well. COLLATIVE VERSE
(1) Like the appearance of a grand Shaal tree amongst many Shaal trees, an endowed acharya among well endowed disciples is a great acharya. (2) Like the appearance of a grand Shaal tree amongst many Erand trees, an endowed acharya among mangul (lowly) disciples is a great acharya. (3) Like the appearance of a king Erand tree amongst many Shaal trees, a mangul (poor) acharya among well endowed
05555555555555555555555555555555555555555555555
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Sthaananga Sutra (2)
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disciples is a poor acharya. (4) Like the appearance of a grand Erand tree amongst many Erand trees, a mangul (lowly) acharya among well endowed disciples is a poor acharyu.
भिक्षाक- पद BHIKSHAAK-PAD (SEGMENT OF ALMS EATER)
५४४. चत्तारि मच्छा पण्णत्ता, तं जहा- -अणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी । वामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा - अणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी |
५४४. मत्स्य चार प्रकार के होते हैं - ( १ ) अनुस्रोतचारी - जल-प्रवाह के अनुकूल चलने वाला, (२) प्रतिस्रोतचारी - जल-प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाला, (३) अन्तचारी - जल-प्रवाह के किनारे-किनारे चलने वाला, और (४) मध्यचारी - जल-प्रवाह के मध्य में चलने वाला ।
इसी प्रकार भिक्षुक भी चार प्रकार के होते हैं - (१) अनुस्रोतचारी - उपाश्रय से निकलकर सीधी गली में स्थित घरों से सीधा जाते हुए भिक्षा लेने वाला, (२) प्रतिस्रोतचारी - वापस लौटते हुए गली के अन्त से लगाकर उपाश्रय तक स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला, (३) अन्तचारी - नगर -ग्राम-मोहल्ला आदि के अन्त भाग में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला, और (४) मध्यचारी - नगर - प्रामादि के मध्य में स्थित घरों 5 से भिक्षा लेने वाला ।
544. Matsya (fish) are of four kinds-(1) anusrotachari-one that moves with the flow of water, (2) pratisrtochari-one that moves against the flow of water, (3) antachari-one that moves at the brink and (4) madhyachari-one that moves in the middle.
Elaboration-An ascetic observing abhigraha (special resolve) selects one of the aforesaid resolves and collects alms accordingly.
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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In the same way bhikshaak (alms-dependent ascetics) are of four kinds—(1) anusrotachari-one that moves on a straight lane from the 5 upashraya (place of stay) and collects alms from houses on that lane, (2) pratisrtochari-one that moves on a straight lane from the upashraya (place of stay) and collects alms from houses on that lane but only from the end while returning, (3) antachari-one who collects alms 5 from the houses located at the end of a city, village, or a section of a city फ and (4) madhyachari-one who collects alms from the houses located in 卐 the middle of a city, village, or a section of a city.
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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विवेचन - अभिग्रहधारी मुनि चार प्रकार के अभिग्रहों में से किसी एक प्रकार का अभिग्रह लेकर 卐 भिक्षा लेने के लिए निकलते हैं और अपने अभिग्रह के अनुसार ही भिक्षा ग्रहण करते हैं ।
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गोल - पद GOL - PAD (SEGMENT OF BALL)
५४५. चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा- - मधुसित्थगोले, जउगोले, दारुगोले, मट्टियागोले तं जहा- - मधुसित्थगोलसमाणे, जउगोलसमाणे,
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, दारुगोलसमाणे, मट्टियागोलसमाणे ।
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५४५. गोले चार प्रकार के होते हैं - ( १ ) मधुसिक्थगोला, (२) जतुगोला, (३) दारुगोला, और (४) मृत्तिकगोला । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - (१) मधुसिक्थ (मोम) के बने गोले के समान मृदु व कोमल हृदय वाला; (२) लाख के गोले के समान किंचित् कठोर व कोमल दृढ़ हृदय वाला, जैसे अग्नि के ताप से जतुगोला शीघ्र पिघल जाता है, इसी प्रकार शीघ्र कोमल होने वाला; (३) जैसे लाख के गोले से लकड़ी का गोला अधिक कठिन होता है, उसी प्रकार कठिनतर व दृढ़तर हृदय वाला; तथा (४) जैसे मिट्टी का गोला ( आग में पकने पर) लकड़ी से भी अधिक कठिन होता है, उसी प्रकार कठिनतम व दृढ़तम हृदय वाला ।
545. Golas (balls) are of four kinds – ( 1 ) madhusiktha gola (ball of wax), (2) jatu gola (ball of shellac ), ( 3 ) daru gola (ball of wood) and (4) mrittika gola (ball of baked clay ). In the same way men are also of four kinds (1) having tender and gentle temperament like madhusiktha gola (ball of wax), (2) having tender but slightly hard (but easy to melt) temperament like jatu gola (ball of shellac), (3) having comparatively 5 hard and tough temperament like daru gola (ball of wood) and (4) having 5 even harder and tougher temperament like mrittika gola (ball of baked clay).
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५४६. चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा - अयगोले, तउगोले, तंबगोले, सीसगोले ।
एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - अयगोलसमाणे, जाव (तउगोलसमाणे, तंबगोलसाणे), सीसगोलसमाणे ।
५४६. गोले चार प्रकार के होते हैं - ( १ ) अयोगोल (लोहे का गोला ), ( २ ) पुगोल ( रांगे का गोला), (३) ताम्रगोल ( तांबे का गोला), और (४) शीशगोल (सीसे का गोला ) । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं - (१) लोहे के गोले के समान गुरु (भारी) कर्म वाला, (२) रांगे के गोले के समान गुरुतर कर्म वाला, (३) तांबे के गोले के समान अधिक गुरुतर कर्म वाला, और (४) सीसे के गोले के 5 समान गुरुतम कर्म वाला ।
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546. Golas (balls) are of four kinds – (1) ayo gola (ball of iron ), ( 2 ) trapu gola (ball of tin), (3) tamra gola (ball of copper) and (4) sheesh gola (ball of lead). In the same way men are also of four kinds – ( 1 ) having heavy 5 bondage of karmas like ayo gola (ball of iron), (2) having heavier bondage
स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
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चार प्रकार के गोलक
मोम का गोला
लाख का गोला
लकड़ी का गोला
मिट्टी का गोला
लोहे का गोला
रांगे का गोला
ताँबे का गोला
शीशे का गोला
चाँदी का गोला
सोने का गोला
रत्न गोला
वज्ररत्न गोला
कर पत्र
असिपत्र
क्षर पत्र
कदम्ब चीरिका
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Illustration No. 2
| चित्र परिचय-२ |
- चार प्रकार के गोलक (गोला) १. मोम का गोला-सबसे अधिक मुलायम होता है, और ताप लगते ही पिघल जाता है।
लाख का गोला-मोम की अपेक्षा कुछ कठोर, ताप लगने पर धीरे-धीरे पिघलता है। लकड़ी का गोला-दोनों की अपेक्षा अधिक कठोर, ताप सहने में कुछ अधिक सक्षम। मिट्टी का गोला-आग में पकने पर कठोरतर हो जाता है। २. लोहे का गोला-वजन में भारी, किन्तु ताप सहने में अधिक सामर्थ्य रखता है।
राँगे का गोला-लोहे की अपेक्षा अधिक भारी, किन्तु ताप सहने में कमजोर। ताँबे का गोला-वजन में उससे अधिक भारी, किन्तु ताप सहने में पूर्वापेक्षा कमजोर। शीशे का गोला-वजन में उन सबसे भारी, किन्तु ताप सहने में सबसे कमजोर। ताप लगने पर ये एक दूसरे से जल्दी-जल्दी पिघल जाते हैं। हिरण्य गोला-चाँदी का गोला; भार व मूल्य में सामान्य। सोने का गोला-भार व मूल्य में उससे अधिक श्रेष्ठ। रत्न-गोला-भार व मूल्य में उक्त दोनों से अधिक श्रेष्ठ। वज रत्न-गोला-भार में सर्वाधिक और मूल्य में भी सर्वाधिक श्रेष्ठ।
-सूत्र ५४५-४६-४७
४. असिपत्र-तलवार का अन्तिम धारदार सिरा अति तीक्ष्ण होता है।
करपत्र-करोंत में तलवार की अपेक्षा छेदन शक्ति कम होती है। क्षुरपत्र (छुरा)-छेदन शक्ति में करोंत से भी कमजोर होता है। कदम्बचीरिका (तीखी नोंक वाला घास का पत्ता)-इसकी धार पूर्वोक्त तीनों से भी अल्प होती है।
-स्थान ४, सूत्र ५४८ FOUR STRUCTURE OF BALL (1) Ball of wax-softest of all and melts at once on heating. (2) Ball of shellac-harder than wax and melts slowly on heating. (3) Ball of wood-harder than the preceding two and with a higher melting point. (4) Ball of fired clay-becomes harder when fired. (1) Ball of iron-high density and with high melting point. (2) Ball of tin-higher density than iron but with lower melting point. (3) Ball of copper-still higher density but with much lower melting point. (4) Ball of lead-highest density among the four and with lowest melting point. (1) Ball of silver-ordinary in weight and price. (2) Ball of gold-comparatively heavy in weight and higher in price. (3) Ball of gems-still heavy in weight (than the aforesaid two) and still higher in price. (4) Ball of diamond-heaviest in weight and highest in price among the four.
-Sthaan 4, Sutra 545 to 547
PATRA 4. (1) Asipatra-edge of a sword is very sharp.
(2) Karapatra-edge of a saw-blade is less sharp as compared to that of a sword. (3) Kshurapatra-edge of a razor is less sharpas conapared to that of a saw blade. (4) Kadamb-chirika patra-grass-like blunt edge is least sharp among the four.
-Sthaan 4, Sutra 548
ROPRDIEORIGITORYHORTHANKORMAORMAOAVAAVAORVAORVAORMAORTAORMAORYAORADIAORTARVAOraonmammimomromanwromwomamta
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of karmas like trapu gola (ball of tin), (3) having still heavier bondage of karmas like tamra gola (ball of copper) and (4) having heaviest bondage of karmas like sheesh gola (ball of lead).
विवेचन-इस सूत्र में गोले के दृष्टान्त से दो बातें सूचित की हैं। ये चारों गोले घनत्व की अपेक्षा के क्रमशः एक-दूसरे से अधिक भारी होते हैं, किन्तु ताप सहने की क्षमता की अपेक्षा एक-दूसरे से उत्तरोत्तर कमजोर होते हैं। अर्थात् लोहे के गोले से रांगा, रांगा से तांबा व तांबा से सीसा बहुत भारी होता है। उसी प्रकार साधकों की चार स्थिति होती है। लोहे के गोले के समान सामान्य कर्म भार वाला 9
और सीसे के गोले के समान सबसे अधिक सघन कर्मों वाला। जिसको जितना अधिक सघन कर्मबंध होगा, वह आत्मा उतना ही अधिक शीघ्र उत्तेजित होने वाला, अधीर, असहनशील होगा। इस प्रकार गोलों की ताप सहने की क्षमता से तुलना करना चाहिए। (हिन्दी टीका, पृ. १०६६, टीका पत्र २५९)
Elaboration-With the analogy of a ball this aphorism informs of two things. The four types of balls are of increasingly higher density but have melting points in decreasing order. This means that a tin ball is heavier than an iron ball, a copper ball is heavier than a tin ball, and a lead ball is heavier than a copper ball. Aspirants are also of these four kinds, with least density of karmas like an iron ball to highest density of karmas like a lead ball. Higher the density of karmas, easier the person gets excited, impatient and intolerant. These attributes should be compared with the melting points of the said balls. (Hindi Tika p. 1066%3B Tika leaf 259)
५४७. चत्तारि गोला पण्णत्ता, तं जहा-हिरण्णगोले, सुवण्णगोले, रयणगोले, वयरगोले।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-हिरण्णगोलसमाणे जाव (सुवण्णगोलसमाणे, रयणगोलसमाणे), वयरगोलसमाणे।
५४७. गोले चार प्रकार के होते हैं-(१) हिरण्य-(चाँदी) गोला, (२) सुवर्ण-गोला, (३) रत्न-गोला, और (४) वज्र-गोला। इसी प्रकार पुरुष भी चार के होते हैं-(१) हिरण्यगोल समान, (२) सुवर्णगोल समान, (३) रत्नगोल समान, और (४) वज्रगोल समान।
547. Golas (balls) are of four kinds-(1) hiranya gola (ball of silver), (2) suvarna gola (ball of gold), (3) ratna gola (ball of gems) and (4) vajra gola (ball of diamond). In the same way men are also of four kinds(1) like hiranya gola (ball of silver), (2) like suvarna gola (ball of gold), (3) like ratna gola (ball of gems) and (4) like vajra gola (ball of diamond).
विवेचन-टीकाकार ने इस सूत्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करने की सूचना की है। जैसे–चाँदी के गोत के बराबर आकार वाला सोने का गोला अधिक मूल्य और भार वाला, उससे भी रत्न और वज्र के
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ॐ (हीरा) का गोला उत्तरोत्तर अधिक मूल्य एवं भार वाला होता है। वैसे ही चारों गोलों के समान पुरुष के
भी गुण, समृद्धि, हृदय की निर्मलता और पूज्यता सन्मान आदि की अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होते हैं। कहते - ॐ हैं चाँदी का पात्र जल से धोने मात्र से शुद्ध हो जाता है। स्वर्णपात्र पर किसी खट्टे-मीठे पदार्थ का प्रभाव म चाँदी से भी कम होता है। रत्नपात्र पर किसी भी दूषित पदार्थ का प्रभाव नहीं पड़ता। हीरा अपनी
कठोरता व सुदृढ़ता के लिए प्रसिद्ध है। एरण पर रखकर धन का प्रहार करने पर भी वह टूटता नहीं, ॐ लोहे में गड़ जाता है, किन्तु दूध और दूब से छिल जाता है। अर्थात् अति कठोरता होते हुए भी कोमल के म स्पर्श मात्र से कट जाता है। श्रेष्ठ पुरुष में इसी प्रकार उत्तरोत्तर गुणों की श्रेष्ठता होती है। (हिन्दी टीका, ॐ पृष्ठ १०६७)
Elaboration-The commentator (Tika) has informed of many interpretations of this aphorism. For example-For the same size of a silver ball a gold ball is heavier and costlier. A gem ball and a diamond ball are progressively higher in weight and cost. In the same way men similar to these four balls are increasingly better in virtues, wealth, inner purity, respect, honour and other such qualities. It is said that a silver bowl gets clean when washed with water. The effect of sour and sweet things on gold is even less than silver. A gem-bowl is not effected by any contaminated thing. Diamond is known for its hardness and toughness. When placed on an iron base and hammered it does not 41 shatter but dents the iron. But it can be ground by milk and grass indicating that although hard it can be cut by soft touch. A noble person has qualities in a similar fashion in ascending order. (Hindi Tika, p. 1067) पत्र-पद PATRA-PAD (SEGMENT OF SHARP EDGE)
५४८. चत्तारि पत्ता पण्णत्ता, तं जहा-असिपत्ते, करपत्ते, खुरपत्ते, कलंबचीरियापत्ते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-असिपत्तसमाणे, जाव (करपत्तसमाणे, * खुरपत्तसमाणे), कलंबचीरियापत्तसमाणे।
५४८. पत्र-(धार वाले फलक) चार प्रकार के होते हैं-(१) असिपत्र-(तलवार का धारदार पतला भाग), (२) करपत्र- (लकड़ी चीरने वाली करोंत का पत्र), (३) क्षुरपत्र-(छुरा का धारदार भाग), और म (४) कदम्बचीरिका पत्र।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) असिपत्र समान, (२) करपत्र समान, (३) क्षुरपत्र ) समान, और (४) कदम्बचीरिका-पत्र समान।
548. Patra (sharp edges) are of four kinds—(1) asipatra (edge of a
ord), (2) karapatra (edge of a saw-blade), (3) kshurapatra (edge of a razor) and (4) Kadamb-chirika patra (grass-like blunt edge).
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In the same way men are of four kinds-(1) like asipatra, (2) like karapatra, (3) like kshurapatra and (4) like Kadamb-chirika patra.
विवेचन-(१) असिपत्र (तलवार) एक ही प्रहार से शत्रु का शिरोच्छेदन कर देता है, उसी प्रकार जो पुरुष एक ही बार में कुटुम्बादि से स्नेह का छेदन कर देता है, वह असिपत्र समान है। जैसे जम्बूकुमार व धन्नाजी जैसे।
(२) करपत्र (करोंत) बार-बार इधर से उधर आ-जाकर काठ का छेदन करता है, उसी प्रकार बार-बार की भावना से धीरे-धीरे जो क्रमशः स्नेह का छेदन करता है, वह करपत्र के समान है। शालिभद्र की तरह।
(३) क्षुरपत्र (छुरा) सिर के बाल धीरे-धीरे अल्प-अल्प मात्रा में काट पाता है, उसी प्रकार जो कुटुम्ब का स्नेह धीरे-धीरे छेदन कर पाता है, वह क्षुरपत्र के समान है। आर्द्रककुमार की तरह।
(४) कदम्बचीरिका का अर्थ है कुंठित धार वाला शस्त्र या तीखी नोंक वाला एक प्रकार का घास। उसकी धार के समान जो पुरुष होता है, वह बहुत धीमी गति से और कठिनाई से कुटुम्ब का स्नेह-छेदन करता है, वह पुरुष कदम्बचीरिका-पत्र समान है। जैसे-अविरति सम्यग्दृष्टि।।
Elaboration-(1) Asword beheads an enemy in one stroke. In the same way a person who can shear his family ties at once is said to be like i asipatra. For example Jambu Kumar and Dhanna.
(2) A saw cuts wood after continued to and fro movement. In the same is way a person who shears his family ties slowly and gradually after repeated resolves is said to be like karapatra. For example Shalibhadra.
(3) A razor removes hair from head slowly and in bits. In the same way a person who shears his family ties slowly and in bits is said to be like kshurapatra. For example Ardra Kumar.
(4) A blade with blunt edge cuts things slowly and with difficulty. In the same way a person who shears his family ties slowly and with difficulty is said to be like Kadamb-chirika patra. For example Avirat Samyagdrishti (a righteous person with attachments). कट-पद CUT-PAD (SEGMENT OF MATTRESS)
५४९. चत्तारि कडा पण्णत्ता, तं जहा-सुंबकडे, विदलकडे, चम्मकडे, कंबलकडे।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-सुंबकडसमाणे, जाव (विदलकडसमाणे, चम्मकडसमाणे), कंबलकडसाणे।
५४९. कट (चटाई) चार प्रकार का होता है-(१) शुम्बकट-खजूर से बनी चटाई या घास से बना आसन, (२) विदलकट-बांस की पतली खपच्चियों से बनी चटाई, (३) चर्मकट-चमड़े की पतली धारियों के
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ऊ से बनी चटाई या आसन, और (४) कम्बलकट-ऊन, सूत, रेशम या सन आदि के रेशों से बना बैठने
या बिछाने का वस्त्र। ज इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) शुम्बकट समान, (२) विदलकट समान, (३) चर्मकट समान, और (४) कम्बलकट समान।
549. Cut (mattresses) are of four kinds—(1) shumb-cut (pine 卐 mattress)-mattress woven from pine-wood strip or grass, (2) vidal-cut
(bamboo mattress)-mattress made of thin bamboo sticks or cane, (3) charma-cut (leather mattress)-mattress made of leather strips
(4) kambal-cut (mattress made of yarn)-mattress made up of any type ___of yarn including wool, cotton, silk, hessian etc.
In the same way men are of four kinds-(1) like shumb-cut, (2) i vidal-cut, (3) like charma-cut and (4) like Kambal-cut.
विवेचन-शुम्बकट (खजूर या घास-निर्मित बैठने का आसन) अत्यल्प मूल्य वाला होता है, अतः ॐ उसमें रागभाव कम होता है। उसी प्रकार जिसका धन व पुत्रादि में राग या मोह अत्यल्प होता है, वह + पुरुष शुम्बकट के समान है। शुम्बकट की अपेक्षा विदलकट अधिक मूल्य वाला होता है, अतः उसमें 5
रागभाव अधिक होता है। विदलकट से चर्मकट और भी अधिक मूल्यवान होने से उसमें रागभाव भी 卐 और अधिक होता है। चर्मकट से कम्बलकट अधिक मूल्यवान होता है, अतः उसमें रागभाव भी अधिक 卐
होता है। इसी प्रकार पुत्रादि में अधिक, गाढ़ और गाढ़तम रागभाव वाले पुरुष को क्रमशः विदलकट, ॐ चर्मकट व कम्बलकट के समान कहा गया है। आवश्यक नियुक्ति टीका, पृ. ३८७ में प्रसंग है-गौतम के
स्वामी जब मोक्ष प्राप्ति के लिए अधीर हो गये तब भगवान ने कहा-गौतम ! तुम्हारा राग मेरे प्रति कम्बलकट जैसा अनेक जन्म-जन्मान्तरों से चलता आया प्रगाढ़ राग है।
Elaboration—There is minimum attachment for a pine mattress because it is very cheap. Therefore a person having least attachment for wealth or family is said to be like shumb-cut. As compared to a pine mattress a bamboo mattress is costly, thus it inspires more attachment. A leather mattress is costlier than a bamboo mattress, thus it inspires even more attachment. A yarn mattress is even more costly thana leather mattress, thus it inspires still greater attachment. Therefore this metaphor has been used to classify individuals according to the degree of attachment they have. In Avashyak Churni Tika we find a mention on p. 387—'When Gautam Swami became worried and impatient to attain liberation, Bhagavan Mahavir said-Gautam ! your attachment for me comes from many past births and is very intense like kambal-cut'.
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तिर्यक्-पद TIRYAK-PAD (SEGMENT OF ANIMALS)
५५०. चउबिहा चउप्पया पण्णत्ता, तं जहा-एगखुरा, दुखुरा, गंडीपदा, सणप्फया।
५५०. चतुष्पद (चार पैर वाले) तिर्यंच जीव चार प्रकार के होते हैं-(१) एक खुर वाले-घोड़े, गधे आदि; (२) दो खुर वाले-गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि; (३) गण्डीपद-सुनार की एरण की तरह कठोर चर्ममय गोल पैर वाले हाथी, ऊँट, गैंडा आदि; और (४) स-नख-पद-लम्बे तीक्ष्ण नाखून वाले शेर, चीता, कुत्ता, बिल्ली आदि। ____550. Chatushpad tiryanch (quadruped animals) are of four kinds(1) egakhura (with single hoof)-horse, donkey etc., (2) dokhura (with two hooves)-cow, buffalo, lamb, goat etc., (3) gandipad (with large round anvil shaped feet with hard skin)-elephant, camel, rhinocerous etc. and (4) sanapphaya (with long sharp claws)—lion, leopard, dog, cat etc.
५५१. चउब्विहा पक्खी पण्णत्ता, तं जहा-चम्मपक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी, विततपक्खी।
५५१. पक्षी चार प्रकार के होते हैं-(१) चर्मपक्षी-चमड़े के पांखों वाले चमगादड़ आदि, (२) रोमपक्षी-रोममय पांखों वाले हंस, तोते, कौए आदि, (३) समुद्गपक्षी-जिसके पंख पेटी के समान खुलते और बन्द होते हैं, और (४) विततपक्षी-जिसके पंख सर्वदा फैले रहते हैं।
551. Pakshi (birds) are of four kinds—(1) charmapakshi—having wings of skin, like a bat, (2) romepakshi-having fibrous or feathery wings like swan, parrot and crow, (3) samudgpakshi-having wings that open close like a box, and (4) vitatpakshi-having wings that remain spread always.
विवेचन-चर्म पक्षी और रोम पक्षी तो मनुष्य क्षेत्र में पाये जाते हैं, किन्तु समुद्गपक्षी और विततपक्षी मनुष्य क्षेत्र से बाहरी द्वीपों और समुद्रों में पाये जाते हैं। (संस्कृत टीका पत्र २५९)
Elaboration-Charmapakshi and romepakshi are available in the area inhabited by humans and samudgpakshi and vitatpakshi are available in islands and seas beyond the area inhabited by humans. (Sanskrit Tika, leaf 259) __५५२. चउबिहा खुड्डपाणा पण्णत्ता, तं जहा-बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, संमुच्छिम-पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया। ___५५२. क्षुद्र प्राणी (छोटे प्राणी अथवा जिनकी अगले भव में मुक्ति सम्भव नहीं हो) चार प्रकार के होते हैं-(१) द्वीन्द्रिय जीव, (२) त्रीन्द्रिय जीव, (३) चतुरिन्द्रिय जीव, और (४) सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव।
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卐 552. Kshudra prani (lower animals) (or beings that cannot attain
liberation in the next birth) are of four kinds-(1) dvindriya jiva (two sensed beings), (2) trindriya jiva (three sensed beings), (3) chaturindriya jiva (four sensed beings) and (4) sammurchhim panchendriya tiryagyonik jiva (five-sensed animals of asexual origin). भिक्षुक-पद BHIKSHUK-PAD (SEGMENT OF ALMS-SEEKER)
५५३. चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा-णिवतित्ता णाममेगे णो परिवइत्ता, परिवइत्ता ॐ णाममेगे णो णिवतित्ता, एगे णिवतित्तावि परिवइत्तावि, एगे णो णिवतित्ता णो परिवइत्ता।।
एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा-णिवतित्ता णाममेगे णो परिवइत्ता, परिवइत्ता मणाममेगे णो णिवतित्ता, एगे णिवतित्तावि परिवइत्तावि, एगे णो णिवतित्ता णो परिवइत्ता।
५५३. पक्षी चार प्रकार के होते हैं-(१) निपतिता, न परिव्रजिता-कोई पक्षी अपने घोंसले से नीचे उतर सकता है, किन्तु (अक्षम होने से) इधर-उधर उड़ नहीं सकता; (२) परिव्रजिता, न निपतिता-कोई के पक्षी अपने घोंसले से उड़ सकता है, किन्तु (भीरु होने से) नीचे नहीं उतर सकता; (३) निपतिता, 卐 परिव्रजिता-कोई समर्थ पक्षी अपने घोंसले से नीचे भी उतर सकता है और ऊपर भी उड़ सकता है; तथा
(४) न निपतिता, न परिव्रजिता-कोई पक्षी (अतीव बाल्यावस्था होने के कारण) अपने घोंसले से न नीचे ॐ ही उतर सकता है और न ऊपर ही उड़ सकता है।
इसी प्रकार भिक्षुक भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई भिक्षु भिक्षा के लिए निकलता है, किन्तु ॐ रुग्णता आदि कारणों से अधिक घूम नहीं सकता; (२) कोई भिक्षु भिक्षा के लिए घूम सकता है, किन्तु ॥ + स्वाध्याय ध्यानादि में संलग्न रहने के कारण भिक्षा के लिए निकल नहीं सकता; (३) कोई समर्थ भिक्षु
भिक्षा के लिए निकलता भी है और घूमता भी है; (४) कोई भिक्षु नवदीक्षित या अल्पवयस्क होने के 卐 कारण भिक्षा के लिए न निकलता है और न घूमता ही है।
553. Pakshi (birds) are of four kinds-(1) Nipatita, na parivrajitasome bird can come out of its nest but cannot fly around (due to weakness). (2) Parivrajita, na nipatita-some bird can fly but does not come out of its nest (out of fear). (3) Nipatita, parivrajita--some bird can come out of its nest and fly around as well. (4) Na nipatita, na parivrajita-some bird can neither come out of its nest nor fly around (due to immature age).
In the same way bhikshu (alms seekers or ascetics) are of four 45 kinds (1) Nipatita, na parivrajita-some ascetic can go out for alms卐 seeking but cannot move around much due to sickness. (2) Parivrajita,
na nipatita-some ascetic can move around to seek alms but being busy in studies and meditation does not go out. (3) Nipatita, parivrajita
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चार प्रकार के चौपाये
दो खुर वाले
एक खुर वाले
सनखपद
गण्डीपद
चार प्रकार के पक्षी
रोम पक्षी-हंस
चर्म पक्षी चमगीदड़
समुद्ग पक्षी-शुतुरमुर्ग वितत पक्षी-भारंड गान
CITHUNTRATED
negra.org
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चित्र परिचय-३ ।
Illustration No.3 चौपायों के पाँवों की चतुर्विध रचना (१) एक खुर वाले पशु, जैसे घोड़ा आदि। इनके पाँव का तलभाग एक खुरा होता है। (२) दो खुर वाले पशु गाय आदि। इनके पाँव का तलभाग बीच में से छिदा हुआ होता है। (३) गण्डीपद-जिनका पंजा कठोर चर्ममय होता है, जैसे हाथी का पंजा। (४) स-नख पद-लम्बे तीखे नाखूनों वाला पंजा, जैसे शेर आदि का।
-स्थान ४, सूत्र ५५० चार प्रकार के पक्षी (१) चर्म पक्षी-चमड़े के पंखों वाले, जैसे चमगादड़ आदि। (२) रोम पक्षी-रोम मय पंखों वाले, जैसे हंस आदि। (३) समुद्ग पक्षी-पेटी की तरह जिसके पंख खुलते बन्द होते हैं, जैसे शुतुरमुर्ग। (४) वितत पक्षी-जिसके पंख सदा फैले रहते हों, जैसे-भारंड पक्षी।
-स्थान ४, सूत्र ५५१ FOUR STRUCTURES OF ANIMAL FEET (1) Animals with single hoof-horse, donkey etc. (2) Animals with two hooves or split hoof-cow, buffalo, lamb, goat etc.
(3) Animals with large round anvil shaped feet with hard skinelephant, camel, rhinocerous etc. (4) Animals with long sharp claws-lion, leopard, dog, cat etc.
--Sthaan 4, Sutra 550 FOUR KINDS OF FEATHERS OF BIRDS (1) Charmapakshi-having wings of skin like a bat. (2) Romepakshi-having fibrous or feathery wings like a swan.
(3) Samudgpakshi-having wings that open close like a box like an ostrich.
(4) Vitatpakshi-having wings that remain spread always like a Bharand bird.
--Sthaan 4, Sutra 551
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some ascetic can go out to seek alms and move around as well. (4) Na 41 nipatita, na parivrajita—some ascetic can neither go out to seek alms
nor move around (due to immature age or being neo-initiate). कृश-अकृश-पद KRISH-AKRISH-PAD (SEGMENT OF WEAK AND NOT WEAK)
५५४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-णिक्कटे णाममेगे णिक्कटे, णिक्कटे णाममेगे ॥ अणिक्कटे, अणिक्कट्टे णाममेगे णिक्कडे, अणिक्कटे णाममेगे अणिक्कटे।
५५४. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) निष्कृष्ट और निष्कृष्ट-कोई पुरुष शरीर से कृश (क्षीण) होता है और कषाय से भी कृश होता है; (२) निष्कृष्ट और अनिष्कृष्ट-कोई शरीर से कृश होता है, किन्तु कषाय से कृश नहीं होता; (३) कोई शरीर से कृश नहीं होता, किन्तु कषाय से कृश होता है; तथा (४) कोई न शरीर से कृश होता है और न कषाय से ही कृश होता है।
554. Purush (men) are of four kinds—(1) Nishkrishta (weak) and nishkrishta (weak)--some man is weak in body and mild in passions as well. (2) Nishkrishta (weak) and anishkrishta (not weak)---some man is weak in body and not mild in passions. (3) Anishkrishta (not weak) and nishkrishta (weak)—some man is not weak in body but mild in passions.
(4) Anishkrishta (weak) and anishkrishta (weak)—some man is neither 5 weak in body nor mild in passions.
५५५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-णिक्कटे णाममेगे णिक्कटुप्पा, णिक्कट्ठे णाममेगे अणिक्कट्टप्पा, अणिक्कट्टे णाममेगे णिक्कट्टप्पा, अणिक्कटे णाममेगे अणिक्कट्ठप्पा।
५५५. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) निष्कृष्ट और निष्कृष्टात्मा-कोई पुरुष शरीर से कृश होता में है और कषायों की मन्दता के कारण निर्मल आत्मा होता है; (२) कोई शरीर से तो कृश होता है, किन्तु * कषायों की प्रबलता से मलिन-आत्मा होता है; (३) कोई शरीर से अकृश (स्थूल) होता है, किन्तु + कषायों के अभाव से निर्मल-आत्मा होता है; तथा (४) कोई शरीर से अकृश (स्थूल) और आत्मा से भी अकृश (अनिर्मल) होता है।
555. Purush (men) are of four kinds-(1) Nishkrishta (weak) and nishkrishtatma (weak)—some man is weak in body and spiritually p due to mild passions. (2) Nishkrishta (weak) and anishkrishtatma (not weak)—some man is weak in body and spiritually impure due to strong passions. (3) Anishkrishta (not weak) and nishkrishtatma (weak)--some man is not weak in body and spiritually pure due to mild passions. (4) Anishkrishta (not weak) and anishkrishtatma (not weak)--some man is not weak in body and spiritually impure due to strong passions.
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ॐ बुध-अबुध-पद BUDHA-ABUDHA-PAD
(SEGMENT OF PRUDENT AND IMPRUDENT) ५५६. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-बुधे णाममेगे बुधे, बुधे णाममेगे अबुधे, अबुधे णाममेगे बुधे, अबुधे णाममेगे अबुधे।
५५६. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष ज्ञान से बुध (विवेकी) होता है और आचरण व व्यवहार कुशलता से भी बुध (विवेकी) होता है (२) कोई ज्ञान से तो बुध होता है, किन्तु आचरण से 卐 अबुध (अविवेकी) होता है; (३) कोई ज्ञान से तो अबुध (अल्पज्ञ) होता है, किन्तु आचरण से बुध 5 - (कुशल); और (४) कोई ज्ञान से भी अबुध होता है और आचरण से भी अबुध।
556. Purush (men) are of four kinds-(1) Budha (prudent) and budha (prudent)—some man is prudent in knowledge and prudent in conduct as ___well. (2) Budha (prudent) and abudha (imprudent)-some man is prudent ___in knowledge and imprudent in conduct. (3) Abudha (imprudent) and budha (prudent)some man is imprudent in knowledge and prudent in conduct. (4) Abudha (imprudent) and abudha (imprudent)—some man is imprudent in knowledge and imprudent in conduct.
५५७. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-बुधे णाममेगे बुधहियए, बुधे णाममेगे अबुधहियए, अबुधे णाममेगे बुधहियए, अबुधे णाममेगे अबुधहियए।
___ ५५७. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) बुध और बुधहृदय-कोई पुरुष आचरण से बुध (विद्वान व ॐ सत्-क्रिया वाला) होता है और हृदय से भी बुध (विवेकशील) होता है; (२) कोई आचरण से बुध होता ॥ म है, किन्तु हृदय से अबुध (अविवेकी) होता है; (३) कोई आचरण से अबुध होता है, किन्तु हृदय से बुध + होता है: और (४) कोई आचरण से भी अबुध और हृदय से भी अबुध होता है।
557. Purush (men) are of four kinds-(1) Budha (prudent) and budhahridaya (prudent in sentiment)-some man is prudent in conduct # (learned and immaculate in conduct) and prudent in sentiment as well.
(2) Budha (prudent) and abudhahridaya (imprudent in sentiment)some man is prudent in conduct and imprudent in sentiment. (3) Abudha (imprudent) and budhahridaya (prudent in sentiment), some man is imprudent in conduct and prudent in sentiment. 4 (4) Abudha (imprudent) and abudhahridaya (imprudent in sentiment)
some man is imprudent in body and imprudent in sentiment as well. म अनुकम्पक-पद ANUKAMPAR-PAD
५५८. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-आयाणुकंपए णाममेगे णो पराणुकंपए, ॐ पराणुकंपए णाममेगे णो आयाणुकंपए, एगे आयाणुकंपएवि पराणुकंपएवि, एगे णो आयाणुकंपए
णो पराणुकंपए।
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पर अनुकम्पा (दया) करता है, किन्तु दूसरे पर अनुकम्पा नहीं करता (जैसे, जिनकल्पी, प्रत्येकबुद्ध या फ # निर्दय स्वार्थी पुरुष); (२) परानुकम्पक, न आत्मानुकम्पक-कोई दूसरे पर तो अनुकम्पा करता है, किन्तु म अपने ऊपर अनुकम्पा नहीं करता। (मेतार्य मुनि के समान अथवा तीर्थंकर, जो स्वयं कृतकार्य होते हैं;)
(३) कोई आत्मानुकम्पक भी होता है और परानुकम्पक भी (स्थविरकल्पी साधु के समान); तथा ॥ %(४) कोई न आत्मानुकम्पक होता है और न परानुकम्पक (कालशौकरिक के समान)।
558. Manushya (men) are of four kinds-(1) Atmanukampak, na paranukampak—some man has compassion for himself but does not
have compassion for others (like a Jinakalpi, a Pratyek-buddha or a fi cruel selfish person). (2) Paranukampak, na atmanukampak—some man 51 fi has compassion for others but does not have compassion for him self (like fi Ascetic Metarya or a Tirthankar who has attained the blissful state).
(3) Atmanukampak, paranukampak-some man has compassion for himself as well as for others (like a Sthavir-kalpi ascetic). (4) Na atmanukampak, na paranukampak-some man has compassion neither for himself nor for others (like Kaal Shaurik). संवास-पद SAMVAS-PAD (SEGMENT OF SEXUAL GRATIFICATION) __ ५५९. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-दिब्बे, आसुरे, रक्खसे, माणुसे।
५६०. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे , णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे णाममेगे । असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति।
५६१. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति।
५६२. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति।
५५९. संवास (स्त्री-पुरुष का सहवास) चार प्रकार का कहा है-(१) दिव्य-संवास, (२) आसुर-संवास, (३) राक्षस-संवास, और (४) मानुष-संवास।
५६०. संवास चार प्रकार का होता है-(१) कोई देव देवियों के साथ संवास करता है, (२) कोई देव असुरियों के साथ, (३) कोई असुर देवियों के साथ, और (४) कोई असुर असुरियों के साथ संवास करता है।
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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म ५६१. संवास चार प्रकार का होता है-(१) कुछ देव देवियों के साथ, (२) कुछ देव राक्षसियों के साथ, (३) कुछ राक्षस देवियों के साथ, और (४) कुछ राक्षस राक्षसियों के साथ संवास करते हैं।
५६२. संवास चार प्रकार का होता है-(१) कुछ देव देवियों के साथ, (२) कुछ देव मानुषी के के साथ, (३) कुछ मनुष्य देवी के साथ, और (४) कुछ मनुष्य मानुषी स्त्री के साथ संवास करता है।
559. Samvas (sexual gratification) is of four kinds—(1) divya-samvas (divine copulation), (2) aasur-samvas (aasur copulation), (3) rakshassamvas (rakshas copulation) and (4) maanush-samvas (human copulation).
560. Samvas (sexual gratification) is of four kinds—(1) Some deva (god) copulates with devis (goddesses). (2) Some god copulates with asuris (asur females or a kind of lower goddesses). (3) Some asur (a kind of lower god) copulates with goddesses. (4) Some asur copulates with asuris.
561. Samvas (sexual gratification) is of four kinds-(1) Some deva (god) copulates with devis (goddesses). (2) Some god copulates with rakshasis (rakshas females or a kind of lower goddesses). (3) Some rakshas copulates with goddesses. (4) Some rakshas copulates with rakshasis.
562. Samvas (sexual gratification) is of four kinds—(1) Some deva (god) copulates with devis (goddesses). (2) Some god copulates with a manushis (women). (3) Some manushya (man) copulates with goddesses. (4) Some manushya copulates with manushis.
५६३. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे ॐ णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति।
५६४. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से + णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति।
५६३. संवास चार प्रकार का कहा है-(१) कुछ असुर असुरियों के साथ, (२) कुछ असुर + राक्षसियों के साथ, (३) कुछ राक्षस असुरियों के साथ, और (४) कुछ राक्षस राक्षसियों के साथ संवास करते हैं।
५६४. संवास चार प्रकार का कहा है-(१) कुछ असुर असुरियों के साथ, (२) कुछ असुर मानुषी स्त्रियों के साथ, (३) कुछ मनुष्य असुरियों के साथ, और (४) कुछ मनुष्य मानुषी स्त्रियों के साथ संवास ॐ करते हैं।
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563. Samvas (sexual gratification) is of four kinds-(1) Some asur copulates with asuris. (2) Some asur copulates with rakshasis. (3) Some 41 rakshas copulates with asuris. (4) Some rakshas copulates with rakshasis.
564. Samvas (sexual gratification) is of four kinds—(1) Some asur (asur) copulates with asuris. (2) Some asur copulates with manushis. (3) Some manushya (man) copulates with asuris. (4) Some manushya copulates with manushis.
५६५. चउबिहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति। __ ५६५. संवास चार प्रकार का कहा है-(१) कुछ राक्षस राक्षसियों के साथ, (२) कुछ राक्षस मानुषी स्त्रियों के साथ, (३) कुछ मनुष्य राक्षसियों के साथ, और (४) कुछ मनुष्य मानुषी स्त्रियों के साथ संवास करते हैं।
565. Samvas (sexual gratification) is of four kinds—(1) Some rakshas copulates with rakshasis. (2) Some rakshas copulates with manushis. (3) Some manushya (man) copulates with rakshasis. (4) Some manushya copulates with manushis.
विवेचन-वैमानिक व ज्योतिष देवों के संवास को दिव्यसंवास। असुरकुमार भवनवासी देवों के संवास को आसुरसंवास। राक्षस व्यन्तर देवों के संवास को राक्षससंवास और मनुष्यों के संवास को मानुषसंवास कहते हैं।
उपरोक्त सूत्रों में देव, असुर, राक्षस और मनुष्य शब्द का भाव प्रतीकात्मक भी लिया जा सकता है।
देव-भौतिक दृष्टि से सम्पन्न तथा प्रेम उदारता स्नेह, मृदुता, मर्यादा पालन और क्षमाशीलता आदि गुणों का प्रतीक है। असुर-उग्र स्वभाव, मनमौजीपन, अहंकार, राजसी स्वभाव, कठोरता आदि का। राक्षस-क्रूरता, निर्दयता, निकृष्टता, भक्ष्याभक्ष्य अविवेक आदि स्वभाव का प्रतीक है। मनुष्य में उक्त ॥ तीनों के गुण व स्वभाव का मिश्रण रहता है। देव-देवी के संवास का भाव है, श्रेष्ठ पुरुष और श्रेष्ठ स्त्री। इसी प्रकार अन्य के स्वभाव के अनुसार प्रतीकार्थ लिया जा सकता है। (हिन्दी टीका, पृ. १०८३)
Elaboration—The sexual gratification of Vaimanik and Jyotishk gods : is called divya-samvas (divine copulation); that of Asur Kumar abode
dwelling gods is called aasur-samvas (aasur copulation); that of rakshas interstitial gods is called rakshas-samvas (rakshas copulation) and that of human beings is called maanush-samvas (human copulation).
The terms deva, asur, rakshas and manushya used in this aphorism may also be interpreted symbolically| चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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Deva represents virtues like physical health and wealth, love, 卐 generosity, sweet nature, discipline, and forgiveness etc. Asur represents ' 41 attributes like anger, wantonness, conceit, extravagance, callousness etc. 41
Rakshas represents attributes like cruelty, absence of compassion, meanness, unrestricted eating habits etc. Manushya represents mixture
of all these attributes in different proportions. Combination of god and 4 goddess indicates copulation of a virtuous man with a virtuous woman. $ Other classifications can be interpreted in the same way. 9 अपध्वंस-पद APADHVANS-PAD (SEGMENT OF DECLINE)
५६६. चउबिहे अवद्धंसे पण्णत्ते, तं जहा-आसुरे, आभिओगे, संमोहे, देवकिब्बिसे।
५६६. अपध्वंस (पतन या चारित्र का विनाश) चार प्रकार का होता है। जैसे-(१) असुर-अपध्वंस, ॐ (२) आभियोग-अपध्वंस, (३) सम्मोह-अपध्वंस, और (४) देवकिल्विष-अपध्वंस)।
566. Apadhvans (decline) is of four kinds-(1) Asur-apadhvans, (2) Abhiyoga-apadhvans, (3) Sammoha-apadhvans and (4) DevkilvishFapadhvans.
विवेचन- शुद्ध भावपूर्वक की गई तपस्या का फल निर्वाण की प्राप्ति तथा शुभ भावपूर्वक की गई E तपस्या का फल स्वर्ग की प्राप्ति है। किन्तु जिस तपस्या में किसी प्रकार की आकांक्षा या फल-प्राप्ति की ॐ वांच्छा जुड़ी रहती है, उस तपःसाधना के फल से प्राणी देवयोनि में तो उत्पन्न होता है, किन्तु मन में है + आकांक्षा रहने के कारण नीच जाति के भवनवासी आदि देवों में उत्पन्न होता है। जिन अनुष्ठानों, ॐ आचरणों को करने से साधक असुरत्व का उपार्जन करता है, वह आसुरी भावना है। जिन अनुष्ठानों व है म आचरणों से साधक आभियोग जाति (देवताओं में सेवक तुल्य) के देवों में उत्पन्न होता है, वह
आभियोगी-भावना है, जिन अनुष्ठानों से साधक सम्मोहक देवों में उत्पन्न होता है, वह सम्मोही भावना है ॐ और जिन अनुष्ठानों से साधक किल्विष देवों (चण्डालपना) में उत्पन्न होता है, वह देवकिल्विषी भावना है। म 9 वस्तुतः ये चारों ही भावनाएँ चारित्र के अपध्वंस (विनाशरूप) हैं, अतः अपध्वंस के चार प्रकार बताये
हैं। चारित्र का पालन करते हुए भी व्यक्ति जिस प्रकार की हीन भावना में निरत रहता है, वह उस ॐ ॐ प्रकार के हीन देवों में उत्पन्न हो जाता है। आगे के सूत्रों में चारों प्रकार की भावना पर प्रकाश डाला है।
Elaboration-Austerities observed with spiritual purity lead to 4 liberation and those done with pious feelings lead to birth in higher 5 divine realms. But austerities connected with some aspirations or desire 5 of attainments, although lead to birth in divine realm but of lower levels
like abode dwelling gods. The rituals and conduct that lead to Asur realm are included in asuri bhaavana attitude. The rituals and conduct
that lead to birth as Abhiyogik gods (servant gods) are included in 卐 abhiyogi bhaavana. The rituals and conduct that lead to birth as
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Saminohak gods (another kind of lower gods) are included in sammohi bhaavana. The rituals and conduct that lead to birth as Kilvish gods (clown gods) are included in Devkilvishi bhaavana. In fact all these four bhaavanas (sentiments) cause moral decline and therefore they are included here as four kinds of decline. Even while observing ascetic conduct an aspirant gets destined to birth as a lower god depending on the sentiment he is involved in. The following aphorisms throw more f light on these four kinds of sentiments.
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आसुरी भावना AASURI BHAAVANA
५६७. चउहिं ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- कोवसीलताए, पाहुडसीलता, संसत्ततवोकम्मेणं णिमित्ताजीवयाए ।
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५६७. चार स्थानों से जीव असुरों में जन्म लेने योग्य कर्म का उपार्जन करते हैं - (१) कोपशीलता से चारित्र का पालन करते हुए क्रोधयुक्त प्रवृत्ति से, (२) प्राभृतशीलता से कलह-स्वभावी होने से, (३) संसक्त तपः कर्म से - आहार, पात्रादि की प्राप्ति के लिए तपश्चरण करने से, और (४) निमित्ताजीविता से- हानि-लाभ आदि से सम्बन्धित निमित्त बताकर आहारादि प्राप्त करने से ।
567. Four sthaans (activities) enable beings to acquire karmas leading to birth as Asurs-(1) Kopeshilata-by indulging in anger inspired activity while observing ascetic conduct. (2) Prabhritashilata-by having quarrelsome nature. (2) Samsakt tapahkarma-by observing austerities ito acquire food, bowls and other things. (4) Nimittajivita - by acquiring food and other things on the pretext of banes and boons of alms-giving. आभियोगी भावना AABHIYOGI BHAAVANA
५६८. चउहिं ठाणेहिं जीवा आभिओगत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-3 परपरिवारणं, भूतिकम्मेणं, कोउयकरणेणं ।
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५६८. चार स्थानों से जीव आभियोगत्व कर्म का उपार्जन करते हैं- (१) आत्मोत्कर्ष से - अपने गुणों का अभिमान तथा आत्मप्रशंसा करने से, (२) पर - परिवाद से - दूसरों की निन्दा करने और दोष कहने से, (३) भूतिकर्म से ज्वर, भूतावेश आदि को दूर करने के लिए भस्म, लेप, ताबीज आदि देने से, और (४) कौतुक करने से - मन्त्रित जलादि से स्नान व होम आदि करने से।
चतुर्थ स्थान: चतुर्थ उद्देशक
568. Four sthaans (activities) enable beings to acquire karmas leading to birth as Abhiyogik gods-(1) Atmotkarsh-by self praise and conceit of one's virtues. (2) Paraparivad-by slandering and criticizing others. (3) Bhutikarma-by applying ash, giving totems and doing other such superstitious things to cure fever and other ailments. (4) Kautuk-by taking bath with mantra-consecrated water or offering sacrifice in fire.
( 41 )
- अत्तुक्कोसेणं,
Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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5555555555555555555555555555555550 ॐ सम्मोही भावना SAMMOHI BHAAVANA
५६९. चउहिं ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-उम्मग्गदेसणाए, + मग्गंतराएणं, कामासंसप्पओगेणं, भिज्जाणियाणकरणेणं।
५६९. चार स्थानों से जीव सम्मोहत्व कर्म का उपार्जन करते हैं-(१) उन्मार्गदेशना से-जिन-वचनों फ़ से विरुद्ध मिथ्या मार्ग का उपदेश देने से, (२) मार्गान्तराय से मुक्ति के मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति को विघ्न,
बाधा उपस्थित करने से, (३) कामाशंसाप्रयोग से-तपस्या करते हुए काम-भोगों की अभिलाषा रखने ऊ से, और (४) भिध्यानिदानकरण से-भोगों की तीव्र लालसा-वश बार-बार निदान करने से।
569. Four sthaans (activities) make beings acquire karmas leading to birth as Sammohi gods--(1) Unmarg deshana-to preach against the sermon of Jina or the right path. (2) Margantaraya-by obstructing or creating hurdles in the path of a person heading towards liberation. (3) Kamashamsa prayog—by having desire for carnal pleasures while indulging in austerities. (4) Mithyanidaanakaran-to hope and wish time and again for satiation of intense carnal cravings देवकिल्विषी भावना DEVAKILVISHI BHAAVANA
५७०. चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बिसियत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-अरहंताणं अवणं वदमाणे, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवणं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणमवण्णं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे।
५७०. चार स्थानों से जीव देवकिल्विषिकत्व कर्म का उपार्जन करते हैं-(१) अर्हन्तों का अवर्णवाद करने से, (२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का, (३) आचार्य और उपाध्याय का, और (४) चतुर्विध संघ ॐ का अवर्णवाद करने से।
570. Four sthaans (activities) make beings acquire karmas leading to birth as Devakilvishi gods-by slandering and criticizing (1) Arhants, (2) religion propagated by Arhats, (3) acharya and upadhyaya, and (4) Chaturvidh Sangh (four limbed religious organization).
विवेचन-इन अशुभ भावनाओं का उत्तराध्ययन अध्ययन ३६ में तथा बृहत्कल्पभाष्य भाग २ में 卐 विस्तार पूर्वक वर्णन है।
हिन्दी में देखें भावना योग (आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी) खण्ड-२
Elaboration-Detailed discussion on the sentiments at the back of the aforesaid activities is available in chapter 36 of Uttaradhyayan and part 2 of Brihatkalpabhashya. Also refer to the Hindi book Bhaavana Yoga, part-2 by Acharya Shri Anand Rishi ji.
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Sthaananga Sutra (2)
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5 प्रव्रज्या- पद PRAVRAJYA-PAD (SEGMENT OF ASCETIC INITIATION)
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५७१. चउव्विहा पव्वज्जा
hi दुहओलोगपडिबद्धा, अप्पडिबद्धा ।
पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा,
५७१. प्रव्रज्या (निर्ग्रन्थ दीक्षा) चार प्रकार की कही है - ( १ ) इहलोकप्रतिबद्धा - इस लोक-सम्बन्धी फ सुख-कामना से युक्त, (२) परलोकप्रतिबद्धा - परलोक-सम्बन्धी सुख-कामना युक्त, (३) लोकद्वयप्रतिबद्धा - 5 दोनों लोकों की सुख-कामना से युक्त, और (४) अप्रतिबद्धा - किसी भी प्रकार के सांसारिक सुख की कामना से रहित ।
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५७२. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - पुरओपडिबद्धा मग्ग ओपडिबद्धा, दुहओपडिबद्धा, अप्पडिबद्धा ।
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(ascetic initiation) is of four kinds— (1) Ihalokapratibaddha-with a wish for happiness during this birth. (2) Paralokapratibaddha-with a wish for happiness during the next f birth. (3) Lokadvyapratibaddha — with a wish for happiness during the 5 said two births. (4) Apratibaddha — with no wish at all for any kind of 5 mundane happiness.
५७२. प्रव्रज्या चार प्रकार की कही है - ( १ ) पुरतः प्रतिबद्धा - आहार अथवा शिष्यपरिवारादि की कामना (भावी आकांक्षा) से ली जाने वाली, (२) मार्गतः (पृष्ठतः) प्रतिबद्धा - वंश, कुल और कुटुम्बादि की प्रतिष्ठा बढ़ाने की कामना से ली जाने वाली, (३) द्वयप्रतिबद्धा - उक्त दोनों प्रकार की कामना से ली जाने वाली, और (४) अप्रतिबद्धा - उक्त दोनों प्रकार की कामनाओं से रहित ।
५७३. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - ओवायपव्वज्जा, अक्खातपव्वज्जा, संगारपव्वज्जा, विहगगइपव्वज्जा ।
572. Pravrajya (ascetic initiation) is of four kinds-(1) Puratahpratibaddha-with a wish for getting food, disciples, and other things. i (2) Margatah (Prishtatah) pratibaddha — with a wish for enhancing honour of clan, lineage, family etc. (3) Dvayapratibaddha-with a wish for the two aforesaid things. (4) Apratibaddha — with no wish at all for 5 the said two things.
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५७३. प्रव्रज्या चार प्रकार की कही है - ( १ ) अवपात प्रव्रज्या - गुरु आदि की सेवा के निमित्त ली जाने वाली दीक्षा, (२) आख्यात प्रव्रज्या - दूसरों के कहने से या उनसे प्रेरणा पाकर ली जाने वाली दीक्षा, (३) संगर प्रव्रज्या - तुम दीक्षा लोगे तो मैं भी दीक्षा लूँगा, इस प्रकार परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होने से या किसी संकेत से ली जाने वाली, और (४) विहगगति प्रव्रज्या - एकाकी होकर देशान्तर में जाकर ली जाने वाली दीक्षा ।
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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451 573. Pravrajya (ascetic initiation) is of four kinds-(1) Avapaat
pravrajya-initiation for the purpose of serving the teacher and others. (2) Akhyat pravrajya-initiation at the behest of or inspiration by others. (3) Sangar pravrajya-Initiation to honour commitment or direction such as 'If you get initiated I will also follow suit.' (4) Vihagagati pravrajyainitiation taken alone after going away from the country.
५७४. चउबिहा पवज्जा पण्णत्ता, तं जहा-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुआवइत्ता, परिपुयावइत्ता। म ५७४. प्रव्रज्या चार प्रकार की कही है-(१) तोदयित्वा-रोग आदि उत्पन्न करने का भय बताकर
या कष्ट देकर दी जाने वाली दीक्षा. (२) प्लावयित्वा-जन्मस्थान से अन्यत्र ले जाकर दी जाने वाली दीक्षा, ऊ (३) वाचयित्वा-बातचीत करके अथवा मोचयित्वा-पाठान्तर मानने पर किसी को ऋण मुक्त कराकर दी + जाने वाली दीक्षा, और (४) परिप्लुतयित्वा-स्निग्ध, मिष्ट आहार का प्रलोभन देकर दी जाने वाली दीक्षा। ॐ (संस्कृत टीका भागा २ पृष्ठ ४७४ में इनके उदाहरण भी दिये हैं)
574. Pravrajya (ascetic initiation) is of four kinds—(1) Todayitvainitiation enforced by coercion such as fear of causing some ailment.
(2) Plavayitva-initiation given by taking one away from his birth + place. (3) Vachayitva-initiation given after convincing. (another + reading: mochayitva-initiation given after clearing one's debts.
(4) Pariplutayitva- initiation given by promising rich and tasty food as i enticement. (Examples of all these are given in Sanskrit Tika, part-2 p. 474)
५७५. चउब्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा-णडखइया, भडखइया, सोहखइया, सियालखइया।
५७५. प्रव्रज्या चार प्रकार की कही है-(१) नटखादिता-संवेग-वैराग्य से रहित नट की तरह मात्र ॐ मनोरंजन के लिए धर्मकथा कहकर भोजनादि के उद्देश्य से ली गई। (२) भटखादिता-सुभट के समान ॐ बल-प्रदर्शन कर या सेवा करके, विद्याबल दिखाकर जीवन निर्वाह के लिए ली गई, (३) सिंहखादिता-सिंह
के समान दूसरों को शाप आदि से भयभीत कर जीवन निर्वाह कराने वाली और (४) शृगालखादिता+ सियाल के समान दीन-वृत्ति से लोगों की खुशामद कर जीवन निर्वाह कराने वाली।
575. Pravrajya (ascetic initiation) is of four kinds—(1) Natakhadita4 acrobat-like; taken for entertainment and not out of detachment.
(2) Bhatakhadita-warrior-like; for earning livelihood by display of learning and extending services. (3) Simhakhadita-lion-like; taken for earning livelihood by terrorizing others with threat of casting evil spell etc. (4) Shrigalakhadita-jackal-like; taken for earning livelihood by invoking pity through flattery.
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५७६. चउव्हिा किसी पण्णत्ता, तं जहा - वाविया, परिवाविया, णिंदिता, परिणिंदिता । वामेव चउव्हिा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - वाविता, परिवाविता, णिंदिता, परिणिंदिता ।
५७६. कृषि (खेती) चार प्रकार की कही है - ( १ ) वापिता - गेहूँ आदि की तरह एक बार बीजाई करने वाली, (२) परिवापिता- एक बार स्थान से उखाड़कर अन्य स्थान पर रोपण की जाने वाली, (३) निदाता - बोये गये धान्य के साथ उगी हुई विजातीय घास को बीन कर तैयार होने वाली और (४) परिनिदाता - दो-तीन बार गुड़ाई करके की जाने वाली कृषि |
इसी प्रकार प्रव्रज्या भी चार प्रकार की कही है - ( १ ) वापिता प्रव्रज्या - सामायिक चारित्र में आरोपित करना (छोटी दीक्षा ), ( २ ) परिवापिता प्रव्रज्या - महाव्रतों में आरोपित करना (बड़ी दीक्षा), (३) निदाता प्रव्रज्या - अतिचारों की एक बार आलोचना कर से शुद्ध होने वाली, और (४) परिनिदाता प्रव्रज्या - जिसमें बार-बार अतिचारों की आलोचना करनी पड़ती हो, वह दीक्षा ।
576. Krishi (farming) is of four kinds-(1) Vapita-done with one sowing, like wheat crop. (2) Parivapita done with transplantation. 5 (3) Nidata-done with removal of weeds from the sown crop once. (4) Parinidata-done with hoeing two three times.
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• ५७७. प्रव्रज्या चार प्रकार की कही है - ( १ ) पुंजित धान्यसमाना - खलिहान में रखे साफ किये गये धान्य-पुंज समान दोष व अतिचारों से रहित, (२) विरेल्लितधान्यसमाना - साफ किये गये, किन्तु खलिहान में बिखरे हुए भूसे से मिश्रित धान्य के समान अल्प- अतिचारों वाली, (३) विक्षिप्तधान्यसमानाखलिहान में बैलों आदि के द्वारा कुचले गए कंकर - भूसे से मिश्रित धान्य के समान अतिचारों की बहुलता वाली, और (४) संकट्टितधान्यसमाना - खेत से काटकर खलिहान में लाये गये कूड़े-कंकर आदि से मिश्रित धान्य- पूलों के समान अत्यधिक अतिचारों से युक्त प्रव्रज्या ।
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
फ्र
In the same way pravrajya ( ascetic initiation) is of four kinds - फ्र (1) Vapita pravrajya — to initiate in Samayik Charitra (chhoti diksha or फ्र the primary initiation). (2) Parivapita pravrajya-to initiate into great फ्र vows (badi diksha or final initiation). (3) Nidata pravrajya-involving just one reproachment for transgressions. (4) Parinidata pravrajyainvolving repeated reproachment for transgressions.
५७७. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा - धण्णपुंजितसमाणा, धण्णविरल्लितसमाणा, विक्खित्तसमाणा, धण्णसंकट्टितसमाणा ।
फ्र
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577. Pravrajya (ascetic initiation) is of four kinds— फ्र (1) Punjitadhanyasamana-free of faults and transgression like cleaned grain heaps in a granary. (2) Virellitadhanyasamana-with some faults and transgressions like cleaned but chaff mixed scattered grain in a granary. (3) Vikshiptadhanyasamana-with
(45)
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more faults and
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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transgressions like chaff and pebble mixed grain trampled by oxen. (4) Sankattitadhanyasamana-with excessive faults and transgressions like freshly brought grain from farm that is mixed with pebbles and dirt.
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+ संज्ञा-पद SANJNA-PAD (SEGMENT OF DESIRE)
५७८. चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, म परिग्गहसण्णा।
५७८. संज्ञाएँ चार प्रकार की कही हैं-(१) आहारसंज्ञा, (२) भयसंज्ञा, (३) मैथुनसंज्ञा, और म (४) परिग्रहसंज्ञा।
578. Sanjna (desires) are of four kinds—(1) ahar-sanjna (desire for fi food), (2) bhaya-sanjna (desire to run away from fear), (3) maithun$ sanjna (desire for sex) and (4) parigraha-sanjna (desire for possessions).
५७९. चउहिं ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा-ओमकोट्ठताए, छुहावेयणिज्जस्स . + कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।
५७९. चार कारणों से आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है-(१) पेट खाली होने से, (२) क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से, (३) आहार सम्बन्धी बातें सुनने या भोज्य पदार्थ दीखने से, और (४) बार-बार आहार सम्बन्धी चिन्तन करने से।
579. There are four reasons for ahar-sanjna (desire for food) (1) stomach being empty, (2) fruition of kshudha vedaniya karma (karma responsible for suffering hunger), (3) hearing about or seeing eatables and (4) continued thinking about food.
५८०. चउहि ठाणेहिं भयसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा-हीणसत्तताए, भयवेयणिज्जस्स कम्मस्स 卐 उदएणं, मतीए तदट्ठोवओगेणं।
५८०. चार कारणों से भयसंज्ञा उत्पन्न होती है-(१) सत्त्व (शक्ति) की हीनता से, (२) भय . 卐 मोहनीय कर्म के उदय से, (३) भय की बातें सुनने व भयानक दृश्य देखने से (४) बार-बार भय का है
सोच-विचार करते रहने से। 46 580. There are four reasons for bhaya-sanjna (desire to run away
from fear) (1) deficiency of sattva (strength), (2) fruition of bhaya mohaniya karma (karma responsible for feeling of fear), (3) hearing
about fearful things and seeing terrifying scenes, and (4) continued 5 thinking about fearful things.
५८१. चउहिं ठाणेहिं मेहुणसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा-चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स 卐 कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।
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स्थानांगसूत्र (२)
(46)
Sthaananga Sutra (2)
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५८१. मैथुनसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-(१) शरीर में माँस, रक्त, वीर्य का अधिक संचय , होने से, (२) वेद मोहनीय कर्म के उदय से, (३) मैथुन की बातें सुनने व विकारोत्पादक दृश्य देखने से, (४) बार-बार मैथुन सम्बन्धी चिन्तन स्मरण से। ___581. There are four reasons for maithun-sanjna (desire for sex)(1) excess accumulation of flesh, blood, and semen in the body, (2) fruition of veda mohaniya karma (karma responsible for sexual feelings), (3) hearing about sex and seeing erotic scenes and (4) continued thinking about sex.
५८२. चउहिं ठाणेहिं परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा-अविमुत्तयाए, लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए तदट्ठोवओगेणं।
५८२. परिग्रहसंज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है-(१) परिग्रह या इच्छा-तृष्णा का त्याग न होने से, (२) लोभ मोहनीय कर्म के उदय से, (३) परिग्रह को देखने तथा धन का महत्त्व बताने वाली बातों के से, (४) बार-बार परिग्रह सम्बन्धी चिन्तन करते रहने से। ____582. There are four reasons for parigraha-sanjna (desire for i possessions)—(1) not renouncing the desire and craving for possessions,
(2) fruition of lobha mohaniya karma (karma responsible for fe greed), (3) hearing about importance of wealth and possessions and seeing things worth possessing and (4) continued thinking about 4 possessing things.
विवेचन-उक्त सूत्रों में 'संज्ञा' शब्द एक विशेष अर्थ है-“तत्सम्बन्धी विशेष प्रकार के कर्मोदय से जागृत होने वाली विकृत चेतना या भावना।" आहार संज्ञा में असाता वेदनीय, भय संज्ञा में भय वेदनीय, मैथुन संज्ञा में वेद मोहनीय और परिग्रह संज्ञा में लोभ मोहनीय कर्मों का उदय अन्तरंग कारण है। शेष तीन-तीन बहिरंग कारण हैं।
Elaboration—The term sanjna has been used in a special sensepervert feelings of desire rising due to fruition of related karmas. Aharsanjna, bhaya-sanjna, maithun-sanjna and parigraha-sanjna rise due to fruition of asata vedaniya, bhaya vedaniya, veda mohaniya and lobha mohaniya karma respectively. This is the intrinsic cause. The remaining three causes are extrinsic. काम-पद KAAM-PAD (SEGMENT OF CARNALITY)
५८३. चउबिहा कामा पण्णत्ता, तं जहा-सिंगारा, कलुणा, बीभच्छा, रोद्दा। सिंगारा कामा देवाणं, कलुणा कामा मणुयाणं, बीभच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोद्दा कामा णेरइयाणं।
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(47)
Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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因%% % % %% %%%%% %%% %% %%% %%%%%%%%% %%% 3 ५८३. काम-भोग चार प्रकार का होता है-(१) शृंगार काम, (२) करुण काम, (३) बीभत्स ॥ 5 काम, (४) रौद्र काम। 9 (१) देवों का काम शृंगार रस-प्रधान। (२) मनुष्यों का काम करुण-रस-प्रधान। फ़ + (३) तिर्यग्योनिक जीवों का काम बीभत्स-रस-प्रधान। (४) नारक जीवों का काम रौद्र-रस-प्रधान।।
583. Kaam (gratification of carnal desires) is of four kinds(1) shringar kaam (carnal indulgence resulting in amatory
sentiment), (2) karun kaam (carnal indulgence resulting in sentiment of + pathos), (3) bibhatsa kaam (carnal indulgence resulting in sentiment
of disgust) and (4) raudra kaam (carnal indulgence resulting in sentiment of rage).
(1) Kaam of gods is shringar kaam (carnal indulgence resulting in amatory sentiment), (2) Kaam of humans is karun kaam (carnal indulgence resulting in sentiment of pathos), (3) Kaam of animals is bibhatsa kaam (carnal indulgence resulting in sentiment of disgust) and (4) Kaam of infernal beings is raudra kaam (carnal indulgence resulting in sentiment of rage).
विवेचन-टीकाकार ने बताया है, देवताओं के काम चित्त में प्रसन्नता व रति उत्पन्न करने वाले हैं, 卐 रति रूपो हि श्रृंगारः। मनुष्यों के काम भोगने के पश्चात् मन में शोक व पश्चात्ताप उत्पन्न करते हैं करुणो के + हि रसः शोक स्वभावः। अधिक कामासक्ति रोग भी उत्पन्न कर देती है। तिर्यंचों के काम घृणास्पद होते हैं, ॐ अतः उन्हें बीभत्स कहा है। नारकियों में शारीरिक मैथुन (काम) नहीं होता। प्रश्न होता है वे मैथुन संज्ञा 卐 की पूर्ति कैसे करते हैं ? उत्तर में बताया है, उनमें आसेवनकाम तो नहीं होता, किन्तु इच्छाकाम होता है।
इच्छाकाम की पूर्ति में वे अत्यन्त रौद्र होकर परस्पर लड़ने लग जाते हैं। रोद्रः क्रोध प्रकृतिः, (हिन्दी टीका ऊ पृष्ठ ११०१)
Elaboration The commentator (Tika) informs that the sexual gratification of gods produces erotic sentiment and feeling of joy. The sexual gratification of human beings results in sentiment of pathos and pensive state of mind. Excessive lust also causes ailments. The sexual act of animals is repulsive therefore it is classified as source of sentiment of disgust. The infernal beings are deprived of the ability of physical sex. A question naturally rises-how do they satisfy their sexual desire ? The answer is that though they are deprived of physical sex still they have sexual desires. For gratification of this desire they indulge in fierce fight with each other, therefore it is classified as source of sentiment of rage. (Hindi Tika, p. 1101)
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% उत्तान-गंभीर-पद UTTAN-GAMBHIR-PAD (SEGMENT OF SHALLOW AND DEEP)
५८४. चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए, उत्ताणे णाममेगे । गंभीरोदए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए, गंभीरे णाममेगे गंभीरोदए। ___एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहिदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरहिदए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणहिदए, गंभीरे णाममेगे गंभीरहिदए।
५८४. उदक (जल) चार प्रकार का होता है-(१) उत्तान और उत्तानोदक-कोई जल उत्तान-छिछला ता है और छिछला दिखाई देता है तथा उसका भीतरी भाग दिखाई देता है)। (२) उत्तान और गम्भीरोदक-कोई जल छिछला होता है, किन्तु गम्भीर दिखाई देता है। मलीन होने से इसका भीतरी भाग दिखाई नहीं देता। (३) कोई जल गम्भीर (गहरा) होता है किन्तु स्वच्छ दिखाई देता है और (४) कोई जल गम्भीर (गहरा) होता है और गम्भीर दिखाई देता है ___ इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं। (१) कोई पुरुष बाहर से सीधा सरल और हृदय से भी सीधा-सरल स्वभाव का होता है। (२) कोई बाहर से सीधा-सरल किन्तु हृदय में गम्भीर, (३) कोई बाहर से गम्भीर और हृदय से भी सरल, सहज तथा (४) कोई बाहर से गम्भीर हृदय से भी गम्भीर होता है। 1 584. Udak (water) is of four kinds—(1) Uttan and uttanodak-some i water is shallow and looks shallow (clear with visible bottom). (2) Uttan and gambhirodak-some water is shallow but looks deep (dirty with i invisible bottom). (3) Gambhir and uttanodak--some water is deep and looks shallow (ciear with visible bottom). (4) Gambhir and Gambhirodak--some water is deep and looks deep (dirty with invisible bottom).
In the same way manushya (man) is of four kinds—(1) some man is simple in looks and simple in mind also. (2) Some man is simple in looks but serious or complex in mind. (3) Some man is serious or complex in 45 looks but simple in mind. (4) Some man is serious or complex in looks and serious or complex in mind also.
५८५. चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी।
५८५. उदक चार प्रकार का होता है-(१) उत्तान और उत्तानावभासी-कोई जल उथला होता है और उथला जैसा ही प्रतीत होता है। (२) उत्तान और गम्भीरावभासी-कोई जल उथला होता है, किन्तु ॥
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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ॐ स्थान की विशेषता से गहरा जैसा प्रतीत होता है। (३) कोई जल गहरा होता है, किन्तु उथला जैसा + प्रतीत होता है। (४) कोई जल गहरा होता है और गहरा ही प्रतीत होता है। 卐 इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष उथला (तुच्छ) होता है और तुच्छ + कार्य करने से तुच्छ प्रतीत होता है। (२) कोई तुच्छ होता है, किन्तु गम्भीर जैसा प्रतीत होता है।
(३) कोई गम्भीर होता है, किन्तु तुच्छ कार्य करने से उथला जैसा प्रतीत होता है। (४) कोई गम्भीर 卐 होता है और गम्भीर ही प्रतीत होता है।
585. Udak (water) is of four kinds-(1) Uttan and uttanavabhasisome water is shallow and seems to be shallow. (2) Uttan and
gambhiravabhasi-some water is shallow but seems to be deep. (3) 5 Gambhir and uttanavabhasi—some water is deep and seems to be
shallow. (4) Gambhir and Gambhiravabhasi-some water is deep and seems to be deep.
In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) some man is simple (ordinary) and seems to be simple. (2) Some man is simple but seems to be serious (profound). (3) Some man is serious but seems to be simple. (4) Some man is serious and seems to be serious also. __५८६. चत्तारि उदही पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्ताणे णाममेगे ॐ गंभीरोदही, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदही, गम्भीरे णाममेगे गंभीरोदही।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरहियए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणहियए, गंभीरे णाममेगे गंभीरहियए। ॐ ५८६. समुद्र चार प्रकार के कहे हैं-(१) उत्तान और उत्तानोदधि-कोई समुद्र पहले उथला होता है ॥
और बाद में भी उथला रहता है (क्योंकि अढ़ाई द्वीप से बाहर के समुद्रों में ज्वार नहीं आता)। ॐ (२) कोई समुद्र पहले तो उथला होता है, (ज्वार भाटे से पहले) किन्तु बाद में ज्वार आने पर गहरा हो ॥ + जाता है। (३) कोई समुद्र पहले गहरा होता है, किन्तु बाद में ज्वार उतर जाने पर उथला हो जाता है। म - (४) कोई समुद्र (मध्य भाग में) पहले भी गहरा होता है और बाद में भी गहरा होता है। म इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं-(१) उत्तान और उत्तानहदय-कोई पुरुष व्यवहार में
अनुदार या उथला होता है और उसका हृदय भी अनुदार होता है। (२) कोई व्यवहार में अनुदार या ॐ उथला होता है, किन्तु हृदय गम्भीर या उदार होता है। (३) कोई गम्भीर किन्तु अनुदार हृदय वाला, 5 और (४) कोई गम्भीर और गम्भीरहृदय वाला होता है। 5 586. Udadhi (sea) is of four kinds—(1) Uttan and uttanodadhi-some
sea is shallow initially and remains shallow later as well (the seas outside Adhai Dveep are free of tides). (2) Uttan and gambhirodadhisome sea is shallow initially but deep later (before and after a tide).
卐55555555555555555555555555555555555555555555555
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(3) Gambhir and uttanodadhi-some sea is deep initially and shallow later (after and before a tide). (4) Gambhir and Gambhirodadhi-some sea is deep initially and remains deep later as well (the middle part of the sea). ___In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) some man is puerile in behaviour and puerile in mind also. (2) Some man is puerile in looks but solemn or generous in mind. (3) Some man is solemn in behaviour but puerile in mind. (4) Some man is solemn in behaviour and solemn in mind also.
५८७. चत्तारि उदही पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गंभीरे गाममेगे गंभीरोभासी।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोभासी, गंभीरे णाममेगे गंभीरोभासी।
५८७. समुद्र चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई समुद्र उथला होता है और उथला जैसा ही लगता है। (२) कोई समुद्र उथला होता है, किन्तु गहरा जैसा लगता है। (३) कोई समुद्र गहरा होता है, किन्तु उथला जैसा लगता है। (४) कोई समुद्र गहरा होता है और गहरा ही लगता है।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष उथला (तुच्छ) होता है और उथला ही लगता है। (२) कोई उथला होता है, किन्तु गम्भीर लगता है। (३) कोई गम्भीर होता है, किन्तु उथला लगता है। (४) कोई गम्भीर होता है और गम्भीर ही लगता है।
587.Udadhi (sea) is of four kinds-(1) Uttan and uttanavabhasi-some sea is shallow and seems to be shallow. (2) Uttan and gambhiravabhasisome sea is shallow but seems to be deep. (3) Gambhir and uttanavabhasi-some sea is deep and seems to be shallow. (4) Gambhir and Gambhiravabhasi-some sea is deep and seems to be deep.
In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) some man is puerile and seems to be puerile as well. (2) Some man is puerile but seems to be solemn. (3) Some man is solemn but seems to be puerile (4) Some man is solemn and seems to be solemn also.
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तरक-पद TARAK-PAD (SEGMENT OF A SWIMMER)
५८८. चत्तारि तरगा पण्णत्ता, तं जहा-समुदं तरामीतेगे समुदं तरति, समुदं तरामीतेगे : गोप्पयं तरति, गोप्पयं तरामीतेगे समुदं तरति, गोप्पयं तरामीतेगे गोप्पयं तरति।
५८८. तैराक (तैरने वाले) चार प्रकार के होते हैं
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Fourth Sthaan : Fourth Lesson
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५५९. तैराक चार प्रकार के होते हैं । (१) कोई एक बार समुद्र को पार करके पुनः समुद्र को पार करने में विषादग्रस्त हो जाता है । (२) कोई समुद्र को पार करके गोष्पद को पार करने में विषादग्रस्त हो जाता है। (३) कोई गोष्पद को पार करके समुद्र को पार करने में विषादग्रस्त हो जाता है। (४) कोई क गोष्पद को पार करके पुनः गोष्पद को पार करने में विषादग्रस्त हो जाता है।
卐
(१) कोई तैराक समुद्र को तैरने का संकल्प करता है और समुद्र को तैर जाता है।
(२) कोई समुद्र को तैरने का संकल्प करता है, किन्तु गोष्पद (अल्प जल वाले स्थान) को तैरता है ।
(३) कोई गोष्पद को तैरने का संकल्प करता है और समुद्र को तैर जाता है।
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(४) कोई गोष्पद को तैरने का संकल्प करता है गोष्पद को ही तैरता है ।
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588. Tarak (swimmers) are of four kinds-(1) Some tarak (swimmer) resolves to swim a sea and actually swims a sea. (2) Some tarak 出 (swimmer) resolves to swim a sea but actually swims a goshpad (a small 5 water body; pond ). ( 3 ) Some tarak (swimmer ) resolves to swim a pond 5 but actually swims a sea. (4) Some tarak (swimmer ) resolves to swim a 卐 pond and actually swims a pond.
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५८९. चत्तारि तरगा पण्णत्ता, तं जहा-समुदं तरेत्ता णाममेगे समुद्दे विसीयति, समुदं तरेत्ता णामगे गोप्प विसीयति, गोप्पयं तरेत्ता णाममेगे समुद्दे विसीयति, गोप्पयं तरेत्ता णाममेगे गोप्पए विसीयति ।
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पूर्ण - तुच्छ - पद PURNA-TUCHCHHA-PAD (SEGMENT OF FULL AND EMPTY)
589. Tarak (swimmers) are of four kinds-(1) After crossing a sea once, 5 some tarak (swimmer ) gets dejected to cross a sea again. (2) After crossing 5 ha sea once, some swimmer gets dejected to cross a pond (3) After crossing 5 a pond once, some swimmer gets dejected to cross a sea. (4) After crossing a pond once, some swimmer gets dejected to cross a pond again.
५९०. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णे णाममेगे पुण्णे, पुण्णे णाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छे णाममेगे तुच्छे।
एवमेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णे णाममेगे पुण्णे, पुण्णे णाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छे णाममेगे तुच्छे।
५९०. कुम्भ (घट) चार प्रकार के हैं - ( 9 ) कोई कुम्भ आकार से परिपूर्ण (सम्पूर्ण) होता है और घी आदि द्रव्य से भी पूर्ण होता है । (२) कोई कुम्भ आकार से परिपूर्ण होता है और घी आदि द्रव्यों से तुच्छ खाली होता है। (३) कोई कुम्भ आकार से अपूर्ण, किन्तु घृतादि द्रव्यों से परिपूर्ण होता है। (४) कोई कुम्भ घृतादि से भी तुच्छ (रिक्त) और आकार से भी तुच्छ (अपूर्ण) होता है।
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं - (१) कोई सभी अवयवों से पूर्ण होता है और धन, 5 विद्या आदि गुणों से भी पूर्ण होता है । (२) कोई आकार से पूर्ण, किन्तु विद्या आदि गुणों से तुच्छ होता है । (३) कोई आकार से तुच्छ होता है, किन्तु ज्ञानादि गुणों से पूर्ण । (४) और कोई आकार आदि से भी तुच्छ और ज्ञानादि गुणों से भी तुच्छ होता है।
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590. Kumbh (pitchers) are of four kinds-(1) Some kumbh (pitcher) is purna (complete) in form and purna ( filled) with butter or other things. ( 2 ) Some kumbh ( pitcher) is purna (complete) in form but tuchchha 5 (empty) of butter or other things. ( 3 ) Some kumbh (pitcher) is tuchchha 5 (incomplete) in form but purna ( filled) with butter or other things. 卐 ( 4 ) Some kumbh (pitcher) is tuchchha (incomplete) in form and tuchchha (empty) of butter or other things as well.
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५९१. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णे णाममेगे पुण्णोभासी, पुण्णे णाममेगे तुच्छोभासी, तुच्छे णाममेगे पुण्णोभासी, तुच्छे णाममेगे तुच्छोभासी ।
Manushya (men) are of four kinds-(1) Some man is purna (complete) in body and purna (endowed) with virtues like wealth, learning, piety and other such attributes. ( 2 ) Some man is purna (complete) in body but tuchchha (empty) of virtues. (3) Some man is tuchchha (incomplete) in body but purna (endowed) with virtues. (4) Some man is tuchchha 5 (incomplete) in body and tuchchha (empty) of virtues as well.
卐
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णे णाममेगे पुण्णोभासी, पुण्णे णाममेगे तुच्छोभासी, तुच्छे णाममेगे पुण्णोभासी, तुच्छे णाममेगे तुच्छोभासी ।
५९१. कुम्भ (घट) चार प्रकार के कहे हैं - (१) पूर्ण और पूर्णावभासी - कोई कुम्भ आकारसे पूर्ण होता है और पूर्ण ही दीखता है। (२) पूर्ण और तुच्छावभासी - कोई कुम्भ आकार से पूर्ण किन्तु अपूर्ण - सा दीखता है। (३) कोई कुम्भ आकार से अपूर्ण किन्तु पूर्ण-सा दीखता है । (४) कोई कुम्भ आकार से अपूर्ण और अपूर्ण ही दीखता है।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं । (१) कोई पुरुष सम्पत्ति - श्रुत आदि से पूर्ण, और उसका यथोचित सदुपयोग करने से भी पूर्ण होता है । (२) कोई श्रुत आदि से पूर्ण होता है, किन्तु यथोचित सदुपयोग न करने से अपूर्ण-सा दीखता है । (३) कोई श्रुत आदि से अपूर्ण होता है, किन्तु उनका किंचित उपयोग करने से पूर्ण-सा दीखता है । (४) कोई श्रुत आदि से अपूर्ण होता है और उनका उपयोग न करने से अपूर्ण ही दीखता है।
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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591. Kumbha (pitcher) is of four kinds – ( 1 ) Purna and purnaavabhasi-फ्र some pitcher is complete and seems to be complete. (2) Purna and tuchchhaavabhasi-some pitcher is complete but seems to be incomplete.
Fourth Sthaan: Fourth Lesson
(53)
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(3) Tuchchha and purnaavabhasi—some pitcher is incomplete but seems to
be complete. (4) Tuchchha and Tuchchhaavabhasi—some pitcher is 5 incomplete and seems to be incomplete.
In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) Purna and purnaavabhasi-some man is complete (endowed with wealth and knowledge) and seems to be complete (due to proper use). (2) Purna and tuchchhaavabhasi-some man is complete but seems to be incomplete (due to improper use). (3) Tuchchha and purnaavabhasi—some man is si incomplete but seems to be complete (due to some use). (4) Tuchchha and Tuchchhaavabhasi-some man is incomplete and seems to be incomplete
(due to absence of any use). __५९२. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे, पुण्णे णाममेगे तुच्छरूवे, तुच्छा णाममेगे पुण्णरूवे, तुच्छे णाममेगे तुच्छरूवे।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुण्णरूवे, पुण्णे णाममेगे तुच्छरूवे, तुच्छे णाममेगे पुण्णरूवे, तुच्छे णाममेगे तुच्छरूवे।
__५९२. कुम्भ (घट) चार प्रकार के कहे हैं-(१) कोई कुम्भ जल आदि से पूर्ण (भरा) होता है और है उसका आकार आदि भी पूर्ण (सुन्दर) होता है। (२) कोई पूर्ण होता है, किन्तु उसका रूप पूर्ण (सुन्दर)
नहीं होता है। (३) कोई अपूर्ण होता है, किन्तु उसका रूप पूर्ण होता है। (४) कोई अपूर्ण होता है और उसका रूप भी अपूर्ण ही होता है। ___ इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं-(१) कोई धन-श्रुत आदि से भी पूर्ण होता है और
वेषभूषादि रूप से भी पूर्ण होता है-(२) कोई धन-विद्या आदि से पूर्ण, किन्तु वेषभूषादि रूप से अपूर्ण म होता है। (३) कोई विद्या आदि से अपूर्ण, किन्तु वेष-भूषादि रूप से पूर्ण। (४) कोई श्रुतादि से भी है अपूर्ण, और वेष-भूषादि रूप से भी अपूर्ण होता है।
592. Kumbha (pitcher) is of four kinds—(1) Purna and purnarupasome pitcher is purna (filled) and purnarupa (beautiful in appearance). (2) Purna and tuchchharupa-some pitcher is filled but tuchchharupa (not beautiful in appearance). (3) Tuchchha and purnarupa—some pitcher is not beautiful but filled. (4) Tuchchha and Tuchchharupa- 4 some pitcher is neither filled nor beautiful.
In the same way manushya (man) is of four kinds—(1) Purna and purnarupa-some man is purna (endowed with wealth and knowledge) and purnarupa (well dressed). (2) Purna and tuchchharupa-some man is endowed but tuchchharupa (not well dressed). (3) Tuchchha and | स्थानांगसूत्र (२)
(54)
Sthaananga Sutra (2) 卐55 )))))) ))))) )))))))))) ))
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★ purnarupa-some man is tuchchha (not endowed) but well dressed.
(4) Tuchchha and tuchchharupa-some man is neither endowed nor not well dressed.
५९३ . चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा - पुणेवि एगे पिट्ठे, पुण्णेवि एगे अवदले, तुच्छेवि एगे पियट्ठे, तुच्छेवि एगे अवदले ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णेवि एगे पियट्टे, पुण्णेवि एगे अवदले, तुच्छेवि गे पियट्टे, तुच्छेवि एगे अवदले ।
५९३. कुम्भ चार प्रकार के कहे हैं । (१) पूर्ण और प्रियार्थ- कोई कुम्भ जल आदि से पूर्ण होता है और श्रेष्ठ गुण वाला होता है । (२) पूर्ण और अपदल - कोई कुम्भ जल आदि से पूर्ण होने पर भी अपदल (अधपका या कुत्सित मिट्टी का बना होता है। (३) कोई कुम्भ जलादि से अपूर्ण होने पर भी श्रेष्ठ होता (४) कोई कुम्भ जलादि से भी अपूर्ण और अपदल (असार) भी होता है।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं - ( 9 ) कोई सम्पत्ति व श्रुत आदि से पूर्ण होता है और परोपकारी होने से लोकप्रिय भी होता है । (२) कोई सम्पत्ति - श्रुत आदि से पूर्ण होता है, किन्तु ( परोपकारादि न करने से ) अपदल होता है । (३) कोई सम्पत्ति - श्रुत आदि से अपूर्ण होने पर भी परोपकारादि करने से प्रियार्थ होता है । ( ४ ) कोई सम्पत्ति - श्रुत आदि से भी अपूर्ण और परोपकारादि न करने से अपदल भी होता है।
In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) Purna and priyarth-some man is purna (endowed with wealth and knowledge) and priyarth (altruist and popular). (2) Purna and apadal-some man is endowed but apadal (selfish and unpopular). (3) Tuchchha and priyarth-some man is tuchchha (not endowed) but popular. (4) Tuchchha and apadal-some man is neither endowed nor popular. ५९४. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णेवि एगे विस्संदति, पुण्णेवि एगे जो विस्संदति, तुच्छेवि एगे विस्संदति, तुच्छेवि एगे णो विस्संदति ।
593. Kumbha (pitcher) is of four kinds-(1) Purna and priyarthsome pitcher is purna (filled with water) and priyarth (good in quality; made of good material ). ( 2 ) Purna and apadal-some pitcher is filled 5 with water but apadal (bad in quality; not properly fired or made of bad material). (3) Tuchchha and priyarth-some pitcher is empty but of good quality. (4) Tuchchha and Apadal-some pitcher is empty as well as of bad quality.
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - पुण्णेवि एगे विस्संदति, (पुणेवि एगे जो विस्संदति, तुच्छेवि एगे विस्संदति, तुच्छेवि एगे णो विस्संदति ।)
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
(55)
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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फ उनका उपकारादि में उपयोग करता रहता है । ((२) कोई श्रुतादि से पूर्ण होने पर भी उसका उपकारादि
में उपयोग नहीं करता । (३) कोई श्रुतादि से अपूर्ण होने पर भी प्राप्त अर्थ का उपकारादि में उपयोग 5 करता है। (४) कोई श्रुतादि से अपूर्ण होता है और उनसे परोपकार भी नहीं करता ।)
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no vishyandak-some pitcher is filled but no vishyandak (not dripping). 卐
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(3) Tuchchha and vishyandak-some pitcher is not filled (fully) but 卐 dripping. (4) Tuchchha and no vishyandak-some pitcher is neither filled 卐 nor dripping.
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५९४. कुम्भ चार प्रकार के कहे हैं - (१) पूर्ण और विष्यन्दक - कोई कुम्भ जल आदि से पूर्ण होता है 5 और झरता भी है । (२) कोई कुम्भ जल आदि से पूर्ण होता है किन्तु झरता नहीं है । (३) कोई कुम्भ तुच्छ होता है और झरता भी है। (४) कोई कुम्भ तुच्छ होता है और झरता भी नहीं है।
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इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं - (१) कोई पुरुष सम्पत्ति - श्रुतादि से पूर्ण होता है और
In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) Purna and 卐 vishyandak-some man is purna (well endowed with wealth and knowledge) and vishyandak (puts them to benevolent use). (2) Purna and
फ
卐 no vishyandak-some man is well endowed but no vishyandak (does not
卐
put them to benevolent use ). ( 3 ) Tuchchha and vishyandak— some man is 5 tuchchha (not well endowed) but puts whatever he has to benevolent use. फ्र
594. Kumbha ( pitcher) is of four kinds (1) Purna and vishyandak - 5 some pitcher is purna ( filled) and vishyandak ( dripping). (2) Purna and 5.
(4) Tuchchha and no vishyandak-some man is neither well endowed nor puts anything to benevolent use.
चारित्र - सूत्र CHAARITRA-PAD (SEGMENT OF ASCETIC CONDUCT)
५९५. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा- भिण्णे, जज्जरिए, परिस्साई, अपरिस्साई ।
एवामेव
चउव्विहे चरित्ते पण्णत्ते, तं जहा- भिण्णे, (जज्जरिए, परिस्साई ), अपरिस्साई । ५९५. कुम्भ चार प्रकार के होते हैं
(१) भिन्न (फूटा), (२) जर्जरित (पुराना ), (३) परिस्रावी (झरने वाला), (४) अपरिस्रावी (नहीं झरने वाला) ।
इसी प्रकार चारित्र भी चार प्रकार का कहा है - ( १ ) भिन्न चारित्र - मूल प्रायश्चित्त के योग्य, जर्जरित चारित्र - छेद प्रायश्चित्त के योग्य, (३) परिस्रावी चारित्र - सूक्ष्म अतिचार वाला, (४) (अपरिस्रावी चारित्र - निरतिचार - सर्वथा निर्दोष चारित्र ।)
(२)
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(56)
595. Kumbha (pitchers) are of four kinds – ( 1 ) bhinna (broken ), 5 (2) jarjarit ( decrepit ), ( 3 ) parisravi (dripping) and ( 4 ) aparisravi (not dripping).
स्थानांगसूत्र ( २ )
Sthaananga Sutra (2)
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F Ir the same way chaaritra (ascetic-conduct) is of four kinds— फ्र 5 (1) bhinna chaaritra (broken ascetic-conduct ) – requiring atonement, (2) jarjarit chaaritra (decrepit ascetic-conduct ) – requiring partial atonement, (3) parisravi chaaritra (dripping ascetic-conduct)with minute transgressions and (4) aparisravi chaaritra (non-dripping ascetic-conduct)-complete absence of transgressions.
मधु - विष- कुम्भ पद MADHU VISH KUMBH PAD
(SEGMENT OF HONEY, POISON AND PITCHER)
५९६. चत्तारि कुंभा पण्णत्ता, तं जहा - महुकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, महुकुंभे णाममेगे विसपिहाणे, विसकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे।
हिययमपावमकसं, जीहाऽवि य महुरभासिणी णिच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे मधुपिहाणे ॥१ ॥ हिययमपावमकलुसं, जीहाऽवि य कडुयभासिणी णिच्चं । जम्म पुरिसम्म विज्जति, से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥ २ ॥
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एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - महुकुंभे णाममेगे महुपिहाणे, महुकुंभे णाममेगे 5 विसपिहाणे, विसकुंभे णाममेगे, महुपिहाणे, विसकुंभे णाममेगे विसपिहाणे ।
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किसमयं जीहाऽवि य मधुरभासिणी णिच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे महुपिहाणे ॥ ३ ॥
जं हिययं कलुसमयं जीहाऽवि य कडुयभासिणी णिच्चं ।
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जम्म पुरिसम्म विज्जति, से विसकुंभे विसपिहाणे ॥४ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
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५९६. कुम्भ चार प्रकार के कहे हैं - (१) मधुकुम्भ, मधुपिधान-कोई कुम्भ मधु से भरा होता है और उसका पिधान (ढक्कन) भी मधुमय होता है । (२) मधुकुम्भ, विषपिधान - कोई कुम्भ विष से भरा, किन्तु उसका ढक्कन विष लिप्त होता है। (३) विषकुम्भ, मधुपिधान-कोई कुम्भ विष से भरा, किन्तु उसका ढक्कन मधु लिप्त होता है। (४) विषकुम्भ, विषपिधान - कोई कुम्भ विष से भरा, और उसका ढक्कन भी विष लिप्त होता है।
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे हैं । (१) कोई पुरुष हृदय से मधु जैसा मिष्ट व पापरहित होता है और उसकी जिह्वा भी मिष्टभाषिणी होती है। (२) कोई हृदय से तो मधु जैसा मिष्ट होता है, किन्तु उसकी जिह्वा विष जैसी कटुभाषिणी होती है । (३) किसी के हृदय में तो विष भरा होता है, किन्तु जीभ से मधुरभाषी होता है । (४) किसी के हृदय में विषं भरा होता है और जीभ से विष जैसी कटु भाषा बोलता है।
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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संग्रहणी गाथा
(१) जिस पुरुष का हृदय पाप और कलुषता से रहित होता है तथा जिह्वा भी सदा मधुरभाषिणी होती है, वह मधु से भरे और मधु के ढक्कन वाले कुम्भ के समान है।
(२) जिस पुरुष का हृदय पाप एवं कलुषता से रहित होता है, किन्तु जिह्वा सदा कटु-भाषिणी होती है, वह मधु से भरा, किन्तु विष ढक्कन वाले कुम्भ के समान है।
(३) जिसका हृदय कलुषता से भरा, किन्तु जिह्वा सदा मधुरभाषिणी है वह विष-भृत और मधु3 ढक्कन वाले कुम्भ के समान है।
(४) जिसका हृदय कलुषता से भरा है और जिह्वा भी सदा कटुभाषिणी है, वह विष-भृत और ॐ विष-पिधान वाले कुम्भ के समान है।
596. Kumbha (pitcher) is of four kinds-(1) Madhukumbha and madhupidhan-some pitcher is madhukumbha (filled with honey) and madhupidhan (has honey saturated cover). (2) Madhukumbha and vishapidhan-some pitcher is filled with honey but vishapidhan (has poison saturated cover). (3) Vishakumbha and madhupidhan-some pitcher is filled with poison but has honey saturated cover. (4) Vishapidhan and Vishapidhan-some pitcher is filled with poison and has poison saturated cover.
In the same way manushya (man) is of four kinds-(1) Some man isy sweet and pious like honey and has sweet voice too. (2) Some man is sweet and pious like honey but has poison-like bitter voice. (3) Some man is bitter and harmful like poison but has honey-like sweet voice. (4) Some man is bitter and harmful like poison and has poison-like bitter voice. COLLATIVE VERSE
(1) A man whose mind is free of sin and perversion and who also has a sweet tongue is like a pitcher filled with honey having a honey saturated cover.
(2) A man whose mind is free of sin and perversion but who has a bitter tongue is like a pitcher filled with honey having a poison saturated cover.
(3) A man whose mind is filled with sin and perversion but who has a sweet tongue is like a pitcher filled with poison having a honey saturated cover.
(4) A man whose mind is filled with sin and perversion and who also has a bitter tongue is like a pitcher filled with poison having a poison saturated cover.
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स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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म विवेचन-यहाँ 'मधु' व 'विष' शब्द प्रतीकात्मक है। मधु से, शहद, मिश्री, मकरंद, अमृत, सद्भाव
आदि और 'विष' से उग्रता, कटुता, कलुषता, पापमय विचार आदि समझना चाहिए। Fi Elaboration-Here the terms madhu and vish have been used as
metaphors. Madhu means honey, crystal sugar, pollen, ambrosia, benevolence and other such sweet and pious things and virtues. Similarly vish means poison, aggression, bitterness, perversion, sinful thoughts and other such bitter things and vices. उपसर्ग-पद UPASARG-PAD (SEGMENT OF AFFLICTION)
५१७. चउब्विहा उवसग्गा पण्णत्ता, तं जहा-दिव्वा, माणुसा, तिरिक्खजोणिया, आयसंचेयणिज्जा।
५१७. उपसर्ग चार प्रकार के कहे हैं-(१) दिव्य-उपसर्ग-देवों द्वारा किया जाने वाला। । (२) मानुष-उपसर्ग-मनुष्यों के द्वारा किया जाने वाला। (३) तिर्यग्योनिक उपसर्ग-तिर्यंचयोनिक जीवों के द्वारा किया जाने वाला। (४) आत्मसंचेतनीय उपसर्ग-स्वयं अपने द्वारा किया गया उपसर्ग।
597. Upasarg (affliction) is of four kinds-(1) divya-upasarg- 4i affliction caused by gods, (2) manush-upasarg-affliction caused by
humans, (3) tiryagyonik-upasarg-affliction caused by animals and i (4) atmasanchetaniya-upasarg-affliction caused by self.
विवेचन-संयम से डिगाने वाली और चित्त को चलायमान करने वाली बाधा को 'उपसर्ग' कहते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं, अनुकूल उपसर्ग-जो मन, इन्द्रिय व शरीर को प्रिय लगते हों। प्रतिकूल उपसर्गजो इनको अप्रिय लगते हों। ऐसी बाधाएँ देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत तो होती हैं, कभी-कभी आकस्मिक भी होती हैं, उनको यहाँ आत्म-संचेतनीय कहा है।
Elaboration-A hurdle or impediment that weakens resolve and forces one to abandon ascetic-discipline is called upasarg or affliction. They are of two types—anukool upasarg (favourable to and liked by senses and mind) and pratikool upasarg (unfavourable to and disliked by senses and mind). Such afflictions are generally caused by gods, human beings, and animals. The accidental afflictions without any apparent cause included here in atmasanchetaniya or self inflicted afflictions.
५९८. दिव्वा उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-हासा, पाओसा, वीमंसा, पुढोवेमाता।।
५९८. दिव्य उपसर्ग चार प्रकार के कहे हैं-(१) हास्य-जनित-कुतूहल-वश हँसी-मजाक से किया है गया। (२) प्रद्वेष-जनित-पूर्व भव के वैर से प्रेरित होकर किया गया। (३) विमर्श-जनित-परीक्षा लेने के लिए किया गया। (४) पृथग्-विमात्र-हास्य, द्वेषादि मिले-जुले अनेक कारणों से किया गया।
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| चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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598. Divya-upasarg (divine affliction) is of four kinds—(1) Hasya卐 janit-caused jovially for amusement, (2) pradvesh-janit-caused out of 卐
animosity from earlier birth, (3) vimarsh-janit-caused for testing and (4) prithag-vimatra-caused due to mixed reasons including hilarity and antagonism.
५९९. माणुप्ता उवसग्गा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा-हासा, पाओसा, वीमंसा, कुसीलपडिसेवणया।
५९९. मनुष्य सम्बन्धी उपसर्ग चार प्रकार के कहे हैं-(१) हास्य-जनित, (२) प्रद्वेष-जनित, (३) विमर्श-जनित, (४) कुशील प्रतिसेवन-ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट करने के लिए किया गया उपसर्ग। (संस्कृत टीका भाग २ पृष्ठ ४८२ पर इनके उदाहरण भी दिये हैं।)
599. Manush-upasarg (human affliction) is of four kinds—(1) Hasyajanit, (2) pradvesh-janit, (3) vimarsh-janit and (4) kusheel pratisevancaused for violating celibacy. (for examples see Sanskrit Tika, p. 482)
६००. तिरिक्खजोणिया उवसग्गा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा-भया, पदोसा, आहारहेउं __ अवच्चलेण-सारक्खणया।
६००. तिर्यंचों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग चार प्रकार का कहा है।
(१) भय-जनित, जैसे गाय, भैंस, कुत्ता आदि के द्वारा। (२) प्रद्वेष-जनित उपसर्ग पूर्व भव के ॥ + वैरादि के स्मरण से। (३) आहार के लिए किया गया उपसर्ग जैसे-चींटी, मच्छर आदि का। (४) अपने : 3 बच्चों के एवं गुफा, घोंसला आदि आवास स्थान के संरक्षणार्थ किया गया।
600. Tiryagyonik-upasarg (animal affliction)-is of four kinds- 5 (1) Bhaya-janit-caused out of fear such as those caused by cow, buffalo, dog, etc. (2) Pradvesh-janit. (3) Caused out of need of food such as those caused by carnivores and insects like ant, mosquito etc. (4) Caused for protecting offspring and dwelling place such as a cave, nest etc.
६०१. आयसंचेयणिज्जा उवसग्गा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा-घट्टणता, पवडणता, थंभणता, लेसणता। .
६०१. आत्मसंचेतनीय उपसर्ग चार प्रकार का कहा है-(१) घट्टनता-जनित-आँख में रज-कण E आदि जाने से या किसी से टकरा जाने से। (२) प्रपतन-जनित-मार्ग में चलते हुए असावधानी से गिर पड़ने । के के कारण। (३) स्तम्भन-जनित-हस्त-पाद आदि के शून्य हो जाने या मल-मूत्र रुक जाने से उत्पन्न कष्ट। ॥ + (४) श्लेषणता-जनित-वात-पित्त आदि के कारण सन्धिस्थलों के जुड़ जाने से होने वाला कष्ट।
601. Atmasanchetaniya-upasarg (accidental affliction)-is of four . 5 kinds—(1) Ghattanata-janit--caused due to falling of sand particles in și
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| स्थानांगसूत्र (२)
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eyes or colliding with something. (2) Prapatan-janit-caused by falling while walking carelessly. (3) Stambhan-janit-caused due to numbness in limbs or inability to pass urine or stool. (4) Shlesh-janit-caused by stiffness in joints due to disturbed body humours.
कर्म-पद KARMA-PAD (SEGMENT OF KARMAS)
६०२. चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - सुभे णाममेगे सुभे, सुभे णाममेगे असुभे, असुभे णामगे सुभे, असुभे णाममेगे असुभे ।
६०२. कर्म चार प्रकार का कहा है- ( १ ) शुभ और शुभ । (२) शुभ और अशुभ । (३) अशुभ और शुभ । (४) अशुभ और अशुभ।
602. Karmas are of four kinds-(1) good and good, (2) good and bad, (3) bad and good, and (4) bad and bad.
विवेचन - कर्मों के मूल भेद आठ हैं, उनमें चार घातिकर्म तो अशुभ या पापरूप ही कहे गये हैं। शेष चार अघातिकर्मों के दो विभाग हैं। उनमें सातावेदनीय, शुभ आयु, उच्च गोत्र और पंचेन्द्रिय जाति, उत्तम संस्थान, स्थिर, सुभग, यशःकीर्ति आदि नाम कर्म की ६८ प्रकृतियाँ पुण्य रूप और शेष पापरूप कही हैं।
सूत्र में जो चार भंग कहे गये हैं, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) कोई पुण्यकर्म वर्तमान में भी शुभ फल देता है और शुभानुबन्धी होने से आगे भी सुख देने वाला होता है। जब पुण्य भोग में आसक्ति नहीं होती तो मूढ़ता उत्पन्न नहीं होती । पुण्यानुबंधी पुण्य | जैसे भरत चक्रवर्ती आदि का पुण्यकर्म ।
(२) कोई पुण्यकर्म वर्तमान में तो शुभ फल देता है, किन्तु पापानुबन्धी होने से आगे दुःख देने वाला होता है। पापानुबन्धी पुण्य । जो पुण्य आसक्त भाव से भोगा जाता है, वह मूढ बना देता है । जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि का पुण्यकर्म । जैसे कहा है
पुण्य से वैभव होता है, वैभव से मद, मद से मति - मोह, मति मोह से पाप । पाप मुझे इष्ट नहीं हैं। इसलिए ऐसा पुण्य भी मुझे इष्ट नहीं है।
पुण्णेण होइ विहवो, विहवेण मओ, मएण मई मोहो ।
मई मोहेण य पावंता पुण्णं अम्ह मा होउ ।
(३) कोई पापकर्म वर्तमान में तो दुःख देता है, किन्तु आगे सुखानुबन्धी होता है । जो अशुभ कर्म तीव्र मोह से अर्जित नहीं होते, वे भोगते समय मूढता उत्पन्न नहीं करते, वे शुभ कर्म के निमित्त बन जाते हैं । जैसे दुःख से संतप्त व्यक्ति शुभ की ओर प्रवृत्त होता है। पुण्यानुबन्धी पाप ।
(४) कोई पापकर्म वर्तमान में भी दुःख देता है और पापानुबन्धी होने से आगे भी दुःख देता है । जैसे - मछली मारने वाले धीवरादि का पापकर्म । ( पापानुबन्धी पाप)
5 चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Elaboration–There are eight basic categories of karmas. Out of these the four Ghati karmas (vitiating karmas) are said to be bad or sinful. The 4 other four Aghati karmas (non-vitiating karmas) have two sections. Out of
these satavedaniya (pleasure causing), shubh aayu (good life span), uchcha # gotra (high status), panchendriya jati (five sensed class of beings), uttam
samsthan (good body constitution), sthir (stability), shubha (nobility), 15 yashah kirti (fame) and other 68 species of Naam karma are said to be 41 punya rupa (meritorious) and the rest are paap rupa (demeritorious).
The four alternatives mentioned in the aphorism are explained as follows
(1) Good and good-Some punya karma (meritorious karma) gives good fruits in the present and being cause of further bondage of meritorious karmas it gives good fruits in future births also. When there is no attachment in enjoying fruits of meritorious karmas stupor is absent.
Punyanubandhi punya (merit-bonding meritorious karma) for example ki the meritorious karmas of Bharat Chakravarti and other such noble souls.
(2) Good and bad-Some punya karma (meritorious karma) gives good fruits in the present but being cause of further bondage of demeritorious karmas it gives bad fruits or misery in future births. Paapanubandhi punya (demerit-bonding meritorious karma)—when there is attachment in enjoying fruits of meritorious karmas it leads to $i stupor. For example the meritorious karmas of Brahmadatt Chakravarti
etc. There is a verse highlighting this-Meritorious karma begets 4 grandeur. Grandeur is source of ego. Ego results in illusive attachment
and illusive attachment causes bondage of demeritorious karmas. I do not prefer demerit therefore I do not require such meritorious karma.
(3) Bad and good-Some paap karma (demeritorious karma) causes misery in the present but is cause of bondage of meritorious karmas for the future. Punyanubandhi paap (merit-bonding demeritorious karma) the bad karmas not acquired through intense attachment do not lead to stupor; they turn into cause of bondage of good karmas. For example a person suffering misery gets inspired towards goodness.
(4) Bad and bad-Some paap karma (demeritorious karma) causes misery in the present and being cause of bondage of demeritorious karmas is source of misery in future as well. Paapanubandhi paap (demerit-bonding demeritorious karma). For example the sin of a fisherman who kills fish.
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६०३. चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - सुभे णाममेगे सुभविवागे, सुभे णाममेगे 5
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असुभविवागे, असुभे णाममेगे सुभविवागे, असुभे णाममेगे असुभविवागे ।
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६०३. कर्म चार प्रकार के कहे हैं। (१) शुभ और शुभविपाक - कुछ कर्म शुभ रूप में बँधते हैं और
उनका फल भी शुभ ही होता है । (२) शुभ और अशुभविपाक - कुछ कर्म शुभ परिणामों से बँधते हैं, किन्तु संक्रमण से फल अशुभ होते हैं । (३) अशुभ और शुभविपाक - कुछ कर्म अशुभ परिणामों से बँधते हैं, किन्तु संक्रमण से शुभ फल देते हैं । (४) अशुभ और अशुभविपाक - कुछ कर्म अशुभ भावों से बँधते हैं और अशुभ फल ही देते हैं ।
603. Karmas are of four kinds-(1) Shubh and shubh-vipaak-some karmas are acquired through noble thoughts and their fruits are also good. (2) Shubh and ashubh-vipaak-some karmas are acquired through noble thoughts but due to transformation their fruits are bad. (3) Ashubh and shubh-vipaak-some karmas are acquired through ignoble thoughts but due to transformation their fruits are good. (4) Ashubh and ashubh- 5 vipaak-some karmas are acquired through ignoble thoughts and their fruits are also bad.
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विवेचन-कर्म सिद्धान्त का सामान्य नियम है- शुभ कर्म का शुभफल, अशुभ कर्म का अशुभ फल ! इस नियम के अनुसार प्रथम व चतुर्थ भंग स्पष्ट है। द्वितीय तृतीय भंग में संक्रमण - सिद्धान्त का प्रतिपादन है। संक्रमण का अर्थ है एक कर्म प्रकृति का दूसरे कर्म में बदल जाना । मूल प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता, उत्तर प्रकृतियों में ही होता है । वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियाँ हैं, सात (शुभ) वेदनीय और असात (अशुभ) वेदनीय । तदनुसार
(२) कोई जीव पहले सातवेदनीय आदि शुभकर्म को बाँधता है और पीछे तीव्र कषाय से प्रेरित होकर असातवेदनीय आदि अशुभकर्म का तीव्र बन्ध करता है, तो उसका पूर्व - शुभकर्म भी असातवेदनीय पापकर्म में संक्रान्त (परिवर्तित हो जाता है अतः वह बन्धन काल का शुभ कर्म संक्रमण द्वारा अशुभ विपाक देता है।
- बद्ध सातवेदनीयादि
(३) कोई जीव पहले असातावेदनीय आदि अशुभकर्म को बाँधता है, किन्तु पीछे शुभ परिणामों की प्रबलता से सातावेदनीय आदि उत्तम अनुभाग वाले कर्म को बाँधता है। ऐसे जीव का पूर्व - बद्ध अशुभ कर्म भी शुभकर्म के रूप में संक्रान्त हो जाता है, अतः वह शुभ विपाक को देता है।
Elaboration-The general rule of Karma theory is-good karmas give good fruits and bad karmas give bad fruits. The first and fourth alternatives of the aforesaid aphorism follow this rule. Second and third alternative relates to the theory of transformation (sankraman). Sankraman means transformation of one species (prakriti) of karma into another. Transformation is applicable only to secondary species not the
चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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primary species. Vedaniya karmą has two secondary species--saata vedaniya (good suffering or pleasant experience) and asaata vedaniya (bad suffering or unpleasant experience). Accordingly
(2) Some being first acquires good karmas including saata vedaniya and later, driven by intense passion, acquires bad karmas including y asaata vedaniya. In this state his already acquired saata vedaniya
karmas also get transformed into asaata vedaniya karmas. Consequently the karma that was good at the time of acquisition gives bad fruits through this transformation.
(3) Some being first acquires bad karmas including asaata vedaniya and later, driven by noble thoughts, acquires good karmas including saata vedaniya. In this state his already acquired asaata vedaniya karmas also get transformed into saata vedaniya karmas. Consequently
the karma that was bad at the time of acquisition gives good fruits 4i through this transformation.
६०४. चउबिहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-पगडीकम्मे, ठितीकम्मे, अणुभावकम्मे, पदेसकम्मे।
६०४. कर्म चार प्रकार का है। (१) प्रकृतिकर्म-ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों को रोकने का ॐ स्वभाव। (कर्मों की मूल व उत्तर प्रकृतियाँ) (२) स्थितिकर्म-बँधे हुए कर्मों की काल-मर्यादा। (जघन्य, ॐ + उत्कृष्ट आदि स्थिति) (३) अनुभावकर्म-बँधे हुए कर्मों की फलदायक शक्ति। (तीव्र-मंद रस) : (४) प्रदेशकर्म-कर्म-परमाणुओं का संचय। सघनता-विरलता। (अल्पप्रदेशी-बहुप्रदेशी कर्मदलिक)
604. Karma is of four kinds (1) Prakriti karma--the process of blocking virtues like jnana (knowledge), darshan (perception/faith), and chaaritra (conduct). (2) Sthiti karma-duration of influence of the
bonded karmas (minimum, average, maximum duration etc.). 卐 (3) Anubhaava karma-the potency of the bonded karmas (in terms of
strength of its fruits; intense, mild etc.). (4) Pradesh karma--collective density of acquired karma particles (dense and loose; karma aggregates
with more or less number of particles). + संघ-पद SANGH-PAD (SEGMENT OF RELIGIOUS ORGANIZATION)
६०५. चउबिहे संघे पण्णत्ते, तं जहा-समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ। 卐 ६०५. संघ चार प्रकार का कंहा है-(१) श्रमण संघ, (२) श्रमणी संघ, (३) श्रावक संघ, (४) श्राविका संघ।
605. Sangh (religious organization) is of four kinds—(1) Shraman Sangh (organization of male ascetics), (2) Shramani Sangh (organization
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of female ascetics), (3) Shravak Sangh (organization of male 41 householders or laymen) and (4) Shravika Sangh (organization of female householders or laywomen). बुद्धि-पद BUDDHI-PAD (SEGMENT OF WISDOM)
६०६. चउबिहा बुद्धी पण्णत्ता, तं जहा-उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, परिणामिया।
६०६. बुद्धि चार प्रकार की कही है-(१) औत्पत्तिकी बुद्धि-प्रश्न सामने आते ही, स्वतः स्फुरणा से उसका समाधान देने वाली अतिशायिनी प्रतिभा। (२) वैनयिकी बुद्धि-गुरुजनों की विनय और सेवा शुश्रूषा से उत्पन्न व विकसित होने वाली बुद्धि। (३) कार्मिकी बुद्धि-कार्य करते-करते स्वतः बढ़ने वाली बुद्धि-कुशलता। (४) पारिणामिकी बुद्धि-अवस्था-उम्र तथा अनुभव बढ़ने के साथ बढ़ने वाली परिपक्व बुद्धि। (चारों बुद्धि का विस्तृत वर्णन सचित्र नन्दीसूत्र पृष्ठ १६७ से ३०३ पर देखें।)
606. Buddhi (wisdom) is of four kinds—(1) Autpattiki buddhi (intuitive wisdom)—that which is self inspired and activated spontaneously to provide answer in response to a question. (2) Vainayiki buddhi (acquired wisdom)—that which is acquired and developed through devotion for teachers and elders or seniors by serving them with modesty. (3) Karmiki buddhi (wisdom confirmed through experience) that which is acquired and perfected practically through working and regular practice. (4) Parinamiki buddhi (deductive wisdom)—that which is acquired and enhanced as a consequence of maturity and experience. (for detailed discussion on four kinds of wisdom refer to Illustrated Nandi Sutra, pp. 167-303) मति-पद MATI-PAD (SEGMENT OF INTELLIGENCE)
६०७. चउव्हिा मई पण्णत्ता, तं जहा-उग्गहमती, ईहामती, अवायमती, धारणामती।
अहवा-चउबिहा मती पण्णत्ता, तं जहा-अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगसमाणा, सागरोदगसमाणा।
६०७. मति चार प्रकार की है-(१) अवग्रहमति-वस्तु के सामान्य अवलोकन से पहली बार में ही उसके स्वरूप को जानना। (२) ईहामति-अवग्रह से जाने हुए विषय को विशेष पर्यालोचन से जानने की आकांक्षा। (३) अवायमति-जानी हुई वस्तु के विशेष निश्चयात्मक या निर्णयात्मक स्वरूप का ज्ञान। (४) धारणामति-अवाय से प्राप्त ज्ञान को बुद्धि में दृढ़ संस्कार रूप में धारण करना। ___ अथवा-मति (बुद्धि) चार प्रकार की है। (१) अरंजरोदकसमाना-अरंजर (घट) के पानी के समान अल्प ज्ञान को धारण करने वाली बुद्धि। (२) विदरोदकसमाना-विदर (नदी किनारे का गडढा या कण्ड) के के पानी के समान अधिक ज्ञान को धारण करने वाली अधिक उपकारक बुद्धि। (३) सरउदकसमाना
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सरोवर के पानी के समान बहुत अधिक विस्तृत ज्ञान युक्त अधिक उपकारक बुद्धि। म (४) सागरोदकसमाना-समुद्र के पानी के समान असीम अक्षीण ज्ञान सम्पन्न बुद्धि।
607. Mati (intelligence) is of four kinds-(1) Avagraha mati-to know cursorily a thing by simply seeing it for the first time. (2) Iha mati-the 41 process of acquiring more information through contemplation about the fi 卐 thing or subject known through avagraha, (3) Avaya mati-the process ॥
of reaching definite conclusion through analytical deduction of information acquired through iha. (4) Dhaarana mati—the process of
transferring the conclusion arrived at through avaya to memory in the i form of a resolve.
Also Mati (intelligence) is of four kinds—(1) Aranjarodak samaana (like water in a pitcher)—lowest capacity of intelligence capable of acquiring minimum knowledge like water in an Aranjak (pitcher). (2) Vidarodak samaana (like water in a ditch)-limited capacity of intelligence like water in a vidar (a ditch near a river). (3) Sarodak samaana (like water in a pond)-higher capacity of intelligence like water in a pond. (4) Saagarodak samaana (like water in a sea) unlimited capacity of intelligence like water in a sea.
जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS) ज ६०८. चउब्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-णेरइया तिरिक्खजोणिया, ॐ मणुस्सा , देवा।
६०८. संसारी जीव चार प्रकार के कहे हैं-(१) नारक, (२) तिर्यग्योनिक, (३) मनुष्य, (४) देव।
608. Samsari jiva (worldly beings) are of four kinds—(1) naarak (infernal beings), (2) tiryagyonik (animals), (3) manushya (human beings) and (4) deva (divine beings).
६०९. चउब्बिहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-मणजोगी, वइजोगी, कायोजोगी, अजोगी।
अहवा-चउबिहा सबजीवा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, णपुंसकवेयगा, अवेयगा। अहवा-चउबिहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, ओहिदंसणी, ॐ केवलदसणी। अहवा चउव्विहा सबजीवा पण्णत्ता, तं जहा-संजया, असंजया, संजयासंजया, है णोसंजया-णोअसंजया।
६०९. सब जीव चार प्रकार के कहे हैं-(१) मनोयोगी, (२) वचनयोगी, (३) काययोगी, (४) अयोगी। अथवा सब जीव चार प्रकार के कहे हैं-(१) स्त्रीवेदी, (२) पुरुषवेदी, (३) नपुंसकवेदी, ऊ (४) अवेदी। अथवा सब जीव चार प्रकार के कहे हैं। (१) चक्षुदर्शनी, (२) अचक्षुदर्शनी, | स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2) 日历牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙$$$$$ $$$ $$ $$ $
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(३) अवधिदर्शनी, (४) केवलदर्शनी। अथवा सब जीव चार प्रकार के कहे हैं-(१) संयत, (२) असंयत, (३) संयतासंयत, (४) नोसंयत-नोअसंयत। ____609. All beings are of four kinds (1) mano yogi, (2) vachan yogi, (3) kaya yogi and (4) ayogi. ___ Also all beings are of four kinds—(1) stree vedi, (2) purush vedi, (3) napumsak vedi and (4) avedi.
Also all beings are of four kinds—(1) chakshu darshani, (2) achakshu darshani, (3) avadhi darshani and (4) Keval darshani. ___Also all beings are of four kinds-(1) samyat, (2) asamyat, (3) samyatasamyat and (4) no samyat-no asamyat.
विवेचन-मन, वचन, काय की प्रवृत्ति 'योग' है। तेरहवें गुणस्थान तक सभी जीव सयोगी होते हैं। चौदहवें गणस्थान में जीव अयोगी होता है। जिसमें काम भावना विद्यमान हो वह वेदक। काम वासना से 卐 सर्वथा मुक्त जीव अवेदक। वेद भावना आठवें गुणस्थान तक रहती है। ऊपर के सभी जीव अवेदक कहलाते हैं।
नेत्रों द्वारा होने वाला ज्ञान-चक्षुदर्शन, अन्य इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान-अचक्षुदर्शन। अवधिज्ञानी का दर्शन अवधिदर्शन तथा केवलज्ञान के पूर्व होने वाला दर्शनोपयोग केवल दर्शन है। एकेन्द्रिय से म त्रीन्द्रिय तक के जीव अचक्षुदर्शनी, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी जीव अवधि दर्शनी भी होते हैं। मुक्तात्मा : केवलदर्शनी ही होते हैं। सब प्रकार का संयम करने वाले संयत, श्रमण। गृहस्थ श्रावक संयतासंयत, किसी प्रकार का त्याग नहीं करने वाले असंयत तथा सिद्ध आत्ना नोसंयत-नो असंयत है।। ___Elaboration-Activity of mind, speech and body is yoga. Up to the thirteenth Gunasthan (level of spiritual uplift) all beings are sayogi (indulging in the said activities). At the fourteenth Gunasthan a being becomes ayogi (all these activities cease). A being with carnal sentiment or sexual desire is vedak or vedi. A being free of sexual desires is avedi. This sexual desire is active up to the eighth Gunasthan, beyond that all beings are avedi.
Perception through eyes is chakshu darshan and that through other sense organs is achakshu darshan. The perception of avadhi-jnani is avadhi darshan and that prior to Keval jnana is Keval darshan. One to three sensed beings are achakshu darshani. Besides being chakshu darshani, four, five sensed and sentient beings can also be avadhi darshani. Liberated souls are only Keval darshani.
A person observing every discipline is samyat, a Shraman. An indoctrinated householder or shravak is samyatasamyat. A person
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renouncing nothing is asamyat and a liberated soul or Siddha is no samyat-no asamyat.
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मित्र- अमित्र - पद MITRA-AMITRA PAD (SEGMENT OF FRIEND AND NON-FRIEND) ६१०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - मित्ते णाममेगे मित्ते, मित्ते णाममेगे अमित्ते, अमित्ते णाममेगे मित्ते, अमित्ते णाममेगे अमित्ते ।
६१०. पुरुष चार प्रकार के हैं - ( 9 ) कोई व्यवहार से मित्र और हृदय से भी मित्र होता है। (२) कोई व्यवहार से मित्र, किन्तु हृदय से मित्र नहीं होता । (३) कोई व्यवहार से मित्र नहीं होता, किन्तु हृदय से मित्र होता है । (४) कोई न व्यवहार से मित्र होता है और न हृदय से मित्र होता है।
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610. Purush (men) are of four kinds – ( 1 ) Someone behaves like a 5 friend and is friend by heart also, (2) someone behaves like a friend but 5 is non-friend by heart, ( 3 ) someone does not behave like a friend but is
friend by heart, and (4) someone does not behave like a friend and is also not a friend by heart.
विवेचन - चारों प्रकार के मित्रों की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है - (१) लोकं एवं
परलोक दोनों का उपकारी होने से। जैसे-सद्गुरु आदि । (२) कोई लोक का उपकारी, किन्तु परलोक के
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फ साधक संयमादि में बाधक होने से जैसे पत्नी आदि । (३) कोई प्रतिकूल व्यवहार करते हैं, किन्तु वैराग्य
उत्पत्ति में सहायक बनते हैं। जैसे कलहकारिणी स्त्री आदि । (४) कोई इस लोक में प्रतिकूल व्यवहार करते हैं उनके संक्लेश पैदा करने से दुर्गति के भी कारण होते हैं।
Elaboration-All these four kinds of friends can be explained many ways. For example-(1) Being helpful both for this life as well as the next, such as a spiritual teacher. (2) Being helpful for this life but damaging for the next life by way of creating hurdles on the path of ascetic-discipline, such as loving wife. (3) Being detrimental for this life but helpful for next by way of pushing towards renunciation, such as quarrelsome wife. (4) Being detrimental for this life and the next as well by way of causing torment and inspiring retaliation such as a foe.
६११. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - मित्ते णाममेगे मित्तरूवे, मित्ते णाममेगे अमित्तरूवे, अमित्ते णाममेगे मित्तरूवे, अमित्ते णाममेगे अमित्तरूवे ।
६११. पुरुष चार प्रकार के हैं - (१) कोई मित्र होता है और मित्र के समान व्यवहार करता है। (२) कोई मित्र होता है, किन्तु अमित्र के समान व्यवहार करता है। (३) कोई अमित्र होता है, किन्तु मित्र के समान व्यवहार करता है । (४) कोई अमित्र होता है और अमित्र के समान व्यवहार करता है। 611. Purush (men) are of four kinds-(1) someone is a true friend and also appears to be a friend, (2) someone is friend but appears to be not a स्थानांगसूत्र (२)
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माग
friend, (3) someone is non-friend but appears to be friend and (4) someone is non-friend and also appears to be a non-friend.
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मागमा
LE LEPIE
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नानामा
# मुक्त-अमुक्त-पद MUKTA-AMUKTA-PAD (SEGMENT OF LIBERATED AND NON-LIBERATED) ।
६१२. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-मुत्ते णाममेगे मुत्ते, मुत्ते णाममेगे अमुत्ते, अमुत्ते णाममेगे मुत्ते, अमुत्ते णाममेगे अमुत्ते।
६१२. पुरुष चार प्रकार के हैं-(१) कोई पुरुष द्रव्य से भी मुक्त होता है और भाव से भी मुक्त # होता है। (२) कोई द्रव्य से मुक्त, किन्तु भाव से मुक्त नहीं होता। (३) कोई द्रव्य से अमुक्त, किन्तु भाव ' से मुक्त होता है। (४) कोई न द्रव्य से ही मुक्त होता है और न भाव से मुक्त होता है।
612. Purush (men) are of four kinds--(1) some person is liberated physically and also liberated mentally, (2) some person is liberated F physically but not liberated mentally, (3) some person is not liberated
physically but liberated mentally and (4) some person is not liberated physically and also not liberated mentally. __विवेचन-द्रव्य से मुक्त में परिग्रह एवं परिवार से मुक्त तथा भाव से मुक्त में आसक्ति, मूर्छा आदि से मुक्त समझना चाहिए। इसके प्रथम भंग में श्रमण, दूसरे भंग में दरिद्र या भिक्षु वेषधारी, तीसरे भंग में भरत चक्रवर्ती जैसे और चौथे भंग में सामान्य गृहस्थ समझना चाहिए।
Elaboration Liberated physically means liberated from possessions and family ties. Liberated mentally means liberated from cravings, obsessions and other such mental perversions. The four alternatives mentioned here point at ascetic, destitute or beggar, Bharat Chakravarti and ordinary householder respectively.
६१३. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-मुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे, मुत्ते णाममेगे अमुत्तरूवे, अमुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे, अमुत्ते णाममेगे अमुत्तरूवे।
६१३. पुरुष चार प्रकार के हैं-(१) मुक्त और मुक्तरूप-कोई पुरुष परिग्रहादि से मुक्त होता है और बाह्य स्वरूप से भी मुक्त जैसा होता है। जैसे-साधना व ध्यान निष्ठ श्रमण (२) कोई परिग्रहादि से मुक्त होता है, किन्तु बाह्यरूप से अमुक्त के समान होता है। जैसे गृहस्थ-दशा में महावीर स्वामी आदि। (३) कोई परिग्रहादि से मुक्त नहीं, किन्तु बाह्य रूप में मुक्त के समान होता है। जैसे धूर्त साधु आदि। (४) कोई न परिग्रहादि से मुक्त है और न ही बाह्यरूप में मुक्त जैसा होता है। जैसे सामान्य गृहस्थ
613. Purush (men) are of four kinds—(1) some person is liberated from desire of possessions etc. and also appears to be liberated (an ascetic involved in spiritual practices), (2) some person is liberated from desire of possessions etc. but does not appear to be liberated (people like Bhagavan Mahavir as householder), (3) some person is not liberated
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from desire of possessions etc. but appears to be liberated (a charlatan) and (4) some person is neither liberated from desire of possessions etc. nor appears to be liberated (an ordinary householder).
गति - आगति-पद GATI-AAGATI - PAD
(SEGMENT OF REINCARNATION AND INCARNATION)
६१४.
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पंचिंदियतिरिक्खजोणिया चउगइया चउआगइया पण्णत्ता, तं जहापंचिंदियतिरिक्खजोणिए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणे रइएहिंतो तिरिक्खजोणिएहिंतो वा, मणुस्सेहिंतो वा, देवेहिंतो वा उववज्जेज्जा से चेव णं से पंचिंदियतिरिक्खजोणिए पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्तं विप्पजहमाणे णेरइयत्ताए वा, जाव (तिरिक्खजोणियत्ताए वा, मणुस्सत्ताए वा ), देवत्ताए वा गच्छेज्जा ।
६१४. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव चार गति तथा चार आगति वाले होते हैं
पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच गति में नरक से, तिर्यंचगति से, मनुष्य गति से और देव गति से आकर उत्पन्न होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनि को छोड़ता हुआ ( मर कर ) नारकियों में, तिर्यंचयोनिकों में, मनुष्यों में या देवों में (आठवें देवलोक तक ) जाकर उत्पन्न होता है।
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614. Panchendriya Tiryagyonik jivas (five sensed animals) have four gati (reincarnation from this birth to the next birth) and four aagati (incarnation from previous birth to the present birth)
A five sensed animal incarnates into the genus of five sensed animals coming from narak gati (genus of infernal beings), tiryanch gati (animal genus), manushya gati (genus of human beings) and deva gati (divine genus). A five sensed animal leaving the genus of five sensed animals (on death) reincarnates into narak gati (genus of infernal beings), tiryanch
६१५. मणुस्सा चउगइया चउआगइया (पण्णत्ता, तं जहा - मणुस्से मणुस्सेसु उववज्जमाणे इहिंतो वा, तिरिक्खजोणिएहिंतो वा, मणुस्सेहिंतो वा देवेहिंतो वा उववज्जेज्जा ।)
5 gati (animal genus), manushya gati (genus of human beings) and deva 5
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gati (divine genus up to eighth Devalok).
से चेव णं से मणुस्से मणुस्सत्तं विप्पजहमाणे णेरइयत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए वा, मस्सत्ता वा, देवत्ताए वा गच्छेज्जा) ।
६१५. मनुष्य चार गति तथा चार आगति वाले होते हैं
(१) मनुष्य मनुष्यों में उत्पन्न होता हुआ नारकियों से, या तिर्यंचयोनि से मनुष्यों से, या देवों से आकर उत्पन्न होता है। (२) मनुष्य मनुष्यपर्याय को छोड़ता हुआ नारकियों में तिर्यंचयोनियों में, मनुष्यों में, या देवों में उत्पन्न होता है ।)
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615. Manushyas (human beings) have four gati and four aagati --
A human being incarnates into the genus of human beings coming from narak gati, tiryanch gati, manushya gati and deva gati. A human being leaving the genus of human beings (on death) reincarnates into narak gati, tiryanch gati, manushya gati and deva gati. संयम-असंयम-पद SAMYAM-ASAMYAM-PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) ६१६. बेइंदियाणं जीवा असमारभमाणस्स चउबिहे संजमे कज्जति, तं जहा-जिब्भामयातो सोक्खातो अववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, फासामयातो सोक्खातो अववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, फासामयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता है भवति, फासमएणं दुक्खेणं असंजोगित्ता भवति।
६१६. द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा नहीं करने वाले पुरुष को चार प्रकार का संयम होता है
(१) वह जीवों के जिह्वामय सुख का घात नहीं करता है। (२) वह जीवों के जिह्वामय दुःख का , संयोग नहीं करता है। (३) वह जीवों के स्पर्शमय सुख का घात नहीं करता है। (४) वह जीवों के स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करता है। ___616. A person not harming two sensed beings accomplishes four kinds of discipline
(1) He does not terminate the pleasure derived through jihva (tongue or sense organ of taste) by these beings. (2) He does not enforce the misery experienced through jihva on these beings. (3) He does not terminate the pleasure derived through sparsh (sense organ of touch) by these beings. (2) He does not enforce the misery experienced through sparsh on these beings.
६१७. बेइंदिया णं जीवा समारभमाणस्स चउविहे असंजमे कज्जति, तं जहा-जिभामयातो सोक्खातो ववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवति, फासामयातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति, (फासामएणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवति)।
६१७. द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा करने वाले पुरुष को चार प्रकार का असंयम होता है
(१) जीवों के जिह्वामय सुख का घात करता है। (२) जीवों के जिह्वामय दुःख का संयोग करता है। (३) जीवों के स्पर्शमय सुख का घात करता है। (४) जीवों के स्पर्शमय दुःख का संयोग करता है। ___617. A person harming two sensed beings accomplishes four kinds of indiscipline
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(1) He destroys the pleasure enjoyed through jihva (tongue or sense organ of taste) by these beings. (2) He enforces the misery experienced through jihva on these beings. (3) He terminates the pleasure derived through sparsh (sense organ of touch) by these beings. (2) He enforces the misery experienced through sparsh on these beings.
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क्रिया-पद KRIYA-PAD (SEGMENT OF ACTIVITY)
६१८. सम्मद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया।
६१८. सम्यग्दृष्टि नारकियों के चार क्रियाएँ हैं-(१) आरम्भिकी क्रिया, (२) पारिग्रहिकी क्रिया, 4 (३) मायाप्रत्ययिकी क्रिया, (४) अप्रत्याख्यान क्रिया।
618. Samyagdrishti naarakis (righteous infernal beings) have four kriyas (activities)-(1) arambhiki kriya (act of violence), (2) paarigrahiki
kriya (act of possession and hoarding), (3) mayapratyayiki kriya (activity 4 involved in indulgence in deceit) and (4) apratyakhyan kriya (indisciplined action in absence of resolve of abstainment).
६१९. सम्मदिट्ठियाणमसुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया)। ६२०. एवं-विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं।
६१९. सम्यग्दृष्टि असुरकुमारों में चार क्रियाएँ हैं-(१) आरम्भिकी क्रिया, (२) पारिग्रहिकी क्रिया, 4 (३) मायाप्रत्ययिकी क्रिया, (४) अप्रत्याख्यान क्रिया।
६२०. इसी प्रकार विकलेन्द्रियों को छोड़कर सभी सम्यग्दृष्टिसम्पन्न दण्डकों में चार-चार क्रियाएँ ॐ जाननी चाहिए। (विकलेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि होने से उनमें पाँचवीं मिथ्यादर्शनक्रिया नियम से होती है।
619. Samyagdrishti Asur Kumars (righteous among a kind of lower 5 gods) have four kriyas (activities)—(1) arambhiki kriya, (2) paarigrahiki 卐 kriya, (3) mayapratyayiki kriya and (4) apratyakhyan kriya.
_____620. In the same way four activities each should be read for beings of all dandaks (places of suffering) except vikalendriyas (one to four sensed beings). (As vikalendriyas are unrighteous, as a rule, they have the fifth activity of unrigteousness also.) गुण-पद GUNA-PAD (SEGMENT OF VIRTUES)
६२१. चउहिं ठाणेहिं संते गुणे णासेज्जा, तं जहा-कोहेणं, पडिणिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिणिवेसेणं।
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६२१. चार कारणों से विद्यमान गुणों का भी विनाश होता है । (१) क्रोध से, (२) प्रतिनिवेश सेअहंकार या ईर्ष्या वश-दूसरों की पूजा-प्रतिष्ठा न सह सकने से, (३) अकृतज्ञता से (कृतघ्न होने से ), (४) मिथ्याभिनिवेश (दुराग्रह) से ।
शरीर - पद SHARIRA-PAD (SEGMENT OF BODY)
६२३. णेरइयाणं चउहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं जहा- कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । ६२४. एवं जाव वेमाणियाणं ।
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621. For four reasons even the existing virtues are destroyed — 5 (1) krodh (by anger), (2) pratinivesh (by not tolerating worship or honour of others out of ego or jealousy), (3) akritajnata (by being ungrateful) and க (4) mithyabhinivesh (by being perversely dogmatic).
६२२. चउहिं ठाणेहिं असंते गुणे दीवेज्जा, तं जहा - अब्यासवत्तियं, परच्छंदाणुवत्तियं, फ्र कज्जहेउ, कतपडिकतेति वा ।
623. Infernal beings acquire (utpatti) a body due to four reasons— (1) krodh (anger), (2) maan (conceit), (3) maaya (deceit) and (4) lobh (greed). 624. In the same way all beings of all dandaks acquire a body due the said four reasons.
६२२. चार कारणों से अविद्यमान (अप्रकट) गुणों का भी दीपन (प्रकाशन) होता है- (१) अभ्यासवृत्ति 5 से-गुण- ग्रहण का स्वभाव, या गुणों का निरन्तर अभ्यास करते रहने से । ( २ ) परच्छन्दानुवृत्ति से - गुणियों व गुरुजनों के अनुकूल आचरण करने से, (३) कार्यहेतु से - अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरों के अनुकूल व्यवहार से, (४) उपकारी के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने से ।
६२५. रइयाणं चउट्ठाणणिव्यत्तिते सरीरे पण्णत्ते, तं जहा -कोहणिव्वत्तिए, जाव ( माणव्वित्तिए, मायाणिव्वत्तिए), लोभणिव्यत्तिए । ६२६. एवं जाव वेमाणियाणं ।
622. For four reasons even the non existing virtues come to light— (1) abhyas vritti (by tendency of acquiring virtues and continued practice 5 thereof), (2) parachchhandanuvritti (by following conduct prescribed and liked by the virtuous and seniors), (3) karyahetu (by favourable behaviour to accomplish the desired) and (4) kritajnata (by being grateful for favours).
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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६२३. चार कारणों से नारक जीवों के शरीर की उत्पत्ति होती है - (१) क्रोध से, (२) मान से, 5 (३) माया से, (४) लोभ से । ६२४. इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डकों के जीवों के शरीरों की उत्पत्ति के उक्त चार-चार कारण होते हैं ।
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६२५. नारक जीवों के शरीर चार कारणों से निवृत्त (निष्पन्न) होते है - (१) क्रोधजनित कर्म से, 5
((२) मान - जनित कर्म से, (३) माया - जनित कर्म से) (४) लोभ-जनित कर्म से । ६२६. इसी प्रकार
वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों के शरीरों की निवृत्ति (निष्पत्ति) उक्त चार कारणों से होती है।
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625. The body of an infernal being matures ( nishpatti) due to four reasons— (1) krodh janit karma (karma acquired through anger ), 5 (2) maan janit karma (karma acquired through conceit ), (3) maaya janit karma (karma acquired through deceit) and (4) lobh janit karma (karma acquired through greed). 626. In the same way bodies of all beings of all dandaks mature due the said four reasons.
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धर्मद्वार - पद DHARMADVAR-PAD (SEGMENT OF DOORS OF RELIGION)
६२७. चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ।
६२७. धर्म के चार द्वार कहे हैं - ( १ ) क्षान्ति (क्षमा या तितिक्षा ), (२) मुक्ति (निर्लोभता या सन्तोषवृत्ति), (३) आर्जव (निष्कपटता, मन की पवित्रता), (४) मार्दव (मृदुता या विनम्रता ) ।
627. There are four dvars (traits) of dharma (religion ) - ( 1 ) kshanti (forgiveness), (2) mukti (contentment or absence of greed ), ( 3 ) arjava फ्र 5 ( honesty or purity of mind) and (4) maardava (modesty or gentleness).
नरकायु-पद NARAKAYU-PAD (SEGMENT OF INFERNAL LIFE)
६२८. चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- महारंभताए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं ।
६२८. चार कारणों से जीव नरक आयुष्य के
योग्य कर्म उपार्जन करते हैं- (१) महा आरम्भ से 5 (जिस क्रिया में घोर हिंसा की जाती है), (२) महा परिग्रह से ( धन के प्रति अत्यासक्ति से), (३) पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से, (४) कुणप आहार से (माँसभक्षण करने से ) ।
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628. For four reasons a being acquires karmas determining infernal
life span—(1) through maha arambh (great sin or extremely violent act ), 5
5 (2) through maha parigraha (extreme covetousness ), ( 3 ) through 5
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panchendriya vadh (killing five sensed beings) and (4) through kunap
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ahar (meat eating).
तिर्यंचायु-पद TIRYANCHAYU-PAD (SEGMENT OF ANIMAL LIFE SPAN)
६२९. चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - माइल्लताए, णियडिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुल- कूडमाणेणं ।
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६२९. चार कारणों से जीव तिर्यंचगति के योग्य कर्मों का उपार्जन करते हैं- (१) मायाचार ( मन फ्र वचन कर्म की कुटिलता) से, (२) निकृतिमत्ता से अर्थात् कपट जाल फैलाने से । (३) असत्य वचन से, (४) कूटतुला - कूटमान से (घट-बढ़ तोलने - नापने से) ।
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629. For four reasons a being acquires karmas determining animal 5 life span—(1) through mayachar (crooked action through mind, speech and body), (2) through nikritimatta (spreading web of deception), (3) through asatya vachan (telling a lie) and (4) through kootatula (deceit फ्र in weights and measures).
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मनुष्यायु-पद MANUSHYAYU-PAD (SEGMENT OF HUMAN LIFE SPAN)
६३०. चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - पगतिभद्दताए, 卐 पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए ।
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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६३०. चार कारणों से जीव मनुष्यायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं - ( १ ) प्रकृति - भद्रता ( स्वभाव की सरलता) से, (२) प्रकृति विनीतता - ( स्वभावजन्य विनीतता) से, (३) सानुक्रोशता से ( दयालुता और फ्र सहृदयता से), (४) अमत्सरित्व से (मत्सर व ईर्ष्या भाव न रखने से )
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630. Due to four reasons a being acquires karinas determining human life span—(1) through prakriti bhadrata (natural simplicity), (2) through prakriti vinitata (natural modesty ), (3) through saanukroshata फ्र (generosity_and kindness) and (4) through amatsaritva (absence of 5 jealousy and hostility).
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देवायुष्य - पद DEVAAYU-PAD (SEGMENT OF DIVINE LIFE SPAN)
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६३१. चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, फ्र बालतवोकम्पेणं, अकामणिज्जराए ।
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६३१. चार कारणों से जीव देवायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं - (१) सरागसंयम से (रागसहित 5 दशा में संयम पालन करना । (२) संयमासंयम से, (श्रावक धर्म पालने से) । (३) बालतप अज्ञान पूर्वक तप करने से, (४) अकामनिर्जरा से - (निर्जरा की भावना के बिना तप, ब्रह्मचर्य आदि पालने से ) ।
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631. Due to four reasons a being acquires karmas determining divine 5 life span (1) through saraag samyam (observing ascetic discipline with 卐 attachment), (2) through samyamasamyam ( observing householder's 卐 code), (3) through baal tap (observing austerities without knowledge ) फ and (4) through akaam nirjara (observing ascetic code and austerities without a desire to shed karmas).
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विवेचन - हिंसादि प्रवृत्तियों के सर्वथा त्याग को संयम कहते हैं। उसके दो भेद हैं- सरागसंयम और वीतरागसंयम । जहाँ तक सूक्ष्म राग रहता है-ऐसे दसवें गुणस्थान तक का संयम सरागसंयम है और 5
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उसके ऊपर के गुणस्थानों का संयम वीतरागसंयम है। यद्यपि सरागसंयम छठे गुणस्थान से लेकर दसवें ॐ गुणस्थान तक होता है, किन्तु सातवें गुणस्थान से ऊपर के संयमी देवायु का बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि + वहाँ आयु का बन्ध ही नहीं होता। अतः छठे-सातवें गुणस्थान का सरागसंयम ही देवायु के बन्ध का कारण होता है।
श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप एकदेशसंयम को संयमासंयम कहते हैं। यह पंचम गुणस्थान में होता है। मिथ्यात्वी जीवों का तप ‘बालतप' कहा जाता है। पराधीन होने से भूख-प्यास के कष्ट सहना, पर-वश दशा में ब्रह्मचर्य पालना, इच्छा के बिना कर्म-निर्जरा के कारणभूत कार्यों को 5 करना अकामनिर्जरा है। इन चार कारणों में से आदि के दो कारण अर्थात् सराग-संयम और संयमासंयम आराधक होने से वैमानिक-देवायु के कारण हैं और अन्तिम दो कारण भवनपति,
वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में उत्पत्ति के कारण जानना चाहिए। यहाँ इतना और विशेष ज्ञातव्य है है कि इन चार कारणों में से किसी एक कारण के होने पर ही आयु बन्ध होता है।
Elaboration-To completely abandon violence and other sinful activities is called samyam (ascetic-discipline). It is of two kinds-saraag samyam (ascetic-discipline with attachment) and vitaraag samyam (ascetic-discipline without attachment). The ascetic-discipline up to the level of tenth Gunasthan, where minute traces of attachment are present, is called saraag samyam. Beyond that level it is called vitaraag samyam. Although saraag samyam is applicable from sixth to tenth Gunasthan, at levels beyond seventh Gunasthan there is total absence of bonding of life-span determining karmas, therefore there is no question of acquiring divine life span determining karmas. Thus the saraag samyam of sixth and seventh Gunasthan is the cause of bondage of divine life span karmas.
The partial samyam (ascetic-discipline) of a householder in the form of anuvrat (minor vows), gunavrat (restraints that reinforce the practice of anuvrats) and shikshavrat (instructive or complimentary vows o spiritual discipline) is called samyamasamyam. This is at the level of fifth Gunasthan. The austerities observed by unrighteous person is called baal tap. To endure pain of hunger and thirst under duress, to observe forced celibacy, or to indulge unwillingly in other practices aimed at shedding of karmas is akaam nirjara. Of these four the first two lead to rebirth as Vaimanik gods and the latter two lead to birth as Bhavanpati, Vyantar, and Jyotishk gods. It should be noted that bondage of life span defining karma is possible where any one of the said four causes is in existence.
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वाद्य-नृत्यादि-पद VADYA-NRITYADI-PAD (SEGMENT OF MUSIC, DANCE ETC.)
६३२. चउविहे वज्जे पण्णत्ते, तं जहा-तते, वितते, घणे, झुसिरे।
६३२. वाद्य (बाजे) चार प्रकार के हैं-(१) तत (वीणा आदि), (२) वितत (ढोल आदि), (३) घन + (कांस्य ताल आदि), (४) शुषिर (बांसुरी आदि)
632. Vadya (musical instruments) are of four kinds—(1) tat (stringed instruments like Veena), (2) vitat (percussion instruments like drum), (3) ghan (percussion instruments like cymbal) and (4) shushir (wind pipes like flute).
६३३. चउबिहे णट्टे पण्णत्ते, तं जहा-अंचिए, रिभिए, आरभडे, भसोले।
६३३. नाट्य (नृत्य) चार प्रकार के हैं-(१) अंचित नाट्य-ठहर-ठहर कर या रुक रुक कर मंद-मंद नाचना। (२) रिभित नाट्य-संगीत के साथ नाचना। (३) आरभट नाट्य-गाते हुए भावाभिव्यक्ति करना। (४) भषोल नाट्य-झुक कर या लेट कर भाव भंगिमा प्रदर्शित करके नाचना।
633. Natya or nritya (dances) are of four kinds—(1) anchit natya-to dance slowly and with breaks, (2) ribhit natya-to dance with music, (3) aarbhat natya—to express feelings with gestures and poses while singing, and (4) bhashol natya-to dance with bending and prostrate gestures and poses.
६३४. चउबिहे गेए पण्णत्ते, तं जहा-उक्खित्तए, पत्तए, मंदए, रोविंदए।
६३४. गेय (गायन) चार प्रकार का है-(१) उत्क्षिप्तक गेय-नाचते हुए या आरम्भ में मधुर स्वर से गायन करना। (२) पत्रक गेय-पद्य-छन्दों का गायन करना, उच्च स्वर से छन्द बोलना। (३) मन्दक गेय-मन्द-मन्द स्वर से गायन करना। (४) रोविन्दक गेय-शनैः शनैः स्वर को तेज करते हुए गायन करना। ___634. Geya or gayan (singing) is of four kinds (1) utkshiptak geyato sing in sweet voice at the beginning of or during a dance, (2) patrak geya-to sing or recite metric verses loudly, (3) mandak geya-to sing in low pitch, and (4) rovindak geya-to sing with gradually rising pitch.
६३५. चउबिहे मल्ले पण्णत्ते, तं जहा-गंथिमे, वेढिमे, पूरिमे, संघातिमे।
६३५. माल्य (माला) चार प्रकार की हैं-(१) ग्रन्थिम-फूलों आदि को सूत के धागे से गूंथ कर बनाई जाने वाली माला। (२) वेष्टिम–चारों ओर फूलों को लपेट कर मुकुटाकार बनाई गई माला। (३) पूरिम-फूल भर कर बनाई जाने वाली माला। (४) संघातिम-एक फूल की नाल आदि से दूसरे फूल आदि को जोड़कर बनाई गई माला।
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635. Malya (garlands) are of four kinds-(1) granthim-made by si stringing flowers in cotton thread, (2) veshtim-made by wrapping i
flowers into a specific shape of a crown. (3) poorim-made by braiding or
filling flowers, and (4) sanghatim-made by interweaving or entwining + flowers.
६३६. चउबिहे अलंकारे पण्णत्ते, तं जहा-केसालंकारे, वत्थालंकारे, मल्लालंकारे, आभरणालंकारे।
६३६. अलंकार चार प्रकार के हैं-(१) केशालंकार-शिर के बालों को सजाना। (२) वस्त्रालंकारॐ सुन्दर वस्त्रों को धारण करना। (३) माल्यालंकार-मालाओं को धारण करना। (४) आभरणालंकार+ सुवर्ण-रत्नादि के आभूषणों को धारण करना।
636. Alankar (embellishments) are of four kinds—(1) keshalankar-to 4 embellish hair, (2) vastralankar-to adorn body with beautiful dresses, (3) malyalankar-to embellish with garlands and bead strings, and (4) aabharanalankar-to embellish with gold and gem ornaments.
६३७. चउब्बिहे अभिणए पण्णत्ते, तं जहा-दिह्रितिए, पाडिसुते, सामण्णओविणिवाइयं, 3 लोगमज्झावसिते।
६३७. अभिनय (नाटक) चार प्रकार का होता है-(१) दार्टान्तिक-किसी घटना-विशेष का ॐ अभिनय। (२) प्रातिश्रुत-रामायण, महाभारत आदि का अभिनय। (३) सामान्यतोविनिपातिक-राजा+ मंत्री आदि का अभिनय अथवा हँसी, रुदन आदि मनोभावों का प्रदर्शन। (४) लोकमध्यावसितमानवजीवन की विभिन्न अवस्थाओं व वेष-भूषाओं का अभिनय।
637. Abhinaya (acting) is of four kinds-(1) darshtantik-dramatic presentation of a specific event, (2) praatishrut-dramatic presentation of an epic like Ramayana and Mahabharat, (3) samanyatovinipatikacting of a king, minister or other such characters; also dramatic presentation of different moods like laughter and weeping, and (4) lokamadhyavasit-dramatic presentation of different states of human life and different cultures and dresses. विमान-पद VIMAAN-PAD (SEGMENT OF CELESTIAL VEHICLES)
६३८. सणंकुमार-माहिंदेसु णं कप्पेसु विमाणा चउवण्णा पण्णत्ता, तं जहा-णीला, लोहिता, ॐ हालिद्दा, सुक्किल्ला।
६३८. सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में चार वर्ण वाले विमान हैं-(१) नील, (२) लोहित (रक्त), न 9 (३) हारिद्र (पीत), (४) शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाले।
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638. The vimaans (celestial vehicles) in Sanatkumar and Mahendra Kalps (specific divine realms) are of four colours—(1) nila (blue), (2) lohit (red), (3) haridra (yellow) and (4) shukla (white).
६३९. महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं चत्तारि ॥ रयणीओ उ8 उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
६३९. महाशुक्र और सहस्रारकल्पों में देवों के भवधारणीय (जन्मजात शरीर) शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई चार रनि-प्रमाण (चार हाथ) प्रमाण होती है।
639. The maximum height of the bhavadharaniya sharira (incarnation sustaining body or normal body) of the gods in Mahashukra and Sahasrar Kalps is four Ratni (cubits). गर्भ-पद GARBH-PAD (SEGMENT OF WOMB)
६४०. चत्तारि दगगब्भा पण्णत्ता, तं जहा-उस्सा, महिया, सीता, उसिणा।
६४०. उदक के चार गर्भ (जलवर्षा के कारण) कहे हैं-(१) ओस, (२) मिहिका (कुहरा, धूवर), (३) अति शीतलता, (४) अति उष्णता।
640. There are four garbh (wombs or sources) of udak (water or rain)-(1) os (dew), (2) mihika (fog), (3) sheet (excessive cold) and (4) ushna (excessive heat). ६४१. चत्तारि दगगब्भा पण्णत्ता, तं जहा-हेमगा, अब्भसंथडा, सीतोसिण, पंचरूविया।
माहे उ हेमगा गब्भा, फग्गुणे अब्भसंथडा।
सीतोसिणा उ चित्ते, वइसाहे पंचरूविया॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) ६४१. उदक के चार गर्भ कहे हैं-(१) हिमपात, (२) आकाश का मेघों से आच्छादित रहना, (३) अति शीतोष्णता, (४) पंचरूपिका।
(१) माघ मास में हिमपात से। फाल्गुन मास में आकाश बादलों से आच्छादित रहने से। चैत्र मास में अतिशीत और अति उष्णता से, तथा वैशाख मास में पंचरूपिका से उदक-गर्भ रहता है। वायु, बादल गरज, बिजली और जल इन्हें पंचरूपिका कहते हैं।
641. There are four garbh (wombs or sources) of udak (water or rain)-(1) himapaat (snowfall), (2) cloud covered sky, (3) ati sheetoshnata (excess of cold and heat), and (4) pancharupika (five signs-air, clouds, thunder, lightening and water).
Rain is caused by snowfall in the month of Magh, by cloud covered sky in the month of Phalgun, by excessive cold and heat in the month of | चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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Chaitra, and by five things (air, clouds, thunder, lightening and water) in ¥ the month of Vaishakh. (1) (Collative Verse) ६४२. चत्तारि मणुस्सीगब्भा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थित्ताए, पुरिसत्ताए, णपुंसगत्ताते, बिंबत्ताए।
अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजायति। अप्पं ओयं बहुं सुक्कं, पुरिसो तत्थ जायति॥१॥ दोण्हंपि रत्तसुक्काणं, तुल्लभावे णपुंसओ।
इत्थी ओय-समायोगे, बिंबं तत्थ पयायति॥२॥ (संग्रहणी-गाथा) ६४२. मनुष्य स्त्री के गर्भ चार प्रकार के होते हैं (१) स्त्री के रूप में, (२) पुरुष के रूप में, (३) नपुंसक के रूप में, (४) बिम्ब रूप में।
(१) जब गर्भ-काल में पुरुष का शुक्र (वीर्य) अल्प और स्त्री का ओज (रज) अधिक होता है, तब 卐 उस गर्भ से स्त्री उत्पन्न होती है। जब ओज अल्प और शुक्र अधिक होता है, तो उस गर्भ से पुरुष उत्पन्न होता है।
(२) जब रक्त (रज) और शुक्र इन दोनों की समान मात्रा होती है, तब नपुंसक उत्पन्न होता है। वायु विकार के कारण स्त्री के ओज (रक्त) के समायोग से (जम जाने से) बिम्ब उत्पन्न होता है। $ 642. The human embryo in the womb of a woman is of four kinds, (1) as female, (2) as male, (3) as eunuch and (4) as image (lump).
When at the time of conception the number of sperms is less than 4 that of ova a female embryo is formed in the womb. When the number of sperms is more than that of ova a male embryo is formed. (1)
When the number of sperms and ova is same an eunuch embryo is formed. When ova fuse and solidify due to disturbed air (one of the body humours) an image or lump is formed. (2) (Collative Verse)
विवेचन-पुरुष-संयोग के बिना भी स्त्री का रज वायु-विकार से पिण्ड रूप में गर्भ-स्थित होकर बढ़ने लगता है, वह गर्भ के समान बढ़ने से बिम्ब या प्रतिबिम्बरूप गर्भ कहा जाता है, पर उससे सन्तान का जन्म नहीं होता। किन्तु एक गोल-पिण्ड निकल कर फूट जाता है। आयुर्वेद के ग्रन्थ भी इस बात का समर्थन करते हैं।
Elaboration-Without being fertilized by a sperm ova combine and start growing into a lump due to disturbed humours. As it continues to
grow like a fetus but does not form into a child it is called a mirror image 4like fetus. It comes out as a large lump and disintegrates. Ayurveda
confirms this.
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15555555555555555555555555555555555555 पूर्ववस्तु-पद PURVAVASTU-PAD (SEGMENT OF PURVAVASTU)
६४३. उप्पायपुवस्स णं चत्तारि चूलवत्थु पण्णत्ता।
६४३. उत्पाद पूर्व (चतुर्दश पूर्वगत श्रुत का प्रथम भेद) के चूलावस्तु नामक चार अधिकार हैं, अर्थात् उसमें चार चूलाएँ थी।
643. Utpaad Purva (the first volume of the fourteen volume subtle canon) has four sections named Chulavastu. In other words it had four Chulas (appendices). काव्य-पद KAVYA-PAD (SEGMENT OF POETRY)
६४४. चउबिहे कव्वे पण्णत्ते, तं जहा-गज्जे, पज्जे, कत्थे, गेए।
६४४. काव्य चार प्रकार के कहें हैं-(१) गद्य-काव्य, (२) पद्य-काव्य, (३) कथ्य-काव्य (कथा प्रधान, (४) गेय-काव्य (गीति-प्रधान) ____644. Kavya (poetry) is of four kinds—(1) gadya-kavya (prose-poetry), (2) padya-kavya (poetry), (3) kathya-kavya (narrative poetry) and (4) geya-kavya (song). समुद्घात-पद SAMUDGHAT-PAD (SEGMENT OF SAMUDGHAT)
६४५. णेरइयाणं चत्तारि समुग्धाता पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्धाते, कसायसमुग्गघाते, मारणंतियसमुग्घाते, वेउब्वियसमुग्घाते। ६४६. एवं-वाउक्काइयाणवि।
६४५. नारक जीवों के चार समुद्घात होते हैं-(१) वेदना-समुद्घात, (२) कषाय-समुद्घात, (३) मारणान्तिक-समुद्घात (मृत्यु काल में), (४) वैक्रिय-समुद्घात। ६४६. इसी प्रकार वायुकायिक जीवों के भी चार समुद्घात होते हैं। ...
645. Naarak jivas (infernal beings) have four kinds of Samudghat (bursting; the process employed for transmutation and transformation) (1) Vedana Samudghat, (2) Kashaya Samudghat, (3) Maranantik Samudghat and (4) Vaikriya Samudghat. 646. In the same way airbodied beings also have four kinds of Samudghat.
विवेचन-मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए किसी कारण-विशेष से जीव के कुछ आत्म प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात हैं। समुद्घात के सात भेद आगे सातवें स्थान सूत्र १३८ में कहे गये हैं। उनमें से नारक और वायुकायिक जीवों में केवल चार समुद्घात होते हैं।
(१) वेदना की तीव्रता से जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना वेदनासमुद्घात है। (२) कषाय की तीव्रता से जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना कषायसमुद्घात है।
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5 555555555555555555 + (३) मारणान्तिक दशा में मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले, जीव के कुछ प्रदेश निकल कर जहाँ उत्पन्न ज होना है, वहाँ तक फैलते चले जाते हैं और उस स्थान का स्पर्श कर वापिस शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। ॥ # इसे मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। इसके कुछ क्षण के बाद जीव का मरण होता है।
(४) शरीर के छोटे-बड़े आकारादि बनाने को वैक्रिय समुद्घात कहते हैं। नारक जीवों के समान है वायुकायिक जीवों के भी निमित्त विशेष से शरीर छोटे-बड़े रूप में संकुचित-विस्तृत होते रहते हैं। ॐ अतः उनके वैक्रिय समुद्घात बताया है।
Elaboration–The process of bursting forth of some soul-space-points for some specific purpose and without completely abandoning the body is called Samudghat. Seven classes of Samudghat are mentioned in aphorism 138 of the Seventh Sthaan of this book. Out of these, infernal beings and air-bodied beings have only four types.
(1) Bursting forth of some soul-space-points due to intensity of pain is called Vedana Samudghat.
(2) Bursting forth of some soul-space-points due to intensity of passions is called Kashaya Samudghat.
(3) One Antarmuhurt before the moment of death some soul-space-4 5 points burst forth and shrink back after spreading and touching the 41
place of rebirth. This process is called Maranantik Samudghat. A few moments after this the being dies.
(4) Employing the said process to create small or large bodies is called Vaikriya Samudghat.
Like infernal beings, air-bodied beings also continue to expand and shrink into large and small bodies under specific conditions. Therefore they are capable of undergoing Vaikriya Samudghat. चतुर्दशपूर्वि-पद CHATURDASH PURVI-PAD
(SEGMENT OF CHATURDASH PURVI) ६४७. अरहतो णं अरिट्ठणेमिस्स चत्तारि सया चोद्दसपुवीणमजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसण्णिवाईणं जिणो इव अवितथं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुविसंपया हुत्था।
६४७. अरहन्त अरिष्टनेमि के शासन में चतुर्दश-पूर्व-वेत्ता मुनियों की चार सौ उत्कृष्ट संपदा थी। ॐ वे जिन नहीं होते हुए भी जिनके समान सर्वाक्षरसन्निपाती-(सभी अक्षरों के संयोग से बने संयुक्त पदों के 5
और उनसे निर्मित बीजाक्षरों के ज्ञाता) थे, तथा 'जिन' के समान ही सत्य कथन करने वाले थे। यह है ॐ अरिष्टनेमि के शासन में चौदह पूर्वियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी।
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647. During the shaasan (period of influence) of Arhant Arishtanemi the number of ascetic scholars of fourteen Purvas was four hundred. Fi Although not Jina, they were sarvakshar-sannipati (a scholar who
knows all the innumerable permutations and combinations of all the sixty four letters of the alphabet) like a Jina and uttered truth just like a
Jina. This was the maximum number of Chaturdash Purvis during the 6 period of influence of Arishtanemi.
गागागागागागागागा
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वादि-पद VAADI-PAD (SEGMENT OF VADI)
६४८. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपयां हुत्था।
६४८. श्रमण भगवान महावीर के संघ में चार सौ वादी मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। वे देवमनुज और असुरों की परिषद् में सर्वथा अपराजित और अजेय थे।
648. In the sangh (religious organization) of Shraman Bhagavan Mahavir the maximum number of vaadi munis (debater ascetics) was four hundred. They were absolutely undefeated and unconquerable in any assembly of gods, men and Asurs (demons or lower gods). कल्पविमान-पद KALP-VIMAAN-PAD (SEGMENT OF DIVINE REALMS)
६४९. हेठिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा-सोहम्मे, ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे। ६५०. मज्झिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहाबंभलोगे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे। ६५१. उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा-आणते, पाणते, आरणे, अच्चुते।
६४९. अधस्तन (नीचे के) पहले चार कल्प अर्धचन्द्र आकार वाले हैं-(१) सौधर्मकल्प, (२) ईशानकल्प, (३) सनत्कुमारकल्प, (४) माहेन्द्रकल्प। ६५०. मध्यवर्ती चार कल्प पूर्ण चन्द्र के 5
आकार वाले हैं-(१) ब्रह्मलोककल्प, (२) लान्तककल्प, (३) महाशुक्रकल्प, (४) सहस्रारकल्प। ६५१. ऊपर के चार कल्प अर्ध चन्द्र के आकार वाले हैं-(१) आनतकल्प, (२) प्राणतकल्प, है (३) आरणकल्प, (४) अच्युतकल्प।
649. The four lowest kalps (divine realms) are half-moon in shape (1) Saudharma kalp, (2) Ishan kalp, (3) Sanatkumar kalp and (4) Maahendra kalp. 650. The four middle kalps (divine realms) are full
moon shaped-(1) Brahmalok kalp, (2) Lantak kalp, (3) Mahashukra kalp and (4) Sahasrar kalp. 651. The four highest kalps (divine realms) are half-moon in shape—(1) Aanat kalp, (2) Praanat kalp, (3) Aaran kalp and (4) Achyut kalp.
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समुद्र-पद SAMUDRA-PAD (SEGMENT OF SEAS)
६५२. चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, तं जहा-लवणोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घतोदे।
६५२. चार समुद्र प्रत्येक रस (भिन्न-भिन्न रस) वाले हैं-(१) लवणोदक-लवण-रस के समान खारा (नमकीन) पानी। (२) वरुणोदक-मदिरा-रस के समान नशीला पानी। (३) क्षीरोदक-दुग्ध-रस के समान श्वेत, मधुर पानी। (४) घृतोदक-घृत-रस के समान स्निग्ध पानी। ___652. There are four seas having different rasa (taste or quality)(1) Lavanodak-with salt-like salty water, (2) Varunodak-with winelike intoxicating water, (3) Kshirodak-with milk-like white and sweet water and (4) Ghritodak-with butter-like oily water.
म कषाय-पद KASHAYA-PAD (SEGMENT OF PASSIONS)
६५३. चत्तारि आवत्ता पण्णत्ता, तं जहा-खरावत्ते, उण्णतावत्ते, गूढावत्ते, आमिसावत्ते।
एवामेव चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा-खरावत्तसमाणे कोहे, उण्णतावत्तसमाणे माणे, गूढावत्तसमाणा माया, आमिसावत्तसमाणे लोभे।
(१) खरावत्तसमाणं कोहं अणुपविढे जीवे कालं करेति, णेरइएसु उववज्जति। (२)(उण्णतावत्तसमाणं माणं अणुपविढे जीवे कालं करेति, णेरइएसु उववज्जति। (३) गूढावत्तसमाणं मायं अणुपविटे जीवे कालं करेति, णेरइएसु उवजति)। (४) आमिसावत्तसमाणं लोभमणुपविटे जीवे कालं करेति, णेरइएसु उववजति।
६५३. चार आवर्त (भँवर-गोलाकार घुमाव) कहे हैं-(१) खरावर्त-अतिवेगशाली जल-तरंगों के ॐ मध्य होने वाला गोलाकार भँवर। (२) उन्नतावर्त-पर्वत-शिखर के ऊपर चढ़ने का घुमावदार मार्ग, या + वायु का गोलाकार बवंडर। (३) गूढावर्त-गेंद व वनस्पतियों के भीतर की गाँठ के समान एक के भीतर 5
एक छिपे गोलाकर आवर्त। (४) आमिषावर्त-माँस के लिए मँडराने वाले गिद्ध आदि पक्षियों का आकाश 卐 में चक्कर काटना।
इसी प्रकार कषाय भी चार प्रकार के कहे हैं-(१) खरावर्त-समान-क्रोध कषाय। (२) उन्नतावर्त+ समान-मान कषाय। (३) गूढावर्त-समान-माया कषाय। (४) आमिषावर्त-समान-लोभ कषाय।
इन चार कषायों में फँसा जीव काल करके नारकों में उत्पन्न होता है। ___653. There are four kinds of aavart (spirals)-(1) Kharavartwhirlpool like spiral. (2) Unnatavart-whirlwind like spiral or one like a winding path uphill. (3) Goodhavart-spiral like concealed layers inside
a ball or a knot in a plant. (4) Amishavart-spiral resembling the path of Si a vulture hovering over a carcass.
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In the same way kashaya (passions) are of four kinds-(1) anger is like kharavart, (2) conceit is like unnatavart, (3) deceit is like goodhavart fi and (4) greed is like amishavart. A being trapped in these four passions goes to hell after death.
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नक्षत्र-पद NAKSHATRA-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS)
६५४. अणुराहाणक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते। ६५५. पुव्वासाढा (णक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते)। ६५६. एवं चेव उत्तरासाढा (णक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते)।
६५४. अनुराधा नक्षत्र के चार तारे हैं। ६५५. पूर्वाषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं। ६५६. इसी प्रकार उत्तराषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं। ____654. Anuradha (Delta Scorpii) constellation has four stars. 655. Purva Ashadha (Delta Sagittarii; the) constellation has four stars. 656. In the same way Uttara Ashadha (Sigma Sagittarii; the) constellation has four
stars. में पापकर्म-पद PAAP-KARMA-PAD (SEGMENT OF DEMERITORIOUS KARMA)
६५७. जीवा णं चउट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा-णेरइयणिव्यत्तिते, तिरिक्खजोणियणिवत्तिते, मणुस्सणिव्यत्तिते, देवणिवत्तिते। ६५८. एवं# उवचिणिंसु वा उवचिणंति वा उवचिणिस्संति वा। एवं-चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेय तह मणिज्जरा चेव।
६५७. अतीत में सभी जीवों ने इन चार कारणों से उपार्जित कर्म-पुद्गलों को पाप कर्म रूप में संचित किया है, वर्तमान में संचित कर रहे हैं और भविष्य में संचित करेंगे। जैसे-(१) नैरयिक # निर्वर्तित, (२) तिर्यग्योनिक निर्वर्तित, (३) मनुष्य निर्वर्तित, (४) देवनिर्वर्तित। ६५८. इसी प्रकार
जीवों ने उक्त नैरयिक आदि चारों स्थानों से उपार्जित कर्म पुद्गलों का उपचय, बंध, उदीरण, वेदन में और निर्जरण किया है, कर रहे हैं और करेंगे।
657. All beings did, do and will acquire (sanchit) karma particles in the form of demeritorious karmas in the past, present and future respectively four ways-(1) nairayik nirvartit (earned as infernal beings), (2) tiryagyonik nirvartit (earned as animals), (3) manushya nirvartit (earned as human beings) and (4) deva nirvartit (earned as divine beings). 658. In the same way all beings did, do and will augment (upachaya), bond (bandh), fructify (udiran), experience (vedan) and shed
(nirjaran) the acquired karma particles in the past, present and future F respectively in aforesaid four ways.
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पुद्गल - पद PUDGAL-PAD (SEGMENT OF
६५९. चउपदेसिया खंधा अणंता पण्णत्ता । ६६०. चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । ६६१. चउसमयद्वितीया पोग्गला अणंता पण्णत्ता । ६६२. चउगुणकालगा पोग्गला अनंता उगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ।
६५९. चार प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं । ६६०. आकाश के चार प्रदेशों में वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं । ६६१. चार समय की स्थिति वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त । ६६२. चार का गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं।
इसी प्रकार सभी वर्ण, सभी गन्ध, सभी रस और सभी स्पर्शो के चार-चार गुण वाले पुद्गल अनन्त हैं।
स्थानांगसूत्र (२)
659. There are infinite chaturpradeshi pudgal-skandhs (aggregates of four ultimate particles). 660. There are infinite chaturpradeshavagadh pudgal-skandhs (ultimate particles occupying four space-points). 661. There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with stability of four Samayas. 662. There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with four units of the attribute of black appearance.
In the same way there are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with four units each of attribute of appearance, smell, taste, and touch.
॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
END OF THE FOURTH LESSON
जाव
॥ चतुर्थ स्थान समाप्त ॥
END OF THE FOURTH STHAAN
(86)
अवगाहना
Sthaananga Sutra (2)
255555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 55 55 555552
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पंचम स्थान
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। प्राथमिक परिचय
इस स्थान में पाँच की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। इस वर्गीकरण में सैद्धान्तिक, है तात्त्विक, आचार प्रधान, दार्शनिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष्क और योग आदि अनेक विषयों
से सम्बन्धित वर्णन है। सभी विषय ज्ञानवर्धक होने के साथ ही रोचक तथा व्यावहारिक जीवन में में उपयोगी भी हैं। जैसे
(१) सैद्धान्तिक सन्दर्भ में-इन्द्रियों के विषय, शरीरों का वर्णन, तीर्थभेद, आर्जवस्थान, देवों की । स्थिति, क्रियाओं का वर्णन, शरीरावगाहनादि विषयों का वर्णन।
(२) चारित्र-सम्बन्धी चर्चा में पाँच अणुव्रत-महाव्रत, पाँच प्रतिमा, गोचरी के भेद, वर्षावास, राजान्तःपुरप्रवेश, निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी का एकत्र निवास, पाँचप्रकार की परिज्ञाएँ, पाँच प्रकार के म निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-अवलम्बनादि। । (३) तात्त्विक चर्चा में-कर्मनिर्जरा के कारण, आस्रव-संवर के द्वार, पाँच प्रकार के दण्ड, । संवर-असंवर, संयम-असंयम, बन्ध आदि पदों के द्वारा अनेक विषयों को संकलन। म (४) भौगोलिक चर्चा में-महानदी, वक्षस्कार-पर्वत, महाद्रह, जम्बूद्वीपादि अढ़ाईद्वीप, महानरक, * महाविमान आदि। __ऐतिहासिक चर्चा में राजचिह्न, पंचकल्याणक, ऋद्धिमान् पुरुष, कुमारावस्था में प्रव्रजित तीर्थंकर
आदि की चर्चा। है इनके अतिरिक्त गेहूँ, चने आदि धान्यों की उत्पादनशक्ति, स्त्री-पुरुषों की प्रवीचारणा, देवों की सेना * के प्रकार और उसके सेनापतियों के नाम, गर्भ-धारण के प्रकार, गर्भ के अयोग्य स्त्रियों का निरूपण, । सुप्त-जागृत संयमी-असंयमी अन्तर और सुलभ-दुर्लभ बोधि का विवेचन भी पठनीय तथा मननीय है। के इस स्थान के तीन उद्देशक हैं।
विषय की ज्ञानवर्धकता और उपयोगिता की दृष्टि से एवं वर्णन की सरस शैली का एक । उदाहरण देखें। पाँच प्रकार का शौच हैं-(१) मिट्टी-(बर्तन आदि की शुद्धि के लिए), (२) जल-(वस्त्र, पात्र आदि
की शुद्धि के लिए), (३) अग्नि-(धातु आदि की शुद्धि के लिए), (४) मंत्र-(मन एवं वायुमण्डल की । शुद्धि के लिए), (५) ब्रह्मचर्य-(आत्मा की शुद्धि के लिए)। (उद्देशक ३, सूत्र १९४) इसी प्रकार अन्य विषय भी ज्ञानवर्धक हैं।
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| पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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Fifth Sthaan: First Lesson
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FIFTH STHAAN (PLACE NUMBER FIVE)
INTRODUCTION
This Sthaan contains subjects related to numeral five. This numerical classification includes a wide range of subjects including metaphysics, ontology, conduct, philosophy, geography, history, astrology and yoga. All the $ topics discussed are edifying as well as interesting and useful in normal mundane life. For example
(1) In metaphysical context topics like subjects of sense organs, description of bodies, organizational differences, places of simplicity, state of divine beings, description of activities, space occupied by different bodies are included.
(2) In discussion about conduct many interesting topics have been covered under titles like five minor and great vows, five self restraints, kinds of alms collection, monsoon stay, entry into palace, stay of male and female ascetics at same place, five kinds of awareness, and five kinds of supports related to ascetics.
(3) In ontological context topics like causes of inflow and blockage of karmas, five kinds of punishments, blockage and non-blockage of karmas, discipline and indiscipline, and karmic bondage are included.
(4) The geographic topics include great rivers, Vakshaskar mountains, great lakes, Jambu continent, Adhai dveep, most dingy hells, and great divine dimensions.
(5) The historical topics include state insignia, five auspicious events, grand individuals, and Tirthankars initiated before marriage.
Besides these, other interesting topics discussed are-cereals like wheat fi and gram, sexual gratification of men and women, types of divine armies with names of their commanders, kinds of conceptions, description of women incapable of conceiving, difference between states of awakening and stupor as well as discipline and indiscipline, and easy and difficult understanding of true knowledge. This Sthaan has three lessons.
An example of interesting style and informative and useful narration is
Cleansing is of five kinds=(1) mitti (earth for cleansing utensils), (2) jal (water for clearing clothes, bowls etc.), (3) agni (for metals), (4) mantra (for purifying mind and environment) and (5) brahmacharya (for soul). (lesson 3, și aphorism 194). In the same way other topics are also extremely informative.
FITAPEE (?)
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Sthaananga Sutra (2)
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पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक FIFTH STHAAN (Place Number Five) : FIRST LESSON
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महाव्रत-अणुव्रत पद MAHAVRAT-ANUVRAT-PAD
(SEGMENT OF MINOR AND GREAT VOWS) १. पंच महब्बया पण्णत्ता, तं जहा-सव्वाओ पाणातिवायाओ वेरमणं जाव [ सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सबाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं], सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं।
१. महाव्रत पाँच हैं-(१) सर्व प्रकार के प्राणातिपात (जीव-घात) से विरमण-(निवृत्ति) (२) सर्व प्रकार के मृषावाद (असत्य-भाषण) से विरमण। (३) सर्व प्रकार के अदत्तादान (चोरी) से विरमण। (४) सर्व प्रकार के मैथुन से विरमण। (५) सर्व प्रकार के परिग्रह से विरमण।
1. There are five mahavrats (great vows)–(1) Sarva Pranatipat i viraman (to abstain completely from harming or destroying life). i (2) Sarva Mrishavad viraman (to abstain completely from falsity).
(3) Sarva Adattadan viraman (to abstain completely from acts of stealing). (4) Sarva Maithun viraman (to abstain completely from indulgence in sexual activities). (5) Sarva Parigraha viraman (to abstain completely from acts of possession of things).
२. पंचाणुब्बया पण्णत्ता, तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे।
२. अणुव्रत पाँच हैं-(१) स्थूल प्राणातिपात (त्रस जीव-घात) से विरमण। (२) स्थूल मृषावाद (लोक विरुद्ध असत्य भाषण) से विरमण। (३) स्थूल अदत्तादान (राज-दण्ड, लोक दण्ड देने वाली चोरी) से विरमण। (४) स्वदारसन्तोष-(पर-स्त्री सेवन से विरमण व स्वपत्नी में सन्तोष)। (५) इच्छापरिमाण(इच्छा-परिग्रह का सीमाकरण।
2. There are five anuvrats (great vows)—(1) Sthula Pranatipat viraman (to abstain from harming or destroying gross life or mobile beings). (2) Sthula Mrishavad viraman (to abstain from gross falsity or defying social norms of truthfulness). (3) Sthula Adattadan viraman (to abstain from gross acts of stealing or those inviting social or state punishment). (4) Svadaar santosh (to abstain from extramarital sexual activities). (5) Ichchha parimaan (to restrict desires).
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पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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Fifth Sthaan: First Lesson
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8555555555555555555555555555555555555 ऊ इन्द्रिय विषय-पद INDRIYA VISHAYA-PAD
(SEGMENT OF SUBJECTS OF SENSE ORGANS) ३. पंच वण्णा पण्णत्ता, तं जहा-किण्हा, णीला, लोहिता, हालिद्दा, सुक्किल्ला।
३. वर्ण-(चक्षु इन्द्रिय का विषय) रंग पाँच हैं (१) कृष्ण, (२) नील, (३) लोहित (लाल), (४) हरिद्र (पीला), (५) शुक्ल। i 3. There are five varnas (subject of eyes; colours)-(1) krishna (black), (2) neel (blue), (3) lohit (red), (4) haridra (yellow) and (5) shukla (white).
४. पंच रसा पण्णत्ता, तं जहा-तित्ता (कडुया, कसाया, अंबिला), मधुरा।
४. रस पाँच हैं-(रसनेन्द्रिय का विषय) (१) तिक्त (तीखा), (२) कटु, (३) कषाय (कसैला), (४) आम्ल (खट्टा), (५) मधुर।
4. There are five rasas (subject of tongue; taste)--(1) tikta (bitter), (2) katu (pungent), (3) kashaya (astringent), (4) amla (sour) and (5) madhur (sweet).
५. पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहा-सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा। ५. कामगुण पाँच हैं-(१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श।
5. Kamaguna (physical desires) are of five kinds—(1) shabd (sound), (2) rupa (form or appearance), (3) gandh (smell), (4) rasa (taste) and (5) sparsh (touch).
विवेचन-काम-का अर्थ है अभिलाषा और गुण का अर्थ है, पुद्गल का स्वभाव या परिणति। (विशेष 卐 वर्णन व चित्र देखें अनुयोग द्वार भाग २ पृष्ठ २७०)
Elaboration—Kama means desires and guna means physical attributes and transformations. (for more details refer to illustration in 41 Illustrated Anuyogadvar Sutra Part-2, p. 270)
६. पंचहिं ठाणेहिं जीवा सज्जंति, तं जहा-सद्देहिं, रूवेहिं, गंधेहिं, रसेहिं, फासेहिं।
६. पाँच स्थानों (विषयों) में जीव आसक्त होते हैं-(१) शब्दों में, (२) रूपों में, (३) गन्धों में, 卐 (४) रसों में, (५) स्पर्शों में।।
6. Beings have cravings for five sthaans (subjects)–(1) for shabd (sound), (2) for rupa (form or appearance), (3) for gandh (smell), (4) for Si rasa (taste) and (5) for sparsh (touch).
७. एवं रज्जंति मुच्छंति गिझंति अज्झोववजंति। (पंचेहिं ठाणेहिं जीवा रज्जंति, तं जहाॐ सद्देहिं, जाव (रूवेहिं, गंधेहिं, रसेहिं) फासेहिं। ८. पंचहिं ठाणेहिं जीवा मुच्छंति, तं जहा-सद्देहिं,
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स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2) 555555555555555555555555555555555
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रूवेहिं, गंधेर्हि, रसेहिं, फासेहिं । ९. पंचहिं ठाणेहिं जीवा गिज्झंति, तं जहा- हा - सद्देहिं, रूवेहिं, गंधेहिं, रसेहिं, फासेहिं । १०. पंचहिं ठाणेहिं जीवा अज्झोववज्जंति, तं जहा - सद्देहिं, रूवेहिं, गंधेहिं, रसेहिं, फासेहिं । ११. पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावज्जंति, तं जहा - सद्देहिं, जाव (रूवेहिं, गंधेहिं, रसेहिं), फासेहिं ।
७. इन पाँच स्थानों में जीव अनुरक्त होते हैं - (१) शब्दों में, (२) रूपों में, (३) गन्धों में, (४) रसों में, (५) स्पर्शो में । ८. पाँच स्थानों में जीव मूर्च्छित होते हैं - (१) शब्दों में, (२) रूपों में, (३) गन्धों में, (४) रसों में, (५) स्पर्शो में । ९. पाँच स्थानों में जीव गृद्ध होते हैं - ( १ )
卐
(३) गन्धों में, (४) रसों में, (५) स्पर्शो में । १०. पाँच स्थानों में जीव अध्युपपन्न (अत्यासक्त) होते हैं- 卐
卐
(१) शब्दों में, (२) रूपों में, (३) गन्धों में, (४) रसों में, (५) स्पर्शो में । ११. पाँच स्थानों से जीव विनिघात ( मरण या विनाश) को प्राप्त होते हैं - (१) शब्दों से, (२) रूपों से, (३) गन्धों से, (४) रसों से, 5 (५) स्पर्शो से ।
. विवेचन-संग, राग, मूर्च्छा आदि पाँचों शब्द मन की आसक्ति की क्रामिक तीव्रता के सूचक हैं। जैसे(१) संग - इन्द्रिय विषयों के साथ सम्बन्ध, (२) राग - इन्द्रिय विषयों से गहरा लगाव । (३) मूर्च्छा - इन्द्रिय विषयों के सेवन से उत्पन्न दोषों को नहीं देखना तथा उनके संरक्षण के लिए चिन्तन करना । (४) गृद्धि - प्राप्त विषयों के प्रति असंतोष और अप्राप्त विषयों की आकांक्षा, (५) अध्युपपन्नता-विषयों के सेवन में एकचित्त हो जाना तथा उनकी प्राप्ति के लिए व्यग्र होकर चिन्तन करना (वृत्ति भाग २ पृष्ठ ५०२ )
शब्दों में, (२) रूपों में,
(91)
7. Beings get attracted (anurakt) to five sthaans (subjects ) – ( 1 ) to i shabd (sound), (2) to rupa (form or appearance), (3) to gandh ( smell ), (4) to rasa (taste) and (5) to sparsh (touch ). 8. Beings get fond of (murchchhit) in five sthaans (subjects ) - ( 1 ) of shabd (sound), (2) of rupa (form or appearance), (3) of gandh ( smell), (4) of rasa (taste) and (5) of sparsh (touch). 9. Beings get infatuated with (griddha) five sthaans फ्र (subjects)—(1) with shabd (sound ), ( 2 ) with rupa (form or appearance ), 5 (3) with gandh ( smell), (4) with rasa (taste) and (5) with sparsh (touch). 5 10. Beings get obsessed with five sthaans (subjects) – (1) with shabd i (sound ), ( 2 ) with rupa ( form or appearance ), ( 3 ) with gandh ( smell ), 5 (4) with rasa (taste) and (5) with sparsh (touch). 11. Beings get destroyed (vinighaat) by five sthaans (subjects)-(1) by shabd (sound), (2) by rupa (form or appearance), (3) by gandh ( smell ), ( 4 ) by rasa (taste) and (5) by sparsh (touch).
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Elaboration-The five terms including sang (contact), raag (attachment) and murchchha (fondness) present the gradual increase in intensity of obsession. For example-(1) Sang is contact with subjects of sense organs. (2) Raag is attachment with them. ( 3 ) Murchchha is to 5 पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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B) ) )) ) ) ) ) )) ) ) ) ) ) )) ) ) ) )) ) ) ) ) ) 55 ignore the setbacks due to indulgence and to think of perpetuating the s experience. (4) Griddhi is discontent with the acquired and wish to
acquire more. (5) Adhyupapannata is to get fully absorbed in indulgence
and intensely think for more. (Vritti Part-2, p. 502) ॐ १२. पंच ठाणा अपरिण्णाता जीवाणं अहिताए असुभाए अखमाए अणिस्सेस्साए अणाणुगामियत्ताए
भवंति, तं जहा-सद्दा जाव (रूवा, गंधा, रसा), फासा। १३. पंच ठाणा सुपरिण्णाता जीवाणं हिताए म सुभाए, जाव (खमाए णिस्सेस्साए) आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा-सद्दा, जाव (रूवा, गंधा, रसा), फासा।
१२. पाँच स्थान अपरिज्ञात होने से जीवों के अहित के लिए, अशुभ के लिए, अक्षमता के लिए, + अनिःश्रेयस् के लिए और अननुगामिता के लिए होते हैं-(१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, 5
(५) स्पर्श। १३. ये ही शब्द आदि पाँच स्थान सुपरिज्ञात होने से जीवों के हित के लिए, शुभ के लिए, क्षमता के लिए, निःश्रेयस् के लिए और अनुगामिता के लिए होते हैं।
12. When aparijnat (not properly known and not consciously renounced) five sthaans (subjects) entail ahit (harm), ashubh (demerit), akshamata (shortcomings), anihshreyas (misfortune) and ananugamita
iction)-(1) shabd (sound), (2) rupa (form or appearance), (3)gandh (smell), (4) rasa (taste) and (5) sparsh (touch). 13. When suparijnat 4 (known and renounced) these very five sthaans (subjects) entail hit 4
(benefit), shubh (merit), kshamata (ability), nihshreyas (fortune) and __anugamita (endowment).
विवेचन-अपरिज्ञात का भाव है-इनको जाने बिना और त्याग किये बिना। सुपरिज्ञात का अर्थ है- ' जाने और प्रत्याख्यान करे। (१) अहित-अपाय या अनिष्ट। (२) अशुभ-पुण्य रहित। (३) अक्षम
असामर्थ्य या अनौचित्य, (४) अनिःश्रेयस-अकल्याण, (५) अननुगामिता-परलोक आदि में उपकार की ज म दृष्टि से साथ नहीं देने वाला। वैसे प्रतिपाद्य विषय पर अधिक बल देने के लिए इन शब्दों का प्रयोग के किया गया है। (वृत्ति भाग २ पृष्ठ ५०३)
Elaboration-Aparijnat indicates—without knowing and renouncing these. Suparijnat indicates—to know and renounce these. Ahit-harm or injury. Ashubh-devoid of punya or merit. Akshamata--inability or shortcomings. Anihshreyas-misfortune or detriment. Ananugamitastate of being deserted by virtues that lead to future beatitude. These terms have been used here for special emphasis on the subject under reference. (Vritti Part-2, p. 503)
१४. पंच ठाणा अपरिण्णाता जीवाणं दुग्गतिगमणाए भवंति, तं जहा-सद्दा, जाव (रूवा, गंधा, रसा), फासा। १५. पंच ठाणा सुपरिण्णाता जीवाणं सुगतिगमणाए भवंति, तं जहा-सद्दा, ऊ जाव (रूवा, गंधा, रसा), फासा।
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स्थानांगसूत्र (२)
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१४. निम्न पाँच स्थान जब अपरिज्ञात होते हैं तो जीवों के दुर्गतिगमन के कारण होते हैं: (१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) स्पर्श। १५. उक्त शब्द आदि पाँच स्थान सुपरिज्ञात होने पर जीवों के सुगतिगमन के कारण होते हैं।
14. If aparijnat (not known and not renounced) five sthaans (subjects) cause durgati (bad rebirth)-(1) shabd (sound), (2) rupa (form or appearance), (3) gandh (smell), (4) rasa (taste) and (5) sparsh (touch). 15. If parijnat (known and renounced) these very five sthaans (subjects) cause sugati (good rebirth). आस्रव-संवर-पद ASRAVA-SAMVAR-PAD
(SEGMENT OF INFLOW AND BLOCKAGE OF KARMAS) १६. पंचहिं ठाणेहिं जीवा दोग्गतिं गच्छति, तं जहा-पाणातिवातेणं जाव (मुसावाएणं, अदिण्णादाणेणं, मेहुणेणं), परिग्गहेणं। १७. पंचहिं ठाणेहिं जीवा सोग्गतिं गच्छंति, तं जहापाणातिवातवेरमणेणं जाव (मुसावायवेरमणेणं, अदिण्णादाणवेरमणेणं,) परिग्गहवेरमणेणं।
१६. निम्न पाँच कारणों से जीव दुर्गति को प्राप्त होते हैं-(१) प्राणातिपात से, (२) मृषावाद से, (३) अदत्तादान से, ४. मैथुन से, (५) परिग्रह से। १७. पाँच कारणों-प्राणातिपातन आदि यावत् परिग्रह के विरमण से जीव सुगति में जाते हैं।
16. Five reasons for bad rebirth of beings are-(1) Pranatipat (harming or destroying life). (2) Mrishavad (falsity). (3) Adattadan (stealing). (4) Maithun (indulgence in sexual activities). (5) Parigraha (acts of possession of things). 17. Five reasons cause good rebirth of beingsviraman (abstaining) from the said five acts including Pranatipat (harming or destroying life). प्रतिमा-पद PRATIMA-PAD (SEGMENT OF SPECIAL CODES)
१८. पंच पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, सव्वतोभद्दा, भदुत्तरपडिमा।
१८. प्रतिमाएँ-(तप साधना की विशिष्ट विधियाँ) पाँच हैं-(१) भद्रा प्रतिमा, (२) सुभद्रा प्रतिमा, (३) महाभद्रा प्रतिमा, (४) सर्वतोभद्रा प्रतिमा, (५) भद्रोत्तर प्रतिमा। इनका विवेचन दूसरे स्थान के सूत्र २४३ पर किया जा चुका है।
18. There are five pratimas (special codes of austesities)—(1) bhadraa pratima, (2) subhadraa pratima, (3) mahabhadraa pratima, (4) sarvatobhadraa pratima and (5) bhadrotar pratima. (for details refer to Sthaan two aphorism 243)
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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卐
स्थावरकाय-पद STHAVARAKAYA-PAD
(SEGMENT OF IMMOBILE BODIED BEINGS)
१९. पंच थावरकाया पण्णत्ता, तं जहा- इंदे थावरकाए, बंभे थावरकाए,
सम्मति थावरकाए, पायावच्चे थावरकाए ।
१९. पाँच स्थावर काय हैं - ( १ ) इन्द्रस्थावर काय - पृथ्वीकाय, ( २ ) ब्रह्मस्थावर काय - अप्काय, (३) शिल्पस्थावर काय - तेजस्काय, (४) सम्मतिस्थावरकाय - वायुकाय, ( ५ ) प्रजापत्यस्थावरकायवनस्पतिकाय ।
19. There are five sthavarakaya (immobile bodied beings)
beings),
(1) Indrasthavarakaya-prithvikaya (2) Brahmasthavarakaya-apkaya
(3) Shilpasthavarakaya-tejaskaya
(4) Sammatisthavarakaya-vayukaya (5) Prajapatyasthavarakaya-vanaspatikaya (plant-bodied beings). २०. पंच थावरकायाधिपती पण्णत्ता, तं जहा - इंदे थावरकायाधिपती, जाव (बंभे थावरकायाधिपती, सिप्पे थावरकायाधिपती, सम्मती
थावरकायाधिपती ),
थावरकायाधिपती ।
अतिशेषज्ञान
सिप्पे थावरकाए,
(earth-bodied (water-bodied (fire-bodied
स्थानांगसूत्र ( २ )
beings),
२०. पाँच स्थावरकायों के अधिपति
(२) अपस्थावरकायाधिपति - ब्रह्मा । (३) तेजस् स्थावरकायाधिपति -- शिल्प । (४) वायु स्थावरकायाधिपति - सम्मति । (५) वनस्पति स्थावरकायाधिपति - प्राजापत्य ।
20. There are five adhipati (overlords or ruling deities) of sthavarakaya (immobile bodied beings)—(1)
sthavarakayadhipati-Indra, (2) ap sthavarakayadhipati-Brahma, (3) tejas sthavarakayadhipati-Shilpa, (4) vayu sthavarakayadhipatiSammati and (5) vanaspati sthavarakayadhipati - Prajapatya.
विवेचन - जिस प्रकार दिशाओं के अधिपति इन्द्र, अग्नि आदि हैं, नक्षत्रों के अधिपति अश्वि, यम आदि हैं, उसी प्रकार इन्द्र आदि पाँचों स्थावरकायों के अधिपति हैं । (वृत्ति भाग २ पृष्ठ ५०४)
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(air-bodied beings) and
beings), 5
पायावच्चे
हैं- (१) पृथ्वी स्थावरकायाधिपति - इन्द्र ।
Elaboration Indra, Agni, Yama and others are overlords or ruling 5 deities of cardinal directions and constellations, in the same way there are ruling deities of five classes of immobile bodied beings as listed above. (Vritti Part-2, p. 504)
दर्शन-पद ATISHESH JNANA DARSHAN PAD
२१. पंचर्हि ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पज्जिकामेवि तप्पढमयाए खंभाएज्जा, तं जहा(१) अप्पभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा ।
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Sthaananga Sutra (2)
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))))))) )))))) (२) कुंथुरासिभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा। (३) महतिमहालयं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा।
(४) देवं वा महिड्डियं जाव (महज्जुइयं महाणुभागं महायसं महाबलं) महासोरां पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा।
(५) पुरेसु वा पोराणाई उरालाई महतिमहालयाई महाणिहाणाई पहीणसामियाइं पहीणसेउयाई पहीणगुत्तागाराई उच्छिण्णसामियाइं उच्छिण्णसेउयाइं उच्छिण्णगुत्तागाराइं जाइं इमाइं गामागर-णगर-खेड-कब्बडमंडब-दोणमुहपट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघाडगतिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह पहेसु णगर-णिद्धमणेसु सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदरसंति-सेलोवट्टावण-भवण-गिहेसु संणिक्खित्ताइ चिटुंति, ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए खंभाएज्जा।
इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए खंभाएज्जा।
२१. पाँच कारणों से अवधि-(ज्ञान-) दर्शन उत्पन्न होता हुआ अपने प्रारम्भिक क्षणों में ही स्तम्भित-(विचलित) हो जाता है
(१) पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देख कर, (विक्षोभ व विस्मय के कारण) (२) कुंथु जैसे अति क्षुद्र (सूक्ष्म) जीवराशि से भरी हुई पृथ्वी को देखकर, (दया के कारण) (३) बड़े-बड़े महोरगों(साँपों) के शरीरों को देखकर, (भय के कारण) (४) महाऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महानुभाव, महान् यशस्वी, महान् बलशाली और महान् सुख वाले देवों को देखकर, (लालसा वश)
(५) पुरों में, ग्रामों में, आकरों में, नगरों में, खेटों में, कर्वटों में, मडम्बों में, द्रोणमुखों में, पत्तनों में, आश्रमों में, संबाधों में, सन्निवेशों में, नगरों के शृंगाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों, चौमुहानों और छोटे-बड़े मार्गों में, गलियों में, नालियों में, श्मशानों में, शून्य गृहों में, गिरिकन्दराओं में, शान्तिगृहों में, शैलगृहों में, उपस्थापनगृहों और भवन गृहों में दबे हुए एक से एक बड़े महानिधानों (धन के भण्डारों या खजानों को) को जिनके कि स्वामी मर चुके हैं, जिन तक पहुँचने के मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत भुला दिये गये हैं और जिनके उत्तराधिकारी कोई नहीं हैं।
उक्त पाँच कारणों से उत्पन्न होता हुआ अवधि-(ज्ञान-)-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित अथवा चलित हो जाता है।
21. For five reasons emerging avadhi (inana and) darshan gets stambhit (arrested) during the initial moments of its emergence
(1) by seeing the earth to be infested with minute organisms (out of dejection and surprise). (2) by seeing the earth abounding in small worm-like beings (out of compassion). (3) by seeing the bodies of giant snake-like reptiles (out of fear). (4) by seeing gods with supreme wealth,
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supreme radiance, supreme qualities, supreme fame, supreme power and 4 supreme happiness (out of craving).
(5) Seeing the lost, forgotten and unclaimed immense treasures left by deceased owners buried at places like pur (towns), gram (villages), aakar (settlement near a mine), nagar (city), khet (kraal), karbat (market), madamb (borough), dronmukh (hamlet), pattan (harbour), ashram (hermitage), samvah (settlement in a valley), and sannivesh (temporary settlement), shringatak (triangular plaza), trikpath (trisection), chatushkapath (crossing), chaturmukh (square), mahapath (highway), path (street), nagar-nirdhaman (drains and gutters in the city), smashan (cremation ground), shunya griha (abandoned house),
giri-kandara (cave), shanti-griha (house for rituals), shailagriha (hill15 abode), upasthapan griha (assembly hall), and bhavan griha (servants 卐 quarters). .
For the aforesaid five reasons emerging avadhi (jnana and) darshan i gets stambhit (arrested) during the initial moments of its emergence. - विवेचन-विशिष्ट ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति या विभिन्न ऋद्धियों की प्राप्ति निश्चल ध्यानावस्थित साधु ॐ को होती है। ध्यानावस्था में व्यक्ति की दृष्टि नासाग्र पर स्थिर रहती है, अतः विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न म होने पर उसे सर्वप्रथम पृथ्वीगत जीव दृष्टिगोचर होते हैं। तदनन्तर पृथ्वी पर विचरने वाले कुन्थु आदि के
अत्यन्त छोटे-छोटे जन्तु विपुल परिमाण में दिखाई देते हैं। तत्पश्चात् भूमिगत बिलों आदि में बैठे विभिन्न रंग व विचित्र शरीर वाले सांपराज, नागराज आदि दिखाई देते हैं। फिर महावैभवशाली देव दृष्टिगोचर है
होते हैं और ग्राम-नगरादि की भूमि में दबे गड़े हुए खजाने भी दिखने लगते हैं। इन सबको देखकर ॐ सर्वप्रथम उसे विस्मय होता है कि यह मैं क्या देख रहा हूँ ! पुनः सूक्ष्म जीवों से व्याप्त पृथ्वी को देखकर म
उनके प्रति दया व करुणाभाव भी जागृत हो सकता है। बड़े-बड़े साँपों को देखने से भयभीत भी हो
सकता है और भूमिगत खजानों/विपुल धन भण्डारों को देखकर वह लोभ से भी अभिभूत हो सकता है। फ़ इस प्रकार विस्मय, दया, लोभ, और भय की भावना के कारण अथवा इनमें से किसी एक-दो या सभी
कारणों से ध्यानावस्थित व्यक्ति का चित्त चलायमान होना स्वाभाविक है। + यदि वह उस समय चल-विचल न हो तो तत्काल उसे विशिष्ट अतिशय सम्पन्न ज्ञान-दर्शना आदि
उत्पन्न हो जाते हैं और यदि उक्त कारणों के निमित्त से चल-विचल हो जाता है, तो ज्ञान-दर्शन उत्पन्न 卐 होते हुए भी रुक जाते हैं-उत्पन्न नहीं होते।
वृत्तिकार का कथन है, अवधिज्ञान दर्शन उत्पन्न होने से पूर्व साधक के मन में पृथ्वी व जीव राशि 卐 के विषय में कुछ भिन्न प्रकार की कल्पना होती है, जब वह अपनी कल्पना के विपरीत देखता है तो ॐ उसका ज्ञान क्षुब्ध हो जाता है।
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3555555555555555555555555555555555555 - सूत्रोक्त ग्राम-नगरादि का अर्थ दूसरे स्थान के सूत्र ३९० के विवेचन में किया जा चुका है। शृंगाटक 5 आदि कुछ नवीन शब्द आये हैं, उनका अर्थ इस प्रकार है-शृंगाटक-सिंघाड़े के आकार वाला तीन मार्गों के
का मध्य भाग। त्रिकपथ-तिराहा, तिगड्डा-जहाँ पर तीन मार्ग मिलते हैं। चतुष्कपथ-चौराहा, चौक-जहाँ की
पर चार मार्ग मिलते हैं या अनेक छोटे रास्ते मिलते हैं। चतुर्मुख-चौमुहानी-जहाँ पर चारों दिशाओं के । मार्ग निकलते हैं। अथवा चार द्वार वाला देव मन्दिर। पथ-सामान्य मार्ग, गली आदि। महापथ-5
राजमार्ग-चौड़ा रास्ता। नगर-निर्द्धमन-नगर की नाली, नाला आदि। शान्तिगृह-शान्ति कर्म, हवन आदि करने का स्थान। शैलगृह-पर्वत को काट कर या खोद कर बनाया हुआ घर। उपस्थानगृह-सभामंडप। ॥ भवनगृह-नौकर-चाकरों आदि के रहने का मकान।
विशेष शब्दों के अर्थ-पहीणसामियाइं-जिन भूमिगत निधानों का कोई स्वामी नहीं है, पहीणसेउयाईजिनका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं है, पहीणगुत्तागाराइं-जिनके नाम, गोत्र व चित्र आदि चिन्ह भी नष्ट हो चुके हैं।
Elaboration-An ascetic involved in unwavering meditation is in a 45 position to acquire higher knowledge and perception as well as different special powers. In such state of meditation eyes are focussed on the tip of his nose. Therefore the first thing he sees on emergence of special knowledge and perception is living organisms inside the earth. After that he sees abundance of worm-like minute beings crawling on the earth. Then he sees a variety of serpents and other reptiles in their holes. After this he sees extremely glorious divine beings and great treasures hidden or buried at various places. On seeing these first of all he may get astonished about what he saw. After this he may get overwhelmed with a feeling of pity. He may also be filled with fear on seeing large serpents and swept by greed on seeing immense treasures. Thus it is natural that a meditating person may get distracted due to any one or more of the sentiments of surprise, pity, fear and greed.
If he does not get distracted or moved he at once acquires special knowledge and perception. If he gets moved for the said reasons these qualities are arrested before they have a chance to emerge.
The commentator adds that prior to emergence of avadhi jnana and darshan the aspirant has a different concept about the earth and beings. When he sees that the reality is different than what he believed he gets disturbed.
Meanings of the terms for places occurring in the text have been given in the parenthesis. Other technical terms are-Pahinasamiyaimburied treasure without known owners. Pahinaseuyaim—those without पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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卐 any claimants. Pahinaguttagaraim-those whose name, class, sketch and other signs have been lost.
२२. पंचहिं ठाणेहिं केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा, तं जहा
(१) अप्पभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। (२) सेसं तहेव जाव (कुंथुरासिभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा)। (३) महतिमहालयं वा महोरगसरीरं पासित्ता ॐ तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। (४) देवं वा महिड्डियं महज्जुइयं महाणुभागं महायसं महाबलं महासोक्खं है पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। (५) (पुरेसु वा पोराणाई उरालाई महतिमहालयाई ॐ महाणिहाणाई पहीणसामियाई पहीणसेउयाई पहीणगुत्तागाराई उच्छिण्णसामियाई उच्छिण्णसेउयाई
उच्छिण्णगुत्तागाराई जाई इमाई गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम+ संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु-णगर-णिद्धमणेसु3 सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदर-संति सेलोवट्ठावण) भवन-गिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिटुंति, ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा।
सेसं तहेव। इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव (केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए) ॐ जाव णो खंभाएज्जा।
२२. पाँच कारणों से उत्पन्न होता हुआ केवल-ज्ञान-दर्शन अपने प्रारम्भिक क्षणों में स्तम्भित या के क्षुब्ध नहीं होता है-(१) पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देखकर, (२) कुंथु आदि सूक्ष्म जीव-राशि + से भरी हुई पृथ्वी को देखकर, (३) बड़े-बड़े महोरगों के शरीरों को देखकर, (४) महा ऋद्धि वाले, ॐ महाद्युति वाले, महानुभाव, महान् यशस्वी, महान् बलशाली और महान् सुख वाले देवों को देख कर, ॐ 5 (५) पुरों में, ग्रामों में, आकरों में, नगरों में, खेटों में, कर्वटों में, मडम्बों में, द्रोणमुखों में, पत्तनों में, 5 4 आश्रमों में, संबाधों में, सन्निवेशों में, शृंगाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों, चौमुहानों और छोटे-बड़े मार्गों म में गलियों में, नालियों में, श्मशानों में, शून्य गृहों में, गिरिकन्दराओं में, शान्तिगृहों में, शैलगृहों में,
उपस्थानगृहों में और भवन-गृहों में दबे हुए एक से एक बड़े महानिधानों को,-जिन तक पहुँचने के मार्ग ॐ प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत विस्मृत प्रायः हो चुके हैं और जिनके उत्तराधिकारी कोई म नहीं हैं, उन्हें देखकर।
वृत्तिकार के अनुसार उनके चलायमान नहीं होने के मुख्य चार हेतु हैं-(१) यथार्थ वस्तु दर्शन, (२) मोहनीय कर्म का क्षीण हो जाना, (३) भय, विस्मय व लोभ का सर्वथा अभाव ४ अति गम्भीरता।
इन पाँचों कारणों से उत्पन्न होता हुआ केवल ज्ञान-दर्शन अपने प्रारम्भिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता।
22. For five reasons emerging Keval (jnana and) darshan does not get stambhit (arrested) during the initial moments of its emergence
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(1) by seeing the earth to be infested with minute organisms (out of 55 alarm and surprise). (2) by seeing the earth abounding in small wormlike beings (out of pity). (3) by seeing the bodies of giant snake-like reptiles (out of fear). (4) by seeing gods with supreme wealth, supreme radiance, supreme qualities, supreme fame, supreme power and supreme happiness (out of craving). (5) by seeing the lost, forgotten and unclaimed immense treasures left by deceased owners buried at places like pur (towns), gram (villages), aakar (settlement near a mine), nagar (city), khet (kraal), karbat (market), madamb (borough), dronmukh (hamlet), pattan (harbour), ashram (hermitage), samvah (settlement in a valley), and sannivesh (temporary settlement), shringatak (triangular plaza), trikpath (trisection), chatushkapath (crossing), chaturmukh (square), mahapath (highway), path (street), nagar-nirdhaman (drains and gutters in the city), smashan (cremation ground), shunya griha (abandoned house), giri-kandara (cave), shanti-griha (house for rituals), shailagriha (hill-abode), upasthapan griha (assembly hall), and bhavan griha (servants quarters).
According to the commentator there are four reasons for the Avadhidarshan not being impeded-(1) perceiving the realty, (2) shedding of Mohaniya karma, (3) complete absence of fear, surprise and greed and (4) perfect serenity.
For these five reasons emerging Keval jnana and darshan does not get stambhit (arrested) during the initial moments of its emergence.
Elaboration-The five reasons mentioned in the preceding aphorism have been repeated as not causing arrest in emergence of Keval jnana and darshan (omniscience). This is because avadhi jnana can emerge even in a person with lesser strength and capacity of physical
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विवेचन - पूर्व सूत्र में जो पाँच कारण बताये गये थे, वे ही पाँच कारण केवल ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होने में बाधक नहीं होते। क्योंकि अवधिज्ञान तो हीन संहनन और हीन सामर्थ्य वाले मनुष्यों को भी उत्पन्न हो सकता है, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन तो वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, उसमें भी जो घोरातिघोर 5 परीषह और उपसर्गों से भी चलायमान नहीं होते, उन्हीं को होता है । उनके विस्मय, भय और लोभ का कोई कारण ही शेष नहीं रहा है। ऐसे परमवीतरागी क्षीण मोह बारहवें गुणस्थान वाले पुरुष को विघ्न-बाधाओं फ्र वाले कारण उत्पन्न होते हुए केवलज्ञान और केवलदर्शन को नहीं रोक सकते हैं।
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constitution but Keval jnana and Keval darshan can emerge only in the 卐 persons having Vajrarishabhanarach samhanan (the toughest body constitution). That too in only those who remain unmoved even in the
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face of extreme afflictions and torments. They are left with no reason for 45 surprise, fear and greed. No such impediments or obstruction can arrest
the emergence of Keval jnana and darshan in such completely detached 4 individuals at the twelfth Gunasthan who are totally devoid of any trace
of fondness.
w听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听5555听听听听听听听F5F55
卐 शरीर-पद SHARIRA-PAD (SEGMENT OF BODY)
२३. णेरइयाणं सरीरगा पंचवण्णा पंचरसा पण्णत्ता, तं जहा-किण्हा जाव [ णीला, लोहिता, हालिद्दा ], सुक्किल्ला। तित्ता, जाव [ कडुया,कसाया, अंबिला ], मधुरा। २४. एवं-णिरंतरं जाव क वेमाणियाणं।
२३. नारकी जीवों के शरीर पाँच वर्ण और पाँच रस वाले होते हैं-(१) कृष्ण, यावत् [नील, लोहित, हारिद्र] और श्वेत वर्ण वाले। (२) तिक्त, [कटुक, कषाय, अम्ल] और मधुर रस वाले।
२४. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों वाले जीवों के शरीर पाँचों वर्ण और पाँचों रस वाले हैं।
23. The bodies of infernal beings are of five varna (colours) and five rasa (tastes)-(1) Krishna (black), ...and so on up to... [neel (blue), lohit (red), haridra (yellow)] and shukla (white). (2) Tikta (bitter), ...and so on up to... [katu (pungent), kashaya (astringent), amla (sour)] and madhur (sweet).
24. In same way bodies of all beings belonging to all dandaks up to Vaimanik gods are of five varna (colours) and five rasa (tastes).
२५. पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, वेउविए, आहारए, तेयए, कम्मए।
२५. शरीर पाँच प्रकार के होते हैं-(१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) आहारक, (४) तैजस, + (५) कार्मण।
25. Sharira (bodies) are of five kinds-(1) audarik sharira (gross physical body), (2) vaikriya sharira. (transmutable body), (3) aharak 卐 sharira (telemigratory body), (4) taijas sharira (fiery body) and (5) karman sharira (karmic body).
२६. ओरालियसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा-किण्हे, जाव [णीले, लोहिते, हालिद्दे ], सुक्किल्ले। तित्ते, जाव [ कडुए, कसाए, अंबिले ], महुरे। २७. एवं जाव कम्मगसरीरे। म [ वेउब्वियसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा-किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले। ॐ तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, मुहरे। २८. आहारयसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा| स्थानांगसूत्र (२)
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किण्हे, पीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे । २९. तेययसरीरे फ्र पंचवणे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा - किण्हे, णीले, लोहिते, हालिद्दे, सुक्किल्ले । तित्ते, कडुए,
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कसाए, अंबिले, महुरे । ३० कम्मगसरीरे पंचवण्णे पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा - किण्हे, णीले, 5 कडुए, कसाए, अंबिले, महुरे ।
लोहिते, हालिदे, सुक्किल्ले । तित्ते,
२६. औदारिक शरीर पाँच वर्ण और पाँच रस वाला होता है - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) लोहित,
फ्र
(४) हारिद्र और (५) श्वेत वर्ण वाला । (१) तिक्त, (२) कटुक, (३) कषाय, (४) अम्ल और (५) मधुर 5
रस वाला । २७. इसी प्रकार वैक्रिय शरीर पाँच वर्ण और पाँच रस वाला होता है । २८. आहारक
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शरीर पाँच वर्ण और पाँच रस वाला होता है। २९. तैजस् शरीर पाँच वर्ण और पाँच रस वाला होता है । ३०. कार्मण शरीर पाँच वर्ण और पाँच रस वाला होता है।
26. Audarik sharira is of five varna (colours) and five rasa (tastes ) -
(1) krishna (black), (2) neel (blue), (3) lohit (red), (4) haridra (yellow) and (5) shukla (white ) colours. ( 1 ) tikta (bitter ), (2) katu ( pungent), 5 ( 3 ) kashaya ( astringent ), ( 4 ) amla (sour) and (5) madhur (sweet) tastes. 5 27. In the same way vaikriya sharira (transmutable body) is of five 5 colours and five tastes. 28. Aharak sharira (telemigratory body) is of five colours and five tastes. 29. Taijas sharira ( fiery body) is of five colours and five tastes. 30. Karman sharira (karmic body) is of five colours and five tastes.
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३१. सव्वेवि णं बादरबोंदिधरा कलेवरा पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा ।
३१. सभी बादर (स्थूल) शरीर के धारक कलेवर पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले होते हैं। (पाँच शरीर का विशेष वर्णन व चित्र देखें अनुयोग द्वार भाग - २ पृष्ठ २२५)
(SEGMENT OF DIFFERENCE IN RELIGIOUS ORDERS)
३२. पंचहि ठाणेहिं पुरिम - पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा- दुआइक्खं, दुव्विभज्जं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं । ३३. पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा - सुआइक्खं, सुविभज्जं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं ।
31. All beings having badar sharira (gross body) have five colours, five tastes, two smells and eight touches. (for more information about five bodies see Illustrated Anuyogadvar Sutra, part-2, p. 225)
फ्र
तीर्थभेद - पद TIRTHABHED-PAD
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३२. प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन में ये पाँच स्थान दुर्गम (दुर्बोध्य / कठिन) होते हैं(१) दुराख्येय - धर्मतत्त्व का व्याख्यान करना । (२) दुर्विभाज्य तत्त्व को अपेक्षा दृष्टि से समझाना । (३) दुर्दर्श - तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना। ( ४ ) दुस्तितिक्ष-उपसर्ग - परीषहादि का सहन करना। फ्र
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卐 (५) दुरनुचर-धर्म का परिपूर्ण आचरण करना। ३३. मध्यवर्ती (बाईस) तीर्थंकरों के शासन में उक्त ॥
पाँच स्थान सुगम (सुबोध्य/सरल) होते हैं--(१) स्वाख्येय-धर्मतत्त्व का व्याख्यान करना।
(२) सविभाज्य-तत्त्व को अपेक्षा दष्टि से समझना। (३) सपश्य-तत्त्व का यक्तिपर्वक 5 निदर्शन का + (४) सुतितिक्ष-उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना। (५) स्वनुचर-धर्म का आचरण करना।
32. During the period of influence of the first and last Tirthankar 卐 these five sthaans (matters) are durgam (abstruse and difficult)
(1) Durakhyeya-to preach religious fundamentals. (2) Durvibhajyato properly explain fundamentals from different angles. (3) Durdarsh
to logically elaborate fundamentals. (4) Dustitiksha-to endure ॐ afflictions and torments. (5) Duranuchar-to perfectly follow religious
conduct. 33. During the period of influence of the intervening twenty two Tirthankars the said five sthaans (matters) are sugam (easy and simple)-(1) Svakhyeya--to preach religious fundamentals. (2) Suvibhajya-to properly explain fundamentals. (3) Supashya-to logically elaborate fundamentals. (4) Sutitiksha-to endure afflictions. and torments. (5) Svanuchar-to perfectly follow religious conduct.
विवेचन-प्रथम तीर्थंकर के शासन में साधु ऋजु जड़ सरल और मन्दबुद्धि होते हैं। अन्तिम तीर्थंकर
के समय के साधु वक्र (कुटिल) और आग्रही होते हैं, इसलिए उन दोनों को तत्त्व समझाना आदि दुर्गम ॐ होता है। प्रथम तीर्थंकर के समय के पुरुष अधिक सुकुमार होते हैं, उन्हें परीषहादि सहना कठिन होता 卐 है और अन्तिम तीर्थंकर के समय के पुरुष चंचल मनोवृत्ति वाले होते हैं, उनमें तितिक्षा और अनुपालन
की शक्ति कम होती है। इस कारण उन्हें परीषहादि सहना कठिन होता है। ____ मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय के पुरुष ऋजु प्राज्ञ (सरल और बुद्धिमान्) होते हैं, अतः उनको धर्मतत्त्व समझाना, परीषहादि सहन करना और धर्म का पालन करना सभी सुगम होते है।
Elaboration-During the period of influence of the first Tirthankar ascetics are riju and jad (simple and dull). During the period of influence of the last Tirthankar ascetics are crooked and dogmatic. Therefore it is difficult to teach and explain them the fundamentals. During the first Tirthankar's age people are comparatively delicate to be able to endure afflictions. During the last Tirthankar's period people are unstable and as a result they have lesser degree of tolerance and resolve. Thus it is difficult for them to endure afflictions.
During the periods of the intervening twenty two Tirthankars people are simple and intelligent. Therefore, for them it is easy to understand fundamentals, endure afflictions and follow religious conduct.
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| स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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भिक्षाभिग्रह - पद BHIKSHABHIGRAHA-PAD
(SEGMENT OF SPECIAL RESOLVES FOR ALMS COLLECTION) ३४. पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चमन्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा - खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे । ३५. पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं जाव (समणाणं णिग्गंथाणं 5 णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तियाइं णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाइं णिच्चं ) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा - सच्चे संजमे, तवे, चियाए, बंचेरवासी ।
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३४. श्रमण भगवान्ं महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्त्तित किये 5 हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं- ( १ ) क्षान्ति (क्षमा), (२) मुक्ति (निर्लोभता), फ्र (३) आर्जव (सरलता), (४) मार्दव (मृदुता) और (५) लाघव (लघुता) । ३५. श्रमण भगवान् महावीर ने फ श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्त्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं 5 और अभ्यनुज्ञात किये हैं- (१) सत्य, (२) संयम, (३) तप, (४) त्याग और (५) ब्रह्मचर्य ।
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34. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan 5 Mahavir has described (varnit), glorified (hirtit), explained (vyakta), 5 praised (prashansit), and commanded (abhyanujnat) five sthaans (virtues ) — (1) kshanti (forgiveness ), ( 2 ) mukti (freedom from greed), फ ( 3 ) arjava (simplicity), (4) mardava (gentleness) and (5) laghava फ्र (humbleness). 35. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described (varnit), glorified ( kirtit), explained 5 (vyakta), praised (prashansit ), and commanded ( abhyanujnat) five 卐 sthaans (virtues)-(1) satya (truth), (2) samyam (discipline), (3) tap (austerities), (4) tyag (detachment) and (5) brahmacharya (celibacy).
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विवेचन- इन दो सूत्रों में १० श्रमण धर्म का कथन है । वर्णित आदि शब्दों के अर्थ- वर्णित - फल की दृष्टि से वर्णन किया है। कीर्तित नाम रूप से उल्लेख किया है। व्यक्त-स्वरूप का कथन किया है। प्रशंसित - 5 प्रशंसा की है । अभ्यनुज्ञात- पालन करने का निर्देश दिया है। (वृत्ति, भाग २ पृष्ठ ५११ )
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Elaboration These two aphorisms state the ten virtues included in ascetic conduct. The words laying emphasis on these are explained here. Varnit-described with reference to the fruits thereof. Kirtit-included in the list of the glorious. Vyakta-explained the meaning and form. Prashansitpraised. Abhyanujnat-commanded to observe them. (Vritti part-2, p. 511 )
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३६. पंच टाणाई समणेणं जाव ( भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई, 5 णिच्चं कित्तिताई, णिच्चं बुइयाई, णिच्चं पसत्थाई, णिच्चं ) अब्भणुण्णाताई भवंति तं जहा- 5 उक्खित्तचर, णिक्खित्तचरए, अंतचरए, पंतचरए, लूहचरए ।
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Fifth Sthaan: First Lesson
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३६. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित किये हैं, फ कीर्त्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं- ( १ ) उत्क्षिप्तचरक - रांधने के 5 5 पात्र में से पहले ही बाहर निकाला हुआ निर्दोष आहार ग्रहण करने वाला अभिग्रहधारी । 15 ( २ ) निक्षिप्तचरक - यदि गृहस्थ राँधने के पात्र में से आहार दे तो मैं ग्रहण करूँगा, ऐसा अभिग्रह करने 5 वाला । (३) अन्तचरक - गृहस्थ- परिवार के भोजन करने के पश्चात् बचा खुचा आहार ग्रहण करने 5 वाला अभिग्रहधारी । ( ४ ) प्रान्तचरक - तुच्छ या वासी आहार लेने का अभिग्रहधारी । (५) रूक्षचरक - सर्व 5 प्रकार के रसों से रहित रूखा आहार ग्रहण करने का अभिग्रहधारी ।
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சுழத்தமிழசுததமிமிமிமிமிமிமிததமி***தமிமிமிமிமிததமிழில்
36. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five sthaans (special resolves)-(1) Utkshiptacharak-having resolved to accept only the portion taken out from the cooking pot in advance. (2) Nikshiptacharak-having resolved to accept only if served directly 5 from the cooking pot. (3) Antacharak - having resolved to accept only if फ्र offered leftovers after the family has eaten. (4) Prantacharak-having resolved to accept only if the food is insipid or stale. (5) Rukshacharakhaving resolved to accept only if the food is dry and tasteless.
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विवेचन - प्रथम दो भाव-अभिग्रह हैं, इनका सम्बन्ध भिक्षाचरी से है। शेष तीन द्रव्य - अभिग्रह हैं । इनका कथन रस परित्याग के अन्तर्गत है ।
Elaboration-First two statements are related to alms seeking and the remaining three are resolves about content of alms indicating abstainment of tasty food.
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३७. पंच ठाणाई जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई 卐 णिच्चं कित्तियाई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाइं णिच्चं ) अब्भणुण्णाताई भवंति तं जहा- 5 अण्णातचरए, अण्णइलायचरए, मोणचरए, संसट्टकप्पिए, तज्जातसंसट्टकप्पिए ।
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३७. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच ( अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित, कीर्त्तित, व्यक्त, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात किये हैं- (१) अज्ञातचरक - अपनी जाति - कुलादि को बताये बिना भिक्षा लेने वाला। (२) अन्यग्लायकचरक - दूसरे रोगी मुनि के लिए भिक्षा लाने वाला अथवा भूख लगने पर ही भिक्षाचरी करने वाला । (३) मौनचरक - मौनपूर्वक भिक्षा लाने वाला। (४) संसृष्टकल्पिकभोजन से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से भिक्षा लेने वाला । (५) तज्जात - संसृष्टकल्पिक -देय द्रव्य से लिप्त हाथ आदि से भिक्षा लेने वाला ।
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37. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five sthaans (special resolves ) — (1) Ajnatacharak - having resolved to seek 5
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நிதிமிக்கது*******மிமிததமி***************ழிழி
alms without revealing his caste and family. (2) Anyaglayakacharak— having resolved to seek alms only for some ailing ascetic or only when one is hungry. (3) Maunacharak-having resolved to seek alms silently. (4) Samsrishtakalpik-having resolved to accept alms only when hands or serving spoon is soiled with food. (5) Tajjat-samsrishta kalpik-having resolved to accept alms only when hands or serving spoon is soiled with the food offered.
३८. पंच ठाणाई जाव ( समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं ) अब्भणुण्णाताई भवंति तं जहाउवणिहिए, सुद्धेसणिए, संखादत्तिए, दिट्ठलाभिए, पुट्ठलाभिए ।
३९. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच ( अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित, कीर्त्तित, व्यक्त, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात किये हैं- ( १ ) आचाम्लिक- 'आयंबिल' करने वाला। (२) निर्विकृतिक - घी आदि विकृतियों का त्याग करने वाला। (३) पूर्वार्धिक - दिन के पूर्वार्ध (प्रथम दो प्रहर में) भोजन नहीं करने के नियम वाला । (४) परिमितपिण्डपातिक - परिमित घरों या परिमित वस्तुओं की भिक्षा लेने वाला । (५) भिन्नपिण्डपातिक - खण्ड-खण्ड किये आहार की भिक्षा लेने वाला ।
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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३८. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित, कीर्त्तित व्यक्त प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात किये हैं- ( १ ) औपनिधिक - उपाश्रय के समीपवर्ती घरों से या अन्य स्थान फ से लाकर गृहस्थ के समीप रखे आहार को लेने वाला । (२) शुद्धैषणिक - एषणा के ४२ दोषों से रहित 5 निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाला। (३) संख्यादत्तिक - सीमित संख्या में दत्तियों की संख्या का नियम 卐 करके आहार लेने वाला । (४) दृष्टलाभिक - सामने प्रत्यक्ष दीखने वाला आहार -पानी लेने वाला। 5 (५) पृष्टलाभिक - 'क्या भिक्षा लोगे ?' ऐसा पूछे जाने पर ही भिक्षा लेने वाला।
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38. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five 5 sthaans (special resolves)-(1) Aupanidhik-having resolved to accept alms only from nearby houses or food brought near the donor from some other place. (2) Shuddhaishanik-having resolved to seek pure alms free of all the 42 faults of alms-seeking. (3) Sankhyadattik-having resolved to accept specific number of servings only. (4) Drishtilabhik—having resolved to accept only out of the visible food. (5) Prishtalabhik-having resolved to accept alms only when asked-"Would you please accept alms?"
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३९. पंच ठाणाई जाव ( समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं ) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा- 5 आयंबिलिए, णिव्विइए, पुरिमड्डिए, परिमितपिंडवातिए, भिण्णपिंडवातिए ॥
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39. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five y și sthaans (special resolves)-(1) Achamlik-having resolved to observe 46
ayambil (eating only once in a day food cooked or roasted comprising of single ingredient and that also without any salt or other condiments). (2) Nirvikritik-having resolved to abstain from eating all proscribed things including butter. (3) Purvardhik--having resolved not to eat food during first two quarters of the day. (4) Parimitapindapatik-having resolved to accept only a limited number of things or only from a limited number of houses. (5) Bhinnapindapatik-having resolved to accept food only in small portions.
४०. पंच ठाणाइं जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई म णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहाॐ अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे॥
४०. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित, कीर्तित, व्यक्त, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात किये हैं-(१) अरसाहार-हींग आदि के बघार व मसालों से रहित भोजन लेने वाला। (२) विरसाहार-पुराने धान्य का भोजन लेने वाला। (३) अन्त्याहार-बचा-खुचा आहार लेने वाला। (४) प्रान्ताहार-तुच्छ आहार लेने वाला। (५) रूक्षाहार-रूखा-सूखा आहार लेने वाला।
40. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five sthaans (special resolves) (1) Arasahar-having resolved to accept food free of any or all condiments and flavours. (2) Virasahar-having resolved to accept food made from fetid grains. (3) Antyahar-having resolved to accept only leftover food. (4) Prantahar-having resolved to accept only insipid or stale food. (5) Rukshahar-having resolved to accept dry and tasteless food.
४१. पंच ठाणाइं जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तियाई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहाअरसजीवी, विरसजीवी, अंतजीवी, पंतजीवी, लूहजीवी।
४१. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित, फ़ कीर्त्तित, व्यक्त, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात किये हैं-(१) अरसजीवी-रस रहित जाहार लेने वाला।
(२) विरसजीवी-रसरहित पुराना धान्य, भात आदि लेने वाला। (३) अन्त्यजीवी-बचा-खुचा आहार लेने ॐ वाला। (४) प्रान्तजीवी-तुच्छ आहार लेने वाला। (५) रूक्षजीवी-रूखा-सूखा आहार लेने वाला।
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41. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five 4 h sthaans (special resolves)-(1) Arasajivi-having resolved to survive only
on food free of all condiments and flavours. (2) Virasajivi—having resolved to survive only on food made from fetid grains. (3) Antyajivi
having resolved to survive only on leftover food. (4) Prantajivi-having F resolved to survive only on insipid or stale food. (5) Rukshajivi—having resolved to survive only on dry and tasteless food.
विवेचन-सूत्र ४० व ४१ में अन्तर यह है कि-प्रथम विकल्प में सीमित काल के लिए तथा दूसरे में । जीवनभर के लिए रसादि का त्याग किया जाता है।
Elaboration—The difference between aphorisms 40 and 41 is that first is for a limited period and the second is lifelong. ध्यान मुद्रा-पद DHYANAMUDRA-PAD (SEGMENT OF MEDITATIONAL POSTURES)
४२. पंच ठाणाइं (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं ॐ कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई) भवंति, तं जहा-ठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, वीरासणिए, णेसज्जिए॥
४२. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित, कीर्त्तित, व्यक्त, है । प्रशंसति और अभ्यनुज्ञात किये हैं। (१) स्थानायतिक-कायोत्सर्ग मुद्रा से खड़े रहकर ध्यान करना। .
(२) उत्कुटुकासनिक-उकडू बैठकर स्वाध्याय करना। (३) प्रतिमास्थायी-प्रतिमा -मूर्ति के समान पद्मासन,
से बैठना वाला अथवा एकरात्रिक आदि भिक्षुप्रतिमा को धारण करना। (४) वीरासनिक-वीरासन से के बैठना। (५) नैषधिक-पालथी लगाकर बैठना।।
42. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five sthaans (special resolves)-(1) Sthanayatik-having resolved to meditate in kayotsarg posture (standing), (2) Utkatukasanik-having resolved to meditate in Utkatukasan (squatting with feet straight on the ground). (3) Pratimasthaayi-having resolved to meditate in lotus pose like an idol (or to observe special austerities like Ekaratrik-meditating throughout the night). (4) Virasanik--having resolved to meditate in Virasan (posture resembling sitting on a chair without a chair). (5) Naishadyik-having resolved to meditate sitting cross-legged.
४३. पंच ठाणाइं (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई) भवंति, तं जहा-दंडायतिए, लगंडसाई, आतावए, अवाउडए, अकंडूयए॥
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४३. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच स्थान सदा वर्णित, कीर्तित, व्यक्त, प्रशंसित और अभ्यनुज्ञात किये हैं- ( १ ) दण्डायतिक- दण्ड के समान सीधे पैर पसार कर चित्त सोना । (२) लगंडशायी - एक करवट से या जिसमें मस्तक और एड़ी भूमि में लगे और पीठ भूमि से ऊपर उठी फ्र रहे, इस प्रकार से सोना । ( ३ ) आतापक - शीत - ताप आदि को सहना । ( ४ ) अपावृतक - वस्त्र - रहित होकर रहना । (५) अकण्डूयक- शरीर को नहीं खुजलाना ।
43. For Shraman Nirgranths (Jain ascetics) Shraman Bhagavan Mahavir has described, glorified, explained, praised and commanded five sthaans (special resolves)-(1) Dandanayik-having resolved to sleep flat on the back with legs straight like a rod. (2) Lagandashayik-having resolved to sleep on the side or to adopt the posture where head and heal touch the floor and the back is raised. (3) Atapak-having resolved to tolerate heat and cold. (4) Apavritak-having resolved to remain nude. (5) Akanduyak - having resolved not to scratch body on itching. महानिर्जरा- पद MAHANIRJARA-PAD (SEGMENT OF GREAT KARMA SHEDDING)
४४. पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा-अगिलाए आयरियवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए उवज्झाय वेया वच्चं करेमाणे, अगिलाए थेरवेयावच्चं 5 करेमाणे, अगिलाए तवस्सिवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गिलाणवेयावच्चं करेमाणे ।
४४. पाँच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ महान् कर्म - निर्जरा करने वाला और महापर्यवसान (कर्म निर्जरा से कर्मों का अन्त कर मोक्ष पद पाने वाला) होता है। (१) अग्लान भाव से ( बिना खिन्न हुए बहुमान पूर्वक) आचार्य की वैयावृत्य करता हुआ । (२) अग्लान भाव से उपाध्याय की वैयावृत्य करता हुआ । (३) अग्लान भाव से स्थविर की वैयावृत्य करता हुआ। (४) अग्लान भाव से तपस्वी की वैयावृत्य करता हुआ । (५) अग्लान भाव से ग्लान (रोगी मुनि) की वैयावृत्य करता हुआ ।
४५. पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा-अगिलाए सेहवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए कुलवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए गणवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्चं करेमाणे, अगिलाए साहम्मियवेयाच्चं करेमाणे ।
44. In five ways a Shraman Nirgranth accomplishes maha karmanirjara (great karma-shedding) and Mahaparyavasan (attaining liberation by shedding all karmas)-(1) By serving acharya without a feeling of dejection. (2) By serving upadhyaya without a feeling of dejection. (3) By serving sthavirs without a feeling of dejection. ( 4 ) By फ्र serving ascetics observing austerities without a feeling of dejection. (5) By serving ailing ascetics without a feeling of dejection.
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कुटुकासनिक
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प्रतिमास्थायी
छायोत्सर्ग मुद्राएं
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वीरासनिक
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drary.org:
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चित्र परिचय ४
Illustration No. 4 ध्यान की मुद्राएँ (१) स्थानायतिक-कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहकर ध्यान करना। (२) उत्कुटुकासनिक-उकडू या गोदोहासन से बैठकर ध्यान करना। (३) प्रतिमास्थायी-मूर्ति के समान पद्मासन से बैठकर ध्यान करना।
(४) वीरासनिक-वीरासन जैसे कुर्सी पर बैठने पर नीचे से कुर्सी हटा देने पर उसी आसन में बैठकर ध्यान करना।
(५) नैषधिक-पालथी मारकर या अन्य आसन पर बैठकर ध्यान करना। (६) दण्डायतिक-दण्ड के समान सीधे चित्त लेटकर ध्यान करना। (७) लगंडशायी-एक करवट से पीठ भूमि से ऊपर रखकर सोकर ध्यान।
(८) आतापक-सूर्य की धूप में खड़े रहकर ध्यान करना अथवा शीत ऋतु में रात में वस्त्र उतारकर ध्यान करना। (९) अपावृतक-वस्त्ररहित होकर शीत व दंशमशक परीषह सहते हुए ध्यान करना।
-स्थान ५, उ. १, सूत्र ४२-४३ सातवें स्थान में सूत्र ४९ कायक्लेश के सात भेद में ६, ७ का इनका वर्णन है।
MEDITATIONAL POSTURES (1) Sthanayatik-to meditate in kayotsarg posture (standing).
(2) Utkutukasanik-to meditate in Godohasan or squatting with feet straight on the ground.
(3) Pratimasthaayi-to meditate in lotus pose like an idol.
(4) Virasanik--to meditate in Virasan, a posture resembling sitting on a chair without a chair.
(5) Naishadyik-to meditate sitting cross-legged. (6) Dandayatik-to sleep flat on the back with legs straight like a rod.
(7) Lagandashayi-to adopt a posture where head and heal touch the floor and the back is raised. ___(8) Atapak-to meditate standing in sun or standing nude during a winter night. ____(9) Apavritak-to meditate nude tolerating cold.
-Sthaan 5, Lesson 1, Sutra 42-43
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3 ४५. पाँच स्थानों से श्रमण-निर्ग्रन्थ महान् कर्म-निर्जरा और महा पर्यवसान वाला होता है। ऊ + () अग्लान भाव से शैक्ष-(नवदीक्षित मुनि) की वैयावृत्य करता हुआ। (२) अग्लान भाव से कुल
(एक आचार्य के शिष्य-समूह) की वैयावृत्य करता हुआ। (३) अग्लान भाव से गण-(अनेक 卐 कुल-समूह) की वैयावृत्य करता हुआ। (४) अग्लान भाव से संघ-(अनेक गण-समूह) की वैयावृत्य करता हुआ। (५) अग्लान भाव से साधर्मिक-(समान समाचारी वाले) की वैयावृत्य करता हुआ।
45. In five ways a Shraman Nirgranth accomplishes maha karmanirjara (great karma-shedding) and Mahaparyavasan (attaining liberation by shedding all karmas)—(1) By serving shaiksha (neoinitiates) without a feeling of dejection. (2) By serving kula (disciples of one acharya) without a feeling of dejection. (3) By serving gana (group of many kulas) without a feeling of dejection. (4) By serving sangh (group of many ganas) without a feeling of dejection. (5) By serving sadharmik (ascetics following the same praxis) without a feeling of dejection. विसंभोग-पद VISAMBHOG-PAD (SEGMENT OF OSTRACIZATION)
· ४६. पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा-(१) सकिरियट्ठाणं पडिसेवित्ता भवति। (२) पडिसेवित्ता णो आलोएइ। (३) आलोइत्ता णो पट्टवेति। (४) पट्टवेत्ता णो णिविसति। (५) जाई इमाई थेराणं ठितिपकप्पाई भवंति ताई अतियंचिय-अतियंचिय पडिसेवेति, से हंदऽहं पडिसेवामि किं मं थेरा करेस्संति ?
४६. पाँच स्थानों (कारणों) से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक साम्भोगिक को विसंभोगिक करे तो भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता-(१) जो सक्रिय स्थान-(अशुभ कर्म का बन्ध करने वाले अकृत्य कार्य) का प्रतिसेवन करता है। (२) जो आलोचना करने योग्य दोष का प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता है। (३) जो आलोचना कर प्रस्थापना-(गुरु-प्रदत्त प्रायश्चित्त का प्रारम्भ) नहीं करता है। (४) जो प्रस्थापना कर निर्वेशन-(प्रायश्चित्त का पूर्ण रूप से पालन) नहीं करता। (५) जो स्थविरों के स्थितिकल्प-(साधु समाचारी की मर्यादाएँ) होते हैं, उनमें से एक के बाद दूसरे का अतिक्रमण कर प्रसिसेवना करता है तथा दूसरों के समझाने पर कहता है- “लो, मैं दोष का प्रतिसेवन करता हूँ, स्थविर मेरा क्या करेंगे?"
46. A Shraman Nirgranth does not defy the word of Bhagavan if he ostracizes (visambhogik) a sadharmik sambhogik (a co-relgionist teammate) for five reasons-(1) When he performs (pratisevan) a proscribed act entailing bondage of demeritorious karmas (sakriya sthaan). (2) When he does not do self-criticism after committing a mistake worth repenting. (3) When he does not accept atonement after criticizing his mistake. (4) When he does not conclusively perform atonement after
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commencing it. (5) When he continues to perform proscribed acts transgressing the ascetic codes of discipline one after another and, on being admonished, insolently replies-"So what! I ..ill defy the codes. What can the seniors do to me?"
विवेचन-साधु-मण्डली में एक साथ बैठकर भोजन और स्वाध्याय आदि करने वाले साधुओं को + 'साम्भोगिक' कहते हैं। जब कोई साम्भोगिक साधु सूत्रोक्त पाँच कारणों में से किसी एक-दो या सब ही 4 स्थानों का प्रतिसेवन करता है, तब उसे आचार्य साधु-मण्डली से पृथक् कर देते हैं। ऐसे साधु को 卐 'विसम्भोगिक' कहा जाता है।
Elaboration–The ascetics who study collectively and eat together in a group are called sambhogik. When a sambhogik ascetic indulges in one two or all of the five proscribed acts, the acharya ostracizes him from that group. Such ostracized ascetic is called visambhogik. पारंचित-पद PARANCHIT-PAD (SEGMENT OF EXPULSION)
४७. पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं पारंचितं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा(१) कुले वसति कुलस्स भेदाए अब्भुट्ठिता भवति। (२) गणे वसति गणस्स भेदाए अब्भुढेत्ता भवति। म (३) हिंसप्पेही। (४) छिद्दप्पेही। (५) अभिक्खणं अभिक्खणं पसिणायतणाई पउंजित्ता भवति।
४७. पाँच कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ अपने साधर्मिक को पारांचित करता हुआ भगवान की आज्ञा म का अतिक्रमण नहीं करता है। (१) जो साधु जिस कुल में रहता है, उसी में भेद (फूट) डालने का प्रयत्न
करता है। (२) जो साधु जिस गण में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। (३) जो ॐ हिंसाप्रेक्षी होता है (कुल या गण के साधु का घात करना चाहता है)। (४) जो कुल या गण के सदस्यों है + को एवं अन्य जनों को हानि पहुँचाने के लिए छिद्रान्वेषण करता है। (५) जो बार-बार प्रश्नायतनों का ॥ ॐ प्रयोग करता है।
47. A Shraman Nirgranth does not defy the word of Bhagavan if he expels (paranchit) a sadharmik sambhogik (a co-relgionist team-mate)
for five reasons—(1) When he conspires to breed dissension within the 卐 kula (group of disciples of one acharya) he lives in. (2) When he conspires
to breed dissension within the gana (group of kulas) he lives in. (3) When he turns to be a himsaprekshi (desires to harm or kill a member of his fi kula or gana). (4) When he resorts to fault-finding in order to harm members of his kula and gana as well as outsiders. (5) When he repeatedly indulges in prashnayatan (indiscipline).
विवेचन-अंगुष्ठ, भुजा आदि में देवता को बुलाकर लोगों के प्रश्नों का उत्तर देकर उन्हें चमत्कृत फ़ करना, सावद्य अनुष्ठान के प्रश्नों का उत्तर देना और असंयम के आयतनों (स्थानों) का प्रतिसेवन करना ॥
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प्रश्नायतन कहलाता है। सूत्रोक्त पाँच कारणों से साधु का वेष छुड़ा कर उसे संघ से पृथक् करना है पारांचित प्रायश्चित्त-सबसे बड़ा प्रायश्चित्त कहलाता है।
Elaboration—Prashnayatan means indulging in acts of indiscipline si including invoking gods in thumb, arm or other parts of the body and provide answers about sinful rituals in order to astonish people.
Expulsion from the sangh by depriving of the ascetic garb for atonement i of the aforesaid five faults is called paaranchit prayashchit. It is the
highest degree of atonement. व्युद्ग्रहस्थान-पद WUDGRAHASTHAAN-PAD (SEGMENT OF CAUSE OF DISPUTE)
४८. आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच बुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा
(१) आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं पउंजित्ता भवति। (२) आयरियउवज्झाए णं गणंसि आहारातिणियाए कितिकम्मं णो सम्मं पउंजित्ता भवति। (३) आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्पवाइत्ता भवति। (४) आयरियउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममन्भुद्वित्ता भवति। (५) आयरियउवज्झाए णं गणंसि अणापुच्छियचारी यावि हवइं, णो आपुच्छियचारी।
४८. आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पाँच व्युद्ग्रहस्थान (विग्रह के हेतु) हैं-(१) आचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा तथा धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। (२) आचार्य और उपाध्याय गण में यथारालिक कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग न करें। (३) आचार्य और उपाध्याय जिन-जिन सूत्रपर्यवजातों (सूत्र के अर्थ-प्रकारों) को धारण करते हैं-जानते हैं, उनकी समय-समय पर गण को सम्यक् वाचना न दें। (४) आचार्य और उपाध्याय गण में रोगी और नवदीक्षित साधुओं की वैयावृत्य करने के लिए समुचित व्यवस्था न करें। (५) आचार्य और उपाध्याय गण को पूछे बिना ही अन्यत्र विहार आदि करें।
48. For an acharya or upadhyaya there are five vyudgrahasthaans (causes of dispute)-(1) Acharya or upadhyaya fails to properly assert his command (ajna and dharana). (2) Acharya or upadhyaya fails to properly instruct about and implement yatharatnik kritikarma (codes of protocol and conduct). (3) Acharya or upadhyaya fails to properly recite and teach the sutra paryavajat (meaning and interpretations of sutras) 卐 he has mastered. (4) Acharya or upadhyaya fails to make proper arrangements for care of neo-initates and ailing ascetics. (5) Acharya or upadhyaya fails to inform the gana (group) before leaving for other places.
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विवेचन-कलह के कारण को व्युद्ग्रहस्थान अथवा विग्रहस्थान कहते हैं। कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थ के इस प्रकार है-आज्ञा-'हे साधो ! आपको यह करना चाहिए' इस प्रकार के विधेयात्मक आदेश। धारणा+ हे साधो ! आपको ऐसा नहीं करना चाहिए', इस प्रकार का निषेधात्मक आदेश। अथवा बार-बार
आलोचना के द्वारा प्राप्त प्रायश्चित्त-विशेष के अवधारण करने को भी टीकाकार ने धारणा कहा है। ॐ जैसे-आचार्य या उपाध्याय अपने गण के साधुओं को उचित कार्यों के करने का विधान और अनुचित ॥ • कार्यों का निषेध न करें, तो संघ में कलह उत्पन्न हो जाता है।
यथारात्निक कृतिकर्म-दीक्षा-पर्याय में छोटे-बड़े साधुओं के क्रम से वन्दनादि कर्त्तव्यों के निर्देश करना। इसीप्रकार यथारानिक साधुओं के विनय-वन्दनादि का संघस्थ साधुओं को निर्देश करना भी उनका आवश्यक कर्त्तव्य है, उसका उल्लंघन होने पर भी कलह हो सकता है।
सूत्र-पर्यवजातों की यथाकाल वाचना न देना। आचार्य या उपाध्याय को जितने भी श्रुत के पाठी हैं, दीक्षापर्याय के अनुसार अपने उन शिष्यों को यथाकाल यथाविधि वाचना देनी चाहिए। यदि वह ऐसा ॐ नहीं करता है, या व्युत्क्रम से वाचना देता है तो उसके ऊपर पक्षपात का दोषारोपण करके कलह खड़ा म हो सकता है।
Elaboration–The cause of dispute or strife is called uyudgrahasthaan 41 or vigrahasthaan. Explanations of other terms are as follows
Ajna-An assertive command, such as-'O ascetic ! You must do this.' Dharana-a prohibitive command such as-'0 ascetic ! You must not do this.' According to the commentator (Tika) dharana also means to observe specific atonement by repeated self reproachment of the committed fault. If an acharya or a upadhyaya fails to properly give 51 assertive and prohibitive commands to the ascetics of the group about right and wrong acts it would lead to a strife in the organization.
Yatharatnik kritikarma-to instruct about following the protocol of 41 period of initiation while paying homage or greeting senior and junior
ascetics. If the code of protocol is not taught to the ascetics they may fail to follow the same and that can lead to a strife.
Sutra-paryavajat-to recite and teach the sutra paryavajat (meaning and interpretations of sutras) timely. An acharya or upadhyaya is supposed to lecture his student disciples properly following a set timetable based on the period of initiation. If he fails to follow the programme he may be charged of favouritism and a strife may ensue.
४९. आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंचावुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा
(१) आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता भवति। (२) एवमाहारातिणिताए (आयरियउवज्झाए णं गणंसि) आहारातिणिताए सम्मं किइकम्मं पउंजित्ता
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भवति। (३) आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले सम्म अणुपवाइत्ता भवति। (४) आयरियउवज्झाए गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं सम्मं अन्भुद्वित्ता भवति। (५) आयरियउवज्झाए गणंसि आपुच्छियचारी यावि भवति, णो अणापुच्छियचारी।
४९. आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में पाँच अव्युद्-ग्रहस्थान (कलह न होने के कारण) हैं(१) आचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा तथा धारणा का सम्यक् प्रयोग करें। (२) आचार्य और उपाध्याय गण में यथारानिक कृतिकर्म (बड़ों का वन्दना व्यवहार आदि) का प्रयोग करें। (३) आचार्य
और उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों को धारण करते हैं, उनकी यथासमय गण को सम्यक् ॥ वाचना दें। (४) आचार्य और उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित साधुओं की वैयावृत्त्य कराने के म लिए सम्यक् प्रकार से सावधान रहें। (५) आचार्य और उपाध्याय गण को पूछकर अन्यत्र विहार करें, बिना पछे न करें। उक्त पाँच स्थानों का पालन करने वाले आचार्य या उपाध्याय के गण में कभी कलह उत्पन्न नहीं होता है।
49. For an acharya or upadhyaya there are five avyudgrahasthaans (causes of indispute or harmony) (1) Acharya or upadhyaya proper asserts his command (ajna and dharana). (2) Acharya or upadhye ya properly instructs about and implement yatharatnik kritikarma (codes of protocol and conduct). (3) Acharya or upadhyaya properly recites and teaches the sutra paryavajat (meaning and interpretations of sutras) he has mastered. (4) Acharya or upadhyaya makes proper arrangements for care of neo-initates and ailing ascetics. (5) Acharya or upadhyaya informs the gana (group) before leaving for other places. There is never a strife in the gana of the acharya or upadhyaya who observes these five sthaans. निषद्या-पद NISHADYA-PAD (SEGMENT OF METHOD OF SITTING)
५०. पंच णिसिज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता, पसियंका, अद्धपलियंका।
५०. निषद्या (आसन अथवा बैठने की विधि) पाँच प्रकार की है-(१) उत्कुटुका-उत्कुटासन सै बैठना (उकडू बैठना)। (२) गोदोहिका-गाय को दुहने के आसन से बैठना। (३) समपाद-पुता-दोनों पैरों और पुतों (पुट्ठों) से भूमि का स्पर्श करके बैठना। (४) पर्यंका-पद्मासन से बैठना। (५) अर्ध-पर्यंका-अर्धपद्मासन से बैठना।
50. Nishadya (method of sitting) is of five kinds—(1) Utkatuka—to sit in utkatuka (squatting) posture. (2) Godohika-to sit in a posture resembling that taken when milking a cow. (3) Samapada-puta-to sit with hump and feet touching the ground. (4) Paryanka-to sit in lotus pose. (5) Ardha-paryanka-to sit in half-lotus pose.
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* आर्जवस्थान-पद ARJAVA-STHAAN-PAD (SEGMENT OF PURITY) म ५१. पंच अज्जवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-साधुअज्जवं, साधुमद्दवं, साधुलाघवं, साधुखंती, ॐ साधुमुत्ती।
५१. पाँच आर्जव स्थान कहे हैं-(१) साधु आर्जव-मायाचार का सर्वथा निग्रह करना। (२) साधु ॐ मार्दव-अभिमान का सर्वथा निग्रह करना। (३) साधु लाघव-गौरव का सर्वथा निग्रह करना। (४) साधु 卐क्षान्ति-क्रोध का सर्वथा निग्रह करना। (५) साधु मुक्ति-लोभ का सर्वथा निग्रह करना।
51. There are five sthaans (methods) of arjava (purity of mind)(1) sadhu arjava-complete control over deception, (2) sadhu mardavacomplete control over conceit, (3) sadhu laghav-complete control over exhibitionism, (4) sadhu kshanti-complete control over anger and (5) sadhu mukti—complete control over greed.
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में आर्जव का प्रतीकात्मक अर्थ अशुभ कर्मों का निरोधरूप संवर है। संवर उसी
को होता है जो सम्यग्दर्शन पूर्वक क्रिया करता है। अतः साधु आर्जव आदि का अर्थ होता है सम्यग् ज्ञान ॐ पूर्वक ऋजुता आदि का आचरण करना व कषायों को जीतना।
Elaboration-In this aphorism arjava conveys the meaning of samvar (blockage of inflow of karmas. Samvar can only be achieved by a person who acts righteously. Therefore, arjava and other terms signify the conduct of simplicity (etc.) followed with right knowledge. weifaran-6 JYOTISHK-PAD (SEGMENT OF STELLAR GODS)
५२. पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता, तं जहा-चंदा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, ताराओ। ___ ५२. ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के हैं-(१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) ग्रह (मंगल आदि ग्रह), (४) नक्षत्र, (अश्विनी भरणी आदि), (५) तारा।
52. Jyotishk deva (stellar gods) are of five kinds——(1) Chandra (the moon), (2) Surya (the sun), (3) Graha (planets like Mars), (4) Nakshatra (constellations like Ashivini) and (5) Tara (stars). देव-पद DEVA-PAD (SEGMENT OF GODS)
५३. पंचविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवियदव्वदेवा, णरदेवा, धम्मदेवा, देवाहिदेवा, भावदेवा।
५३. देव पाँच प्रकार के हैं। (१) भव्य-द्रव्य देव-भविष्य में होने वाला देव। (२) नरदेव-राजा, | महाराजा चक्रवर्ती आदि। (३) धर्मदेव-आचार्य, उपाध्याय आदि। (४) देवाधिदेव-अर्हन्त तीर्थंकर। (५) भावदेव देव-पर्याय में वर्तमान देव।
53. Deva (gods) are of five kinds (1) Bhavya-dravya deva-those destined to be gods, (2) nara deva-kings, emperors and other rulers,
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जमक 55555555555555
5 55555 (3) dharma deva-acharya, upadhyaya and other religious leaders, (4) Devadhideva-Tirthankars, and (5) bhaava deva-god presently in divine state.
परिचारणा-पद PARICHARANA-PAD (SEGMENT OF SEXUAL GRATIFICATION)
५४. पंचविहा परियारणा पण्णत्ता, तं जहा-कायपरियारणा, फासपरियारणा, रूवपरियारणा, सद्दपरियारणा, मणपरियारणा। ___ ५४. परिचारणा पाँच प्रकार की है-(१) काय-परिचारणा-मनुष्यों के समान शरीर से मैथुन सेवन। (२) स्पर्श परिचारणा-स्त्री-पुरुष का परस्पर शरीरालिंगन। (३) रूपपरिचारणा-स्त्री-पुरुष का काम-भाव से परस्पर रूप देखना। (४) शब्दपरिचारणा-काम-भाव से स्त्री-पुरुष के परस्पर शब्द सुनना। (५) मनःपरिचारणा-स्त्री-पुरुष का काम-भाव से परस्पर चिन्तन।
54. Paricharana (sexual gratification) is of five kinds—(1) Kaya paricharana-sexual gratification through body as the humans do, (2) sparsh paricharana-sexual gratification through touch (embracing), (3) rupa paricharana-sexual gratification through vision or to look at each other with lust, (4) shabd paricharana-sexual gratification through sound or to listen to each other with lust and (5) manah paricharana-sexual gratification through thoughts or to think of each other with lust.
विवेचन-देवों में भी काम वासना होती है। उनकी काम प्रवृत्ति रूप मैथुन सेवन को 'परिचारणा' कहा जाता है।
भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म, ईशान कल्प तक के देवों में काय परिचारणा होती है। स्पर्शपरिचारणा तीसरे, चौथे देवलोक तक। रूपपरिचारणा, पाँचवें, छठे कल्प तक, शब्दपरिचारणा सातवें, आठवें कल्प तक तथा मनःपरिचारणा-शेष नवें से बारहवें देवलोक तक है। इनसे ऊपर के 5 देवलोक में किसी प्रकार की परिचारणा नहीं होती। (वृत्ति भाग-२ पृष्ठ ५२२ प्रज्ञापना सूत्र ३४वाँ पद)
Elaboration--This aphorism is specifically about sexual gratification of divine beings, which is called paricharana. Gods belonging to Bhavanapati, Vaanavyantar, Jyotishk, Saudharma and Ishan realms have kaya paricharana. Sparsh paricharana is applicable in third and fourth Devalok. Rupa paricharana is applicable to fifth and sixth kalp, shabd paricharana to seventh and eighth kalp and manah paricharana to the remaining kalps (heavenly abodes) from ninth to twelfth. Beyond this there is no paricharana or sexual gratification. (Vritti, part-2, p. 522; Prajnapana Sutra, verse 34)
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8555555555555555555555555555555555555 ॐ अग्रमहिषी-पद AGRAMAHISHI-PAD (SEGMENT OF CHIEF QUEENS)
५५. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहाॐ काली, राती, रयणी, विज्जू, मेहा। की ५६. बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो पंच अग्गमहिसीओ पण्णताओ, तं जहासुंभा-णिसुंभा, रंभा, णिरंभा, मदणा।
५५. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की पाँच अग्रमहिषियाँ हैं-(१) काली, (२) रात्रि, (३) रजनी, (४) विद्युत्, (५) मेघा।
५६. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की पाँच अग्रमहिषियाँ हैं-(१) शुम्भा, (२) निशुम्भा, (३) रम्भा, । (४) निरम्भा, (५) मदना।
55. Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods has five agramahishis (chief queens)-(1) Kaali, (2) Ratri, (3) Rajani, (4) Vidyut and (5) Megha.
56. Vairochanendra Bali, the king of Virochana gods has five agramahishis (chief queens)—(1) Shumbha, (2) Nishumbha, (3) Rambha, (4) Nirambha and (5) Madana. अनीक-अनीकाधिपति-पद ANIKA-ANIKADHIPATI-PAD
(SEGMENT OF ARMY AND COMMANDER) ५७. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमारण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संगामिया अणियाधिवती पण्णत्ता तं जहा-पायत्ताणिए, पीढाणिए, कुंजराणिए, महिसाणिए, रहाणिए। ___दुमे पायत्ताणियाधिवती, सोदामे आसराया पीढाणियाधिवती, कुंथू हत्थिराया कुंजराणियाधिवती, के लोहितक्खे महिसाणियाधिवती, किण्णरे रथाणियाधिवती।
. ५७. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के संग्राम करने वाले पाँच अनीक (सेनाएँ) और पाँच फ़ अनीकाधिपति (सेनापति) हैं, जैसे-अनीक-(१) पादातानीक-पैदल चलने वाली सेना। (२) पीठानीक
अश्वारोही सेना। (३) कुंजरानीक-गजारोही सेना। (४) महिषानीक-महिषारोही (भैंसा-पाडा पर बैठने ॐ वाली) सेना। (५) रथानीक-रथारोही सेना।
इनके सेनापति इस प्रकार हैं-(१) द्रुम-पादातानीक का अधिपति। (२) अश्वराज सुदामाॐ पीठानीक का अधिपति। (३) हस्तिराज कुन्थु-कुंजरानीक का अधिपति। (४) लोहिताक्ष-महिषानीक का 5 अधिपति। (५) किन्नर-रथानीक का अधिपति।
57. Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods has five anikas (armies) and five anikadhipati (commanders)-Armies(1) Padatanika--foot soldiers, (2) Pithanika--horse riders, स्थानांगसूत्र (२)
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(3) Kunjaranika-elephant riders, (4) Mahishanika-buffalo riders and (5) Rathanika charioteers.
The commanders of these armies are as follows-(1) Drumcommander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Sudama-commander of horse riders, (3) Hastiraj Kunthu-commander of elephant riders, (4) Lohitaksh— commander of buffalo riders and (5) Kinnar-commander of charioteers.
महद्दुमे पायत्ताणियाधिवती, महासोदामे आसराया पीढाणियाधिवती, मालंकारे हत्थिराया कुंजराणियाधिपती, महालोहिअक्खे महिसाणियाधिपती, किंपुरिसे रथाणियाधिपती । '
५८. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के संग्राम करने वाले पाँच अनीक (सेना) और पाँच अनीकाधिपति (सेनापति ) हैं - अनीक - ( १ ) पादातानीक, (२) पीठानीक, (३) कुंजरानीक, (४) महिषानीक, (५) रथानीक ।
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५८. बलिस्स णं वइरोणिंदस्स वइरोयणरण्णो पंच संगामियाणिया, पंच संगामियाणियाधिवती 5 पण्णत्ता, तं जहा - पायत्ताणिए, (पीढाणिए, कुंजराणिए, महिसाणिए), रथाणिए ।
पाँच
अनीकाधिपति - ( १ ) महाद्रुम - पादातानीक - अधिपति । (२) पाठानीक - अधिपति । (३) हस्तिराज मालंकार - कुंजरानीक - अधिपति । महिषानीक - अधिपति। (५) किंपुरुष - रथानीक - अधिपति ।
(४)
अश्वराज-महासुदामामहालोहिताक्ष
५९. धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमारण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संगामियाणियाधिपति पण्णत्ता, तं जहा - पायत्ताणिए जाव रहाणिए ।
5
58. Vairochanendra Bali, the king of Virochana gods has five anikas (armies) and five anikadhipati (commanders ) - Armies— Padatanika-foot soldiers, (2) Pithanika-horse riders, फ (3) Kunjaranika-elephant riders, (4) Mahishanika-buffalo riders and (5) Rathanika-charioteers.
(1)
भद्दसेणे पायत्ताणियाधिपती, जसोधरे आसराया पीढाणियाधिपती, सुदंसणे हत्थराया कुंजराणियाधिपती, णीलकंठे महिसाणियाधिपती, आणंदे रहाणियाहिवई ।
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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The commanders of these armies are as follows – ( 1 ) Mahadrum — फ्र commander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Mahasudama-commander of horse riders, (3) Hastiraj Malankar-commander of elephant riders, (4) Mahalohitaksh commander of buffalo riders and (5) Kimpurush - commander of charioteers.
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Fifth Sthaan: First Lesson
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5 E ___ ५९. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के संग्राम करने वाले पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति म हैं-अनीक-(१) पादातानीक, (२) पीठानीक, (३) कुंजरानीक, (४) महिषानीक, (५) रथानीक।
___अनीकाधिपति-(१) भद्रसेन-पादातानीक-अधिपति। (२) अश्वराज-यशोधर-पीठानीकके अधिपति। (३) हस्तिराज-सुदर्शन-कुंजरानीका-अधिपति। (४) नीलकण्ठ-महिषानीक-अधिपति। (५) आनन्द-रथानीक-अधिपति।
59. Naagkumarendra Dharan, the king of Naag Kumar gods has five fi anikas (armies) and five anikadhipati (commanders)-Armies(1) Padatanika--foot soldiers, (2) Pithanika-horse riders, (3) Kunjaranika-elephant riders, (4) Mahishanika-buffalo riders and (5) Rathanika-charioteers.
The commanders of these armies are as follows-(1) Bhadrasencommander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Yashodhar-commander of horse riders, (3) Hastiraj Sudarshan--commander of elephant riders, (4) Nilakanth-commander of buffalo riders and (5) Anand-commander of charioteers.
६०. भूयाणंदस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो पंच संगामियाणिया, पंच + संगामियाणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए जाव रहाणिए। जा दक्खे पायत्ताणियाहिवई, सुग्गीवे आसराया पीढाणियाहिवई, सुविक्कमे हत्थिराया ॐ कुंजराणियाहिवई, सेयकंठे महिसाणियाहिवई, णंदुत्तरे रहाणियाहिवई।
६०. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द के संग्राम करने वाले पाँच अनीक और पाँच ॐ अनीकाधिपति हैं-अनीक-(१) पादातानीक, (२) पीठानीक, (३) कुंजरानीक, (४) महिषानीक, क (५) रथानीक।
अनीकाधिपति-(१) दक्ष-पादातानीक-अधिपति। (२) सुग्रीव अश्वराज-पीठानीक-अधिपति। (३) सुविक्रम हस्तिराज-कुंजरानीक-अधिपति। (४) श्वेतकण्ठ-महिषानीक अधिपति। (५) नन्दोत्तररथानीक-अधिपति।
60. Naagkumarendra Bhootanand, the king of Naag Kumar gods has 2 five anikas (armies) and five anikadhipati (commanders)-Armies
(1) Padatanika-foot soldiers, (2) Pithanika-horse riders, (3) Kunjaranika--elephant riders, (4) Mahishanika-buffalo riders and (5) Rathanika--charioteers.
The commanders of these armies are as follows-(1) Dakshcommander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Sugriva-commander of horse riders, (3) Hastiraj Suvikram--commander of elephant riders,
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स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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(4) Shvetakanth—commander of buffalo riders and (5) Nandottar- A commander of charioteers.
६१. वेणुदेवस्स णं सुवणिंदस्स सुवण्णुकमारण्णो पंच संगामियाणिया, पंच संगामियाणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए, एवं जधा धरणस्स तथा वेणुदेवस्सवि। . वेणुदालियस्स जहा भूताणंदस्स।
६१. सुपर्णेन्द्र सुपर्णकुमारराज वेणुदेव के संग्राम करने वाले पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति # धरण के समान हैं-अनीक-(१) पादातानीक आदि। म अनीकाधिपति-(१) भद्रसेन-पादातानीक-अधिपति आदि। जैसे धरण के पाँच अनीक और पाँच में अनीकाधिपति हैं, उसी प्रकार सुपर्णकुमारराज सुपर्णकुमारेन्द्र, वेणुदालि के भी पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति है।
61. Suparnendra Venudeva, the king of Suparna Kumar gods has five anikas (armies) and five anikadhipati (commanders)-Armies(1) Padatanika-foot soldiers, etc.
The commanders of these armies are as follows—(1) Bhadrasen, etc.
As Dharan has five armies and five commanders in the same way Venudali Suparnendra, the king of Suparna Kumar gods has also five armies and five commanders.
६२. जहा धरणस्स तहा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स। ६३. जहा भूताणंदस्स तहा । सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स।
६२. जिसप्रकार धरण के पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति हैं, उसी प्रकार सभी दक्षिणदिशाधिपतियों-हरिकान्त, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब और घोष के भी संग्राम करने वाले पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति-क्रमशः-भद्रसेन, अश्वराज यशोधर,
हस्तिराज सुदर्शन, नीलकण्ठ और आनन्द है। ६३. जिस प्रकार भूतानन्द के पाँच अनीक और पाँच , अनीकाधिपति हैं, उसी प्रकार उत्तरादिशाधिपति शेष सभी भवनपतियों के अर्थात् वेणुदालि, हरिस्सह, । अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष के पाँच-पाँच अनीक और पाँच-पाँच अनीकाधिपति उन्हीं नाम वाले हैं।
62. As Dharan has five armies and five commanders in the same way i all Dakshinadhipatis (the overlords of south) namely Harikant, Agnishikh, Purna, Jalakant, Amit-gati, Velamb and Ghosh also have fiv armies and five commanders-Bhadrasen, Ashvaraj Yashodhar, Hastiraj Sudarshan, Nilakanth and Anand. 63. As Bhootanand has five armies and five commanders in the same way all Uttarendras (the overlords of 4 north) namely Venudali, Harissaha, Agnimanav, Vishisht, Jalaprabh,
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पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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Amit-vahan, Prabhanjan and Mahaghosh also have five armies and five 41 commanders with the same names.
६४. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संगामियाणियाधिवती जपण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए, (पीढाणिए, कुंजराणिए), उसभाणिए, रधाणिए। ॐ हरिणेगमेसी पायत्ताणियाधिवती, वाऊ आसराया पीढाणियाधिवती, एरावणे हत्थिराया कुंजराणियाधिपती, दामड्डी उसभाणियाधिपती, माढरे रधाणियाधिपती।
६४. देवराज देवेन्द्र शक्र के संग्राम करने वाले पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति हैं। अनीक(१) पादातानीक, (२) पीठानीक, (३) कुंजरानीक, (४) वृषभानीक, (५) रथानीक। ____ अनीकाधिपति-(१) हरिनैगमेषी-पादातीनक-अधिपति। (२) अश्वराज वायु-पीठानीक-अधिपति।
(३) हस्तिराज ऐरावण-कुंजरानीक-अधिपति। (४) दामधि-वृषभानीक-अधिपति। (५) माठरॐ रथानीक-अधिपति।
64. Shakra Devendra, the king of gods of first heaven has five anikas (armies) and five anikadhipati (commanders)-Armies (1) Padatanikafoot soldiers, (2) Pithanika-horse riders, (3) Kunjaranika-elephant riders, (4) Vrishabhanika-bull riders and (5) Rathanika--charioteers.
The commanders of these armies are as followsE (1) Harinaigameshi-commander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Vayu
commander . of horse riders, (3) Hastiraj Airavan-commander of
elephant riders, (4) Daamardhi--commander of bull riders and 卐 (5) Mathar-commander of charioteers.
६५. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो पंच संगामिया अणिया जाव पायत्ताणिए, पीढाणिए, म कुंजराणिए, उसभाणिए, रधाणिए।
लहुपरक्कमे पायत्ताणियाधिवती महावाऊ आसराया पीढाणियाहिवती, पुष्पदंते हत्थिराया ॐ कुंजराणियाहिवती, महादामडी उसभाणियाहिवती, महामाढरे रहाणियाहिवती।
६५. देवराज देवेन्द्र ईशान के संग्राम करने वाले पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति हैं। 5 अनीक-(१) पादातानीक, (२) पीठानीक, (३) कुंजरानीक, (४) वृषभानीक, (५) रथानीक। + अनीकाधिपति-(१) लघुपराक्रम-पादातानीक-अधिपति। (२) अश्वराज महावायु-पाठानीक3अधिपति। (३) हस्तिराज पुष्पदन्त-कुंजरानीक-अधिपति। (४) महादामर्धि-वृषभानीक-अधिपति।
(५) महामाठर-रथानीक-अधिपति। 5 65. Ishan Devendra, the king of gods of second heaven has five
anikas (armies) and five anikadhipati (commanders)-Armies(1) Padatanika-foot soldiers, (2) Pithanika-horse riders,
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Sthaananga Sutra (2)
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पादातानिक
पीठानिक
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महिषानीक
कुंजरानीक
स्थानीक
पाँच राजचिन्ह
चवर
छत्र
मुकुट
खड्ग
उपानह
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चित्र परिचय ५ ।
Illustration No. 5
देव सेना और राजचिह्न असुर सेना पाँच प्रकार की होती है-(१) पादातानिक-पैदल सैनिक, (२) पीठानिक-अश्वारोही सेना, (३) कुंजरानीक-गजारोही सेना, (४) महिषानीकमहिषारोही सेना, तथा (५) रथानीक-रथारोही सेना।
देव सेना में प्रथम चार तो उसी प्रकार की सेना रहती है, महिष के स्थान पर उनकी सेना वृषभारोही होती है।
-स्थान ५, उ. १, सूत्र ५७-६५ पाँच राज चिह्न
(१) खड्ग-वीरता का प्रतीक, (२) छत्र-प्रजा रक्षा का प्रतीक, (३) मुकुट-वैभव का प्रतीक, (४) उपानह-कठोर शासन का प्रतीक, तथा (५) बँवर-सुन्दरता एवं पर-आक्रमण से रक्षा का प्रतीक।
-स्थान ५, उ. १, सूत्र ७२
ARMIES OF GODS AND ROYAL SYMBOLS
Asur army is of five kinds-(1) Padatanika-foot soldiers, (2) Pithanika-horse riders, (3) Kunjaranikaelephant riders, (4) Mahishanika-buffalo riders, and (5) Rathanika-charioteers.
In Deva army the only difference is that in place of buffalo riders there are Vrishabh (bull) riders.
-Sthaan 5, Lesson 1, Sutra 57-65 FIVE RAJACHINHA (REGAL SYMBOLS)
(1) Khadga (sword; sign of bravery), (2) Chhatra (umbrella; sign of protecting people), (3) Mukut (crown; sign of grandeur), (4) Upanah (shoes; sign of strict rule), and (5) Chamar (fanning whisks; sign of beauty and security).
-Sthaan 5, Lesson 1, Sutra 72
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(1) Laghuparakram-commander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Mahavayu--commander of horse riders, (3) Hastiraj Pushpadantcommander of elephant riders, (4) Mahadamardhi-commander of bull riders and (5) Mahamathar-commander of charioteers.
६६. जहा सक्कस्स तहा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव आरणस्स। ६७. जहा ईसाणस्स तहा सब्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव अच्चुतस्स।.
६६. जिस प्रकार देवराज देवेन्द्र शक्र के पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति हैं, उसी प्रकार आरणकल्प तक के सभी दक्षिणेन्द्रों के भी संग्राम करने वाले पाँच-पाँच अनीक और पाँच-पाँच अनीकाधिपति हैं। ६७. जिस प्रकार देवराज देवेन्द्र ईशान के पाँच अनीक और पाँच अनीकाधिपति हैं। उसी प्रकार अच्युतकल्प तक के सभी उत्तरेन्द्रों के भी संग्राम करने वाले पाँच-पाँच अनीक और पाँच-पाँच अनीकाधिपति हैं।
66. As Shakra Devendra, the king of gods of first heaven has five armies and five commanders in the same way all overlords of south up to Aran kalp also have five armies and five commanders each. 67. As Ishan Devendra, the king of gods of second heaven has five armies and five commanders in the same way all overlords of north up to Achyut kalp also have five armies and five commanders each.
विवेचन-सूत्र ५७ से ६७ तक के सूत्रों में असुरों और वैमानिक देवों की सेना व सेनापतियों का वर्णन है। देव और असुर परस्पर विरोधी स्वभाव वाले हैं। उनमें जन्मना द्वेष भाव रहता है। जहाँ द्वेष व म सत्ता-मोह होता है, वहाँ युद्ध भी होता है। युद्ध के लिए सेना और सेनापति भी रखे जाते हैं। यहाँ जिज्ञासा है, देवताओं में हाथी-घोड़े आदि पशु होते हैं क्या? समाधान है, देव ही हाथी-घोड़े आदि के रूप धारण करके परस्पर युद्ध करते हैं। इसमें महत्त्व की बात ध्यान देने की है। असुरों में जहाँ 'महिष सेना' बताई है, वहाँ देवों में वृषभ सेना कही है। महिष-आलस्य, उन्माद, शक्ति की प्रबलता व तमोगुण का प्रतीक है, जबकि वृषभ-शक्ति, स्फूर्ति, श्रेष्ठता और सत्वगुण का प्रतीक है। उन्मादी असुर महिषरूप है और स्फूर्तिमय देव वृषभ रूप धारण कर युद्ध में भाग लेते हैं। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ ६२)
Elaboration-Aphorisms 57-67 describe armies and commanders of Asura and Vaimanik gods. Devas and Asurs are of mutually opposite nature. They have mutual antagonism since birth. Aversion and ambition for power lead to wars. It is necessary to have armies and commanders to fight a war. Here a question arises-Do gods have 45 horses, elephants and other animals ? The answer is that the gods
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பூமித்ததததததததி***************தமிமிமிமிததமிமிமிமிததததததிதமிழிதழிக
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transform to animals and fight. It should be noted that
among Asuras we find a mention of buffalo and at the same place among
Devas we find bull. Buffalo represents vices like lethargy, stupor and strength whereas bull represents virtues like strength, agility, and excellence. Mad Asuras transform to buffalos and fight with agile Devas transformed to bulls. (Hindi Tika, part-2, p. 62)
themselves
देवस्थिति - पद DEVASTHITI PAD (SEGMENT OF LIFE SPAN OF GODS)
६८. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अब्भंतरपरिसाए देवाणं पंच पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । ६९. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अब्भंतरपरिसाए देवीणं पंच पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । ६८. देवराज देवेन्द्र शक्र की अन्तरंग परिषद् के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम है । ६९. देवराज
देवेन्द्र ईशान की अन्तरंग परिषद् की देवियों की स्थिति पाँच पल्योपम है।
68. The life span of gods of inner assembly of Shakra Devendra, the king of gods of first heaven is five Palyopam (a conceptual unit of time). 69. The life span of goddesses of inner assembly of Ishan Devendra, the king of gods of second heaven is five Palyopam (a conceptual unit of time).
प्रतिघात - पद PRATIGHAT PAD (SEGMENT OF IMPEDIMENT)
७०. पंचविहा पडिहा पण्णत्ता, तं जहा - गतिपडिहा, ठितिपडिहा, बंधणपडिहा, भोगपडिहा, बल - वीरिय - पुरिसयार - परक्कमपडिहा ।
७०. प्रतिघात (अवरोध या स्खलन ) पाँच प्रकार के होते हैं - ( १ ) गति - प्रतिघात - अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा शुभगति का अवरोध । (२) स्थिति - प्रतिघात - उदीरणा के द्वारा कर्मस्थिति का अल्पीकरण ।
(३) बन्धन - प्रतिघात - शुभ औदारिक शरीर - बन्धनादि की प्राप्ति का अवरोध । ( ४ ) भोग - प्रतिघातभोग्य सामग्री के भोगने का अवरोध । (५) बल, वीर्य, पुरुष और पराक्रम की प्राप्ति का अवरोध ।
70. Pratighat (impediments or falls) are of five kinds – ( 1 ) Gati pratighat-impeding the shubh-gati (good rebirth) through bad attitude or action. (2) Sthiti pratighat - reduction of duration of karma through fruition. (3) Bandhan pratighat-impeding the bonding of good karmas leading to good audarik sharira (gross physical body). (4) Bhog pratighat-impeding the enjoyment of available means of pleasure. (5) Impeding the acquisition of strength, potency, prowess and valour. विवेचन - सामान्यतः प्रतिघात का अर्थ है, अवरोध, अन्तराय या रुकावट । किन्तु यहाँ अध्यात्म दृष्टि से वर्णन है, अतः यहाँ अशुभ भावों व अशुभ प्रवृत्तियों द्वारा शुभ गति, शुभ स्थिति, शुभबंधन, शुभभोग और सुबल-वीर्य में अवरोध या प्रतिहनन होना अपेक्षित है।
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शारीरिक शक्ति-बल, आत्म शक्ति-वीर्य, पुरुष होने का अभिमान-पुरुषकार और इन सबका 卐 सम्मिलित रूप-पराक्रम कहा जाता है। (वृत्ति भाग-२ पृष्ठ ५२३)
Elaboration—The general meaning of avarodh is impediment, blockage or hurdle. But here the statement is in spiritual context. Therefore here it indicates impediment or blocking of good rebirth, good life-span, good karmic bondage, good association, and good power and potency through bad attitude and action. Parakram or valour is said to be the combination of bal (strength), virya (spiritual potency), and purushkar (ego of being a man; prowess). (Vritti part-2, p. 523) आजीव-सूत्र AJIVA-PAD (SEGMENT OF SUBSISTENCE)
७१. पंचविहे आजीवे पण्णत्ते, तं जहा-जातिआजीवे, कुलाजीवे, कम्माजीवे, सिप्पाजीवे, लिंगाजीवे।
७१. आजीवक (आजीविका करने वाले पुरुष) .पाँच प्रकार के होते हैं-(१) जात्याजीवक-अपनी ॐ ब्राह्मणादि जाति बताकर आजीविका करने वाला। (२) कुलाजीवक-अपना क्षत्रिय कुल आदि बताकर + आजीविका करने वाला। (३) कर्माजीवक-कृषि मजदूरी आदि से आजीविका करने वाला।
(४) शिल्पाजीवक-शिल्प आदि कला से आजीविका करने वाला। (५) लिंगाजीवक-साधुवेष आदि धारण 卐 कर आजीविका करने वाला।
71. Ajivak (those who subsist on something) is of five kinds(1) Jatyajivak-those who acquire means of subsistence by revealing their caste, such as Brahmin. (2) Kulajivak—those who acquire means of subsistence by revealing their clan, such as Kshatriya. (3) Karmajivakthose who acquire means of subsistence by working or doing physical labour. (4) Shilpajivak-those who acquire means of subsistence through art and craft. (5) Lingajivak-those who acquire means of subsistence through appearance or by dressing in the garb of a monk or other such
people. म राजचिह्न-सूत्र RAJACHINHA-PAD (SEGMENT OF REGAL SYMBOLS)
७२. पंच रायककुधा पण्णत्ता, तं जहा-खग्गं, छत्तं, उप्फेसं, पाणहाओ, बालवीअणे।
७२. राजचिह्न पाँच प्रकार के होते हैं-(१) खग (वीरता का प्रतीक), (२) छत्र (प्रजा रक्षा का के प्रतीक), (३) उष्णीष मुकुट (वैभव का प्रतीक), (४) उपानह-पाद-रक्षक, जूते (कठोर शासन का . प्रतीक)-(५) बाल व्यजन-चंवर (सुन्दरता व पर आक्रमण से रक्षा का प्रतीक)।
72. Rajachinha (regal symbols) are of five kinds--(1) Khadga (sword; fi sign of bravery), (2) Chhatra (umbrella; sign of protecting people), पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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(3) Ushnisha (crown; sign of grandeur), (4) Upanah (shoes; sign of strict 1 rule) and (5) Baal vyajan (fanning whisks; sign of beauty and security). उदीर्णपरीषहोपसर्ग-सूत्र UDIRNAPARISHAHOPASARG-PAD
(SEGMENT OF PRECIPITATED AFFLICTIONS AND TORMENTS) ७३. पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे णं उदिण्णे परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेजा खमेज्जा तितिक्खेजा अहियासेज्जा, तं जहा
(१) उदिण्णकम्मे खलु अयं पुरिसे उम्मत्तगभूते। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा अवहरति वा।
(२) जक्खाइट्टे खलु अयं पुरिसे। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव अवहरति + (अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा
णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा) अवहरति वा।
(३) ममं च ण तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति। तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव * जाव अवहरति (अवहसति वा णिच्छोडति वा णिभंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति
वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा) अवहरति वा।
(४) ममं च णं सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणधियासमाणस्स किं + मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे पावे कम्मे कण्यति।
(५) ममं च णं सम्मं सहमाणस्स जाव (खममाणस्स तितिक्खमाणस्स) अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति।
इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उदिण्णे परिसहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव (खमेज्जा ॐ तितिक्खेज्जा) अहियासेज्जा।
७३. पाँच कारणों से छद्मस्थ पुरुष उदीर्ण-(उदय को प्राप्त) परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से अविचल भाव के साथ सहता है, क्षान्ति रखता है, तितिक्षा रखता है और उनसे विचलित नहीं
होता है। 卐 (१) यह पुरुष उदीर्णकर्मा है, इसलिए यह उन्मत्त (पागल) जैसा हो रहा है। इसी कारण यह मुझ ॥
पर आक्रोश करता है, या मुझे गाली देता है, या मेरा उपहास करता है, या मुझे बाहर निकालने की ॐ धमकी देता है, या मेरी निर्भर्त्सना (झिड़कियाँ देना) करता है, या मुझे बाँधता है, या रोकता है, या
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स्थानांगसूत्र (२)
(124)
Sthaananga Sutra (2)
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छविच्छेद (अंग का छेदन) करता है, या पमार (मूर्च्छित या मरणासन्न) करता है, या उपद्रव करता है, + वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि छीनता है, या दूर फेंकता है, या तोड़ता-फोड़ता है, या चुराता है। 5
(२) यह पुरुष अवश्य ही यक्षाविष्ट-(भूत-प्रेतादि से ग्रस्त) है, इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है 卐 है, या मुझे गाली देता है, या मेरा उपहास करता है, या बाहर निकालने की धमकी देता है, या मेरी 5
| निर्भर्त्सना करता है, या बाँधता है, या रोकता है, या छविच्छेद करता है, या मूर्च्छित करता है, या ॐ उपद्रुत करता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन का छेदन करता है, या विच्छेदन करता है, या भेदन म करता है, या अपहरण करता है
(३) मेरे इस भव में वेदना भोगने योग्य कर्म उदय में आ रहा है, इसलिए यह पुरुष मुझ पर + आक्रोश करता है, मुझे गाली देता है, या मेरा उपहास करता है, या मुझे बाहर निकालने की धमकी
देता है, या निर्भर्त्सना करता है, या बाँधता है, या रोकता है, या छविच्छेद करता है, या मूर्छित करता है, या उपद्रुत करता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, या पादपोंछन का छेदन करता है, या विच्छेदन करता है, या भेदन करता है, या अपहरण करता है।
(४) यदि मैं इन्हें सम्यक् प्रकार अविचल भाव से सहन नहीं करूँगा, क्षान्ति नहीं रखूगा, तितिक्षा 9 नहीं रखूगा और उनसे प्रभावित हो जाऊँगा, तो मुझे क्या होगा? मुझे एकान्त रूप से पापकर्म का 卐 संचय होगा।
(५) यदि मैं इन्हे सम्यक् प्रकार अविचल भाव से सहन करूँगा, क्षान्ति रखूगा, तितिक्षा रखूगा और उनसे प्रभावति नहीं होऊँगा, तो मुझे क्या होगा? एकान्त रूप से कर्म-निर्जरा होगी।
इन पाँच कारणों से छद्मस्थ पुरुष उदय में आये परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार अविचल के भाव से सहता है, शान्ति रखता है, तितिक्षा रखता है और उनसे अप्रभावित रहता है।
73. For five reasons a chhadmasth (one who is short of omniscience f due to residual karmic bondage) properly and resolutely endures the fi precipitated (udirna) afflictions and torments with forbearance (titiksha) 4 and forgiveness (kshama) remaining unmoved
(1) The karmas of this person have undergone fruition, therefore he is crazy. That is why he is angry at me or abuses me or threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or pierces my body or makes me unconscious or torments me or snatches, throws away, breaks, shatters or steals my garb, bowls, ascetic-broom and other equipment.
(2) This person is under the influence of bad spirits. That is why he is angry at me or abuses me or threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or pierces my body or makes me unconscious or
torments me or snatches, throws away, breaks, shatters or steals my fi garb, bowls, ascetic-broom and other equipment.
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| पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
(125)
Fifth Sthaan: First Lesson
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(3) My karmas responsible for suffering of pain are coming to fruition during this life time. That is why he is angry at me or abuses me or threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or फ pierces my body or makes me unconscious or torments me or snatches, throws away, breaks, shatters or steals my garb, bowls, ascetic-broom and other equipment.
(4) What will happen to me if I do not properly and resolutely endure 卐 these with forbearance (titiksha) and forgiveness (kshama) and get moved? I will singularly acquire demeritorious karmas (paap karma).
For the above said five reasons a chhadmasth person properly and resolutely endures the precipitated afflictions and torments with forbearance and forgiveness, remaining unmoved.
卐
(5) What will happen to me if I properly and resolutely endure these with forbearance ( titiksha ) and forgiveness (kshama) and remain 5 unmoved ? I will singularly shed karmas (harma nirjara).
卐
(१) खित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे । तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव ( अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिब्भंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा ) अवहरति वा ।
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७४. पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिण्णे परिसहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा जाव (खमेज्जा तितिक्खेज्जा ) 5 अहियासेज्जा, तं जहा
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(२) दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे । तेण मे एस पुरिसे जाव (अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिब्भंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, फ वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा ) अवहरति वा ।
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स्थानांगसूत्र (२)
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(३) जक्खाइट्ठे खलु अयं पुरिसे । तेण मे एस पुरिसे जाव (अक्कोसति वा अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिब्भंछेति वा बंधेति वा रुंभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा ) अवहरति वा ।
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(४) ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति । तेण मे एस पुरिसे जाव [ अक्कोसति वा 5 अवहसति वा णिच्छोडेति वा णिब्भंछेति वा बंधेति वा संभति वा छविच्छेदं करेति वा, पमारं वा ति, उद्दवे वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा ]
अवहरति वा ।
(126)
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Sthaananga Sutra (2)
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3555555555555555555555555555555555555 # (५) ममं च णं सम्मं सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहियासेमाणं पासेत्ता बहवे अण्णे ॥
छउमत्था समणा णिग्गंथा उदिण्णे-उदिण्णे परीसहोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति जाव [ खमिस्संति * तितिक्खस्संति ] अहियासिस्संति।
इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिण्णे परीसहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव (खमेज्जा तितिक्खेज्जा) अहियासेज्जा।
७४. पाँच कारणों से केवली उदय में आये परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार अविचल भाव से सहते हैं, क्षान्ति रखते हैं, तितिक्षा रखते हैं, और उनसे अप्रभावित रहते हैं। जैसे
(१) यह पुरुष अवश्य विक्षिप्तचित्त है-शोक आदि से बेभान है, इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है, (मुझे गाली देता है या मेरा उपहास करता है, या मुझे बाहर निकालने की धमकी देता है या मेरी निर्भर्त्सना करता है या मुझे बाँधता है या रोकता है या छविच्छेद करता है या वधस्थान में ले जाता है ॥ या उपद्रुत करता है, वस्त्र या पात्र या कम्बल या पादपोंछन का छेदन करता है या विच्छेदन करता है या 5 भेदन करता है) या अपहरण करता है।
(२) यह पुरुष अवश्य दृप्तचित्त (अहंकार आदि के उन्माद-ग्रस्त) है, इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है [मुझे गाली देता है या मेरा उपहास करता है या मुझे बाहर निकालने की धमकी देता है या मेरी निर्भर्त्सना करता है या मुझे बाँधता है या रोकता है या छविच्छेदन करता है या वधस्थान में ले जाता है या उपद्रव करता है, वस्त्र या पात्र या कम्बल या पादपोंछन का छेदन करता है या भेदन करता है] या अपहरण करता है।
(३) यह पुरुष अवश्य यक्षाविष्ट (यक्ष से प्रेरित) है, इसलिए यह मुझ पर आक्रोश करता है, [मुझे गाली देता है, उपहास करता है, बाहर निकालने की धमकी देता है, निर्भर्त्सना करता है, या बाँधता है, या रोकता है, या छविच्छेद करता है, या वधस्थान में ले जाता है, या उपद्रुत करता है, वस्त्र, या पात्र, या कम्बल, या पादपोंछन का छेदन करता है, या विच्छेदन करता है, या भेदन करता है,] या अपहरण करता है।
(४) मेरे इस भव में वेदन करने योग्य कर्म उदय में आ रहा है, इसलिए यह पुरुष मुझ पर आक्रोश | करता हैं-[गाली देता है, या उपहास करता है, या बाहर निकालने की धमकी देता है, या निर्भर्त्सना ॥ | करता है, या बाँधता है, या रोकता है, या छविच्छेद करता है, या वधस्थान में ले जाता है, या उपद्रुत । ; करता है, वस्त्र,या पात्र,या कम्बल, या पादपोंछन का छेदन करता है, या विच्छेदन करता है, या भेदन है | करता है] या अपहरण करता है।
(५) मुझे सम्यक् प्रकार अविचल भाव से परीषहों और उपसर्गों को सहन करते हुए, शान्ति रखते हुए, तितिक्षा रखते हुए और उनसे अप्रभावित रहते हुए देखकर बहुत से अन्य छद्मस्थ श्रमण-निर्ग्रन्थ उदय में आये परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार अविचल भाव से सहन करेंगे, क्षान्ति रखेंगे, तितिक्षा रखेंगे और उनसे अप्रभावित रहेंगे।
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पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
(127)
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Fifth Sthaan: First Lesson
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555555555555555555555555555555555555 र इन पाँच कारणों से केवली उदयागत परीषहों और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार अविचल भाव से ॐ सहन करते हैं, क्षान्ति रखते हैं, तितिक्षा रखते हैं और अप्रभावित रहते हैं।
74. For five reasons a Kevali (omniscient) properly and resolutely endures the precipitated (udirna) afflictions and torments with forbearance (titiksha) and forgiveness (kshama) remaining unmoved
(1) This person is, indeed, vikshipt chitt (not in his senses due to grief or other such problem). That is why he is angry at me or abuses me or threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or pierces my body or takes me to the killing ground or torments me or 45 snatches, throws away, breaks, shatters or steals my garb, bowls, asceticbroom and other equipment.
(2) This person is, indeed, driptachitt (crazy due to bloated ego or other such vice). That is why he is angry at me or abuses me or 4 threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or
pierces my body or takes me to the killing ground or torments me or snatches, throws away, breaks, shatters or steals my garb, bowls, asceticbroom and other equipment.
(3) This person is, indeed, yakshavisht (under the influence of a 4 Yaksha or bad spirits). That is why he is angry at me or abuses me or threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or
pierces my body or takes me to the killing ground or torments me or 5 snatches, throws away, breaks, shatters or steals my garb, bowls, ascetic4 broom and other equipment.
(4) My karmas responsible for suffering of pain are coming to fruition during this life time. That is why he is angry at me or abuses me or threatens me to throw out or rebukes me or ties me or stops me or pierces my body or takes me to the killing ground or torments me or snatches, throws away, breaks, shatters or steals my garb, bowls, asceticbroom and other equipment.
(4) What will happen to me if I do not properly and resolutely endure these with forbearance (titiksha) and forgiveness (kshama) and get moved ? I will singularly acquire demeritorious karmas (paap karma).
(5) When I properly and resolutely endure these with forbearance (titiksha) and forgiveness (kshama) and remain unmoved, many chhadmasth nirgranth shramans (one who is short of omniscience due to residual karmic bondage) will see that and get inspired to properly and resolutely endure precipitated (udirna) afflictions and torments with
44 45 46 47 4554 455 454 455 456 457 454 455 456 $ $154 455 456 454 455 456 457 4545454545454545454545454545454545
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சுததமி*****மித*********************
forbearance (titiksha) and forgiveness (kshama) and remain unmoved I will singularly shed karmas (karma nirjara).
७५. हेतु पाँच हैं - (१) हेतु को (सम्यक् ) नहीं जानता है । (२) हेतु को (सम्यक् ) नहीं देखता है। (३) हेतु को (सम्यक्) नहीं समझता है - श्रद्धा नहीं करता है । (४) हेतु को प्राप्त - (सम्यक् रूप से ग्रहण) नहीं करता है । (५) हेतु - पूर्वक अज्ञानमरण से मरता है । ७६. हेतु पाँच हैं - (१) हेतु से असम्यक् जानता है। (२) हेतु से असम्यक् देखता है । (३) हेतु से असम्यक् समझता है, असम्यक् श्रद्धा करता है। (४) हेतु से असम्यक् प्राप्त करता है। (५) सहेतुक अज्ञानमरण से मरता है।
For these five reasons a Kevali properly and resolutely endures the precipitated afflictions and torments with forbearance and forgiveness 卐 remaining unmoved.
विवेचन - वृत्तिकार के अनुसार यहाँ केवली शब्द से श्रुत केवली, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवल ज्ञानी सभी अभीष्ट हैं। वे इन पाँच कारणों में से किसी एक कारण से परीषहोपसर्ग सहन करते हैं। पाँचों कारण एक साथ कभी उपस्थित नहीं होते । ( हिन्दी टीका भाग - २ पृष्ठ ७४)
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Elaboration-According to the author of the Vritti the term Kevali here 5 includes Shrut Kevali, Avadhi jnani, Manahparyav jnani and Keval jnani. The endure afflictions caused due to any one of these five reasons. All the five reasons are never effective at once. (Hindi Tika, part-2, p. 74) हेतु - पद HETU PAD (SEGMENT OF CAUSE)
७५. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - हेउं ण जाणति, हेउं ण पासति, हेउं ण बुज्झति, हे णाभिगच्छति, हेउं अण्णाणमरणं मरति । ७६. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - उणा ण जाणति, जाव (हिउणा ण पासति, हेउणा ण बुज्झति, हेउणा णाभिगच्छति), हेउणा अण्णाणमरणं मरति
७७. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - हेउं जाणइ, जाव (हिउं पासइ,
अभिगच्छइ), हेउं छउमत्थमरणं मरति । ७८. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - हेउणा जाणइ जाव (हिउणा पासइ, हेउणा बुज्झइ, हेउणा अभिगच्छइ), हेउणा छउमत्थमरणं मरइ ।
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
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75. Hetu (cause / one who knows cause) is of five kinds -- ( 1 ) does not (properly) know hetu (the cause ), ( 2 ) does not (properly) see hetu (the cause), (3) does not have (proper ) faith on hetu, ( 4 ) does not (properly ) 5 accept hetu and (5) embraces death of an ignorant with hetu 76. Hetu 5 (cause/one who knows cause) is of five kinds - ( 1 ) does not (properly) 5 know through hetu, ( 2 ) does not (properly) see through hetu,
卐
not have (proper ) faith or understand through hetu, (4) does not (properly) accept through hetu and (5) embraces death of an ignorant through hetu.
(3) does
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Fifth Sthaan: First Lesson
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ॐ ७७. पाँच हेतु हैं-(१) हेतु को (सम्यक्) जानता है। (२) हेतु को (सम्यक्) देखता है। (३) हेतु की
(सम्यक्) श्रद्धा करता है। (४) हेतु को (सम्यक्) प्राप्त करता है। (५) हेतु-पूर्वक छद्मस्थमरण मरता है। ७८. पुनः पाँच हेतु हैं-(१) हेतु से (सम्यक्) जानता है। (२) हेतु से (सम्यक्) देखता है। (३) हेतु से है (सम्यक्) श्रद्धा रखता है। (४) हेतु से (सम्यक्) प्राप्त करता है। (५) हेतु से (सम्यक्) छद्मस्थमरण मरता है।
77. Hetu (cause/one who knows cause) is of five kinds-—(1) does 4 (properly) know hetu, (2) does (properly) see hetu, (3) does have (proper) म 41 faith on hetu, (4) does (properly) accept hetu and (5) embraces death of a 41
chhadmasth with hetu. 78. Hetu (cause/one who knows cause) is of five kinds—(1) does (properly) know through hetu, (2) does (properly) see through hetu, (3) does have (proper) faith' through hetu, (4) does (properly) accept through hetu and (5) embraces death of a chhadmasth through hetu.
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अहेतु-पद AHETU-PAD
७९. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउं ण जाणति, जाव (अहेउं ण पासति, अहेउं ण बुज्झति, अहेउं णाभिगच्छति), अहेउं छउमत्थमरणं मरति। ८०. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा5 अहेउणा ण पासति, (अहेउणा ण बुज्झति, अहेउणा णाभिगच्छति), अहेउणा छउमत्थमरणं मरति।
७९. पाँच अहेतु हैं-(१) अहेतु को नहीं जानता है। (२) अहेतु को नहीं देखता है। (३) अहेतु की + श्रद्धा नहीं करता है। (४) अहेतु को प्राप्त नहीं करता है। (५) अहेतुक छद्मस्थमरण से मरता है। 5
८०. पुनः पाँच अहेतु हैं- (१) अहेतु से नहीं जानता है। (२) अहेतु से नहीं देखता है। (३) अहेतु से : ॐ श्रद्धा नहीं करता है। (४) अहेतु से प्राप्त नहीं करता है। (५) अहेतुक छद्मस्थमरण से मरता है।
79. Ahetu (non-cause) is of five kinds-(1) does not know ahetu, E 15 (2) does not see ahetu, (3) does not have faith on ahetu, (4)
accept ahetu and (5) embraces death of a chhadmasth with ahetu. 80. Ahetu is of five kinds—(1) does not know through ahetu, (2) does not see through ahetu, (3) does not have faith or understand through ahetu,
(4) does not accept through ahetu and (5) embraces death of a 4 chhadmasth through ahetu.
८१. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउं जाणति, जाव (अहेउं पासति, अहेउं बुज्झति, अहेउं अभिगच्छति), अहेउं केवलिमरणं मरति। ८२. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउणा जाणति, जाव (अहेउणा पासति, अहेउणा बुज्झति, अहेउणा अभिगच्छति), अहेउणा केवलिमरणं मरति।।
८१. पाँच अहेतु हैं (१) अहेतु को जानता है। (२) अहेतु को देखता है। (३) अहेतु की श्रद्धा म करता है। (४) अहेतु को प्राप्त करता है। (५) अहेतुक केवलि-मरण मरता है। ८२. पुनः पाँच अहेतु
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स्थानांगसूत्र (२)
(130)
Sthaananga Sutra (2)
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ܡܡܡܡܡܡܡ
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ककककककककककककककक55555 हैं-(१) अहेतु से जानता है। (२) अहेतु से देखता है। (३) अहेतु से श्रद्धा करता है। (४) अहेतु से प्राप्त है करता है। (५) अहेतुक केवलि-मरण मरता है। .
81. Ahetu (non-cause) is of five kinds-(1) does know ahetu, (2) does see ahetu, (3) does have faith on ahetu, (4) does accept ahetu and (5) embraces death of a Kevali with ahetu. 82. Ahetu is of five kinds(1) does know through ahetu, (2) does see through ahetu, (3) does have faith through ahetu, (4) does accept through ahetu and (5) embraces death of a Kevali through ahetu.
विवेचन-उपर्युक्त आठ सूत्रों में से आरम्भ के चार सूत्र हेतु-विषयक हैं और अन्तिम चार सूत्र अहेतु-विषयक हैं। जिससे साध्य का स्पष्ट ज्ञान हो उसे 'हेतु' कहते हैं। जैसे धुएँ से दूरस्थ अग्नि का
ज्ञान होता है। धुआँ हेतु है, अग्नि साध्य है। । जो हेतु तो नहीं, किन्तु हेतु जैसा लगता है उसे अहेतु कहा जाता है। हेतु और अहेतु दोनों का ज्ञान
अनिवार्य है। ___ पदार्थ दो प्रकार के होते हैं-हेतुगम्य और अहेतुगम्य। परोक्ष या दूरस्थित होने के कारण जो पदार्थ हेतु से जाने जाते हैं, उन्हें हेतुगम्य कहते हैं। जैसे-दूर प्रदेश में स्थित अग्नि धूम के कारण जानी जाती है। किन्तु जो पदार्थ सूक्ष्म हैं, दूर प्रदेश में स्थित हैं किन्तु बहुत काल पूर्व के हैं जैसे-(राम-रावण आदि) जिनका हेतु से ज्ञान सम्भव नहीं हैं, जो केवल ज्ञानी पुरुषों के वचनों से ही जाने जा सकते हैं, उन्हें अहेतुगम्य अर्थात् आगमगम्य कहा जाता है। जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अरूपी के पदार्थ केवल आगम-गम्य हैं, हमारे लिए वे हेतुगम्य नहीं हैं।
प्रस्तुत सूत्रों में हेतु और हेतुवादी (हेतु का प्रयोग करने वाला) ये दोनों ही हेतु शब्द से बताये गये हैं। जो हेतुवादी असम्यग्दर्शी होता है, वह कार्य को जानता-देखता तो है, परन्तु उसके हेतु को नहीं जानता-देखता है। वह हेतु-गम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा जानता-देखता। जो हेतुवादी सम्यग्दर्शी होता है, वह कार्य के साथ-साथ उसके हेतु को भी जानता-देखता है। वह हेतु-गम्य पदार्थ को हेतु द्वारा जानता-देखता है। ___ परोक्ष ज्ञानी (श्रुतज्ञानी) जीव हेतु के द्वारा परोक्षा वस्तुओं को जानते-देखते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी (अवधि ज्ञानी आदि) प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं को जानते-देखते हैं। उन्हें हेतु की अपेक्षा नहीं रहती। प्रत्यक्षज्ञानी भी दो प्रकार के होते हैं-देशप्रत्यक्षज्ञानी और सकलप्रत्यक्षज्ञानी। देशप्रत्यक्षज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की स्वाभाविक परिणतियों को आंशिकरूप से ही जानता-देखता है, पूर्णरूप से नहीं जानता-देखता। वह अहेतु (प्रत्यक्ष ज्ञान) के द्वारा अहेतुगम्य पदार्थों को सर्वभावेन नहीं जानता-देखता। किन्तु जो सकल प्रत्यक्षज्ञानी सर्वज्ञ केवली होता है, वह धर्मास्तिकाय आदि अहेतुगम्य पदार्थों की स्वाभाविक परिणतियों को सम्पूर्ण रूप से जानता-देखता है। वह प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा अहेतुगम्य पदार्थों को सर्वभाव से जानता-देखता है।
as 5555555555 55听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听四
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
(131)
Fifth Sthaan: First Lesson
ज) 5555555555555
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Page #176
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B555555555555555555555555555555555555 ॐ उक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि प्रारम्भ के दो सूत्र असम्यग्दर्शी हेतुवादी की अपेक्षा से और म 卐 तीसरा-चौथा सूत्र सम्यग्दर्शी हेतुवादी की अपेक्षा से हैं। पाँचवां-छठाँ सूत्र देशप्रत्यक्षज्ञानी छद्मस्थ की * अपेक्षा से और सातवां-आठवां सूत्र सकलप्रत्यक्षज्ञानी सर्वज्ञ केवली की अपेक्षा से हैं।
___ उक्त आठों सूत्रों का पाँचवां भेद मरण से सम्बन्ध रखता है। मरण दो प्रकार का होता है-सहेतुक
(सोपक्रम) और अहेतुक (निरुपक्रम)। शस्त्राघात आदि बाह्य हेतुओं से होने वाला मरण सहेतुक, ॐ सोपक्रम या अकालमरण हैं। जो मरण शस्त्राघात आदि बाह्य हेतुओं के बिना आयुष्य कर्म के पूर्ण होने के
पर होता है, वह अहेतुक, निरुपक्रम या यथाकाल मरण है। असम्यग्दर्शी हेतुवादी का अहेतुक मरण ॐ अज्ञानमरण कहलाता है और सम्यग्दर्शी हेतुवादी का सहेतुकमरण छद्मस्थमरण कहलाता है, 5 देशप्रत्यक्षज्ञानी का सहेतुकमरण भी छद्मस्थमरण कहा जाता है। सकलप्रत्यक्षज्ञानी सर्वज्ञ का अहेतुक मरण केवलि-मरण कहा जाता है।
वत्तिकार श्री अभयदेवसरि कहते हैं कि हमने उक्त सत्रों का यह अर्थ भगवती सत्र के पंचम शतक के सप्तम उद्देशक की चूर्णि के अनुसार लिखा है, जो कि सूत्रों के पदों की गमनिका मात्र है। इन सूत्रों का के वास्तविक अर्थ तो बहुश्रुत आचार्य ही जानते हैं। (वृत्ति भाग-२ पृष्ठ ५२८)
Elaboration Of the eight aforesaid aphorisms first four are regarding hetu and last four are regarding ahetu. Hetu means causative phrase or statement that proves a point. For example smoke conclusively informs about a distant fire. Smoke is hetu and fire is the point proved.
That which is not hetu but appears like hetu is called ahetu (noncause). Knowledge of both hetu and ahetu is essential. ___Things are of two kinds-inferred through hetu (hetugamya) and
inferred through ahetu (ahetugamya). Things that are known through i cause (hetu) due to being distant and not directly perceivable are called i
hetugamya. For example a distant fire is known due to presence of visible smoke. But things that are subtle, remote in terms of time as well as space, cannot be known through hetu and can only be known through the words of Keval jnanis (omniscients) are called ahetu gamya (inferred through ahetu) or Agam gamya (known through Agam). For example Dharmastikaya, Adharmastikaya and other formless things are known only through Agam and are not hetugamya for us.
In the aforesaid aphorisms the term hetu means both hetu (cause) and hetuvadi (one who uses the cause). A hetuvadi who is asamyagdarshi (does not properly know) sees and knows the thing or act but does not see and know its cause. He does not see and know a hetu gamya thing through hetu. A hetuvadi who is samyagdarshi (properly
a555 $ $$ $$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$$$$$$ $听听。
स्थानांगसूत्र (२)
(132)
Sthaananga Sutra (2)
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454 455 456 45 44 445 446 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 454 455 456 457 455 456 457 451 451 451 45 knows) sees and knows the thing or act as well as its cause. He sees and knows a hetu gamya thing through hetu.
Paroksh jnani (who perceives indirectly) sees and knows things that are not directly visible through hetu. Pratyaksh jnani (who perceives
directly) sees things directly. They are not dependent on hetu. Pratyaksh f jnanis are also of two types—desh pratyaskh jnani (having partial direct fi perception) sakal pratyaskh jnani (having complete direct perception). fi Desh pratyaskh jnani sees and knows the natural transformations of i fi entities like Dharmastikaya only partially and not completely. Through his
direct perception (ahetu) he cannot fully know the ahetu gamya things. But Sakal pratyaskh jnani or omniscient sees and knows the full spectrum of 5 natural transformations of entities like Dharmastikaya. Through his direct perception (ahetu) he fully sees and knows the ahetu gamya things.
In conclusion it can be said that the first two aphorism are for an imperfect hetuvadi and third and fourth aphorisms are for perfect ñ hetuvadi. Fifth and sixth aphorisms are for Desh pratyaskh jnani fichhadmasth and seventh and eighth aphorisms are for Sakal pratyaskh Fijnani omniscient. ☆ The fifth alternative of these eight aphorism relates to death which is F of two types-sahetuk (with a cause) and ahetuk (without a cause). fi Death caused by external causes like being hit by a weapon is sahetuk or
untimely death. Death on conclusion of ayushya karma (life span determining karma) and not due to any external cause is ahetuk or timely death. The ahetuk death of an imperfect hetuvadi is called ajnana maran (an ignorant death). The sahetuk death of a hetuvadi with right si perception is called chhadmasth maran. The sahetuk death of a Desh si pratyaskh jnani is also called chhadmasth maran. The sahetuk death of a Sakal pratyaskh jnani omniscient is called Kevali maran.
Shri Abhayadev Suri, the commentator (Vritti), informs that he has interpreted these aphorism on the basis of the Churni of Bhagavati Sutra (5/7), which is only superficial. The actual and all embracing meaning of these is known only to expert scholarly acharyas. (Vritti, part-2, p. 288) 34EA7ANUTTAR-PAD (SEGMENT OF SUPERLATIVES)
८३. केवलिस्स णं पंच अणुत्तरा पण्णत्ता, तं जहा-अणुत्तरे णाणे, अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिए।
444 445 446 44 41 41 41 41 41 41 414 45 46 45 44 445 446 447 443
Nananananannnnnn
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पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
( 133 )
Fifth Sthaan: First Lesson
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Page #178
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८३. केवली के पाँच स्थान अनुत्तर (सर्वोत्तम - अनुपम ) होते हैं - (१) अनुत्तर ज्ञान, (२) अनुत्तर
5 दर्शन, (३) अनुत्तर चारित्र, (४) अनुत्तर तप, (५) अनुत्तर वीर्य ।
卐
83. Kevali has five anuttar (superlative or unparalleled) sthaans (virtues ) - (1) Anuttar jnana (supreme knowledge), (2) Anuttar darshan (supreme perception ), ( 3 ) Anuttar chaaritra (supreme conduct ),
(4) Anuttar tap ( supreme austerities) and (5) Anuttar virya (supreme potency).
पंच कल्याणक-पद PANCH KALYANAK-PAD
卐
卐
(SEGMENT OF FIVE AUSPICIOUS EVENTS)
८४. पउमप्पहे णं अरहा पंचचित्ते हुत्था, तं जहा - ( १ ) चित्ताहिं चुते चइत्ता गन्भं वक्कंते ।
(२) चित्ताहिं जाते । (३) चित्ताहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वइए । (४) चित्ताहिं अनंते अणुत्तरे णिव्याघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे । (५) चित्ताहिं परिणिब्बुते ।
84. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of फ Tirthankar Padmaprabh (sixth Tirthankar) occurred in Chitra
5 Nakshatra (1) He descended from heaven into the womb of his mother 5
in Chitra Nakshatra. (2) He was born in Chitra Nakshatra. (3) He 卐
८४. पद्मप्रभ (छठे ) तीर्थंकर के पाँच कल्याणक चित्रा नक्षत्र में हुए - (१) चित्रा नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये । (२) चित्रा नक्षत्र में जन्म हुआ। (३) चित्रा नक्षत्र में मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए । ( ४ ) चित्रा नक्षत्र में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, सम्पूर्ण, परिपूर्ण केवल ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ। (५) चित्रा नक्षत्र में निर्वाण हुआ।
H Nakshatra. (5) He got nirvana in Chitra Nakshatra.
卐
卐
tonsured his head, renounced his household and got initiated in Chitra 5 5 Nakshatra. (4) He attained infinite, unmatched, unrestricted, unveiled, 5 perfect
and supreme Keval-jnana and keval-darshan) in Chitra 5
卐
फ्र
८५. पुष्पदंते णं अरहा पंचमूले हुत्था, तं जहा - मूलेणं चुते चइत्ता गब्भं वक्कंते एवं चैव
एवमेतेणं अभिलावेणं इमातो गाहातो अणुगंतव्यातो
८५. पुष्पदन्त (नौवें तीर्थंकर के पाँच कल्याणक मूल नक्षत्र में हुए - (१) मूल नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये ।
in Mool Nakshatra. (and so on )
स्थानांगसूत्र (२)
फ्र
85. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of 5 Tirthankar Pushpadant (ninth Tirthankar) occurred in Mool Nakshatra
(1) He descended from heaven into the womb of his mother
(134)
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Sthaananga Sutra ( 2 )
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८६. पउमप्पभस्स चित्ता, मूले पुण होइ पुष्पदंतस्स।
पुव्वाइं आसाढा, सीयलस्सुत्तर विमलस्स भद्दवता ॥१॥ रेवतिता अणंतजिणो, पूसो धम्मस्स संतिणो भरणी। कुंथुस्स कत्तियाओ, अरस्स तह रेवतीतो य॥२॥ मुणिसुब्बयस्स सवणो, आसिणि णमिणो य णेमिणो चित्ता।
पासस्स विसाहाओ, पंच य हत्थुत्तरे वीरो॥३॥ [ सीयले णं अरहा पंचपुब्बासाढे हुत्था, तं जहा-पुब्बासाढाहिं चुते चइत्ता गभं वक्कंते।
८७. विमले णं अरहा पंचउत्तराभद्दवए हुत्था, तं जहा-उत्तराभद्दवयाहिं चुते चइत्ता गब्भं वक्कंते। ८८. अणंते णं अरहा पंचरेवतिए हुत्था, तं जहा-रेवतिहिं चुते चइत्ता गभं वक्कंते। # ८९. धम्मे णं अरहा पंचपूसे हुत्था, तं जहा-पूसेणं चुते चइत्ता गब्भं वक्कते।९०. संती णं अरहा म पंचभरणीए हुत्था, तं जहा-भरणीहिं चुते चइत्ता गठभं वक्कंते। ९१. कुंथू णं अरहा पंचकत्तिए ।
हुत्था, तं जहा-कत्तियाहिं चुते चइत्ता गब्भं वक्कंते। ९२. अरे णं अरहा पंचरेवतिए हुत्था, तं जहा-
रेवतिहिं चुते चइत्ता गभं वक्कंते। ९३. मुणिसुब्बए णं अरहा पंचसवणे हुत्था, तं जहा-सवणेणं चुते की # चइत्ता गठभं वकंते। ९४. णमी णं अरहा पंचआसिणीए हुत्था, तं जहा-आसिणीहिं चुते चइत्ता 5
गभं वक्कते। ९५. णेमी णं अरहा पंचचित्ते हुत्था, तं जहा-चित्ताहिं चुते चइत्ता गभं वक्कते।
९६. पासे णं अरहा पंचविसाहे हुत्था, तं जहा-विसाहाहि चुते चइत्ता गब्भं वक्कंते।] # ८६. शीतलनाथ (दसवें) तीर्थंकर के पाँच कल्याणक पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में हुए। (१) पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में 5 में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। इत्यादि।
८७. विमल (तेरहवें) तीर्थंकर के पाँच कल्याणक उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में हुए। (१) उत्तराभाद्र पद है । नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए च्युत होकर गर्भ में आये। इत्यादि। ८८. चौदहवें अनन्तनाथ तीर्थंकर के 5 - पाँच कल्याणक रेवती नक्षत्र में हए. जैसे-(१) रेवती नक्षत्र में स्वर्ग से च्यत हए और च्युत होकर गर्भ -
में आये। इत्यादि। ८९. धर्म तीर्थंकर (१५) के पाँच कल्याणक पुष्य नक्षत्र में हुए, जैसे-(१) पुष्य फ़ । नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। इत्यादि। ९०. शान्ति तीर्थंकर (१६) के पाँच
कल्याणक भरणी नक्षत्र में हुए, जैसे-(१) भरणी नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में 5 आये। इत्यादि। ९१. कुन्थु तीर्थंकर (१७) के पाँच कल्याणक कृत्तिका नक्षत्र में हुए, जैसे
(१) कृत्तिका नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। इत्यादि। ९२. अर तीर्थंकर # (१८) के पाँच कल्याणक रेवती नक्षत्र में हुए, जैसे-(१) रेवती नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। इत्यादि। ९३. मुनिसुव्रत तीर्थंकर (२०) के पाँच कल्याणक श्रवण नक्षत्र में हुए,
जैसे-(१) श्रवण नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। इत्यादि। ९४. नमि तीर्थंकर # (२१) के पाँच कल्याणक अश्विनी नक्षत्र में हुए, जैसे-(१) अश्विनी नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और
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पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
(135)
Fifth Sthaan: First Lesson
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86. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Shital Naath (tenth Tirthankar) occurred in Purvashadh Nakshatra-(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Purvashadh Nakshatra. (and so on).
87. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Vimal Naath (thirteenth) occurred in Uttarabhadrapad
Nakshatra—(1) He descended from heaven into the womb of his mother i $ in Uttarabhadrapad Nakshatra. (and so on). 88. The panch kalyanaks
(five auspicious events) in the life of Tirthankar Anant Naath $ (fourteenth Tirthankar) occurred in Revati Nakshatra--(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Revati Nakshatra. (and so on). 89. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Dharma Naath (fifteenth Tirthankar) occurred in Pushya Nakshatra-(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Pushya Nakshatra. (and so on). 90. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Shanti Naath (sixteenth) occurred in Bharani Nakshatra-(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Bharani Nakshatra. (and so on). 91. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Kunthu Naath (seventeenth) occurred in Krittika Nakshatra-(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Krittika Nakshatra. (and so on). 92. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of 45 Tirthankar Ara Naath (eighteenth) occurred in Revati Nakshatra(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Revati Nakshatra. (and so on). 93. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Munisuvrat Naath (twentieth) occurred in Shravan Nakshatra (1) He descended from heaven into the womb of his mother in Shravan Nakshatra. (and so on). 94. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Nami Naath (twenty first) occurred in Ashvini Nakshatra-(1) He descended from heaven into the womb of his mother in Ashvini Nakshatra. (and so on). 95. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar Nemi Naath (twenty second) occurred in Chitra Nakshatra-(1) He descended from
41 44 445 44 445 446 447 456 45 44 45 46 47 46 45 44 45 46
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Fentie ()
( 136 )
Sthaananga Sutra (2)
2454545455 41 41 41 41 41 41 41 41 41 414 415 416 41 41 41 41 41 41
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heaven into the womb of his mother in Chitra Nakshatra. (and so on). 96. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Tirthankar 45
Parshva Naath (twenty third) occurred in Vishakha Nakshatra-(1) He fi descended from heaven into the womb of his mother in Vishakha
Nakshatra. (and so on). __९७. समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था, तं जहा-(१) हत्थुत्तराहिं चुते चइत्ता गभं वक्कंते। (२) हत्थुत्तराहिं गभाओ गभं साहरिते। (३) हत्थुत्तराहिं जाते। (४) हत्थुत्तराहिं मुंडे
भवित्ता (अगाराओ अणगारित) पवइए। (५) हत्थुत्तराहिं अणंते अणुत्तरे (णिव्वाघाए णिरावरणे # कसिणे पडिपुण्णे) केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे।
__९७. (२४) श्रमण भगवान् महावीर के पाँच कल्याणक हस्तोत्तर (उत्तरा फाल्गुनी) नक्षत्र में हुए, # जैसे-(१) हस्तोत्तर नक्षत्र में स्वर्ग से च्युत हुए और च्युत होकर गर्भ में आये। (२) हस्तोत्तर नक्षत्र में
देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में साहरण हुआ। (३) हस्तोत्तर नक्षत्र में जन्म लिया। (४) हस्तोत्तर
नक्षत्र में अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। (५) हस्तोत्तर नक्षत्र में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, । निरावरण, सम्पूर्ण, परिपूर्ण केवल वर ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ।
97. The panch kalyanaks (five auspicious events) in the life of Shraman Bhagavan Mahavir occurred in Hastottara (Uttaraphalguni)
Nakshatra-(1) He descended from heaven into the womb of his mother fi in Hastottara Nakshatra. (2) He was transplanted from the womb of
Devananda to that of Trishala in Hastottara Nakshatra. (3) He was born in Hastottara Nakshatra. (4) He tonsured his head, renounced his household and got initiated in Hastottara Nakshatra. (5) He attained infinite, unmatched, unrestricted, unveiled, perfect and supreine Kevaljnana and keval-darshan) in Hastottara Nakshatra.
विवेचन-भगवान महावीर का निर्वाण स्वाति नक्षत्र में हुआ था। जबकि अन्य तीर्थंकरों के च्यवन से निर्वाण तक एक ही नक्षत्र में हुए।
Elaboration-Bhagavan Mahavir got nirvana in Swati Nakshatra whereas all other above said Tirthankars got their descent to nirvana in the same nakshatra.
॥ पंचम स्थान का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ • END OF THE FIRST LESSON
नागना
ב
ב
ב
ב
ב
नाममा नागानामा
पंचम स्थान : प्रथम उद्देशक
(137)
Fifth Sthaan : First Lesson
19595555555555555555555555555
Page #182
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पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक FIFTH STHAAN (Place Number Five) : SECOND LESSON
555555555555)555555555555555555555))))))))
महानदी-उत्तरण-पद MAHANADI-UTTARAN-PAD
(SEGMENT OF CROSSING GREAT RIVERS) ९८. णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाओ उद्दिवाओ गणियाओ वियंजियाओ पंच महण्णवाओ महाणदीओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा, तं जहा-गंगा, जउणा, सरउ, एरवती, मही।
पंचहिं ठाणेहिं कप्पति, तं जहा-(१) भयंसि वा, (२) दुभिक्खंसि वा, (३) पव्यहेज्ज वा णं फ़ कोई, (४) दओघंसि वा एज्जमाणंसि महता वा, (५) अणारिएसु।
९८. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को महानदी के रूप में कही गई, गिनी गई, प्रसिद्ध और बहुत + जलवाली (१) गंगा, (२) यमुना, (३) सरयू, (४) ऐरावती (रावी), (५) मही। ये पाँच महानदियाँ एक मास के भीतर दो बार या तीन बार से अधिक उतरना या नौका से पार करना नहीं कल्पता है
किन्तु इन पाँच कारणों से इन महानदियों का उतरना या नौका से पार करना कल्पता है(१) शरीर व उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर। (२) दुर्भिक्ष होने पर। (३) किसी द्वारा
उत्पीडित या नदी में प्रवाहित किये जाने पर। (४) बाढ़ आ जाने पर। (५) अनार्य पुरुषों द्वारा उपद्रव ॥ फ़ किये जाने पर।
98. Nirgranth and nirgranthis (male and female ascetics) are not 4 allowed to cross (on boat or otherwise) five great rivers more than two or
three times in a month. These five rivers with great flow of water and called, counted, and famous as mahanadis (great rivers) are—(1) Ganga, (2) Yamuna, (3) Sarayu, (4) Airavati (Ravi) and (5) Mahi.
However, they are allowed to cross these mahanadis for five reasons-(1) If there is a fear of being deprived of body and equipment. (2) If there is a famine. (3) On being tormented or thrown into the river by someone. (4) If there is a flood. (5) If disturbance is created by anarya people (ignoble people like aborigines).
विवेचन-सूत्र में नदियों के लिए 'महार्णव और महानदी' ये दो विशेषण दिये गये हैं। जो बहुत गहरी हो उसे महानदी और जो समुद्र के समान बहुत जल वाली या समुद्र में मिलने वाली हो उसे महार्णव फ़ कहते हैं। गंगा आदि पाँचों नदियाँ गहरी भी हैं और समुद्रगामिनी भी हैं, बहुत जलवाली भी हैं।
वृत्तिकार ने बृहत्कल्पभाष्य की एक प्राचीन गाथा को उद्धृत कर नदियों में उतरने या पार करने के फ़ व्यावहारिक दोष बताये हैं-(१) इन नदियों में बड़े-बड़े मगरमच्छ रहते हैं, उनके द्वारा खाये जाने का
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95555555555555555555555555555555555555 A भय रहता है। (२) इन नदी मार्गों में अनेक चोर-डाकू नौकाओं में घूमते रहते हैं, जो मनुष्यों को मार । कर उनके वस्त्रादि लूट ले जाते हैं। (३) इसके अतिरिक्त नदी पार करने में जलकायिक जीवों की तथा ॥
जल में रहने वाले अन्य छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं की विराधना होती है। (४) स्वयं के डूब जाने से # आत्म-विराधना की भी संभावना रहती है। म गंगादि पाँच ही महानदियों के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के समय में - निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों का विहार पूर्व व उत्तर भारत में ही अधिक हो रहा था, क्योंकि दक्षिण भारत । में बहने वाली नर्मदा, गोदावरी, ताप्ती आदि किसी भी महानदी का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में नहीं है।
भाष्यकार ने सेसा वि सूईया महासलिला-शेष महा जलवाली नदियाँ भी इसी में समझना चाहिए। कहकर अन्य नदियाँ सम्मिलित की हैं।
Elaboration–Two adjectives have ben used in this aphorism for great rivers-maharnava and mahanadi. A deep river is called mahanadi and
a river with great expanse and flow of water or one that flows into a sea F is called maharnava. The aforesaid five rivers including Ganga are deep F as well as expansive and they fall into the sea.
Quoting an ancient verse from Vrihatkalpabhashya, the commentator (Vritti) has mentioned practical reasons for not crossing riversF (1) These rivers are infested with crocodiles and other marine animals
and there are chances of being devouvered by them. (2) Pirates and bandits ply around in boats on these rivers and there are chances of being robbed and killed by them. (3) While crossing the river harm
comes to water-bodied beings as well as small marine beings. (4) Besides h these there are chances of drowning, which amounts to causing harm to 5 the self.
The mention of the names of only five great rivers including Ganga and none of the rivers from south India, including Narmada, Godavari i and Tapti, indicates that during the period of Bhagavan Mahavir the
popular area of movement of Jain ascetics was eastern and northern India. However, the author of the Bhashya has included other rivers by mentioning ‘remaining great rivers should be read with these.'
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प्रथम प्रावृष-विहार पद PRATHAM PRAVRIT-VIHAR-PAD
(SEGMENT OF MOVEMENT DURING EARLY MONSOON SEASON) ९९. णो कप्पइ णिगंथाण वा णिगंथीण व पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइज्जित्तए। पंचहिं ठाणेहिं कप्पइ, तं जहा-(१) भयंसि वा, (२) दुभिक्खंसि वा, (३) (पव्वहेज वा णं कोई, (४) दओघंसि वा एज्जमाणंसि, महता वा, (५) अणारिएहिं।
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९९. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को प्रथम प्रावृट् में ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है । किन्तु पाँच कारण उपस्थित होने पर विहार करना कल्पता है। जैसे- (१) शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर, (२) दुर्भिक्ष होने पर, (३) किसी के द्वारा व्यथित किये जाने पर या ग्राम से निकाल दिये जाने पर, (४) बाढ़ आ जाने पर, (५) अनार्यों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर ।
फ्र
99. Nirgranth and nirgranthis (male and female ascetics) are not allowed to move from one village to another during pratham pravrit (first part of the monsoon season). However, they are allowed to do so for five reasons-(1) If there is a fear of being deprived of body and equipment. (2) If there is a famine. (3) On being tormented or expelled out of the village. ( 4 ) If there is a flood. (5) If disturbance is created by anarya (ignoble) people.
वर्षावास - विहार पद VARSHAVAS-VIHAR-PAD
(SEGMENT OF MOVEMENT DURING MONSOON-STAY)
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१००. वासावासं पज्जोसविताणं णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा गामाणुगामं 5 दूइज्जत्तए | पंचर्हि ठाणेहिं कप्पर, तं जहा - ( १ ) णाणट्टयाए, (२) दंसणट्टयाए, (३) चरित्तट्टयाए, 卐 (४) आयरिय - उवज्झाया वा से वीसुंभेज्जा, (५) आयरिय - उवज्झायाण वा बहिया 5
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वे आवच्चकरणयाए ।
卐
१००. वर्षावास में पर्युषणाकल्प करने वाले निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है । किन्तु पाँच कारणों से विहार करना कल्पता है, जैसे- (१ - २) विशेष ज्ञान औरदर्शन की प्राप्ति के लिए। (३) चारित्र की रक्षा के लिए । ( ४ ) आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु हो जाने पर अथवा उनका कोई अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए। (५) वर्षाक्षेत्र से बाहर रहने वाले आचार्य या उपाध्याय की वैयावृत्त्य करने के लिए।
100. Nirgranth and nirgranthis (male and female ascetics) observing the Paryushanakalp (special code of conduct observed annually during monsoon-stay) are not allowed to move from one village to another during their varshavas (monsoon-stay of four months). However, they are allowed to do so for five reasons-If it is (1) for the purpose of 5 acquiring special jnana (knowledge ), ( 2 ) for the purpose of acquiring 5 special darshan ( perception / faith ), ( 3 ) for the purpose of protecting ascetic conduct, (4) on death of an acharya or upadhyaya or for some special mission entrusted by them, and (5) for serving some acharya or upadhyaya stationed away from the place of monsoon-stay.
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विवेचन - वर्षाकाल में एक स्थान पर रहने को वर्षावास कहते हैं। यह तीन प्रकार है - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । (१) जघन्य वर्षावास - सावंत्सरिक प्रतिक्रमण के दिन से लेकर कार्तिकी पूर्णमासी तक ७०
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दिन का। (२) मध्यम वर्षावास-श्रावणकृष्णा प्रतिपदा से कार्तिकी पूर्णमासी तक चार मास या १२० दिन ॥ का। (३) उत्कृष्ट वर्षावास-आषाढ़ से लेकर मगसिर तक छह मास का।
. प्रथम सूत्र के द्वारा प्रथम प्रावृष में विहार का निषेध किया गया है और दूसरे सूत्र के द्वारा ॥ वर्षावास में विहार का निषेध किया गया है। इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पर्युषणकल्प को स्वीकार के करने के पूर्व जो वर्षा का समय है उसे 'प्रथम प्रावृष्' कहा जाता है। अतः प्रथम प्रावृट् का अर्थ है - आषाढ़ मास में विहार न किया जाये। प्रावृट् का अर्थ वर्षाकाल लेने पर अर्थ होगा-भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिकी पूर्णिमा तक का समय। इस समय में विहार का निषेध किया गया है। चातुर्मास में : विहार करने का निषेध दो सूत्रों द्वारा कहने का अभिप्राय यह लगता है कि तीन ऋतुओं की गणना में 'वर्षा' एक ऋतु है। किन्तु छह ऋतुओं की गणना करने से उसके दो भेद हो जाते हैं, जिसके अनुसार + श्रावण और भाद्रपद ये दो मास प्रावृष ऋतु में तथा आश्विन और कार्तिक ये दो मास 'वर्षा ऋतु' में गिने जाते हैं। इस प्रकार दोनों सूत्रों का सम्मिलित अर्थ है कि श्रावण से लेकर कार्तिक मास तक चार मासों में साधु और साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए। यह उत्सर्ग मार्ग है। हाँ, सूत्रोक्त पाँच कारण-विशेषों की अवस्था में विहार किया भी जा सकता है, यह अपवाद मार्ग है।
छह मास के उत्कृष्ट वर्षावास का अभिप्राय यह है कि यदि आषाढ़ के प्रारम्भ से ही पानी बरसने लगे और मगसिर मास तक भी बरसता रहे तो छह मास का उत्कृष्ट वर्षावास होता है। इस काल में श्रमण एक स्थान पर रहता है।
ElaborationTo stay at a place during the monsoon season is called varshavas or monsoon-stay. This is of three kinds—minimum, medium and maximum. (1) Jaghanya varshavas (minimum monsoon-stay)- It is
of 70 days from Samvatsarik pratikraman to Kartik Purnima. 41 । (2) Madhyam varshavas (medium monsoon-stay)-It is of 120 days from ! Shravan Krishna Pratipada to Kartik Purnima. (3) Utkrisht varshavas (maximum monsoon-stay)—It is of 6 months from Ashadh to Mangsir.
The first of these two aphorism proscibes movement during pratham pravrit (first part of monsoon season) and the second during monsoonstay. This confirms that pratham pravrit is the part of monsoon season before Paryushan kalp is accepted. This means that there should be no movement during the month of Ashadh. If Pravrit is interpreted just as monsoon season it would include the period between Bhadrapad Shukla panchami to Kartik Purnima. Movement is, indeed, prohibited during : this period. Splitting this negation into two parts appears to have the purpose of including both popular ways of counting seasons. In the counting based on three seasons in a year monsoon is one long season but in the counting based on six seasons in a year monsoon season is split into two-Shravan-Bhadrapad are called Pravrit Ritu and Ashvin
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- Kartik are called Varsha Ritu. The combined meaning of these two
aphorisms is that ascetics should not move around during the four months, Shravan to Kartik. This is the ideal noi.n. Under special conditions mentioned in these aphorisms they are allowed to move but that is an emergency measure.
The reason for the provision of a maximum period of six months is to cover one month on each side in case of early or late monsoon. During the monsoon ascetics are supposed to stay at one place. अनुदात्य-पद ANUDGHATYA-PAD (SEGMENT OF SERIOUS ATONEMENT)
१०१. पंच अणुग्घातिया पण्णत्ता, तं जहा-हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवेमाणे, रातीभोयणं भुंजेमाणे, सागारियपिंडं भुंजेमाणे, रायपिंडं भुजेमाणे।
१०१. पाँच अनुद्घात्य (गुरु-प्रायश्चित्त के योग्य) होते हैं। (१) हस्तकर्म-(मैथुन-) करने वाला। ॐ (२) मैथुन की प्रतिसेवना (स्त्री-संभोग) करने वाला। (३) रात्रि-भोजन करने वाला। 9 (४) सागारिक-(शय्यातर-) पिण्ड का आहार करने वाला। (५) राज-पिण्ड का भोजन करने वाला। 451 101. There are five anudghatya (reasons for serious atonement)-One
who indulges in-(1) hastakarma (masturbation), (2) maithun pratisevana (copulation), (3) ratri bhojan (eating during the night),
(4) eating sagarik-pind (food offered by host) and (5) eating raj-pind (food ॐ offered by the king).
विवेचन-दोष की शुद्धि के लिए दो प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं-(I) लघु-प्रायश्चित्त और 9 (II) गुरु-प्रायश्चित्त। लघु-प्रायश्चित्त को उद्घातिक (उपवास आदि का छोटा) और गुरु-प्रायश्चित्त को + अनुद्घातिक (दीक्षा छेद) प्रायश्चित्त कहते हैं। यह किसी भी दशा में कम नहीं किया जा सकता है। यह ॐ भी दो प्रकार का होता है-गुरु मासिक-एक मास की दीक्षा का छेद। गुरु चौमासी प्रायश्चित्त-चार मास मकी दीक्षा का छेद। ॐ सागारिक-पिण्ड-गृहस्थ श्रावक को सागारिक कहते हैं। जिस मकान में साधु ठरहते हैं, उस भवन + का स्वामी 'शय्यातर' कहा जाता हैं। शय्यातर के घर का भोजन, वस्त्र, पात्रादि लेना साधु के लिए
निषिद्ध है, क्योंकि उसके ग्रहण करने पर तीर्थंकरों की आज्ञा का उल्लंघन, अधिक निकट परिचय के 卐 कारण ऐषणा सम्बन्धी अनेक दोष उत्पन्न होते हैं।
राजपिण्ड-जिसका विधिवत् राज्याभिषेक किया गया हो, जो सेनापति, मंत्री, पुरोहित, श्रेष्ठी और 4 卐 सार्थवाह इन पाँच पदाधिकारियों के साथ राज्य करता हो, उसे राजा कहते हैं। उसके घर का भोजन के
राज-पिण्ड कहलाता है। राज-पिण्ड ग्रहण करने में अनेक दोष हैं। जैसे-तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण, राज्याधिकारियों के आने-जाने के समय होने वाला व्याघात, चोर आदि की आशंका है
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आदि। इनके अतिरिक्त राजाओं का भोजन प्रायः राजस और तामस होता है, ऐसा भोजन करने पर म साधु को दर्प, कामोद्रेक आदि भी हो सकता है। इन कारणों से राजपिण्ड के ग्रहण करने का निषेध है।।
Elaboration—Two kinds of atonement have been prescribed for faults committed-(a) laghu-prayashchit (simple atonement and (b) guruprayashchit (serious atonement). Simple atonement includes fasting si (etc.) and is called udghatik prayashchit. Serious atonement includes termination from the ascetic organisation for a specific period and is called anudghatik prayashchit. There is no provision of curtailment in
serious atonement. It is also of two types--guru masik or termination for i one month and guru chaumasi or termination for four months.
Sagarik-pind-A lay shravak is caled sagarik. The person in whose house ascetics are staying is called shayyatar (host). Accepting any alms 4 including food, garb and bowls from him is prohibited for an ascetic. This is because it involves defying the order of Tirthankars and many other faults related to code of seeking due to intimacy.
Raj-pind-A king is one who has been formally crowned and rules with the help of five classes of functionaries-commander, minister, priest, merchant and caravan chief. Food from his kitchen is called raj. pind. Accepting raj-pind involves numerous faults-defying the order of Tirthankars, disturbance caused by frequency of movement of state employees and officers, chances of confronting theives and bandits etc. Besides this the food made for kings is generally rajas (passion provocating) and tamas (malice enhancing) in quality. Eating such food may magnify conceit, passion and other vices in an ascetic. For these reasons accepting such food is prohibited for ascetics. राजान्तःपुर-प्रवेश-पद RAJANTAHPUR-PRAVESH-PAD
(SEGMENT OF ENTERING THE PALACE) १०२. पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे रायंतेउरमणुपविसमाणे णाइक्कमति, तं जहा
(१) णगरे सिया सव्वतो समंता गुत्ते गुत्तदुवारे, बहवे समणमाहणा णो संचाएंति भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, तेसिं विण्णवणट्टयाए रायंतेउरमणुपविसेज्जा। (२) पाडिहारियं वा पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणमाणे रायंतेउरमणुपविसेज्जा। (३) हयस्स वा गयस्स वा दुट्ठस्स आगच्छमाणस्स भीते रायंतेउरमणुपविसेज्जा। (४) परो व णं सहसा वा बलसा वा बाहाए गहाय रायंतेउरमणुपवेसेज्जा। (५) बहिया व णं आरामगयं उज्जाणगयंक वा रायंतेउरजणो सब्बतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं सण्णिवेसिज्जा।
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इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं समणे णिगंथे (रायंतेउरमणुपविसमाणे) णातिक्कमइ।
१०२. पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ राजा के अन्तःपुर (रणवास) में प्रवेश करता हुआ तीर्थंकरों 卐 की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। जैसे-(१) यदि नगर चारों ओर से परकोटे से घिरा हो, उसके
द्वार बन्द कर दिये गये हों, बहुत-से श्रमण-माहन भक्त-पान के लिए नगर से बाहर न निकल सकें, या + ॐ प्रवेश न कर सकें, तब उस स्थिति को बतलाने के लिए राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकता है। + (२) प्रातिहारिक-(वापस करने को कहकर लाये गये) पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक को वापस देने के :
लिए। (३) मार्ग चलते हुए दुष्ट घोड़े या हाथी के सामने आने पर भयभीत साधु राजा के अन्तःपुर में 卐 प्रवेश कर सकता है। (४) कोई अन्य व्यक्ति सहसा बल-पूर्वक बाहु पकड़कर ले जाये। (५) कोई साधु
बाहर आराम-पुष्पोद्यान या उद्यान-वृक्षोद्यान में ठहरा हो और वहाँ (क्रीड़ा करने के लिए राजा का 卐 अन्तःपुर आ जावे), राजपुरुष उस स्थान को चारों ओर से घेर ले और निकलने के द्वार बन्द कर दें,
तब वह वहाँ रह सकता है। ___इन पाँच कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करता हुआ तीर्थकरों की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
102. A Shraman nirgranth does not defy the order of Tirthankars if he enters the antah-pur (inner quarters of a king) for five reasons—(1) If
the city is surrounded by a parapet wall, its gates are closed and it is not 5. possible for many ascetics to go out of or enter the city to seek alms. An in
ascetic is allowed to enter the antah-pur to inform about that situation.
(2) For returning the pratiharik (borrowed) things including peeth + (stool), falak (plank), shayya (bed) and samstarak (bed of hay). (3) A
frightened ascetic is allowd to enter the antah-pur for safety when si affronted by wild horse or elephant while walking on the way. (4) If
someone takes an ascetic physically into the antah-pur by force. (5) If an ascetic is staying in the orchard or garden and the royal family comes to the garden for entertainment, the gaurds surround the garden and close the gates. In such a situation the ascetic is allowed to remain there.
A Shraman nirgranth does not defy the order of Tirthankars if he enters the antah-pur for the said five reasons.
विवेचन-मुनि दो प्रकार की वस्तुएँ ग्रहण करता है-अप्रातिहारिक-जो वापस लौटाई नहीं जाती हो, जैसे-वस्त्र, पात्र, भोजन, कम्बल आदि। प्रातिहारिक-जो लौटाई जा सकती हैं-जैसे-पट्ट, फलक, शय्या, ॐ संस्तारक आदि। [ [वृत्तिकार ने निशीथभाष्य की गाथाएँ उद्धृत करके अन्तःपुर प्रवेश के अनेक दोष बताये हैं। 卐 (वृत्ति भाग-२, पृष्ठ ५३७)] म | स्थानांगसूत्र (२)
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Elaboration An ascetic accepts two kinds of things-(1) Apratiharik or not to be returned, such as garb, bowls, food and blanket. Pratiharik or returnable, such as patta (bench), falak (plank), shayya (bed) and samstarak (bed of hay).
(Qoting verses from Nisheeth Bhashya the commentator (Vritti) has listed many more faults of entering antah-pur. (Vritti, part-2, p. 537)] गर्भ-धारण-पद GARBH-DHARAN-PAD (SEGMENT OF CONCEPTION)
१०३. पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं असंवसमाणीवि गभं धरेज्जा, तं जहा
(१) इत्थी दुब्बियडा दुण्णिसण्णा सुक्कपोग्गले अधिट्ठिज्जा। (२) सुक्कपोग्गलसंसिद्वेव से वत्थे अंतो जोणीए अणुपवेसेज्जा। (३) सई वा से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा। (४) परो व से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा। (५) सीओदगवियडेण वा से आयममाणीए सुक्कपोग्गला अणुपवेसेज्जा।
इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं (इत्थी पुरिसेण सद्धिं असंवसमाणीवि गभं) धरेज्जा।
१०३. पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास नहीं करती हुई भी गर्भ को धारण कर सव ती है। . जैसे-(१) अनावृत (नग्न) और दुर्निषण्ण (विवृत योनिमुख) रूप से बैठी हो, अर्थात् पुरुष-वीर्य से संसृष्ट स्थान पर बैठी हुई स्त्री द्वारा शुक्र-पुद्गलों को आकर्षित कर लेने पर। (२) शुक्र-पुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र स्त्री की योनि में प्रविष्ट हो जाने पर। (३) स्त्री स्वयं ही शुक्र-पुद्गलों को योनि में प्रविष्ट कर लें तो। (४) दूसरा कोई शुक्र-पुद्गलों को उसकी योनि में प्रविष्ट कर दें तो। (५) नदी-तालाब आदि में स्नान करती हुई स्त्री की योनि में यदि (बहकर आये) शुक्र-पुद्गल प्रवेश कर जावें तो।
इन पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास नहीं करती हुई भी गर्भ धारण कर सकती है।
103. For five reasons a woman can conceive even without having an intercourse with a man-(1) If she is sitting anavrat (naked) and durnishanna (with open vagina) (at a spot soiled with male semen) and draws in semen molecules. (2) If a piece of cloth wet with male semen enters her vagina. (3) If she herself puts semen molecules into her vagina. (4) If some other person pushes semen molecules into her vagina. (5) If floating semen enters her vagina while she is taking her bath in a river or pond.
विवेचन-प्रस्तुत आगम वचन अनुसार शुक्र पुद्गलों के स्त्री-योनि में प्रविष्ट होने पर ही गर्भ धारण होता है, भले ही वह किसी अन्य कृत्रिम या प्रासंगिक साधन से हो। वर्तमान में पशुओं के कृत्रिम गर्भाधान की प्रणाली इसी आधार पर विकसित की गई है।
प्रस्तुत सूत्र के प्रथम कारण को ध्यान में रखकर ही आगमों में स्थान-स्थान पर ऐसे उल्लेख किए गये हैं कि जहाँ स्त्रियाँ बैठी हों, उस स्थान पर मुनि को तथा जहाँ पुरुष बैठे हों उस स्थान पर साध्वी
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* को एक अन्तर्मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए। यदि आवश्यकतावश बैठना ही पड़े तो भूमि का भलीभाँति है फ़ साफ कर बैठना चाहिए।
दूसरे कारण में शुक्रपुद्गल से संसृष्ट वस्त्र का योनि के मध्य में प्रवेश होने पर भी गर्भधारण की स्थिति हो जाती है। वस्त्र ही नहीं, दूसरे-दूसरे पदार्थों से भी ऐसा हो सकता है। वृत्तिकार ने यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। केशीकुमार की माता ने अपनी योनि की खुजली मिटाने अथवा रक्त-प्रवाह को रोकने के लिए केश को योनि में प्रविष्ट किया। वह केश शुक्र-पुद्गलों से संसृष्ट था। उसके फ़ फलस्वरूप वह गर्भवती हो गई।
तीसरे कारण का अभिप्राय यह है कि यदि किसी स्त्री का पति नपुंसक है और वह स्त्री पुत्र-प्राप्ति के की इच्छा रखती है किन्तु शील भंग होने के भय से पर-पुरुष के साथ काम-क्रीड़ा नहीं कर सकती।
अतः वह स्वयं शुक्र-पुद्गलों को एकत्रित कर अपनी योनि में प्रविष्ट कर देती है। इससे भी गर्भधारण + कर सकती है।
चौथे कारण के प्रसंग में वृत्तिकार ने 'पर' का अर्थ 'श्वसुर आदि' किया है। इसका तात्पर्य यह है है कि पति के नपुंसक होने पर पुत्र प्राप्ति की प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर स्त्री अपने श्वसुर आदि
ज्ञातिजनों द्वारा अपनी योनि में शुक्र पुद्गलों का प्रवेश करवाती है। प्राचीन समय में इस प्रकार की ॐ पद्धति प्रचलित थी। इसे नियोग-विधि कहा जाता है।
Elaboration According to the aforesaid statement from Agam a woman conceives when semen molecules enter her vagina irrespective of the fact that it is accidental or by artificial means. In modern times the process of artificial insemination has also been developed on the same basis.
Keeping in mind the aforesaid first reason it has been widely mentioned in Agams that male ascetics should avoid sitting for one antar-muhurt (a period of less than forty eight minutes) at a spot where women were sitting and female ascetics should avoid sitting for one antar-muhurt at a spot where men were sitting. If at all it is essential to do so they should first clean the spot properly.
According to the second reason a woman conceives if a piece of cloth soiled with semen enters her vagina. This is true for things other than
cloth also. The commentator (Vritti) has mentioned an example. Keshi * Kumar's mother had put a bunch of hair in her vagina either for 4
pacifying itching or to stop flow of blood. That bunch of hair was soiled with semen and as a consequence she became pregnant.
The third reason can be explained as--A woman, whose husband is impotent, wants to have a child but cannot have sex with some other
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| स्थानांगसूत्र (२)
(146)
Sthaananga Sutra (2)
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person due to fear of violating her chastity. Such a woman somehow collects semen and puts it in her vagina. This way she can be pregnant.
In the forth reason the commentator (Vritti) has interpreted par (other) as father-in-law etc. This means that if her husband is impotent a woman with intense desire for a child gets pregnant by having intercourse with her father-in-law or some other member of the family or clan. Such practice was prevalent in ancient times and it was called niyog vidhi.
१०४. पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि गभं णो धरेज्जा, तं जहा
(१) अप्पत्तजोव्वणा। (२) अतिकंतजोवणा। (३) जातिवंझा। (४) गेलण्णपुट्ठा। (५) दोमणंसिया, इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं (इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि गभं) णो धरेजा।
१०४. पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं करती। जैसे(१) अप्राप्तयौवना-पूर्ण युवती न होने पर। (२) अतिक्रान्तयौवना-जिसकी युवावस्था बीत गई, ऐसी है
अरजस्क वृद्धा। (३) जातिवन्ध्या-जन्म से ही मासिक धर्म रहित बाँझ स्त्री। (४) ग्लानस्पृष्टा-ग से के पीड़ित स्त्री। (५) दौर्मनस्यिका-शोकादि से व्याप्त चित्त वाली स्त्री। इन पाँच कारणों से पुरुष के साथ फ़ संवास करती हुई भी स्त्री गर्भ को धारण नहीं करती है।
104. For five reasons a woman does not conceive even on having an intercourse with a man-(1) apraptayauvana-if she is minor, (2) atikrantayauvana-if she has reached her menopause, (3) jativandhya-if she is congenitally sterile, (4) glan-sparsha-if she is
sick and (5) daurmanasyika-if she is grief stricken or upset for other i reasons. For these five reasons a woman does not conceive even on 4 Hi having an intercourse with a man. ileus
विवेचन-वृत्तिकार ने बारह वर्ष तक की कुमारी को अप्राप्तयौवना तथा पचास या पचपन वर्ष के के ऊपर की उम्र वाली स्त्री को अतिक्रान्तयौवना माना है। उनकी मान्यता है कि बारह वर्ष के पश्चात् ॥
पचास वर्ष की उम्र तक स्त्री के गर्भधारण की अवस्था होती है। सोलह और बीस वर्ष से कम अवस्था में 5 सहवास होने पर सन्तान की प्राप्ति नहीं होती और यदि होती है तो वह रोगी, अल्पायु और अभागी ॥ म होती है। (वृत्ति. भाग-२ पृष्ठ ५३९)
Elaboration-According to the commentator (Vritti) a girl is apraptayauvana up to the age of twelve years and atikrantayauvana after the age of fifty to fifty five years. It is believed that the childbearing age of a woman is between 12 to 50 years. There are little chances of a woman getting pregnant if she has intercourse before 16 to 7
20 years of age. Even if she gets pregnant it results in a weak, sick, short fi lived and unfortunate child. (Vritti. part-2, p. 539)
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पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(147)
Fifth Sthaan : Second Lesson
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卐 १०५. पंचर्हि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि णो गन्धं धरेज्जा,
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(१) णिच्चोउया । (२)
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अणोउया । (३) वावण्णसोया । ( ४ )
( ५ ) अणंगपडिसेवणी - इच्चेतेहिं (पंचहि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि गब्भं) णो
धरेज्जा |
जहा
वाली ।
१०५. पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं करती, जैसे(१) नित्य ऋतुका - सदा ऋतुमती (रजस्वला) रहने वाली । (२) अनृतुका - कभी भी ऋतुमती न होने (३) व्यापन्न श्रोता - गर्भाशय नष्ट हो जाने पर । ( ४ ) व्याविद्धस्रोता - गर्भाशय की शक्ति क्षीण हो जाने (५) अनंगप्रतिषेविणी - अनंग - क्रीड़ा अप्राकृतिक काम क्रीड़ा या अनेक पुरुषों के साथ सहवास करने वाली। इन पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास करने पर भी गर्भ को धारण नहीं करती है। 105. For five reasons a woman does not conceive even on having an intercourse with a man-(1) nitya rituka-if she is always in menses, (2) anrituka—if she is never in menses, ( 3 ) vyapannashrota - if her 5 womb is damaged, (4) vyaviddhasrota-if she has weak reproductive organs and (5) anagapratisevini-if she indulges in unnatural sex or promiscuity or sex with many persons. For these five reasons a woman does not conceive even on having an intercourse with a man.
१०६. पंचर्हि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि गब्भं णो धरेज्जा, तं जहा
(१) उउंमि णो णिगामपडिसेविणी यावि भवति । ( २ ) समागता वा से सुक्कपोग्गला पइिविद्धंसंति। (३) उदिण्णे वा से पित्तसोणिते । ( ४ ) पुरा वा देवकम्मणा । ( ५ ) पुत्तफले वा णो णिव्विट्टे भवति-इच्चेतेर्हि (पंचर्हि ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणीवि गन्धं ) णो धरेज्जा । १०६. पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास करने पर भी गर्भ को धारण नहीं करती। जैसे(१) जो स्त्री ऋतुकाल में वीर्यपात होने तक पुरुष का सेवन नहीं करती है । (२) जिसकी योनि में आये
शुक्र - पुद्गल विनष्ट हो जाते हैं । (३) जिसका पित्त - प्रधान शोणित ( रक्त - रज) उदीर्ण हो गया है।
वाविद्धसोया ।
(४) देव - कर्म से (देव के द्वारा शापादि देने से) जो गर्भधारण के योग्य नहीं रही हो । (५) जिसने पुत्र- फल देने वाला कर्म उपार्जित नहीं किया है। इन पाँच कारणों से स्त्री पुरुष के साथ संवास करती हुई भी गर्भ को धारण नहीं करती है।
106. For five reasons a woman does not conceive even on having an intercourse with a man-(1) during post-menstrual days, when she is
prone to conception, if a woman, does not have intercourse till semen
5 destroyed; (3) if a woman's bile-intensive blood becomes toxic; (4) if a
पर ।
ejaculation; (2) if the sperms entering a woman's vagina usually get
卐 woman becomes sterile due to divine intervention (like curse) and (5) if a
स्थानांगसूत्र (२)
(148)
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Sthaananga Sutra (2)
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woman has not acquired karmas responsible for offsprings. For these five reasons a woman does not conceive even on having an intercourse with a man.
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निग्रन्थ निग्रन्थी-एकत्रवास-पद NIRGRANTH NIRGRANTHI EKATRAVAS-PAD
(SEGMENT OF MALE AND FEMALE ASCETICS RESIDING TOGATHER) १०७. पंचहिं ठाणेहिं णिग्गंथा णिग्गंथीओ य एगतओ ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा 卐 चेतेमाणा णातिक्कमंति, तं जहा-(१) अत्थेगइया णिग्गंथा य णिगंथीओ य एगं महं अगामियं
छिण्णावायं दीहमद्ध-मडविमणुपविट्ठा, तत्थेगयतो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेमाणा + णातिक्कमंति। (२) अत्थेगइया णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य गामंसि वा णगरंसि वा (खेडंसि ना
कव्वडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आगरंसि वा णिगमंसि वा आसमंसि वा + सण्णिवेसंसि वा) रायहाणिंसि वा वासं उवागता, एगतिया जत्थ उवस्सयं लभंति, एगतिया णो
लभंति, तत्थेगतो ठाणं वा (सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेमाणा) णातिक्कमंति। (३) अत्थेगइया . मणिग्गंथा या णिग्गंथीओ या णागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवागता, ॐ तत्थेगओ (ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेमाणा) णातिक्कमंति। (४) आमोसगा दीसंति, ते म इच्छंति णिग्गंधीओ चीवरपडियाए, पडिगाहित्तए, तत्थेगओ ठाणं वा (सेज्जं वा णिसीहियं वा ॐ चेतेमाणा) णातिक्कमंति। (५) जुवाणा दीसंति, ते इच्छंति णिग्गंथीओ मेहुणपडियाए पडिगाहित्तए, तत्थेगओ ठाणं वा (सेज्जं वा णिसीहियं वा चेतेमाणा) णातिक्कमंति।
इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं (णिग्गंथा, णिग्गंथीओ य एगतओ ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा क चेतेमाणा) णातिक्कमंति।
१०७. पाँच कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ एक स्थान (आवास) पर अवस्थान-(कायोत्सर्ग) शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं
(१) कदाचित् कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ किसी विशाल बस्ती-शून्य, आवागमनरहित, लम्बे मार्ग वाली अटवी में प्रवेश कर जावें, तो वहाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए 5 भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। (२) यदि कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ किसी ग्राम में,
नगर में, खेट में, कर्वट में, मडम्ब में, पत्तन में, आकर में, द्रोणमुख में, निगम में, आश्रम में, सन्निवेश 5 में अथवा राजधानी में पहुँचे, वहाँ दोनों में से किसी एक वर्ग को उपाश्रय मिला और एक को नहीं है
मिला, तो वे एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान की आज्ञा का । अतिक्रमण नहीं करते हैं। (३) यदि कदाचित् कुछ निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ नागकुमार के आवास में या ॐ
सुपर्णकुमार के (या किसी अन्य देव के) आवास में निवास के लिए एक साथ पहुंचे तो वहाँ सर्वथा जन #शून्यता से, या अतिजनबहुलता (भीड़-भाड़) आदि कारण से निर्ग्रन्थियों को सुरक्षा के लिए एक स्थान । पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। ॥
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मागासaanana
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| पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(149)
Fifth Sthaan : Second Lesson
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का अतिक्रमण नहीं करते हैं। (५) (जिस स्थान पर निर्ग्रन्थियाँ ठहरी हों, और वहाँ पर) दुराचारी युवक ॐ दिखाई देवें, वे निर्ग्रन्थियों के साथ मैथुन की इच्छा से उन्हें पकड़ना चाहते हों, तो वहाँ निर्ग्रन्थ और
निर्ग्रन्थियाँ एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं।
इन पाँच कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ, एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते में हुए भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं।
107. Shraman nirgranths and nirgranthis do not defy the order Tirthankars if they do avasthan (meditate), shayan (sleep) and svadhyaya (study) at the same place (or abode) jointly for five reasons- 5
(1) If some male and female ascetics happen to enter a large abandoned settlement or a long path in a desolate area they do not defy
the order of Tirthankars if they meditate, sleep and study at that place. 151 (2) If some male and female ascetics happen to arrive at some gram 41
(village), nagar (town), khet, karbat, madamb, pattan, aakar, dronmukh, nigam, ashram, sannivesh or rajadhani and if only one group gets an upashraya (place of stay) and not the other, then they do not defy the order of Tirthankars if they meditate, sleep and study at one place. (3) If some male and female ascetics happen to arrive at the abode of some Naag Kumar, Suparna Kumar (or other divine being) and they find that the place is insecure for female ascetics due to being desolate or over crowded, then they do not defy the order of Tirthankars if they meditate, sleep and study at one place. (4) If female ascetics are staying at some place where there are numerous thieves and bandits, and they intend to deprive the female ascetics of their possessions, then they do not defy the order of Tirthankars if they (male and female ascetics) meditate, sleep and study at one place. (5) If female ascetics are staying at some place where there are numerous debauch young men and they intend to y
approach the females for sexual gratification, then they do not defy the 5 order of Tirthankars if they (male and female ascetics) meditate, sleep 5 and study at one place.
Shraman nirgranths and nirgranthis do not defy the order of Tirthankars if they meditate, sleep and study at one place for these five reasons.
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(150)
Sthaananga Sutra (2)
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F १०८. पंचर्हि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथीहि सद्धिं संवसमाणे 5 णातिक्कमति, तं जहा
5
(१) खित्तचित्ते समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिक्कमति । ( २ ) [ दित्तचित्ते समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहिं अचेलए 5 5 सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिक्कमति । (३) जक्खाइट्ठे समणे णिग्गंथे
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5 णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिक्कमति । (४) उम्मायपत्ते समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिमविज्जमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिक्कमति । ] (५) णिग्गंथीपव्वाइयए समणे णिग्गंथेहिं अविज्जमाणेहिं अचेलिए 5 सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिक्कमति ।
१०८. पाँच कारणों से अचेलक (निर्वस्त्र) श्रमण निर्ग्रन्थ सचेलक निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है, जैसे- (१) शोक आदि से विक्षिप्तचित्त कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेलक निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ । [ (२) हर्षातिरेक 5 (हर्ष के आवेग से) दृप्तचित्त कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ। (३) यक्षाविष्ट कोई अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने
108. An achelak (nude) shraman nirgranth (male ascetic) does not defy the order of Tirthankars if he lives with sachelak (dressed) nirgranthis (female ascetics) for five reasons--(1) If he is in a mentally deranged state (vikshipt chitta) due to grief and company of another nude or suchlike ascetic is not available. [(2) If he is in a delirius state F (dript chitt) due to euphoria and company of another nude or other Я ascetic is not available. (3) If he is possessed by some evil spirit (yakshavisht) and company of another nude or other ascetic is not available. (4) If he has gone crazy due to disturbed humour and company of another nude or non-nude ascetic is not available. (5) If he has been initiated by female ascetics and company of another nude or ordinary ascetic is not available.
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पर सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ । (४) वायु के प्रकोपादि से उन्माद को प्राप्त कोई अचेलक फ श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ । ] ( ५ ) निर्ग्रन्थियों द्वारा प्रव्रजित (दीक्षित) अचेलक श्रमण निर्ग्रन्थ अन्य निर्ग्रन्थों के नहीं होने पर सचेल निर्ग्रन्थियों के 5 साथ रहता हुआ, भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
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आस्रव संवर - पद ASRAVA SAMVAR-PAD
(SEGMENT OF INFLOW AND BLOCKAGE OF KARMAS)
१०९. पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, कसाया,
पंचम स्थान: द्वितीय उद्देशक
(151)
जोगा ।
22 55 5 5 5 55 5 5 5 5 55 555 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552
Fifth Sthaan: Second Lesson
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55555555555555555555555555555555555 卐 ११०. पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा-संमत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं अजोगित्तं।।
१०९. आस्रव के पाँच द्वार (कारण) हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग। ११०. संवर के पाँच द्वार हैं-(१) सम्यक्त्व, (२) विरति, (३) अप्रमाद, (४) अकषायिता, (५) अयोगिता (योगों की स्थिरता)।
109. There are five doors (reasons) of asrava (inflow of karmas)(1) mithyatva (unrighteousness), (2) avirati (non-restraint), (3) pramad (stupor), (4) kashaya (passions) and (5) yoga (association). 110. There are five doors (reasons) of samvar (blockage of inflow of karmas)-(1) samyaktva (righteousness), (2) virati (restraint), (3) apramad (non-stupor), (4) akashayita (absence of passions) and (5) ayogita (absence of association). दण्ड-पद DAND-PAD (SEGMENT OF PUNISHMENT OR ABUSE)
१११. पंच दंडा पण्णत्ता, तं जहा-अट्ठादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, 5 दिट्ठीविप्परियासियादडे।
१११. दण्ड पाँच प्रकार हैं-(१) अर्थदण्ड-प्रयोजनवश अपने या दूसरों के लिए जीव-घात करना। (२) अनर्थदण्ड-बिना प्रयोजन जीव-घात करना। (३) हिंसादण्ड-'इसने मुझे मारा था, मार रहा है, या
मारेगा' इसलिए प्रतिहिंसा करना। (४) अकस्माद्दण्ड-अकस्मात् जीव-घात हो जाना। 卐 (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड-मित्र को शत्रु समझकर गलतफहमी से दण्डित करना।
111. Dand (punishment or abuse) is of five kinds—(1) Arthadand-to harm or kill beings purposefully for self or others. (2) Anarth dand-to harm or kill beings without any purpose. (3) Himsa dand-to harm or kill a being with vengeance because it has harmed or will harm. (4) Akasmat dand-to harm or kill beings accidentally. (5) Drishtiviparyas dand—to harm or kill beings out of misunderstanding. क्रिया-पद KRIYA-PAD (SEGMENT OF ACTIVITY)
११२. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, * अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया।
११२. क्रियाएँ पाँच हैं-(१) आरम्भिकी क्रिया, (२) पारिग्रहिकी क्रिया, (३) मायाप्रत्यया क्रिया, 9 (४) अप्रत्याख्यान क्रिया, (५) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया।
112. Kriyas (activities) are of five kinds—(1) arambhiki kriya (involving violence), (2) paarigrahiki kriya, (3) mayapratyaya kriya (involving deceit), (4) apratyakhyan kriya (unrestrained) and (5) mithyadarshan pratyaya kriya (involving wrong perception / faith).
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स्थानांगसूत्र (२)
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११३. मिच्छादिवियाणं णेरइयाणं पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-[ आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया ], मिच्छादसणवत्तिया। ११४. एवं-सव्वेसिंह 卐 णिरंतरं जाव मिच्छाद्दिट्ठियाणं वेमाणियाणं, णवरं-विगलिंदिया मिच्छद्दिट्ठी ण भण्णंति। सेसं तहेव।।
११३. मिथ्यादृष्टि नारकों के पाँच क्रियाएँ हैं-(१) आरम्भिकी क्रिया, [(२) पारिग्रहिकी क्रिया, (३) मायाप्रत्यया क्रिया, (४) अप्रत्याख्यान क्रिया], (५) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया। ११४. इसी प्रकार
मिथ्यादृष्टि वैमानिकों तक सभी दण्डकों में पाँचों क्रियाएँ होती हैं। केवल विकलेन्द्रियों के साथ मिथ्यादृष्टि ॐ पद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वे सभी मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। ___113. Mithyadrishti naaraks (unrighteous infernal beings) indulge in
five kriyas (activities)-(1) arambhiki kriya, (2) paarigrahiki kriya, । (3) mayapratyaya kriya, (4) apratyakhyan kriya and (5) mithyadarshan pratyaya kriya. 114. In the same way all beings up to mithyadrishti Vaimaniks indulge in five kriyas. Only vikalendriyas (one to four sensed beings) should be excluded because all of them are exclusively unrighteous. Rest should be read as before.
११५. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-काइया, आहिगरणिया, पाओसिया, 卐 पारितावणिया, पाणातिवातकिरिया। ११६. णेरइयाणं पंच एवं चेव। एवं-णिरंतरं जाव
वेमाणियाणं। . म ११५. पाँच क्रियाएँ हैं-(१) कायिकी क्रिया, (२) आधिकरणिकी क्रिया, (३) प्रादोषिकी क्रिया,
(४) पारितापनिकी क्रिया, (५) प्राणातिपातिकी क्रिया। ११६. नारकी जीवों में पाँचों ही क्रियाएँ होती म हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक सभी दण्डकों में ये ही पाँच क्रियाएँ हैं।
115. Kriyas (activities) are of five kinds-(1) kayiki kriya. (2) aadhikaraniki kriya, (3) pradoshiki kriya (done in passion), (4) paritapini kriya (hurting others) and (5) pranatipatiki kriya (activity leaching destruction of life-force). 116. Naaraki jivas (infernal beings)
also have all these five kriyas. In the same way all dandaks (places of # suffering) up to Vaimaniks have these five kriyas.
११७. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आरंभिया, (पारिग्गहिया, मायावत्तिया, # अपच्चक्खाणकिरिया), मिच्छादसणवत्तिया। ११८. णेरइयाणं पंच किरिया णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।
११७. पुनः पाँच क्रियाएँ हैं-(१) आरम्भिकी क्रिया, (२) पारिग्रहिकी क्रिया, (३) मायाप्रत्यया क्रिया, (४) अप्रत्याख्यान क्रिया, (५) मिथ्यादर्शन क्रिया। ११८. नारकी जीवों से लेकर निरन्तर वैमानिक तक सभी दण्डकों में ये पाँच क्रियाएँ जाननी चाहिए।
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पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(153)
Fifth Sthaan : Second Lesson
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8555555555 555555555555555555558 % 117. Kriyas (activities) are of five kinds—(1) arambhiki kriya, 41 (2) paarigrahiki kriya, (3) mayapratyaya kriya, (4) apratyakhyan kriya and
(5) mithyadarshan pratyaya kriya. 118. In the same way all dandaks (places of suffering) from naaraki jivas up to Vaimuniks have these five kriyas.
११९. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-दिट्ठिया, पुट्ठिया, पाडुच्चिया, सामंतोवणिवाइया, साहत्थिया। १२०. एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
११९. पाँच क्रियाएँ हैं-(१) दृष्टिजा क्रिया, (२) पृष्टिजा क्रिया, (३) प्रातीत्यिकी क्रिया, (४) सामन्तोपनिपातिकी क्रिया, (५) स्वाहस्तिकी क्रिया। १२०. नारकी जीवों से लेकर वैमानिक तक सभी दण्डकों में ये पाँच क्रियाएँ जाननी चाहिए।
119. Kriyas (activities) are of five kinds—(1) drishtija kriya (activity due to seeing), (2) prishtija kriya (due to touch), (3) praateetyiki kriya,
(4) saamantopanipatiki kriya and (5) svaahastiki kriya. 120. In the same 5 way all dandaks (places of suffering) from naaraki jivas up to Vaimaniks ' have these five kriyas.
१२१. पंच किरियाओ, तं जहा-णेसत्थिया, आणवणिया, वेयारिणया, अणाभोगवत्तिया, 卐 अणवकंखवत्तिया। एवं जाव वेमाणियाणं।
१२१. पाँच क्रियाएँ हैं-(१) नैसृष्टिकी क्रिया, (२) आज्ञापनिकी क्रिया, (३) वैदारणिका क्रिया, 卐 (४) अनाभोगप्रत्यया क्रिया, (५) अनवकांक्षप्रत्यया क्रिया। नारकों से लेकर वैमानिकों तक सभी दण्डकों + में ये पाँच क्रियाएँ जाननी चाहिए। 4 121. Kriyas (activities) are of five kinds—(1) naisrishtiki kriya,
(2) ajnapaniki kriya, (3) viadarniki kriya, (4) anaabhog pratyaya kriya
and (5) anavakanksha pratyaya kriya. All dandaks (places of sufferin 5 from naaraki jivas up to Vaimaniks have these five kriyas.
१२२. पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पेज्जवत्तिया, दोसवत्तिया, पओगकिरिया, ॐ समुदाणकिरिया, ईरियावहिया। एवं-मणुस्साणवि। सेसाणं णत्थि।
१२२. पाँच क्रियाएँ हैं-(१) प्रेयस्प्रत्यया क्रिया, (२) द्वेषप्रत्यया क्रिया, (३) प्रयोग क्रिया, म (४) समुदान क्रिया, (५) ईर्यापथिकी क्रिया।
ये पाँचों क्रियाएँ मनुष्यों में ही होती हैं, शेष दण्डकों में नहीं होती। (क्योंकि उनमें ईर्यापथिकी क्रिया म सम्भव नहीं है, वह वीतरागी ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान वाले मनुष्यों के ही होती है।)
122. Kriyas (activities) are of five kinds-(1) preyaspratyaya kriya, 卐 (2) dvesh-pratyaya kriya, (3) prayog kriya, (4) samudaan kriya and ॥ 4. (5) iryapathiki kriya.
स्थानांगसूत्र (२)
(164)
Sthaananga Sutra (2)
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These five activities are applicable only to human beings and not in i other dandaks. (This is because iryapathiki kriya is impossible for
anyone except detached human beings belonging to eleventh, twelfth and thirteenth Gunasthans (levels of spiritual purity).
विवेचन-स्थानांग के प्रथम भाग स्थान-२ के सूत्र २ से ३६ तक ७२ प्रकार की क्रियाओं का कथन किया है। वहाँ सभी की संक्षिप्त व्याख्या दी है।
Elaboration-Brief definitions of all these kriyas have been given in 5 Sthananga part-1, Sthaan-2, aphorisms 2 to 36 where 72 types of 4 activities have been listed.
१२३. पंचविहा परिण्णा पण्णत्ता, तं जहा-उवहिपरिण्णा, उवस्सयपरिण्णा, कसायपरिण्णा, जोगपरिण्णा, भत्तपाणपरिण्णा।
१२३. परिज्ञा पाँच प्रकार की है, जैसे-(१) उपधिपरिज्ञा, (२) उपाश्रयपरिज्ञा, (३) कषायपरिज्ञा, (४) योगपरिज्ञा, (५) भक्तपानपरिज्ञा। 5 123. Parijna (sagacity or discerning attitude) is of five kinds—
(1) upadhi parijna, (2) upashruya parijna, (3) kashaya parijna, (4) yoga i 5 parijna and (5) bhaktapaan parijna.
विवेचन-परिज्ञा का अर्थ है, विवेक। उसके दो भेद हैं-ज्ञ परिज्ञा-वस्तु के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान और प्रत्याख्यान परिज्ञा-विरक्तिपूर्वक त्याग।
(१) उपधि परिज्ञा-मुखपत्ती, रजोहरण आदि संयम के उपयोगी उपकरणों को ग्रहण करने एवं उपयोग में विवेक रखना। मर्यादा का अतिक्रमण न करना। (२) उपाश्रय परिज्ञा-अकल्पनीय सदोष उपाश्रय-स्थान का त्याग व निर्दोष का सेवन। (३) कषाय परिज्ञा-कषायों को अल्प करने का प्रयत्न तथा संघ, गण या व्यक्ति को हानि पहुँचाने वाली कषाय प्रवृत्ति का निरोध। (४) योग परिज्ञा-मन, वचन, काय योगों की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध तथा शुभ में प्रवृत्ति। (५) भक्तपान-परिज्ञा-संयम निर्वाह योग्य निर्दोष व सात्विक आहार का सेवन। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ १२८)
Elaboration Parijna means sagacity or discerning attitude. It has two limbs-jna parijna or the true knowledge of reality and pratyakhyan parijna or to renounce with detachment.
(1) Upadhi parijna-to accept and use muhapatti (mouth cover) rajoharan (ascetic broom) and other ascetic-equipment carefully. (2) Upashraya parijna-to reject a faulty and unsuitable place of stay
and accept faultless one. (3) Kashaya parijna-to make efforts to f generally reduce passions and specifically avoid passion inspired activity f harmful to religous organisation, group or individuals thereof. (4) Yoga
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parijna-to stop bad mental, vocal and physical association and indulge in good ones. (5) Bhaktapaan parijna-to eat faultless and pure food necessary for observing ascetic conduct. (Hindi Tika, part-2, p. 128)
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व्यवहार-पद YAVAHAR-PAD (SEGMENT OF BEHAVIOUR)
१२४. पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-आगमे, सुते, आणा, धारणा, जीते। (१) जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। (२) णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुते सिया, सुतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। (३) णो से तत्थ सुते सिया (जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेजा। (४) णो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा। (५) णो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीते सिया, जीतेणं ववहारं पट्टवेज्जा। इच्चेतेहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा-आगमेणं (सुतेणं आणाए धारणाए) जीतेणं। जहा-जहा से तत्थ आगमे (सुते आणा धारणा) जीते तहा-तहा ववहारं पट्टवेज्जा। से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा णिगंथा।
इच्चेतं पंचविधं ववहारं जया-जया जहिं-जहिं तया-तया तहि-तहिं अणिस्सितोवस्सितं सम्म म ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवति।
१२४. व्यवहार पाँच प्रकार का है-(१) आगमव्यवहार, (२) श्रुतव्यवहार, (३) आज्ञाव्यवहार, ॐ (४) धारणाव्यवहार, (५) जीतव्यवहार।
(१) जहाँ आगम हो अर्थात् जहाँ आगम से विधि-निषेध का बोध होता हो वहाँ आगम से व्यवहार करें। (२) जहाँ आगम न हो, श्रुत हो, वहाँ श्रुत से व्यवहार करें। (३) जहाँ श्रुत न हो, आज्ञा हो, वहाँ
आज्ञा से व्यवहार करें। (४) जहाँ आज्ञा न हो, धारणा हो, वहाँ धारणा से व्यवहार करें। (५) जहाँ म धारणा न हो, जीत हो, वहाँ जीत से व्यवहार करें। ॐ इन पाँचों से व्यवहार करे-(१) आगम से, (२) श्रुत से, (३) आज्ञा से, (४) धारणा से, (५) जीत है + से। जिस समय जहाँ आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत में से जो प्रधान हो, वहाँ उसी से व्यवहार
करना चाहिए। ___ प्रश्न-भगवन् ! जिनका आगम ही बल है ऐसे श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस विषय में क्या कहा है ?
उत्तर-आयुष्मान् श्रमणो ! इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो, तब-तब वहाँ-वहाँ उसका अनिश्रितोपाश्रित-मध्यस्थ भाव से, सम्यक् व्यवहार करता हुआ श्रमण ॐ निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है।
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स्थानांगसूत्र (२)
(156)
Sthaananga Sutra (2) |
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124. Vyavahar (behaviour or conduct) is of five kinds-(1) Agam vyavahar, (2) Shrut vyavahar, (3) Ajna vyavahar, (4) Dharana vyavahar and (5) Jeet vyavahar. __ (1) In case Agam exists (and dictates of Agam are available) follow Agam-conduct. (2) In case Shrut (scriptures) and not Agam exists follow Shrut-conduct. (3) Where Ajna (command of the learned) and not Shrut exists follow Ajna-conduct. (4) Where Dharana (general belief of the seniors) and not Ajna exists follow Dharana-conduct. (5) Where Jeet (common practice of the seniors) and not Dharana exists follow Jeetconduct.
Behave according to these five—(1) Agam, (2) Shrut, (3) Ajna, (4) Dharana and (5) Jeet. In a particular situation whichever out of Agam, Shrut, Ajna, Dharana and Jeet is important base your conduct accordingly.
(Question) Bhante ! What the shraman nirgranths whose strength lies in Agam alone have said about this?
(Answer) “Long lived Shramans ! Out of these five types of conduct 4 when a specific code is stated then that should be rightly followed with equanimity. Such shraman nirgranth is the true follower of Bhagavan's order.
विवेचन-मुमुक्षु व्यक्ति को क्या करना चाहिए। इस प्रकार के प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप निर्देश को : 'व्यवहार' कहते हैं। जिनसे यह व्यवहार चलता है वे व्यक्ति भी कार्य-कारण की अभेद दृष्टि से व्यवहार कहे जाते हैं। पाँचों व्यवहारों का अर्थ इस प्रकार है
(१) आगमव्यवहार-केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नवपूर्वो के धारक 'आगम पुरुष' कहे जाते हैं, उनका आदेश ‘आगम व्यवहार' है।
(२) श्रुतव्यवहार-नवपूर्व से न्यून ज्ञान वाले आचार्यों का व्यवहार श्रुतव्यवहार हैं। कम से कम बृहत्कल्प और व्यवहार के ज्ञाता 'श्रुत व्यवहारी' होते हैं।
(३) आज्ञाव्यवहार-किसी साधु ने किसी दोष-विशेष की प्रतिसेवना की है; अथवा भक्तपान का त्याग कर दिया है और समाधिमरण को धारण कर लिया है, वह अपने जीवनभर की आलोचना करना , चाहता है। गीतार्थ साधु या आचार्य समीप प्रदेश में नहीं हैं, दूर हैं और उनका आना भी सम्भव नहीं है। ऐसी दशा में उस साध के दोषों को गढ़ या संकेत पदों के द्वारा किसी अन्य साधु के साथ उन दूरवती ॥ आचार्य या गीतार्थ साधु के समीप भेजा जाता है, तब वे उसके प्रायश्चित्त को गूढ़ पदों के द्वारा ही उसके साथ भेजते हैं। इस प्रकार गीतार्थ की आज्ञा से जो शुद्धि की जाती है, उसे आज्ञाव्यवहार कहते हैं। संक्षेप में गीतार्थ आचार्य की आज्ञा ही व्यवहार है।
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555555555555555 (४) धारणाव्यवहार-गीतार्थ साधु ने पहले किसी को प्रायश्चित्त दिया हो, उसे जो धारण करे अर्थात् याद रखे। पीछे उसी प्रकार का दोष किसी अन्य के द्वारा होने पर वैसा ही प्रायश्चित्त देना , म धारणाव्यवहार है। ॐ (५) जीतव्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए आगमादि चार व्यवहारों का अभाव हो, तब 卐
तात्कालिक आचार्यों के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार जो प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है,
उसे जीतव्यवहार कहते हैं। अथवा जिस गच्छ में कारण-विशेष से सूत्रातिरिक्त जो प्रायश्चित्त देने का . ॐ व्यवहार चल रहा है और जिसका अन्य अनेक महापुरुषों ने अनुसरण किया है, वह जीतव्यवहार के कहलाता है। (विस्तृत विवेचन के लिए देखें, व्यवहारभाष्य उद्देशक १०, गाथा ६७०, वृत्ति भाग-२ पृष्ठ ५४६)
Elaboration-What an aspirant should do ? Negative and positive directions with regard to indulgence in and withdrawal from action is called vyavahar (behaviour or conduct). Those who give these directions are also called vyavahar from the standpoint of unity of cause and action. The aforesaid five conducts are explained as follows___ (1) Agam vyavahar-Keval-jnani, manahparyava-jnani, avadhi
jnani, chaturdash purvi, dash purvi, and nava purvi are called Agam 4 Purush (one who knows Agam). Their command is Agam vyavahar.
(2) Shrut vyavahar—The commands of acharyas having knowledge of less then nine purvas is Shrut vyavahar. The minimum qualification for this is the knowledge of Vrihatkalp and Vyavahar Sutra.
(3) Ajna vyavahar-Some ascetic has committed some specific fault or some ascetic has taken the ultimate vow abandoning food and drinks, and wants to atone for all his mistakes but there is no scholarly ascetic or acharya available nearby. Further, there is no chance of such ascetic coming there. In this situation the list of faults committed by that ascetic is sent to a distant acharya in cryptic language through some other ascetic. The acharya prescribes the procedures of atonement in cryptic
language and sends back. Atonement done as per the order of a scholarly 41 acharya is called Ajna vyavahar. In short, the command of a scholarly 4 acharya is vyavahar.
(4) Dharana vyavahar-When someone remembers the atonement prescribed by a scholarly acharya and at a later date precribes the same 41 for similar faults then that is called Dharana vyavahar.
(5) Jeet vyavahar-In some instance if for some specific fault there is no provision of atonement in the said four sources then the present acharyas frame the code of atonement based on matter, area, time and
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state; this is called Jeet vyavahar. The set of rules of atonement traditionally followed by numerous great men in a particular religious group or organisation is also called Jeet vyavahar. (for further details refer f to Vyavahar Bhashya 10/670 and Vritti, part-2 p. 546)
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5 सुप्त-जागरण पद SUPT JAGARAN PAD (SEGMENT OF ASLEEP AND AWAKE)
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१२५. संजयमणुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा - सद्दा, (रूवा, गंधा, रसा),
5 फासा । १२६. संजतमणुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पण्णत्ता, तं जहा - सद्दा, (रूवा, गंधा, रसा),
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फासा । १२७. असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पण्णत्ता, तं जहा - सद्दा, 5 (रूवा, गंधा, रसा), फासा ।
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१२५. सोते हुए प्रमत्त संयत मनुष्यों के पाँच जागृत रहते हैं - ( १ ) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, फ्र (४) रस, (५) स्पर्श। १२६. जागते हुए (अप्रमत्त) संयत मनुष्यों के पाँच सुप्त रहते हैं - ( १ ) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । १२७. सोते हुए या जागते हुए असंयत मनुष्यों के पाँच जागृत रहते हैं - (१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श |
125. In a sleeping pramatt samyat (accomplished but negligent) person these five remain awake-(1) Shabd (sound), (2) Rupa i (appearance ), ( 3 ) Gandh ( smell ), ( 4 ) Rasa (taste) and (5) Sparsh (touch ). i 126. In an awakened (apramatt) samyat person these five remain 5 sleeping (subdued)-(1) Shabd (sound), (2) Rupa (appearance), (3) Gandh (smell), (4) Rasa (taste) and (5) Sparsh (touch). 127. In a sleeping or awakened asamyat person (person not observing any restraint) these five remain awake - ( 1 ) Shabd (sound), (2) Rupa 5 (appearance), (3) Gandh ( smell), (4) Rasa (taste) and (5) Sparsh (touch).
Elaboration-If a samyat (disciplined) person is under stupor he is said to be asleep irrespective of his being awake or asleep. On the other hand if he is in apramatt (not under stupor) state he is said to be awake. When a disciplined person is awake his five senses are asleep and when he is sleeping his five senses are awake. But in case of an indisciplined person the senses are always awake irrespective of his being asleep or awake because of the fact that he is under stupor.
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विवेचन- संयत पुरुष जब प्रमाद का सेवन कर रहा हो, तब वह चाहे जागता हो या सुप्त, उसे 'सुप्त' फ ही कहा जाता है। इसके विपरीत जब अप्रमत्तदशा में रहता है, तो उसे 'जागृत' कहा जाता है। जब 5 संयमी जागता है तो उसके शब्द आदि इन्द्रिय-विषय सुप्त रहते हैं और जब वह सुप्त होता है तो पाँच 卐 इन्द्रियों के विषय 'जागृत' रहते हैं। इसी तरह असंयत मनुष्य चाहे सो रहा हो, चाहे जाग रहा हो, दोनों फ ही अवस्था में प्रमाद का सेवन करने से उसके शब्दादि विषय जागृत रहते हैं ।
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रज-आदान-वमन-सूत्र RAJ-ADAAN-VAMAN-PAD
(SEGMENT OF INFLOW AND SHEDDING OF KARMA-DUST) १२८. पंचहिं ठाणेहिं जीवा रयं आदिजंति, तं जहा-पाणातिवातेणं, [मुसावाणं, अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं ], परिग्गहेणं। १२९. पंचहिं ठाणेहिं जीवा रयं वमंति, तं जहा-5
पाणातिवातवेरमणेणं, [ मुसावायवेरमणेणं, अदिण्णादाणवेरमणेणं, मेहुणवेरमणेणं ], परिग्गहवेरमणेणं। + १२८. पाँच कारणों से जीव कर्म-रज को ग्रहण (कर्मबन्ध) करते हैं-(१) प्राणातिपात से, 5
[(२) मृषावाद से, (३) अदत्तादान से, (४) मैथुनसेवन से], (५) परिग्रह से। १२९. पाँच कारणों से + जीव कर्म-रज को वमन (कर्मों की निर्जरा) करते हैं-(१) प्राणातिपात-विरमण से,
[(२) मृषावाद-विरमण से, (३) अदत्तादान-विरमण से], (४) मैथुन-विरमण से, 9 (५) परिग्रह-विरमण से।
128. For five reasons beings acquire the dust of karma (karmic bondage)(1) by pranatipat (harming or destroying life), (2) by
mrishavad (falsity), (3) by adattadan (stealing), (4) by maithun (sexual 4 activities) and (5) by parigraha (possession). 129. For five reasons
shed the dust of karma (karmic bondage)-(1) by pranatipat viraman (to abstain completely from harming or destroying life), (2) by mrishavad viraman (to abstain completely from falsity), (3) by adattadan viraman (to abstain completely from acts of stealing), (4) by maithun viraman (to abstain completely from indulgence in sexual activities) and (5) by parigraha viraman (to abstain completely from acts of possession of things). दत्ति-पद DATTI-PAD (SEGMENT OF SERVINGS)
१३०. पंचमासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पंति पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणगस्स।
१३०. पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा को धारण करने वाले अनगार को भोजन की पाँच दत्तियाँ और * पानक की पाँच दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है।
130. An ascetic observing a five-month bhikshu pratima (special austerities) is allowed to take five datti (servings) of food and five datti (servings) of drinks. उपघात-विशोधि पद UPAGHAT-VISHODHI-PAD (SEGMENT OF IMPURITY AND PURITY)
१३१. पंचविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहा-उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते, परिकम्मोवघाते, परिहरणोवघाते।
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स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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१३२. पंचविहा विसोही पण्णत्ता, तं जहा - उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, एसणविसोही, परिकम्मविसोही, परिहरणविसोही ।
१३१. उपघात - (अशुद्धि अथवा दोष) पाँच प्रकार का है - ( १ ) उद्गमोपघात - आधाकर्मादि १६ उद्गम दोषों से होने वाला चारित्र का घात । (२) उत्पादनोपघात - धात्री आदि १६ उत्पादन दोषों से होने वाला चारित्र का घात । (३) एषणोपघात - शंकित आदि १० एषणा के दोषों से होने वाला चारित्र का घात । (४) परिकर्मोपघात - वस्त्र - पात्रादि के निमित्त से होने वाला चारित्र का घात । (५) परिहरणोपघात - अकल्प्य उपकरणों के उपभोग से होने वाला चारित्र का घात |
132. Vishodhi (purity) is of five kinds-(1) Udgamavishodhicensuring the faults of accepting alms including aadhakarma (food cooked specifically for ascetics). (2) Utpadanavishodhi-censuring the faults of participating in arranging for or producing alms including dhatri. (3) Eshanavishodhi-censuring the faults of alms seeking including shankit (dobtful). (4) Parikarmavishodhi-censuring faults related to garb, bowls and other prescribed ascetic equipment. (5) Pariharanavishodhi-censuring using prohibited equipment.
दुर्लभ - सुलभ - बोधि पद DURLABH SULABH BODHI-PAD
१३२. विशोधि पाँच प्रकार की है - ( १ ) उद्गमविशोधि - आधाकर्मादि उद्गम-जनित दोषों का 5 वर्जन । (२) उत्पादनविशोधि - धात्री आदि उत्पादन - जनित दोषों का वर्जन । (३) एषणाविशोधि-शंकित आदि एषणा - जनित दोषों का वर्जन । (४) परिकर्मविशोधि - वस्त्र - पात्रादि परिकर्म-जनित दोषों का वर्जन । (५) परिहरणविशोधि- अकल्प्य उपकरणों के उपभोग-जनित दोषों का वर्जन ।
131. Upaghat (impurity or fault) is of five
(1) Udgamopaghat-impurity in conduct due to the 16 faults of accepting 5 alms including aadhakarma (food cooked specifically for ascetics). (2) Utpadanopaghat — impurity in conduct due to the 16 faults of 5 participating in arranging for or producing food for alms including dhatri (faults committed by donor). (3) Eshanopaghat-impurity in conduct due to the 10 faults of alms seeking including shankit (dobtful food). (4) Parikarmopaghat-impurity in conduct due to faults related to garb, bowls and other prescribed ascetic equipment. ( 5 ) Pariharanopaghat - 5 impurity in conduct due to using prohibited equipment.
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(SEGMENT OF DIFFICULT AND EASY ENLIGHTENMENT)
१३३. पंचर्हि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - अरहंताणं अवण्णं वदमाणे, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणं अवण्णं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे, विवक्क - तव - बंभचेराणं देवाणं अवण्णं वदमाणे ।
पंचम स्थान: द्वितीय उद्देशक
kinds
( 161 )
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Fifth Sthaan: Second Lesson
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१३३. पाँच कारणों से जीव दुर्लभबोधि ( सद्धर्म की प्राप्ति को दुर्लभ बनाने वाले) मोहनीय आदि ५ कर्मों का उपार्जन करते हैं, जैसे- (१) अर्हन्तों का अवर्णवाद ( निन्दा) करता हुआ। (२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का, (३) आचार्य - उपाध्याय का, (४) चतुर्वर्ण (चतुर्विध ) संघ का, और (५) तप और ब्रह्मचर्य के फलस्वरूप दिव्य गति को प्राप्त देवों का अवर्णवाद करता हुआ ।
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133.
For five
enlightenement
reasons beings acquire karmas that make difficult (durlabh-bodhi)— by criticising (avarnavad) 4 (1) Arhants, (2) religion propagated by Arhats, ( 3 ) acharyas and F (4) four limbed religious organisation and (5) gods who attained divine birth by observing austerities and celibacy.
upadhyayas,
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१३४. पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - अरहंताणं वण्णं वदमाणे, [ अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स वण्णं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणं वण्णं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स वण्णं वदमाणे ], विवक्क-तव- बंभचेराणं देवाणं वण्णं वदमाणे ।
१३४. पाँच कारणों से जीव सुलभबोधि करने वाले कर्म का उपार्जन करता है - ( १ ) अर्हन्तों का 5 वर्णवाद ( गुण कीर्तन ) करता हुआ । [ ( २ ) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का, (३) आचार्य - उपाध्याय का, 5 (४) चतुर्वर्ण संघ का ], (५) तप और ब्रह्मचर्य के फलस्वरूप दिव्यगति को प्राप्त देवों का वर्णवाद 5
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( गुण-कथन) करता हुआ ।
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134. For five reasons beings acquires karmas that make enlightenement easy (sulabh-bodhi) — by singing in praise of (varnavad) 5 (1) Arhants, ( 2 ) religion propagated by Arhats, ( 3 ) acharyas and 卐 upadhyayas, (4) four limbed religious organisation and (5) gods who 卐 attained divine birth by observing austerities and celibacy.
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प्रतिसंलीन- अप्रतिसंलीन पद PRATISAMLINATA-APRATISAMLINATA PAD
(SEGMENT OF ENGROSSMENT AND COUNTER-ENGROSSMENT) फ्र १३५. पंच पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा- सोइंदियपडिसंलीणे, [ चक्खिंदियपडिसंलीणे, घाणिदियपडिलीणे, जिब्भिंदियपडिसंलीणे ], फासिंदियपडिली ।
१३५. प्रतिसंलीन - ( इन्द्र - विषयों का निग्रह करने वाला) पाँच प्रकार का है(१) श्रोत्रेन्द्रिय- प्रतिसंलीन-शुभ-अशुभ शब्दों में, (२) चक्षुरिन्द्रिय- प्रतिसंलीन- शुभ-अशुभ रूपों में, (३) घ्राणेन्द्रिय - प्रतिसंलीन- शुभ -अशुभ गन्ध में, (४) रसनेन्द्रिय- प्रतिसंलीन- शुभ-अशुभ रसों में,
(५) स्पर्शनेन्द्रिय - प्रतिसंलीन- शुभ-अशुभ स्पर्शो में राग-द्वेष न करने वाला ।
135. Pratisamlin (one who abstains from indulgence in subjects of five
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sense organs) is of five kinds-(one who is free of attachment and aversion—) (1) shrotendriya pratisamlin in good and bad sound, 5 स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2) 卐
(162)
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45 (2) chakshurindriya pratisamlin-in good and bad appearance, 4
(3) ghranendriya pratisamlin-in good and bad smell, (4) rasanendriya pratisamlin-in good and bad taste and (5) sparshendriya pratisamlinin good and bad touch.
१३६. पंच अपडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा-सोतिंदियअपडिसंलीणे, [ चक्खिंदियअपडिसंलीणे, घाणिंदियअपडिसंलीणे, जिभिंदियअपडिसंलीणे ], फासिंदियअपडिसंलीणे।
१३६. अप्रतिसंलीन-(इन्द्रिय-विषय-सेवन में संलग्न तथा उनमें राग-द्वेष करने वाला) पाँच प्रकार का है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-जप्रतिसंलीन, (२) चक्षुरिन्द्रिय-अप्रतिसंलीन, (३) घ्राणेन्द्रियअप्रतिसंलीन, (४) रसनेन्द्रिय-अप्रतिसंलीन और (५) स्पर्शनेन्द्रिय-अप्रतिसंलीन।
136. Apratisamlin (one who indulges in subjects of five sense organs) fi is of five kinds-(one who is not free of attachment and aversion) fi (1) shrotendriya apratisamlin, (2) chakshurindriya apratisamlin,
(3) ghranendriya apratisamlin, (4) rasanendriya apratisamlin and (5) sparshendriya apratise संवर-असंवर पद SAMVAR-ASAMVAR-PAD
१३७. पंचविधे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोतिंदियसंवरे, [चक्खिंदियसंवरे, घाणिंदियसंवरे, जिभिंदियसंवरे ], फासिंदियसंवरे। १३८.-पंचविधे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोतिंदियअसंवरे, [चक्खिंदियअसंवरे, घाणिंदियअसंवरे, जिभिंदियअसंवरे ], फासिंदियअसंवरे।
१३७. संवर पाँच प्रकार का है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-संवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-संवर, ॐ । (३) घ्राणेन्द्रिय-संवर, (४) रसनेन्द्रिय-संवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-संवर। १३८. असंवर (आस्रव) पाँच ॥
प्रकार का है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, (३) घ्राणेन्द्रिय-असंवर, (४) रसनेन्द्रिय-असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय असंवर। ___137. Samvar (blockage of inflow of karmas or abstaining from
indulgence in subjects of sense organs) is of five kinds—(1) shrotendriya Esamvar, (2) chakshurindriya samvar, (3) ghranendriya samvar,
(4) rasanendriya samvar and (5) sparshendriya samvar. 138. Asamvar 5 (inflow of karmas or indulgence in subjects of sense organs) is of five
kinds-(1) shrotendriya asamvar, (2) chakshurindriya asamvar, (3) ghranendriya asamvar, (4) rasanendriya asamvar and (5) sparshendriya asamvar.
विवेचन-प्रतिसंलीन और 'संवर' शब्द में अर्थ भेद है। बाह्य विषयों से इन्द्रियों को हटाना प्रतिसंलीनता है तथा आत्म-स्वरूप में रमण करना, संवर है। बाह्य विषयों से सम्बन्ध तोड़ना प्रतिसंलीनता तथा अन्तर स्वरूप से सम्बन्ध जोड़ना संवर है।
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पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(163)
Fifth Sthaan : Second Lesson 1955555555555555555555555555555555558
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Elaboration—There is a subtle difference between the meaning of the 4 two terms pratisamlin and samvar. To shift sense organs from physical subjects is pratisamlinata and to indulge in inner or spiritual state is samvar. To terminate relationship with outer things is pratisamlinata and to establish that with inner state is samvar.
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संयम-असंयम पद SAMYAM-ASAMYAM -PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) १३९. पंचविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-सामाइयसंजमे, छेदोवट्ठावणियसंजमे, म परिहारविसुद्धियसंजमे, सुहुमसंपरागसंजमे, अहक्खायचरित्तसंजमे।
१३९. संयम (चारित्र) पाँच प्रकार का है-(१) सामायिक-संयम-सर्व सावद्यकार्यों का त्याग। (२) छेदोपस्थानीय-संयम-पंच महाव्रतों का पृथक्-पृथक् स्वीकार करना। (३) परिहारविशुद्धिक-संयमम तपस्या विशेष की विधि सहित आराधना करना। (४) सूक्ष्मसांपरायसंयम-दशम गुणस्थानवर्ती का संयम।
(५) यथाख्यातचारित्रसंयम-ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर उपरिम सभी गुणस्थानवी जीवों का ॐ वीतराग संयम।
139. Samyam (ascetic-discipline or conduct) is of five kinds(1) Samayik-samyam--abstaining from all kinds of sinful acts. (2) Chhedopasthaniya-samyam-to accept five great vows one by one. (3) Pariharavishuddhik-samyam-to observe austerity according to the prescribed procedure. (4) Sukshmasamparaya-samyam-the discipline prescribed for tenth Gunasthan. and (5) Yathakhyatachaaritrasamyam--the discipline of detachment of beings at eleventh Gunasthan and above.
१४०. एगिदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कज्जति, तं जहाॐ पुढविकाइयसंजमे, [ आउकाइयसंजमे, तेउकाइयसंजमे, वाउकाइयसंजमे ], वणस्सतिकाइयसंजमे।
१४०. एकेन्द्रियजीवों का आरम्भ-समारम्भ नहीं करने वाले जीव को पाँच प्रकार का संयम होता है-(१) पृथ्वीकायिक-सयम, [(२) अप्कायिक-संयम, (३) तेजस्कायिक-संयम, (४) वायुकायिक- ' संयम,] (५) वनस्पतिकायिक-संयम।
140. A being not indulging in harming or killing of one sensed beings has five kinds of discipline (1) Prithvikayik samyam (discipline related to earth-bodied beings), [(2) Apkayik samyam (discipline related to water-bodied beings), (3) Tejas-kayik samyam (discipline related to fire
bodied beings), (4) Vayukayik samyam (discipline related to air-bodied 4 beings) and) (5) Vanaspatikayik samyam (discipline related to plant- si
bodied beings).
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स्थानांगसूत्र (२)
(164)
Sthaananga Sutra (2) 55555555555555555558
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१४१. एगिदिया णं जीवा समारभमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जति, तं जहा-पुढविकाइयअसंजमे, म [ आउकाइयअसंजमे, तेउकाइयअसंजमे, वाउकाइयअसमंजमे ], वणस्सतिकाइयअसंजमे।
१४१. एकेन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले को पाँच प्रकार का असंयम होता है(१) पृथ्वीकायिक-असंयम, (२) अप्कायिक-असंयम, (३) तेजस्कायिक-असंयम, (४) वायुकायिक, असंयम, (४) वनस्पतिकायिक-असंयम, ____141. A being indulging in harming or killing of one sensed beings has
five kinds of indiscipline-(1) Prithvikayik asamyam (indiscipline related ___to earth-bodied beings), [(2) Apkayik asamyam (indiscipline related to
water-bodied beings), (3) Tejas-kayik asamyam (indiscipline related to
fire-bodied beings), (4) Vayukayik asamyam (indiscipline related to airA bodied beings) and] (5) Vanaspatikayik asamyam (indiscipline related to
plant-bodied beings). म १४२. पंचिंदिया जं जीवा असमारभमाणस्स पंचविहे संजमे कज्जति, तं जहा# सोतिंदियसंजमे, [ चक्खिंदियसंजमे, पाणिंदियसंजमे, जिभिंदियसंजमे ], फासिंदियसंजमे।
१४२. पंचेन्द्रिय जीवों का आरम्भ-समारम्भ नहीं करने वाले को पाँच प्रकार का संयम होता है# (१) श्रोत्रेन्द्रिय-संयम, [(२) चक्षुरिन्द्रिय-संयम, (३) घ्राणेन्द्रिय-संयम, (४) रसनेन्द्रिय-संयम],
(५) स्पर्शनेन्द्रिय-संयम। f 142. A being not indulging in harming or killing of five sensed s
beings has five kinds of discipline-(1) shrotendriya samyam, (2) chakshurindriya samyam, (3) ghranendriya samyam,
(4) rasanendriya samyam and (5) sparshendriya samyam. म १४३. पंचिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जति, तं जहा-सोतिंदियअसंजमे, - [चक्खिंदियअसंजमे, घाणिंदियअसंजमे, जिभिंदियअसंजमे ], फासिंदियअसंजमे।
१४३. पंचेन्द्रिय जीवों का घात करने वाले को पाँच प्रकार का असंयम होता है(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंयम, [(२) चक्षुरिन्द्रिय-असंयम, (३) घ्राणेन्द्रिय-असंयम, (४) रसनेन्द्रिय- असंयम], (५) स्पर्शनेन्द्रिय-असंयम।
143. A being indulging in harming or killing of five sensed beings has five kinds of indiscipline—(1) shrotendriya asamyam, si (2) chakshurindriya asamyam, (3) ghranendriya asamyam, (4) rasanendriya asamyam and (5) sparshendriya asamyam.
१४४. सव्व पाणभूयजीवसत्ताणं असमारभमाणस्स पंचविहे संजमे कज्जति, तं जहाएगिदियसंजमे, [बेइंदियसंजमे, तेइंदियसंजमे, चउरिंदियसंजमे ], पंचिंदियसंजमे।
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पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(165)
Fifth Sthaan : Second Lesson
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१४४. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का घात नहीं करने वाले को पाँच प्रकार का संयम होता . म है-(१) एकेन्द्रिय-संयम, [(२) द्वीन्द्रिय-संयम, (३) त्रीन्द्रिय-संयम, (४) चतुरिन्द्रिय-संयम], 5 * (५) पंचेन्द्रिय-संयम।
144. A being not indulging in harming or killing of all pran, bhoot, jiva and sattva has five kinds of discipline--(1) ekendriya samyam (discipline
relating to one-sensed living being), (2) dvindriya samyam, (3) trindriya 4 samyam, (4) chaturindriya samyam and (5) panchendriya samyam.
१४५. सब पाणभूयजीवसत्ताणं समारभमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जति, तं जहाॐ एगिंदियअसंजमे, [ बेइंदियअसंजमे, तेइंदियअसंजमे, चउरिदियअसंजमे ], पंचिंदियअसंजमे।
१४५. सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का घात करने वाले को पाँच प्रकार का असंयम होता है+ (१) एकेन्द्रिय-असंयम, (२) [द्वीन्द्रिय-असंयम, (३) त्रीन्द्रिय-असंयम, (४) चतुरिन्द्रिय-असंयम], 5 (५) पंचेन्द्रिय-असंयम।
145. A being indulging in harming or killing of all pran, bhoot, jiva and sattva (two to four-sensed beings, plant-bodied beings, five-sensed living beings) and (earth-bodied, water-bodied, fire-bodied and air-bodied
living beings) has five kinds of indiscipline-(1) ekendriya asamyam, ॐ (2) dvindriya asamyam, (3) trindriya asamyam, (4) chaturindriya
asamyam and (5) panchendriya asamyam. ॐ विवेचन-वृत्तिकार के अनुसार द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय जीव को 'प्राण' वनस्पतिकाय को 'भूत' ॐ पंचेन्द्रिय को 'सत्त्व' और शेष पृथ्वी आदि चार स्थावरकाय को 'सत्त्व' कहते हैं।
Elaboration According to the commentator (Vritti) two to four sensed ॐ beings are classified as pran, plant-bodied beings as bhoot, five sensed
beings as jiva, and the remaining four immobile-bodied beings including earth-bodied are called sattva. तृणवनस्पति-पद TRINAVANASPATI-PAD (SEGMENT OF GRAMINEOUS PLANTS)
१४६. पंचविहा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा-अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया, बीयरुहा। म १४६. तृणवनस्पतिकायिक जीव पाँच प्रकार के हैं-(१) अग्रबीज-जिनका अग्रभाग ही बीजरूप
होता है। जैसे-कोरंट वृक्ष आदि। (२) मूलबीज-जिनका मूल भाग ही बीज रूप होता है। जैसे-कमलकंद ॐ आदि। (३) पर्वबीज-जिनका पर्व (पोर, गाँठ) ही बीजरूप होता है। जैसे-गन्ना आदि। (४) स्कन्धबीज
जिसका स्कन्ध ही बीजरूप होता है। जैसे-सल्लकी (वट या चीढ़ का वृक्ष) आदि। (५) बीजरूह-बीज से उगने वाले-गेहूँ, चना आदि।
स्थानांगसूत्र (२)
(166)
Sthaananga Sutra (2)
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146. Gramineous plant-bodied beings are of three kinds – (1) agra 5 beej— those which grow when the tip is planted, such as Korant tree, 5 5 (2) mool-beej - those which grow when the root-bulb is planted like lotus, (3) parva-beej-those which grow when the knot is planted like
sugar
5
cane, (4) skandh-beej - those which grow when the branch is planted like banyan or pine and (5) beej-ruha-those which grow when seed is sown f like wheat, gram etc.
आचार- पद ACHAR-PAD (SEGMENT OF CONDUCT)
१४७. पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा - णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे ।
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147. Achar (conduct ) is of five (2) darshanachar, (3) charitrachar, (4) tapah-achar and (5) viryachar. विवेचन - आचार का अर्थ है- उस विषय का शास्त्र विहित उचित आचरण । श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना ज्ञानाचार है। सम्यक्त्व की आराधना दर्शनाचार, चारित्र की सम्यक् आराधना 'चारित्राचार' तप की बहुविध आराधना 'तपाचार' उक्त चारों की प्राप्ति व शुद्धि के लिए शक्ति का उपयोग करना वीर्याचार है। ज्ञानाचार के ८, दर्शनाचार के ८, चारित्राचार के ५, तपाचार के १२ भेद हैं।
१४७. आचार पाँच प्रकार का है - ( 9 ) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चारित्राचार, 5 (४) तपाचार, (५) वीर्याचार |
Elaboration-Achar means specific proper conduct as prescribed in scriptures. Proper endeavour to acquire scriptural knowledge is Jnanachar or conduct related to jnana or knowledge. Proper practice of smayaktua (righteousness) is darshanachar or conduct related to darshan or perception/faith. Proper following of codes of conduct is chaaritrachar or conduct related to chaaritra or ascetic-conduct. Proper observation of various austerities is tapah-achar or conduct related to tapah or austerities. Application of all strength and vigour in faultless accomplishment of these four is viryachar or conduct related to virya or potency. There are eight types of jnanachar, eight types of darshanachar, five types of charitrachar and twelve types of tapah-achar.
आचारप्रकल्प - पद ACHAR - PRAKALP-PAD (SEGMENT OF CONDUCT ATONEMENT)
१४८. पंचविहे आयारकप्पे पण्णत्ते, तं जहा - मासिए उग्घातिए, मासिए अणुग्धातिए, चउमासिए उग्घातिए, चउमासिए अणुग्घातिए, आरोवणा ।
पंचम स्थान: द्वितीय उद्देशक
(167)
24545555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 5 55 5 55 55 555 5 5555 5552
ததகதிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிதிமிதிமிதிமி பூதபூத
Fifth Sthaan: Second Lesson
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Jnanachar, फ्र
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१४८. आचारप्रकल्प (निशीथ सूत्रोक्त प्रायश्चित्त) पाँच प्रकार का है-(१) मासिक उद्घातिक लघु मासरूप प्रायश्चित्त। (२) मासिक अनुद्घातिक-गुरु मासरूप प्रायश्चित्त। (३) चातुर्मासिक उद्घातिकॐ लघु चार मासरूप प्रायश्चित्त। (४) चातुर्मासिक अनुद्घातिक-गुरु चार मासरूप प्रायश्चित्त।
(५) आरोपणा-एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के सेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का ॥ आरोपण करना।
148. Achar-prakalp (atonement for faults related to conduct as precribed in Nisheeth Sutra) is of five kinds(1) masik udghatik- 41 curtailment in month long prescribed atonement as simple atonement, (2) masik anudghatik-no curtailment in month long prescribed
atonement as harsh atonement, (3) chaturmasik udghatik-curtailment si in four month long prescribed atonement as simple atonement,
(4) chaturmasik anudghatik-curtailment in four month long prescribed atonement as harsh atonement and (5) aropan-to include atonement of new fault with the one already in process.
विवेचन-मासिक तपश्चर्या वाले प्रायश्चित्त में कुछ दिन कम करना मासिक उद्घातिक या लघुमास ॐ प्रायश्चित्त हैं, तथा मासिक तपश्चर्या वाले प्रायश्चित्त में से कुछ भी अंश कम नहीं करना, मासिक - अनुद्घातिक या गुरुमास प्रायश्चित्त हैं। यही अर्थ चातुर्मासिक उद्घातिक और अनुदद्घातिक का है। * आरोपणा का विवेचन आगे के सूत्र में है। ___Elaboration-English meaning is self-explanatory. आरोपणा-पद AROPANA-PAD (SEGMENT OF STALLING)
१४९. आरोवणा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-पट्टविया, ठविया, कसिणा, अकसिणा, हाडहडा।
१४९. आरोपणा पाँच प्रकार की होती है। (१) प्रस्थापिता आरोपणा-प्रायश्चित्त में प्राप्त अनेक तपों # में से किसी एक तप को प्रारम्भ करना। (२) स्थापिता आरोपणा-प्रायश्चित्त रूप से प्राप्त तपों को 卐 गुरुजनों की वैयावृत्त्य आदि किसी कारण से प्रारम्भ न करना। भविष्य के लिए स्थापित किये रखना। म ! (३) कृत्स्ना आरोपणा-पूरे छह मास की तपस्या का प्रायश्चित्त देना, क्योंकि वर्तमान जिनशासन में : ॐ उत्कृष्ट तपस्या की सीमा छह मास की मानी गई है। (४) अकृत्स्ना आरोपणा-एक दोष के प्रायश्चित्त को म करते हुए दूसरे दोष को करने पर तथा उसके प्रायश्चित्त को करते हुए तीसरे दोष के करने पर यदि 5
प्रायश्चित्त तपस्या का काल छह मास से अधिक होता है तो उसे छह मास में ही आरोपण कर दिया जाता है। क्योंकि प्रायश्चित्त के रूप में छह मास से अधिक का तप नहीं किया जाता। अतः पूरा
प्रायश्चित्त नहीं कर सकने के कारण उसे अकृत्स्ना आरोपणा कहा जाता है। (५) हाडहडा आरोपणा-जो ॐ प्रायश्चित्त प्राप्त हो, उसे शीघ्र ही दे देना।
स्थानांगसूत्र (२)
(168)
Sthaananga Sutra (2) 9555555555555555555555555555555555555
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फफफफफफफफफफफ
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5 वक्खारपव्वता पण्णत्ता, तं जहा- मालवंते, चित्तकूडे, पम्हकूडे, णलिणकूडे, एगसेले ।
卐
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149. Aropana (stalling) is of five kinds-(1) Prasthapit aropana-to
ו ת ת ת
stall all but one of the austerities prescribed for atonement. (2) Sthapit aropana to stall prescribed austerities for some future time due to
some specific reason like serving the seniors. ( 3 ) Kritsna aropana — to prescribe atonement for complete six months following the belief that in modern times that is the maximum limit. (4) Akritsna aropana-to include atonement of new faults committed during atonement within the maximum limit of six months even if the total period comes to more that. (5) Haadahada aropana-to prescribe atonement at once without 卐 any delay.
वक्षस्कारपर्वत - पद VAKSHASKAR PARVAT-PAD
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(SEGMENT OF VAKSHASKAR MOUNTAINS)
१५०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीयाए महाणदीए उत्तरे णं पंच
१५१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीयाए महाणदीए दाहिणे णं पंच
वक्खारपव्वता पण्णत्ता, तं जहा - तिकूडे, वेसमणकूडे, अंजणे, मायंजणे, सोमणसे ।
151. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain there are four Vakshaskar mountains on the southern bank of great river Sita. They are ( 1 ) Trikoot, (2) Vaishraman - koot, (3) Anjan and (4) Matanjan f (5) Saumanas.
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१५०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व भाग में सीता महानदी की उत्तर दिशा में पाँच वक्षस्कारपर्वत हैं- (१) माल्यवान्, (२) चित्रकूट, (३) पक्ष्मकूट, (४) नलिनकूट, (५) एकशैल।
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150. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain there 5 are four Vakshaskar mountains on the northern bank of great river Sita. They are – ( 1 ) Malyavan, (2) Chitrakoot, (3) Padmakoot, (4) Nalinakoot fi and ( 5 ) Ekashailakoot.
१५१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व भाग में सीता महानदी की दक्षिण दिशा में पाँच वक्षस्कारपर्वत हैं- (१) त्रिकूट, (३) वैश्रमणकूट, (३) अंजन, (४) मातांजन, (५) सौमनस ।
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१५३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओयाए महाणदीए उत्तरे णं पंच 5 वक्खारपव्यता पण्णत्ता, तं जहा - चंदपव्वते, सूरपव्यते, नागपव्वते, देवपव्वते, गंधमादणे।
१५२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओयाए महाणदीए दाहिणे णं पंच वक्खारपव्वता पण्णत्ता, तं जहा - विज्जुप्पभे, अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे ।
पंचम
स्थान : द्वितीय उद्देशक
(169)
1 95 95 95 96 95 95 96 97 95 5 5 5 5 5 5 5 5 59595959 999 95 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5952
Fifth Sthaan: Second Lesson
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Page #214
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१५२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत में सीतोदा महानदी की दक्षिण दिशा में पाँच ॥ + वक्षस्कारपर्वत हैं-(१) विद्युत्प्रभ, (२) अंकावती, (३) पक्ष्मावती, (४) आशीविष, (५) सुखावह। ॐ १५३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम भाग में सीतोदा महानदी की उत्तर दिशा में
पाँच वक्षस्कारपर्वत हैं-(१) चन्द्रपर्वत, (२) सूर्यपर्वत, (३) नागपर्वत, (४) देवपर्वत, (५) गन्धमादन। ये सभी पर्वत महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत हैं)
152. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain there are four Vakshaskar mountains on the southern bank of great river 4i Sitoda. They are—(1) Vidyutprabh, (2) Ankavati, (3) Pakshmavati, (4) Ashivish and (5) Sukhavah.
153. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain there are four Vakshaskar mountains on the northern bank of great river Sitoda. They are—(1) Chandraparvat, (2) Suryaparvat, (3) Naag-parvat and (4) Devaparvat and (5) Gandhamadan. (All these mountains are in Mahavideh area.) महाद्रह-पद MAHADRAH-PAD (SEGMENT OF GREAT LAKES)
१५४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं देवकुराए कुराए पंच महद्दहा पण्णत्ता, तं म जहा-णिसहदहे, देवकुरुदहे, सूरदहे, सुलसदहे, विज्जुप्पभदहे।
१५५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं उत्तरकुराए कुराए पंच महादहा पण्णत्ता, तं में जहा-णीलवंतदहे, उत्तरकुरुदहे, चंददहे, एरावणदहे, मालवंतदहे।
१५४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में देवकुरु नामक कुरुक्षेत्र में पाँच ॐ महाद्रह हैं-(१) निषधद्रह, (२) देवकुरुद्रह, (३) सूर्यद्रह, (४) सुलसद्रह, (५) विद्युत्प्रभद्रह।
१५५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में उत्तरकुरु नामक कुरुक्षेत्र में पाँच म महाद्रह हैं-(१) नीलवत्द्रह, (२) उत्तरकुरुद्रह, (३) चन्द्रद्रह, (४) ऐरावणद्रह, (५) माल्यवत्द्रह।
154. In Jambu continent, to the south of Mandar Mountain there are five mahadrahas (great lakes) in the Kuru area called Devakuru. They 46 are—(1) Nishadh draha, (2) Devakuru draha, (3) Surya draha, (4) Sulas draha and (5) Vidyutprabh draha.
156. In Jambu continent, to the north of Mandar Mountain there are five mahadrahas (great lakes) in the Kuru area called Uttar-kuru. They are--(1) Niavat draha, (2) Uttar-kuru draha, (3) Chandra draha, (4) Airavan draha and (5) Malyavat draha.
नांगसूत्र (२)
(170)
Sthaananga Sutra (2)
Page #215
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55555555555555555555555555 वक्षस्कारपर्वत-पद VAKSHASKAR PARVAT-PAD
(SEGMENT OF VAKSHASKAR MOUNTAINS) १५६. सब्वेवि णं वक्खारपव्वया सीया-सीओयाओ महाणईओ मंदरं वा पचतं पंच # जोयणसताई उड्डं उच्चत्तेण, पंचगाउसताइं उव्वेहेणं।
१५६. सभी (उक्त) वक्षस्कारपर्वत सीता-सीतोदा महानदी तथा मन्दर पर्वत की दिशा में पाँच सौ # योजन ऊँचे और पाँच सौ कोश गहरी नींव वाले हैं। fi 156. All the aforesaid Vakshaskar mountains, in the directions of Sita
Sitoda great rivers and Mandar mountain, are five hundred Yojans high and five hundred Yojans deep in the ground. धातकीपंड-पुष्करवर-पद DHATKIKHAND-PUSHKARAVAR-PAD
१५७. धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स पुरित्थमे णं सीयाए महाणदीए उत्तरे णं A पंच वक्खारपब्बता पण्णत्ता, तं जहा-मालवंते, एवं जहा जंबुद्दीवे तहा जाव पुक्खरवरदीवर्ल्ड म पच्चत्थिमद्धे वक्खारपव्वया दहा य उच्चत्तं भाणियब्वं।
१५७. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत के पूर्व में तथ सीता महानदी के उत्तर में पाँच । वक्षस्कारपर्वत हैं-(१) माल्यवान, (२) चित्रकूट, (३) पक्ष्मकूट, (४) नलिनकूट, (५) एकशैल। - इसी प्रकार धातकीषण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में तथा अर्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में
भी जम्बूद्वीप के समान पाँच-पाँच वक्षस्कारपर्वत, महानदियाँ-सम्बन्धी द्रह और वक्षस्कार पर्वतों की है ऊँचाई-गहराई कहना चाहिए।
157. In the eastern half of Dhatkikhand Dveep, to the east of Mandar mountain there are five Vakshaskar mountains to the north of Sita great river. They are--(1) Malyavan, (2) Chitrakoot, (3) Padmakoot, (4) Nalinakoot and (5) Ekashailakoot.
In the same way in the western half of Dhatkikhand Dveep and eastern and western halves of Ardhapushkaravar Dveep, five Vakshaskar mountains each, great lakes connected with great rivers and height and depth of mountains should be read like those in Jambu Dveep.
Lucruri
समयक्षेत्र-पद SAMAYAKSHETRA-PAD (SEGMENT OF SAMAYAKSHETRA)
१५८. समयक्खेत्ते णं पंच भरहाई, पंच एरवताई, एवं जहा चउट्ठाणे बितीयउद्देसे तहा एत्थवि भाणियव्वं जाव पंच मंदरा पंच मंदरचूलियाओ, णवरं-उसुयारा णत्थि।
१५८. समयक्षेत्र (अढ़ाई द्वीपों) में पाँच भरत, पाँच ऐरवत क्षेत्र हैं। इसी प्रकार जैसे चतुःस्थान के द्वितीय उद्देशक में जिन-जिनका वर्णन है, वह यहाँ भी कहना चाहिए। यावत् पाँच मन्दर, पाँच मंदर चूलिकाएँ समयक्षेत्र में हैं। विशेष यह है कि वहाँ इषुकार पर्वत नहीं है।
पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(171)
Fifth Sthaan : Second Lesson
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158. In Samayakshetra (area of human habitation or Adhai Dveep) 45 there are five Bharat and five Airavat areas. In the same way all description of all things mentioned in the second lesson of the fourth Sthaan should be read here.... and so on up to... There are five Mandar and five Mandar Chulikas in Samayakshetra. The only difference being that there is no Ikshukar mountain here.
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अवगाहना-पद AVAGAHANA-PAD (SEGMENT OF HEIGHT)
१५९. उसभे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसताई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। १६०. भरहे णं है राया चाउरंतचक्कवट्टी पंच धणुसताई उटुं उच्चत्तेणं होत्था। १६१. बाहुबली णं अणगारे [पंच ॐ धणुसताई उठं उच्चत्तेणं होत्था ]। १६२. बंभी णं अज्जा [पंच धणुसताई उठं उच्चत्तेणं होत्था ] म १६३. [ सुंदरी णं अज्जा पंच धणुसताई उठं उच्चत्तेणं होत्था ]। म १५९. कौशलिक (कोशल देश में उत्पन्न हुए) अर्हन्त ऋषभदेव पाँच सौ धनुष (चार हाथ का एक
धनुष) ऊँचे थे। १६०. चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा पंचम सौ धनुष ऊँचे थे। १६१. अनगार बाहुबली पाँच सौ धनुष ऊँचे थे। १६२. आर्या ब्राह्मी पाँच सौ धनुष ऊँची थीं। १६३. आर्या सुन्दरी पाँच सौ धनुष ऊँची थीं।
159. Kaushalik (born in Kaushal country) Arhant Risabhadeva was five hundred Dhanush tall (one Dhanush is four cubits). 160. Chaturant
Chakravarti King Bharat was five hundred Dhanush tall. 161. Anagar 4 Bahubali was five hundred Dhanush tall. 162. Arya Bra
five hundred Dhanush tall. 163. Arya Sundari was five hundred Dhanush tall. विबोध-पद VIBODH-PAD (SEGMENT OF AWAKENING)
१६४. पंचहिं ठाणेहिं सुत्ते विबुज्झेज्जा, तं जहा-सद्देणं, फासेणं, भोयणपरिणामेणं, णिद्दक्खएणं, सुविणदंसणेणं।
१६४. पाँच कारणों से सोता हुआ मनुष्य जाग जाता है-(१) शब्द से-आवाज को सुनकर। (२) स्पर्श से स्पर्श होने पर। (३) भोजन परिणाम से-भूख लगने से। (४) निद्राक्षय से-पूरी नींद सो लेने से। (५) स्वप्नदर्शन से स्वप्न देखने से। ___164. For five reasons a sleeping person gets awake-(1) by shabd-by hearing sound, (2) by sparsh-by touch, (3) by bhojan parinam-on being hungry, (4) by nidrakshaya-on conclusion of sleep and (5) by svapnadarshan-on seeing a dream.
(172)
Sthaananga Sutra (2)
| स्थानांगसूत्र (२) ####5555555544444444
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निर्ग्रन्थी-अवलंबन-पद NIRGRANTHI AVALAMBAN-PAD (SEGMENT OF SUPPORT)
१६५. पंचहि ठाणेहिं समणे णिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति, तं जहा
(१) णिगंथिं च णं अण्णयरे पसुजातिए वा पक्खिजातिए वा ओहातेज्जा, तत्थ णिग्गंथे णिग्गंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति। (२) णिग्गंथे णिग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि वा पक्खलमाणिं वा पवडमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति। (३) णिग्गंथे णिगंथिं सेयंसि वा पंकंसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा उक्कसमाणिं वा उबुज्झमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति। (४) णिग्गंथे णिगंथिं णावं आरुभमाणे वा ओरोहमाणे वा णातिक्कमति। (५) खित्तचित्तं दित्तचित्तं जक्खाइ8 उम्मायपत्तं उवसग्गपत्तं साहिगरणं सपायच्छित्तं जाव भत्तपाणपडियाइक्खिय अट्ठजायं वा णिग्गंथे णिग्गंथिं गेण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति।।
१६५. पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थी को पकड़ता हुआ, अवलम्बन देता हुआ भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण (उल्लंघन) नहीं करता है।
(१) कोई पशुजाति या पक्षीजाति का प्राणी निर्ग्रन्थी को मारने के लिए आक्रमण करे तो वहाँ निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पकड़ता है। या अवलम्बन (हाथ का सहारा) देता है तो (२) दुर्गम या विषम स्थान में फिसलती हुई या गिरती हुई निर्ग्रन्थी को ग्रहण करता है या अवलम्बन देता है, तो (३) दल-दल में या कीचड़ में, या काई में, या जल में फँसी हुई, या बहती हुई निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करता है या अवलम्बन देता है, तो (४) निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को नाव में चढ़ाता हुआ या उतारता हुआ भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। (५) क्षिप्तचित्त या दृप्तचित्त या यक्षाविष्ट : उन्माद प्राप्त या उपसर्ग प्राप्त, या कलह-रत या प्रायश्चित्त से डरी हुई, या भक्त-पान-प्रत्याख्यात, (उपवासी) या अर्थजात (पति या किसी अन्य द्वारा संयम से च्युत की जाती हुई) निर्ग्रन्थी को ग्रहण करता या अवलम्बन देता है तो, निर्ग्रन्थ भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
165. A Shraman Nirgranth (male ascetic) does not defy the word of Bhagavan if he holds (grahan) and lends support to (avalamban) a nirgranthi (female ascetic)
(1) If a nirgranth holds or supports a nirgranthi when she is attacked by an animal or a bird. (2) If a nirgranth holds or supports a nirgranthi when she slips or falls while crossing a difficult or rugged terrain. (3) If a nirgranth holds or supports a nirgranthi when she is caught in a swamp or mud or is drowning in water. (4) If a nirgranth holds or supports a nirgranthi in order to help her board or disembark a boat. (5) If a nirgranth holds or supports a nirgranthi when she is kshipt-chitt ( crazy), dript-chitt (euphoric), yakshavisht (possessed by spirit), unmaad prapt (mad), upasarg prapt (tormented by affliction), sadhikarana (quarreling), saprayashchit (apprehensive of atonement), bhakt-paanpratyakhyan (fasting), or arthajat (being forced or seduced into
84555555555555555555555555555555555555555558
पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(173)
Fifth Sthaan : Second Lesson
Page #218
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विवेचन - यद्यपि निर्ग्रन्थ को निर्ग्रन्थी का स्पर्श करने का सर्वथा निषेध है, तथापि जिन परिस्थिति - विशेष में वह निर्ग्रन्थी का हाथ आदि पकड़ कर उसको सहारा दे सकता है या उसकी और 5 उसके संयम की रक्षा कर सकता है, तदनुसार कार्य करते हुए वह जिन-3 - आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है। निर्ग्रन्थीको सर्वाङ्ग से पकड़ना ग्रहण और हाथ से पकड़ कर सहारा देना अवलम्बन कहलाता है।
जहाँ कठिनाई से जाया जा सके ऐसे दुर्गम प्रदेश को दुर्ग कहते हैं। पैर का फिसलना, या फिसलते 5 फ हुए भूमि पर हाथ-घुटने टेकना प्रस्खलन है और भूमि पर धड़ाम से गिर पड़ना प्रपतन है ।
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(५) उपसर्गप्राप्त - देव, मनुष्य या तिर्यंच कृत उपद्रव से पीड़ित । (६) साधिकरणा - कलह करती हुई या
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5 लड़ने के लिए उद्यत। (७) सप्रायश्चित्त- प्रायश्चित्त के भय से पीड़ित या डरी हुई।
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(८) भक्त - पान - प्रत्याख्यात - जीवन भर के लिए अशन-पान का त्याग करने से दुर्बल हुई मार्ग में कहीं
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गिरती हो, मूर्च्छा आ गई हो तो । ( ९ ) अर्थजात - अर्थ - (प्रयोजन - ) विशेष से, अथवा धनादि के लिए
5
5 पति या चोर आदि के द्वारा संयम से चलायमान की जाती हुई ।
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compromising her modesty). Under these conditions he does not defy the word of Bhagavan.
उपर्युक्त सभी दशाओं में निर्ग्रन्थी की रक्षार्थ निर्ग्रन्थ उसे ग्रहण या अवलम्बन देते हुए जिन आज्ञा
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फ का अतिक्रमण नहीं करता है। (वृत्ति भाग २ पृष्ठ ५६२-६३)
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क्षिप्तचित्त आदि का अर्थ इस प्रकार है- ( १ ) क्षिप्तचित्त - राग, भय या अपमानादि से जिसका चित्त विक्षिप्त हो । (२) दृप्तचित्त - सन्मान, लाभ, ऐश्वर्य आदि मद से या दुर्जय शत्रु को जीतने से जिसका चित्त दर्प को प्राप्त हो । ( ३ ) यक्षाविष्ट - पूर्वभव के वैर से, या रागादि से यक्ष के द्वारा आक्रांत हुई । (४) उन्मादप्राप्त- पित्त - विकार से उन्मत्त या पागल (देव प्रकोप से अथवा रूप आदि के मोह वश) ।
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Elaboration-A male ascetic is not at all allowed to touch a female ascetic. However, he can hold her hand and offer support or protect her and her modesty under special circumstances. He does not defy the word
of Tirthankar if he acts strictly according to the said code.
To hold the body of a female ascetic is called grahan and to support her by holding her hand is called alamban.
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A difficult or rugged terrain is called durg. Slipping of feet or to touch knees or hands to the ground on slipping is called praskhalan. To fall on the ground is prapatan.
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Other terms are explained as follows
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Kshipt-chitt-gone crazy due to attachment, fear, insult or other such फ sentiment. Dript-chitt-euphoric due to conceit of honour, gains, 卐 grandeur, or conquering a strong enemy. Yakshavisht-possessed or afflicted by yaksha or other spirits due to animosity or attachment from earlier births. Unmaad prapt-mentally deranged due to disturbed body
स्थानांगसूत्र (२)
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(174)
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Sthaananga Sutra (2)
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humours or excessive attachment or evil spirits. Upasarg prapt- 15 4 tormented by divine, human or animal affliction. Sadhikarana-ready to 4
quarrel or quarreling. Saprayashchit-apprehensive of atonement. Bhakt-paan-pratyakhyan-stumbling or falling or losing consciousness due to weakness caused by observing ultimate vow or fasting otherwise. Arthajat--being forced or seduced into compromising her modesty by her husband or other person for some specific reason or otherwise. (Vritti, part-2, p. 562-63) आचार्य-उपाध्याय-अतिशेष-पद ACHARYA UPADHYAYAATISHESH-PAD
(SEGMENT OF SPECIAL PRIVILEGE OF ACHARYA AND UPADHYAYA) १६६. आयरिय-उवज्झायस्स णं गणंसि पंच अतिसेसा पण्णत्ता, तं जहा
(१) आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए णिगज्झिय-णिगज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णातिक्कमति। (२) आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोधेमाणे वा णातिक्कमति। (३) आयरिय-उवज्झाए पभू, इच्छा वेयावडियं करेज्जा, इच्छा णो करेजा। (४) आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एगओ वसमाणे णातिक्कमति। (५) आयरिय-उवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा , [एगओ ] वसमाणे णातिक्कमति।
१६६. गण में आचार्य और उपाध्याय के पाँच अतिशेष (अतिशय; विशेष विधियाँ) हैं
(१) आचार्य और उपाध्याय (बाहर से आकर) उपाश्रय के भीतर प्रवेश करने पर पैरों की धूलि को सावधानी से झाड़ते हुए या फटकारते हुए। (२) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर उच्चार (मल) और प्रस्रवण (मूत्र) का व्युत्सर्ग और विशोधन (अशुचि की शुद्धि) करते हुए आज्ञा का
अतिक्रमण नहीं करते हैं। (३) आचार्य और उपाध्याय की इच्छा हो तो वे दूसरे साधु की वैयावृत्त्य करें, | इच्छा न हो तो न करें, इसके लिए प्रभु (स्वतन्त्र) हैं। (४) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर
एक रात्रि या दो रात्रि अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। (५) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक रात्रि या दो या रात्रि अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। ____166. In a gana (group of ascetics) acharya and upadhyaya have five atishesh (special privilege)
(1) Acharya and upadhyaya do not defy the word of Bhagavan if they carefully dust their feet while entering an upashraya (place of stay). (2) Acharya and upadhyaya do not defy the word of Bhagavan if they pass their stool or urine or cleanse it themselves within the upashraya. (3) Acharya and upadhyaya are free of the responsibility of serving other ascetics; they may do or not do as they desire. (4) Acharya and upadhyaya do not defy the word of Bhagavan if they live alone in the upashraya for
555555555555555555555555555555555555555555555558
पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(175)
Fifth Sthaan : Second Lesson
Page #220
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2 95 95 95 5 5 5559595959 55 595 5 55955 59595955 5955959595559 5 5 5 5 5 5552
****த***************தமிழ***தமிமிதிமிதிமிதி
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one or two nights. (5) Acharya and upadhyaya do not defy the word of 5 Bhagavan if they live alone out side the upashraya for one or two nights. विवेचन-इन पाँच अतिशेषों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन व्यवहारभाष्य उद्देशक ६ गाथा १२३-२२७ प्राप्त है। हिन्दी टीका भाग २ पृष्ठ १६६, तथा ठाणं पृष्ठ ६३८ पर भी विस्तार के साथ वर्णन है । Elaboration-Detailed description about these five privileges is available in Vyavahar Bhashya 6/123-227 and also in Hindi Tika, part - 2. 5 p 166 as well as Thanam, p. 638.
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आचार्य - उपाध्याय - गणापक्रमण - पद ACHARYA UPADHYAYA GANAPAKRAMAN PAD (SEGMENT OF ACHARYA AND UPADHYAYA LEAVING THE GROUP) १६७. पंचहिं ठाणेहिं आयरिय - उवज्झायस्स गणावक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा
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(१) यदि आचार्य या उपाध्याय गण में आज्ञा या धारणा का सम्यक् प्रयोग न कर सके । (२) यदि
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फ आचार्य और उपाध्याय गण में यथारालिक कृतिकर्म ( बड़ों का वन्दन और विनयादिक) का सम्यक् प्रयोग
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( १ ) आयरिय - उवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं परंजित्ता भवति । (२) आयरिय - उवज्झाए गणंसि आधारायणियाए कितिकम्मं वेणइयं णो सम्मं परंजित्ता भवति । (३) आयरिय - उवज्झाए गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारेति, ते काले-काले णो सम्ममणुपवादेत्ता भवति । ( ४ ) आयरिय - उवज्झाए गणंसि सगणियाए वा परगणियाए वा णिग्गंथोए बहिल्लेसे भवति ।
(५) मित्ते णातिगणे वा से गणाओ अवक्कमेज्जा, तेसिं संगहोवग्गहट्ठायए गणावक्कमणे पण्णत्ते ।
१६७. पाँच कारणों से आचार्य और उपाध्याय गणापक्रमण - गण से बाहर निर्गमन करते हैं।
5 न कर सके। (३) यदि आचार्य और उपाध्याय जिन श्रुत-पर्यायों को धारण करते हैं, समय-समय पर
उनकी गण को सम्यक् वाचना न दे सके। (४) यदि आचार्य या उपाध्याय अपने गण की, या पर- गण की
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167. For five reasons acharya and upadhyaya leave their group 5 (ganapakraman) -
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निर्ग्रन्थी में बहिर्लेश्य (आसक्त) हो जावें। (५) आचार्य या उपाध्याय के मित्र ज्ञातिजन (कुटुम्बी आदि) गण 5 से चले जायें तो उन्हें पुनः गण में संग्रह करने या उपग्रह करने के लिए गण से अपक्रमण कर सकते हैं।
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(1) If an acharya or upadhyaya fails to properly assert his command
(ajna and dharana ). ( 2 ) If an acharya or upadhyaya fails to properly follow yatharatnik kritikarma (codes of protocol and conduct). (3) If an acharya or upadhyaya fails to properly recite and teach the sutra paryavajat (meaning and interpretations of sutras) he has mastered. (4) If an acharya or upadhyaya gets infatuated with a female ascetic of his own or other group. (5) If the friends and relatives of an acharya or 卐 upadhyaya leave his group, then for the purpose of bringing them back to the fold.
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स्थानांगसूत्र (२)
(176)
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Sthaananga Sutra ( 2 )
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विवेचन-आचार्य और उपाध्याय गण के प्रधान होते हैं। संघ या गण का सम्यक् प्रकार से संचालन के क करना उनका कर्त्तव्य है। किन्तु जब वे यह अनुभव करते हैं कि गण में मेरी आज्ञा या धारणा की + अवहेलना हो रही है, तो वे गण छोड़कर चले जाते हैं। म दूसरा कारण वन्दन और विनय का सम्यक् प्रयोग न कर सकना है। यद्यपि आचार्य और उपाध्याय
का गण में सर्वोपरि स्थान है, तथापि प्रतिक्रमण और क्षमा-याचना के समय दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ और श्रुत के विशिष्ट ज्ञाता साधुओं का विशेष सम्मान करना चाहिए। यदि वे अपने पद के अभिमान से वैसा नहीं करते हैं, तो गण में असन्तोष या विग्रह खड़ा हो जाता है, ऐसी दशा में वे गण छोड़कर चले जाते हैं।
तीसरा कारण गणस्थ साधुओं को, स्वयं जानते हुए भी यथासमय सूत्र या अर्थ या उभय की वाचना न देना है। इससे गण में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है और आचार्य या उपाध्याय पर पक्षपात का दोषारोपण होने लगता है। ऐसी दशा में उन्हें गण से चले जाने का विधान किया गया है।
चौथा कारण संघ की निन्दा होने या प्रतिष्ठा गिरने का है, अतः उनका स्वयं ही गण से बाहर चले म जाना उचित माना गया है।
____ पाँचवाँ कारण मित्र या ज्ञातिजन के गण से चले जाने पर पुनः संयम में स्थिर करने या गण में । वापिस लाने के लिए गण से बाहर जाने का विधान किया गया है। ___सबका सारांश यही है कि जैसा करने से गण या संघ की प्रतिष्ठा, मर्यादा और प्रख्याति बनी रहे
और अप्रतिष्ठा, अमर्यादा और अपकीर्ति का अवसर न आवे, वही कार्य करना आचार्य और उपाध्याय का कर्तव्य है। (विस्तार से वर्णन देखें हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ १७० तथा ७१, ठाणं पृष्ठ ६४१) ___Elaboration Acharya and upadhyaya are heads of the gana (group). 6. It is their duty to direct and manage the organization properly. But when
they feel that their orders or instructions are not being followed they are supposed to leave the group and go away. The second reason is inability to follow the codes of protocol. Although
or upadhyaya command the highest status in the group they should offer due respect to the seniors in initiation as well as accomplished i scholars of scriptures, specially at the time of pratikraman (critical review) 5 and kshama yachana (begging pardon). If they fail to do so due to the ego of their status there are chances of dissatisfaction and revolt in the group. Under such conditions they are supposed to leave the group.
The third reason is not to teach or give timely recitation (vaachana) of text and meaning of scriptures to all disciples in spite of knowing the same. This breeds dissatisfaction and they are blamed of favouritism. Under such conditions they are supposed to leave the group. i The fourth reason leads to criticism of the sangh or tarnishing its
prestige. Therefore, it is better that the involved acharya or upadhyaya himself leaves the group. | पंचम स्थान : द्वितीय उद्देशक
(177)
Fifth Sthaan : Second Lesson
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The fifth reason is included for the cause of avoiding the depletion of
the group. If some friend or relative abandons the group the head is
allowed to leave in order to bring them back into the fold.
The central theme is that the duty of an acharya or upadhyaya is to
ensure that the prestige, discipline and fame of the group or sangh
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卐 remains intact. It is his duty to perform acts that avoid the chances of
5 tarnishing these three. (for detailed discussion refer to Hindi Tika, part-2, pp. 5
5 170-71 and Thanam p. 641 )
ऋद्धिमत् - पद RIDDHIMAT PAD (SEGMENT OF THE ENDOWED)
१६८. पंचविहा इड्डिमंता मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा - अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा,
भावियप्पाणो अणगारा ।
१६८. ऋद्धिमान् मनुष्य पाँच प्रकार के होते हैं - ( १ ) अर्हन्त, (२) चक्रवर्ती, (३) बलदेव, (४) वासुदेव, (५) भावितात्मा अनगार ।
168. Riddhiman manushya (endowed persons) are of five kinds(1) Arhant, (2) Chakravarti, (3) Baladeva, (4) Vasudeva
and
(5) bhaavitatma anagar (pure-hearted ascetic).
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विवेचन - वैभव, ऐश्वर्य और सम्पदा को ऋद्धि कहते हैं । अर्हन्तों की ऋद्धि पूर्वभवोपार्जित और
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5. वर्तमानभव में घातिकर्मक्षयोपार्जित होती है। मध्यवर्ती तीन महापुरुषों की ऋद्धि पूर्वभव के पुण्य से उपार्जित होती है। तप, संयम व शुभ भावनाओं से जिनकी आत्मा निर्मल हो चुकी है, वे भावितात्मा होते हैं। 5 भावितात्मा अनगार की ऋद्धियाँ वर्तमान भव की तपस्या - विशेष से योग विभूतिजन्य होती हैं। जो कि बुद्धि, क्रिया, विक्रिया आदि के भेद से अनेक प्रकार की बतलाई गई हैं । २८ प्रकार की ऋद्धियों का वर्णन 5 वृत्तिकार ने किया है। स्थान ६ सूत्र २१ पर छह प्रकार के ऋद्धिमान् बताये हैं। ( वृत्ति भाग - २ पृष्ठ ५६५-६६) Elaboration-Riddhi is grandeur, majesty and wealth. Those endowed with these are called riddhiman. Arihants are endowed with these due to karmas acquired in the past birth and shedding of vitiating karmas during this birth. The three middle persons are endowed due to the meritorious karmas from the past birth. Bhaavitatmas are those who have purified their soul through austerities, discipline and pious attitude. The pure-hearted ascetics are endowed due to their austerities and association with spiritual endeavour. These riddhis are of many kinds based on wisdom, action, transformation, etc. The commentator (Vritti) has mentioned twenty eight kinds of riddhis. (Vritti, part-2, pp. 565-66)
॥ पंचम स्थान का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
END OF THE SECOND LESSON
स्थानांगसूत्र (२)
(178)
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Sthaananga Sutra (2)
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पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक FIFTH STHAAN (Place Number Five) : THIRD LESSON
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अस्तिकाय-पद ASTIKAYA-PAD (SEGMENT OF AGGLOMERATIVE ENTITY) धर्मास्तिकाय DHARMASTIKAYA
१६९. पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए।
१६९. अस्तिकाय पाँच हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) जीवास्तिकाय, (५) पुद्गलास्तिकाय।
169. There are five astikayas (agglomerative entities) (1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) Jivastikaya (soul entity) and 5 (5) Pudgalastikaya (matter entity).
१७०. धम्मत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए अवट्ठिए लोगदव्ये। से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ। ___दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगं दव्वं। खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते। कालओ ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति-भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णिइए सासते अक्खए अब्बए अवट्टिते णिच्चे। भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे। गुणओ गमणगुणे।
१७०. धर्मास्तिकाय वर्ण रहित, गन्ध रहित, रस रहित, स्पर्श रहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का अंशभूत द्रव्य है। वह संक्षेप में है-(१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भाव और (५) गुण की अपेक्षा पाँच प्रकार का है।
(१) द्रव्य की अपेक्षा-धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है। (२) क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है। (३) काल की म अपेक्षा कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतःवह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, ॐ अवस्थित और नित्य है। (४) भाव की अपेक्षा-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रहित है। (५) गुण की अपेक्षागमनगुण वाला है अर्थात् धर्मास्तिकाय स्वयं गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों के गमन करने में सहायक है।
170. Dharmastikaya is an entity (dravya) that is varna rahit (devoid of appearance or colour), gandh rahit (devoid of smell), rasa rahit (devoid of taste), sparsh rahit (devoid of touch), arupi (formless), ajiva (lifeless),
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पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
(179)
Fifth Sthaan : Third Lesson
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shashvat (eternal), avasthit (indestructible) and integral part of lok 45 4i (occupied space or universe). Briefly speaking, it has five attributes in 4
context of—(1) dravya (entity), (2) kshetra (space or area), (3) kaal (time), (4) bhaava (state) and (5) guna (properties).
In context of41) Dravya (entity)-Dharmastikaya is one entity. (2) Kshetra (space or area)-it pervades the whole lok. (3) Kaal (time)-it is not that it never existed, it is not that it does not exist, it is not that it will never exist. It existed in the past, it exists in the present and it will continue to exist in the future. Therefore it is dhruva (constant), niyat (fixed), shashvat (eternal), akshaya (imperishable), avyaya (nonexpendable), avasthit (steady), and nitya (perpetual). (4) Bhaava (state)—it is devoid of colour, smell, taste and touch. (5) Guna (properties)-it has the property of motion. In other words it moves and passively helps beings and matter to move.
- विवेचन-विशेष शब्दों का अर्थ-अस्तिकाय-(अनेक प्रदेशों का समूह एक द्रव्य) ध्रुव-तीनों काल में ॐ विद्यमान। नियत-सदा समान रहने वाला। शाश्वत-सदा रहने वाला। अक्षय-कभी क्षय नहीं होने वाला।
अव्यय-कभी विनष्ट नहीं होने वाला। अवस्थित-उत्पाद-व्यय होने पर भी स्वरूप में स्थित है। नित्य-उक्त । गुणों से सम्पन्न है।
Elaboration The English terms in parenthesis are self explanatory. __ अधर्मास्तिकाय ADHARMASTIKAYA
१७१. अधम्मत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए अवट्ठिए लोगदव्ये। से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ। . दवओ णं अधम्मत्थिकाए एगं दवं। खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते। कालओ ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति-भुविं च भवति या भविस्सति य, धुवे णिइए सासते " अक्खए अब्बए अवट्टिते णिच्चे। भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे। गुणओ ठाणगुणे।
१७१. अधर्मास्तिकाय वर्ण रहित, गन्ध रहित, रस रहित, स्पर्श रहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत,
अवस्थित और लोक का अंशभूत द्रव्य है। वह संक्षेप में (१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भाव और + (५) गुण की अपेक्षा पाँच प्रकार का है
(१) द्रव्य की अपेक्षा-अधर्मास्तिकाय एक द्रव्य है। (२) क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है। (३) काल 卐 की अपेक्षा-अधर्मास्तिकाय कभी नहीं था, ऐसा नहीं है; कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा,
ऐसा नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, ॐ अव्यय, अवस्थित और नित्य है। (४) भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है।
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| स्थानांगसूत्र (२)
(180)
Sthaananga Sutra (2)
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shashvat (eternal), avasthit (indestructible) and integral part of lok (occupied space or universe). Briefly speaking, it has five attributes in context of—(1) dravya (entity), (2) kshetra (space or area), (3) kaal (time), (4) bhaava (state) and (5) guna (properties). ___In context of-(1) Dravya (entity)-Adharmastikaya is one entity. (2) Kshetra (space or area)-it pervades the whole lok. (3) Kaal (time)-it is not that it never existed, it is not that it does not exist, it is not that it will never exist. It existed in the past, it exists in the present and it will continue to exist in the future. Therefore it is dhruva (constant), niyat (fixed), shashvat (eternal), akshaya (imperishable), avyaya (nonexpendable), avasthit (steady), and nitya (perpetual). (4) Bhaava (state)-it is devoid of colour, smell, taste and touch. (5) Guna (properties)—it has the property of inertia. In other words it rests and passively helps beings and matter to come to rest. आकाशास्तिकाय AAKASHASTIKAYA
१७२. आगासत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए अवढिए लोगालोगदब्बे। से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ।
दबओ णं आगासत्थिकाए एगं दबं। खेत्तओ लोगालोगपमाणमेत्ते। कालओ ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति-भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णिइए सासते अक्खए अब्बए अवट्टिते णिच्चे। भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे। गुणओ अवगाहणागुणे।।
१७२. आकाशास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोकालोक रूप द्रव्य है। संक्षेप में वह-(१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भाव और (५) गुण की अपेक्षा पाँच प्रकार का है
(१) द्रव्य की अपेक्षा-आकाशास्तिकाय एक द्रव्य है। (२) क्षेत्र की अपेक्षा लोक-अलोक प्रमाण सर्वत्र विद्यमान है। (३) काल की अपेक्षा कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। (४) भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। (५) गुण की अपेक्षा-आकाशास्तिकाय अवगाहन (अवकाश देना) गुण वाला है।
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पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
(181)
Fifth Sthaan: Third Lesson
Page #226
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5 of appearance or colour), gandh rahit (devoid of smell), rasa rahit (devoid
5 of taste), sparsh rahit (devoid of touch), arupi (formless ), ajiva ( lifeless), 5 shashvat (eternal), avasthit (indestructible) and integral part of lok and 5 alok (occupied and unoccupied space or universe and space). Briefly speaking, it has five attributes in context of – ( 1 ) dravya ( entity),
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(2) kshetra (space or area ), ( 3 ) kaal (time), (4) bhaava (state) and 5 (5) guna (properties).
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172. Aakashastikaya is an entity (dravya) that is varna rahit (devoid 卐
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In context of— ( 1 )
Dravya ( entity) --- Aakashastikaya is one entity. 5 (2) Kshetra (space or area)-it pervades the whole lok and alok. (3) Kaal
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( time ) — it is not that it never existed, it is not that it does not exist, it is not that it will never exist. It existed in the past, it exists in the present 卐 and it will continue to exist in the future. Therefore it is dhruva 卐 (constant ), niyat (fixed), shashvat ( eternal), akshaya ( imperishable), avyaya (non-expendable), avasthit (steady ), and nitya (perpetual). 5 (4) Bhaava (state ) — it is devoid of colour, smell, taste and touch. 5 (5) Guna (properties ) — it has the property of avagahana ( occupation). In other words it provides space-occupation.
जीवास्तिकाय JIVASTIKAYA
१७३. जीवत्थिकाए णं अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी जीवे सासए अवट्ठिए लोगदव्वे । से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दव्यओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ ।
दव्वओ णं जीवत्थिकाए अनंताई दव्वाइं । खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते । कालओ ण कयाइ णासी, ण काइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति - भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णिइए सासते अक्खए अव्व अट्ठिते णिच्चे । भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे । गुणओ उवओगगुणे ।
१७३. जीवास्तिकाय अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, जीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। संक्षेप से वह - (१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भाव और (५) गुण की अपेक्षा फ्र पाँच प्रकार का है
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(१) द्रव्य की अपेक्षा - जीवास्तिकाय अनन्त द्रव्य हैं । (२) क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है, अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों के बराबर प्रदेशों वाला है। (३) काल की अपेक्षा कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में 5 है और भविष्यकाल में रहेगा। अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। 5 (४) भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है । (५) गुण की अपेक्षा - जीवास्तिकाय उपयोग गुणवाला है।
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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173. Jivastikaya is an entity (dravya) that is varna rahit (devoid of appearance or colour), gandh rahit (devoid of smell), rasa rahit (devoid of 卐 taste), sparsh rahit (devoid of touch), arupi (formless), ajiva (lifeless), 41 shashvat (eternal), avasthit (indestructible) and integral part of lok
(occupied space or universe). Briefly speaking, it has five attributes in
context of-(1) dravya (entity), (2) kshetra (space or area), (3) kaal (time), si (4) bhaava (state) and (5) guna (properties).
In context of—(1) Dravya (entity)-Jivastikaya is infinite entities. (2) Kshetra (space or area)—it pervades the whole lok. In other words, like lok it has innumerable space-points. (3) Kaal (time)-it is not that it never existed, it is not that it does not exist, it is not that it will never exist. It existed in the past, it exists in the present and it will continue to exist in the future. Therefore it is dhruva (constant), niyat (fixed), shashvat (eternal), akshaya (imperishable), avyaya (non-expendable), avasthit (steady), and nitya (perpetual). (4) Bhaava (state)-it is devoid
of colour, smell, taste and touch. (5) Guna (properties)—it has the 41 \i property of upayog (intent or sentience). 5 पुद्गलास्तिकाय PUDGALASTIKAYAS .
१७४. पोग्गलत्थिकाए पंचवण्णे पंचरसे दुगंधे अट्ठफासे रूवी अजीवे सासते अवद्विते लोगदव्ये। से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ। + दवओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाइं। खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते। कालओ ण कयाइ णासी,
ण कयाइ ण भवति, ण कयाइ ण भविस्सइत्ति-भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णिइए सासते . 9 अक्खए अब्बए अवट्टिते णिच्चे। भावओ वण्णमंते गंधमंते रसमंते फासमंते। गुणओ गहणगुणे।
१७४. पुद्गलास्तिकाय पंच वर्ण, पंच रस, दो गन्ध, आठ स्पर्श वाला, रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। संक्षेप से वह-(१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, ॐ (४) भाव और (५) गुण की अपेक्षा पाँच प्रकार का है
(१) द्रव्य की अपेक्षा-अनन्त द्रव्य हैं। (२) क्षेत्र की अपेक्षा-लोकप्रमाण है, अर्थात् लोक में ही ॐ पुद्गल रहता है। (३) काल की अपेक्षा कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है, कभी + नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्यकाल में रहेगा। अतः 5
वह ध्रुव, निचित, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। (४) भाव की अपेक्षा वर्णवान्, ॥ गन्धमान्, रसवान् और स्पर्शवान् है। (५) गुण की अपेक्षा ग्रहण गुणवाला है, अर्थात् औदारिक आदि के
शरीर रूप से और इन्द्रियों के द्वारा भी वह ग्रहण किया जाता है। अथवा पूरण, गलन-मिलने-बिछुड़ने ॐ का स्वभाव वाला है।
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Fifth Sthaan : Third Lesson
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____ 174. Pudgalastikaya is an entity (dravya) that has five varnas (colours), five rasas (tastes), two gandh (two smells), eight sparsh (touches), rupi (with form), ajiva (lifeless), shashvat (eternal), avasthit (indestructible) and integral part of lok (occupied space or universe). Briefly speaking, it has five attributes in context of-(1) dravya (entity),
(2) kshetra (space or area), (3) kaal (time), (4) bhaava (state) and 4 (5) guna (properties).
In context of—(1) Dravya (entity)—Pudgalastikaya is infinite in number. (2) Kshetra (space or area)—it pervades the whole lok. In other words, it is confined to lok. (3) Kaal (time)-it is not that it never existed, it is not that it does not exist, it is not that it will never exist. It existed in the past, it exists in the present and it will continue to exist in the future. Therefore it is dhruva (constant), niyat (fixed), shashvat (eternal), akshaya (imperishable), avyaya (non-expendable), avasthit (steady), and nitya. (perpetual). (4) Bhaava (state)--it is endowed with colour, smell, taste and touch. (5) Guna (properties)-it has the property of grahan (being acquirable), in other words it is acquired by bodies including gross physical body and sense organs. This also means it has
the property of combining and separating or integrating and 'i disintegrating. गति-पद GATI-PAD (SEGMENT OF GENUSES)
१७५. पंच गतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-णिरयगती, तिरियगती, मणुयगती, देवगती, सिद्धिगती। ॐ १७५. गतियाँ पाँच हैं-(१) नरकगति, (२) तिर्यंचगति, (३) मनुष्यगति, (४) देवगति, 卐 (५) सिद्धगति। ॐ 175. There are five gatis (genuses) (1) narak gati (genus of infernal
beings), (2) tiryanch gati (animal genus), (3) manushya gati (genus of $ human beings), (4) deva gati (divine genus) and (5) Siddha gati (Siddha
genus or status). 5 विवेचन-गति का सामान्य अर्थ है, गमन करना। किन्तु यहाँ पर गति शब्द का विशेष अर्थ है। गति
पाँच प्रकार की होती हैं-(१) जन्मान्तर गति-एक भव से दूसरे भव में जाना। (२) देशान्तर गति-एक ॐ स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। (३) भवोपपात गति- जीव ने जिस भव के योग्य कर्मों का बंध किया है, + कर्मों के उदय से अन्तिम क्षण तक उसी भव में रहना। यह नरक आदि चार गति हैं। (४) कर्मच्छेदन ॐ गति-कर्मों का सर्वथा उच्छेद करके जीव की जो ऊर्ध्वगति होती है, जैसे सिद्धात्मा की गति। (५) विहाय ॥
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गति - आकाश में चलने की क्रिया । प्रज्ञापना पद १६ में इसके १७ भेद हैं प्रस्तुत सूत्र में तीसरे, 5 प्रकार की गति का सम्बन्ध है। (हिन्दी टीका भाग- २ पृष्ठ १७८)
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Elaboration-The common meaning of gati is movement. But here this hi term has a special meaning. Gati is of five kinds – ( 1 ) Janmantar gati-to go from one birth to another or reincarnation. (2) Deshantar gati-to go from one place to another. (3) Bhavopapat gati-to remain in the specific genus, for which a being has acquired specific karmas, from the time of fruition of those karmas till the last moment of their duration. This includes the four gatis including the infernal one. (4) Karmachchhedan gati-the upward movement of a soul after it has shed all karmas. This ; means Siddha gati. (5) Vihaya gati - to move in the space. Prajnapana Sutra mentions seventeen kinds of this gati in verse 16. Here it relates to the third and fourth kind.
इन्द्रियार्थ - पद INDRIYARTH-PAD
(SEGMENT OF SUBJECTS OF SENSE ORGANS)
१७६. पंच इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा- सोतिंदियत्थे, चक्खिंदियत्थे, घाणिंदियत्थे, जिब्भिंदियत्थे, फासिंदियत्थे ।
१७६. इन्द्रियों के पाँच अर्थ (विषय) हैं - (१) श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द, (२) चक्षुरिन्द्रिय का रूप, (३) घ्राणेन्द्रिय का गन्ध, (४) रसनेन्द्रिय का रस, (५) स्पर्शनेन्द्रिय का स्पर्श ।
चौथे
5 मुंड - पद MUND-PAD (SEGMENT OF VICTORS)
१७७. पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- सोनिंदियमुंडे, चक्खिंदियमुंडे, घाणिंदियमुंडे, जिब्भिंदियमुडे, फासिंदियमुंडे ।
अहवा - पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- कोहमुंडे, माणमुंडे, मायामुंडे, लोभमुंडे, सिरमुडे ।
१७७. मुण्ड - (इन्द्रियविषय - विजेता या इन्द्रिय निग्रह करने वाले ) अथवा इन्द्रियों के शुभ-अशुभ विषय में समवृत्ति रखने वाले । पाँच प्रकार के हैं - (१) श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड, (२) चक्षुरिन्द्रियमुण्ड, (३) घ्राणेन्द्रियमुण्ड, (४) रसनेन्द्रियमुण्ड, (५) स्पर्शनेन्द्रियमुण्ड ।
पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
176. Indriyas (sense organs) have five arth (subjects ) – (1) the subject of shrotrendriya (ear) is sound, (2) the subject of chakshu-indriya (eyes) i is appearance, ( 3 ) the subject of ghranendriya (nose) is smell, (4) the
i subject of rasanendriya (taste buds) is taste, and (5) the subject of 5 sparshanendriya (touch) is touch.
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Fifth Sthaan: Third Lesson
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____अथवा मुण्ड पाँच प्रकार के होते हैं-(१) क्रोधमुण्ड-क्रोध कषाय के विजेता। (२) मानमुण्ड-मान' म कषाय के विजेता। (३) मायामुण्ड-माया कषाय के विजेता। (४) लोभमुण्ड-लोभ कषाय के विजतो।
(५) शिरोमुण्ड-सिर का मुण्डन करने वाला। ____177. Mund (victors over indulgence of sense organs or who have 卐 control over sense organs or who are equanimous towards good and bad sensations) are of five kinds—(1) shrotrendriyamund, (2) chakshurindriyamund, (3) ghranendriyamund, (4) rasanendriyamund and (5) sparshanendriyamund. ___Also mund are of five kinds-(1) krodh-mund-victors over anger, (2) maan-mund-victors over conceit, (3) maya-mund-victors over deceit, (4) lobh-mund-victors over greed and (5) shiro-mund-who has tonsured his head. बादर-पद BADAR-PAD (SEGMENT OF GROSS)
१७८. अहेलोगे णं पंच बायरा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, वाउकाइया, + वणस्सइकाइया, ओराला तसा पाणा। १७९. उड्डलोगे णं पंच बायरा पण्णत्ता, तं जहा
पुढविकाइया, आउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, ओराला तसा पाणा ]। १८०. तिरियलोगे पंच बायरा पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिया, [ बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया ] पंचिंदिया।
१७८. अधोलोक में पाँच प्रकार के बादर (स्थूल) जीव होते हैं-(१) पृथिवीकायिक, म (२) अप्कायिक, (३) वायुकायिक, (४) वनस्पतिकायिक, (५) उदार त्रस (द्वीन्द्रियादि) प्राणी। म
१७९. ऊर्ध्वलोक में पाँच प्रकार के बादर जीव होते हैं-[(१) पृथिवीकायिक, (२) अप्कायिक, 4 (3) वायकायिक. (४) वनस्पतिकायिक. (५) उदार त्रस प्राणी]।१८०. तिर्यकलोक में पाँच प्रकार के बादर जीव होते हैं-(१) एकेन्द्रिय, [(२) द्वीन्द्रिय, (३) त्रीन्द्रिय, (४) चतुरिन्द्रिय], (५) पंचेन्द्रिय।।
178. In adholok (lower world) there are five kinds of badar jivas 5 (gross living beings)-(1) Prithvikayiks (earth-bodied beings), (2) Apkayiks (water-bodied beings), (3) Vayukayiks (air-bodied beings), (4) Vanaspatikayiks (plant-bodied beings) and (5) Udaar tras pranis (dvindriya etc. or two-sensed beings etc.). 179. In urdhvalok (upper
world) there are five kinds of badar jivas (gross living beings)$i (1) Prithvikayiks (earth-bodied beings), (2) Apkayiks (water-bodied
beings), (3) Vayukayiks (air-bodied beings), (4) Vanaspatikayiks (plantbodied beings) and (5) Udaar tras pranis (dvindriya etc. or two-sensed beings etc.). 180. In Tiryaklok (transverse or middle world) there are five kinds of badar jivas (gross living beings)-(1) Ekendriya (one-sensed beings), (2) Dvindriya (Two-sensed beings), (3) Trindriya (three-sensed
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beings), (4) Chaturindriya (four-sensed beings) and (5) Panchendriya4i tiryagyonik (five-sensed animal beings).
विवेचन-आगमों में तेजस्काय और वायुकाय को भी त्रस कहा है। सूक्ष्म स्थावर जीव तो सम्पूर्ण म लोक में व्याप्त है, अतः उनसे भिन्नता बताने के लिए यहाँ 'बादर जीव' शब्द प्रयुक्त हुआ है। बादर ॥ + तेजस्काय केवल मनुष्य लोक में ही होती है। अतः ऊर्ध्वलोक, अधोलोक में उसका निषेध सूचित करने
के लिए यहाँ 'उदार' विशेषण दिया है। जिसका अर्थ है द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणी। (वृत्ति भाग-२ पृष्ठ ५७४। म हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ १७३)
Elaboration-In Agams fire-bodied and air-bodied beings are also classified as mobile. Minute immobile beings pervade the whole lok, 5 therefore, in order to differentiate from them the term badar jiva or
gross beings has been used. Gross fire-bodied beings exist only in the area of humans. Thus in order to negate their existence in upper and lower worlds the adjective udaar has been used. It means two sensed and other mobile beings. (Vritti, part-2, p. 574 and Hindi Tika, part-2, p. 173)
१८१. पंचविहा बायरतेउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-इंगाले, जाले, मुम्मुरे, अच्ची, अलाते। ॐ १८१. बादर-तेजस्कायिक जीव पाँच प्रकार के होते हैं-(१) अंगार-धधकता हुआ अग्निपिण्ड या .
कोयला, (२) ज्वाला-जलती हुई अग्नि की मूल से छिन्न शिखा। (३) मुर्मुर-भस्म (राख) मिश्रित अग्निकण क ॐ चिनगारी। (४) अर्चि-जलते काष्ठ आदि से अविच्छिन्न ज्वाला, लपट। (५) अलात-जलती हुई लकड़ी।
181. Badar tejaskayik jivas (gross fire-bodied beings) are of five kinds-(1) angaar-glowing coal or fire ball, (2) jvala-tip of flame (away 卐 from the source), (3) murmur-sparks of fire in ash, (4) archi-flame (near the source) and (5) alaat-burning wood.
१८२. पंचविधा बादरवाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-पाईणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, उदीणवाते, विदिसवाते।
१८२. बादर-वायुकायिक जीव पाँच प्रकार के होते हैं-(१) प्राचीनवात-पूर्वदिशा का पवन। (२) प्रतीचीन वात-पश्चिम दिशा का पवन। (३) दक्षिणवात-दक्षिण दिशा का पवन। (४) उत्तरवातउत्तरदिशा का पवन। (५) विदिग्वात-विदिशाओं ईशान आदि दिक् कोणों से चलने वाला वायु।
182. Badar vayukayik jivas (gross air-bodied beings) are of five kinds— (1) prachinavaat-wind flowing from the east, (2) pratichinavaat-windi flowing from the west, (3) dakshinavaat-wind flowing from the south, (4) uttaravaat-wind flowing from the north and (5) vidigvaat-wind flowing from the intermediate directions like Ishaan (north-east).
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म अचित्त-वायुकाय-पद ACHITTA-VAYUKAYA-PAD
(SEGMENT OF LIFELESS AIR-BODIED BEINGS) १८३. पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-अक्कंते, धंते, पीलिए, सरीराणुगते, ॐ संमुच्छिमे।
१८३. अचित्त वायुकाय पाँच प्रकार का होता है-(१) आक्रान्तवात-भूमि पर जोर-जोर से पैर पटकने से उत्पन्न वायु। (२) ध्मातवात-धौंकनी मशक आदि से उत्पन्न वायु। (३) पीड़ितवात-गीले
वस्त्रादि से निचोड़ने से उत्पन्न वायु। (४) शरीरानुगतवात-शरीर से उच्छ्वास, अपान और उद्गारादि ॐ से निकलने वाली वायु। (५) सम्मूर्छिमवात-पंखे आदि से उत्पन्न वायु।
183. Achitta vayukayik jivas (gross air-bodied beings) are of five kinds—(1) akrant-vaat-wind produced by thumping legs on the ground, (2) dhmaat-vaat-wind produced by bellows and other such instrument, (3) pidit-vaat-wind produced by squeezing wet things like cloth, (4) shariranugat-vaat-wind produced by body (breath, belch, break
wind etc. ) and (5) sammurchhim-vaat-wind produced by fan etc. ॐ विवेचन-सूत्रोक्त पाँचों प्रकार की वायु उत्पत्तिकाल में अचेतन होती है, किन्तु अचित्त वायु से सचित्त ॐ
वायु की विराधना हो सकती है। एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्तीति। (वृत्ति पत्र ३१९ ए) 4 Elaboration-Aforesaid five kinds of air is lifeless when produced but 卐 it may harm the normal organism-infested air. (Vritti, leaf 319) " Papercre NIRGRANTH-PAD (SEGMENT OF ASCETICS) . १८४. पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा-पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाते।
१८४. निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के हैं-(१) पुलाक-निःसार धान्य कणों के समान जिसका चारित्र निः ॐ सार है (मूल गुणों में भी दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ)। (२) बकुश-जिसके चारित्र में स्थान-स्थान पर दाग म लगे हों, (उत्तर गुणों में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ)। (३) कुशील-विषय या कषाय सेवन से जिसका फ़
चारित्र कुछ-कुछ मलिन हो गया हो। (४) निर्ग्रन्थ-मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने वाले ॐ ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती साधु। (५) स्नातक-चार घातिकर्मों का क्षय करके तेरहवें-चौदहवें ॥ गुणस्थानवर्ती जिन।
184. Nirgranth (ascetics) are of five kinds-(1) Pulaak-whose conduct is worthless like decayed grain (ascetics not properly observing $ even the basic codes of conduct). (2) Bakush-whose conduct has many
faults (ascetics not properly observing the auxiliary codes of conduct).
(3) Kushila-whose conduct has been tarnished by slight indulgence in 卐 comforts and passions. (4) Nirgranth-the ascetics at the eleventh and
twelfth Gunasthaan who have destroyed or pacified Mohaniya karma.
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१८५. पुलाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - णाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, म अहासुहुमपुलाए णामं पंचमे ।
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5 अतिचारों का सेवन करने वाला । (२) दर्शनपुलाक- शंका, कांक्षा आदि सम्यक्त्व के अतिचारों का सेवन
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(5) Snatak-the Jina at the thirteenth and fourteenth Gunasthaan who has destroyed the four vitiating karmas.
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१८५. पुलाक निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं - ( १ ) ज्ञानपुलाक - स्खलित, मिलित आदि ज्ञान के
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185. Pulaak nirgranth are of five kinds-(1) Jnana pulaak-who indulges in transgression related to knowledge, such as skhalit (lowly) and milit (mixed ). ( 2 ) Darshan pulaak - who indulges in transgression related to samyaktva (righteousness), such as indulging in shanka (doubt) F and kanksha (desire ). ( 3 ) Chaaritra pulaak — who commits faults in F observation of basic and auxiliary codes of conduct. (4) Linga pulaak— who keeps more ascetic-equipment than prescribed in scriptures or who uses garb other than that prescribed for a Jain ascetic. (5) Yathasukshma f pulaak - who, out of stupor, thinks of acquiring prohibited things.
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१८६. बउसे पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा - आभोगबउसे, अणाभोगबउसे, संवुडबउसे, 5 असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे णामं पंचमे ।
करने वाला । (३) चारित्रपुलाक - मूल गुणों और उत्तर- गुणों में दोष लगाने वाला । ( ४ ) लिंगपुलाक
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5 शास्त्रोक्त उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला अथवा जैनलिंग से भिन्न लिंग या वेष को बिना फ कारण धारण करने वाला। (५) यथासूक्ष्मपुलाक - प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु को ग्रहण करने का मन में विचार करने वाला ।
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१८६. बकुश निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं - ( १ ) आभोगबकुश - जान-बूझ कर शरीर की विभूषा करने वाला । (२) अनाभोगबकुश - अनजान में शरीर की विभूषा करने वाला। (३) संवृतबकुशलुक-छिप कर शरीर आदि की विभूषा करने वाला। ( ४ ) असंवृतबकुश - प्रकट रूप से शरीर की विभूषा करने वाला। (५) यथासूक्ष्मबकुश - प्रकट या अप्रकट रूप से शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करने वाला ।
१८७. कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा - णाणकुसीले, दंसणकुसीले चरित्तकुसीले लिंगकुसीले, अहासुहुमकुसीले णामं पंचमे ।
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Fifth Sthaan: Third Lesson
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186. Bakush nirgranth are of five kinds-(1) Abhoga bakush-who takes special care of the body intentionally. (2) Anabhog bakush-who takes special care of the body unintentionally. (3) Samvrit bakush-who takes special care of the body furtively. (4) Asamvrit bakush - who takes 5 special care of the body openly. (5) Yathasukshma bakush-who takes special care of the body openly or furtively.
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855555555555555555555555555555555558 ॐ १८७. कुशील निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं-(१) ज्ञानकुशील-काल, विनय, उपधान आदि म
ज्ञानाचार को नहीं पालने वाला। तथा क्रोधादि वश ज्ञान पढ़ने व विद्याओं का प्रयोग करने वाला। (२) दर्शनकुशील-निष्कांक्षित आदि दर्शनाचार को नहीं पालने वाला। (३) चारित्रकुशील-कौतुक, भूतिकर्म, निमित्त, मंत्र आदि का प्रयोग करने वाला। (४) लिंगकुशील-साधुवेष से आजीविका करने के
वाला। (५) यथासूक्ष्मकुशील-दूसरे के द्वारा अपने को तपस्वी, ज्ञानी कहे जाने पर हर्षित होने वाला। फ़ 187. Kushila nirgranth are of five kinds-(1) Jnana kushila-who 5
does not follow the code of conduct related to knowledge, such as kaal (time), vinaya (modesty) and upadhan (studies). Also one who studies and uses special powers out of anger. (2) Darshan kushila-who does not follow the code of conduct related to perception/faith, such as nishkankshit (undesired). (3) Chaaritra kushila-who indulges in prohibited invocations and rituals like kautuk (clown), bhutikarma (festive rites), nimitta (augury), mantra etc. (4) Linga kushila--who earns living by dressing as an ascetic. (5) Yathasukshma kushila—who is
pleased when others call him a great hermit or scholar. म १८८. णियंठे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-पढमसमयणियंठे, अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमयणियटे, अहासुहमणियठे णामं पंचमे।
१८८. निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं-(१) प्रथमसमनिर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ दशा को प्राप्त प्रथमसमयवर्ती निर्ग्रन्थ। (२) अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ दशा को प्राप्त द्वितीयादिसमयवर्ती निर्ग्रन्थ। (३) चरमसमयवर्तीनिर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ दशा के अन्तिम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ।
(४) अचरमसमयवर्तीनिर्ग्रन्थ-अन्तिम समय के अतिरिक्त शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। म (५) यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ-प्रथम या चरम-समय आदि की विवक्षा न करके सभी समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ। ॐ
188. Nirgranth nirgranth are of five kinds—(1) Pratham samaya i Nirgranth-nirgranth at the first moment of attaining the level of
Nirgranth. (2) Apratham samaya Nirgranth-nirgranth at the second and later moments of attaining the level of Nirgranth. (3) Charam samaya Nirgranth-nirgranth at the last moment of being at the level of Nirgranth. (4) Acharama samaya Nirgranth-nirgranth at the last but one and earlier moments of being at the level of Nirgranth.
(5) Yathasukshma Nirgranth-nirgranth at the level of Nirgranth 5 unclassified by moments in that state. म १८९. सिणाते पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संसुद्धणाणदंसणधरे ॐ अरहा जिणे केवली, अपरिस्साई। | स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
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१८९. स्नातक निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं - ( १ ) अच्छवि स्नातक - छवि अर्थात् काय योग का 5 निरोध करने वाला । (२) अशबल स्नातक - निर्दोष चारित्र का पालन करने वाला। (३) अकर्मांश स्नातक - घाति कर्मों का सर्वथा विनाश करने वाला । ( ४ ) संशुद्धज्ञान - दर्शनधर स्नातक - विमल केवलज्ञान- केवलदर्शन के धारक अर्हन्त केवली जिन । (५) अपरिश्रावी स्नातक-सम्पूर्ण काययोग का निरोध करने वाले अयोगी जिन ।
189. Snatak nirgranth are of five kinds-(1) Achchhavi snatak-those who deny association with body. (2) Ashbal snatak-those who follow flawless ascetic conduct. (3) Akarmansh snatak-those who have completely destroyed the vitiating karmas. (4) Samshiddha jnana 5 darshn-dhar snatak-the omniscient Jinas who have acquired pure Keval jnana and Keval darshan. (5) Aparishravi snatak-the ayogi Jinas who have completely terminated association with the body.
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में पुलाक आदि निर्ग्रन्थों के सामान्य रूप से पाँच-पाँच भेद बताये हैं, किन्तु भगवतीसूत्र में, तथा प्रस्तुत स्थानांगसूत्र की संस्कृत टीका में निर्ग्रन्थों के दो-दो भेद और बताये हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) पुलाक के दो भेद - (I) लब्धिपुलाक और (II) प्रतिसेवनापुलाक। तपस्या - विशेष से प्राप्त लब्धि का संघ की सुरक्षा के लिए प्रयोग करने वाले साधु को लब्धिपुलाक और ज्ञानदर्शनादि की विराधना करने वाले को प्रतिसेवनापुलाक कहते हैं।
(२) बकुश के दो भेद है - (I) शरीर - बकुश और (II) उपकरण - बकुश । विभूषा की भावना वश अपने शरीर के हाथ, पैर, मुख आदि को पानी से धो-धोकर स्वच्छ रखने वाले, केशों का संस्कार करने वाले साधु शरीर - बकुश और पात्र, वस्त्र, रजोहरण आदि को बार-बार धोने वाले, उन्हें सुन्दर बनाने वाले की भावना से पात्रों पर तेल, लेप आदि करने वाले उपकरण - बकुश होते हैं।
(३) कुशील निर्ग्रन्थ के दो भेद - (I) प्रतिसेवनाकुशील और (II) कषायकुशील । उत्तर गुणों में अर्थात्-पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह आदि में दोष लगाने वाले साधु प्रतिसेवनाकुशील, तथा संज्वलन - कषाय के उदय -वश क्रोधादि कषायों से अभिभूत होने वाले साधु को कषायकुशील कहते हैं।
( ४ ) निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ के दो भेद - (I) उपशान्तमोहनिर्ग्रन्थ और ( II ) क्षीणमोहनिर्ग्रन्थ । जो उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होकर सम्पूर्णमोहकर्म का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं, उन्हें उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ, तथा जो क्षपकश्रेणी करके मोहकर्म का सर्वथा क्षय करके बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं और अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही शेष तीन घातिकर्मों का क्षय करने वाले हैं, उन्हें क्षीणमोह निर्ग्रन्थ कहते हैं ।
(५) स्नातक - निर्ग्रन्थ के दो भेद - (I) सयोगीस्नातक जिन और (II) अयोगीस्नातक जिन । (१) सयोगी जिन का काल आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। इतने काल तक वे भव्य फ
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जीवों को धर्म-देशना करते हुए विचरते रहते हैं। (२) जब उनका आयुष्क केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष । ॐ रह जाता है, तब वे मनोयोग, वचनयोग और काययोग का निरोध करके अयोगी स्नातक जिन बनते हैं। ' $ 34 FICCA 49 37, 3, 3, #, 7, 9 10 g re za Jedro-oorst-44147 IEC
समय के भीतर वे चारों अघातिकर्मों का क्षय करके अजर-अमर सिद्ध हो जाते हैं। (वृत्ति भाग-२ पृष्ठ । 41 Glei Part 3157 477–? 48 920)
Elaboration—In the aforesaid aphorisms five general types of pulak u and other ascetics have been mentioned. However, in Bhagavati Sutra y and the Sanskrit Tika of Sthananga Sutra two more classes have been 9 mentioned. Their details are as follows
(1) Two kinds of pulaak-a. Labdhi pulaak-an ascetic who employs y the special powers, acquired through austerities, for the protection of the y sangh. b. Pratisevana pulaak-an ascetic who misuses his knowledge, 9 perception and other qualities.
(2) Two kinds of bakush-a. Sharira bakush-an ascetic who, for y beautifying his body, washes his hands, feet, face, hair and other parts y time and again. b. Upakaran bakush-an ascetic who, for beautifying his bowls, garb, ascetic-broom and other equipment washes them and applies oil, colour and other such things time and again.
(3) Two kinds of kushila-a. Pratisevana kushila-an ascetic who commits faults in observing auxiliary codes (pinda-vishuddhi, five samitis, bhaavana, tap, pratima and abhigraha). b. Kashaya kushilaan ascetic who gets overwhelmed with passions including anger due to precipitation of sanjualan kashaya (extremely mild passion).
(4) Two kinds of nirgranth-a. Upashant moha nirgranth-a: detached ascetic who through upasham-shreni (the rising path of u
pacification of karmas) reaches the eleventh Gunasthaan after pacifying 4 all moha-karma. b. Ksheen moha nirgranth-a detached ascetic who y
through kshapak-shreni (the rising path of destruction of karmas) ! reaches the twelfth Gunasthaan after destroying all moha-karma and who is going to destroy the remaining three vitiating karmas within one
antar-muhurt. 4. (5) Two kinds of snatak-a. Sayogi snatak Jina and b. Ayogi snatak # Jina--the life span of a sayogi Jina is eight years to one antar-muhurt
less one Purvakoti years. During this period he moves around preaching religion to the worthy. When only one antar-muhurt is left of his life- y span he terminates the three associations (mind, speech and body) and
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becomes ayogi snatak Jina. The life span of ayogi Jina is equal to the 4 † time taken in uttering five short vowels (a, i, u, ri, and Iri). Within this fi F brief time he destroys all the four vitiating karmas and becomes F immortal Siddha. (Vritti, part-2, p. 576 and Hindi Tika, part-2, p. 187) उपधि-पद UPADHI-PAD (SEGMENT OF MEANS OF SUSTENANCE)
१९०. कप्पति णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं जहाजंगिए, भंगिए, साणए, पोत्तिए, तिरीडपट्टए णामं पंचमए।
१९०. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पाँच प्रकार के वस्त्र रखने और पहनने कल्पते हैं- . (१) जांगमिक-जीवों के रोम आदि से बनने वाले कम्बल आदि। (२) भांगिक-अलसी की छाल से बनने
वाले वस्त्र। (३) सानिक-सन से बनने वाले वस्त्र। (४) पोतक-कपास बोंडी (रुई) से बनने वाले वस्त्र। । (५) तिरीटपट्ट-लोध आदि की छाल से बनने वाले वस्त्र। (आचारांग भाग-२, में विस्तृत वर्णन देखें, ठाणं : पृष्ठ ६४३)।
190. Nirgranths and nirgranthis are allowed to keep and use five kinds of cloth-(1) Jangamik-made of animal fibre like a woolen blanket, (2) bhangik-made of bark of Alsi (linseed) tree, (3) sanikmade of hessian, (4) potak-made of cotton and (5) tiritapatt-made of bark of Lodhra (Symplocos racemosa) tree. (for more details see Illustrated Acharanga Sutra, part-2; Thanam, p. 643)
१९१. कप्पति णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं जहा-उण्णिए, उट्टिए, साणए, पच्चापिच्चिए, मुंजापिच्चिए णामं पंचमए। __ १९१. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पाँच प्रकार के रजोहरण रखने और धारण करने कल्पते हैं, जैसे
(१) और्णिक-भेड़ की ऊन से बने रजोहरण। (२) औष्ट्रिक-ऊँट के बालों से बने रजोहरण। (३) सानिक-सन से बने रजोहरण। (४) पच्चापिच्चिए-वल्वज नाम की मोटी घास को कूटकर बनाया रजोहरण। (५) मुंजापिच्चिए-पूँज को कूट कर बनाया हुआ रजोहरण। ____191. Nirgranths and nirgranthis are allowed to keep and use five kinds of rajo-haran (ascetic-broom)-(1) Aurnik-made of sheep-wool, (2) aushtrik-made of camel-wool, (3) sanik-made of hessian, (4) valvajiya-made of valvaj grass and (5) munjiya-made of moonj grass. विवेचन-वृत्तिकार ने रजोहरण की यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की है--
हरइ रयं जीवाणं बझं अभंतर च जं तेणं। रयहरणं ति वुच्चइ कारण-कज्जोवयाराओ।
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-जो बाह्य रूप में रज को दूर करता है, तथा भाव रूप में कर्म रज को दूर करता है। इस कारण 卐 उसे रजोहरण कहा जाता है। (बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६७५ की वृत्ति में रजोहरण सम्बन्धी विस्तृत वर्णन है) 5
Elaboration The commentator (Vritti) has given the true definition of rajo-haran (dust remover) as-as it removes the outer or physical dirt and also the inner dirt in the form of dust of karmas it is called dust remover or rajo-haran (ascetic broom). (for more details on ascetic broom
refer to Vritti of Brihatkalp Bhashya verse 3675) + निश्रास्थान-पद NISHRA-STHAAN-PAD (SEGMENT OF SUPPORT)
१९२. धम्मण्णं चरमाणस्स पंच णिस्साट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-छक्काया, गणे, राया, गाहावती, सरीरं। म १९२. धर्म का आचरण करने वाले साधु के लिए पाँच निश्रा (आलम्बन) स्थान हैं-(१) षट्काय, (२) गण (श्रमण-संघ), (३) राजा, (४) गृहपति, (५) शरीर।
192. For an ascetic following code of conduct there are five nishra sthaan (supports)--(1) shatkaya (six bodies), (2) gana (ascetic organization), (3) raja (king), (4) grihapati (householder) and (5) sharira (body).
विवेचन-आलम्बन या आश्रय देने वाले उपकारक को निश्रास्थान कहते हैं। षट्काय को भी 5 निश्रास्थान कहने में उनकी उपयोगिता इस प्रकार बताई है-(१) पृथिवी की निश्रा-भूमि पर ठहरना,
बैठना, सोना, मल-मूत्र-विसर्जन आदि। (२) जल की निश्रा-वस्त्र-प्रक्षालन, तृषा-निवारण, 卐 शरीर-शौच आदि। (३) अग्नि की निश्रा-भोजन-पाचन. पानक आदि। (४) वाय की निश्रा-अचित वाय * का ग्रहण, श्वासोच्छ्वास आदि। (५) वनस्पति की निश्रा-संस्तारक, पाट, फलक, वस्त्र, औषधि, वृक्ष की म छाया आदि। (६) त्रस की निश्रा-गोबर, गोमूत्र, दूध, दही आदि।
दूसरा निश्रास्थान गण है। गुरु के परिवार को गण कहते हैं। गण में रहने वाले के सारणा-सत्कार्य में के प्रवर्तन और वारणा-असत्कार्य-निवारण के द्वारा कर्म-निर्जरा होती है, संयम की रक्षा होती है और म धर्म की वृद्धि होती है। 卐 राजा को निश्रास्थान इसलिए कहा है क्योंकि वह दुष्टों का निग्रह और साधुओं का अनुग्रह करके + धर्म के पालन में आलम्बन होता है। गृहपति स्थान या उपाश्रय देने वाला है, वह ठहरने को स्थान एवं
भोजन-पान देकर साधुजनों का आलम्बन होता है। शरीर धर्म का आद्य या प्रधान साधन होने से निश्रास्थान है।
Elaboration Support or place and person of refuge is called nishra sthaan. The reasons for inclusion of six bodies in the list of supports are—(1) Earth as support in place of stay, sitting, sleeping, excretion and other activities. (2) Water as support in-drinking, washing clothes,
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1555555555555555555555555555555555555 : cleansing etc. (3) Fire as support in-cooking food, digesting food and ; other uses. (4) Air as support in-breathing etc. (5) Plants as support
in-beds of hay or wood, cloth, medicine, tree for shade and other uses. $i i (6) Mobile-bodied beings (tras) as support-cowdung, cow-urine, milk, curd, etc.
The second support is gana. The group of disciples of a guru is called gana. One who stays with the organization is inspired to indulge in pious activity and prevented from indulging in evil activity. This leads to shedding of karmas, protection of ascetic-discipline and improvement of religious conduct.
A king is called support because he curbs evil and supports sages thus favouring religion. A householder is called support because he provides for place of stay, food and other essentials. One's own body is called support because it is the primary instrument of spiritual endeavour.
निधि-पद NIDHI-PAD (SEGMENT OF TREASURE)
१९३. पंच णिही पण्णत्ता, तं जहा-पुत्तणिही, मित्तणिही, सिप्पणिही, धणणिही, धण्णणिही।
१९३. निधियाँ पाँच प्रकार की हैं-(१) पुत्रनिधि, (२) मित्रनिधि, (३) शिल्पनिधि, (४) धननिधि, (५) धान्यनिधि।
193. Nidhis (treasures) are of five kinds-(1) putranidhi (treasure of son or sons), (2) mitranidhi (treasure of friend or friends), (3) shilp-nidhi (treasure of skill), (4) dhan-nidhi (treasure of wealth) and (5) dhaanyanidhi (treasure of food-grains). शौच-पद SHAUCH-PAD (SEGMENT OF CLEANSING)
१९४. पंचविहे सोए पण्णत्ते, तं जहा-पुढविसोए, आउसोए, तेउसोए, मंतसोए, बंभसोए।
१९४. शौच पाँच प्रकार का है-(१) पृथ्वीशौच, (२) जलशौच, (३) तेजःशौच, (४) मंत्रशौच, (५) ब्रह्मशौच।
194. Shauch (cleansing) is of five kinds—(1) prithvi shauch (cleansing by sand), (2).jal shauch (cleansing by water), (3) tejah shauch (cleansing by fire), (4) mantra shauch (cleansing by mantra) and (5) brahma shauch (cleansing by brahmacharya).
विवेचन-शुद्धि के साधन को शौच कहते हैं। मिट्टी, जल, अग्नि की राख आदि से शुद्धि की जाती है। अतः ये तीनों द्रव्य या बाह्य शौच हैं। मंत्र बोलकर मन की शुद्धि की जाती है और ब्रह्मचर्य को धारण करना ब्रह्मशौच कहलाता है। ‘ब्रह्मचारी सदा शुचिः' अर्थात् ब्रह्मचारी मनुष्य सदा पवित्र है।)
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因步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙%%%%%%%%%%%%%% र वृत्तिकार ने ब्रह्मशौच के अन्तर्गत, सत्य शौच, तपःशौच, इन्द्रिय निग्रह शौच तथा सर्व भूत दया शौच ऊ को सम्मिलित किया है। इस प्रकार मंत्रशौच और ब्रह्मशौच को भावशौच जानना चाहिए।
Elaboration-Means of cleansing is called shauch. Sand, water and ash (produced by fire) are normally used for cleansing. These are called 9 dravya (physical) or bahya (external) shauch. Mantras are used for 4 cleansing of mind. To take the vow of celibacy is called brahma shauch.
It is said that a celibate person is always pure. The commentator (Vritti)
has also included truth, austerities, control over sense organs, and 45 compassion for all beings in brahma-shauch. Thus mantra shauch and
brahma shauch are included in inner or spiritual cleansing.
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छद्मस्थ-केवली-पद CHHADMASTH-KEVALI-PAD
___(SEGMENT OF CHHADMASTH-KEVALI) १९५. पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं।
एयाणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सब्वभावेणं जाणति पासति, तं जहाधम्मत्थिकायं, (अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं जीवं असरीरपडिबद्ध), परमाणुपोग्गलं।
१९५. छद्मस्थ मनुष्य पाँच वस्तुओं को सर्वथा न जानता है और न देखता है-(१) धर्मास्तिकाय को, (२) अधर्मास्तिकाय को, (३) आकाशास्तिकाय को, (४) शरीर-रहित जीव को और (५) पुद्गल परमाणु को इन पाँच वस्तओं को उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक अर्हत. जिन और केवली. सर्वभाव से जानते और देखते हैं। ____ 195. A chhadmasth (a person in state of karmic bondage) person does not fully see or know five things—(1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul and (5) ultimate particle of matter. ___Arhat, Jina, and Kevali endowed with right knowledge and . perception see and know these five things fully—(1) Dharmastikaya (motion entity), [(2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul and) (5) ultimate particle of matter.
विवेचन-जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म विद्यमान हैं। ऐसे बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थ जीव अरूपी चार अस्तिकायों को समस्त पर्यायों सहित पूर्ण रूप से साक्षात् नहीं जान सकता और न देख सकता है। चलते-फिरते शरीर-युक्त जीव तो दिखाई देते हैं,
किन्तु शरीर-रहित जीव कभी नहीं दिखाई देता है। पूर्व के चार अरूपी द्रव्य हैं। पुद्गल रूपी है, पर 卐 एक परमाणु रूप पुद्गल सूक्ष्म होने से छद्मस्थ के ज्ञान का विषय नहीं बनता। .
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Elaboration-All beings up to the twelfth Gunasthaan who are in bondage of knowledge and perception obscuring karmas are called chhadmasth. A chhadmasth being cannot see and know fully all the alternative transformations of the four formless agglomerate entities. He can see the moving beings but cannot see a soul free of body. The first four are formless entities. Matter has form but a single ultimate particle is so minute that it is beyond the scope of perception and knowledge of a chhadmasth.
5
महानरक- पद MAHANARAK-PAD (SEGMENT OF WORST HELLS )
१९६. अधेलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानरगा पण्णत्ता, तं जहा - काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अप्पतिट्ठाणे ।
१९६. अधोलोक में पाँच अनुत्तर महातिमहान् महानरक हैं - ( १ ) काल, (२) महाकाल, (३) रौरुक, (४) महारौरुक और (५) अप्रतिष्ठान ।
196. In adholok (lower world) there are five matchless mahatimahan (grotesque) naraks (hells) – ( 1 ) Kaal, (2) Mahakaal, (3) Rauruk, (4) Maharauruk and (5) Apratishthan.
महाविमान - पद MAHAVIMAAN PAD (SEGMENT OF GREAT CELESTIAL VEHICLES)
१९७. उड्डलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाविमाणा पण्णत्ता, तं जहा - विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते, सव्वट्टसिद्धे ।
१९७. ऊर्ध्वलोक में पाँच अनुत्तर महातिमहान् महाविमान हैं - ( १ ) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्धि ।
197. In urdhvalok (upper world) there are five anuttar (matchless ) mahatimahan (extremely grand) mahavimaans (great celestial vehicles or divine realms)-(1) Vijaya, (2) Vaijayant, (3) Jayant, (4) Aparajit and (5) Sarvarthasiddha.
विवेचन - सूत्रोक्त अधोलोकवर्ती पाँचों नरकावास सातवीं नरक में हैं। उन्हें अनुत्तर और महातिमहान कहने का अभिप्राय यह है, कि यहीं सबसे अधिक वेदना है। सबसे अधिक लम्बा आयुष्य है और क्षेत्र फ की दृष्टि से भी सबसे अधिक विशाल है । अनुत्तर विमान स्वर्ग विमानों में दिव्य सुखों की अपेक्षा तथा फ्र दीर्घ आयुष्य की अपेक्षा सबसे अनुत्तर - श्रेष्ठ है। क्षेत्र की दृष्टि से सबसे विशाल है। ये पाँचों महाविमान 卐 वैमानिक लोक के सबसे ऊपर के भाग में हैं । (हिन्दी टीका भाग- २ पृष्ठ २०० )
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Elaboration-The aforesaid five infernal abodes are in seventh hell. They are called worse than worst because they have maximum agony, maximum life span and largest area. The Anuttar vimaans are superlative in terms of divine pleasures, long life span and area. All
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these five celestial vehicles are situated at the highest part of the lok. (Hindi Tika, part-2, p. 200) सत्त्व-पद SATTVA-PAD (SEGMENT OF COURAGE)
१९८. पंच पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते, उदयणसत्ते। ॐ १९८. पुरुष पाँच प्रकार के होते हैं-(१) ह्रीसत्त्व-लज्जा के कारण हिम्मत रखने वाला।
(२) हीमनःसत्त्व-लज्जावश भी केवल मन में ही हिम्मत लाने वाला, देह में नहीं। (३) चलसत्त्व-हिम्मत
या साहस हारने वाला। (४) स्थिरसत्त्व-विकट परिस्थिति में भी मनोबल को स्थिर रखने वाला। 卐 (५) उदयनसत्त्व-उत्तरोत्तर प्रवर्धमान सत्त्व या पराक्रम वाला।
198. Men are of five kinds-(1) Hri-sattva-who is courageous out of shame, (2) hrimanah-sattva-who is courageous out of shame but only in mind and not in action, (3) chal-sattva-who loses courage, (4) sthirsattva–who remains courageous even in difficult predicament and (5) udayan-sattva-who has ever increasing courage. भिक्षाक-पद BHIKSHAAK-PAD (SEGMENT OF ALMS EATER)
१९९. पंच मच्छा पण्णत्ता, तं जहा-अणुसोतचारी, पडिसोतचारी, अंतचारी, मज्झचारी, सव्वचारी।
एवामेव पंच भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा-अणुसोतचारी, (पडिसोतचारी, अंतचारी, # मज्झचारी), सव्वचारी।
१९९. मत्स्य (मच्छ) पाँच प्रकार के होते हैं-(१) अनुस्रोतचारी-जल-प्रवाह के अनुकूल चलने ॐ वाला। (२) प्रतिस्रोतचारी-जल-प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाला। (३) अन्तचारी-जल-प्रवाह के ॥
किनारे-किनारे चलने वाला। (४) मध्यचारी-जल-प्रवाह के मध्य में चलने वाला। (५) सर्वचारी-जल में 5 E सर्वत्र विचरण करने वाला। म इसी प्रकार भिक्षुक (अभिग्रह लेकर भिक्षाचरी करने वाले) भी पाँच प्रकार के होते हैं, जैसेE (१) अनुस्रोतचारी-उपाश्रय से निकलकर सीधी गृहपंक्ति से गोचरी करने वाला। (२) प्रतिस्रोतचारी-गली 卐 के अन्तिम गृह पर पहुँचकर लौटते हुए उपाश्रय तक घरों से गोचरी करने वाला। (३) अन्तचारी-ग्राम के
के अन्तिम भाग में स्थित गृहों से गोचरी लेने वाला। (४) मध्यचारी-ग्राम के मध्य भाग से गोचरी लेने * वाला। (५) सर्वचारी-ग्राम के सभी भागों से गोचरी लेने वाला। म 199. Matsya (fish) are of five kinds-(1) anusrotachari-one that
moves with the flow of water, (2) pratisrtochari-one that moves against
the flow of water, (3) antachari-one that moves at the brink, 9 (4) madhyachari-one that moves in the middle and (5) sarvachari-one
that moves everywhere in water.
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In the same way bhikshaak (alms eater ascetics) are of five kinds(1) anusrotachari-one that moves on a straight lane from the
upashraya (place of stay) and collects alms from houses as he moves on 41 that lane, (2) pratisrtochari-one that moves on a straight lane from the 15
upashraya (place of stay) and collects alms from houses on that lane but only while returning, (3) antachari-one who collects alms from the houses located at the end of a city, village, or a section of a city, (4) madhyachari-one who collects alms from the houses located in the
middle of a city, village, or a section of a city and (5) sarvachari-one who collects alms from all parts of a city (etc.).
वनीपक-पद VANIPAK-PAD (SEGMENT OF BEGGAR) म २००. पंच वणीमगा पण्णत्ता, तं जहा-अतिहिवणीमगे, किवणवणीमगे, माहणवणीमगे, साणवणीमगे, समणवणीमगे।
२००. वनीपक (याचक) पाँच प्रकार के होते हैं-(१) अतिथि-वनीपक-अतिथिदान की प्रशंसा फ़ करके माँगने वाला। (२) कृपण वनीपक-कृपण (दीन-दुःखी) दान की प्रशंसा करके माँगने वाला। म (३) माहन-वनीपक-ब्राह्मण-दान की प्रशंसा करके माँगने वाला। (४) श्वा-वनीपक-कुत्ते के दान की
प्रशंसा करके माँगने वाला। (५) श्रमण-वनीपक-श्रमणदान की प्रशंसा करके माँगने वाला। $ 200. Vanipaks (beggars) are of five kinds—(1) atithi-vanipak-who
begs by praising donation offered to guests, (2) kripan-vanipak-who begs by praising donation given to a kripan (destitute), (3) maahanvanipak-who begs by praising donation to a Brahmin, (4) shvanvanipak—who begs by praising donation offered to a dog and (5) shraman-vanipak-who begs by praising donation offered to a _shraman (ascetic). म अचेल-पद ACHEL-PAD (SEGMENT OF SCANTILY CLAD ASCETIC) म २०१. पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं जहा-अप्पापडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे + वेसासिए, तवे अणुण्णाते, विउले इंदियणिग्गहे। म २०१. पाँच कारणों से अचेलक (अल्प मात्रा में व अल्प मूल्य वाले वस्त्र रखने वाला) प्रशस्त म (प्रशंसा योग्य) होता है-(१) अचेलक की प्रतिलेखना अल्प होती है। (२) अचेलक का लाघव
(हल्कापन) प्रशस्त (प्रशंसनीय) होता है। (३) अचेलक का रूप (संतोषी व तपस्वी दीखने से) विश्वास ऊ के योग्य होता है। (४) अचेलक का तप (ऊनोदरी व व्युत्सर्ग तप) अनुज्ञात (जिनशासन-अनुमत) होता है म है। (५) अचेलक का इन्द्रिय-निग्रह महान् (विशिष्ट) होता है। 4 201. For five reason an achel (scantily clad ascetic and one who keeps 5 4 few clothes) is worthy of praise—(1) his duty of maintenance is $
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Fifth Sthaan: Third Lesson
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minimum, (2) his lightness is praiseworthy, (3) his appearance + (contented and hermit-like) invokes confidence, (4) his austerity (reduced
needs and sacrifice) is according to the code and (5) his control over sense 卐 organs is great. उत्कल-पद UTKAL-PAD (SEGMENT OF THE EXTREMELY POWERFUL)
२०२. पंच उक्कला पण्णत्ता, तं जहा-दंडुक्कले, रज्जुक्कले, तेणुक्कले, देसुक्कले, सब्बुक्कले।
२०२. पाँच उत्कल (उत्कट शक्ति-सम्पन्न) पुरुष होते हैं-(१) दण्डोत्कल-प्रबल दण्ड (आज्ञा या सैन्यशक्ति) वाला पुरुष अथवा गुरुजनों की कठोर आज्ञा का पालन करने वाला। (२) राज्योत्कल-प्रबल म राज्यशक्ति वाला अथवा विशेष राज-प्रतिष्ठा प्राप्त पुरुष। (३) स्तेनोत्कल-प्रबल चोरों की शक्ति वाला ॥
(तस्करों का सरदार व दुःस्साहसिक व्यक्ति)। (४) देशोत्कल-प्रबल जनपद की शक्ति वाला अथवा जनपद
के कारण महत्ता प्राप्त करने वाला पुरुष। (५) सर्वोत्कल-उक्त सभी प्रकार की प्रबल शक्ति वाला पुरुष। 41 202. There are five utkals (extremely powerful persons)—(1) dandotkal
a person with extreme power of punishment (great army) or a person who + obeys harshest command of seniors, (2) rajyotkal-a person with great
power of state or a person with very high status in state, (3) stenotkal--a 卐 person with great power of theft (a bandit leader), (4) deshotkal-a person
having great power of a republic or a person having high status in a republic and (5) sarvotkal-aperson having all kinds of power. समिति-पद SAMITI-PAD (SEGMENT OF SELF REGULATION)
२०३. पंच समितीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिठावणियसमिती।
२०३. समितियाँ पाँच प्रकार की हैं-(१) ईर्यासमिति-गमन में सावधानी। (२) भाषासमितिम बोलने में सावधानी। (३) एषणासमिति-गोचरी में सावधानी-निर्दोष भिक्षा लेना।
(४) आदान-भाण्ड-अमत्र-निक्षेपणासमिति-भोजनादि के भाण्ड-णत्र आदि को सावधानीपूर्वक ॐ देखकर लेना और रखना। (५) उच्चार (मल) प्रस्रवण-(मूत्र) श्लेष्म (कफ) जल्ल (शरीर का मैल) + सिंघाड़ (नासिका का मल), इनका निर्जन्तु स्थान में विसर्जन करना।
203. Samitis (self regulations) are of five kinds-(1) Irya samitiproper care in movement, (2) bhasha samiti-proper care in speaking, (3) eshana samiti---proper care in seeking and collecting alms, (4) adanbhand-amatra-nikshepana samiti-proper care in taking and keeping bowls for food etc. and (5) uchchar-prasravan-shleshm-jalla-singhad prasthapana samiti-proper care in disposal of all kinds of excreta
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(stool, urine, phlegm, and body and nose scum) at a spot free of living beings. जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS)
२०४. पंचविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचिंदिया।
२०४. संसार-समापन्नक (संसारी) जीव पाँच प्रकार के हैं-(१) एकेन्द्रिय, (२) द्वीन्द्रिय, 卐 (३) त्रीन्द्रिय, (४) चतुरिन्द्रिय और (५) पंचेन्द्रियजीव।
204. Samsar-samapannak jivas (worldly living beings) are of five kinds-(1) Ekendriya (one-sensed beings), (2) Duindriya (Two-sensed 卐 beings), (3) Trindriya (three-sensed beings), (4) Chaturindriya (four
sensed beings) and (5) Panchendriya (five-sensed animal beings). 卐 गति-आगति-पद GATI-AAGATI-PAD (SEGMENT OF BIRTH FROM AND TO) । २०५. एगिंदिया पंचगतिया पंचागतिया पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिए एगिदिएसु उववज्जमाणे
एगिदिएहिंतो वा, (बेइंदिएहितो वा, तेइंदिएहितो वा, चउरिदिएहिंतो वा,) पंचिंदिएहितो वा उववज्जेज्जा। म से चेव णं से एगिदिए एगिदियत्तं विप्पजहमाणे एगिदियत्ताए वा, (बेइंदियत्ताए वा, तेइंदियत्ताए # वा, चउरिदियत्ताए वा), पंचिंदियत्ताए वा गच्छेज्जा।
२०६. बेंदिया पंचगतिया पंचागतिया एवं चेव। २०७. एवं जाव पंचिंदिया पंचगतिया पंचागतिया पण्णत्ता, तं जहा-पंचिंदिए जाव गच्छेज्जा।
२०५. एकेन्द्रिय जीव पाँच गतिक (गति में जाने वाले) और पाँच आगतिक (आने वाले) हैं(१) एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता हुआ। (पूर्वभव में) एकेन्द्रियों से, या द्वीन्द्रियों से, या + त्रीन्द्रियों से, या चतुरिन्द्रियों से, या पंचेन्द्रियों से आकर उत्पन्न होता है।
(२) वही एकेन्द्रियजीव एकेन्द्रियपर्याय को छोड़ता हुआ (आगामी भव में) एकेन्द्रियों में, या द्वीन्द्रियों में, या त्रीन्द्रियों में, या चतुरिन्द्रियों में, या पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होता है।
२०६-२०७. इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीव भी पाँच गतिक और पाँच आगतिक है। यावत् पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव पाँच गतिक और पाँच आगतिक होते हैं। $ 205. Ekendriya jiva (one-sensed beings) have five kinds of gatis
(reincarnation to) and five aagatis (reincarnation from)-A being taking birth as a one-sensed being reincarnates from either one-sensed
beings, two-sensed beings, three-sensed beings, four-sensed beings or fi five-sensed beings.
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(201)
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(2) The same one-sensed being leaving the state of one-sensed beings 4 reincarnates in the genus of either one-sensed beings, two-sensed beings, 4 three-sensed beings, four-sensed beings or five-sensed beings.
206. and 207. In the same way two-sensed beings also have five kinds of gatis (reincarnation to) and five aagatis (reincarnation from).... and so on up to... all beings up to five-sensed ones have five kinds of gatis (reincarnation to) and five aagatis (reincarnation from). जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF BEINGS)
२०८. पंचविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-कोहकसाई, (माणकसाई, मायाकसाई), लोभकसी, अकसाई। ____ अहवा-पंचविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-णेरइया, (तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा), मदेवा, सिद्धा। म २०८. सर्व जीव पाँच प्रकार के होते हैं-(१) नारक, (२) तिर्यंच, (३) मनुष्य, (४) देव, (५) सिद्ध।
208. All beings are of five kinds (1) naarak (infernal beings), (2) tiryanch (animals), (3) manushya (human beings), (4) deva (divine
beings) and (5) Siddhas (liberated beings). ॐ योनिस्थिति-पद YONISTHITI-PAD (SEGMENT OF PRODUCTIVE LIFE)
__ २०९. अह भंते ! कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलत्थ-आलिसंदगम सतीण-पलिमंथगाणं-एतेसि णं धण्णाणं कुट्ठाउत्ताणं (पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं
ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुद्दियाणं पिहिताणं) केवइयं कालं जोणी संचिट्टति? म गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पंच संवच्छराइं। तेण पर जोणी पमिलायति, तेण ॐ परं जोणी पविद्धंसति, तेणं परं जोणी विद्धंसति, तेण परं बीए अबीए भवति। तेण परं जोणी
वोच्छेदे पण्णत्ते। म २०९. (प्रश्न) भगवन् ! मटर, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, निष्पाव (सेम), कुलथी, चवला, तूवर
और काला चना-इन धान्यों को कोठे में गुप्त (बन्द), पल्य में, मचान में और माल्य में बन्द करके उनके ॐ द्वारों को ढक देने पर, गोबर से लीप देने पर, चारों ओर से लीप देने पर, रेखाओं से लांछित कर देने + पर, मिट्टी से मुद्रित कर देने पर और भलीभाँति से सुरक्षित रखने पर उनकी योनि (उत्पादक-शक्ति)
कितने काल तक बनी रहती है ? म (उत्तर) गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट पाँच वर्ष तक उनकी उत्पादक शक्ति बनी
रहती है। उसके पश्चात् उनकी योनि म्लान हो जाती है, योनि विध्वस्त हो जाती है, योनि क्षीण हो जाती फ़ है, बीज अबीज हो जाता है, (पाँच वर्ष) पश्चात् योनि का विच्छेद हो जाता है।
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स्थानांगसूत्र (२)
(202)
Sthaananga Sutra (2) |
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209. (Question) Bhante ! How long the yoni (productive capacity) of matar (peas), masur (Lens esculenta), til (sesame), moong (green gram; 卐 Phaseolus radiatus), udad, nishpava or sem (beans; Dolichos leblab), 卐 kulathi (horse gram), chavala, tuvar (Cajamus indicus), kala chana
(black gram) or other pulses last once they are stored in kotha (silo),
palya (basket made of bamboo or cane), machan (store on a raised . wooden platform) and mala (store on roof top), and then covered, sealed, marked, stamped and properly closed ?
(Answer) “Long lived one ! Their productive capacity lasts for a minimum period of antarmuhurt (less than 48 minutes) and a maximum period of five years. After that the yoni (productive capacity) gets weak,
shattered, destroyed, seedless, and sterile. In other words the seeds no 46 i longer germinate on sowing. 卐 संवत्सर-पद SAMVATSAR-PAD (SEGMENT OF YEAR)
२१०. पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तं जहा-णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्छरे, लक्खण संवच्छरे, सणिंचर संवच्छरे।
२११. जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-चंदे, चंदे, अभिवट्टिते, चंदे, अभिवडिते चेव।।
२१२. पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-णक्खत्ते, चंदे, उऊ, आदिच्चे अभिवडिते। ___ २१०. संवत्सर (वर्ष) पाँच प्रकार के हैं-(१) नक्षत्र-संवत्सर, (२) युग-संवत्सर, 卐 (३) प्रमाण-संवत्सर, (४) लक्षण संवत्सर, (५) शनिश्चर-संवत्सर।
२११. युगसंवत्सर पाँच प्रकार के हैं-(१) चन्द्र-संवत्सर, (२) चन्द्र-संवत्सर, . (३) अभिवर्धित-संवत्सर, (४) चन्द्र-संवत्सर, (५) अभिवर्धित-संवत्सर। ॐ २१२. प्रमाण-संवत्सर पाँच प्रकार के हैं-(१) नक्षत्र-संवत्सर, (२) चन्द्र-संवत्सर, + (३) ऋतु-संवत्सर, (४) आदित्य-संवत्सर, (५) अभिवर्धित-संवत्सर। 15. 210. Samvatsar (year) is of five kinds—(1) Nakshatra-samvatsar,
(2) Yug-samvatsar, (3) Praman-samvatsar, (4) Lakshan-samvatsar and (5) Shanishchar-samvatsar.
211. Yug-samvatsar is of five kinds—(1) Chandra-samvatsar, ) Chandra-samvatsar, (3) Abhivardhit-samvatsar, (4) Chandrasamvatsar and (5) Abhivardhit-samvatsar.
212. Praman-samvatsar is of five kinds-(1) Nakshatra-samvatsar, (2) Chandra-samvatsar, (3) Ritu-samvatsar, (4) Aditya-samvatsar and 4 (5) Abhivardhit-samvatsar.
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२१३. लक्खणसंवच्छरे, पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा
समगं णक्खत्ता जोगं जोयंति समगं उदू परिणमति । हं णातिसीतो, बहूदओ होति णक्खत्तो ॥ १ ॥ ससिसगलपुण्णमासी, जोएइ विसमचारिणक्खत्ते । कडुओ बहूओवा, तमाहु संवच्छरं चंदं ॥ २ ॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणुदूसू देंति पुप्फफलं । वासं णं सम्म वासति, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥ ३ ॥ पुढविदगाणं तु रसं, पुप्फफलाणं तु देइ आदिच्चो । अप्पेणवि वासेणं, सम्मं णिप्फज्जए सासं ॥ ४ ॥ आदिच्चतेयतविता, खणलवदिवसा उऊ परिणमति ।
पूरेति रेणू थलयाई, तमाहु अभिवड्डितं जाणे ॥ ५ ॥ (संग्रहणी - गाथाएँ)
२१३. लक्षण-संवत्सर पाँच प्रकार के हैं- (१) नक्षत्र - संवत्सर, (२) चन्द्र - संवत्सर, (३) कर्म(ऋतु) संवत्सर, (४) आदित्य - संवत्सर, (५) अभिवर्धित - संवत्सर ।
(१) जिस संवत्सर में जिस तिथि में जिस नक्षत्र का योग होना चाहिए, उस नक्षत्र का उसी तिथि में
योग होता है, जिसमें ऋतुएँ यथासमय परिणमन करती हैं, जिसमें न अति गर्मी पड़ती है और न अधिक सर्दी ही पड़ती है और जिसमें वर्षा अच्छी होती है, वह नक्षत्र - संवत्सर कहलाता है। जैसे चैत्री पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र, वैशाखी पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र आदि ।
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(२) जिस संवत्सर में चन्द्रमा सभी पूर्णिमाओं का स्पर्श करता है, जिसमें अन्य नक्षत्रों की विषम गति फ होती है, जिसमें सर्दी और गर्मी अधिक होती है तथा वर्षा भी अधिक होती है, उसे चन्द्र- संवत्सर कहते हैं।
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(३) जिस संवत्सर में बिना समय के बीज अंकुरित हों, वृक्ष में कोंपलें आये, वर्षा भी समय पर न फ्र हों, उसे कर्मसंवत्सर या ऋतुसंवत्सर कहते हैं।
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(४) जिस संवत्सर में वर्षा कम होने पर भी सूर्य, पृथ्वी, जल, पुष्प और फलों को रस अच्छा देता फ्र है और धान्य अच्छा उत्पन्न होता है, उसे आदित्य या सूर्यसंवत्सर कहते हैं ।
(५) जिस संवत्सर में क्षण, लव, दिवस और ऋतु सूर्य के तेज से तप्त होकर व्यतीत होते हैं, जिसमें आँधी- -तूफान अधिक आयें, उसे अभिवर्धित - संवत्सर कहते हैं।
213. Lakshan-samvatsar is of five kinds-(1) Nakshatra-samvatsar,
(2) Chandra-samvatsar, (3) Karma (Ritu) - samvatsar, (4) Aditya - samvatsar and (5) Abhivardhit-samvatsar.
स्थानांगसूत्र (२)
(६) जितने काल में शनिश्चर एक नक्षत्र को भोगता है, वह शनिश्चर संवत्सर कहलाता है। (विस्तृत फ वर्णन देखें वृत्ति भाग - २ पृष्ठ ५८९ । तथा हिन्दी टीका भाग-२, पृष्ठ २१८)
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(1) The samvatsar (calendar year) in which the dates and constellations (lunar mansions) follow the established system of
conjunction, in which seasons follow the established pattern, in which 41 summer and winter are not extreme and in which there is goo 1 monsoon
is called Nakshatra-samvatsar. For example Chitra nakshatra falls on
Chaitra purnima and Vishakha nakshatra falls on Vaishakh purnima. 4 (2) The samvatsar (calendar year) in which the moon always shines
on Purnimas, in which constellations do not follow a fixed system of conjunction, and in which seasons like summer, winter and monsoon are extreme is called Chandra-samvatsar.
(3) The samvatsar (calendar year) in which seeds germinate untimely, in which plants sprout untimely and the rains are also untimely is called Karma-samvatsar or Ritu-samvatsar. .
(4) The samvatsar (calendar year) in which the sun, the earth and water provide ample nutrition to flowers and fruits and crops are good, is called Aditya or Surya-samvatsar.
(5) The samvatsar (calendar year) in which every fraction of time is spent suffering scorching heat of a glowing sun and which has excessive storms is called Abhivardhit-samvatsar.
(6) The time taken by Shanishchar (Saturn) to cross one nakshatra is called Shanishchar-samvatsar. (for more details see Vritti, part-2, p. 589 and Hindi Tika, part-2, p. 218) जीवप्रदेश-निर्याणमार्ग-पद JIVAPRADESH-NIRYANAMARG-PAD
(SEGMENT OF DEPARTURE OF SOUL-SPACE-POINTS) २१४. पंचविधे जीवस्स णिज्जाणमग्गे पण्णत्ते, तं जहा- पाएहिं, ऊरूहिं, उरेणं, सिरेणं, सव्वंगेहि।
पाएहिं णिज्जायमाणे णिरयगामी भवति, ऊरूहिं णिज्जायमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं जणिज्जायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं णिज्जायमाणे देवगामी भवति, सवंगेहिं णिज्जायमाणे
सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते। । २१४. मृत्यु के समय जीव-प्रदेशों के शरीर से निर्याण-निकलने के पांच मार्ग होते हैं-(१) पैर, (२) उरू, (३) हृदय, (४) शिर, (५) सर्वाङ्ग।
(१) पैरों से (घुटने के नीचे का भाग) निर्याण करने वाला जीव नरकगामी होता है। (२) उरू ॐ (जंघा) से निर्माण करने वाला जीव तिर्यंचगतिगामी होता है। (३) हृदय से निर्याण करने वाला जीव
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मनुष्यगतिगामी होता है । (४) शिर से निर्याण करने वाला जीव देवगतिगामी होता है। (५) सर्वाङ्ग में निर्याण करने वाला जीव सिद्धगति अर्थात् मुक्ति प्राप्त करता है।
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[विशेष - जब शरीर के एक भाग से जीव निकलता है, तब महावेदना होती है, किन्तु सर्वांगों से जब आत्मा निकलता है। तब कोई वेदना नहीं होती ]
214. There are five paths of niryan (departure) of jivapradesh (soulspace-points) at the time of death – (1) legs, (2) thigh, (3) heart, (4) head and (5) whole body.
(1) A soul departing through legs (below knees) is destined for hell; 5 (2) that departing from thigh is destined for animal genus, (3) that departing from heart is destined for human genus, (4) that departing from head is destined for divine realm and (5) that departing from whole body is destined for the status of Siddha or to be liberated. (When the soul departs through any one part of body it is very painful but when it departs from the whole body it is not painful.)
छेदन - पद CHHEDAN-PAD (SEGMENT OF DIVISION)
२१५. पंचविहे छेयणे पण्णत्ते, तं जहा - उप्पाछेयणे, वियच्छेयणे, बंधच्छेयणे, पएसच्छेयणे, दोधारच्छेयणे ।
२१५. छेदन (विभाग) पाँच प्रकार का होता है - ( १ ) उत्पाद - छेदन - उत्पाद पर्याय के आधार पर विभाग करना । ( २ ) व्यय - छेदन - विनाश पर्याय के आधार पर विभाग करना । ( ३ ) बन्ध - छेदन - कर्म-बन्ध का छेदन, या पुद्गलस्कन्ध का विभाजन । (४) प्रदेश-छेदन - अविभक्त वस्तु के प्रदेशों का बुद्धि से कल्पित विभाजन । (५) द्विधा - छेदन - किसी वस्तु के दो विभाग करना ।
215. Chhedan (division) is of five kinds-(1) Utpad-chhedan-to divide on the basis of mode of production, (2) vyaya-chhedan-to divide on the basis of mode of destruction, (3) bandh-chhedan-division of ! karmic bondage or division of matter particle, (4) pradesh-chhedan-to conceptually divide an undivided thing and (5) dvidha-chhedan-to divide in two parts.
आनन्तर्य - पद ANANTARYA-PAD (SEGMENT OF NON-INTERRUPTION)
२१६. पंचविहे आणंतरिए पण्णत्ते, तं जहा - उप्पायाणंतरिए, वियाणंतरिए, पएसाणंतरिए, समयाणंतरिए, सामण्णाणंतरिए ।
२१६. आनन्तर्य (विरह का अभाव, सातत्य) पाँच प्रकार का होता है- ( १ ) उत्पाद - आनन्तर्यलगातार उत्पत्ति । ( २ ) व्यय - आनन्तर्य - लगातार विनाश । ( ३ ) प्रदेश - आनन्तर्य - लगातार प्रदेशों की
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निर्याण मार्ग
पांवों से
जंघा से
नरक गति
तिर्यंच गति
वक्ष से
के मनुष्य गति
मोक्ष गति
देव गति
सिर से
सर्वांग से
الالالا
TRIKK
HARATE
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| चित्र परिचय ६ ।
Illustration No. 6
निर्याण मार्ग मानव प्राणी शरीर छोड़ते समय पाँच स्थानों से उसका जीव (आत्मा) निकलता है
(१) पाँवों से-यदि जीव पैरों से निकलता है तो वह नरकगामी होता है।
(२) जंघाओं से-जंघा या उसके ऊपर के कटिभाग से नीचे के स्थान से निकलने वाला जीव तिर्यंचगति में जाता है।
(३) छाती (वक्षस्थल) से-कमर से ऊपर वक्षस्थल से निकलने वाला जीव मनुष्यगति में जाता है।
(४) सिर से-मस्तक या ग्रीवा से ऊपर के भाग से निकलने वाला जीव देवगति में जाता है।
(५) सर्वांग (सम्पूर्ण शरीर से)-शरीर के समस्त अंगों से समान रूप में निकलने वाला जीव मोक्षगामी होता है।
-स्थान ५, उ. ३, सूत्र २१४
PATH OF DEPARTURE There are five place in the body from where a soul departs (niryan) at the time of death
(1) Legs—A soul departing through legs (below knees) is destined for hell.
(2) Thigh-A soul departing from thigh is destined for animal genus.
(3) Heart-A soul departing from heart is destined for human genus.
(4) Head-A soul departing from head is destined for divine realm.
(5) Whole Body-A soul departing from whole body is destined for the status of Siddha or to be liberated.
--Sthaan 5, Lesson 3, Sutra 214
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संलग्नता । ( ४ ) समय - आनन्तर्य - समय की निरन्तरता । (५) सामान्य - आनन्तर्य - जिसमें उत्पाद व्यय 5 आदि पर्याय विशेष की विवक्षान हो । सामान्य निरन्तरता । [ विशेष-छेदन और आनन्तर्य के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण हेतु हिन्दी टीका भाग- २ पृष्ठ २२२ देखें ।]
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destruction,
216. Anantarya (absence of separation or interruption) is of five 5 kinds— (1) utpad-anantarya-uninterrupted generation, (2) vyayaanantarya-uninterrupted (3) pradesh-anantaryauninterrupted sections, (4) samaya-anantarya-uninterrupted time and i ( 5 ) samanya-anantarya- general non-interruption with regard to any specific process including generation and destruction. (for more details about chhedan and anantarya refer to Hindi Tika, part-2, p. 222)
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अनन्त - पद ANANT-PAD (SEGMENT OF THE ENDLESS OR INFINITE)
२१७. पंचविधे अणंतए पण्णत्ते, तं जहा - णामाणंतए, ठवणाणंतए, दव्वाणंतए, गणणाणंतए, पदेसाणंतए ।
अहवा - पंचविहे अणंतर पण्णत्ते, तं जहा- एगतोऽणंतए, दुहओणंतए, देसवित्थाराणंतए, सव्ववित्थाराणंतए, सासयाणंतए ।
पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
२१७. अनन्तक पाँच प्रकार का होता है- ( १ ) नाम - अनन्तक - जिसका नाम अनन्त है, जैसे अनन्तनाथ, अनन्त चौदस । (२) स्थापना - अनन्तक - किसी सचित्त - अचित्त 'अनन्त' वस्तु का चित्र, मूर्ति 5 या नक्शा आदि । (३) द्रव्य - अनन्तक- जीव, पुद्गल परमाणु, और काल ये तीन द्रव्य - अनन्तक हैं। (४) गणना - अनन्तक - जिस गणना का अन्त न हो, ऐसी संख्याविशेष । ( ५ ) प्रदेश - अनन्तक- जिसके फ प्रदेश अनन्त हों, जैसे आकाश के प्रदेश अनन्त हैं।
अथवा अनन्तक पाँच प्रकार का होता है
( १ ) एकतः अनन्तक - लम्बाई की अपेक्षा से आकाश प्रदेश की एक श्रेणि में अनन्त प्रदेश है। (२) द्विधा अनन्तक - लम्बाई और चौड़ाई दोनों की अपेक्षा से जो अनन्त हो । (३) देश विस्तार अनन्तक- 5 पूर्वादि किसी एक दिशा के विस्तार में फैले हुए आकाश-प्रदेशों की अनन्तता । ( ४ ) सर्व विस्तार अनन्तक- सम्पूर्ण आकाश प्रदेशों की जो अनन्तता है । ( ५ ) शाश्वत अनन्तक - आदि अन्त रहित, स्थिति रहित जीवादि शाश्वत पदार्थ शाश्वत अनन्तक हैं।
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217. Anantak ( endless or infinite ) is of five kinds – ( 1 ) naam 5 anantak-whose name is Anantak, (2) sthapana-anantak-picture, image or drawing of some living or non-living infinite thing, (3) dravyaanantak—soul, matter and time are endless entities, (4) gananaanantak—an endless number ( numerical infinite) and (5) pradeshanantak-having endless space-points, such as space.
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Fifth Sthaan: Third Lesson
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Also anantak (endless or infinite) is of five kinds-(1) Ekatahanantak—there are infinite space-points in a line in space. (2) Dvidha anantak-that which is infinite both in length and width. (3) Deshvistar-anantak-the endlessness of the expanse of space in one specific direction, (4) Sarva-vistar-anantak-the endlessness of the overall expanse of space. (5) Shashvat-anantak-enternally infinite, such as entities like soul that are without a beginning or an end.
ज्ञान- पद JNANA-PAD (SEGMENT OF KNOWLEDGE)
२१८. पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे, केवलणाणे ।
२१८. ज्ञान पाँच प्रकार का है - ( १ ) आभिनिबोधिकज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्यवज्ञान, (५) केवलज्ञान ।
218. Jnana (knowledge) is of five kinds – (1) abhinibodhik jnana or mati-jnana (sensory knowledge or to know the apparent form of things coming before the soul by means of five sense organs and the mind), (2) shrut-jnana ( scriptural knowledge ), ( 3 ) avadhi- jnana (extrasensory perception of the physical dimension; something akin to clairvoyance), (4) manahparyav jnana (extrasensory perception and knowledge of thought process and thought-forms of other beings, something akin to telepathy) and (5) keval-jnana (omniscience).
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२१९. पंचविहे णाणावरणिज्जे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा - आभिणिबोहियणाणावरणिज्जे, ( सुयणाणावर णिज्जे, ओहिणाणावरणिज्जे, मणपज्जवणाणावरणिज्जे), केवलणाणावर णिज्जे । २१९. ज्ञानावरणीय कर्म पाँच प्रकार का है- (१) आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनः पर्यवज्ञानावरणीय, (५) केवलज्ञानावरणीय । 219. Jnanavaraniya karma (knowledge obscuring karma) is of five kinds— (1) abhinibodhik jnanavaraniya, (2) shrut-jnanavaraniya, (3) avadhi-jnanavaraniya, (4) manahparyav jnanavaraniya and (5) keval-jnanavaraniya.
२२०. पंचविहे सज्झाए पण्णत्ते, तं जहा - वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा। २२०. स्वाध्याय पाँच प्रकार का है - ( १ ) वाचना - पठन-पाठन करना । (२) पृच्छना - संदिग्ध विषय पूछना । (३) परिवर्तना - पठित विषयों को बारंबार फेरना । ( ४ ) अनुप्रेक्षा - पुनः - पुनः चिन्तन करना । धर्मकथा - धर्म चर्चा करना ।
220. Svadhyaya (study) is of five kinds-(1) Vaachana-to read or recite. (2) Prichhana-to seek clarification and elaboration. (3) Parivartana-to स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
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revise and repeat what has been learnt. (4) Anupreksha-to ponder over the meaning profoundly. (5) Dharmakatha-to discuss religion.
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प्रत्याख्यान-पद PRATYAKHYAN-PAD (SEGMENT OF ABSTAINMENT)
२२१. पंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा-सद्दहणसुद्धे, विणयसुद्धे, अणुभासणासुद्धे, अणुपालणासुद्धे, भावसुद्धे। __२२१. प्रत्याख्यान पाँच प्रकार का है-(१) श्रद्धानशुद्ध-श्रद्धापूर्वक किया गया निर्दोष त्याग। (२) विनयशुद्ध-देव-गुरु की विनयपूर्वक किया गया निर्दोष त्याग। (३) अनुभाषणाशुद्ध-गुरु द्वारा बोले गये 'वोसिरे' आदि पदों को दोहराते हुए प्रत्याख्यान पाठ बोलना। (४) अनुपालनाशुद्ध-विकट परिस्थिति में भी दृढ़तापूर्वक प्रत्याख्यान का निर्दोष पालन करना। (५) भावशुद्ध-राग-द्वेष से रहित होकर शुद्ध भाव से प्रत्याख्यान का पालन करना।
221. Pratyakhyan (abstainment) is of five kinds—(1) Shraddhan shuddha-faultless abstainment done with faith, (2) Vinaya shuddhafaultless abstainment done with modesty towards deities and gurus, (3) Anubhashana shuddha-to repeat the verses related to abstainment
(vosire) uttered by the guru, (4) Anupalana shuddha-faultless 4 i abstainment observed with resolve even in adverse conditions and
(5) Bhaava shuddha-faultless abstainment done with purity of mind i ! being free of attachment and aversion. प्रतिक्रमण-पद PRATIKRAMAN-PAD (SEGMENT OF CRITICAL REVIEW)
२२२. पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा-आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे। ____२२२. प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का है-(१) आस्रवद्वार-प्रतिक्रमण-प्राणातिपातादि पाँच आस्रवों से निवृत्त होना। (२) मिथ्यात्व-प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त्व में लौटना। (३) कषाय-प्रतिक्रमण-कषायों से निवृत्त होना। (४) योग-प्रतिक्रमण-मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना। (५) भाव-प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व आदि का कृत, कारित, अनुमोदना से त्यागकर शुद्धभाव से सम्यक्त्व में स्थिर रहना।
222. Pratikraman (critical review) is of five kinds-(1) Asravadvar 4 pratikraman-to be rid of five channels of karmic inflow, such as killing ; beings. (2) Mithyatva pratikraman-to abandon unrighteousness and regain righteousness. (3) Kashaya pratikraman-to be rid of passions. (4) Yoga pratikraman-to be rid of evil indulgence through mind, speech and body. (5) Bhaava pratikraman-to stabilize oneself in righteousness with spiritual purity gained by renouncing all vices through three means (do, cause to do and affirm doing).
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सूत्रवाचना- पद SUTRAVACHANA-PAD (SEGMENT OF RECITATION OF SUTRAS)
२२३. पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएज्जा, तं जहा - संगहट्टयाए, उवग्गहट्टयाए, णिज्जरट्टयाए, सुत्ते
वा मे पज्जवयाते भविस्सति, सुत्तस्स वा अवोच्छित्तिणयट्टयाए ।
२२३. पाँच कारणों (प्रयोजनों) से सूत्र की वाचना देनी चाहिए - ( १ ) संग्रह के लिए - शिष्यों को
श्रुत - सम्पन्न (विद्वान) बनाने के लिए। (२) उपग्रह के लिए दूसरों को धर्म बोध देकर परोपकार करने
की योग्यता प्राप्त कराने के लिए। (३) निर्जरा के लिए। (४) वाचना देने से मेरा श्रुतज्ञान पुष्ट और विस्तृत होगा, इस कारण से । (५) श्रुत के पठन-पाठन की परम्परा अविच्छिन्न रखने के लिए।
223. Sutras should be recited (vachana) for five reasonsSamgraha-to make disciples scholars of Shrut (the Sutras).
(1)
(2) Upagraha-to impart ability of benefitting people by teaching them religion. (3) Nirjara-for shedding karmas. (4) for the purposeBelieving that my knowledge of Shrut will enhance and widen. (5) for keeping the tradition of Shrut-jnana intact.
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२२४. पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेज्जा, तं जहा - णाणट्टयाए, दंसणट्टयाए, चरित्तट्टयाए, 5
वुग्गहविमोयणट्टयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीतिकट्टु ।
२२४. पाँच कारणों से सूत्र सीखना चाहिए। ( १ ) ज्ञानार्थ- नये - नये तत्त्वों के परिज्ञान के लिए।
(२) दर्शनार्थ - सम्यक्त्व की उत्तरोत्तर विशुद्धि एवं संपोषण के लिए। (३) चारित्रार्थ - चारित्र की अधिक निर्मलता के लिए । (४) व्युद्ग्रहविमोचनार्थ - दूसरों का दुराग्रह छुड़ाने के लिए। (५) यथार्थ भाव ज्ञानार्थ- फ्र तत्त्व के यथार्थ परिज्ञान के लिए।
कल्प- पद KALP-PAD (SEGMENT OF DIVINE REALMS)
224. Sutras should be learned for five reasons-(1) Jnanarth-to learn about new facts and realities. (2) Darshanarth-for gradual sublimation and nurturing of righteousness. (3) Chaaritrarth-for further purification 5 of conduct. (4) Vyudgrahavimochanarth — for removing dogmas of others. (5) Yatharth-bhaava jnanarth-for true knowledge of fundamentals.
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२२५. सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा - किण्हा, [णीला, 5 लोहिता, हालिद्दा ], सुक्किल्ला । २२६. सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचजोयणसयाई उड उच्चत्तेणं पण्णत्ता। २२७. बंभलोग - लंतएसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरगा उक्कोसेणं 5 पंचरयणी उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ।
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२२७.
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२२५. सौधर्म और ईशानकल्प के विमान पाँच वर्ण के हैं - (१) कृष्ण, (२) नील, (३) लोहित, (४) हारिद्र, (५) शुक्ल । २२६. सौधर्म और ईशानकल्प के विमान पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। ब्रह्मलोक और लान्तककल्प के देवों के भवधारणीय शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच रत्नि (हाथ) है। 5
Sthaananga Sutra (2)
स्थानांगसूत्र (२)
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225. The vimaans (celestial vehicles) in Saudharma and Ishan kalp 41 are of five colours—(1) krishna (black), (2) neel (blue), (3) lohit (red),
(4) haridra (yellow) and (5) shukla (white). 226. The vimaans (celestial vehicles) in Saudharma and Ishan kalp are five hundred Yojans in height. 227. The maximum height of the gods of Brahmalok and Lantak Kalp is five Ratnis (cubits).
听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
बंध-पद BANDH-PAD (SEGMENT OF BONDAGE)
२२८. णेरइया णं पंचवण्णे पंचरसे पोग्गले बंधेसु वा बंधति वा बंधस्संति वा, तं जहाकिण्हे, [णीले, लोहिते, हालिद्दे ], सुक्किल्ले। तित्ते। [ कडुए, कसाए, अंबिले ], मधुरे। २२९. एवं जाव वेमाणिया।
२२८. नारक जीवों ने निम्न पाँच वर्ण और पाँच रस वाले पुद्गलों को कर्मरूप से भूतकाल में बाँधा है, वर्तमान में बाँध रहे हैं और भविष्य में बाँधेग--(१) कृष्ण वर्ण, (२) नील वर्ण, (३) लोहित म वर्ण, (४) हारिद्र वर्ण और (५) शुक्ल वर्ण तथा (१) तिक्त रस, (२) कटु रस, (३) कषाय रस,
(४) अम्ल रस और (५) मधुर रस वाले। २२९. इसीप्रकार वैमानिकों तक के सभी दण्डकों के जीवों ॐ ने पाँच वर्ण और पाँच रस वाले पुद्गलों को कर्म रूप से बाँधा है, बाँध रहे हैं और बाँधेगे। $ 228. The infernal beings did, do and will acquire bondage of karma
particles of following five colours and five tastes in past, present and future—(1) krishna (black), (2) neel (blue), (3) lohit (red), (4) haridra (yellow) and (5) shukla (white) colours and (1) tikta (bitter), (2) katu (pungent), (3) kashaya (astringent), (4) amla (sour) and (5) madhur (sweet) tastes. 229. In the same way all beings of all dandaks up to
Vaimaniks did, do and will acquire bondage of karma particles of fi following five colours and five tastes. महानदी-पद MAHANADI-PAD (SEGMENT OF GREAT RIVERS)
२३०. जम्बूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं गंगं महाणदिं पंच महाणदीओ समप्पेंति, तिं जहा-जउणा, सरु, आवी, कोसी, मही। २३१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं # सिंधु महाणदिं पंच महाणदीओ समप्पेंति, तं जहा-सतदू, वितत्था, विपासा, एरावती चंदभागा।
२३०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में (भरत क्षेत्र में) पाँच महानदियाँ गंगा महानदी में मिलती हैं-(१) यमुना, (२) सरयू, (३) आवी, (४) कोसी, (५) मही। २३१. जम्बूद्वीप
नामक द्वीप में मन्दरपर्वत के दक्षिण भाग में (भरत क्षेत्र में) पाँच महानदियाँ सिन्धु महानदी में मिलती # है-(१) शतद्रु (सतलज), (२) वितस्ता (झेलम), (३) विपासा (व्यास), (४) ऐरावती (रावी), । (५) चन्द्रभागा (चिनाब)। (ये पाँचों पंजाब में हैं)
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पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
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Fifth Sthaan: Third Lesson
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231. In Jambu continent, to the south of Mandar Mountain (in Bharat 卐 area) five great rivers join the great river Sindhu-(1) Shatadru 卐
(Sataluj), (2) Vitasta (Jhelum), (3) Vipasa (Vyas), (4) Airavati (Ravi) and (5) Chandrabhaga (Chenab). (All these are in Punjab) 230. In Jambu
continent, to the south of Mandar Mountain (in Bharat area) five great ki rivers join the great river Ganga—(1) Yamuna, (2) Sarayu, (3) Aavi, (4) Kosi and (5) Mahi.
२३२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रत्तं महाणदिं पंच महाणदीओ समप्येति, तं है जहा-किण्हा, महाकिण्हा, णीला, महाणीला, महातीरा। २३३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे ॐ गं रत्तावतिं महाणदिं पंच महाणदीओ समप्पेंति, तं जहा- इंदा, इंदसेणा, सुसेणा, वारिसेणा, महाभोगा।
२३२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में (ऐरवत क्षेत्र में) पाँच महानदियाँ ऊ रक्ता महानदी में मिलती हैं-(१) कृष्णा, (२) महाकृष्णा, (३) नीला, (४) महानीला, (५) महातीरा।
२३३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में (ऐरवत क्षेत्र में) पाँच महानदियाँ रक्तावती महानदी में मिलती हैं-(१) इन्द्रा, (२) इन्द्रसेना, (३) सुषेणा, (४) वारिषेणा, (५) महाभोगा।
232. In Jambu continent, to the north of Mandar Mountain (in si Airavat area) five great rivers join the great river Rakta-(1) Krishna,
(2) Mahakrishna, (3) Nila, (4) Mahanila and (5) Mahatira. 233. In Jambu 41 continent, to the north of Mandar Mountain (in Airavat area) f
rivers join the great river Raktavati-(1) Indra, (2) Indrasena, (3) Sushena, (4) Varishena and (5) Mahabhoga.
तीर्थंकर-पद TIRTHANKAR-PAD (SEGMENT OF TIRTHANKAR) म २३४. पंच तित्थगरा कुमारवासमझे वसित्ता मुंडा (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पव्वइया, तं जहा-वासुपूज्जे, मल्ली, अरिट्ठणेमी, पासे, वीरे।
२३४. पाँच तीर्थंकर कुमारवास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए4 (१) वासुपूज्य, (२) मल्ली, (३) अरिष्टनेमि, (४) पार्श्व और (५) महावीर। (वृत्ति अनुसार यहाँ 卐 'कुमार' शब्द राजकुमार अवस्था का सूचक है)
234. Five Tirthankars tonsured themselves and became ascetics after renouncing households as kumars (princes)—(1) Vasupujya, (2) Malli,
(3) Arishtanemi, (4) Parshva and (5) Mahavir. 卐 सभा-पद SABHA-PAD (SEGMENT OF ASSEMBLIES)
२३५. चमरचंचाए रायहाणीए पंच सभा पण्णत्ता, तं जहा-सभासुधम्मा उववातसभा, + अभिसेयसभा, अलंकारियसभा, ववसायसभा।
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२३६. एगमेगे णं इंदट्ठाणे पंच सभाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सभासुहम्मा, [ उववातसभा, म अभिसेयसभा, अलंकारियसभा ], ववसायसभा।
२३५. चमरचंचा राजधानी में पाँच सभाएँ हैं-(१) सुधर्मासभा-यहाँ इन्द्र का दरबार लगता है, ॐ तथा तीन प्रकार की परिषदें लगती हैं।, (२) उपपातसभा-उत्पत्तिस्थान, (३) अभिषेकसभा-इन्द्र का
राज्याभिषेक का स्थान, (४) अलंकारिकसभा-इन्द्र व देवों का शरीर-सज्जा भवन, (५) व्यवसायसभादेवों का अध्ययन या तत्त्वनिर्णय का स्थान।
२३६. इसी प्रकार एक-एक इन्द्रस्थान (जहाँ इन्द्र रहता है) में पाँच-पाँच सभाएँ हैंॐ (१) सुधर्मासभा, (२) उपपातसभा, (३) अभिषेकसभा, (४) अलंकारिकसभा और (५) व्यवसायसभा। म (इनका विशेष वर्णन सचित्र राजप्रश्नीय सूत्र के सूर्याभ देव के प्रकरण में देखें)
235. In the capital city Chamarachancha there are five assembly 4 halls—(1) Sudharma sabha—this is the court of Indra and is used 4 4 for three parishads (meetings), (2) Upapata sabha-hall of birth, 41
(3) Abhishek sabha-Indra's coronation hall, (4) Alankarik sabhaadornment hall and (5) Vyavasaya sabha-study and deliberation hall.
236. In the same way at each abode of Indra (overlord of gods) there are five assembly halls-(1) Sudharma sabha, (2) Upapata sabha, (3) Abhishek sabha, (4) Alankarik sabha and (5) Vyavasaya sabha. (for detailed description see the Suryabh god portion of Illustrated Rajaprashniya Sutra) नक्षत्र-पद NAKSHATRA-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS) - २३७. पंच णक्खत्ता पंचतारा पण्णत्ता, तं जहा-धणिट्ठा, रोहिणी, पुणबसू, हत्थो, विसाहा।
२३७. पाँच नक्षत्र पाँच-पाँच तारा वाले हैं-(१) धनिष्ठा, (२) रोहिणी, (३) पुनर्वसु, (४) हस्त, (५) विशाखा।
237. Five nakshtras (constellations) have five stars each(1) Dhanishtha (Belta Delphini; the 24th), (2) Rohini (Aldebaran; the 4th), (3) Punarvasu (Beta Geminorum; the 7th), (4) Hasta (Delta
Corvi; the 13th) and (5) Vishakha (Alpha Librae; the 16th). ॐ पापकर्म-पद PAAP KARMA-PAD (SEGMENT OF DEMERITORIOUS KARMAS)
२३८. जीवा णं पंचट्ठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा-एगिंदियणिव्वत्तिए, [बेइंदियणिबत्तिए, तेइंदियणिव्वत्तिए, चउरिदियणिव्वत्तिए] पंचिंदियणिव्वत्तिए।
एवं-चिण, उवचिण, बंध, उदीर, वेद, तह णिज्जरा चेवा।
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8555555555555555555555555555555555555 ॐ २३८. जीवों ने पाँच स्थानों से निष्पादित पुद्गलों का पापकर्म के रूप से भूतकाल में संचय किया है 卐 है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे, जैसे-(१) एकेन्द्रियनिर्वर्तित पुद्गलों का,
(२) द्वीन्द्रियनिर्वर्तित पुद्गलों का, (३) त्रीन्द्रियनिर्वर्तित पुद्गलों का, (४) चतुरिन्द्रियनिर्वर्तित पुद्गलों का, (५) पंचेन्द्रियनिर्वर्तित पुद्गलों का।
इसी प्रकार पाँच स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्म रूप से उपचय-(बार-बार संचय करना), बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे।
238. Jivas (souls) did, do, and will attract (chaya) particles in the form of paap-karma (demeritorious karmas) in five ways—(1) Ekendriya nirvartit (earned as one-sensed beings), (2) Dvindriya nirvartit (earned as two-sensed beings), (3) Trindriya nirvartit (earned as three-sensed beings), (4) Chaturindriya nirvartit (earned as four-sensed beings) and (5) Panchendriya nirvartit (earned as five-sensed animal beings).
In the same way jivas (souls) did, do, and will augment (upachaya), fructify (udiran), experience (vedan) and shed (nirjaran) particles in the form of paap-karma (demeritorious karmas) five ways.
पुद्गल-पद PUDGAL-PAD (SEGMENT OF MATTER) म २३९. पंचपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता।
२३९. पाँच प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। $1 239. There are infinite matter molecules having five space-points
(ultimate-particles). म २४०. पंचपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव पंचगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता।
२४०. (आकाश के) पाँच प्रदेशों में अवगाढ (अवस्थित) पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। पाँच समय की फ़ स्थिति वाले पुद्गल-स्कन्ध अनन्त हैं। पाँच गुण वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं।
इसी प्रकार शेष वर्ण तथा सभी रस, गन्ध और स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त है।
240. There are infinite matter molecules occupying five space-points in space. There are infinite matter molecules with an existence of five Samayas. There are infinite matter molecules with five units of attributes.
In the same way there are infinite matter molecules with five units of ___each attribute of appearance, smell, taste, and touch.
॥ पंचम स्थान का तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ • END OF THE THIRD LESSON
॥पंचम स्थान समाप्त ॥ • END OF THE FIFTH STHAAN
E555555555555555555 55555555听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
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| स्थानांगसूत्र (२)
(214)
Sthaananga Sutra (2)
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धर्मा
अलंकारिक सभा
इन्द्र की पांच समाएँ
Co
200 fo
अभिषेक सभा
व्यवसाय सभा
उपपात सभा
7
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चित्र परिचय ७ ।
Illustration No. 7 इन्द्र की पाँच सभाएँ (१) सुधर्मा सभा-यहाँ इन्द्र का दरबार लगता है और राज्य-व्यवस्था सम्बन्धी चर्या होती है।
(२) उपपात सभा-यहाँ पर इन्द्र, देव-देवियाँ आदि फूलों की शय्या पर उत्पन्न होते हैं। उत्पन्न होने पर अप्सराएँ उन्हें पूछती हैं-"आपने पूर्व जन्म में क्या कैसा पुण्य कर्म किया था ?"
(३) अभिषेक सभा-यहाँ देवगण इन्द्र का राज्याभिषेक करते हैं।
(४) अलंकारिक सभा-यहाँ आकर इन्द्र देव विभिन्न प्रकार के आभूषण आदि धारण करते हैं।
(५) व्यवसाय सभा-यहाँ आकर इन्द्र राजनीति, धर्मनीति सम्बन्धी ग्रन्थों का अवलोकन करते हैं तथा प्रमुख देवों से नीति सम्बन्धी चर्चा करते हैं। (सभी इन्द्र-स्थानों में पाँच प्रकार की सभाएँ होती हैं।
-स्थान ५, उ. ३, सूत्र २३५
FIVE ASSEMBLY HALLS OF INDRAS (1) Sudharma sabha--this is the court of Indra and is used to discuss state administration.
(2) Upapata sabha-hall of birth of gods and goddesses. After birth Apsaras (goddesses) ask them about their pious deeds in the past birth.
(3) Abhishek sabha-Indra's coronation hall where gods anoint him.
(4) Alankarik sabha-adornment hall where Indra adorns his body with a variety of ornaments etc.
(5) Vyavasaya sabha-study and deliberation hall where Indra studies various books and discusses policy matters with prominent gods. All abodes of Indras have five assembly halls.
-Sthaan 5, Lesson 3, Sutra 235
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षष्ठस्थान
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म सार : संक्षेप
प्रस्तुत स्थान में छह-छह संख्या वाले अनेक विषय संकलित हैं। अन्य स्थानों की अपेक्षा छठा स्थान छोटा है, इसमें एक ही उद्देशक है। परन्तु अनेक महत्त्वपूर्ण चर्चाओं से परिपूर्ण है, जिनका ज्ञान सभी के ऊ के लिए उपयोगी व आवश्यक है।
सर्वप्रथम गण के धारक गणी या आचार्य की योग्यता की कसौटी बताई है। यदि वह श्रद्धावान्, सत्यवादी, मेधावी, बहुश्रुत, शक्तिमान् और अधिकरणविहीन है, तब वह गणधारण के योग्य है। (सूत्र १)
साधुओं के कर्तव्यों को बताते हुए गोचरी के छह भेद, प्रतिक्रमण के छह भेद, संयम-असंयम के छह भेद और प्रायश्चित्त का कल्प प्रस्तार आदि वर्णन साधु के लिए बहुत ही उद्बोधक है। इसी प्रकार साधु-आचार के घातक छह पलिमंथु, छह प्रकार के अवचन और उन्माद के छह स्थानों का वर्णन, ॐ
उनसे बचने की प्रेरणा देता है। ॐ कुछ जटिल प्रश्नों का समाधान अनेकान्त दृष्टि से बहुत सुन्दर किया है, जैसे अध्यात्मवादी प्रायः ॥ म कहते हैं इन्द्रिय-सुख सुख नहीं, दुःख है, किन्तु इस सूत्र में बड़ी व्यावहारिक दृष्टि से कहा है
इन्द्रिय-सुख भी सुख तो है, किन्तु अतीन्द्रिय सुख की अपेक्षा वह सुख बहुत नगण्य तथा अस्थायी है। (सूत्र १७)
इसी प्रकार पूजा-प्रतिष्ठा-सत्कार-सन्मान आदि आत्मवान् के लिए उन्नति करने की दिशा में म प्रेरणादायी बनता है तो अनात्मवान् के लिए अहंकार का कारण बनता है। (सूत्र ३२) आहार के विषय + में भी यही अनेकान्त दृष्टि में दी गई है। छह आवश्यक कारण उपस्थित होने पर आहार लिया भी जा # सकता है तथा छह कारणों से आहार का त्याग किया जाता है। + सैद्धान्तिक तत्त्वों के निरूपण में गति-आगति-पद, इन्द्रियार्थ-पद, संवर-असंवरपद, संहनन और ॐ संस्थानपद, दिशापद, लेश्यापद, मति-पद आदि पठनीय एवं महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ हैं। ज्योतिष की दृष्टि से ॐ कालचक्र-पद, दिशा-पद, नक्षत्र-पद, ऋतु-पद, अवमरात्र और अतिरात्र-पद विशेष ज्ञानवर्धक हैं।
प्राचीन समय में वाद-विवाद या शास्त्रार्थ में वादी एवं प्रतिवादी किस प्रकार के शाब्दिक दाव-पेंच खेलते थे, यह विवाद-पद से ज्ञात होता है। ॐ विष-परिणाम पद, से आयुर्वेद-विषयक ज्ञान प्राप्त होता है। पृष्ठ-पद से अनेक प्रकार के प्रश्नों
का, भोजन-परिणाम पद से भोजन कैसा होना चाहिए आदि व्यावहारिक बातों का भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसप्रकार यह स्थान अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों से समृद्ध है।
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षष्ठ स्थान
(215)
Sixth Sthaan
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24545454541 41 41 41 41 41 41 41 55 $441 444 445 446 4444444444448
SIXTH STHAAN (PLACE NUMBER SIX)
454 45 46 46 45 44 45 46 45 $1$
INTRODUCTION
Numerous topics related to the numeral six are compiled in this Sthaan. As compared to other sthaans this sthaan is short, it has only one lesson. However, it contains many important discussions that are essential and useful for all.
Initially it mentions the yardstick of a gani or acharya who heads a gana (group). If he is devoted, truthful, intelligent, scholarly, powerful and strife-free then only he is capable of heading a gana. (aphorism 1)
Enunerating the duties of ascetics, the description of six types of gochari (alms-seeking), pratikraman (critical review), disciplineindiscipline and prayashchit (atonement) are edifying for ascetics. In the same way the description of six palimanthu (detriments to ascetic 4 praxis), six types of ill-speech, and six sources of madness inspires one to avoid them.
Answers to some complex questions have been provided vividly with the help of doctrine of Anekant (relative viewpoint). For instance the assertion that sensual pleasures are miseries not pleasures has been pragmatically presented as-sensual pleasures are, indeed, pleasures but as compared to spiritual pleasures they become insignificant and $ transient. (aphorism 17)
In the same way worship, status, honour and respect inspire the spiritualist towards progress but they become sources of ego for the materialist (aphorism 32). Food habits have also been explained with relative angle. There are six reasons for eating and six for abstaining to eat.
In context of metaphysical topics gati-aagati pad, indriyarth-pad, samvar-asamvar pad, samhanan and samsthan pad, disha pad, leshya 4 pad, and mati pad provide interesting reading and references. Kaalchakra pad, disha pad, nakshatra pad, and avamratra-atiratra pad are informative.
In ancient times how debaters wrestled with arguments and counter arguments has been explained in vivad pad.
Vish parinam pad informs about Ayurveda, prishta pad about many types of questions, and bhojan parinam pad about practical knowledge of food. Thus this Sthaan contains many important topics.
45 46 45 44 45 46 44 45 46 45 44 45 46 45 446 447 4454555
4
441451414141414141414141414141414141456445 446 41 41 41 45 46 47 46 45 46 47 456 457
154454545454545454 455 456 45 46 45 44 43
4
PETITE (P)
(216)
Sthaananga Sutra (2)
4414141414141414141414141414141414141414 415 41 41 41 41 41 41 41 41 41 42
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குமிழிழதமிழமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழிழி
தததமிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிததமி*****தமிழி
गणधारण- पद GANADHAARAN PAD (SEGMENT OF HEADING THE GROUP) १. छहिं ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति गणं धारित्तए, तं जहा - सड्डी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिमं, अप्पाधिकरणे ।
१. छह स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अनगार गण धारण करने के योग्य होता है - (१) श्रद्धावान् पुरुष, (२) सत्यवादी पुरुष, (३) मेधावी पुरुष, (४) बहुश्रुत पुरुष, (५) शक्तिमान् पुरुष, (६) अल्पाधिकरण वाला
षष्ठ स्थान SIXTH STHAAN (Place Number Six)
पुरुष ।
1. An ascetic endowed with six sthaans ( qualities) is capable of heading a gana ( group ) – ( 1 ) Shriddhavan purush (devoted person), (2) satyavaadi purush (truthful person ), ( 3 ) medhavi purush (intelligent person), (4) bahushrut purush (scholarly person), (5) shaktiman purush (powerful person) and (6) alpadhikaran purush (strife-free person).
फ्र
षष्ठ स्थान
विवेचन- गण व्यवस्था के जो विशेष पद हैं उनमें आचार्य, उपाध्याय, गणी और प्रवर्तक ये चार पद 5 अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। गण की व्यवस्था सँभालने वाले पुरुष में ये छह गुण होना बहुत आवश्यक हैं
(२)
(१) श्रद्धावान् - जो श्रद्धावान् होता है वही मर्यादा का पालन कर सकता है। देव-गुरु-धर्म के प्रि जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह न तो मर्यादा का पालन करेगा और न ही धर्म संघ को ठीक से चला सकेगा। सत्यवादी - इसके दो अर्थ हैं - यथार्थवक्ता और स्वीकृत मर्यादाओं का पालन करने में समर्थ । ( ३ ) मेधावी - तीव्र बुद्धि सम्पन्न । ( ४ ) बहुश्रुत - अनेक शास्त्रों का ज्ञाता । जो गणनायक स्वयं ज्ञानी या बहुश्रुत नहीं होगा वह दूसरों को क्या ज्ञान देगा ? (५) शक्तिमान् - शक्ति अनेक प्रकार की होती है - शरीर की शक्ति, मंत्र व विद्या की शक्ति, तंत्र की सिद्धियों से सम्पन्न, विशिष्ट शिष्य सम्पदा सम्पन्न | शक्ति से ही धर्म की रक्षा होती है। ( ६ ) अल्पाधिकरण - जो कलह कदाग्रह से मुक्त हो, उपशान्त वृत्ति या प्रशान्त क स्वभाव वाला हो । वृत्तिकार ने निम्न गाथा उद्धृत की है
卐
सुत्तत्थे निम्माओ पिय- दढ धम्मो ऽणुवत्तणाकुसलो । जाइ कुल संपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य।
संगहुवग्गह निरओ कय करणो पवयणाणुरागी य। एवं विहा उ भणिओ गणसामी जिण वरिंदेहिं ॥
(217)
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- पंच वस्तु १३१५-१६
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फ्र
ததததிததமிழழக்கமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழகம்
Sixth Sthaan
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जो सूत्र एवं अर्थ में कुशल है, प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी है, शिष्यों को अनुशासन में रखना जानता 5 है, जाति - कुल सम्पन्न है, गम्भीर है, लब्धि-सम्पन्न है, संग्रह व उपकार करने में कुशल है, कृत-करण (परोपकार) में चतुर है, प्रवचनानुरागी है। इन गुणों से सम्पन्न अणगार ही गण का स्वामी हो सकता है। ( वृत्ति. भाग - २ पृष्ठ ६०३)
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44141414141414141414141414141414141414141454 455 456 457 46 45 46 45 441 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 44
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Elaboration-Acharya, Upadhyaya, Gani and Pravartak are the four most important positions in the management system of a Gana. It is 41 essential for a person responsible for managing a gana to have the si following six qualities--
(1) Shriddhavan-only a devoted person is capable of adhering to the i codes of ascetic-discipline. A person devoid of faith in deity, guru and
religion is neither capable of following ascetic-discipline nor proper management of the sangh (religious organization). (2) Satyavaadi—this means a truthful person as well as one capable of observing the accepted ascetic-discipline. (3) Medhavi—highly intelligent person. (4) Bahushrut-a scholar of many scriptures. What can a head of a gana, who is not a scholar himself, teach others ? (5) Shaktiman-power is of many varieties—physical power, power of mantras, power of tantras, and power of accomplished disciples. Religion is protected by power alone. (6) Alpadhikaran-a person free of strife and dogmatic attitude and endowed with serene bearing and peaceful nature.
The commentator (Vritti) has quoted a verse from Panch Vastu $i (1315-16)
Only a person who is a scholar of text and meaning of scriptures, loves religion, and is steadfast in conduct; who keeps disciples in discipline; who belongs to good caste and family; who is solemn, endowed with special powers, skillful in collection as well as donation, clever in prescribed duties and loves discourse, can be the master. Only an ascetic endowed with all these qualities can become the head of a gana. (Vritti, part-2, p. 603) frufet-3pacia-T NIRGRANTHI AVALAMBAN-PAD (SEGMENT OF SUPPORT)
२. छहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिगंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णाइक्कमइ, तं जहाखित्तचित्तं, दित्तचित्तं जक्खाइटुं, उम्मायपत्तं, उवसग्गपत्तं, साहिकरणं। 卐 २. छह कारणों से निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थी को पकड़ता हुआ, सहारा देता हुआ भगवान की आज्ञा का
3129540 TEM PA -(9) Altre To fafetafora a HTVC, (?) gafant et HHR,
(३) यक्षाविष्ट हो जाने पर, (४) उन्माद के कारण मस्तिष्क का सन्तुलन खो देने पर, (५) उपसर्ग व 5 विपदा में फँस जाने पर, (६) कलह के कारण उद्विग्न हो जाने पर।
2. A Shraman Nirgranth (male ascetic) does not defy the word of 5 Bhagavan if he holds (grahan) and supports (avalamban) a nirgranthi
45 41 41 41 45 45 455 456 457 454 455 41 41 41 414 445 454 455 456 457 454 455 456 457 455
FETITEET (?)
( 218 )
Sthaananga Sutra (2)
2441451451 451 414156914141414141414141
4141414141414141414141414141414141
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1555
7
(female ascetic) for six reasons - ( 1 ) when she is vikshipt-chitt (crazy), ; ( 2 ) when she is dript-chitt ( euphoric ), ( 3 ) when she is yakshavisht (possessed by spirits ), ( 4 ) when she is unmaad prapt (mentally deranged due to excitement), (5) when she is upasarg prapt (tormented by affliction) and ( 6 ) when she is sadhikarana (excited due to strife).
साधर्मिक - अन्तकर्म पद SADHARMIK ANTKARMA-PAD
(SEGMENT OF LAST RITES OF CO-RELIGIONIST)
३. छहिं ठाणेंहि णिग्गंथा णिग्गंधीओ य साहम्मियं कालगतं समायरमाणा णाइक्कमंति, तं जहा - अंतोर्हितो वा बाहिं णीणेमाणा, बाहीहिंतो वा णिब्बाहिं णीणेमाणा, उवेहेमाणा वा, उवासमाणा वा, अणुण्णवेमाणा वा, तुसिणीए वा संपव्ययमाणा ।
३. छह कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी कालप्राप्त हुए अपने साधर्मिक का अन्त्यकर्म करते हुए भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं - (१) उसे उपाश्रय से बाहर लाते हुए । (२) बस्ती से बाहर लाते हुए। (३) उपेक्षा करते या उदासीनता वरतते हुए । ( ४ ) शव के समीप रहकर रात्रि - जागरण करते हुए । (५) मृत साधक के स्वजन या गृहस्थों को सूचित करते हुए । (६) उसे एकान्त में विसर्जित करने के लिए मौन भाव से जाते हुए ।
3. Shraman Nirgranth and Nirgranthi (male and female ascetics) do not defy the word of Bhagavan if they perform last rites of a coreligionist for six reasons - ( 1 ) bringing him out of the upashraya (place of stay), (2) taking him out of the inhabited area, ( 3 ) showing unconcern or apathy to him, (4) keeping awake near the dead body during the 卐 night, (5) informing the relatives of the deceased or other householders and (6) proceeding silently to place the body at some isolated spot.
卐
विवेचन - प्राचीन काल में जब साधु और साध्वियों के संघ विशाल होते थे और वे प्रायः नगर के बाहर रहते थे, उस समय किसी स्थिति में किसी साधु या साध्वी के कालगत होने पर उसकी अन्तक्रिया 5 उन्हें करनी पड़ती थी। उसी का निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया है।
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प्रथम दो कारणों से ज्ञात होता है कि जहाँ साधु या साध्वी कालगत हो, उस स्थान से बाहर 5 निकालना और फिर उसे निर्दोष स्थण्डिल पर विसर्जित करने के लिए बस्ती से बाहर ले जाने का भी काम उनके साम्भोगिक साधु या साध्वी स्वयं ही करते थे ।
5
2 955 5 5 5 5595 96 97 9 9 9 959595959 5959595959595959 595 5 5 5 5 5 95 95 95 95 95 95
(219)
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फफफफफफफफफफफफफफ
टीकाकार ने 'उपेक्षा' नामक तीसरे कारण के दो भेद किये हैं-व्यापारोपेक्षा और अव्यापारोपेक्षा । 5 व्यापारोपेक्षा अर्थात्-मृतक के अंगच्छेदन - बंधनादि क्रियाएँ करना । बृहत्कल्प भाष्य आदि से ज्ञात होता है कि यदि कोई साधक रात्रि में कालगत हो जावे तो उसमें कोई भूत-प्रेत आदि प्रवेश न कर जावे, इस 5 आशंका से उसकी अंगुली के मध्य पर्व का भाग छेद दिया जाता था । तथा हाथ-पैरों के अंगूठों को रस्सी से बाँध दिया जाता था । अव्यापारोपेक्षा का अर्थ है - मृतक के सम्बन्धियों द्वारा सत्कार-संस्कार में
षष्ठ स्थान
Sixth Sthaan
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5 विधि-विशेष से मनाते रहे होंगे, उसमें साधु या साध्वी को उदासीन रहना चाहिए। आचार्यश्री
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आत्मारामजी म. के अनुसार उपेक्षा का अर्थ है - साधर्मिक की मृत्यु पर रुदन विलाप न करते हुए उदासीन या उपेक्षा भाव रखना ।
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पाँचवें कारण से ज्ञात होता है कि कालगत साधु के सम्बन्धी जनों को मरण होने की सूचना देने के फ लिए कह रखा हो तो उन्हें उसकी सूचना देना भी उनका कर्त्तव्य है।
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छठे कारण से ज्ञात होता है कि कालगत साधर्मिकको विसर्जित करने के लिए साधु या साध्वियों को जाना पड़े तो मौनपूर्वक जाना चाहिए। बृहत्कल्पभाष्य में इस विषयक प्राचीन परम्परा विधि का विस्तृत 5 वर्णन किया है। (देखें ठाणं पृष्ठ ६८८-६८९)
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उदासीन रहना । उससे ज्ञात होता है कि मृतक के सम्बन्धी आकर उसका मृत्यु महोत्सव किसी
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चौथा कारण स्पष्ट बताता है कि यदि रात्रि में कोई साधु कालगत हो जावे और उसका तत्काल निर्हरण सम्भव न हो तो साम्भोगिकों को उसके पास रात्रि जागरण करते हुए रहना चाहिए।
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Elaboration-In ancient times ascetics moved about in large groups
and generally stayed outside a city. They had to perform the last rites of
a deceased ascetic on their own. These directions are in that context only.
The first two reasons inform us that during that period it was part of the duty of the ascetics to bring out the body of a deceased colleague and take it to a solitary spot for last rites.
The commentator (Tika) has divided the third reason-upeksha-into two categories, vyaparopeksha and avyaparopeksha. Vyaparopeksha means avoiding the rituals of piercing or tying body-parts. Brihatkalp Bhashya and other sources inform that if some ascetic died during the night, in order to avoid evil spirits entering his body, either the middle part of his finger was pierced or his thumbs and toes were tied with a string. Avyaparopeksha means apathy towards any post-death rituals performed
by relatives of the deceased. This indicates that some post-death ceremonies and rituals by relatives of the deceased were in vogue during
that period. An ascetic should avoid joining such functions. According to
Acharya Shri Atmamarm ji M. upeksha means to avoid crying or any other expression of grief, and remain unconcerned at such death.
The fourth reason clearly indicates that if some ascetic dies during the night and it is not possible to perform last rites at once, his colleagues should remain awake near the body.
The fifth reason informs that if the relatives of the deceased had already desired to be informed, then it was the duty of the colleagues to inform them about the death.
स्थानांगसूत्र (२)
(220)
Sthaananga Sutra (2)
தமிழிழதமிழக தமிழகமிமிமிமி*தமிழதிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழ
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The sixth reason indicates that if the ascetics are to carry the body to i an isolated spot they should do it observing complete silence. A detailed i description of the ancient tradition on this subject is available in
Brihatkalp Bhashya. (see Thanam, pp. 688-89)
छद्मस्थ-केवली पद CHHADMASTH-KEVALI-PAD
(SEGMENT OF CHHADMASTH-KEVALI) ४. छ ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आयासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सदं।
एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे (केवली) सव्वभावेणं जाणति पासति, तं जहाधम्मत्थिकायं, (अधम्मत्थिकायं, आयासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं), सदं।
४. छद्मस्थ पुरुष छह स्थानों को सम्पूर्ण रूप से (समस्त पर्यायों से) न जानता है और न देखता है(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीररहित जीव, (५) पुद्गल परमाणु, (६) शब्द।
जिनको विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, वे ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हन्त, जिन, केवली सम्पूर्ण रूप से (सर्व पर्यायों से) इनको जानते और देखते हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीररहित जीव, (५) पुद्गल परमाणु, (६) शब्द।
4. A chhadmasth (a person in state of karmic bondage) person cannot see or know six things fully (all their possible modes) (1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, (5) ultimate particle of matter and (6) shabd (sound).
Arhat, Jina, and Kevali endowed with right knowledge and perception see and know fully (all their possible modes) these five things-(1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, (5) ultimate particle of matter and (6) shabd (sound). असंभव-पद ASAMBHAVA-PAD (SEGMENT OF IMPOSSIBLE)
५. छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं णत्थि इट्टीति वा जुतीति वा जसेति वा बलेति वा वीरिएति वा पुरिसक्कार-परक्कमेति वा, तं जहा-(१) जीवं वा अजीवं करणयाए। (२) अजीवं वा जीवं, करणयाए। (३) एगसमए णं वा दो भासाओ भासिए। (४) सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा मा वा वेदेमि। (५) परमाणुपोग्गलं वा छिंदित्तए वा भिंदित्तए अगणिकाएणं वा समोदहित्तए। (६) बहिआ वा लोगंता गमणयाए।
षष्ठ स्थान
(221)
Sixth Sthaan
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855555555555555555555555555555558 ॐ ५. संसार के सभी जीवों में छह कार्य करने की ऋद्धि (लब्धि) द्युति (माहात्म्य), यश, बल (शरीर + शक्ति), वीर्य (आत्म शक्ति), पुरस्कार (उत्साह) और पराक्रम (सामर्थ्य) नहीं होता है, अर्थात् निम्न छह
काम करने का सामर्थ्य किसी जीव में नहीं है-(१) जीव को अजीव करना। (२) अजीव को जीव करना। (३) एक समय में दो भाषा बोलना। (४) अपने कृत कर्म का फल अपनी इच्छानुसार भोगना।
(५) पुद्गल परमाणु का छेदन-भेदन करना या अग्नि से जलाना। (६) लोकान्त से बाहर जाना। ॐ (ये छहों असम्भव कार्य हैं)
5. All beings in the world do not have the riddhi (opulence or special powers), dyuti (radiance or majesty), yash (fame), bal (strength), virya (spiritual potency), purushakar (virility or prowess) and parakram (valour) to perform six acts-(1) to turn soul into matter, (2) to turn matter into soul, (3) to speak in two languages at the same moment, (4) to suffer the fruits of one's deeds at will, (5) to pierce or burn ultimate-particle and (6) to go beyond the edge of lok (occupied space or the universe). (All these acts are impossible.) जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING ORGANISMS)
६. छज्जीवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा-पुटविकाइया, [ आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया ], तसकाइया।
६. छह जीवनिकाय हैं-(१) पृथ्वीकायिक, [(२) अप्कायिक, (३) तेजस्कायिक, (४) वायुकायिक, + (५) वनस्पतिकायिक,] (६) त्रसकायिक।
6. Bodied beings are of six kinds-(1) Prithvikayik (earth-bodied 4 beings), (2) Apkayik (water-bodied beings), (3) Tejaskayik (fire-bodied 5
beings), (4) Vayukayik (air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik (plantbodied beings) and (5) Tras-kayik (mobile-bodied beings).;
७. छ ताराग्गहा पण्णत्ता, तं जहा-सुक्के, बुहे, बहस्सती, अंगारए, सणिच्छरे, केतू।
७. ताराग्रह छह (तारों के आकार वाले ग्रह) हैं-(१) शुक्र, (२) बुध, (३) बृहस्पति, (४) अंगारक + (मंगल), (५) शनिश्चर, (६) केतु। (नौ ग्रह मे-सूर्य, चन्द्र और राहु तीन तारों के आकार के नहीं है।)
7. There are six taragrahas (star-like planets) (1) Shukra (Venus), (2) Budh (Mercury), (3) Brihaspati (Jupiter), (4) Angarak or Mangal + (Mars), (5) Shanishchar (Saturn) and (6) Ketu. .
८. छबिहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, जाव, तसकाइया।
८. संसार में रहने वाले जीव छह प्रकार के हैं-(१) पृथ्वीकायिक, [(२) अप्कायिक, 卐 (३) तेजस्कायिक, (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक,] (६) त्रसकायिक।
卐5555555555555555555555555555555555558
स्थानांगसूत्र (२)
(222)
Sthaananga Sutra (2)
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8. Beings living in the world are of six kinds-(1) Prithvikayik (earth4 bodied beings), (2) Apkayik (water-bodied beings), (3) Tejaskayik (firefi bodied beings), (4) Vayukayik (air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik
(plant-bodied beings) and (6) Tras-kayik (mobile-bodied beings). गति-आगति पद GATI-AAGATI-PAD (SEGMENT OF BIRTH FROM AND TO)
९. पुढविकाइया छगतिया छआगतिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइए, पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा, [ आउकाइएहिंतो वा, तेउकाइएहिंतो वा, वाउकाइएहिंतो वा, वणस्सइकाइएहिंतो वा ], तसकाइएहिंतो वा उववज्जेज्जा।
से चेव णं सा पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा, जाव तसकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। १०. आउकाइया छगतिया एवं छआगतिया चेव जाव तसकाइया।
९. पृथिवीकायिक जीव छह स्थानों से गति और छहस्थानों से आगति करते हैं(१) पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होता हुआ पृथिवीकायिकों से, अप्कायिकों से, तेजस्कायिकों से, वायुकायिकों से, वनस्पतिकायिकों से, या त्रसकायिकों से आकर उत्पन्न होता है।
वही पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिक पर्याय को छोड़ताहुआ पृथिवीकायिकों में, (अप्कायिकों, - तेजस्कायिकों, वायुकायिकों व वनस्पतिकायिकों में) या त्रसकायिकों में जाकर उत्पन्न होता है। १०. इसी
प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीव छह स्थानों में गति तथा छह स्थानों से आगति करते हैं।
9. Prithvikayik jiva (earth-bodied beings) have six kinds of gatis (reincarnation to) and six aagatis (reincarnation from)-A being taking birth as an earth-bodied being reincarnates from either earth-bodied
beings, water-bodied beings, fire-bodied beings, air-bodied beings, plant6 bodied beings or mobile-bodied beings.
The same earth-bodied being leaving the state of earth-bodied being 5 reincarnates in the genus of either earth-bodied beings, water-bodied
beings, fire-bodied beings, air-bodied beings, plant-bodied beings or mobile-bodied beings. 10. In the same way water-bodied beings, fire- bodied beings, air-bodied beings, plant-bodied beings or mobile-bodied beings also have six kinds of gatis (reincarnation to) and six aagatis (reincarnation from). जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF BEINGS)
११. छविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-आभिणिबोहियणाणी, [ सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी ], केवलणाणी, अण्णाणी।
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गा गगनगामा
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षष्ठ स्थान
(223)
Sixth Sthaan
15岁牙牙牙牙牙步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步园
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अहवा-छविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिया, [ बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया ], . पंचिंदिया, अणिंदिया।
___ अहवा-छव्विहा सबजीवा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरी, वेउब्वियसरीरी, आहारगसरीरी, तेअगसरीरी, कम्मगसरीरी, असरीरी।
११. सब जीव छह प्रकार के हैं-(ज्ञान की अपेक्षा) (१) आभिनिबोधिकज्ञानी, [(२) श्रुतज्ञानी, (३) अवधिज्ञानी, (४) मनःपर्यवज्ञानी], (५) केवलज्ञानी और (६) अज्ञानी (मिथ्याज्ञानी)। ___ अथवा-सब जीव छह प्रकार के हैं। (इन्द्रियों की अपेक्षा) (१) एकेन्द्रिय, (२) द्वीन्द्रिय, (३) त्रीन्द्रिय, (४) चतुरिन्द्रिय, (५) पंचेन्द्रिय, (६) अनिन्द्रिय (सिद्ध)। ____ अथवा-सब जीव छह प्रकार के हैं। (शरीर की अपेक्षा) (१) औदारिकशरीरी, (२) वैक्रियशरीरी, (३) आहारकशरीरी, (४) तैजसशरीरी, (५) कार्मणशरीरी और (६) अशरीरी (मुक्तात्मा)। 11. All beings are of six kinds in terms of knowledge)- 4
linibodhik jnani, (2) shrut-jnani, (3) avadhi-jnani, (4) manahparyav i jnani, (5) Keval-jnani and (6) ajnani (having false knowledge).
Also all beings are of six kinds (in terms of sense organs)- Si (1) Ekendriya (one-sensed beings), (2) Duindriya (Two-sensed beings),
(3) Trindriya (three-sensed beings), (4) Chaturindriya (four-sensed 5 beings), (5) Panchendriya-tiryagyonik (five-sensed animal beings) and 5 41 (6) Anindriya (without sense organs; Siddha).
Also all beings are of six kinds (in terms of bodies)-(1) audarik shariri (having gross physical body), (2) vaikriya shariri (having transmutable body), (3) aharak shariri (having telemigratory body), (4) taijas shariri (having fiery body), (5) karman shariri (having karmic
ody) and (6) ashariri (without a body; liberated soul).
तृणवनस्पति-पद TRINA-VANASPATI-PAD (SEGMENT OF GRAMINEOUS PLANTS) ॐ १२. छबिहा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा-अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया,
खंधबीया, बीयरुहा, संमुच्छिमा। 卐 १२. तृण-वनस्पतिकायिक जीव छह प्रकार के हैं-(१) अग्रबीज (बाजरा-गेहूँ आदि), + (२) मूलबीज (आलू आदि), (३) पर्व बीज (गन्ना, बाँस आदि), (४) स्कन्ध बीज (गुलाब आदि कलम ॐ वाले पौधे) (५) बीजरुह (बीज से उत्पन्न होने वाले) और (६) सम्मूर्छिम (बिना बीज के उत्पन्न होने ॥
वाला घास आदि) 5 12. Trin-vanaspatikayik jiva (gramineous or gross plant-bodied 4 beings) are of six kinds—(1) agra-beej-those which grow when the tip is | स्थानांगसूत्र (२)
(224)
Sthaananga Sutra (2)
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पर्व बीज
बादर वनस्पति काय के भेद
मूल बीज
बांस
आलू
गन्ना
अग्रबीज
प्याज
मक्का स्कंध बीज
बीज रूह
सम्मूर्छिम
फूल
घास
कलम
भिंडी
SR
दिर वनस्पति के
पुष्प
(प्रवाल) कोपलें
SHWS
स्कध
कन्द
फल
त्वक (छाल)
बीज
मूल
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चित्र परिचय ८
बादर वनस्पतिकाय
वनस्पतिकायिक जीवों के मुख्य छह प्रकार हैं
(१) अग्र बीज जिनका बीज उनके अग्र भाग में हो जैसे गेहूँ, बाजरा, मक्का आदि। बीज - जिनका मूल में बीज हो । जैसे- आलू, प्याज आदि ।
(२) मूल (३) पर्व बीज - जिनके पर्व में बीज हो । जैसे- गन्ना, बाँस आदि ।
(४) स्कंध बीज - जिनके स्कन्ध (गाँठ) में बीज हो, जिनकी कलम लगती है। जैसे-गुलाब आदि ।
(५) बीज रूह - जिनकी उत्पत्ति बीज से हो ।
(६) सम्मूर्च्छिम - तृण, घास आदि जो बीज न होने पर भी उत्पन्न होती है।
Illustration No. 8
बादर वनस्पतिकाय के दस भेद हैं
जैसे एक विशाल वृक्ष को देखने से पता चलता है, उसकी जड़ से बीज तक दस अंग
हैं
- स्थान ६, सूत्र १२
(१) मूल - जड़, (२) कन्द - जड़ से ऊपर का भाग और स्कंध से नीचे का भाग, (३) स्कन्ध- जहाँ से शाखाएँ निकलती हैं, (४) त्वक्-छाल, (५) शाखा-तना, डालियाँ, (६) प्रवाल- अंकुर या कोपलें, (७) पत्र, (८) पुष्पफूल, (९) फल, और (१०) बीज ।
GROSS PALNT-BODIED BEINGS
There are six main categories of plant-bodied beings
(1) Agra-beej-those which grow when the tip is planted, such as millet, corn and wheat.
-स्थान १०, सूत्र १५५
(2) Mool-beej— those which grow when the root-bulb is planted like potatoes and onions.
(3) Parva-beej-those which grow when the knot is planted like sugar-cane and bamboo.
(4) Skandh-beej-those which grow when the branch is planted like roses. (5) Beej-ruha-those which grow from seeds.
(6) Sammurchhim-those which grow without seeds, such as wild grass. -Sthaan 6, Sutra 12
There are ten parts of plant-bodied beingsWhen we see a large tree we find that from roots to seeds it has ten parts
(1) mool (root), (2) kand (bulbous root or portion between roots and trunk), (3) shandh (trunk from where it divides into branches), (4) toak (bark), (5) shakha (branch), (6) praval (sprout), (7) patra (leaf), (8) pushp (flower), (9) phal (fruit), and (10) beej (seed).
-Sthaan 10, Sutra 155
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planted, such as millet and wheat. (2) Mool-beej-those which grow when the root-bulb is planted like potatoes. (3) Parva-beej—those which 45 grow when the knot is planted like sugar-cane and bamboo, (4) skandhbeej-those which grow when the branch is planted like roses. (5) Beej. ruha-those which grow from seeds. (6) Sammurchhim-those which grow without seeds, such as wild grass. नो सुलभ-पद NO SULABH-PAD (SEGMENT OF NOT EASY)
१३. छट्ठाणाई सबजीवाणं णो सुलभाई भवंति, तं जहा-माणुस्सए भवे। आरिए खेत्ते जम्म। सुकुले पच्चायाती। केवलीपण्णत्तस्स धम्मस्स सवणता। सुतस्स वा सद्दहणता। सद्दहितस्स वा पत्तितस्स वा रोइतस्स वा सम्मं काएणं फासणता।
१३. छह स्थान सब जीवों को प्राप्त होना सुलभ नहीं हैं-(१) मनुष्य भव, (२) आर्य क्षेत्र में जन्म, (३) सुकुल (धार्मिक कुल) में उत्पन्न होना, (४) केवलिप्रज्ञप्त धर्म का सुनना, (५) सुने हुए धर्म पर श्रद्धा करना तथा (६) श्रद्धा प्रतीति और रुचि किये गये धर्म का काय से सम्यक् स्पर्शना (आचरण करना)। __13. Six things are not easily available to all beings--(1) birth as a + human being, (2) birth in Arya kshetra (the land of Aryas), (3) birth in a noble religious) family, (4) to listen to the religion propagated by a Kevali, (5) to have faith on the so listened religion, and (6) to actually follow in practice properly (to follow the path of) the religion of one's faith, with awareness and interest. इन्द्रियार्थ-पद INDRIYARTH-PAD (SEGMENT OF SUBJECTS OF SENSE ORGANS)
१४. छ इंदियत्था पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियत्थे, [चक्खिंदियत्थे, घाणिंदियत्थे, जिभिंदियत्थे ], फासिंदियत्थे, णोइंदियत्थे।
१४. इन्द्रियों के अर्थ (विषय) छह हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रिय का अर्थ-शब्द, (२) चक्षुरिन्द्रिय का अर्थरूप, (३) घ्राणेन्द्रिय का अर्थ-गन्ध, (४) रसनेन्द्रिय का अर्थ-रस, (५) स्पर्शनेन्द्रिय का अर्थ-स्पर्श, (६) नोइन्द्रिय (मन) का अर्थ-श्रुत।
14. Indriyas (sense organs) have six arth (subjects)—(1) the subject of shrotrendriya (ear) is sound, (2) the subject of chakshu-indriya (eyes) is appearance, (3) the subject of ghranendriya (nose) is smell, (4) the subject of rasanendriya (taste-buds) is taste, (5) the subject of sparshanendriya (touch) is touch (6) the subject of noindriya (mind) is shrut (the religion propagated by Jinas).
विवेचन-पाँच इन्द्रियों के विषय तो नियत एवं सर्व-विदित हैं किन्तु मन का विषय नियत नहीं है। वह सभी इन्द्रियों के द्वारा गृहीत विषय का चिन्तन करता है, अतः सर्वार्थग्राही है। टीकाकार अभयदेव ॥
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Sixth Sthaan
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# सूरि ने लिखा है कि श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा मनोज्ञ शब्द सुनने से जो सुख होता है, वह तो श्रोत्रेन्द्रिय-जनित 卐 है, किन्तु इष्ट-चिन्तन से जो सुख मिलता है, वह नोइन्द्रिय-जनित है। चिन्तन, विचार आदि श्रुतज्ञान + का विषय है। (वृत्ति, भाग २ पृष्ठ ६०९)
Elaboration–The subjects of five sense organs are definite and known to all but that of mind is indefinite. Mind contemplates on everything that is experienced by sense organs and thus everything is its subject. Abhayadev Suri, the commentator (Tika), writes that the pleasure derived by listening to a sweet sound is provided by ears but the pleasure . derived by beneficial thoughts is provided by mind. Contemplation and reflection are subjects of shrut jnana (scriptural knowledge. (Vritti, part-2, p. 609) संवर असंवर-पद SAMVAR-ASAMVAR-PAD
(SEGMENT OF BLOCKAGE AND NON-BLOCKAGE OF INFLOW OF KARMAS) १५. छबिहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोतिंदियसंवरे, [चक्खिंदियसंवरे, घाणिंदियसंवरे, जिभिंदियसंवरे ] फासिंदियसंवरे, णोइंदियसंवरे। १६. छबिहे असंवरे पण्णत्ते, तं जहाॐ सोतिंदियअसंवरे, [ चक्खिंदियअसंवरे, घाणिंदियअसंवरे ], जिभिंदियअसंवरे), फासिंदियअसंवरे,
णोइंदियअसंवरे। 卐 १५. संवर छह प्रकार का है, जैसे-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-संवर, [(२) चक्षुरिन्द्रिय-संवर,
(३) घ्राणेन्द्रिय-संवर, (४) रसनेन्द्रिय-संवर], (५) स्पर्शनेन्द्रिय-संवर, (६) नोइन्द्रिय (मन) संवर। ॐ १६. असंवर छह प्रकार का है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, (३) घ्राणेन्द्रिय-असंवर, (४) रसनेन्द्रिय-असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-असंवर, (६) नोइन्द्रिय-असंवर।
15. Samvar (blockage of inflow of karmas or abstaining from indulgence in subjects of sense organs) is of six kinds-(1) shrotendriya samvar, (2) chakshurindriya samvar, (3) ghranendriya samvar, (4) rasanendriya samvar, (5) sparshendriya samvar and (6) noindriya samvar. 16. Asamvar (inflow of karmas or indulgence in subjects of sense
organs) is of six kinds-(1) shrotendriya asamvar, (2) chakshurindriya 卐 asamvar, (3) ghranendriya asamvar, (4) rasanendriya asamvar,
(5) sparshendriya asamvar and (6) noindriya asamvar. सात-असात पद SAAT-ASAAT-PAD (SEGMENT OF HAPPINESS AND SORROW)
१७. छबिहे साते पण्णत्ते, तं जहा-सोतिंदियसाते, [ चक्खिंदियसाते, घाणिंदियसाते, है जिभिंदियसाते, फासिंदियसाते ], णोइंदियसाते। १८. छबिहे असाते पण्णत्ते, तं जहा। सोतिंदियअसाते, जाव णोइंदियअसाते।
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१७. सात - (सुख) छह प्रकार का है - ( १ ) श्रोत्रेन्द्रिय-सुख, [ ( २) चक्षुरिन्द्रिय-सुख,
(३) घ्राणेन्द्रिय-सुख, (४) रसनेन्द्रिय-सुख, (५) स्पर्शनेन्द्रिय - सुख ], (६) नोइन्द्रिय- ( मन ) का सुख ।
१८. असात - (दुःख) छह प्रकार का है - ( १ ) श्रोत्रेन्द्रिय- असुख, [ ( २ ) चक्षुरिन्द्रिय- असुख, (३) घ्राणेन्द्रिय- असुख, (४) रसनेन्द्रिय- असुख ], (५) स्पर्शनेन्द्रिय- असुख, ] (६) नोइन्द्रिय- असुख ।
ததிதமிழகததமிமிமிமிமிமிமிமிழில்
asaat, (5) sparshendriya asaat and (6) noindriya asaat.
प्रायश्चित्त- पद PRAYASHCHIT-PAD (SEGMENT OF ATONEMENT)
5 विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे।
१९. छव्विहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे,
17. Saat (happiness or pleasure) is of six kinds-(1) shrotendriya saat (pleasure in listening ), ( 2 ) chakshurindriya saat, (3) ghranendriya saat, 卐 (4) rasanendriya saat, (5) sparshendriya saat and (6) noindriya saat. 卐 18. Asaat ( unhappiness or pain) is of six kinds - (1) shrotendriya asaat, फ
(2) chakshurindriya asaat, (3) ghranendriya asaat, (4) rasanendriya 5
(requiring both alochana and pratikraman) (4) requiring vivek (sagacity),
तदुभयारिहे,
फ (5) requiring vyutsarg (abstainment) and (6) requiring tap ( austerities).
5 (In tenth sthaan, aphorism 73 ten kinds of atonement have been listed with brief definitions.)
मनुष्य-पद MANUSHYA-PAD (SEGMENT OF HUMAN BEINGS)
२०. छव्हिा मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा- जंबूदीवगा, धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धगा, धायइसंडदीवपच्चत्थिमद्धगा, पुक्खवरदीवड्ढपुरत्थिमद्धगा, पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धगा, अंतरदीवगा ।
१९. प्रायश्चित्त छह प्रकार का है - (१) आलोचना - योग्य, (२) प्रतिक्रमण - योग्य, (३) तदुभय- फ्र
२०. मनुष्य छह प्रकार के होते हैं - ( १ ) जम्बूद्वीप में उत्पन्न, (२) धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्ध में उत्पन्न, (३) धातकीषण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में उत्पन्न, (४) पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में उत्पन्न, (५) पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में उत्पन्न, (६) अन्तद्वीपों में उत्पन्न ।
F षष्ठ स्थान
Б
योग्य, (४) विवेक - योग्य, (५) व्युत्सर्ग- योग्य, (६) तप - योग्य । ( दशम स्थान सूत्र ७३ पर प्रायश्चित्त 5 के दस भेद बताये हैं, वहीं पर इनकी संक्षिप्त परिभाषा भी दी है ।)
फ्र
अथवा मनुष्य छह प्रकार के होते हैं - ( १ ) कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्च्छिम मनुष्य, (२) अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्च्छिम मनुष्य, (३) अन्तद्वीपों में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्च्छिम
卐
19. Prayashchit ( atonement) is of six kinds - ( 1 ) requiring alochana फ्र
(criticism), (2) requiring pratikraman (critical review), (3) tadubhaya F
(227)
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Sixth Sthaan
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अहवा - छव्विहा मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा - संमुच्छिममणुस्सा - कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, 5 अंतरदीवगा, गब्भवक्कंतिअमणुस्सा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा।
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27 5 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5952
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फ्रं मनुष्य, (४) कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले गर्भज मनुष्य, (५) अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले गर्भज
5
5
5
मनुष्य, (६) अन्तद्वीपों में उत्पन्न होने वाले गर्भज मनुष्य ।
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20. Manushya (humans) are of six kinds-(1) born in Jambu Dveep,
(2) born in the eastern half of Dhatakikhand Dveep, ( 3 ) born in the western half of Dhatakikhand Dveep, (4) born in the eastern half of Pushkaravar Dveepardh, (5) born in the western half of Pushkaravar Dveepardh, and (6) born in Antar Dveeps ( middle islands).
२१. छव्हिा इड्ढमंता मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा - अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा,
विज्जाहरा ।
चारणा,
२१. (विशिष्ट) ऋद्धि वाले मनुष्य छह प्रकार के हैं - (१) अर्हन्त, (२) चक्रवर्ती, (३) बलदेव, (४) वासुदेव, (५) चारण, (६) विद्याधर ।
Also Manushya ( humans) are of six kinds – ( 1 ) sammurchhim
(of asexual origin) manushya born in karmabhumi (land of endeavour),
( 2 ) sammurchhim (of asexual origin) manushya born in akarmabhumi (land of inactivity), (3) sammurchhim (of asexual origin) manushya born
in Antar Dveep (middle islands ), ( 1 ) garbhaj (placental) manushya born 5 in karmabhumi (land of endeavour), (2) garbhaj (placental) manushya 5 born in akarmabhumi (land of inactivity), (3) garbhaj (placental) manushya born in Antar Dveep (middle islands).
(5) Chaaran and (6) Vidyadhar.
फ्र
21. Persons with (Vishisht) riddhi (wealth of paranormal abilities) are
5 of six kinds – (1) Arhant, (2) Chakravarti, (3) Baladeva, (4) Vasudeva, 5
की शक्ति प्राप्त होती है, वे विद्याचारण कहलाते हैं।
प्रवचन सारोद्धार द्वार ६८ में चारणऋद्धि के भी अनेक भेद बताये हैं । यथा - ( १ ) जंघाचारण- भूमि से चार अंगुल ऊपर गमन करने वाले । (२) अग्निशिखाचारण- अग्नि की शिखा का स्पर्श किये बिना उसके ऊपर गमन करने वाले । (३) श्रेणिचारण - पर्वतश्रेणि आदि का स्पर्श किये बिना उनके ऊपर गमन करने वाले । ( ४ ) फलचारण- वृक्षों के फलों को स्पर्श किये बिना उनके ऊपर गमन करने वाले ।
स्थानांगसूत्र (२)
विवेचन-अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव की ऋद्धि तो पूर्वभवोपार्जित पुण्य के प्रभाव से
प्राप्त होती है । वैतान्यनिवासी विद्याधरों की ऋद्धि कुलक्रमागत भी होती है और इस भव में भी विद्याओं 5 की साधना से प्राप्त होती है । किन्तु चारणऋद्धि महान् तपस्वी साधुओं की कठिन तपस्या से प्राप्त होती है । वृत्तिकार ने 'चारण' के अर्थ में 'जंघाचारण' और 'विद्याचारण' इन दो नामों का उल्लेख किया है। जिन्हें तप के प्रभाव से भूमि का स्पर्श किये बिना ही जल, जंघा, पुष्प आदि का आलम्बन लेकर अधर 45 गमनागमन की लब्धि प्राप्त होती है, वे जंघाचरण और विद्या की साधना से जिन्हें आकाश में गमनागमन
(228)
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Sthaananga Sutra ( 2 )
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ऋद्धिमान मनुष्य
LAVANAVANANAL
अरिहल
वासुदेव
क्लदव
चक्रवर्ती 23
चारण
आकाश गमन
जंघा चारण
धूम चारण
विद्याधर
कामरुपित्व
bio
DOCE
Jain Education Intem
www.jainellorary.org
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चित्र परिचय ९
99.99
ऋद्धिमान मनुष्य
विशिष्ट ऋद्धि वाले मनुष्य छह प्रकार के हैं
(१) अरिहंत देव, (२) चक्रवर्ती, (३) बलदेव, (४) वासुदेव, (५) चारण- (तपोजनित विशेष प्रकार के ऋद्धि सम्पन्न श्रमण, और (६) विद्याधर ।
चारण ऋद्धि अनेक प्रकार की होती है। जैसे
जंघाचारण-जंघा पर हाथ रखकर भूमि से चार अंगुल ऊपर चलने की शक्ति ।
धूमचारण-धुएँ के पीछे-पीछे गमन करने की शक्ति ।
श्रेणिचारण-पर्वत श्रेणि के ऊपर-ऊपर चलने की शक्ति |
आकाशगमन - पद्मासन आदि में बैठकर आकाश में गमन करने की क्षमता । कामरूपित्व-छोटे-बड़े मनचाहे रूप बनाने की क्षमता।
विद्याधर- कुल क्रमागत विद्या बल से आकाश आदि में गमन करने वाले।
Illustration No. 9
RIDDHIMAAN MANUSHYA
Persons with (Vishisht) riddhi (wealth of paranormal abilities) are of six kinds
(1) Arhant, (2) Chakravarti, (3) Baladeva, (4) Vaasudeva, (5) Chaaran (endowed with paranormal abilities acquired through austerities), and (6) Vidyadhar.
However, the chaaran powers are only acquired by ascetics highly austere ascetics through their vigorous austerities. Explaining the term chaaran, the commentator (Vritti) mentions two words janghachaaran and vidyachaaran. Those who acquire the ability to move about hovering with the support of water, thighs (in sitting posture), flower etc. are called janghachaaran. Those who acquire the capability to fly in the sky are called vidyachaaran.
- स्थान ६, सूत्र २१
Janghachaaran-the power to move about four Anguls above ground just by placing his palm on his thigh.
Dhoomchaaran-the power to move about with smoke without touching it. Shrenichaaran-the power to move about over mountain ranges without touching them.
Akashgaman-the power to move about in sky in different postures including lotus pose.
Kaamrupitva-the power to acquire desired forms, large or small.
Vidyadhar-those who have various special powers including movement in the sky. These are family-inherited powers.
-Sthaan 6, Sutra 21
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पर्यङ्कासन से बैठे हुए, या खड्गासन से अवस्थित रहते हुए पाँव टिकाये बिना ही विविध आसनों से आकाश में विहार करने वालों को आकाशगामिऋद्धि सम्पन्न कहा है।
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(५) पुष्पचारण - वृक्षों के पुष्पों को स्पर्श किये बिना उनके ऊपर गमन करने वाले । ( ६ ) मर्कट तन्तुचारण- मकड़ी के तन्तुओं को स्पर्श किये बिना उनके ऊपर चलने वाले । (७) जलचारण - जल को 5 5 स्पर्श किये बिना उसके ऊपर चलने वाले। (८) अंकुरचारण- वनस्पति के अंकुरों को स्पर्श किये बिना ऊपर चलने वाले । (९) बीजचारण - बीजों को स्पर्श किये बिना उनके ऊपर चलने वाले । (१०) धूमचारण-तिरछी या ऊँची गति वाले धूम का स्पर्श किये बिना उसकी गति के साथ चलने वाले इसी प्रकार वायुचारण, नीहारचारण, जलदचारण आदि चारणऋद्धि वालों के अनेक प्रकार हैं ।
विक्रियाऋद्धि के अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान, कामरूपित्व आदि अनेक भेद हैं।
तपऋद्धि के उग्र तप, दीप्त तप, तप्त तप, महाघोर, तपोघोर, पराक्रमघोर और ब्रह्मचर्य, ये सात भेद बताये हैं।
बलऋद्धि के मनोबली, वचनबली और कायबली, ये तीन भेद हैं । औषधऋद्धि के आठ भेद हैंआमर्श, श्वेल (श्लेष्म), जल्ल, मल, विट्, सर्वोषधि, आस्यनिर्विष, दृष्टिनिर्विष । रसऋद्धि के छह भेद हैं- क्षीरस्रवी, मधुस्रवी, सर्पिःस्रवी, अमृतस्रवी, आस्यनिर्विष और दृष्टिनिर्विष । क्षेत्रऋद्धि के दो भेद हैंअक्षीण महानस (भोजन) और अक्षीण महालय (आवास) । उक्त सभी ऋद्धियों का विस्तृत वर्णन प्रवचनसारोद्धार में है । विशेषावश्यकभाष्य में २८ ऋद्धियों का वर्णन है।
In the Pravachanasaroddhar (Dvar 68) many other categories of chaaran riddhi are mentioned. (1) Janghachaaran-who move about four Angul (width of a finger) above ground. (2) Agnishikhachaaran— who move over flames without touching them. (3) Shrenichaaran-who move about over mountain ranges without touching them. (4) Phali chaaran-who move about over trees without touching their fruits. (5) Pushp-chaaran-who move about over trees without touching their
षष्ठ स्थान
Elaboration-The special abilities of Arhant, Chakravarti, Baladeva and Vasudeva are acquired as fruits of meritorious karmas from the past birth. The powers of Vidyadhars dwelling at Vaitadhya mountain are genetic as well as self-acquired through specific practices. However, the 5 chaaran powers are only acquired by highly austere ascetics through their vigorous austerities. Explaining the term chaaran, the commentator (Vritti) mentions two words janghachaaran and vidyachaaran. Those who acquire the ability to move about hovering with the support of water, thighs (in sitting posture), flower etc. are called janghachaaran. Those who acquire the capability to fly in the sky are called vidyachaaran.
(229)
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Sixth Sthaan
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flowers. (6) Markat-tantuchaaran—who move about over cobwebs without touching them. (7) Jal-chaaran-who move about over water surface without touching it. (8) Ankur-chaaran—who move about over plant sprouts without touching them. (9) Beej-chaaran—who move about over seeds without touching them. (10) Dhoom-chaaran--who move about with flow of rising straight or spiraling smoke without touching it.
There are many other categories of individuals endowed with chaaran riddhi-vayuchaaran, neeharchaaran, jalad-chaaran etc.
Those who move in the sky in different yogic postures including paryankasan and khadgasan are called akash-gami riddhi sampanna.
There are several categories of vikriya riddhi (capability transmutation)-anima, mahima, laghima, garima, prapti, prakam vashitva, ishitva, apratighaat, antardhan, kaamrupitva etc.
There are seven categories of tap-riddhi (capability of observing austerities)—ugra tap, deept tap, tapt tap, mahaghor, tapoghor, parakram-ghor and brahmacharya..
Categories of other riddhis are as follows
Bal riddhi (capability related to power) is of three types-manobali, i vachan-bali and kayabali. Aushadh riddhi (capability related to
medicine) is of eight types-amarsh, shvel (shleshm), jalla, malla, vit, sarvoshadhi, aasyanirvish and drishtirvish. Rasa riddhi (capability related to taste) is of six types-kshirasravi, madhusravi, sarpihsravi, amrit-sravi, aasyanirvish and drishtirvish. Kshetra riddhi (capability related to area or volume) is of two types--akshina mahanas (related to food) and akshina mahalaya (related to abode). Detailed description of these special powers can be seen in Pravachanasaroddhar, Tiloyapannatti, Dhavala Tika, and Tattvarth Rajavartik. Visheshavashyak Bhashya also describes twenty eight riddhis.
२२. छविहा अणिढिमंता मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा-हेमवतगा, हेरण्णवतगा, हरिवासगा, रम्मगवासगा, कुरुवासिणो, अंतरदीवगा।
27. -3919 4916 JE Uchte -(9) 497 # 37488, () greca # 3799, \ (3) aftad #3949, (8) 7h00f #747, () garcit, (E) Batu # JAYETT
22. Persons devoid of riddhis (special powers) are of six kinds-- (1) born in Haimavat, (2) born in Hairanyavat, (3) born in Harivarsh, $i (4) born in Ramyakvarsh, (5) living in Kuru and (6) born in Antardveeps.
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FAITTEET (?)
(230)
Sthaananga Sutra (2)
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कालचक्र-पद KAAL-CHAKRA-PAD (SEGMENT OF CYCLE OF TIME)
२३. छबिहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तं जहा-सुसम-सुसमा, [सुसमा, सुसम-दूसमा, के दूसम-सुसमा, दूसमा ], दूसम-दूसमा। २४. छबिहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता, तं जहा-दुस्समदुस्समा, दुस्समा, [ दुस्सम-सुसमा, सुसम-दुस्समा, सुसमा] सुसम-सुसमा।
२३. अवसर्पिणी काल छह प्रकार का हैं-(१) सुषम-सुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषम-दुःषमा, , (४) दुःषम-सुषमा, (५) दुःषमा, (६) दुःषम-दुःषमा। २४. उत्सर्पिणी काल छह प्रकार का हैं-(१) दुःषमॐ दुःषमा, (२) दुःषमा, (३) दुःषम-सुषमा, (४) सुषम-दुःषमा, (५) सुषमा, (६) सुषम-सुषमा।
23. Avasarpini (regressive half-cycle of time) is of six kinds(1) Sukham-sukhama (epoch of extreme happiness), (2) Sukhama (epoch of happiness), (3) Sukham-dukhama (epoch of more happiness than sorrow), (4) Dukham-sukhama (epoch of more sorrow than happiness), (5) Dukhama (epoch of sorrow) and (6) Dukham-dukhama (epoch of extreme sorrow). 24. Utsarpini (progressive half-cycle of time) is of six kinds—(1) Dukham-dukhama (epoch of extreme sorrow), (2) Dukhama (epoch of sorrow), (3) Dukham-sukhama (epoch of more sorrow than happiness), (4) Sukham-dukhama (epoch of more happiness than sorrow), (5) Sukham (epoch of happiness) and (6) Sukham-sukhama (epoch of extreme happiness).
२५. जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसम-सुसमाए समाए मणुया छ धणुसहस्साइं उडमुच्चत्तेणं हुत्था, छच्च अद्धपलिओवमाई परमाउं पालयित्था। २६. जंबुद्दीवे दीवे . 9 भरहेरवएसु वासेसु इमीसे ओसप्पिणीए सुसम-सुसमाए समाए [ मणुया छ धणुसहस्साई है उड्डमुच्चत्तेणं पण्णत्ता, छच्च अद्धपलिओवमाइं परमाउं पालयित्था।] २७. जंबुद्दीवे दीवे भरेहरवएसु + वासेसु आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सुसम-सुसमाए समाए [ मणुया छ धणुसहस्साई उडमुच्चत्तेणं भविस्संति ], छच्च अद्धपलिओवमाइं परमाउं पालइस्संति।
२५. जम्बद्वीप नामक द्वीप में भरत-ऐरवत क्षेत्र की अतीत उत्सर्पिणी के सुषम-सुषमा काल में 5 मनुष्यों की ऊँचाई छह हजार धनुष की थी और उनकी उत्कृष्ट आयु छह अर्ध पल्योपम अर्थात् तीन ॐ पल्योपम की थी। २६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत-ऐरवत क्षेत्र की वर्तमान अवसर्पिणी के के
सुषम-सुषमा काल में मनुष्यों की ऊँचाई छह हजार धनुष की थी और उनकी छह अर्धपल्योपम की
उत्कृष्ट आयु थी। २७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत-ऐरवत क्षेत्र की आगामी उत्सर्पिणी के 卐 सुषम-सुषमा काल में मनुष्यों की ऊँचाई छह हजार धनुष होगी और वे छह अर्धपल्योपम के (तीन पल्योपम) उत्कृष्ट आय का पालन करेंगे।
25. In Jambu Dveep in Bharat and Airavat areas the height of humans of Sukham-sukhama ara (epoch of extreme happiness) of the
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षष्ठ स्थान
(231)
Sixth Sthaan
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past Utsarpini (progressive cycle of time) was six thousand Dhanush and फ्र their maximum life span was six half-Palyopam (three Palyopam) (a metaphoric unit of time). 26. In Jambu Dveep in Bharat and Airavat areas the height of humans of Sukham-sukhama ara (epoch of extreme happiness) of the present Avasarpini (regressive cycle of time) was six thousand Dhanush and their maximum life span was six half-Palyopam 卐 (three Palyopam) (a metaphoric unit of time ). 27. In Jambu Dveep in Bharat and Airavat areas the height of humans of Sukham-sukhama ara (epoch of extreme happiness) of the future Utsarpini (progressive cycle of time) will be six thousand Dhanush and their maximum life span will be six half-Palyopam (three Palyopam) (a metaphoric unit of time).
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२८. जंबुद्दीवे दीवे देवकुरु - उत्तरकुरुकुरासु मणुया छ धणुस्साहस्साइं उडुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, छच्च अद्धपलिओ माई परमाउं पालेंति । २९. एवं धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे चत्तारि आलावगा जाव पुक्खरवरदीवढपच्चत्थिमद्धे चत्तारि आलावगा ।
२८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्यों की ऊँचाई छह हजार धनुष की है। और वे छह अर्धपल्योपम उत्कृष्ट आयु का पालन करते हैं । २९. इसी प्रकार धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध तथा अर्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी मनुष्यों की ऊँचाई छह हजार धनुष और उत्कृष्ट आयु छह अर्धपल्योपम की जम्बूद्वीप के चारों आलापकों के समान है।
फ
28. In Jambu Dveep in Devakuru and Uttar-kuru areas the height of humans is six thousand Dhanush and their maximum life span is six half
5 Palyopam (three Palyopam) (a metaphoric unit of time). 29. In the same way in eastern and western halves of Dhatakikhand Dveep and Ardhapushkaravar Dveep the height of humans is six thousand Dhanush and their maximum life span is six half-Palyopam (three Palyopam) (a 卐 metaphoric unit of time) like the four statements regarding Jambu Dveep. संहनन - पद SAMHANAN PAD (SEGMENT OF BODY CONSTITUTION)
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३०. छव्विहे संघयणे पण्णत्ते, तं जहा - वइरोस भणारायसंघयणे, उसभणारायसंघयणे, णारायसंघयणे, अद्धणारायसंघयणे, खीलियासंघयणे, छेवट्टसंघयणे ।
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30. Samhanan (body constitution) is of six kinds -- (1) Vajra rishabh 5 naaraach samhanan, (2) Rishabh naaraach samhanan, (3) Naaraach samhanan, (4) Ardh naaraach samhanan, (5) Kilika samhanan and F (6) Sevart samhanan.
स्थानांगसूत्र (२)
३०. संहनन छह प्रकार का होता है- (१) वज्र ऋषभ नाराच संहनन, (२) ऋषभ नाराच संहनन, (३) नाराच संहनन, (४) अर्द्ध नाराच संहनन, (५) कीलिका संहनन, (६) सेवार्त संहनन ।
(232)
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Sthaananga Sutra (2)
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5
ததததததததததததததததமிமிமிமிமிமிதிமிதிததமிமிமிதததி
संस्थान - पद SANSTHAN PAD (SEGMENT OF BODY STRUCTURE)
३१. छव्विहे संटाणे पण्णत्ते, तं जहा - समचउरंसे, णग्गोहपरिमंडले, साई, खुज्जे, वामणे, हुंडे ।
卐
३१. संस्थान छह प्रकार का होता है - ( १ ) समचतुरस्र - संस्थान, (२) न्यग्रोधपरिमंडल - संस्थान, 5 (३) सादि संस्थान, (४) कुब्ज - संस्थान, (५) वामन - संस्थान, (६) हुण्डक - संस्थान ।
卐
(२) ऋषभ नाराच संहनन - जिस शरीर की हड्डियों का गठन तो उक्त प्रकार का हो, परन्तु बीच में
है । (३) नाराच संहनन - जिस शरीर की हड्डियाँ दोनों ओर से केवल मर्कट बँध युक्त हों। इस संहनन बारहवें देवलोक तक जा सकता है। (४) अर्द्ध नाराच संहनन - जिस शरीर का हड्डियाँ एक
वाला
ओर
5
31. Samsthan (body structure ) is of six kinds – ( 1 ) Samchaturasra samsthan, (2) Nyagrodh-parimandal samsthan, ( 3 ) Sadi samsthan, 卐 (4) Kubj samsthan, (5) Vaaman samsthan and (6) Hundak samsthan. विवेचन - (१) वज्र ऋषभ नाराच संहनन - संहनन का अर्थ है - शरीर में हड्डियों का विशेष प्रकार का
卐
गठन | यह केवल औदारिक शरीर में ही होता है। वज्र अर्थात् कीलिका, जो शरीर की प्रत्येक संधि को जोड़ती है। ऋषभ का अर्थ है - परिवेष्टन - पट्ट और नाराच का अर्थ है दोनों ओर का मर्कट बंध । अर्थात् 5
वज्र के समान हड्डी की कील से बँधा सुदृढ़ हड्डियों वाला शारीरिक गठन-वज्र ऋषभ नाराच संहनन है। हड्डी की मजबूती ही शक्ति का आधार है । सशक्त शरीर वाला साधक ही कर्मों को विशेष रूप में फ तोड़ने में समर्थ होता । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चरमशरीरी एवं युगलिया वज्र ऋषभ नाराचन संहनन वाले होते हैं।
इसी प्रकार अशुभ कर्म करने पर पहली, दूसरी नरक तक छहों संहनन वाले, तीसरी में प्रथम पाँच वाले, चौथी में चार संहनन वाले, पाँचवीं में तीन, छठी में दो तथा सातवीं में केवल प्रथम संहनन वाले जीव जा सकते हैं। विस्तृत वर्णन के लिए भगवती सूत्र शतक २४ देखें ।
संस्थान - शरीर की रचना या आकार को संस्थान कहते हैं। सभी जीवों को इन छह संस्थानों में सम्मिलित किया गया है - ( १ ) समचतुरस्र - संस्थान -सम का अर्थ है समान, चतुः का अर्थ है चारों ओर, 'अस्त्र' शब्द का अर्थ है कोण । जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत हों, शरीर की ऊँचाई, चौड़ाई, मोटाई, वजन, ये सब ठीक प्रमाण वाले हो, कोई अवयव न्यून - अधिक न हो, ऐसे संस्थान को "सम - चतुरस्र" कहते हैं । (२) न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान - जिस संस्थान मे नाभि से ऊपर का भाग सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए शरीर-परिमाण के अनुकूल हो और नीचे का भाग हीन अवयवों वाला हो
फ्र
वज्र समान कीलिका जिसमें न हो। इस संहनन वाला अधिक से अधिक ग्रैवेयक देवलोक तक जा सकता 5
षष्ठ स्थान
2 95 95 95 95 95 59595959595959595555959595959 5955 59559 5552
मर्कट बंध वाली हों, दूसरी ओर कीलिका वाली हो। इसकी उत्कृष्ट गति आठवें देवलोक तक हो सकती
हैं । (५) कीलिका संहनन - जिस संहनन में हड्डियाँ केवल कील से जुड़ी हों। इसकी उत्कृष्ट गति छठा देवलोक तक है। (६) सेवार्त संहनन - जिस शरीर की हड्डियाँ परस्पर मिली हुई हों और जिन्हें तैल 5 मालिश आदि की जरूरत रहती हो। इस संहनन वाला उत्कृष्ट चौथे देवलोक तक जा सकता है।
फ्र
(233)
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Sixth Sthaan
卐
卐
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ॐ उसे "न्यग्रोध-परिमण्डल-संस्थान' कहते हैं। (३) सादि संस्थान-जिस संस्थान में नाभि से नीचे का
भाग परिपूर्ण हो और ऊपर का भाग परिमाण से न्यून या अधिक हो, वह सादि संस्थान माना जाता है। 9 (४) कुब्ज-संस्थान-जिस संस्थान में हाथ, पैर, गर्दन और सिर आदि अवयव तो ठीक हों, किन्तु ॥
पीठ, पेट, छाती आदि टेढ़े-मेढ़े हों उसे कुब्ज संस्थान कहते हैं। (५) वामन-संस्थान-जिस आकार में 5 * छाती, पीठ, पेट आदि अवयव तो ठीक हों, किन्तु ऊँचाई अत्यन्त कम हो, उस बौनी आकृति को ॐ वामन-संस्थान कहते हैं। (६) हुण्ड-संस्थान-जिसका शरीर सब तरह से बेढब एवं बेडौल हो, शरीर के सभी अवयव न्यून-अधिक हों, उसे हुण्ड-संस्थान कहते हैं।
कोई भी संस्थान परमपद को पाने में बाधक नहीं होता, किन्तु उत्तम सुदृढ़ संस्थान व संहनन के बिना संयम की कठोर साधना व तप एवं उपसर्गों को सहने की क्षमता प्राप्त नहीं होती।
Elaboration-(1) Vajra-rishabh-narach samhanan-The skeletal constitution of body is called samhanan. This only relates to audarik sharir (gross physical body). Vajra means peg-like bone that joins two or
more bones. Rishabh means socket or grove-like bone. Naaraach means 4 monkey-joint (two bones joint as snug and perfect as an infant monkey
holds its mother close). Thus Vajra-rishabh-narach samhanan means an extremely strong skeletal constitution with strong bones and perfect
joints. Strength of a body is dependent on the strength of its skeletal $i constitution. Only an aspirant with strong body is capable of destroying i
karmas to a great extant. Tirthankars, Chakravartis, Baladevas, Vasudevas, Charam-shariris (who are destined to be liberated during this birth) and Yugaliyas (twins) have this constitution.
(2) Rishabh naaraach samhanan-Aforesaid body constitution but devoid of the peg like bone in skeletal joints. A person having this constitution can go up to Graiveyak divine realm and not beyond. (3) Naaraach samhanan-A body constitution having only monkeyjoints. A person having this constitution can go up to twelfth divine realm and not beyond. (4) Ardh naaraach samhanan--A body
constitution with monkey-joint on one side of a bone and peg-joint on 'i the other. A person having this constitution can go up to eighth divine si
realm and not beyond. (5) Kilika samhanan-A body constitution exclusively with peg-joints. A person having this constitution can reach up to sixth divine realm and not beyond. and (6) Sevart samhananA body constitution with common joints and often requiring oil massage. A person having this constitution can go up to fourth divine realm and not beyond.
स्थानांगसूत्र (२)
(234)
Sthaananga Sutra (2) |
895955 5555555555555558
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ऋषभ नाराच
2
7
407
3
समचतुरस्र
नाराच
कुब्ज
4
वामन
5
संहनन
वज्र ऋषभ नाराच
अर्द्ध
नाराच
न्यग्रोध परिमंडल
5
3
कीलिका
6
हुण्डक
ALAN
सेवार्त
6
सादि
10
.
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चित्र परिचय १० ।
Illustration No. 10
संहनन और संस्थान - हड्डियों के गठन को संहनन कहा जाता है। यह छह प्रकार का है
(१) वज्रऋषभ नाराच संहनन, (२) ऋषभ नाराच संहनन, (३) नाराच संहनन, (४) अर्द्ध-नाराच संहनन, (५) कीलिका संहनन, और (६) सेवा संहनन।
शरीर की आकार रचना को संस्थान कहते हैं। यह छह प्रकार का होता है(१) समचतुरस्र संस्थान, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल, (३) सादि संस्थान, (४) कुब्ज संस्थान, (५) वामन संस्थान, और (६) हुण्डक संस्थान। (इनका विस्तृत अर्थ विवेचन में देखें)
-स्थान ६, सूत्र ३०/३१
SAMHANAN AND SANSTHAN Samhanan (body constitution or skeletal structure) is of six kinds
(1) Vajra rishabh naaraach samhanan, (2) Rishabh naaraach samhanan, (3) Naaraach samhanan, (4) Ardh naaraach samhanan, (5) Kilika sumhanan, and (6) Sevart samhanan.
Samsthan (body structure or overall shape) is of six kinds
(1) Samchaturasra samsthan, (2) Nyagrodhaparimandal samsthan, (3) Sadi samsthan, (4) Kubja samsthan, (5) Vaman samsthan, and (6) Hundak samsthan. (for detailed description see elaborations)
-Sthaan 6, Sutra 30/31
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455 456 457 45454545454545454545454545
4545454545454545454545454545454545454545454555 $ 4 5 $1$$$45 46 45 46 412
In the same way on indulging in evil deeds a person with any of the six said constitutions can fall into first and second hell and not lower. One with any of the first five constitutions can fall into the third hell and not lower. One with any of the first four constitutions can fall into the
fourth hell and not lower. One with any of the first three constitutions 41 - can fall into the fifth hell and not lower. One with any of the first two 4
constitutions can fall into the sixth hell and not lower. One with the first constitutions alone can fall into the first hell. For more details refer to Bhagavati Sutra, Shatak 24.
Samsthan-Structure of the body is called samsthan. The said six types of structures cover all beings. (1) Samachaturasra SamsthanSam means same or equal and asra means angle. An anatomical structure of a human being where all the parts of body above and below the navel are of standard dimensions (length, breadth, thickness and
weight). The dimensions increase and decrease proportionately. 4 (2) Nyagrodhaparimandal Samsthan-Nyagrodh means a banyan tree
An anatomical structure similar to the shape of a banyan tree is called Nyagrodhaparimandal Samsthan. Like a banyan tree it is much broader and developed above the navel and comparatively lean and underdeveloped below. (3) Sadi Samsthan-An anatomical structure fully developed below the navel and under-developed above the navel is called Sadi Samsthan.
(4) Kubja Samsthan-An anatomical structure where torso is weak and deformed and remaining parts including limbs and head are normal is called Kubja Samsthan. For instance a hunchback. (5) Vaman Samsthan-An anatomical structure with a proportionate
torso but smaller limbs is called Vaman Samsthan. For instance a dwarf. 151 (6) Hunda Samsthan-An anatomical structure having deformities in every part of the body is called Hunda Samsthan.
It is not that any of these body structures prevents liberation, but in absence of good and strong constitution and structure it is not possible to acquire capacity to indulge in rigorous spiritual practices and endure afflictions. (for detailed description of six samsthans refer to Illustrated Anuyogadvar Sutra, part-1, aphorisms 206 and 214 as well as illustrations 14 and 15)
455 456 457 454 455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 457 458 455 456 457 455 456 457 454 455 456 457 458 455 456 457 454
$$$$$$454 455 456 457 455 456 457 454 455 456 455 456 457 454 455 456 45 44
4
455 455 456 457 455 456 457 455 456 457 45
षष्ठ स्थान
(235)
Sixth Sthaan
24 45 46 45 45 45 45 45 456 457 4541414141414141414141414141414141414141414141414141
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फ
5
5 अनात्मवान्- आत्मवान्- पद ANATMAVAN ATMAVAN-PAD
फ्र
३२. छट्टाणा अणत्तवओ अहिताए असुभाए अखमाए अणीसेसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा - परियार, परियाले, सुते, तवे, लाभे, पूयासक्कारे। ३३. छट्टाणा अत्तवतो हिताए ( सुभाए खमाए णीसेसाए) आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा- परियाए, परियाले, (सुते, तवे, लाभे) पूयासक्कारे।
(SEGMENT OF NON-SPIRITUALIST AND SPIRITUALIST)
३२. अनात्मवान् के लिए छह स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस् अनानुगामिकता (आगामी भव के लिए अशुभानुबन्ध वाले) के लिए होते हैं - ( १ ) पर्याय - अवस्था या दीक्षा में बड़ा होना, (२) परिवार, (३) श्रुत, (४) तप, (५) लाभ, (६) पूजा - सत्कार | ३३. आत्मवान् के लिए छह स्थान फ्र हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस् और आनुगामिकता ( शुभानुबन्ध) के लिए होते हैं - ( १ ) पर्याय, (२) परिवार, (३) श्रुत, (४) तप, (५) लाभ, (६) पूजा - सत्कार |
विवेचन- जिसको अपनी आत्मा का अनुभव हो गया है और जिसका अहंकार-ममकार दूर हो गया वह आत्मवान् है । इसके विपरीत अनात्मवान् है ।
32. For an anatmavan (non-spiritualist) six things are ahitkar (harmful), ashubh (bad), aksham (improper), anihshreyash (disadvantageous) and ananugamik (cause of demeritorious bondage for future life)—(1) paryaya (to be senior in initiation or age), (2) parivar 5 (family), (3) shrut ( scriptures), (4) tap ( austerities), (5) laabh (gains) and फ्र (6) puja-satkar (worship and honour). 33. For an atmavan (spiritualist) six things are hitakar (beneficial), shubh (good), ksham ( proper ), nihshreyash (advantageous) and ananugamik (cause of liberation in future life)- (1) paryaya (to be senior in initiation or age), (2) parivar फ्र ( family), (3) shrut ( scriptures), (4) tap ( austerities), (5) laabh (gains) and 5 (6) puja-satkar (worship and honour).
अनात्मवान् व्यक्ति के लिए दीक्षा - पर्याय या अधिक अवस्था, शिष्य या कुटुम्ब परिवार, श्रुत, तप और पूजा - सत्कार की प्राप्ति से लोकैषणा, ज्ञान से अहंकार, तप से क्रोध, लाभ से लोभ या ममत्व उत्तरोत्तर बढ़ता है, उससे वह दूसरों को हीन, अपने को महान् समझने लगता है। इस कारण से सब उत्तम योग भी उसके लिए पतन के कारण हो जाते हैं। किन्तु आत्मवान् के लिए उक्त छहों स्थान उत्थान और आत्म-विकास के कारण होते हैं, क्योंकि ज्यों-त्यों उसमें तप श्रुत आदि की वृद्धि होती है, त्योंत्यों वह अधिक विनम्र एवं उदार होता जाता है।
Elaboration-One who has had spiritual experience of self realization and who is devoid of conceit and ego (fondness for the self) is called atmavan. Opposite of this is anatmavan.
स्थानांगसूत्र (२)
(236)
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फफफफफफफफ
Sthaananga Sutra (2)
- 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552
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555555555555555555555555555555555555
For a non-spiritualist to be senior in initiation or age, and to possess family including that of disciples, scriptural knowledge, austerities, gains, worship and honour are causes of ever increasing ambitions, conceit, anger, greed and attachment. Consequently he considers himself to be great and others to be lowly. Thus these excellent associations turn into causes of his fall. But for a spiritualist all these become cause of development and spiritual progress because of the fact that with
increase in knowledge and austerities he becomes more and more 4 humble and generous. म आर्य-पद ARYA-PAD (SEGMENT OF ARYA) ३४. छव्विहा जाइ-आरिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा
अंबट्ठा य कलंदा य, वेदेहा वेदिगादिया।
हरिता चुंचुणा चेव, छप्पेता इन्भजातिओ॥१॥ संग्रहणी-गाथा ___३५. छबिहा कुलारिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा-उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाता, कोरबा।
३४. जाति से आर्यपुरुष छह प्रकार के हैं-(१) अंबष्ठ, (२) कलन्द, (३) वैदेह, (४) वैदिक, ॐ (५) हरित, (६) चुंचुण, ये छहों इभ्यजाति के मनुष्य हैं।
३५. कुल से आर्य मनुष्य छह प्रकार के है-(१) उग्र, (२) भोज, (३) राजन्य, (४) इक्ष्वाकु, ज्ञात, (६) कौरव।
34. In the context of jati Arya purush (men belonging to noble maternal lineage) are of six kinds-(1) Ambasht, (2) Kaland, (3) Videha, (4) Vaidik, (5) Harit and (6) Chunchun. All these are people of Ibhya jati (affluent families).
35. In the context of kula Arya purush (men belonging to noble ॐ paternal lineage) are of six kinds—(1) Ugra, (2) Bhoj, (3) Rajanya,
(4) Ikshvaku, (5) Jnata and (6) Kaurava. E विवेचन-मातृ-पक्ष को जाति कहते हैं। जिन का मातृपक्ष निर्दोष और पवित्र होता हैं, वे पुरुष 卐 जात्यार्य कहलाते हैं। अमर-कोष के अनुसार वैश्य माता और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न हुई सन्तान को फ़
अम्बष्ठ, तथा ब्राह्मणी माता और वैश्य पिता से उत्पन्न हुई सन्तान वैदेह कहलाती है। चुंचुण का कोषों में 5 * कोई उल्लेख नहीं है, यदि इसके स्थान पर कुंकुण पद की कल्पना की जावे तो ये कोंकण देशवासी जाति म के हैं, जिनमें मातृपक्ष की आज भी प्रधानता है। कलंद और हरित जाति भी मातृपक्ष प्रधान रही है। के
मातृपक्ष की प्रधानता संतति में विनीतता और लज्जालुता तथा पितृपक्ष की प्रधानता वीरता व बुद्धिमत्ता के प्रकट करती है।
85555555555555555)))))))))))55555555555555558
षष्ठ स्थान
(237)
Sixth Sthaan
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卐 卐
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தமிழகத*******தததததததததத*************தி संग्रहणी गाथा में इन छहों को 'इभ्यजातीय' कहा है। ईभ का अर्थ हाथी होता है । वृत्तिकार के
अनुसार जिसके पास धन-राशि इतनी ऊँची हो कि जिसके समक्ष सूँड़ को ऊँची किया हुआ हाथी भी न
दिख सके, उसे इभ्य कहा जाता था । इभ्य की इस परिभाषा से इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि ब्राह्मण,
क्षत्रिय और शूद्रजातीय माता वैश्य पिता से उत्पन्न सन्तान से इन इभ्य जातियों के नाम पड़े हैं। क्योंकि व्यापार करने वाले वैश्य सदा से ही धन-सम्पन्न रहे हैं ।
पितृपक्ष को 'कुल' कहा जाता है। छह कुल आर्यों का विवरण इस प्रकार है- ( १ ) उग्र- भगवान ऋषभदेव ने आरक्षक या कोट्टपाल के रूप में जिनकी नियुक्ति की थी, वे उग्र नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी 5 सन्तान भी उग्रवंशीय कहलाने लगी । (२) भोज - गुरुस्थानीय क्षत्रियों के वंशज । ( ३ ) राजन्य - मित्रस्थानीय
卐
फ्र
क्षत्रियों
के वंशज । ( ४ ) इक्ष्वाकु - भगवान ऋषभदेव के वंशज । (५) ज्ञात - भगवान महावीर के वंशज | 5 (६) कौरव - कुरुवंश में उत्पन्न शान्तिनाथ तीर्थंकर के वंशज । इन छहों कुलार्यों का सम्बन्ध क्षत्रियों से रहा है। इनका विस्तृत वर्णन देखें- 'ठाणं' पृष्ठ, ६९४)
फ्र
Paternal lineage is called Kula. Details about six Aryas by Kula areUgra-People appointed as guards or guardians of forts became as Ugra. Their descendents were called Ugra vamshiya.
Elaboration-Maternal lineage is called jati. People having faultless and pious maternal lineage are called jatyarya (noble by jati). According to Amarkosh an offspring of a Vaishya (the third caste in the traditional Hindu caste-hierarchy) mother and Brahmin (the first caste in the 5 traditional Hindu caste- hierarchy) father is called Ambasht, that of a h Brahmin mother and Vaishya father is called Vaideha. The term chunchun does not find a mention in any lexicon. If it is transcribed as kunkun then it could mean inhabitants of Konkan country. Interestingly in that area maternal lineage is prominent even today. Kaland and Harit castes also follow maternal lineage. It is believed that with maternal dominance the offsprings have qualities like humility and shyness and with paternal dominance qualities like bravery and wisdom are prominent.
स्थानांगसूत्र (२)
255959595959595959595959595959595999999999959595959595 2
फ्र
In the collative verse these six people are called ibhyajatiya. Ibh means elephant. According to the commentator (Vritti) a person who has फ्र such a high heap of wealth that an elephant with raised trunk can hide behind it was called Ibhya. This definition of Ibhya clearly indicates that offsprings of Brahmin, Kshatriya and Shudra mothers sired by Vaishya father established Ibhya clans. This is because Vaishyas have always been affluent.
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(238)
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Sthaananga Sutra (2)
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(1) famous
( 2 ) Bhoj— Descendents of Kshatriyas who were respected as gurus 5
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2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 52
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055544 45 46 46 46 46 LE LE LE LE LE LLC LLC LCL LLLL
குழநதமிழமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமி*********
(seniors and teachers) of kings. ( 3 ) Rajanya - Descendents of Kshatriyas who enjoyed the position of friends of kings. (4) Ikshvaku-Descendents of Bhagavan Risabhadeva. (5) Jnata-Descendents of Bhagavan Mahavir. and (6) Kaurava-Descendents of Bhagavan Shantina ath of Kuru clan. These six noble clans are related to Kshatriyas (the second caste in the traditional Hindu caste-hierarchy). (for more details see Thanam, p. 694)
F
Н
लोकस्थिति - पद LOK-STHITI PAD (SEGMENT OF STRUCTURE OF UNIVERSE)
३६. छव्विहा लोगट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा - आगासपतिट्ठिते वाए, वातपतिट्ठिते उदही, उदधिपतिट्ठिता पुढवी, पुढविपतिट्ठिता तसा थावरा पाणा, अजीवा जीवपट्ठिता, जीवा कम्मपतिट्ठिता । ३६. लोक की स्थिति छह प्रकार की है - ( १ ) आकाश पर वात (तनुवात) प्रतिष्ठित है। (२) तनुवात पर उदधि (घनोदधि) प्रतिष्ठित है । (३) घनोदधि पर पृथिवी प्रतिष्ठित है । ( ४ ) पृथिवी स - स्थावर प्राणी प्रतिष्ठित हैं । (५) अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है । (६) जीव कर्मों पर प्रतिष्ठित है । (लोक स्थिति का चित्र भाग - १, स्थान ३ पर देखें)
पर
दिशा-पद DISHA-PAD (SEGMENT OF DIRECTIONS)
३७. छद्दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पाईणा, पडीणा, दाहिणा, उदीणा, उड्डा, अधा । ३८. छहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, तं जहा - पाईणाए, (पडीणाए, दाहिणाए, उदीणाए, उड्डाए), अधाए । ३९. (छर्हि दिसाहिं जीवाणं) - आगई, वक्कंती, आहारे, वुड्डी, णिवुड्डी, विगुब्वणा, गतिपरियाए, समुग्धाते, कालसंजोगे, दंसणाभिगमे, णाणाभिगमे, जीवाभिगमे अजीवाभिगमे [ पण्णत्ते, तं जहा - पाईणाए, पडीणाए, दाहिणाए, उदीणाए, उड्डाए अधाए ] ४०. एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि, मणुस्साणवि ।
36. Lok-sthiti (structure of universe) is six tiered-(1) vayu (air) is pratishthit (installed) on akash (space), (2) udadhi or ghanodadhi (dense F water) is pratishthit (installed) on vayu, (3) prithvi ( earth) is pratishthit
f
( installed) on ghanodadhi, ( 4 ) sthavar and tras pranis ( immobile and
H mobile beings) are pratishthit ( installed) on ( live on ) prithvi, ( 5 ) ajiva 5 (matter) is pratishthit (installed) on jiva (life) and (6) jiva ( living being) is pratishthit (installed on) karma. (see illustration of Lok-sthiti in F Sthananga Sutra, part - 1, Sthaan - 3 )
F
३७. दिशाएँ छह हैं - (१) प्राची (पूर्व), (२) प्रतीची (पश्चिम), (३) दक्षिण, (४) उत्तर, (५) ऊर्ध्व और (६) अधोदिशा । ३८. छहों दिशाओं में जीवों की गति होती है - (१) पूर्व दिशा में, (२) पश्चिम दिशा में, (३) दक्षिण दिशा में, (४) उत्तर दिशा में, (५) ऊर्ध्व दिशा में और (६) अधोदिशा में ।
षष्ठ स्थान
(239)
தமிழகமிமிமிமிததமிமிதிமிதிதத***********5
Sixth Sthaan
2 95 595 59595959595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 55 5 55 59595959 55 55 5 5 !
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)
३९. छहों दिशाओं में जीवों की आगति, अवक्रान्ति, आहार, वृद्धि, निवृद्धि, विकरण, गतिपर्याय, + समुद्घात, कालसंयोग, दर्शनाभिगम, ज्ञानाभिगम जीवाभिगम और अजीवाभिगम होता है-(१) पूर्वदिशा ॥
में, (२) पश्चिमदिशा में, (३) दक्षिणदिशा में, (४) उत्तरदिशा में, (५) ऊर्ध्वदिशा में और ॐ (६) अधोदिशा में। ४०. इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की और मनुष्यों की गति-आगति आदि के छहों दिशा में होती है।
37. Directions are six-(1) Praachi (east), (2) Pratichi (west), (3) Dakshin (south), (4) Uttar (north), (5) Urdhva (zenith) and (6) Adho '45 (nadir). 38. Jivas (souls or living beings) have gati (movement or reincarnation) in all the six directions—(1) in Praachi (east), (2) in Pratichi (west), (3) in Dakshin (south), (4) in Uttar (north), (5) in Urdhva (zenith) and (6) in Adho (nadir). 39. All beings have aagati, avakranti, ahar, vriddhi, nivriddhi, vikaran, gati-paryaya, samudghat, kaalsamyoga, darshanabhigam, jnanabhigam, jivabhigam and ajivabhigam in all the six directions—(1) in Praachi (east), (2) in Pratichi (west), (3) in Dakshin (south), (4) in Uttar (north), (5) in Urdhva (zenith) and (6) in Adho (nadir). 40. In the same way five sensed animals and human beings also have gati, aagati etc. in all the six directions.
विवेचन-सूत्रोक्त १३ पदों का अर्थ इस प्रकार है-(१) आगति-पूर्वभव से वर्तमान भव में आना। + (२) अवक्रान्ति-उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न होना। (३) आहार-प्रथम समय में शरीर के योग्य पुद्गलों का + ग्रहण करना। (४) वृद्धि-उत्पत्ति के पश्चात् शरीर का बढ़ना। (५) हानि-शरीर के पुद्गलों का ह्रास। म (६) विक्रिया-शरीर के छोटे-बड़े विविध आकारों का निर्माण। (७) गति-पर्याय-गमन करना। 卐 (८) समुद्घात-वर्तमान शरीर को बिना त्यागे कुछ आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना।
(९) काल-संयोग-काल-विभाग। (१०) दर्शनाभिगम-अवधिदर्शन आदि के द्वारा वस्तु का सामान्य ॐ अवलोकन। (११) ज्ञानाभिगम-अवधिज्ञान आदि के द्वारा वस्तु का परिज्ञान। (१२) जीवाभिगमम अवधिज्ञान आदि के द्वारा जीवों का परिज्ञान। (१३) अजीवाभिगम-अवधिज्ञान आदि के द्वारा पुद्गलों 5 का परिज्ञान। उपर्युक्त गति-आगति आदि सभी कार्य छहों दिशाओं से सम्पन्न होते हैं।
Elaboration—The meanings of thirteen terms, besides gati, are as follows-(1) Aagati-incarnation or movement from past birth to this birth. (2) Avakranti-to get born at place of birth. (3) Ahar-to acquire body-forming matter particles during the first Samaya of birth. (4) Vriddhi-post-birth growth of body. (5) Nivriddhi-loss of matter particles of body. (6) Vikaran-forming of various small or large parts of the body. (7) Gati-paryaya-to move. (8) Samudghat-to move some soulspace-points outside the body without completely abandoning the present body. (9) Kaal-samyoga-to divide time in sections.
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| स्थानांगसूत्र (२)
(240)
Sthaananga Sutra (2)
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i (10) Darshanabhigam — to have cursory view of a thing through avadhidarshan or other such capacity. (11) Jnanabhigam-to know things through avadhi-jnana. (12) Jivabhigam — to know about beings through avadhi-jnana. (13) Ajivabhigam-to know about matter through avadhijnana. All these actions are performed in all the six directions.
आहार- पद AHAR-PAD (SEGMENT OF FOOD)
४१. छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे णातिक्कमति, तं जहावेयण - वेयावच्चे, ईरियट्ठाए य संजमट्ठाए ।
तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिंता ॥ १ ॥
४२. छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिंदमाणे णातिक्कमति, तं जहाआतंके उवसग्गे, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए । पाणिदया - तवहेउं, सरीवुच्छेयणट्ठाए ॥१ ॥
४१. श्रमण निर्ग्रन्थ छह कारणों से आहार करता हुआ भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं
करता है - (१) वेदना - भूख की पीड़ा मिटाने के लिए। (२) वैयावृत्य करने के लिए। (३) ईर्यासमिति का पालन करने के लिए। (४) संयम की रक्षा के लिए।
चिन्तन करने के लिए।
षष्ठ स्थान
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४२. श्रमण निर्ग्रन्थ छह कारणों से आहार का परित्याग करता हुआ भगवान की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है - (१) आतंक - ज्वर आदि आकस्मिक रोग हो जाने पर । (२) उपसर्ग - देव, मनुष्य, तिर्यंच कृत उपद्रव होने पर । (३) तितिक्षण - ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए । (४) प्राणियों की दया के लिए। (५) तप की वृद्धि के लिए। (६) शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए।
41. A Shraman Nirgranth does not defy the word of Bhagavan if he takes food for six reasons-(1) vedana-to remove pain of hunger, (2) vaiyavritya-for serving ascetics, (3) iryasamiti-for observing careful_movement, (4) samyam — for protecting ascetic-discipline, (5) pran-dharan-for survival and (6) dharma-chintan-for religious contemplation.
42. A Shraman Nirgranth does not defy the word of Bhagavan if he abandons food for six reasons-(1) atank-due to sudden fever or other ailment, (2) upsarg-due to divine, human or animal affliction, (3) titikshan-to protect celibacy, (4) compassion-for compassion towards living beings, (5) tap-for extending austerities (6) vyutsarg - for abandoning the body.
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प्राण - धारण किये रखने के लिए। (६) धर्म का
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卐 उन्माद-सूत्र UNMAAD-PAD (SEGMENT OF MADNESS) ॐ ४३. छहिं ठाणेहिं आया उम्मायं पाउणेज्जा, तं जहा-अरहंताणं अवण्णं वदमाणे,
'अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वदमाणे, आयरिय-उवज्झायाणं अवण्णं वदमाणे, चाउव्वण्णस्स म संघस्स अवण्णं वदमाणे, जक्खावेसेण चेव, मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं।
४३. छह कारणों से आत्मा उन्माद (मिथ्यात्व) को प्राप्त होता है, जैसे-(१) अर्हन्तों का, + (२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का, (३) आचार्य और उपाध्याय का, (४) चतुर्वर्ण (चतुर्विध) संघ का अवर्णवाद E करता हुआ, (५) यक्ष आदि के शरीर में प्रविष्ट हो जाने पर, (६) मोहनीय कर्म के उदय से। i 43. A soul gets mad or unrighteous for six reasons--by slandering and
criticizing (1) Arhants, (2) religion propagated by Arhats, (3) acharya and upadhyaya, and, (4) Chaturvarna (Chaturvidh) Sangh (four limbed religious organization), (5) by being possessed by evil spirits including
Yaksh and (6) due to fruition of mohaniya karma (deluding karma). 5. विवेचन-उन्माद का अर्थ है, विवेक भ्रष्ट हो जाना, पागल हो जाना या मिथ्यात्व के उदय से सत्य को + असत्य कहकर अनर्गल प्रलाप करना। मिथ्यात्व भाव उन्माद है, प्रथम चार भेद भाव उन्माद के हैं। शेष दो भेद द्रव्य उन्माद के हैं।
Elaboration-Unmaad means to lose rationality and go mad. It also includes to blather under influence of unrighteousness calling true as false. Unrighteousness itself is madness. The first four statements are called bhaava unmaad and the last two dravya unmaad.
प्रमाद-पद PRAMAD-PAD (SEGMENT OF STUPOR)
४४. छब्बहे पमाए पण्णत्ते, तं जहा-मज्जपमाए, णिद्दपमाए, विसयपमाए, कसायपमाए, जूतपमाए, पडिलेहणापमाए।
४४. प्रमाद छह प्रकार का है-(१) मद्य-प्रमाद, (२) निद्रा-प्रमाद, (३) विषय-प्रमाद, (४) कषाय-प्रमाद, (५) द्यूत-प्रमाद, (६) प्रतिलेखना-प्रमाद। प्रमाद ही कर्म बन्धन का हेतु है।
44. Pramad (stupor) is of six kinds-(1) madya-pramad (stupor of alcohol), (2) nidra-pramad (stupor of sleep), (3) vishaya-pramad (stupor of carnal pleasures), (4) kashaya-pramad (stupor of passions), (5) dyootpramad (stupor of gambling) and (6) pratilekhana-pramad (stupor of inspection).
विवेचन-उन्माद का सहचारी प्रमाद है। कर्त्तव्य के प्रति उपेक्षा, लापरवाही, प्राप्त साधनों का दुरुपयोग तथा सदुपयोग करने में उत्साह हीनता प्रमाद है।
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Elaboration Stupor is associated with madness. To ignore and 4 neglect duties, to misuse available facilities and to have apathy towards
use of facilities is stupor. ॐ प्रतिलेखना-पद PRATILEKHANA-PAD (SEGMENT OF INSPECTION) ४५. छब्बिहा पमायपडिलेहणा पण्णत्ता, तं जहा
आरभडा संमद्दा, वज्जेयव्वा य मोसली ततिया।
पप्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्ठी॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) ४५. प्रमाद (अविधि) पूर्वक की गई प्रतिलेखना छह प्रकार की है। (१) आरभटा-वस्त्रादि को सम्यक् प्रकार से देखे बिना उतावल से प्रतिलेखना करना। (२) सम्मर्दा-मर्दन करके वस्त्रों के कोने पकड़कर या
मसलकर प्रतिलेखना करना। (३) मोसली-वस्त्र के ऊपरी, निचले या तिरछे भाग का प्रतिलेखन करते हुए 9 भूमि या दीवार आदि से टकराना। (४) प्रस्फोटना-वस्त्र की धूलि को जोर से झटकारते हुए प्रतिलेखना
करना। (५) विक्षिप्ता-प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों के ऊपर रखना। (६) वेदिका-प्रतिलेखना फ करते समय विधिवत् न बैठकर गलत ढंग से बैठकर प्रतिलेखना करना।
45. Inspection (pratilekhana) with pramad (done under stupor or improperly) is of six kinds—(1) Aarbhata-to hastily inspect clothes without taking proper care. (2) Sammarda-to inspect clothes after
wrenching by holding ends or to inspect clothes by rubbing. (3) Mosali$1 to collide with wall or another thing while inspecting the upper, lower or
oblique parts of clothes. (4) Prasfotana-to inspect while shaking or jerking clothes to remove dust. (5) Vikshipta-to place inspected clothes over uninspected clothes. (6) Vedika-not to sit properly according to the prescribed procedure while inspecting clothes. ४६. छब्बिहा अप्पमायपडिलेहणा पण्णत्ता, तं जहा
अणच्चावितं अवलितं अणाणुबंधिं अमोसलिं चेव।
छप्पुरिमा णव खोडा, पाणीपाणविसोहणी॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) ४६. प्रमाद-रहित (शास्त्रोक्त विधि अनुसार) प्रतिलेखना छह प्रकार की है-(१) अनर्तिता-शरीर म या वस्त्र को न नचाते हुए प्रतिलेखना करना। (२) अवलिता-शरीर या वस्त्र को झुकाये बिना ॥
प्रतिलेखना करना। (३) अनानुबन्धी-उतावल रहित वस्त्र को झटकाये बिना प्रतिलेखना करना।
(४) अमोसली-वस्त्र के ऊपरी, निचले आदि भागों को मसले बिना प्रतिलेखना करना। (५) षट्पूर्वा म नवखोडा-प्रतिलेखन किये जाने वाले वस्त्र को पसारकर और आँखों से भली-भाँति देखकर उसके दोनों के
भागों को तीन-तीन बार पूँज कर तीन बार शोधना नवखोड़ा है। (६) पाणिप्राण-विशोधिनी-वस्त्र पर
चलते हुए जीव को हाथ के ऊपर लेकर प्रासुक स्थान पर सुरक्षित रख देना। (प्रतिलेखना का विस्तृत । वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में देखें)
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46. Inspection (pratilekhana) without pramad (following the si procedure prescribed in scriptures) is of six kinds—(1) Anartita-toi
inspect without swaying the body or clothes. (2) Avalita-to inspect clothes without bending. (3) Ananubandhi-to inspect clothes without any haste and without jerking, (4) Amosali-to inspect clothes without rubbing upper, lower and middle part. (5) Shatpurva-navakhoda-to spread the cloth, inspect both its sides carefully and feel its surface
lightly three times and cleanse it three times. (6) Panipran-vishodhini- 4 4 to carefully lift any insect, moving on the cloth, on palm and place it at a
clean and secure spot. (for detailed description of pratilekhana see Uttaradhyayan Sutra, Adhyayan 26) लेश्या-पद LESHYA-PAD (SEGMENT OF COMPLEXION OF SOUL)
४७. छ लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा, [णीललेसा, काउलेसा, तेउलेसा, पम्हलेसा] सुक्कलेसा। ४८. पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं छ लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा, ॐ [णीललेसा, काउलेसा, तेउलेसा, पम्हलेसा ], सुक्कलेसा। ४९. एवं मणुस्स-देवाण वि।
४७. लेश्याएँ छह हैं-(१) कृष्णलेश्या, [(२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या], (६) शुक्ललेश्या। ४८. पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों के छह लेश्याएँ होती हैं
(१) कृष्णलेश्या, [(२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या], ॐ (६) शुक्ललेश्या। ४९. इसी प्रकार मनुष्यों और देवों के भी छह-छह लेश्याएँ होती हैं। $ 47. Leshyas (complexion of soul) are of six kinds—(1) krishna leshya
(black complexion of soul), (2) neel leshya (blue complexion of soul), 5 (3) kapot leshya (pigeon complexion of soul), (4) tejo leshya (fiery
complexion of soul), (5) padma leshya (yellow complexion of soul) and (6) shukla leshya (white complexion of soul). 48. Five sensed animals have six leshyas-(1) krishna leshya (black complexion of soul), (2) neel leshya (blue complexion of soul), (3) kapot leshya (pigeon complexion of soul), (4) tejo leshya (fiery complexion of soul), (5) padma leshya (yellow
complexion of soul) and (6) shukla leshya (white complexion of soul). । 49. In the same ways human beings and gods too have six leshyas each. ॐ अग्रमहिषी-पद AGRAMAHISHIS-PAD (SEGMENT OF CHIEF QUEENS)
५०. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। क ५१. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ।
५०. देवराज देवेन्द्र शक्र के लोकपाल सोम महाराज की छह अग्रमहिषियाँ हैं। ५१. देवराज देवेन्द्र 卐 शक्र के लोकपाल यम महाराज की छह अग्रमहिषियाँ हैं।
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50. Soma, the lok-paal of Shakra Devendra, the king of gods has four agramahishis (chief queens). 51. Yama, the lok-paal of Shakra Devendra, the king of gods has four agramahishis (chief queens).
स्थिति - पद STHITI-PAD (SEGMENT OF LIFE SPAN)
५२. ईसाणस्स णं देविंदस्स [ देवरण्णो ] मज्झिमपरिसाए देवाणं छ पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । ५२. देवराज देवेन्द्र ईशान की मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति छह पल्योपम है।
52. The sthiti (life span) of the gods of the middle assembly of Ishan Devendra, the king of gods is six Palyopam.
महत्तरिका - पद MAHATTARIKA PAD (SEGMENT OF PRINCIPAL GODDESS)
५३. छ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रूवा, रूवंसा, सुरूवा, रूववती, रूवकंता, रूवप्पभा । ५४. छ विज्जुकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - अला, सक्का, सतेरा, सोतामणि, इंदा, घणविज्जुया ।
अग्रमहिषी - पद AGRAMAHISHIS-PAD (SEGMENT OF CHIEF QUEENS )
५३. दिक्कुमारियों की छह महत्तरिकाएँ (प्रधान) हैं - (१) रूपा, (२) रूपांशा, (३) सुरूपा, (४) रूपवती, (५) रूपकान्ता, (६) रूपप्रभा । ५४. विद्युत्कुमारियों की छह महत्तरिकाएँ - (१) अला, फ (२) शक्रा, (३) शतेरा, (४) सौदामिनी, (५) इन्द्रा, (६) घनविद्युत् ।
५५. धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहाअला, सक्का, सतेरा, सोतामणि, इंदा, घणविज्जुया । ५६. भूताणंदस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररणो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - अला रूवा, रूवंसा, सुरूवा, रूववती, रूवकंता, रूवप्पभा । ५७. जहा धरणस्स तहा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स । ५८. जहा भूतानंदस्स तहा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स ।
53. There are six Mahattarikas (principal goddesses) of Dikkumaris (directional goddesses) ( 1 ) Rupa, (2) Rupamsha, (3) Surupa, फ (4) Rupavati, ( 5 ) Rupakanta and ( 6 ) Rupaprabha. 54. There are six 5 Mahattarikas (principal goddesses) of Vidyutkumaris (goddesses of lightening ) – ( 1 ) Chitra, (2) Chitrakanaka, (3) Satera, (4) Saudamini, (5) Indra and (6) Ghanavidyut.
५५. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण की छह अग्रमहिषियाँ हैं, (१) अला ( आला), (२) शक्रा, (३) शतेरा, (४) सौदामिनी, (५) इन्द्रा, (६) घनविद्युत् । ५६. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र भूतानन्द की छह अग्रमहिषियाँ हैं, (१) रूपा, (२) रूपांशा, (३) सुरूपा, (४) रूपवती, (५) रूपकान्ता, (६) रूपप्रभा । ५७. जिस प्रकार धरण की छह अग्रमहिषियाँ हैं, उसी प्रकार भवनपति इन्द्र वेणुदेव,
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# हरिकान्त, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, बेलम्ब और घोष इन सभी दक्षिणेन्द्रों की छह-छह + अग्रमहिषियाँ हैं। ५८. जिस प्रकार भूतानन्द की छह अग्रमहिषियाँ हैं, उसी प्रकार हरिस्सह, , __ अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष, इन सभी उत्तरेन्द्रों की छह-छह अग्रमहिषियाँ हैं।
55. Dharan Naagkumarendra, the king of Naag Kumar gods in the __south, has six agramahishis (chief queens)—(1) Ala (Aala), (2) Shakra,
(3) - Shatera, (4) Saudamini, (5) Indra and (6) Ghanavidyut. 卐 56. Bhootanand Naagkumarendra, the king of Naag Kumar gods in the
north, has six agramahishis (chief queens)-(1) Rupa, (2) Rupamsha, (3) Surupa, (4) Rupavati, (5) Rupakanta and (6) Rupaprabha. 57. Like the agramahishis of Dharan, all Dakshinendras (the overlords of south)-Venudev, Harikant, Agnishikh, Purna, Jalakant, Amit-gati, Velamb and Ghosh have six agramahishis each. 58. Like the ॥ agramahishis of Bhootanand, all Uttarendras (the overlords of northHarissaha, Agnimanav, Vishisht, Jalaprabh, Amit-vahan, Prabhanjan and Mahaghosh have six agramahishis each. सामानिक-पद SAMANIK-PAD (SEGMENT OF GODS OF EQUAL STATUS)
५९. धरणस्त णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो छस्सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ६०. एवं भूताणंदस्सवि जाव महाघोसस्स।
५९. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के छह हजार सामानिक देव हैं। ६०. इसी प्रकार नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र भूतानन्द, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष के भी भूतानन्द के समान छह-छह हजार सामानिक देव हैं।
59. Dharan Naagkumarendra, the king of Naag Kumar gods, has six thousand Samanik gods (gods of equal status). 60. In the same way 4 Bhootanand, Venudali, Harissaha, Agnimanav, Vishisht, Jalaprabh, Amit-vahan, Prabhanjan and Mahaghosh Naagkumarendras too have six thousand Samanik gods each. मति-पद (अवग्रहादि के २४ विकल्प) MATI-PAD (SEGMENT OF INTELLECTUAL FACULTY)
६१. छब्बिहा ओग्गहमती पण्णत्ता, तं जहा-खिप्पमोगिण्हति, बहुमोगिण्हति, बहुविधमोगिण्हति, मोगिण्हति, धुवमोगिण्हति, अणिस्सियमोगिण्हति, असंदिद्धमोगिण्हति।
६१. अवग्रहमति (सामान्य अर्थग्रहण करने वाली) के छह प्रकार हैं-(१) क्षिप्र-अवग्रहमति-शीघ्र ग्रहण करना। (२) बहु-अवग्रहमति-अनेक पदार्थों को एक-एक करके बहुत ग्रहण करना। ॐ (३) बहुविध-अवग्रहमति-बहुत प्रकार के पदार्थों के अनेक पर्यायों को ग्रहण करना। (व्यवहारभाष्य के ज
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अनुसार-एक साथ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों से विभिन्न विषयों को ग्रहण करना) (४) ध्रुव-अवग्रहमतिनिश्चल (सम्पूर्ण रूप में) ग्रहण करना। (५) अनिश्रित-अवग्रहमति-अनुमान आदि का सहारा लिए बिना म ग्रहण करना। (६) असंदिग्ध-अवग्रहमति-सन्देह-रहित ग्रहण करना। (६१)।
61. Avagraha mati (intellectual faculty to acquire general meaning) is i of six kinds—(1) Kshipra-avagraha mati—to acquire quickly. (2) Bahu
avagraha mati—to acquire many things one by one. (3) Bahuvidh- 41 avagraha mati—to acquire many modes of many things. [Interpretation in Vyavahar Bhashya-to acquire various information through different sense organs at once.] (4) Dhruva-avagraho. mati-to acquire with stability or perfectly. (5) Anishrit-avagraha mati-to acquire without the aid of imagination or estimation or other such means. (6) Asandigdhaavagraha mati-to acquire without any doubt.
६२. छविहा ईहामती पण्णत्ता, तं जहा-खिप्पमीहति, बहुमीहति, [ बहुविधमीहति, 5 धुवमीहति, अणिस्सियमीहति ] असंदिद्धमीहति।
६२. ईहामति [अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विशेष रूप में जानने की इच्छा] छह प्रकार की हैं(१) क्षिप्र-ईहामति-शीघ्र ईहा करना। (२) बहु-ईहामति-बहुत जिज्ञासावाली मति। (३) बहुविधईहामति-बहुत प्रकार की वस्तुओं की ईहा करना। (४) ध्रुव-ईहामति-ध्रुव रूप में जानने की जिज्ञासा। (५) अनिश्रित-ईहामति-अनुमान आदि के आलम्बन बिना जिज्ञासा करना। (६) असंदिग्ध-ईहामति
असंदिग्ध वस्तु की विशेष जिज्ञासा। i 62. Iha mati (desire to know more about the things acquired through
avagraha) is of six kinds—(1) Kshipra-iha mati-fleet curiosity. (2) Bahu-iha mati-elaborate curiosity. (3) Bahuvidh-iha mati-curiosity to know things of numerous kinds. (4) Dhruva-iha mati-curiosity to know perfectly. (5) Anishrit-iha mati-curiosity unaided by imagination or estimation. (6) Asandigdha-iha mati-specific curiosity about unambiguous things.
६३. छविहा अवायमती पण्णत्ता, तं जहा-खिप्पमवेति, [बहुमवेति, बहुविधमवेति, धुवमवेति, अणिस्सियमवेति ], असंदिद्धमवेति।
६३. अवायमति (निर्णायक या निश्चय बुद्धि) छह प्रकार की हैं-(१) क्षिप्रावाय-मति-शीघ्र अवाय करना। (२) बहु-अवायमति-बहुत अवाय करना। (३) बहुविध-अवायमति-बहुत प्रकार की वस्तुओं का अवाय करना। (४) ध्रुव-अवायमति-ध्रुव अवाय करना। (५) अनिश्रित-अवायमति-अनुमान आदि के बिना ही अवाय करना। (६) असंदिग्ध-अवायमति-असंदिग्ध निश्चय करना। .
63. Avaya mati (discerning or decisive wisdom) is of six kinds(1) Kshipra-avaya mati-to take quick decision. (2) Bahu-avaya mati
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卐 to take elaborate decision. (3) Bahividh-avaya mati-to take decision 卐 about many things. (4) Dhruva-avaya mati-to take perfect decision.
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卐 (5) Anishrit-avaya mati-to take decision unaided by imagination or estimation. (6) Asandigdha-avaya mati-to take doubt-free decision.
卐 ६४. छव्विा धारणा [ मती ? ] पण्णत्ता तं जहा-ब
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5 दुद्धरं धरेति, अणिस्सितं धरेति, असंदिद्धं धरेति ।
६४. धारण ( निर्णीत विषय को भविष्य में याद रखने वाली) मति छह प्रकार की है - ( १ ) बहुधारणामति - बहुत धारण करना । (२) बहुविध - धारणामति - बहुत प्रकार की वस्तुओं की धारणा करना ।
(३) पुराण - धारणामति - पुराने पदार्थ की धारणा रखना । (४) दुर्धर - धारणामति - दुर्धर - गहन पदार्थ की धारणा करना । ( ५ ) अनिश्रित - धारणामति - अनिश्रित धारणा करना। ( ६ ) असंदिग्ध - धारणामतिफ्र असंदिग्ध धारणा करना । 卐
卐
64. Dharana mati (intellectual faculty to put the decision into
memory) is of six kinds-(1) Bahu-dharana mati-to memorize much.
5 (2) Bahuvidh-dharana mati-to memorize a variety of things. 5
(3) Purana-dharana mati-to remember old things. (4) Durdha-dharana
5
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mati-to memorize difficult or complex things. (5) Anishrit-dharana mati-to memorize unaided by imagination or (6) Asandigdha-dharana mati-to memorize without doubt.
conjecture.
तपः पद ( बाह्य - आभ्यन्तर तप) TAPAH-PAD (SEGMENT OF AUSTERITIES)
६५. छव्विहे बाहिरए तवे पण्णत्ते, तं जहा - अणसणं, ओमोदरिया, भिक्खायरिया, रस5 परिच्चाए, कायकिलेसो, पडिसंलीणता । ६६. छव्विहे अब्भंतरिए तवे पण्णत्ते, तं जहा- पायच्छित्तं, 5 विणओ, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउस्सग्गो ।
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- बहुं धरेति, बहुविहं धरेति, पोराणं धरंति,
६५. बाह्य तप के छह प्रकार हैं- ( १ ) अनशन, (२) अवमोदरिका, (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश, (६) प्रतिसंलीनता । ६६. आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, (६) व्युत्सर्ग। (तप के १२ भेदों का वर्णन औपपातिक सूत्र में देखें)
65. Bahya tap (outer or physical austerities) are of six kinds
( 1 ) anashan ( fasting ), ( 2 ) avamodarika (eating less than appetite and
also to limit use of other utilities ), ( 3 ) bhikshacharya ( alms seeking ), फ्र
5 (4) rasaparityag (abstaining from tasty and rich things ), (5) hayaklesh 5
5 (mortification of body) and ( 6 ) pratisamlinata (to restrain the extrovert
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attitudes related to senses). 66. Abhyantar tap (inner or spiritual
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austerities) are of six kinds – (1) pryayashchit ( atonement), (2) vinaya
(modesty), (3) vaiyavritya (service to others), (4) svadhyaya (self-study),
स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
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(5) dhyan (meditation) and ( 6 ) vyutsarg (dissociation from the body or abandoning the body). (for more details refer to Aupapatik Sutra)
卐 ६७. छव्विहे विवादे पण्णत्ते, तं जहा - अ
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विवाद- पद VIVAAD PAD (SEGMENT OF DEBATE )
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पर समय बिताने के लिए प्रस्तुत विषय से हट जाना । (२) उस्सक्कइत्ता - शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होते ही
5 वादी को पराजित करने के लिए आगे आना । (३) अणुलोमइत्ता-विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बना लेना अथवा प्रतिवादी के पक्ष का एक बार समर्थन कर उसे अपने अनुकूल कर लेना । फ्र ( ४ ) पडिलोमइत्ता - शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होने पर विवादाध्यक्ष तथा प्रतिपक्षी की उपेक्षा कर देना । (५) भइत्ता - विवादाध्यक्ष (निर्णायक) की सेवा कर उसे अपने पक्ष में कर लेना । ( ६ ) भेलइत्ता - 卐 निर्णायकों में अपने समर्थकों का बहुमत कर लेना ।
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पडिलोमइत्ता, भइत्ता, भेलइत्ता ।
६७. विवाद के छह प्रकार ( अंग ) हैं - ( १ ) ओसक्कइत्ता - वादी के तर्क का उत्तर ध्यान में न आने
- ओसक्कइत्ता, उस्सक्कइत्ता, अणुलोमइत्ता,
67. There are six kinds (parts) of vivaad ( debate ) - ( 1 ) Osakkaittato shift from the topic under discussion to bide one's time when reply to the opponents argument is not thought out. (2) Ussakkaitta—to come forward to defeat the opponent when fully prepared for debate. (3) Anulomaitta-to make the judge favourable or to make the opponent sympathetic by supporting his argument once. (4) Padilomaitta
to ignore the judge as well as opponent in case fully prepared for debate.
(5) Bhaitta-To seek favour of the judge by offering him services.
(6) Bhelaitta—to build favourable majority among a group of judges.
६८. छव्विहा खुड्डा पाणा पण्णत्ता, तं जहा - बेंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, तेउकाइया, वाउकाइया ।
६८. क्षुद्र प्राणी छह प्रकार के हैं - (१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय, (३) चतुरिन्द्रिय, (४) सम्मूर्च्छिम पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, (५) तेजस्कायिक, (६) वायुकायिक |
68. Kshudra prani (worthless living beings) are of six kindsफ (1) Dvindriya (two-sensed beings), (2) Trindriya (three-sensed beings), फ (3) Chaturindriya (four-sensed beings), (4) Sammurchhim panchendriyatiryagyonik (five-sensed animal beings of asexual origin) and (5) tejaskayik (fire-bodied beings) and (6) vayukayik (air-bodied beings).
विवेचन - वृत्तिकार ने क्षुद्र का अर्थ तुच्छ या अधम किया है। इनको क्षुद्र मानने के दो कारण हैं(१) इनमें कोई भी देव गति से आकर उत्पन्न नहीं होता। (२) इनसे निकलकर दूसरे भव में सिद्ध नहीं होता । (वृत्ति पत्र ३४७)
षष्ठ स्थान
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Sixth Sthaan
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Elaboration-According to the commentator (Vritti) kshudra means lowly or worthless. There are two reasons for this-(1) None of these reincarnates from divine genus and (2) none of these gets liberated after one reincarnation. (Vritti leaf 347)
गोचरचर्या - पद GOCHAR-CHARYA PAD (SEGMENT OF MOVING FOR ALMS)
६९. छव्विहा गोयरचरिया पण्णत्ता, तं जहा - पेडा, अद्धपेडा, गोमुत्तिया, पतंगवीहिया, फ्र संबुक्कावट्टा, गंतुंपच्चागता ।
६९. गोचर - चर्या छह प्रकार की है - ( १ ) पेटा - पेटी की तरह गाँव के चार विभाग करके गोचरी करना । (२) अर्धपेटा - गाँव के दो विभाग करके गोचरी करना । (३) गोमूत्रिका - घरों की आमने-सामने वाली दो पंक्तियों में कभी दाएँ से बाएँ कभी बाएँ से दाएँ आते-जाते गोचरी करना । (४) पतंगवीथिका - फ्र पतंगा की उड़ान के समान बिना क्रम के एक घर से गोचरी लेकर एकदम दूरवर्ती घर से गोचरी लेना । (५) शम्बूकावर्त्ता - शंख के आवर्त (गोलाकार) के समान घरों का क्रम बनाकर गोचरी लेना । (६) गत्वा - प्रत्यागता - प्रथम पंक्ति के घरों में क्रम से आद्योपान्त गोचरी करके द्वितीय पंक्ति के घरों में क्रमश: फ्र गोचरी करते हुए वापस आना। (ये छहों अभिग्रह विशेष के भेद हैं)
महानरक - पद MAHANARAK-PAD (SEGMENT OF WORST HELL)
७०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए छ अवक्कंतमहाणिरया पण्णत्ता, तं जहा -लोले, लोलुए, उद्दड्डे, णिद्दड्डे जरए, पज्जरए । ७१. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए छ अवक्कंतमहाणिरया पण्णत्ता, तं जहा- आरे, वारे, मारे, रोरे, रोरुए, खाडखडे ।
७०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी (प्रथम नरक) में छह अपक्रान्त (अति निकृष्ट) महानरक हैं, जैसे- (१) लोल, (२) लोलुप, (३) उद्दग्ध, (४) निर्दग्ध,
स्थानांगसूत्र (२)
69. Gochar-charya (moving for alms) is of six kinds-(1) Peta-to divide the village in four parts like a box and move about to seek alms. (2) Ardhapeta-to divide the village in two parts and move about to seek alms. (3) Gomutrika-to move about to seek alms in a row of facing houses sometimes from left to right and sometimes from right to left. (4) Patangavithika-- to seek alms at random, like the flight of a moth, first from one house and then from a distant. (5) Shambukavartato 5 seek alms from houses in a hypothetically spiral arrangement. ( 6 ) Gatvapratyagata-to seek alms in order from all houses in the first row while going and then from houses in the second row while returning. (All these six are included in special resolves)
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i (५) जरक, (६) प्रजरक। ७१. चौथी पंकप्रभा पृथ्वी (दक्षिण भाग) में छह अपक्रान्त महानरक हैं- (१) आर, (२) बार, (३) मार, (४) रोर, (५) रोरुक, (६) खाडखड।
70. In Jambu Dveep to the south of Mandar mountain in this Ratnaprabha Prithvi (the first hell) there are six apakrant (worse of the worst) mahanarak (worst hells)—(1) Lola, (2) Lolup, (3) Uddagdha, (4) Nirdagdha, (5) Jarak and (6) Prajarak. 71. In the fourth (hell) Pankaprabha Prithvi (in the southern part) there are six apakrant i mahanaraks-(1) Aar, (2) Baar, (3) Maar, (4) Rora, (5) Roruk and 41 (6) Khaatkhad. ___ विवेचन-सातों नरकों में दो प्रकार के नरकावास हैं-(१) आवलिका प्रविष्ट और (२) पुष्पावकीर्ण। आवलिका के तीन आकार हैं-गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण। पुष्पावकीर्ण अनेक प्रकार के होते हैं। अपक्रान्त महानरकावास आवलिका प्रविष्ट हैं तथा ये सबसे अधिक भयावह होते हैं। (हिन्दी टीका भाग २ पृष्ठ ३०६)
Elaboration In all the seven hells there are two types of infernal abodes-Avalika pravisht and Pushpavakeern. Avalika has three shapes-circular, triangular and quadrangular. Pushpavakeern has numerous types. The Apakrant Mahanarak abodes are Avalika pravisht and most horrifying. (Hindi Tika, part-2, p. 306)
विमानप्रस्तट-पद VIMAAN-PRASTAT-PAD.
(SEGMENT OF GAP BETWEEN CELESTIAL VEHICLES) ७२. बंभलोगे णं कप्पे छ विमाण पत्थडा पण्णत्ता, तं जहा-अरए, विरए, णीरए, णिम्मले, वितिमिरे, विसुद्धे।
७२. ब्रह्मलोक कल्प में छह विमान-प्रस्तट (भवनों के मध्य का अन्तराल भाग) हैं-(१) अरजस्, (२) विरजस्, (३) नीरजस्, (४) निर्मल, (५) वितिमिर, (६) विशुद्ध।
72. In Brahmalok Kalp there are six Vimaan-prastats (intervening space or gap between two divine abodes)-(1) Arjas, (2) Virajas, (3) Neerajas, (4) Nirmal, (5) Vitimir and (6) Vishuddha. नक्षत्र-पद NAKSHATRA-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS)
७३. चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो छ णक्खत्ता पुबंभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता के पण्णत्ता, तं जहा-पुबाभद्दवया, कत्तिया, महा, पुब्बफग्गुणे, मूलो, पुब्बासाढा। ७४. चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो छ णक्खत्ता णत्तंभागा अवड्डक्खत्ता पण्णरसमुहुत्ता, तं जहा-सभिसया, + भरणी, अद्दा, अस्सेसा, साती, जेट्ठा।
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७३. ज्योतिषराज, ज्योतिषेन्द्र चन्द्र के पूर्वभाग में, समक्षेत्री और तीस मुहूर्त तक चन्द्र के साथ
卐 योग करने वाले छह नक्षत्र हैं - (१) पूर्वभाद्रपद, (२) कृत्तिका, (३) मघा, (४) पूर्वफाल्गुनी, (५) मूल,
फ्र
5 (६) पूर्वाषाढा । ७४. ज्योतिष्कराज, ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के अपार्धक्षेत्र में रहने वाले [मात्र रात्रि भाग में
रहने वाले ] पन्द्रह मुहूर्त तक योग करने वाले छह नक्षत्र हैं - ( १ ) शतभिषक्, (२) भरणी, (३) आर्द्रा, (४) आश्लेषा, (५) स्वाति, (६) ज्येष्ठा ।
73. To the east of Jyotishendra Chandra, the king of celestial gods,
there are six constellations in the same segment of space (covered by
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5 moon – ( 1 ) Purva Bhadrapad (Alpha Pegasi; the 26th), (2) Krittika (Eta
moon) and associating for thirty Muhurts (day and night) with the
th Tauri or Pleiades; the 3rd ), ( 3 ) Magha ( Regulus; the 10th), (4) Purva
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Phalguni (Delta Leonis; the 11th), (5) Mula (Lambda Scorpii; the 19th)
5 (Arcturus; the 15th) and ( 6 ) Jyeshtha (Antares; the 18th).
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and (6) Purva Ashadha (Delta Sagittarii; the 20th). 74. There are six constellations in half the segment of space (covered by moon) and associating for fifteen Muhurts (night) with the moon – ( 1 ) Shat Bhishag (Lambda Aquarii; the 25th), (2) Bharani (35 Arietis; the 2nd), (3) Ardra
फ्र
फ (Alpha Orionis; the 6th ), (4) Ashlesha (Alpha Hydrae; the 9th), (5) Swati 5
७५. चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोतिसरण्णो छ णक्खत्ता, उभयभागा दिवखेत्ता पणयालीसमुहुत्ता
पण्णत्ता,
तं जहा - रोहिणी, पुणव्वसू, उत्तराफग्गुणी, विसाहा, उत्तरासाढा, उत्तराभद्दवया ।
७५. ज्योतिष्कराज, ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के उभययोगी- दोनों भाग वाले द्वयर्ध क्षेत्र में (9, 2 क्षेत्र)
वाले और पैंतालीस मुहूर्त तक भोग करने वाले छह नक्षत्र हैं - ( 9 )
(३) उत्तरफाल्गुनी, (४) विशाखा, (५) उत्तराषाढा, (६) उत्तराभाद्रपद ।
75. There are six constellations in both the said segments of space (one and a half) and associating for forty five Muhurts with the moon5 (1) Rohini (Aldebaran; the 4th), (2) Punarvasu (Beta Geminorum ; the 7th), (3) Uttara Phalguni (Beta Leonis; the 12th ), (4) Vishakha (Alpha Librae; the 16th), (5) Uttara Ashadha (Sigma Sagittarii; the 21st) and फ (6) Uttara Bhadrapad ( Gama Pegasi; the 27th).
इतिहास - पद ITIHAS-PAD (SEGMENT OF HISTORY)
७६. अभिचंदे णं कुलकरे छ धणुसयाई उट्टं उच्चत्तेणं हुत्था । ७७. भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छ पुव्वसतसहस्साई महाराया हुत्था । ७८. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स छ सता वादीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए अपराजियाणं संपया होत्था । ७९. वासुपुज्जे णं अरहा
स्थानांगसूत्र (२)
रोहिणी, (२) पुनर्वसु,
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: छहिं पुरिससतेहिं सुद्धिं मुंडे (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पब्बइए। ८०. चंदप्पभे णं अरहा छउम्मासे छउमत्थे हुत्था।
७६. अभिचन्द्र (१०३) कुलकर छह सौ धनुष ऊँचे शरीर वाले थे। ७७. चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा छह लाख पूर्वी तक महाराज (सम्राट्) पद पर रहे। ७८. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के देवों, मनुष्यों और असुरों की सभा में अपराजित रहने वाले छह सौ वादी मुनियों की सम्पदा थी। ७९. वासुपूज्य अर्हत् छह सौ पुरुषों के साथ मुण्डित होकर गृहस्थ से अनगार धर्म में प्रव्रजित हुए थे। ८०. चन्द्रप्रभ अर्हत् छह मास तक छद्मस्थ रहे।
76. Abhichandra Kulakar (10th) was six hundred Dhanush tall. 77. Chaturant Chakravarti Bharat Raja reigned as emperor for six i hundred thousand Purva. 78. In Purushadaniya Arhat Parshva's divine, i human, and Asur assembly their were six hundred debating ascetics who
remained undefeated. 79. Vasupujya Arhat tonsured his head, renounced the household and got initiated in Anagar dharma (ascetic religion)
along with six hundred men. 80. Chandraprabh Arhat remained i chhadmasth (one who is short of omniscience due to residual karmic i bondage) for six months. संयम-असंयम-पद SAMYAM-ASAMYAM-PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) ८१. तेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स छबिहे संजमे कज्जति, तं जहा-घाणामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। जिब्भामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, [जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। फासामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। फासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति ।
८१. त्रीन्द्रिय जीवों का घात न करने वाले पुरुष को छह प्रकार का संयम होता है(१) घ्राणमय-घ्राणेन्द्रिय-जनित सुख का वियोग नहीं करने से। (२) घ्राणमय दुःख का संयोग नहीं करने से। (३) रसमय सुख का वियोग नहीं करने से। (४) रसमय दुःख का संयोग नहीं करने से। (५) स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से। (६) स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करने से।।
81. A person not harming trindriya (three sensed beings) accomplishes four kinds of discipline___(1) Ghranamaya-He does not terminate the pleasure derived through ghranendriya (nose or sense organ of smell) by these beings. (2) Ghranamaya-He does not enforce the misery experienced through
nose on these beings. (3) Rasamaya—He does not terminate the pleasure i derived through rasanendriya (tongue or sense organ of taste) by these
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beings. (4) Rasamaya--He does not enforce the misery experienced through tongue on these beings. (5) Sparshamaya-He does not terminate the pleasure derived through sparshanendriya (sense organ of touch) by these beings. (6) Sparshamaya-He does not enforce the misery experienced through touch on these beings.
८२. तेइंदिया णं जीवा समारभमाणस्स छबिहे असंजमे कज्जति, तं जहा-घाणामातो ॐ सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। [जिभामातो सोक्खातो ॐ ववरोवेत्ता भवति। जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। फासामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति ] 9 फासामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। म ८२. त्रीन्द्रिय जीवों का घात करने वाले के छह प्रकार का असंयम होता है-(१) घ्राणेन्द्रिय-जनित
सुख का वियोग करने से। (२) घ्राणमय-दुःख का संयोग करने से। (३) रसमय-सुख का वियोग करने से। (४) रसमय-दुःख का संयोग करने से। (५) स्पर्शमय-सुख का वियोग करने से। (६) स्पर्शमयदुःख का संयोग करने से।
82. A person harming two sensed beings accomplishes four kinds of 卐 indiscipline—(1) Ghranamaya-He terminates the pleasure derived
through ghranendriya (nose or sense organ of smell) by these beings. 4 (2) Ghranamaya---He enforces the misery experienced through nose on
these beings. (3) Rasamaya-He terminates the pleasure derived through rasanendriya (tongue or sense organ of taste) by these beings.
(4) Rasamaya-He enforces the misery experienced through tongue on F these beings. (5) Sparshamaya-He terminates the pleasure derive
through sparshanendriya (sense organ of touch) by these beings. (6) Sparshamaya-He enforces the misery experienced through touch on these beings. क्षेत्र पर्वत-पद KSHETRA PARVAT-PAD (SEGMENT OF AREAS AND MOUNTAINS)
८३. जंबुद्दीवे दीवे छ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-हेमवते, हेरण्णवते, हरिवासे, रम्मगवासे, देवकुरा, उत्तरकुरा।
८३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में छह अकर्मभूमियाँ हैं-(१) हैमवत, (२) हैरण्यवत, (३) हरिवर्ष, म (४) रम्यकवर्ष, (५) देवकुरु, (६) उत्तरकुरु।
83. In Jambu continent there are six akarma-bhumis (land of no endeavour)-(1) Haimavat, (2) Hairanyavat, (3) Harivarsh, (4) Ramyakvarsh, (5) Devakuru and (6) Uttar-kuru.
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८४. जंबुद्दीवे दीवे छव्वासा पण्णत्ता, तं जहा-भरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे। ८५. जंबुद्दीचे दीवे छ वासाहरपव्वता पण्णत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, जणिसढे, णीलवंते, रुप्पी, सिहरी।
८४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में छह वर्ष (क्षेत्र) हैं, जैसे-(१) भरत, (२) ऐरवत, (३) हैमवत, (४) हैरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) रम्यकवर्ष। ८५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में छह वर्षधर पर्वत हैं
(१) क्षुद्रहिमवान्, (२) महाहिमवान्, (३) निषध, (४) नीलवान्, (५) रुक्मी, (६) शिखरी। म 84. In Jambu continent there are six varsh (areas)—(1) Bharat,
(2) Airavat, (3) Haimavat, (4) Hairanyavat, (5) Harivarsh and P (6) Ramyak-varsh. 85. In Jambu continent there are six Varsh-dhar
parvats (mountains)-(1) Kshudra Himavan, (2) Mahahimavan, (3) Nishadh, (4) Nilavaan, (5) Rukmi and (6) Shikhari.
८६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं छ कूडा पण्णत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंत-कूडे, वेसमणकूडे, महाहिमवंतकूडे, वेरुलियकूडे, णिसढकूडे, रुयगकूडे। ८७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स उत्तरे णं छ कूडा पण्णत्ता, तं जहा-णीलवंतकूडे, उवदंसणकूडे, रुप्पिकूडे, मणिकंचणकूडे, सिहरिकूडे, तिगिंछिकूडे।
८६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में छह कूट हैं-(१) क्षुद्र हिमवान्कूट, म (२) वैश्रमणकूट, (३) महाहिमवान्कूट, (४) वैडूर्यकूट, (५) निषधकूट, (६) रुचककूट। ८७. जम्बूद्वीप
नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में छह कूट हैं-(१) नीलवंतकूट, (२) उपदर्शनकूट, 5 (३) रुक्मिकूट, (४) मणिकांचनकूट, (५) शिखरीकूट, (६) तिगिंछिकूट।
36. In Jambu Dveep to the south of Mandar mountain there are six koots (peaks)-(1) Kshudra Himavan koot, (2) Vaishraman koot, (3) Mahahimavan koot, (4) Vaidurya koot, (5) Nishadh koot and (6) Ruchak
koot. 87. In Jambu Dveep to the north of Mandar mountain there are six fi koots (peaks)--(1) Nilavant koot, (2) Upadarshan koot, (3) Rukmi koot,
(4) Manikanchan koot, (5) Shikhari koot and (6) Tingichha koot. की महाद्रह-पद MAHADRAHA-PAD (SEGMENT OF GREAT LAKES)
८८. जंबुद्दीवे दीवे छ महदहा पण्णत्ता, तं जहा-पउमद्दहे, महापउमद्दहे, तिगिंछद्दहे, केसरिद्दहे, महापोंडरीयद्दहे, पुंडरीयद्दहे। तत्थ णं छ देवयाओ महिड्ढियाओ जाव , पलिओवमद्वितियाओ परिवसंति, तं जहा-सिरी, हिरी, धिती, कित्ती, बुद्धी, लच्छी।
८८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में छह महाद्रह हैं-(१) पद्मद्रह, (२) महापद्मद्रह, (३) तिगिंञ्छिद्रह, । (४) केशरीद्रह, (५) महापुण्डरीकद्रह, (६) पुण्डरीकद्रह। उनमें महर्धिक, महाद्युति, महाशक्ति, महायश,
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ॐ महाबल, महासुखवाली तथा एक पल्योपम की स्थिति वाली छह देवियाँ निवास करती हैं-(१) श्री देवी, + (२) ह्री देवी, (३) धृति देवी, (४) कीर्ति देवी, (५) बुद्धि देवी, (६) लक्ष्मी देवी। 5 88. In Jambu continent there are six mahadrahas (great lakes)
(1) Padmadraha, (2) Mahapadmadraha, (3) Tingichhadraha, 4. (4) Kesaridraha, (5) Mahapaundareek-draha and (6) Paundareek-draha.
On these reside six goddesses having great wealth, great radiance, great power, great fame, great strength, great happiness and with a life span of one Palyopam-(1) Shridevi, (2) Hridevi, (3) Dhritidevi, (4) Kirtidevi,
(5) Buddhidevi and (6) Laxmidevi. ॐ नदी-पद MAHANADI-PAD (SEGMENT OF GREAT RIVERS)
८९. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं छ महाणदीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-गंगा, + सिंधू, रोहिया, रोहितंसा, हरी, हरिकता। ९०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं छ ॐ महाणदीओ पण्णत्ताओ तं जहा-णरकंता, णारिकंता, सुवण्णकूला, रुप्पकूला, रत्ता, रत्तवती।
८९. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में छह महानदियाँ हैं-(१) गंगा, ॐ (२) सिन्धु, (३) रोहिता, (४) रोहितांशा, (५) हरित, (६) हरिकान्ता। ९०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में 5 ॐ मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में छह महानदियाँ हैं-(१) नरकान्ता, (२) नारीकान्ता, (३) सुवर्णकूला, (४) रूप्यकूला, (५) रक्ता, (६) रक्तवती। (महाद्रह आदि की स्थिति भाग-१, चित्र-७ में देखें)
89. In Jambu continent, to the south of Mandar Mountain, flow six mahanadis (great rivers)-(1) Ganga, (2) Sindhu and (3) Rohita, (4) Rohitamsha, (5) Harit and (6) Harikanta. 90. In Jambu contine the north of Mandar Mountain, flow six mahanadis (great rivers).
(1) Narakanta, (2) Narikanta, (3) Suvarnakoola, (4) Rupyakoola, 卐 (5) Rakta and (6) Raktavati. (see illustration-7 in part-1) ॐ ९१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए महाणदीए उभयकूले छ अंतरणदीओ के
पण्णत्ताओ, तं जहा-गाहावती, दहवती, पंकवती, तत्तयला, मत्तयला, उम्मत्तयला। ९२. जंबुद्दीवे 卐 दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीतोदाए महाणदीए उभयकूले छ अंतरणदीओ पण्णत्ताओ, तंज जहा-खीरोदा, सीहसोता, अंतोवाहिणी, उम्मिमालिणी, फेणमालिणी, गंभीरमालिणी।
९१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व भाग में (महाविदेह क्षेत्र में) सीता महानदी के 5 ॐ दोनों कूलों में मिलने वाली छह अन्तर्नदियाँ हैं-(१) ग्राहवती, (२) द्रहवती, (३) पंकवती, 5 (४) तप्तजला, (५) मत्तजला, (६) उन्मत्तजला। ९२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम
भाग में सीतोदा महानदी के दोनों कूलों में मिलने वाली छह अन्तर्नदियाँ हैं-(१) क्षीरोदा, ऊ (२) सिंहस्रोता, (३) अन्तर्वाहिनी, (४) उर्मिमालिनी, (५) फेनमालिनी, (६) गम्भीरमालिनी।
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(256)
Sthaananga Sutra (2)
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91. In Jambu continent, to the east of Mandar Mountain (in 5 Mahavideh area) joining from both sides of great river Sita flow three intermediate rivers. They are – ( 1 ) Grahavati, ( 2 ) Drahavati, (3) Pankavati, (4) Taptajala, (5) Mattajala and ( 6 ) Unmattajala. 92. In Jambu continent, to the west of Mandar Mountain joining from both sides of great river Sitoda flow six intermediate rivers. They are(1) Kshiroda, (2) Simhasrota, (3) Antarvahini, (4) Urmimalini, (5) Phenamalini and (6) Gambhiramalini.
धातकीषण्ड पुष्करवर - पद DHATAKIKHAND-PUSHKARVAR-PAD
(SEGMENT OF DHATAKIKHAND-PUSHKARVAR)
९३. धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं छ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - हेमवए, हेरण्णवते, हरिवासे, रम्मगवासे, देवकुरा, उत्तरकुरा । ९४. एवं जहा जंबुद्दीवे दीवे जाव अंतरणदीओ जाव पुक्खरवरदीवद्धपच्चत्थिमद्धे भाणितव्यं ।
९३. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में छह अकर्मभूमियाँ हैं - (१) हैमवत, (२) हैरण्यवत, (३) हरिवर्ष, (४) रम्यकवर्ष, (५) देवकुरु, (६) उत्तरकुरु । ९४. इसी प्रकार जैसे जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वर्ष, वर्षधर आदि से लेकर अन्तर्नदी तक का वर्णन किया है वैसा ही धातकीषण्ड द्वीप में भी जानना चाहिए । इसी प्रकार धातकीषण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में तथा पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी जम्बूद्वीप के समान सर्व वर्णन जानना चाहिए।
93. In eastern half of Dhatakikhand continent there are six akarmabhumis (land of no endeavour ) - ( 1 ) Haimavat, (2) Hairanyavat, (3) Harivarsh, (4) Ramyak-varsh, (5) Devakuru and (6) Uttar-kuru. 94. In the same way all the description mentioned about Jambu i continent starting from Varsha, Varsh-dhar right up to intermediate rivers should be repeated for eastern half of Dhatakikhand. Similarly all the description mentioned about Jambu continent should be repeated for western half of Dhatakikhand as well as eastern and western halves of Ardhapushkarvar continent.
ऋतु - पद RITU PAD (SEGMENT OF SEASONS)
९५. छ उऊ पण्णत्ता, तं जहा - पाउसे, वरिसारत्ते, सरए, हेमंते, वसंते, गिम्हे ।
९५. ऋतुएँ छह हैं - (१) प्रावृट् ऋतु - आषाढ और श्रावण मास । ( २ ) वर्षा ऋतु - भाद्रपद और आश्विन मास । ( ३ ) शरद् ऋतु - कार्तिक और मृगशिर मास । ( ४ ) हेमन्त ऋतु - पौष और माघ मास । (५) वसन्त ऋतु - फाल्गुन और चैत्र मास । (६) ग्रीष्म ऋतु- वैशाख और ज्येष्ठ मास ।
95. There are six ritus (seasons ) - ( 1 ) Pravrit ritu (first half of monsoon)—months of Ashadh and Shravan, (2) Varsha ritu (second half
षष्ठ स्थान
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Sixth Sthaan
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of monsoon)—months of Bhadrapad and Ashvin, (3) Sharad ritu ( autumn ) - months of Kartik and Mrigashira, (4) Hemant ritu (winter ) - 5 months of Paush and Maagh, (5) Vasant ritu (spring ) - months 5 Phalgun and Chaitra and (6) Grishma ritu (summer ) – months Vaishakh and Jyeshtha.
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अवमरात्र - पद AVAMARATRA-PAD (SEGMENT OF DATE SKIPPING)
९६. छह अवमरात्र (तिथि-क्षय) होते हैं - ( १ ) तीसरा पर्व - आषाढ कृष्णपक्ष में । (२) सातवाँ
भाद्रपद कृष्णपक्ष में। (३) ग्यारहवाँ पर्व, कार्तिक कृष्णपक्ष में । (४) पन्द्रहवाँ पर्व, पौष कृष्णपक्ष में । (५) उन्नीसवाँ पर्व, फाल्गुन कृष्णपक्ष में। (६) तेईसवाँ पर्व, वैशाख कृष्णपक्ष में
९६. छ ओमरत्ता पण्णत्ता, तं जहा - ततिए पव्वे, सत्तमे पव्वे, एक्कारसमे पव्वे, पण्णरसमे फ्र पव्वे, एगूणवीसइमे पव्वे, तेवीसइमे पव्वे ।
अतिरात्र - पद ATIRATRA PAD (SEGMENT OF DATE SKIPPING)
९७. छह अतिरात्र (तिथिवृद्धि वाले पर्व) होते हैं - (१) चौथा पर्व -
96. There are six avamaratra ( fortnights of date skipping )—(1) third parva (third fortnight of the lunar calendar)-in dark fortnight of Ashadh, (2) seventh fortnight — in dark fortnight of Bhadrapad, ( 3 ) eleventh फ्र fortnight—in dark fortnight of Kartik, (4) fifteenth fortnight in dark 5 fortnight of Paush, (5) nineteenth fortnight—in dark fortnight of Phalgun 5 and (6) twenty third fortnight — in dark fortnight of Vaishakh.
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९७. छ अतिरत्ता पण्णत्ता, तं जहा - चउत्थे पव्वे, अट्ठमे पव्वे, दुवालसमे पव्वे, सोलसमे पव्वे, वीसइमे पव्वे, चउवीसइमे पव्वे ।
5 जाता है।
of
- आषाढ शुक्ल पक्ष में । (२)
आठवाँ पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष में । (३) बारहवाँ पर्व - कार्तिक शुक्ल पक्ष में । (४) सोलहवाँ पर्व - पौष शुक्ल पक्ष में। (५) बीसवाँ पर्व फाल्गुन शुक्ल पक्ष में। (६) चौबीसवाँ पर्व, वैशाख शुक्ल पक्ष में
97. There are six atiratra ( fortnights of date addition ) — (1) fourth
पर्व,
विवेचन - आगम कालीन मान्यता के अनुसार, वर्ष के जिन छह महीनों में कृष्ण पक्ष में तिथियाँ
घटती हैं, उन्हीं महीनों के शुक्ल पक्ष में तिथियाँ बढ़ती भी हैं। अमावस्या और पूर्णमासी को पर्व कहा
स्थानांगसूत्र (२)
parva (fourth fortnight of the lunar calendar)-in bright fortnight of Ashadh, (2) eighth fortnight-in bright fortnight of Bhadrapad, (3) twelfth fortnight-in bright fortnight of Kartik, (4) sixteenth fortnight-in bright fortnight of Paush, (5) twentieth fortnight-in 5 bright fortnight of Phalgun and (6) twenty fourth fortnight-in bright fortnight of Vaishakh.
(258)
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Sthaananga Sutra (2)
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Elaboration According to the belief prevalent during the Agam writing period the skipping and addition of dates occurred during the 4 same six months of the lunar calendar. The skipping occurred during the 41
dark half of the month and addition during the bright half. Parva means full-moon date and dark-night date. अर्थावग्रह-पद ARTHAVAGRAH-PAD (SEGMENT OF ACQUIRING INFORMATION)
९८. आभिणिबोहियणाणस्स णं छबिहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियत्थोग्गहे, म [चक्खिदियत्थोग्गहे, घाणिंदियत्थोग्गहे, जिभिंदियत्थोग्गहे, फासिंदियत्थोग्गहे ], णोइंदियत्थोग्गहे। 卐 ९८. आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) ज्ञान का अर्थावग्रह छह प्रकार का होता है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय
अर्थावग्रह, (२) चक्षुरिन्द्रिय–अर्थावग्रह, (३) घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, (४) रसनेन्द्रिय-अर्थावग्रह,
(५) स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह, (६) नोइन्द्रिय–अर्थावग्रह। i 98. Arthavagrah (acquiring information) of Abhinibodhik jnana
(mati jnana) is of six kinds—(1) shrotendriya-arthavagraha, (2) chakshurindriya-arthavagraha, (3) ghranendriya-arthavagraha, (4) rasanendriya-arthavagraha, (5) sparshendriya-arthavagraha and (6) noindriya-arthavagraha.
विवेचन-अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। उपकरणेन्द्रिय (बाह्यइन्द्रिय) के साथ ॐ शब्दादि ग्राह्य विषय के सम्बन्धों को व्यंजन कहते हैं। दोनों का सम्बन्ध होने पर अव्यक्त ज्ञान की किंचित् ॥ म मात्रा उत्पन्न होती है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह उत्पन्न होता है।
___Elaboration-Avagraha (acquisition) is of two typesvyanjanavagraha and arthavagraha. The contact of sense organ with its subject is vyanjan. The acquisition of the smallest fraction of information at this point is called vyanjanavagraha. The continuing process of acquisition triggered by this is arthavagraha.
अवधिज्ञान-पद AVADHI-JNANA-PAD (SEGMENT OF AVADHI-JNANA) __ ९९. छबिहे ओहिणाणे पण्णत्ते, तं जहा-आणुगामिए, अणाणुगामिए, वडमाणए, हायमाणए, पडिवाती, अपडिवाती।
९९. अवधिज्ञान छह प्रकार का है-(१) आनुगामिक, (२) अनानुगामिक, (३) वर्धमान, (४) हीयमान, (५) प्रतिपाती, (६) अप्रतिपाती। (अवधिज्ञान का विस्तृत वर्णन सचित्र नन्दीसूत्र अवधिज्ञान प्रकरण पृष्ठ ८० देखें)
99. Avadhi-jnana--is of six kinds—(1) Aanugaamik, (2) Ananugaamik, (3) Vardhaman, (4) Hiyaman, (5) Pratipati and (6) Apratipati. (for detailed 5discussion on Avadhi-jnana refer to Illustrated Nandi Sutra p. 80)
षष्ठ स्थान
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Sixth Sthaan
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अवचन-पद AVACHAN PAD (SEGMENT OF IGNOBLE WORDS)
१००. णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वदित्तए, तं जहाअलियवयणे, हीलियवयणे, खिंसितवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरत्तए ।
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१००. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को छह अवचन - (गर्हित अथवा अयोग्य वचन) बोलना नहीं कल्पता है - (१) अलीकवचन-असत्यवचन । (२) हीलितवचन - दूसरों का अनादर व अवहेलनायुक्त वचन। (३) खिंसितवचन- मर्मवेधी वचन या जिसे सुनकर दूसरा तिलमिला उठे । (४) पुरुषवचन - कठोर वचन । 5 (५) अगारस्थितवचन - बेटा, बेटी आदि गृहस्थावस्था के सम्बन्धसूचक वचन । (६) व्यवसित उदीरकवचन - 5 उपशान्त कलह को उभाड़ने वाला वचन ।
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कल्पप्रस्तार - पद KALP PRASTAAR-PAD (SEGMENT OF FORMULATING ATONEMENTS)
१०१. छ कप्पस्स पत्थारा पण्णत्ता, तं जहा पाणइवायस्स वयमाणे, मुसावायं वयमाणे, अदिन्नादाणं वायं वयमाणे, अविरतिवायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे - इच्चेते छ कप्परस पत्थारे पत्थारेत्ता सम्ममपडिपूरेमाणे तट्टाणपत्ते ।
100. Shraman Nirgranth and Nirgranthi (male and female ascetics) 5 are not allowed to utter six avachan (despicable or ignoble words) (1) Aleek vachan-false statement, (2) heelit vachan-insulting or disrespectful statement, ( 3 ) khimsit vachan-piercing_statement, (4) purush vachan — harsh statement, ( 5 ) agaarasthit vachan - kinship 5 expressions like son and daughter, suitable only for householders and 5 (6) vyavasit udirak vachan — provoking statement inflaming pacified 5 discontent.
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कल्प के इन छह प्रस्तारों आरोपों को स्थापित कर यदि कोई साधु उन्हें सम्यक् प्रकार से प्रमाणित न कर सके तो वह उस स्थान को प्राप्त होता है, अर्थात् आरोपित दोष के प्रायश्चित्त का भागी आरोप लगाने वाला स्वयं होता है।
१०१. कल्प (साधु - आचार) के छह प्रस्तार हैं - ( १ ) प्राणातिपात सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने पर । (२) मृषावाद सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने पर । (३) अदत्तादान सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने पर। (४) अब्रह्मचर्य सम्बन्धी आरोपात्मक वचन बोलने पर । (५) पुरुषत्त्व - हीनता (नपुंसकता) के 5 आरोपात्मक वचन बोलने पर। (६) दास (दासी पुत्र) होने का आरोपात्मक वचन बोलने पर ।
101. There are six prastar (formulation of atonements) related to kalp (ascetic praxis)-(1) On making a statement accusing someone of killing beings (pranatipat). (2) On making a statement accusing someone of telling a lie (asatya). (3) On making a statement accusing someone of stealing (adattadan ). ( 4 ) On giving statement accusing someone of nonस्थानांगसूत्र (२)
(260)
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Sthaananga Sutra (2)
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celibacy (abrahmacharya). (5) On giving statement accusing someone of impotency and (6) On giving statement accusing someone of being a fi slave (born of a slave mother).
After accusing someone of these six atonement-entailing transgressions, if some ascetic fails to irrefutably prove them then he is liable to get the same atonement. In other words, if the accuser is unable to prove the accusation, he himself has to suffer the formulated atonement.
विवेचन-साधु के आचार को कल्प कहा जाता है। प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि को प्रस्तार कहते है 卐 हैं। हिंसा, असत्य, ब्रह्मचर्य आदि के सम्बन्ध में यदि कोई साधु अन्य साधु को नीचा दिखाने, कलंकित
करने की नीयत से झूठा आरोप लगावे कि "तुमने यह पाप किया है', फिर मनगढन्त प्रमाण जुटाकर
उसे दोषी सिद्ध करने की चेष्टा करता है तब वह गुरु के सामने यदि आरोप सिद्ध नहीं कर पाता है, तो है ॐ वह स्वयं उसके प्रायश्चित्त का भागी होता है। पुनः वह अपने कथन को सिद्ध करने के लिए ज्यों-ज्यों असत् प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों वह उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त का भागी होता जाता है।
Elaboration-Ascetic praxis is called kalp. Formulating and prescribing progressively intensifying atonement for specific and multiplying faults is called prastaar. When an ascetic accuses another ascetic of blames related to violence and other transgressions of ascetic praxis and collects imaginary and false evidences; after this prove his accusation then it is he who has to undergo the same prescribed atonement. If he continues to pile up false evidences by hook or crook to prove his point, he continues to be liable to progressively
severe atonement. म पलिमन्थु-पद PALIMANTHU-PAD (SEGMENT OF DETRIMENTS OF ASCETIC PRAXIS) ॐ १०२. छ कप्पस्स पलिमंथु पण्णत्ता, तं जहा-कोकुइते संजमस्स पलिमंथू, मोहरिए ।
सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खूलोलुए ईरियावहियाए पलिमंथु, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू, ॐ इच्छालोभिते मोत्तिमग्गस्स पलिमंथू, भिज्जाणिदाणकरणे मोक्खमग्गस्स पलिमंथू। सव्वत्थ भगवता
अणिदाणता पसत्था। म १०२. कल्प के छह पलिमंथु (साधु आचार के विघातक कारण) हैं-(१) कौकुचित -चपलता
संयम का पलिमंथु है, (२) मौखरिक-मुखरता या बकवाद सत्य का पलिमंथु है, (३) चक्षुर्लोलुप-नेत्र के
विषय में आसक्त, ईर्यापथिक का पलिमंथ है। (४) तिंतिणक-चिड़चिड स्वभाव वाला, एषणा-गोचरी 卐 का पलिमंथु है। (५) इच्छालोभिक-अतिलोभी, निष्परिग्रह रूप मुक्तिमार्ग का पलिमंथु है। (६) अभिध्या
निदानकरण-चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के भोगों का निदान करने वाला मोक्षमार्ग का पलिमंथु है। भगवान ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त (श्रेष्ठ) कहा है।
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षष्ठ स्थान
(261)
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102. There are six palimanthu (detriments) of kalp (ascetic praxis)- (1) Kaukuchit (hastiness) is detrimental to discipline. (2) Maukharik ki (blathering) is detrimental to truth. (3) Chakshurlolup (obsession of 41 + visual gratification) is detrimental to iryapathiki (careful movement).
(4) Tintinak (irritability) is detrimental to eshana (alms-seeking). (5) Ichchhalobhik (covetousness) is detrimental to path of liberation (non-possession). (6) Abhidhyanidan-karan (avaricious ambition) of sensory pleasures of Chakrawarti or Vasudev is detrimental to path of
liberation. Bhagavan has always appreciated absence of worldly desires. 卐 विवेचन-इन सबका विशेष अर्थ इस प्रकार है (१) कौकुचित-कुत्सित शारीरिक चेष्टा। इसके तीन ज
भेद हैं-(१) स्थान से, अपने स्थान पर नट या कठपुतली की तरह नाचना। (२) शरीर से, हाथ-पैर * आदि अंगों को सिकोड़ना, बिगाड़ना। (३) भाषा से, मुँह से विचित्र प्रकार की आवाजें निकालना।
(२) मौखरिक-बिना विचारे अंट-संट बोलना। (३) चक्षुलोलुप-चलते हुए इधर-उधर तांक-झाँक के
करना। लुभावने दृश्यों को देखना। (४) तितिणिक-आहार आदि की मनचाही प्राप्ति न होने पर खिन्न 卐 होना या बड़बड़ाना। (५) इच्छालोभिक-असीम इच्छा और असीम लोभ की वृत्ति रखना। (६) भिज्जा
निदान-ऋद्धि, पद, विषय-सुख आदि की अभिलाषो से बार-बार निदान करना। (हिन्दी टीका भाग-२ 卐 पृष्ठ ३२७) TECHNICAL TERMS
(1) Kaukuchit-hastiness and grotesque movements of body. This is of three kinds-1. place related includes to dance like an acrobat or a puppet at one place; 2. body related includes disgraceful gestures as well as repulsive and freakish contortions of body parts; 3. speech related includes producing strange sounds from mouth. (2) Maukharikblathering oruttering incoherent and thoughtless words. (3) Chakshurlolup-obsession of visual gratification leading to peeping and staring at attractive scenes. (4) Tintinak-irritability, such as discontentment on not getting desired things including food, and expressing it grudgingly. (5) Ichchhalobhik-covetousness or excessive greed for possessions. (6) Abhidhyanidan-karan-avaricious ambition and persistent desire for power, status, wealth, carnal and other such mundane attainments. (Hindi Tika, part-2, p. 327) कल्पस्थित-पद KALPASTHITI-PAD (SEGMENT OF PRAXIS OBSERVATION)
१०३. छब्बिहा कप्पद्विती पण्णत्ता, तं जहा-सामाइयकप्पद्विती, छेओवट्ठावणियकप्पद्विती, ॐ णिब्बिसमाणकप्पद्विती, णिविट्ठकप्पद्विती, जिणकप्पद्विती, थेरकप्पद्विती।
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Sthaananga Sutra (2)
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१०३. कल्प की स्थिति (संयम की मर्यादा) छह प्रकार की है-(१) सामायिककल्पस्थिति, म (२) छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति, (३) निर्विशमानकल्पस्थिति, (४) निर्विष्टमानकल्पस्थिति,
(५) जिनकल्पस्थिति और (६) स्थविरकल्पस्थिति। (इनका विवेचन स्थान ३ के सूत्र ३६४ पर किया जा फ़ चुका है।)
____103. Kalpasthiti (praxis observation) is of six kinds-(1) Samayik 4 kalpasthiti, (2) Chhedopasthapaniya kalpasthiti and (3) Nirvishamaan Si kalpasthiti, (4) Nirvisht kalpasthiti, (5) Jinakalpasthiti and
(6) Sthavirakalpasthiti. (These have been discussed in details in aphorism 364 of Sthaan 3) महावीर षष्ठभक्त-पद MAHAVIR SHASHT-BHAKT-PAD
(SEGMENT OF MAHAVIR'S TWO-DAY FASTING) १०४. समणे भगवं महावीरे छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं मुंडे [ भवित्ता अगाराओ अणगारियं ] * पवइए। १०५. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं अणंते अणुत्तरे + [णिव्वाधाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे ] समुप्पण्णे। १०६. समणे भगवं
महावीरे छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं सिद्धे [ बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिब्बुडे ] सव्वदुक्खप्पहीणे। # १०४. श्रमण भगवान महावीर अपानक-(जलादिपान-रहित) षष्ठभक्त-(दो उपवास) की तपस्या के के साथ मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। १०५. श्रमण भगवान महावीर को
अपानक षष्ठभक्त की तपस्या में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, परिपूर्ण केवलवर
ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ। १०६. श्रमण भगवान महावीर अपानक षष्ठभक्त से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, + अन्तकृत् और सर्वदुःखों से रहित हुए।
104. Shraman Bhagavan Mahavir tonsured his head and renouncing Fi his household got initiated into the ascetic religion after apaanak | shashthabhakta (missing six meals or two-day fasting without water).
105. Shraman Bhagavan Mahavir attained anant (infinite), anuttar (unmatched), nirvyaaghaat (unrestricted), niraavaran (unveiled), kritsna
(perfect) and paripurna (supreme) omniscience (Keval-jnana and keval- darshan) while observing apaanak shashthabhakta. 106. Shraman
Bhagavan Mahavir became perfect (Siddha), enlightened (buddha),
liberated (mukta), free of cyclic rebirth (parinivrit), and ended all fi miseries after observing apaanak shashthabhakta. fi farura-VIMAAN-PAD (SEGMENT OF CELESTIAL VEHICLES) * १०७. सणंकुमार-माहिंदेसु णं कप्पेसु विमाणा छ जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
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१०७. सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के विमान छह सौ योजन उत्कृष्ट ऊँचाई वाले हैं।
107. The maximum height of vimaans (celestial vehicles) in Sanatkumar and Mahendra kalps is six hundred Yojans. देव-पद DEVA-PAD (SEGMENT OF GODS)
१०८. सणंकुमार-माहिदेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जगा सरीरगा उक्कोसेणं छ रयणीओ उडं उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
१०८. सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के देवों के भवधारणीय शरीर ऊँचाई में छह रत्निप्रमाण है।
108. The bhavadharaniya sharira (incarnation sustaining bodies) of gods in Sanatkumar and Mahendra kalps is six Ratni tall. भोजन परिणाम-पद BHOJAN PARINAM-PAD (SEGMENT OF BENEFITS OF FOOD)
१०९. छबिहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-मणुण्णे, रसिए, पीणणिज्जे, बिंहणिज्जे, मयणिज्जे, दप्पणिज्जे।
१०९. भोजन का परिणाम-(परिपाक) छह प्रकार का होता है-(१) मनोज्ञ-मन में आनन्द उत्पन्न करने वाला। (२) रसिक-विविधरसयुक्त व्यंजन वाला। (३) प्रीणनीय-रस रक्तादि धातुओं में समता ऊ लाने वाला। (४) बृंहणीय-रस, मांसादि, धातुओं को बढ़ाने वाला। (५) मदनीय-कामशक्ति को बढ़ाने के
वाला। (६) दर्पणीय-शरीर का पोषण करने वाला, उत्साहवर्धक। ॐ 109. There are six bhojan parinam (benefits of food)—(1) Manojna
infusing joy in mind. (2) Rasik-providing a variety of tastes and flavours. (3) Preenaniya-creating balance in blood and other body fluids. (4) Vrimhaniya—nourishing fluids, flesh and other body
components. (5) Madaniya-acting as aphrodisiac. (6) Darpaniya$i providing nutrition to the body; invigourating. ॐ विषपरिणाम-पद VISH-PARINAM-PAD (SEGMENT OF EFFECTS OF POISON)
११०. छब्बिहे विसपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-डक्के, भुत्ते, णिवतिते, मंसाणुसारी, म सोणिताणुसारी, अट्ठिमिंजाणुसारी।
११०. विष का परिणाम या विपाक छह प्रकार का होता है-(१) दष्ट-किसी विषैले जीव द्वारा काटे जाने पर प्रभाव डालने वाला। (२) भुक्त-खाये जाने पर प्रभाव डालने वाला। (३) निपतित-शरीर
के बाहिरी भाग (चमड़ी या दृष्टि) से स्पर्श होने पर प्रभाव डालने वाला। (४) माँसानुसारी-माँस तक की 5 धातुओं को प्रभावित करने वाला। (५) शोणितानुसारी-रक्त तक की धातुओं को प्रभावित करने वाला।
(६) अस्थि-मज्जानुसारी-हड्डी और हड्डियों के रस तक की धातुओं पर प्रभाव डालने वाला।
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110. There are six vish parinam (ways a poison acts ) - ( 1 ) Dasht-one 5 5 that acts on being stung or bitten by a venomous being. (2) Bhukta-one 5 that acts when consumed. (3) Nipatit-one that acts when touched to
any part of the body (skin). (4) Mansanusari-one that affects flesh. (5) Shonitanusari-one that affects blood. (6) Asthi-majjanusari-one that affects bones and bone-marrow.
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தத்தித்தபூபூமிதிததமிதிமிதிததமி
१११. प्रश्न छह प्रकार के होते हैं - ( १ ) संशयप्रश्न - संशय दूर करने के लिए पूछना । (२) व्युद्ग्रहप्रश्न - मिथ्याभिनिवेश से दूसरे को पराजित करने के लिए पूछना । (३) अनुयोगीप्रश्न - व्याख्या के लिए पूछना। (४) अनुलोम प्रश्न - कुशल - कामना से पूछना । (५) तथाज्ञानप्रश्न- स्वयं जान हुए 卐 दूसरों की ज्ञानवृद्धि के लिए पूछना। (६) अतथाज्ञानप्रश्न - स्वयं नहीं जानने पर जानने के लिए पूछना।
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111. Prashna (questions) are of six kinds-(1) Samshaya prashnaquestion for removing doubt, (2) vyudgraha prashna-question for 卐 confusing and defeating an opponent, (3) anuyogi prashna-question seeking elaboration, (4) anulom prashna-question to know about फ welfare, ( 5 ) tathajnana prashna-question aimed at educating others, in 5 spite of already knowing the answer, and (6) atathajnana prashnaquestion for knowing the unknown.
प्रश्न- पद PRASHNA PAD (SEGMENT OF QUESTION)
१११. छव्विहे पट्टे पण्णत्ते, तं जहा-संसयपट्टे, बुग्गहपट्टे, अणुजोगी, अणुलोमे, तहणाणे, अतहणाणे ।
5 विरहित-पद VIRAHIT-PAD (SEGMENT OF OMMISSION)
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११२. चमरचंचा राजधानी में अधिक से अधिक छह मास तक उपपात का विरह ( अन्य देव की उत्पत्ति का व्यवधान) हो सकता है। ११३. प्रत्येक इन्द्र के स्थान में उत्कृष्ट रूप में छह मास तक इन्द्र
5 उपपात का विरह ( अन्य इन्द्र की उत्पत्ति का व्यवधान) हो सकता है । ११४. निचली सातवीं पृथिवी में
उत्कृष्ट रूप से छह मास तक नारकीजीव के उपपात का विरह हो सकता है । ११५. सिद्धगति में उत्कृष्ट फ रूप में छह मास तक सिद्ध जीव 'उपपात का विरह हो सकता है।
११२. चमरचंचा णं रायहाणी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिया उववातेणं । ११३. एगमेगे णं
इंदट्ठाणे उक्कोसेणं छम्मासे विरहिते उववातेणं । ११४. अधेसत्तमा णं पुढवी उक्कोसेणं छम्मासा
विरहिता उववातेणं । ११५. सिद्धिगती णं उक्कोसेणं छम्मासा विरहिता उववातेणं ।
in
112. In the capital city Chamarachancha there can be an ommission upapat (instantaneous birth) of a god for a maximum period of six months. 113. In the abode of every Indra there can be an omission in upapat of another Indra for a maximum period of six months. 114. In the
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45 seventh lower world (hell) there can be an omission in upapat of an
infernal being for a maximum period of six months. 115. In the abode of Siddhas (perfected beings or liberated souls) there can be an omission in upapat of a Siddha for a maximum period of six months.
आयुर्बन्ध-पद AYURBANDH-PAD (SEGMENT OF LIFE SPAN BONDAGE) * ११६. छबिहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा-जातिणामणिधत्ताउए, गतिणामणिधत्ताउए, # ठितिणामणिधत्ताउए, ओगाहणाणामणिधत्तउए, पएसणामणिधत्ताउए, अणुभागणामणिधत्ताउए। म ११६. आयुष्य का बन्ध छह प्रकार का होता है-(१) जातिनामनिधत्तायु, (२) गतिनामनिधत्तायु,
(३) स्थितिनामनिधत्तायु, (४) अवगाहनानामनिधत्तायु, (५) प्रदेशनामनिधत्तायु, (६) अनुभागनामनिधत्तायु। 4 116. Ayushyabandh (bondage of karmas determining next life span) is
of six kinds—(1) jati-naam-nidhatt-ayu, (2) gati-naam-nidhatt-ayu,
(3) sthiti-naam-nidhatt-ayu, (4) avagahana-naam-nidhatt-ayu, 5 (5) pradesh-naam-nidhatt-ayu and (6) anubhag-naam-nidhatt-ayu. 卐 विवेचन-जिस समय किसी जीव को आयु का बंध होता है, तब वह जाति गति आदि छहों के साथ
निधत्त (गाठ बंधन मय) होता है। अमुक आयु का बंध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय ॐ आदि पाँच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से एक गति का, अमुक
समय की स्थिति काल मर्यादा का, अवगाहना, औदारिक या वैक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर का
तथा आयुष्य के प्रदेशों-परमाणु संचयों का और उसके अनुभाव-विपाक शक्ति का भी बंध करता है। के इस प्रकार आयु कर्म के बंध के साथ ये छहों प्रकार का बंध होता है।
Elaboration-When a being acquires bondage of life span determining karma the process includes fixation (nidhatt) of six parameters including 4 jati (species) listed here. A being acquiring life span bondage acquires
simultaneously the bondage of one of the five jatis including ekendriya (one-sensed being), one of the four genuses including narak, specific duration of time (sthiti), space occupation (avagahana) of one of the two
bodies (audarik or vaikriya), specific aggregates of ultimate-particles 4 (pradesh), and specific potency of acquired karma particles (anubhag). 4 Thus bondage of ayushya karma includes these six types of bondage. फ़ पारभविक-आयुर्बन्ध-पद PARBHAVIK AYURBANDH-PAD
(SEGMENT OF LIFE SPAN BONDAGE FOR NEXT BIRTH) ११७. णेरइयाणं छविहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा-जातिणामणिहत्ताउए, (गतिणामणिहत्ताइए, ठितिणाम णिहत्ताउए, ओगाहणाणाम णिहत्ताउए, पएसणाम णिहत्ताउए), ॐ अणुभागणाम णिहत्ताउए। ११८. एवं जाव वेमाणियाणं।
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5 (5) pradesh-naam-nidhatt-ayu (pradesh of these
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११७. नारकी जीवों का आयुष्क बन्ध छह प्रकार का होता है - ( १ ) जातिनामनिधत्तायु - नारकायुष्क के बन्ध के साथ पंचेन्द्रियजातिनामकर्म का ( २ ) गतिनामनिधत्तायु - नारकायुष्क के बन्ध के साथ नरकगति का, (३) स्थितिनामनिधत्तायु - नारकायुष्क के बन्ध के साथ स्थिति ( कालमान) का, (४) अवगाहनानामधित्तायु - नारकायुष्क के बन्ध के साथ वैक्रियशरीरनामकर्म (५) प्रदेशनामनिधत्तायु - नारकायुष्क के बन्ध के साथ प्रदेशों का और ( ६ ) अनुभागनामनिधत्तायुनारकायुष्क के बंध के साथ अनुभाग का नियम से बंध होता है । ११८. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों के जीवों में आयुष्यकर्म का बन्ध इसी तरह छह प्रकार का होता है।
११९. णेरइया णियमा छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेंति । १२०. एवं असुरकुमारावि
5 जाव थणियकुमारा । १२१. असंखेज्जवासाउया सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया णियमं छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेंति । १२२. असंखेज्जवासउया सष्णिमणुस्सा णियमं छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेंति । १२३. वाणमंतरा जोतिसवासिया वेमाणिया जहा कणेरइया ।
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११९. नारकी जीव आयु के छह मास शेष रहने पर नियम से परभव की आयु का बन्ध करते हैं । १२०. इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के सभी देव भी छह मास आयु के अवशेष रहने पर नियम से परभव की आयु का बन्ध करते हैं । १२१. असंख्येयवर्ष आयुष्य वाले संज्ञि-पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव छह मास आयु अवशेष रहने पर नियम से परभव की आयु का बन्ध करते हैं । १२२. असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञि-मनुष्य छह मास की आयु अवशेष रहने पर नियम से परभव
की आयु का बन्ध करते हैं । १२३. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव नारक जीवों के समान
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छह मास आयु शेष रहने पर परभव की आयु का नियम से बन्ध करते हैं।
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117. Ayushyabandh (bondage of karmas determining next life span of 5 infernal beings is of six kinds-(with bondage of life span as infernal beings they also enter bondage of ) - ( 1 ) jati-naam-nidhatt-ayu (panchendriya-jati-naam-karma), (2) gati-naam-nidhatt- ayu (narak-gatinaam-karma ), (3) sthiti-naam-nidhatt-ayu ( sthiti of these karmas), avagahana-naam-nidhatt-ayu (vaikriya sharira-naam-karma),
karmas)
and
(6) anubhag-naam-nidhatt-ayu (anubhag of these karmas). 118. In the
same way Ayushyabandh (bondage of karmas determining next life span)
of all beings of all dandaks up to Vaimaniks is of six kinds.
119. As a rule infernal beings acquire the bondage of life span of next
birth when six months are left from their present life span. 120. In the
same way all the divine beings from Asur Kumars to Stanit Kumars also,
as a rule, acquire the bondage of life span of next birth when six months
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are left from their present life. 121. Sanjni panchendriya tiryakyoni jivas 卐 (sentient five sensed animals) with a life span of innumerable years also,
as a rule, acquire the bondage of life span of next birth when six months are left from their present life. 122. Sanjni manushya (sentient human beings) also, as a rule, acquire the bondage of life span of next birth when six months are left from their present life. 123. Like infernal beings Vanavyantar, Jyotishk and Vaimanik gods also, as a rule, acquire the bondage of life span of next birth when six months are left from their
present life. क विवेचन-किस जीव को अगले भव का आयुष्य कब बँधता है, इस विषय में संस्कृत टीका में निम्न गाथा उद्धृत है
निरइ सुर असंखाउ तिरि-मणुआ सेसए उ छम्मासे। इग-विगला निरुवक्कम तिरि-मणुया आउय तिभागे। अवसेसा सोवक्कम तिभाग नवभाग सत्तवीसइमे।
बंधंति परभवाउं नियइ भवे सब जीवा उ॥ ____ -नैरयिक, देव, तथा असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य, जब इनकी आयु छः महीने
शेष रहती है तब वे परभव की आयु का बन्ध करते हैं। निरुपक्रम आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य अपनी ॥ म आयु के तीसरे भाग में अगले भव की आयु का बंध करते हैं। शेष सोपक्रम आयु वाले जीव अपनी आयु के - तीसरे, नौवें तथा सत्ताइसवें भाग में आयु का बंध करते हैं। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ २४१)
Elaboration-Which being acquires life-span determining karmas when is mentioned in a verse in Sanskrit Tika
Infernal beings, gods and human beings with a life span of $ innumerable years acquire the bondage of life span of next birth when
six months are left from their present life. Animals and human beings with nirupakram (irreducible) life span acquire the bondage of life span of next birth when one third of their present life span is remaining. All
the remaining beings with sopakram (reducible) life span acquire the 4 bondage of life span of next birth when one third, one ninth or one $
twenty seventh of their present life span is remaining. (Hindi Tika, part-2, 卐 p. 241) भाव-पद BHAAVA-PAD (SEGMENT OF STATE)
१२४. छबिहे भावे पण्णत्ते, तं जहा-ओदइए, उवसमिए, खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, सण्णिवातिए।
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१२४. भाव ( जीव की शुद्ध अशुद्ध पर्याय) या अवस्था छह प्रकार की होती है - ( १ ) औदयिक 5 भाव - कर्म के उदय से होने वाले कषाय, वेद आदि २१ भाव । (२) औपशमिक भाव - मोहकर्म के उपशम फ से होने वाले सम्यक्त्व चारित्र २ भाव । (३) क्षायिक भाव-घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले अनन्त ज्ञान - दर्शनादि ९ भाव । (४) क्षायोपशमिक भाव - घातिकर्मों के क्षयोपशम से होने वाले मति श्रुतज्ञानादि 卐 १८ भाव। (५) पारिणामिक भाव- किसी कर्म के उदयादि के बिना अनादि से चले आ रहे जीवत्व आदि
卐
३ भाव। (६) सान्निपातिकभाव-उपर्युक्त भावों के संयोग से होने वाला २६ प्रकार का भाव । ( भावों के 5 विस्तृत वर्णन के लिए सचित्र अनुयोगद्वार भाग - १ पृष्ठ ३४९-३५९) देखें)
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5 प्रतिक्रमण-पद PRATIKRAMAN - PAD (SEGMENT OF CRITICAL REVIEW)
124. Bhaava (state of a being) are of six kinds – ( 1 ) Audayik bhaavastate of jiva (being or soul) caused by udaya ( fruition) of karmas; this includes the 21 states including passions and gender. (2) Aupashamik bhaava-state caused by upasham (pacification) of Mohaniya karmas; this includes samyaktva (righteousness) and charitra (right conduct ). 5 (3) Kshayik bhaava-state caused by kshaya (destruction) of vitiating 5 karmas; this includes nine states including infinite knowledgeperception. (4) Kshayopashamik bhaava-state of mind caused by kshayopasham (pacification-cum-destruction) of karmas; this includes 5 18 states including mati jnana and shrut jnana. (5) Parinamik bhaava- फ्र three eternal states unrelated to action of karmas; this includes three states including jivatva (the quality of being a soul). (6) Sannipatik bhaava-state incorporating combinations of the said five states; this includes 26 different states. (for detailed discussion on bhaavas refer to F Illustrated Anuyogadvar Sutra, part-1, pp. 349-59)
१२५. छव्विहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा - उच्चारपडिक्कमणे, पासवणपडिक्कमणे, इत्तरिए, आवकहिए, जंकिंचिमिच्छा, सोमणंतिए ।
षष्ठ स्थान
१२५. प्रतिक्रमण (दोषों की शुद्धि के लिए की जाने वाली क्रिया) छह प्रकार का होता है(१) उच्चार - प्रतिक्रमण - मल विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । (२) प्रस्रवण - प्रतिक्रमण - मूत्र विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । (३) इत्वरिक- प्रतिक्रमण - दैवसिक-रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना । (४) यावत्कथिक - प्रतिक्रमण - मारणान्तिकी संलेखना के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण | (५) यत्किञ्चित्मिथ्यादुष्कृत - प्रतिक्रमण - साधारण दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिए 'मिच्छामि 5 दुक्कडं ' कहकर पश्चात्ताप प्रकट करना । (६) स्वप्नान्तिक - प्रतिक्रमण - दुःस्वप्नादि देखने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण |
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125. Pratikraman (critical review) is of six kinds-(1) Uchcharpratikraman-to perform pratikraman with Iryapathiki Sutra (a specific verse) after disposal of faeces. (2) Prasravan-pratikraman - to perform pratikraman with Iryapathiki Sutra (a specific verse) after disposal of urine. (3) Itvarik-pratikraman — to perform devcsik (for activities of the day) and ratrik (for activities of the night) and other time related pratikraman. (4) Yavatkathit pratikraman-that performed during the 5 ultimate vow (maranantik sallekhana). (5) Yatkinchitmithyadushkrit- 5 pratikraman-that done by uttering 'michchhami dukkadam' for atonement on committing some ordinary fault. (6) Svapnantikpratikraman-that done after seeing a bad dream.
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१२८. जीवा छट्ठाणणिव्यत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा - पुढविकाइयणिव्यत्तिए, तसकायणिव्यत्तिए । एवं5 चिण-उवचिण-बंध - उदीर - वेय तह णिज्जरा चेव ।
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नक्षत्र - पद NAKSHATRA-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS)
१२६. कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते । १२७. असिलेसा णक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते । १२६. कृत्तिका नक्षत्र छह तारावाला है। १२७. अश्लेषा नक्षत्र छह तारावाला है।
126. Krittika (Eta Tauri or Pleiades; the 3rd ) constellation has six stars. 127. Ashlesha (Alpha Hydrae; the 9th) constellation has six stars.
१२८. जीवों ने छह अवस्थाओं में कर्मपुद्गलों को पापकर्म के रूप से ग्रहण किया था, ग्रहण करते हैं और ग्रहण करेंगे, यथा-- (१) पृथ्वीकायनिर्विर्तित (पृथ्वीकाय के रूप में), [ (२) अप्कायनिर्वर्तित, (३) तेजस्कायनिर्वर्तित, (४) वायुकायनिर्वर्तित, (५) वनस्पतिकायनिर्वर्तित], (६) त्रसकायनिर्वर्तित।
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इसी प्रकार सभी जीवों ने उक्त षट्काय- निर्वर्तित कर्मपुद्गलों का पापकर्म के रूप से उपचय, 卐 उदीरणा, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
the form of demeritorious karmas in the past, present and future
फ्र
5 respectively four ways — ( 1 ) Prithvikaya-nirvartit (earned as earth-bodied
5 beings), (2) Apkayiks (water-bodied beings ), ( 3 ) Tejaskaya-nirvartit 5 (earned as fire-bodied beings), (4) Vayukaya-nirvartit (earned as air
beings) and (5) tras-kaya-nirvartit (earned as mobile-bodied beings).
बन्ध,
128. All beings did, do and will acquire (sanchit) karma particles in h
In the same way all beings did, do and will augment (upachaya), bond
5 (bandh), fructify (udiran ), experience ( vedan) and shed ( nirjaran) the acquired karma particles in the past, present and future respectively.
स्थानांगसूत्र (२)
5 bodied beings ), ( 5 ) Vanaspatikaya-nirvartit (earned as plant-bodied f
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தமிமிததமி***தமிழ்***தமிமிமிமிதிததமி***தமிமிமிமிமிழமிழி
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Sthaananga Sutra (2)
6 5 5 5 5 5 5955555 5 5 5 5 5 5955 59595955 5 5 5 5 5 5 5 5 595 59595952
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ॐ पुद्गल-पद PUDGAL-PAD
१२९. छप्पएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। १३०. छप्पएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। १३१. छसमयद्वितीया पोग्गला अणंता पण्णत्ता। १३२. छगुणकालगा पोग्गला जाव छगुणलुक्खा 2 पोग्गला अणंता पण्णत्ता।
१२९. छह प्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं। १३०. छह प्रदेशावगाढ (छह प्रदेशों पर अवगाहन किये हुए) पुद्गल अनन्त हैं। १३१. छह समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त हैं। १३२. छह गुण काले (पाँचों के वर्ण वाले) पुद्गल अनन्त हैं।
इसी प्रकार शेष दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श के छह गुण वाले पुद्गल अनन्त-अनन्त हैं। म
129. There are infinite Chhaha pradeshi pudgal-skandhs (aggregates of six ultimate particles). 130. There are infinite Chhaha pradeshavagadh pudgal-skandhs (ultimate particles occupying six space-points). 131. There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with stability of six Samayas. 132. There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with six units of the attribute of black appearance.
In the same way there are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with six units of each of the remaining attributes of smell (two), taste (five), and touch (eight).
॥छठा स्थान समाप्त ॥ • END OF THE SIXTH STHAANO
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षष्ठ स्थान
(271)
Sixth Sthaan
Page #326
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सप्तम स्थान
सार : संक्षेप 卐 सात की संख्या से सम्बद्ध विषयों का संकलन सप्तम स्थान में है। यद्यपि जैन आगमों का मुख्य
प्रतिपाद्य आचारधर्म है, तथापि अन्य विविध विषयों का वर्णन उनमें उपलब्ध है। इस स्थान में सात ॐ संख्या वाले अनेक दार्शनिक, भौगोलिक, ज्योतिष्क, ऐतिहासिक और पौराणिक एवं प्रासंगिक विषयों के 卐 का वर्णन है।
संसार चक्र से मुक्ति पाने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना करना आवश्यक है। 卐 साधारण व्यक्ति किसी आधार या आश्रय के बिना उनकी आराधना नहीं कर सकता है, इसके लिए
तीर्थंकरों ने संघ की व्यवस्था की। संघ के सम्यक् संचालन का भार अनुभवी, लोकव्यवहार कुशल ॐ आचार्य को सौंपा। वह निष्ठापूर्वक अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए जब यह अनुभव करे कि संघ या ॥ +गण में रहते हुए मेरा आत्म-विकास सम्भव नहीं, और अधिक उच्चस्तरीय साधना के लिए आगे बढ़ना
है, तब वह गण को छोड़ कर या तो किसी महान् आचार्य के पास जाता है, या एकलविहारी होकर
आत्म-साधना में संलग्न होता है। आत्म-साधना के लिए गण को छोड़ना गणअपक्रमण है। इस स्थान में ! सर्वप्रथम गणापक्रमण-पद द्वारा इसी तथ्य का निरूपण किया है। म अहिंसा और अपरिग्रह की साधना के लिए भय मुक्त रहना आवश्यक है। भय उसे ही होता है
जिसकी शरीर आदि पर ममता होती है। इस दृष्टि से यहाँ सात प्रकार के भयों का वर्णन है। 5 साधक को किस प्रकार के वचन बोलना चाहिए और किस प्रकार के नहीं, यह वचन विवेक + आवश्यक है। इसी के साथ प्रशस्त और अप्रशस्त विनय के सात-सात प्रकार भी ज्ञातव्य हैं। अविनयी ॐ अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता है। अतः विनय के प्रकारों को जानकर प्रशस्त विनयों का के परिपालन करना आवश्यक है। 3 राजनीति की दृष्टि से दण्डनीति के सात प्रकार मननीय हैं। मनुष्यों में जैसे-जैसे कुटिलता की वृद्धि ॐ व आत्मानुशास की कमी हुई, वैसे-वैसे ही दण्डनीति भी कठोर होती गई। इसका क्रमिक-विकास
दण्डनीति के सात प्रकारों में निहित है। समाज व्यवस्था और राजव्यवस्था के इतिहास का क्रमिक के विकास इन सात नीतियों में लक्षित होता है।
उक्त विविध वर्णन के अतिरिक्त इस स्थान में जीव-विज्ञान, लोक-स्थिति-संस्थान, गोत्र, नय, 卐 आसन, पर्वत, सात प्रवचन निह्नव, सात समुद्घात का वर्णन है। सप्त स्वरों का विस्तृत वर्णन संगीत
विज्ञान की दृष्टि से बड़ा ज्ञानवर्धक है।
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AMMAR
स्थानांगसूत्र (२)
(272)
Sthaananga Sutra (2)
Page #327
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SEVENTH STHAAN (PLACE NUMBER SEVEN)
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454 455 456 457 454 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 455 456 457 458 455 456 457 455 456 457 455 456 45
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INTRODUCTION
Subjects related to the numeral seven are compiled in the Seventh Sthaan. Although the central theme of Jain Agams is the code of religious conduct, they contain discussions about a variety of numerous other topics. This Sthaan contains information on many topics including philosophical, geographical, astrological, historical and mythological
In order to get liberated from the cycles of rebirths it is essential to strive for right perception/faith, knowledge, and conduct. An ordinary individual cannot take to the path of spiritual endeavour without some basis or help. For this purpose the Tirthankars established the sangh (religious organization). The responsibility of properly managing the sangh was entrusted to an experienced acharya who was equally proficient in social customs. While sincerely disposing his duties a time y comes when such on acharya feels that while continuing to shoulder the
responsibilities of the sangh it was hardly possible to pursue the goal of spiritual F purity and it was time to proceed for higher practices. He then leaves the gana
(organization) and goes to some accomplished acharya or into isolation to devote all his time to spiritual practices. To leave a gana to pursue spiritual practices is called gana-apakraman. This is the first topic discussed in this Sthaan.
In order to practice ahimsa and aparigraha it is essential to be free of all ki fear. Cause of such fear is fondness for one's body and other connected things. Fi This fact is explained with seven kinds of fear.
It is essential for an aspirant to develop a discerning attitude about speech, he should know what words he should utter and what not. With this he is also supposed to know about the seven kinds of noble and ignoble modesty. An
immodest person cannot achieve the desired goal. Therefore, it is necessary to fi know about types of noble modesty and instill them in conduct.
In politics seven kinds of punitive policy is valid. With the upsurge of villainy and decline of self-discipline in human society the penal codes became tougher. The gradual progress of this is presented in the seven kinds of punitive policy. The evolution of social system and system of governance is reflected in these seven policies.
Besides these topics this chapter also contains descriptions related to biology, cosmology, castes, standpoints, postures, mountains, seven pravachan nihnava
and seven Samudghat. Detailed description of seven musical notes provides fi insight into musicology.
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सप्तम स्थान
(273)
Seventh Sthaan
2545455 456 457 4541414141455 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41
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सप्तम स्थान SEVENTH STHAAN (Place Number Seven)
गणापक्रमण-पद GANAPAKRAMAN-PAD (SEGMENT OF LEAVING THE GANA)
१. सत्तविहे गणावक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा-(१) सव्वधम्मा रोएमि। (२) एगइया रोएमि एगइया णो रोएमि। (३) सव्वधम्मा वितिगिच्छामि। (४) एगइया वितिगिच्छामि एगइया णो वितिगिच्छामि। (५) सव्वधम्मा जुहुणामि। (६) एगइया जुहुणामि एगया णो जुहुणामि। (७) इच्छामि णं भंते ! एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
१. सात कारणों से गण से अपक्रमण (गण-परित्याग या परिवर्तन) किया जा सकता है
(१) सर्व धर्मों में-(श्रुत और चारित्र के विविध प्रकारों में) मेरी रुचि है। इस गण में उनकी पूर्ति के साधन उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए भदन्त ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूँ और दूसरे गण की उपसम्पदा-(श्रुत-चारित्र की विशिष्ट साधना के लिए आश्रय/आलम्बन) को स्वीकार करता हूँ।
(२) कितनेक धर्मों-(साधना प्रकारों) में मेरी रुचि है और कितनेक धर्मों में मेरी रुचि नहीं है। के जिनमें मेरी रुचि है, उनकी पूर्ति के साधन या उनका विशिष्ट ज्ञाता इस गण में नहीं हैं। इसलिए भदन्त ! है मैं इस गण से अपक्रमण करता हूँ और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ।
(३) सर्व धर्मों में मेरा संशय (जिज्ञासा) है। उन संशयों का निराकरण (समाधान) करने के लिए हे भदन्त ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूँ और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ।
(४) धर्म के कुछ भेदों में मेरा संशय है और कितनेक धर्मों में मेरा संशय नहीं है। उन संशयों को % दूर करने के लिए हे भदन्त ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूँ और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ।
(५) मैं सभी धर्म (ज्ञान आदि) दूसरों को देना चाहता हूँ। इस गण में कोई योग्य पात्र नहीं है, जिसे मैं सभी धर्म (अपनी विद्या) दे सकूँ ! इसलिए हे भदन्त ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूँ और दूसरे ॐ गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ।
(६) मैं कितनेक धर्म (कुछ विद्याओं का ज्ञान) दूसरों को देना चाहता हूँ और कितनेक धर्म नहीं ॐ देना चाहता। इस गण में कोई योग्य पात्र नहीं है जिसे मैं जो देना चाहता हूँ, वह दे सकूँ। इसलिए हे + भदन्त ! मैं इस गण से अपक्रमण करता हूँ और दूसरे गण की उपसम्पदा को स्वीकार करता हूँ। 卐 (७) हे भदन्त ! मैं एकलविहारप्रतिमा को स्वीकार कर स्वतंत्र विहार करना चाहता हूँ। इसलिए इस : गण से अपक्रमण करता हूँ।
1. A gana can be left for seven reasons
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स्थानांगसूत्र (२)
(274)
Sthaananga Sutra (2)
Page #329
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(1) I have interest in all dharmas (various kinds of scriptures and codes of conduct). Means of learning and practicing that are not available in this gana. Therefore, Bhadant ! I leave (apakraman) this gana to take upasampada (admission for advanced study and practice of scriptures and codes of conduct) in another gana. ___(2) I have interest in some dharmas and not in others. Means and guides of pursuing the studies and practice of those of my interest are not available in this gana. Therefore, Bhadant ! I leave this gana to take
admission in another gana. Fi (3) I have doubts about all dharmas. Means of removing those doubts
are not available here. Therefore, Bhadant ! I leave this gana to take - admission in another gana. 5 (4) I have doubts about some dharmas and not about others. Means of 7 removing those doubts are not available here. Therefore, Bhadant !
I leave this gana to take admission in another gana. ! (5) I want to impart knowledge of all dharmas to others. There is no
capable student here to whom I can give all my knowledge. Therefore, Bhadant ! I leave this gana to take admission in another gana.
(6) I want to impart knowledge of some dharmas (or some subjects) and not of others to others. There is no capable student here to whom I can give what I want to. Therefore, Bhadant ! I leave this gana to take admission in another gana.
(7) Bhadant ! I want to take the special resolve of solitary prac and move about alone. Therefore I leave this gana.
एफ)))5555555555555555555555555555))
विभंगज्ञान-पद VIBHANG-JNANA-PAD
(SEGMENT OF UNRIGHTEOUS KNOWLEDGE) __२. सत्तविहे विभंगणाणे पण्णत्ते, तं जहा-(१) एगदिसिं लोगाभिगमे, (२) पंचदिसिं लोगाभिगमे, (३) किरियावरणे जीवे, (४) मुदग्गे जीवे, (५) अमुदग्गे जीवे, (६) रूपी जीवे, (७) सव्वमिणं जीवा।
(१) तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे-जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पज्जति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासति पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उड्ढे वा जाव सोहम्मे कप्पे। तस्स णं एवं भवति-अस्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे-एगदिसिं लोगाभिगमे। संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-पंचदिसिं लोगाभिगमे। जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसुः पढमे विभंगणाणे।
सप्तम स्थान
(275)
Seventh Sthaan
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5 55555555555
Page #330
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( २ ) अहावरे दोच्चे विभंगणाणे - जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुपज्जति । से णं णं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासति पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उडुं वा जाव सोहम्मे कप्पे । तस्स णं एवं भवति - अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णेपंचदिसिं लोगाभिगमे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु - एगदिसिं लोगाभिगमे । जे ते एवमाहं, मच्छं ते एवमाहंसु; दोच्चे विभंगणाणे ।
(३) अहावरे तच्चे विभंगणाणे - जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे 5 समुप्पज्जति । से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासति पाणे अतिवातेमाणे, मुसं वयमाणे, अणिमादियमाणे, मेहुणं पडिसेवमाणे, परिग्गहं परिगिण्हमाणे, राइभोयणं भुंजमाणे, पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासति । तस्स णं एवं भवति - अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णेकिरियावरणे जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-णो किरियावरणे जीवे । जे ते एवमाहं, मिच्छं ते एवमाहंसु; तच्चे विभंगणाणे ।
(५) अहावरे पंचमे विभंगणाणे - जया णं तहारूवस्स समणस्स (वा माहणस्स वा ) विभंगणाणे समुप्पज्जति । से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं देवामेव पासति बाहिरब्भंतरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पुढेगत्तं णाणत्तं (फुसित्ता फुरित्ता फुट्टित्ता) विउब्वित्ता णं चिट्ठित्तए । तस्स णं एवं भवति - अत्थि (णं मम अतिसेसे णाणदंसणे) समुप्पण्णे - अमुदग्गे जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु- मुदग्गे जीवे । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु; पंचमे विभंगणाणे |
(४) अहावरे चउत्थे विभंगणाणे - जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा (विभंगणाणे ) समुपज्जति । से णं णं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं देवामेव पासति बाहिरब्धंतरए पोग्गले परियाइत्ता 5 पुढेगत्तं णाणत्तं फुसित्ता फुरित्ता फुट्टित्ता विकुव्वित्ता णं चिट्ठित्तए । तस्स णं भवति - अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे - मुदग्गे जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु - अमुदग्गे जीवे । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु; चउत्थे विभंगणाणे ।
( ६ ) अहावरे छट्टे विभंगणाणे- -जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा (विभंगणाणे ) समुप्पज्जति । से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं देवामेव पासति बाहिरब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता वा अपरियाइत्ता वा पुढेगत्तं णाणत्तं फुसित्ता (फुरित्ता फुट्टित्ता) विकुव्वित्ता णं चिट्ठित्तए । तस्स णं एवं भवति - अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे- रुवी जीवे । संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु - अरूवी जीवे । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु, छट्टे विभंगणाणे।
(७) अहावरे सत्तमे विभंगणाणे - जया णं तहांरूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुपज्जति । से णं णं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासई सुहुमेणं वायुकाएणं फुडं पोग्गलकार्य एयंतं वेयंतं चतं खुब्भंत फंदतं घट्टतं उदीरेंतं तं तं भावं परिणमंतं । तस्स णं एवं भवति - अत्थि णं मम
स्थानांगसूत्र (२)
(276)
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Sthaananga Sutra (2)
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955555555555555 $ $$$$$$$$$$$$ $$ 5555555g ॐ अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे-सव्वमिणं जीवा। संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-जीवा के
चेव, अजीवा चेव। जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। तस्स णं इमे चत्तारि जीवणिकाया णो सम्ममुवगता भवंति, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया। इच्चेतेहिं चाहिं के
जीवणिकाएहि मिच्छादंड पवत्तेइ, सत्तमे विभंगणाणे। म २. विभंगज्ञान (मिथ्यात्वी का अवधिज्ञान) सात प्रकार का है-(१) एकदिग्लोकाभिगम-एक ही
दिशा लोक को जानने वाला। (२) पंचदिग्लोकाभिगम-पाँचों दिशाओं में लोक को जानने वाला।
(३) क्रियावरण जीव-जीव के क्रिया का ही आवरण है, कर्म का नहीं। (४) मुदग्गजीव-जीव को मुदग्ग- 卐 (पुद्गल-) निर्मित ही मानने वाला। (५) अमुदग्गजीव-जीव को पुद्गल-निर्मित नहीं मानने वाला।
(६) रूपी-जीव-जीव को रूपी ही मानने वाला। (७) यह सर्वजीव-इस सर्व दृश्यमान जगत् को जीव ही 卐 मानने वाला।
(१) पहला विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न 3 हुए विभंगज्ञान से पूर्व या पश्चिम या दक्षिण या उत्तर दिशा को या ऊर्ध्वदिशा को सौधर्मकल्प तक, इन म पाँचों दिशाओं में से किसी एक दिशा को देखता है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे
क्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हआ है। मैं इस एक दिशा में ही लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक पाँचों दिशाओ में है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह है के प्रथम विभंगज्ञान है।
(२) दूसरा विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस ॐ विभंगज्ञान से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध्वदिशा में सौधर्मकल्प तक देखता है। तब उसके मन
में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय (सम्पूर्ण) ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं पाँचों दिशाओं में ही ॐ लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक एक ही दिशा में है। जो ऐसा कहते ॥ म हैं वे मिथ्या कहते हैं। यह दूसरा विभंगज्ञान है। 9 (३) तीसरा विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस के म विभंगज्ञान से जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, अदत्त-ग्रहण करते हुए, मैथुन-सेवन करते
हुए, परिग्रह करते हुए और रात्रि-भोजन करते हुए देखता है, किन्तु उन प्रवृत्तियों के द्वारा होते हुए . ॐ कर्मबन्ध को नहीं देख पाता, तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन के म प्राप्त हुआ है। मैं ऐसा देख रहा हूँ कि जीव क्रिया से ही आवृत्त है, (क्रिया करने वाला है) कर्म से कर्म
का बंध करने वाला नहीं। जो श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव क्रिया से आवृत्त नहीं हैं, वे + मिथ्यावादी हैं। यह तीसरा विभंगज्ञान है।
(४) चौथा विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस । ॐ विभंगज्ञान से देवों को बाह्य (शरीर स्पृष्ट क्षेत्र से बाहर) और आभ्यन्तर (शरीर क्षेत्र के भीतर) पुद्गलों के
को ग्रहण कर विक्रिया-विभिन्न क्रियाएँ करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, इनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्न-भिन्न काल और विभिन्न देश में कभी एकरूप व कभी
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सप्तम स्थान
(277)
Seventh Sthaan
Page #332
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ॐ विविधरूपों की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय
ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव पुद्गलों से ही बना हुआ है। कितनेक श्रमण-माहन - ऐसा कहते हैं कि जीव शरीर-पुद्गलों से बना हुआ नहीं हैं, जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्यावादी हैं। यह 卐 चौथा विभंगज्ञान है।
. (५) पाँचवाँ विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस 卐 विभंगज्ञान से देवों को बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किये बिना (पुद्गलों की सहायता लिए
बिना) ही विविध क्रियाएँ करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल उत्पन्न मकर, उनका स्फोट कर, भिन्न-भिन्न काल और देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं। यह देखकर + उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि म
जीव पुदगलों से बना हुआ नहीं है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव-शरीर पदगलों से 卐 बना हुआ है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह पाँचवाँ विभंगज्ञान है।
(६) छठा विभंगज्ञान है-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस ॐ विभंगज्ञान से देवों को बाह्य आभ्यन्तर पदगलों को ग्रहण करके और ग्रहण किए बिना विक्रिया करते फ़ हुए देखता है। वे देव पुदगलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्न-भिन्न
काल और देश में कभी एक प्रकार व कभी विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में म में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव रूपी ही ॥
है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी हैं। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह छठा विभंगज्ञान है।
(७) सातवाँ विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस ॐ विभंगज्ञान से सूक्ष्म (मन्द) वायु के स्पर्श से पुद्गल (पुद्गल स्कन्धों को) काय को कम्पित होते हुए,
विशेष रूप से कम्पित होते हुए, चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पन्दित होते हुए, दूसरे पदार्थों का
स्पर्श करते हुए, दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए विभिन्न पर्यायों में परिणत होते हुए देखता है। तब ॐ उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि ये म सभी जीव ही जीव हैं, कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव भी हैं और अजीव भी हैं। जो ऐसा
कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। उस विभंगज्ञानी को पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और ॐ वायुकायिक, इन चारों जीव-निकायों का सम्यक् ज्ञान नहीं होता है। वह इन चार जीव-निकायों पर
मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है। यह सातवाँ विभंगज्ञान है। 4 2. Vibhang jnana (avadhi-jnana of an unrighteous person) is of seven i kinds—(1) Ekadiglokabhigam-covering only one direction of the lok,
(2) Panchadiglokabhigam-covering fire sides of the lok, (3) Kriyavaran jiva-believes that jiva (being or soul) is involved only in kriya (action) and not in karma (bondage of karma), (4) Mudagga jiva-believes that jiva (being or soul) is made up of matter alone, (5) Amudagga jiva
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स्थानांगसूत्र (२)
(278)
Sthaananga Sutra (2)
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believes that jiva (being or soul) is not made up of matter, (6) Rupi jiva4 believes that jiva (being or soul) is with form only, and (7) Sarva jivabelieves that the whole visible world is jiva (being or soul).
(1) First Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan (ascetic as described in scriptures) is endowed with vibhang-jnana, he sees any 'fi one of the five directions-east, west, south, north or zenith up to $i
Saudharma Kalp (a divine realm)—with the help of this knowledge. He Hi then thinks that he had acquired miraculous knowledge and perception
and saw the whole universe in this one direction. Many ascetics say that this universe existed in all the five directions. They all were telling a lie. This is first Vibhang-jnana.
(2) Second Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan is endowed with vibhang-jnana, he sees all the five directions-east, west,
south, north or zenith up to Saudharma Kalp—with the help of this fi knowledge. He then thinks that he had acquired miraculous knowledge fi and perception and saw the whole universe in all the five directions. * Many ascetics say that this universe existed in only one direction. They
all were telling a lie. This is second Vibhang-jnana. F (3) Third Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan is fi endowed with vibhang-jnana, he only sees beings indulging in violence, si
falsity, stealing, sex, possessions and eating during the night but is unable to see the bondage of karmas caused due to these activities. He then thinks
that he had acquired miraculous knowledge and perception and saw that fjiva (being or soul) was involved merely in action and there was no bondage Fi of karmas due to these actions. Many ascetics say that jiva was not involved in action. They all were telling a lie. This is third Vibhang-jnana.
(4) Fourth Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan is F endowed with vibhang-jnana, he sees gods picking matter particles from
outside their body as well as inside and performing a variety of transmutations and creating just one body or a variety of bodies by touching, agitating, and bursting forth at different times in different areas. He then thinks that he had acquired miraculous knowledge and perception and saw that jiva is made up of matter only. Many ascetics $1
say that jiva was not made up of matter. They all were telling a lie. This ! is fourth Vibhang-jnana.
(5) Fifth Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan is 15 endowed with vibhang-jnana, he sees gods performing a variety of
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सप्तम स्थान
( 279 )
Seventh Sthaan
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(6) Sixth Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan is endowed with vibhang-jnana, he sees gods performing a variety of transmutations and creating just one body or a variety of bodies by touching, agitating, and bursting forth at different times in different areas by picking as well as without picking matter particles from outside their body as well as inside. He then thinks that he had acquired miraculous knowledge and perception and saw that jiva is exclusively with form. Many ascetics say that jiva was formless. They all were telling a lie. This is sixth Vibhang-jnana.
(7) Seventh Vibhang-jnana-When a tatharupa saman-mahan is endowed with vibhang-jnana, he sees matter particles transforming into a i variety of modes by vibrating, uniquely vibrating, moving, agitating, 4 pulsating, touching other particles, and influencing other particles. He
then thinks that he had acquired miraculous knowledge and perception and saw that all these are jivas. Many ascetics say that they were jivas as well as ajivas. They all were telling a lie. That Vibhang-inani does not have complete and perfect knowledge of the four bodied beings-earth
bodied, water-bodied, fire-bodied and air-bodied. He harms these four Fibodied beings with his false perception. This is seventh Vibhang-jnana.
विवेचन-जो व्यक्ति सम्यग्दृष्टि होता है, उसे जितनी मात्रा में भी यह उत्पन्न होता है, वह ज्ञान उत्पन्न होने ज पर प्रारम्भिक क्षणों में विस्मित तो अवश्य होता है, किन्तु भ्रमित नहीं होता। वह यह जानता है कि मेरे
क्षयोपशम के अनुसार इतनी सीमा या मर्यादा वाला यह अतिशय युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, अतः मैं 2 उस सीमित क्षेत्रवर्ती पदार्थों को जानता हूँ। किन्तु यह लोक और उसमें रहने वाले पदार्थ असीम हैं।
किन्तु जो श्रमण-माहन मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनको उनमें उपरोक्त प्रकार से एकान्त आग्रह उत्पन्न हो JIST)
Elaboration-A samyagdrishti (righteous) person is surprised during the initial moments of acquiring unprecedented knowledge but he is not deluded. He realizes that he has acquired only limited knowledge according to the degree of pacification-cum-destruction of karmas. Thus
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FAITITE (2)
(280)
Sthaananga Sutra (2)
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he only knows limited things in a limited area but this universe is 4 unlimited and is filled with unlimited things.
But the ascetics who are unrighteous get singularly dogmatic as 4 mentioned above.
योनिसंग्रह-सूत्र YONI-SANGRAHA-PAD (SEGMENT OF PLACE OF ORIGIN) ॐ ३. सत्तविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडजा, पोतजा, जराउजा, रसजा, संसेयजा, समुच्छिमा, उभिगा।
३. योनि-संग्रह (जीवों के उत्पत्तिस्थान) सात प्रकार के हैं-(१) अण्डज-अण्डों से उत्पन्न होने वाले ॐ पक्षी सर्प आदि। (२) पोतज-चर्म-आवरण बिना उत्पन्न होने वाले हाथी, शेर आदि। (३) जरायुज+ चर्म-आवरण रूप जरायु (जेर) से उत्पन्न होने वाले मनुष्य, गाय आदि। (४) रसज-दूध-दही, तेल
आदि रसों में उत्पन्न होने वाले जीव। (५) संस्वेदज-संस्वेद (पसीना) से उत्पन्न होने वाले लूँ, लीख आदि। ॐ (६) सम्मूर्छिम-परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न होने वाले लट आदि। (७) उद्भिज्ज-भूमि को भेद कर म उत्पन्न होने वाले खंजनक आदि जीव।। 5 3. Yoni sangraha (places of origin) are of seven kinds--(1) Andaj or
born from an egg, as are birds, reptiles, etc. (2) Potaj or born as fully formed infants, as are elephants and tigers. (3) Jarayuj or placental,
such as man, cow etc. (4) Rasaj or born out of liquids including milk, $ curd, oil etc. (5) Samsvedaj or born out of sweat, such as louse, nit, etc.
(6) Sammoorchanaj or produced from asexual origin, such as worms. (7) Udbhij or those that burst out of the earth when born, such as khanjanak. गति-आगति-पद GATI-AAGATI-PAD (SEGMENT OF BIRTH FROM AND TO)
४. अंडगा सत्तगतिया सत्तागतिया पण्णत्ता, तं जहा-अंडगे अंडगेसु उववज्जमाणे अंडगेहितो जवा, पोतजेहिंतो वा, [जराउजेहिंतो वा, रसजेहिंतो वा, संसेयगेहिंतो वा, संमुच्छिमेहिंतो वा], 卐 उभिगेहिंतो वा, उववज्जेज्जा।
सच्चेव णं से अंडए अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए वा, [जराउजत्ताए वा, रसजत्ताए वा, संसयेगत्ताए वा, संमुच्छिमत्ताए वा ], उब्भिगत्ताए वा गच्छेज्जा।
५. पोतगा सत्तगतिया सत्तागतिया एवं चेव। सत्तण्हवि गतिरागती भाणियव्वा जाव उभियत्ति। ॐ ४. अण्डज जीवों की सात गति और सात आगति होती हैं जो जीव अण्डज योनि में उत्पन्न होता है है, वह अण्डजों से या पोतजों से या जरायुजों से या रसजों से या संस्वेदजों से या सम्मूर्छिमों से या
उद्भिज्जों से आकर उत्पन्न होता है।
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| सप्तम स्थान
(281)
Seventh Sthaan
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ॐ वही जीव अण्डज योनि को छोड़कर दूसरी योनि में जाता है, वह अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, म संस्वेदज, सम्मूर्छिम या उद्भिज्ज रूप से जाता है। अर्थात् सातों योनियों में उत्पन्न हो सकता है।
५. पोतज जीवों की सात गति और सात आगति होती हैं। इसी प्रकार सातों ही योनि वाले जीवों + की सातों ही गति-आगति होती हैं। 5 4. Andaj jiva (egg-born beings) have seven kinds of gatis (reincarnation 4 to) and seven aagatis (reincarnation from)-A being taking birth as Andaj i being reincarnates from either Andaj beings, Potaj beings, Jarayuj
beings, Rasaj beings, Samsvedaj beings, Sammoorchanaj beings or
Udbhij beings. 1 The same Andaj being leaving the state of Andaj being reincarnates
in the genus of either Andaj beings, Potaj beings, Jarayuj beings, Rasaj beings, Samsvedaj beings, Sammoorchanaj beings or Udbhij beings. In other words it can reincarnate in any of the said seven genuses.
5. Potaj beings also have seven gatis and aagatis. In the same way all the said seven kinds of beings have seven kinds of gatis (reincarnation to) and seven aagatis (reincarnation from).
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संग्रहस्थान-पद SANGRAHASTHAAN-PAD
___(SEGMENT OF PROPER MANAGEMENT) ६. आयरिय-उवज्झायस्स णं गणंसि सत्त संगहठाणा पण्णत्ता, तं जहा
(१) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा सम्म पउंजित्ता भवति। म (२) [ आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि आहाराइणियाए कितिकम्मं सम्मं पउंजित्ता भवति।
(३) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले सम्ममणुप्पवाइत्ता के म भवति। (४) आयरिय-उवज्झाए गं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं सम्ममभुट्टित्ता भवति । 4 (५) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि आपुच्छियचारी यावि भवति, णो अणापुच्छियचारी। म (६) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि अणुप्पण्णाई उवगरणाई सम्मं उप्पाइत्ता भवति।
(७) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि पुव्वुप्पणाई उवकरणाई सम्मं सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति, णो म असम्मं सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति।
६. आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में सात संग्रहस्थान (गण को सुव्यवस्थित रखने का उपाय) हैं
(१) आचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा (आदेश) एवं धारणा (निषेध) का सम्यक् प्रयोग करें। (२) आचार्य और उपाध्याय गण में यथारानिक (दीक्षा-पर्याय में छोटे-बड़े के क्रम से) कृतिकर्म क (वन्दनादि) का सम्यक् प्रयोग करें। (३) आचार्य और उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों को धारण
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स्थानांगसूत्र (२)
(282)
Sthaananga Sutra (2)
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करते हैं, उनकी उचित प्रकार से यथासमय गण को सम्यक वाचना देवें। (४) आचार्य और उपाध्याय , गण के ग्लान (रुग्ण) और शैक्ष (नवदीक्षित) साधुओं की वैयावृत्त्य के लिए सदा सावधान रहें।
(५) आचार्य और उपाध्याय गण को पूछकर अन्य प्रदेश में विहार करें, उसे पूछे बिना विहार न करें। (६) आचार्य और उपाध्याय गण के लिए अनुपलब्ध उपकरणों को यथाविधि उपलब्ध कराएँ।
(७) आचार्य और उपाध्याय गण में प्राप्त उपकरणों का सम्यक् प्रकार से संरक्षण एवं संगोपन करें, में असम्यक् प्रकार से-विधि का अतिक्रमण कर संरक्षण और संगोपन न करें।
6. For an acharya and upadhyaya there are seven sangrahasthaan (means of proper management -
(1) In the gana the acharya and upadhyaya should ensure proper F implementation of directive and interdictive commands (ajna and
dharana). (2) In the gana the acharya and upadhyaya should er proper implementation of code of protocol in all activities including
greetings (yatharatnik kritikarma). (3) In the gana the acharya and Eupadhyaya should ensure proper implementation of their duty of A scheduled and methodical recitation of the scriptures they know. (4) In
the gana the acharya and upadhyaya should always remain alert to ensure proper care of the sick and newly initiated ascetics. (5) In the gana the acharya and upadhyaya should ensure proper implementation
of their obligation of seeking permission of the gana before traveling to 5 another area and refrain from traveling without permission. (6) In the
gana the acharya and upadhyaya should ensure timely supply of required ascetic-equipment (upakaran) following the prescribed procedure. (7) In the gana the acharya and upadhyaya should ensure
proper care and storage of equipment received in the gana, and avoid 5 improper care and storage, transgressing the prescribed code. असंग्रहस्थान-पद ASANGRAHASTHAAN-PAD
(SEGMENT OF IMPROPER MANAGEMENT) ७. आयरिय-उवज्झायस्स णं गणंसि सत्त असंगहठाणा पण्णत्ता, तं जहा
(१) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा णो सम्मं पुउंजित्ता भवति। (२) [ आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि आहाराइणियाए कितिकम्मं णो सम्मं पउंजित्ता भवति। (३) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति ते काले-काले णो सम्ममणुप्पवाइत्ता भवति। (४) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं णो सम्ममन्भुट्टित्ता भवति।
(५) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि अणापुच्छियचारी यावि हवइ, णो आपुच्छियचारी। i (६) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसिं अणुप्पण्णाइं उवगरणाई णो सम्मं उप्पाइत्ता भवति।
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सप्तम स्थान
(283)
Seventh Sthaan
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步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙乐园 4 (७) आयरिय-उवज्झाए णं गणंसि ] पच्चुप्पण्णाणं उवगरणाणं णो सम्मं सारक्खेत्ता संगोवेत्ता
भवति। 5 ७. आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में सात असंग्रहस्थान (गण व्यवस्था को भंग करने
वाले) हैंम (१) आचार्य और उपाध्याय गण में आज्ञा एवं धारणा का सम्यक् प्रयोग न करें। (२) आचार्य और
उपाध्याय गण में यथारानिक कृतिकर्म का सम्यक् प्रयोग न करें। (३) आचार्य और उपाध्याय जिन ॐ सूत्र-पर्यवजातों (श्रुत ज्ञान के रहस्यों) को धारण करते हैं, उनकी यथाकाल गण को सम्यक् वाचना न
देवें। (४) आचार्य और उपाध्याय ग्लान एवं शैक्ष साधुओं की यथोचित वैयावृत्त्य के लिए सदा सावधान ॐ न रहें। (५) आचार्य और उपाध्याय गण को पूछे बिना अन्यत्र विहार करें, उसे पूछ कर विहार न करें। म (६) आचार्य और उपाध्याय गण के लिए अनुपलब्ध उपकरणों को सम्यक् प्रकार से उपलब्ध न कराएँ।
(७) आचार्य और उपाध्याय गण में पूर्व उपलब्ध उपकरणों का सम्यक् प्रकार से संरक्षण एवं संगोपन ॐ न करें।
7. For an acharya and upadhyaya there are seven asangrahasthaan (means of improper management)
(1) In the gana the acharya and upadhyaya do not ensure proper implementation of directive and interdictive commands (ajna and dharana). (2) In the gana the acharya and upadhyaya do not ensure proper implementation of code of protocol in all activities including greetings (yatharatnik kritikarma). (3) In the gana the acharya and upadhyaya do not ensure proper implementation of their duty of scheduled and methodical recitation of the scriptures they know. (4) In the gana the acharya and upadhyaya do not always remain alert to ensure proper care of the sick and newly initiated ascetics. (5) In the gana the acharya and upadhyaya do not ensure proper implementation of their obligation of seeking permission of the gana before traveling to another area and refrain from traveling without permission. (6) In the gana the acharya and upadhyaya do not ensure timely supply of required ascetic-equipment (upakaran) following the prescribed procedure. (7) In the gana the acharya and upadhyaya do not ensure proper care and storage of equipment received in the gana, and do not
avoid improper care and storage, transgressing the prescribed code. के प्रतिमा-पद PRATIMA-PAD (SEGMENT OF SPECIAL CODES)
८. सत्त पिंडेसणाओ पण्णत्ताओ।
स्थानांगसूत्र (२)
(284)
Sthaananga Sutra (2)
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म. ८. पिण्ड-एषणाएँ सात हैं।
8. There are seven pindaishanas (seeking food).
विवेचन-(पिंडैषणा)-आहार के अन्वेषण को पिण्ड-एषणा कहते हैं। वे सात प्रकार की हैं(१) संसृष्ट-पिण्ड-एषणा-देय वस्तु से लिप्त हाथ से, या कड़छी आदि से आहार लेना। (२) असंसृष्टपिण्ड-एषणा-देय वस्तु से अलिप्त हाथ से, या कड़छी आदि से आहार लेना। (३) उद्धृत-पिण्ड
एषणा-पकाने के पात्र से निकाल कर परोसने के लिए रखे हुए अन्य पात्र से आहार लेना। म (४) अल्पलेपिक-पिण्ड-एषणा-रूक्ष आहार लेना। (५) अवगृहीत-पिण्ड-एषणा-खाने के लिए थाली में
परोसा हुआ आहार लेना। (६) प्रगृहीत-पिण्ड--एषणा-परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना। (७) उज्झितधर्मा-पिण्ड-एषणा-घर वालों के भोजन करने के बाद बचा है हुआ एवं परित्याग करने के योग्य आहार लेना।
Elaboration-Exploration for food is called pindaishana. They are of seven kinds—(1) Samshrisht-pind-eshana—to accept food given from hands or serving spoon soiled with the food being offered. (2) Asamshrishtpind-eshana-to accept food given from unsoiled hands or unsoiled serving spoon. (3) Uddhrit-pind-eshana-to accept food taken out from a 卐 cooking pot and placed in another pot for serving. (4) Alpalepik-pindeshana-to accept only dry food. (5) Avagrahit-pind-eshana-to accept food from that served in a plate for eating. (6) Pragrahit-pind-eshana-to accept food taken in serving spoon for serving. (7) Uijhitdharma-pindeshana—to accept leftover or discarded food after everyone in the family has eaten.
९. सत्त पाणेसणाओ पण्णत्ताओ। ९. पान-एषणाएँ सात हैं। 9. There are seven paanaishana (seeking drinks).
विवेचन-पीने योग्य जल आदि की गवेषणा पान-एषणा हैं। पिण्ड-एषणा के समान उसके भी सात भेद हैं। यहाँ अल्पलेपिक-पान-एषणा का अर्थ कांजी, ओसामण, उष्ण जल, चावल का धोवन आदि से है और इक्षुरस, द्राक्षारस आदि लेपकृत पान-एषणा है।
Elaboration Exploration for water and other drinks suitable for ascetics is called paanaishana. The seven kinds are same as pindaishana. In this case alpalepik-paan-eshana means seeking tasteless drinks like kanji, osaman, hot water, rice-wash, etc. and lepakrit-paan-eshana means seeking tasty drinks like cane juice, grape-juice etc.
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(285)
Seventh Sthaan
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१०. सत्त उग्गहपडिमाओ पण्णत्ताओ। १०. अवग्रह-प्रतिमाएँ सात हैं। 10. There are seven avagraha-pratimas.
विवेचन-(अवग्रह प्रतिमा)-वसति, उपाश्रय या स्थान-प्राप्ति सम्बन्धी प्रतिज्ञा या अभिग्रह अवग्रह प्रतिमा हैं। उसके सात प्रकार हैं
(१) मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूँगा, दूसरे स्थान में नहीं। (२) मैं अन्य साधुओं के लिए स्थान 卐 की याचना करूँगा तथा दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह गच्छान्तर्गत साधुओं के लिए होती
है। (३) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूँगा, किन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूँगा। 卐 यह यथालन्दिक (ज्ञान प्राप्ति हेतु कुछ समय के लिए गच्छ में रहने वाले) साधुओं के होती है। उन मुनियों
के सूत्र का अध्ययन जो शेष रह जाता है, उसे पूर्ण करने के लिए वे आचार्य से सम्बन्ध रखते हैं। अतएव वे आचार्य के लिए स्थान की याचना करते हैं, किन्तु स्वयं दूसरे साधुओं के द्वारा याचित स्थान में नहीं रहते। (४) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूंगा, किन्तु दूसरों के द्वारा याचित स्थान में रहूँगा। यह जिनकल्पदशा का अभ्यास करने वाले साधुओं के होती है। (५) मैं अपने लिए स्थान की याचना करूँगा, दूसरों के लिए नहीं। यह जिनकल्पी साधुओं के होती है। (६) जिस शय्यातर का मैं स्थान ग्रहण करूँगा, उसी के यहाँ धान-पलाल आदि सहज ही प्राप्त होगा तो लूँगा, अन्यथा उकडू या अन्य नैषधिक आसन से बैठकर ही रात बिताऊँगा। यह जिनकल्पी या अभिग्रहविशेष के धारी साधुओं के होती है। (७) जिस शय्यातर का मैं स्थान ग्रहण करूँगा, उसी के यहाँ सहज ही बिछे हुए काष्ठपट्ट (तख्ता. चौकी) आदि प्राप्त होगा तो लँगा, अन्यथा उकड़ आदि आसन से बैठा-बैठा ही रात बिताऊँगा।
यह अवग्रहप्रतिमा भी जिनकल्पी या अभिग्रहविशेष धारी साधुओं के होती है। (हिन्दी टीका भाग-२, पृष्ठ ॐ ३६७। वृत्ति. पत्र २१५। प्रवचन सारोद्धार गाथा ७४४)
Elaboration Special resolution regarding seeking place of stay is called avagraha-pratima. It is of seven kinds
(1) I will stay at this specific type of place and no other. (2) I will seek 4 place of stay for other ascetics and live at the place sought by others. This is done for the ascetic of the same gachchha. (3) I will seek place of stay for others but will not stay at a place sought by others. This is meant for yathalandik (who stay with a gachchha for a short duration for studies). Such ascetics remain with an acharya to complete their studies. Therefore they seek place of stay for the acharya but do not stay at a place sought by other ascetics. (4) I will not seek place of stay for others but stay at a place sought by others. This is meant for the ascetics who are preparing for Jinkalp state. (5) I will seek place of stay for myself but not for others. This is meant for Jinakalpi ascetics. (6) I will accept hay or other things to make bed only if readily available with the
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| स्थानांगसूत्र (२)
(286)
Sthaananga Sutra (2)
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लिप्त हाथ से
सात प्रकार की पिंडषणा ।
अलिप्त हाथ से
पात्र में लेकर
रूक्ष आहार
चम्मच आदि से निकालकर
बचा हुआ आहार
ने की थाली में से लेकर
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चित्र परिचय ९९
सात प्रकार की पिण्डैषणा
आहार ग्रहण सम्बन्धी विशेष प्रकार का संकल्प / अभिग्रह लेकर गवेषणा करना पिण्डैषणा है। गृहस्थ मुनि को भिक्षार्थ आये देखकर प्रसन्नतापूर्वक भक्त-पान का लाभ देने की प्रार्थना करता है । फिर मुनि इन सात विधियों में से अपने अभिग्रहानुसार आहार ग्रहण करते हैं । यह पिण्डैषणा सात प्रकार की है
Illustration No. 11
(१) संसृष्ट पिण्डैषणा - गृहस्थ श्रमण को आहार देते समय देय वस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार देता है। इसी प्रकार अन्य भेद हैं। जैसे - (२) असंसृष्ट पिण्डैषणा, (३) उद्धृत पिण्डैषणा, (४) अल्पलेपिक पिण्डैषणा, (५) अवग्रहीत पिण्डैषणा, (६) प्रग्रहीत पिण्डैषणा, तथा ( ७ ) उज्झितधर्मा पिण्डेषणा - बचा हुआ / शेष भोजन या फैंकने योग्य आहार देना। (विशेष वर्णन मूल सूत्र के अर्थ और विवेचन में देखें)
-स्थान ७, सूत्र ८
SEVEN PINDAISHANAS
Exploration for food after taking some specific resolve is called pindaishana. A householder happily offers food when he sees an ascetic coming at his door seeking alms. The ascetic then accepts food according to the specific resolve he has taken out of the seven resolves listed here. Such exploration is of seven kinds
(1) Samshrisht-pind-eshana-to accept food given from hands or serving spoon soiled with the food being offered. In the same way the other kinds are (2) Asamshrisht-pindeshana, (3) Uddhrit-pind-eshana, (4) Alpalepik-pindeshana, (5) Avagrahit-pind-eshana, (6) Pragrahit-pindeshana, and (7) Ujjhitdharma-pind-eshana. (for details refer to the text and elaboration)
-Sthaan 7, Sutra 8
GAGAGA JAIA FEJED
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person who has provided the place of stay, otherwise I will spend the night sitting in some specific posture. (7) I will accept wooden plank or bed already laid at the accepted place of stay, otherwise I will spend the night sitting in some specific posture. The last two pratimas are meant for Jinakalpi ascetics or those who have taken these specific resolves. (Vritti, leaf 215; Hindi Tika, part-2, p. 367; Pravachanasaroddhar, verse 744) आचारचूला - पद ACHAARACHULA-PAD (SEGMENT OF ACHAARACHULA)
११. सत्तसत्तिक्कया पण्णत्ता । १२. सत्त महज्झयणा पण्णत्ता ।
११. सात सप्तैकक हैं। अर्थात् आचारचूला की दूसरी चूलिका के उद्देशक- रहित अध्ययन सात हैं। प्रत्येक अध्ययन का नाम सप्त-एकक है। उनके नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) स्थान, (२) नैषेधिकी, (३) उच्चारप्रस्रवणविधि, (४) शब्द, (५) रूप, (६) परक्रिया, (७) अन्योन्यक्रिया |
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5 प्रतिमा- पद PRATIMA PAD (SEGMENT OF SPECIAL CODES)
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१२. सात महान् अध्ययन हैं । सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध के अध्ययन पहले श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों की अपेक्षा बड़े हैं, उन्हें महान् अध्ययन कहा है। उनके नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) पुण्डरीक, (२) क्रियास्थान, (३) आहार - परिज्ञा, (४) प्रत्याख्यानक्रिया, (५) अनाचार - श्रुत, (६) आर्द्रककुमारीय, 5 (७) नालन्दीय |
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11. There are seven Saptaikaks. In the second Chulika (appendix ) of फ्र Fi Achaarachula their are seven chapters without lessons. The title of f each of these chapters is Sapta-ekak. Their names are-(1) Sthaan, (2) Naishedhiki, (3) Uchchara-prasravan vidhi, ( 4 ) Shabd, (5) Rupa, (6) Parakriya and (7) Anyonya kriya.
१३. सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एकूणपण्णताए राईदिएहिं एगेण या छण्णउएणं
5 भिक्खासतेणं अहासुत्तं ( अहाअत्थं अहातच्चं अहामग्गं अहाकप्पं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया) आराहिया यावि भवति ।
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12. There are seven Mahan Adhyayans (great chapters). The chapters 5 in the second Shrutaskandh of Sutrakritanga Sutra are voluminous as compared with those in the first Shrutaskandh. These are called Mahan 卐 Adhyayans. Their names are – (1) Pundareek, (2) Kriyasthaan, (3) AharF parijna, (4) Pratyakhyan kriya, (5) Anachar-shrut, (6) Ardrakumariya फ्र F and (7) Nalandiya.
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१३. सप्तसप्तमिका (७ × ७ =) भिक्षुप्रतिमा ४९ दिन-रात तथा १९६ भिक्षादत्तियों के द्वारा यथासूत्र, यथार्थ, यथातत्त्व, यथामार्ग, यथाकल्प तथा सम्यक् प्रकार काय से आचीर्ण, पालित, शोधित, पूरित, कीर्त्तित और आराधित की जाती है ।
सप्तम स्थान
(287)
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Seventh Sthaan
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13. The Saptasaptamika Bhikshupratima (a specific practice with special codes) is sincerely observed (palit), purified (shodhit; for transgressions), completed (purit; for breaking fast), concluded (kirtit; break the fast) and successfully performed (aradhit) for 49 (7x7) days and nights with 196 bhikshadattis (servings of alms) according to the scriptures (yathasutra), correct interpretation (yatha-arth), prescribed procedure (yathamarg) and code of praxis (yathakalp), perfectly following fundamentals (yathatattva), with equanimity (samata) and touching the body (actually, not just conceptually).
विवेचन-भिक्षुप्रतिमाएँ १२ हैं। उनमें से सप्तसप्तमिका प्रतिमा सात सप्ताहों में क्रमशः एक-एक भक्त-पान की दत्ति द्वारा सम्पन्न की जाती है, उसका क्रम इस प्रकार है
प्रथम सप्तक या सप्ताह में प्रतिदिन १-१ भक्त-पान दत्ति का योग ७ भिक्षादत्तियाँ। द्वितीय सप्तक में प्रतिदिन २-२ भक्त-पान दत्तियों का योग १४ भिक्षादत्तियाँ। तृतीय सप्तक में प्रतिदिन ३-३ भक्त-पान दत्तियों का योग २१ भिक्षादत्तियाँ। चतुर्थ सप्तक में प्रतिदिन ४-४ भक्त-पान दत्तियों का योग २८ भिक्षादत्तियाँ। पंचम सप्तक में प्रतिदिन ५-५ भक्त-पान दत्तियों का योग ३५ भिक्षादत्तियाँ। षष्ठ सप्तक में प्रतिदिन ६-६ भक्त-पान दत्तियों का योग ४२ भिक्षादत्तियाँ। सप्तम सप्तक में प्रतिदिन ७-७ भक्त-पान दत्तियों का योग ४९ भिक्षादत्तियाँ।
इस प्रकार सातों सप्ताहों के ४९ दिनों की भिक्षादत्तियाँ १९६ होती हैं। सप्तसप्टमिका भिक्षुप्रतिमा ४९ दिन और ११६ भिक्षादत्तियों के द्वारा यथाविधि आराधित की जाती है। ___विशेष शब्दों के अर्थ : अहासुत्तं-सूत्र में बताई विधि के अनुसार। अहाकप्पं-मर्यादा अनुष्ठान के ॐ अनुसार, अहातच्चं-यथातथ्य पूर्ण रूप में, अहासम-समता भाव पूर्वक, काएणफासिया-शरीर से स्पर्श फ़ करना, पालिया-उपयोग पूर्वक पालन किया। सोहिया-अतिचारों की शुद्धि की, तीरिया-पारणे की
अवधि पूरी की, किट्टिया-कीर्तित-पारणे के दिन अभिग्रह फलित होने पर पारणा किया, आराहियासम्यक् प्रकार से आराधित किया। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ ३६९)
Elaboration—There are twelve Bhikshu Pratimas. Out of these the Saptasaptamika Bhikshupratima is observed for seven weeks with an increasing number of additional dattis (servings) per day every week. Its order is as follows
During the first saptak or week only one datti each of food and water is taken every day. Total 7 dattis.
During the second week two dattis each of food and water is taken every day. Total 14 dattis.
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स्थानांगसूत्र (२)
(288)
Sthaananga Sutra (2)
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4 During the third week three dattis each of food and water is taken every day. Total 21 dattis.
During the fourth week four dattis each of food and water is taken every day. Total 28 dattis. 4 During the fifth week five dattis each of food and water is taken every day. Total 35 dattis.
During the sixth week six dattis each of food and water is taken every 卐 day. Total 42dattis.
During the seventh week seven dattis each of food and water is taken every day. Total 49 dattis.
Thus the total number of dattis for 49 days of seven weeks is 196. This Saptasaptamika Bhikshupratima is concluded in 49 days with 196 servings following the prescribed procedure.
With regard to technical terms the English translation is self explanatory अधोलोकस्थिति-पद ADHOLOR-STHITI-PAD
(SEGMENT OF STRUCTURE OF LOWER WORLD) १४. अहेलोगे णं सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ। १५. सत्त घणोदधीओ पण्णत्ताओ। १६. सत्तज घणवाता पण्णत्ता। १७. सत्त तणुवाता पण्णत्ता। १८. सत्त ओवासंतरा पण्णत्ता। १९. एतेसु णं ॐ सत्तसु ओवासंतरेसु सत्त तणुवाया पइट्ठिया। २०. एतेसु णं सत्तसु तणुवातेसु सत्त घणवाता पइट्ठिया।
२१. एतेसु णं सत्तसु घणवातेसु सत्त घणोदधी पतिट्ठिया। २२. एतेसु णं सत्तसु घणोदधीसु ॐ पिंडलग-पिहुल-संठाण-संठियाओ सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पढमा जाव सत्तमा।
२३. एतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-घम्मा, वंसा, सेला, अंजणा, रिट्ठा, मघा, माघवती। २४. एतासि णं सत्तण्डं पुढवीणं सत्त गोत्ता पण्णत्ता, तं जहारयणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमपभा, तमा, तमतमा।
१४. अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं। १५. सात घनोदधि हैं। १६. सात घनवात हैं। १७. सात ॐ तनुवात हैं। १८. सात अवकाशान्तर (तनुवात, घनवात आदि के मध्यवर्ती अन्तराल क्षेत्र) हैं। १९. इन 5 + सात अवकाशान्तरों में सात तनुवात प्रतिष्ठित हैं। २०. इन सात तनुवातों पर सात घनवात प्रतिष्ठित हैं।
२१. इन धनवातों पर सात घनोदधि प्रतिष्ठित हैं। २२. इन सातों घनोदधियों पर फूल की टोकरी के ॐ समान चौड़े संस्थान वाली सात पृथिवियां हैं, पहली से लेकर सातवीं तक।
२३. इन सातों पृथिवियों के सात नाम हैं-(१) घमा, (२) वंशा, (३) शैला, (४) अंजना, 卐 (५) रिष्टा, (६) मघा, (७) माघवती। २४. इन सात पृथिवियों के (अर्थ के अनुकूल नाम वाले) सात
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सप्तम स्थान
(289)
Seventh Sthaan
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ॐ गोत्र हैं। (१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा, (७) तमस्तमःप्रभा।
14. In Adholok (lower world) there are seven prithvis (earth). 15. (In Adholok) there are seven Ghanodadhi (dense or frozen water). 16. (In Adholok) there are seven Ghanavaat (dense air). 17. (In Adholok) there are seven Tanuvaat (rarefied air). 18. (In Adholok) there are seven avakashantar (intervening space). 19. Seven Tanuvaats are pratishthit (installed) in these seven avakashantars. 20. Seven Ghanavaats are installed on these seven Tanuvaats. 21. Seven Ghanodadhis are installed on these seven Ghanavaats. 22. On these seven Ghanavaats are installed seven prithvis with a wide structure like that of a basket of flowers, from one to seven.
23. These seven prithvis have seven names (1) Ghama, (2) Vamsha, 4 (3) Shaila, (4) Anjana, (5) Rishta, (6) Magha and (7) Maaghavati. 24. These seven prithvis have seven gotras (class names based on attributes) (1) Ratna-prabha, (2) Sharkara-prabha, (3) Baluka-prabha, (4) Pankprabha, (5) Dhoom-prabha, (6) Tamah-prabha and (7) Tamastamah-prabha. बादरवायुकायिक-पद BADAR-VAYUKAYIK-PAD
(SEGMENT OF GROSS AIR-BODIED BEINGS) २५. सत्तविहा बायरवाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-पाईणवाते, पडीणवाते, दाहीणवाते, उदीणवाते, उड्डवाते, अहेवाते, विदिसिवाते।
२५. बादर वायुकायिक जीव सात प्रकार के हैं। (१) पूर्व दिशा की वायु, (२) पश्चिम दिशा की वायु, (३) दक्षिण दिशा की वायु, (४) उत्तर दिशा की दिशा, (५) ऊर्ध्वदिशा की वायु, (६) अधोदिशा की वायु और (७) विदिशा की वायु।
25. Badar vayukayik jivas (gross air-bodied beings) are of seven kinds—(1) wind flowing from the cast, (2) wind flowing from the west, (3) wind flowing from the south, (4) wind flowing from the north, (5) wind flowing from the Zenith, (6) wind flowing from the Nadir and (7) wind flowing from the intermediate directions like Ishaan. संस्थान-पद SAMSTHAN-PAD (SEGMENT OF STRUCTURE)
२६. सत्त संठाणा पण्णत्ता, तं जहा-दीहे, रहस्से, वट्टे, तंसे, चउरंसे, पिहुले, परिमंडले।
२६. संस्थान (पुद्गलों के आकार) सात प्रकार के हैं-(१) दीर्घसंस्थान (आयत), (२) ह्रस्वसंस्थान, । (३) वृत्तसंस्थान (गेंद की तरह गोलाकार), (४) व्यत्र-(त्रिकोण-) संस्थान, (५) चतुरस्र म संस्थान, (६) पृथुल-(स्थूल विस्तीर्ण-) संस्थान, (७) परिमण्डल (अण्डे या नारंगी के समान) संस्थान।
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| स्थानांगसूत्र (२)
(290)
Sthaananga Sutra (2)
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26. Samsthan (structure or shape of matter) is of seven kinds(1) deergh (large or rectangular) samsthan, (2) hrasva (short or small) samsthan, (3) vritta (circular) samsthan, (4) tryasra or trikone (triangular) samsthan, (5) chaturasra or chatushkone (square or quadrangular) samsthan, (6) prithul (elongated) samsthan and (7) parimandal (oval like an egg or flattened like an orange) samsthan.
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भयस्थान-पद BHAYA-PAD (SEGMENT OF FEAR)
२७. सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, अकम्हाभए, वेयणभए, मरणभए, असिलोगभए।
२७. भय के स्थान सात हैं-(१) इहलोकभय-इस लोक में मनुष्य तिर्यंच आदि से होने वाला भय। अथवा स्वजातीयप्राणी से उत्पन्न भय, (२) परलोकभय-परलोक सम्बन्धी भय। अथवा विजातीय प्राणी से उत्पन्न भय। (३) आदानभय-सम्पत्ति आदि के अपहरण का भय। (४) अकस्माद्भय-अचानक या अकारण होने वाला भय। (५) वेदनाभय-रोग-पीड़ा आदि का भय। (६) मरणभय-मरने का भय। म (७) अश्लोकभय-अपकीर्ति का भय।
27. There are seven sthaans (reasons) of fear-(1) Ihalok bhaya-fear of animals or humans in this world or that of beings of same species. (2) Paralok bhaya-fear related to the other world (next birth) or that from beings of other species. (3) Aadan bhaya--fear of loosing wealth. (4) Akasmat bhayasudden or causeless fear. (5) Vedana bhaya-fear of ailment or pain. (6) Maran bhaya-fear of death. (7)Ashlok bhaya-fear of infamy.
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छद्मस्थ-पद CHHADMASTH-PAD (SEGMENT OF THE UNRIGHTEOUS)
२८. सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेज्जा, तं जहा-पाणे अइवाएत्ता भवति। मुसं वइत्ता भवति। अदिण्णं आदित्ता भवति। सद्दफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति। पूयासक्कारं अणुव्हेत्ता भवति। इमं सावजंति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति। णो जहावादी तहाकारी यावि भवति।
२८. सात स्थानों से छद्मस्थ जाना जाता है-(१) जो प्राणियों का घात करता है। (२) जो मृषा क (असत्य) बोलता है। (३) जो अदत्त (बिना दी) वस्तु को ग्रहण करता है। (४) जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप 1 और गन्ध का आस्वाद लेता है। (५) जो अपने पूजा और सत्कार का अनुमोदन करता है। (६) जो ‘यह + सावध (सदोष) है', ऐसा कहकर भी उसका प्रतिसेवन करता है। (७) जो जैसा कहता है, वैसा नहीं करता। ॥
___28. A chhadmasth (unrighteous person) is recognized by seven sthaans (activities) (1) One who harms or destroys life or living beings. (2) One who tells a lie (mrisha). (3) One who takes a thing without being given (adattadan). (4) One who enjoys sound, touch, taste, form, and
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सप्तम स्थान
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Seventh Sthaan
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smell. (5) One who encourages his worship and respect. (6) One who
indulges in an activity even after branding it as faulty (savadya). (7) One
who does not do what he says.
केवलि - पद KEVALI-PAD (SEGMENT OF OMNISCIENT)
29. A Kevali (omniscient ) is recognized by seven sthaans (activities) —
(1) One who does not harm or destroy life or living beings. (2) One who
does not tell a lie (mrisha). (3) One who does not take a thing without
२९. सत्तर्हि ठाणेहिं केवली जाणेज्जा, तं जहा - णो पाणे अइवाइत्ता भवति । [ णो मुसं वइत्ता भवति । णो अदिणं आदित्ता भवति । णो सद्दफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति । णो पूयासक्कारं अणुवूत्ता भवति । इमं सावज्जंति पण्णवेत्ता णो पडिसेवेत्ता भवति ] | जहावादी तहाकारी यावि भवति । २९. सात स्थानों (कारणों) से केवली जाना जाता है - ( १ ) जो प्राणियों का घात नहीं करता है।
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(२) जो मृषा नहीं बोलता है । (३) जो अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करता है । (४) जो शब्द, स्पर्श, रस, फ्र
रूप और गन्ध का आस्वादन नहीं लेता है । (५) जो पूजा और सत्कार का अनुमोदन नहीं करता है। 5 (६) जो 'यह सावद्य है' ऐसा कह कर उसका प्रतिसेवन नहीं करता है। (७) जो जैसा कहता है, वैसा 卐 करता है।
गोत्र - पद GOTRA-PAD (SEGMENT OF CLAN NAME) ३०. सत्त मूलगोत्ता पण्णत्ता, तं जहा
कासवा, गोतमा, वच्छा, कोच्छा, कोसिआ, मंडवा, वासिट्ठा ।
३०. मूल गोत्र सात हैं- (१) काश्यप, (२) गौतम, (३) वत्स, (४) कुत्स, (५) कौशिक, (६) माण्डव, (७) वाशिष्ठ ।
फ being given (adattadan). (4) One who does not enjoy sound, touch, taste,
5 form, and smell (5) One who does not encourage his worship and 5 respect. (6) One who does not indulge in an activity after branding it as 5 faulty (savadya). (7) One who does what he says.
विवेचन - किसी एक महापुरुष से उत्पन्न हुई वंश-परम्परा को गोत्र कहते हैं। प्रारम्भ में सूत्रोक्त के सात मूल गोत्र थे । कालान्तर में उन्हीं से अनेक उत्तर गोत्र भी उत्पन्न हो गये । सातो मूल गोत्रों का उदाहरण सहित परिचय इस प्रकार है
(१) काश्यपगोत्र - मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि जिनको छोड़कर शेष बाईस तीर्थंकर, सभी चक्रवर्ती (क्षत्रिय), सातवें से ग्यारहवें गणधर (ब्राह्मण) और जम्बूस्वामी (वैश्य) आदि सभी काश्यप गोत्रीय थे।
स्थानांगसूत्र (२)
30. There are seven mool gotra (original clan names ) – ( 1 ) Kaashyap, 5 (2) Gautam, (3) Vatsa, (4) Kutsa (5) Kaushik, (6) Mandava and 5 (7) Vaashisht.
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Sthaananga Sutra (2)
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(२) गौतम गोत्र-मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि जिन, नारायण और पद्म को छोड़कर सभी 卐 बलदेव-वासुदेव तथा इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति, ये तीन गणधर गौतम गोत्रीय थे।
(३) वत्सगोत्र-दशवैकालिक के रचयिता शय्यम्भवसूरि आदि वत्सगोत्रीय थे। (४) कौत्स गोत्र-शिवभूति आदि कौत्स गोत्रीय थे। (५) कौशिक गोत्र-षडुलुक (रोहगुप्त) आदि कौशिक गोत्रीय थे। (६) माण्डव गोत्र-मण्डुऋषि के वंशज माण्डव्य गोत्रीय कहलाये।
(७) वाशिष्ठ गोत्र-वशिष्ठ ऋषि के वंशज वाशिष्ठ गोत्रीय कहे जाते हैं तथा छठे गणधर और आर्य सुहस्ती आदि को भी वाशिष्ट गोत्रीय कहा गया है।
Elaboration The family lineage starting from some great man is called gotra. As mentioned in scriptures there were only seven gotras in the beginning. With passage of time many sub-gotras evolved from these. The seven original gotras with names of some important persons belonging to each lineage are as follows
(1) Kaashyap gotra-Except Munisuvrat and Arishtanemi all twenty two Tirthankars, all the Chakravartis (Kshatriya), seventh to eleventh 5 Ganadhars (Brahmin), and Jambuswami (Vaishya) belonged to this gotra.
(2) Gautam gotra-Tirthankars Munisuvrat and Arishtanemi; all : Baladevas and Vasudevas except Narayan and Padma; a Ganadhars, Indrabhuti, Agnibhuti and Vayubhuti belonged to this gotra.
(3) Vatsa gotra-Shayyambhava Suri, the author of Dashavaikalik Sutra belonged to this gotra.
(4) Kutsagotra-Shivabhuti belonged to thisgotra. (5) Kaushik gotra-Shaduluk (Rohagupta) belonged to thisgotra.
(6) Mandava gotra-The descendants of Mandu Rishi were called fi Mandavya gotriya.
(7) Vaashisht gotra-The descendants of Vashisht Rishi were called Vashist gotriya. The sixth Ganadhar and Arya Suhasti are said to have belonged to this gotra.
३१. जे कासवा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा-ते कासवा, ते संडिल्ला, ते गोला, ते वाला, ते मुंजइणो, ते पव्वतिणो, ते वसिकण्हा। ३२. जे गोतमा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहाम ते गोतमा, ते गग्गा, ते भारद्दा, ते अंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराभा, ते उदत्ताभा।
३३. जे वच्छा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा-ते वच्छा, ते अग्गेया, ते मित्तेया, ते सामलिणो, 3 ते सेलयया, ते अट्ठिसेणा, ते वीयकण्हा।
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३१. जो काश्यप गोत्रीय हैं, वे सात प्रकार के हैं- (१) काश्यप, (२) शाण्डिल्य, (३) गोल, (४) बाल, (५) मौज्जकी, (६) पर्वती, (७) वर्षकृष्ण । ३२. गौतम गोत्रीय सात प्रकार के हैं- (१) गौतम, (२) गार्ग्य, (३) भारद्वाज, (४) आङ्गिरस, (५) शर्कराभ, (६) भास्कराभ, (७) उदत्ताभ । ३३. वत्स गोत्रीय सात प्रकार के हैं - (१) वत्स, (२) आग्नेय, (३) मैत्रेय, (४) शाल्मली, (५) शैलक, (६) अस्थिषेण, (७) वीतकृष्ण ।
31. Kashyap gotriyas are of seven kinds-(1) Kashyap, (2) Shandilya, Gole, (4) Baal, ( 5 ) Maujjaki, ( 6 ) Parvati and ( 7 ) Varshakrishna. Gautam gotriyas are of seven kinds – ( 1 ) Gautam, (2) Gargya, Bharadvaaj, (4) Aangiras, ( 5 ) Sharkarabh, ( 6 ) Bhaskarabh and Udattabh. 33. Vatsa gotriyas are of seven kinds-(1) Vatsa, (2) Aagneya, (3) Maitreya, (4) Shaalmali, (5) Shailak, (6) Asthishen and (7) Vitakrishna.
(3) 32. (3) (7)
३४. जे कोच्छा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा ते कोच्छा, ते मोग्गलायणा, ते पिंगलायणा, ते कोणा ते मंडलिणो, ते हारिता, ते सोमया । ३५. जे कोसिआ ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहाकोसिआ, ते कच्चायणा, ते सालंकायणा, ते गोलिकायणा, ते पक्खिकायणा, ते अग्गिच्चा, ते लोहिच्चा । ३६. जे मंडवा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा ते मंडवा, ते आरिट्ठा, ते संमुता, ते एलावच्चा, . ते कंडिल्ला, ते खारायणा । ३७. जे वासिट्ठा ते सत्तविधा पण्णत्ता, तं जहा-ते वासिट्ठा, ते उंजायणा, ते जारुकण्हा, ते वग्घावच्चा, ते कोडिण्णा, ते सण्णी, ते पारासरा ।
तेला, ते
फ्र
३४. जो कौत्स हैं, वे सात प्रकार के हैं- (१) कौत्स, (२) मौद्गलायन, (३) पिङ्गलायन, (४) कौडिन्य, (५) मण्डली, (६) हारित, (७) सौम्य । ३५. जो कौशिक हैं, वे सात प्रकार के हैं - (१) कौशिक, (२) कात्यायन, (३) सालंकायन, (४) गोलिकायन, (५) पाक्षिकायन, (६) आग्नेय, (७) लौहित्य | ३६. जो माण्डव हैं, वे सात प्रकार के हैं - (१) माण्डव, (२) अरिष्ट, (३) सम्मुत, (४) तैल, (५) एलापत्य, (६) काण्डिल्य, (७) क्षारायण । ३७. जो वाशिष्ठ हैं, वे सात प्रकार के हैं- (१) वाशिष्ठ, (२) उञ्जायण, (३) जरत्कृष्ण, (४) व्याघ्रापत्य, (५) कौण्डिन्य, (६) संज्ञी, (७) पाराशर ।
Ksharayan. 37. Vaashist gotriyas are of seven kinds-(1) Vaashisht,
( 2 ) Unjayan, ( 3 ) Jaratkrishna, (4) Vyaghrapatya, (5) Kaundinya, Sanjni and (7) Paaraashar.
(6) स्थानांगसूत्र (२)
34. Kautsa gotriyas are of seven kinds-(1) Kautsa, (2) Maudgalayan, (3) Pingalayan, (4) Kaundinya, ( 5 ) Mandali, (6) Haarit and (7) Saumya. 35. Kaushik gotriyas are of seven kinds-(1) Kaushik, (2) Katyayan, (3) Saalankayan, (4) Golikayan, (5) Pakshikayan, (6) Aagneya and (7) Lauhitya. 36. Mandava gotriyas are of seven kinds – ( 1 ) Mandava, 5
(2)
17Visht, (3) Sammut, (4) Tail, (5) Elapatya, (6) Kandilya and
Sthaananga Sutra (2)
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नय-पद NAYA PAD (SEGMENT OF STAND-POINTS)
३८. सत्त मूल गया पण्णत्ता, तं जहा-णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते ।
३८. मूल नय सात हैं - ( १ ) नैगमनय - भेद (विशेष) और अभेद (सामान्य) दोनों को ग्रहण करने -
वाला । ( २ ) संग्रह - केवल अभेद को ग्रहण करने वाला। (३) व्यवहारनय- केवल भेद को ग्रहण करने वाला नय । ( ४ ) ऋजुसूत्रनय - वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को वस्तु रूप में स्वीकार करने वाला । (५) शब्दनय - भिन्न-भिन्न लिंग, वचन, कारक आदि के भेद से वस्तु में भेद मानने वाला । (६) समभिरूढ़नय - लिंगादि का भेद न होने पर भी पर्यायवाची शब्दों के भेद से वस्तु को भिन्न मानने नय । ( ७ ) एवम्भूतनय - वर्तमान क्रिया - परिणत वस्तु को ही वस्तु मानने वाला। (सात नयों का विस्तृत विवेचन हिन्दी टीका भाग २ पृष्ठ ३८० से ३८२ पर देखें)
वाला
38. Original nayas (stand-points) are seven-(1) Naigama naya
deals with bhed ( particular) and abhed ( general) both. (2) Samgraha
naya-deals with abhed (general) only. (3) Vyavahara naya-deals with
bhed (particular) only. (4) Rijusutra naya-accepts the mode at the present moment as the thing. (5) Shabda naya-accepts variations in
things depending on the grammatical definitions, such as gender, tense,
verb etc. (6) Samabhirudha naya-accepts variations in things based on
synonyms even in absence of grammatical differences. (7) Evambhuta naya-accepts
a thing only if it is in action at the present moment.
(For detailed description of seven nayas refer to Hindi Tika, part-2, pp. 380-382)
स्वरमंडल - पद SVARAMANDAL-PAD
(SEGMENT OF SPHERE OF MUSICAL SCALES)
तं जहा
३९. सत्त सरा पण्णत्ता,
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सज्जे रिसभे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे ।
धेवते चेव णेसादे, सरा सत्त विवाहिता ॥ १ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
३९. स्वर सात हैं - ( १ ) षड्ज, (२) ऋषभ, (३) गान्धार, (४) मध्यम, (५) पंचम, (६) धैवत, (७) निषाद ।
सप्तम स्थान
39. There are seven svar (musical notes ) – ( 1 ) Shad j, (2) Rishabh, (3) Gaandhaar, (4) Madhyam, (5) Pancham, (6) Dhaivat, and (7) Nishad.
विवेचन - ( १ ) षड्ज - नासिका, कण्ठ, उरस, तालू, जिह्वा और दन्त इन छह स्थानों से उत्पन्न होने वाला स्वर - 'स' । (२) ऋषभ - नाभि से उठकर कण्ठ और शिर से टकराकर ऋषभ (बैल) के समान गर्जना करने वाला स्वर - 'रे' । (३) गान्धार - नाभि से समुत्थित एवं कण्ठ और शीर्ष से आहत तथा
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Seventh Sthaan
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Elaboration—(1) Shadj (Sa)—this note is produced by the combined
ivity of six parts of the human body, i.e. nose, throat, chest, palate, tongue, and teeth. (2) Rishabh (Re)-This note resembles the roaring of a bull (rishabh) and is produced by the wind rising from the navel and striking the upper part of the throat. (3) Gandhar (Ga)-It is produced
by wind which rises from the navel and strikes at the heart and the 555 4 throat. This note is so called because it is the carrier of fragrance
(4) Madhyam (Ma)-A loud note rising from the navel striking at the chest and heart and reflecting back to the navel. As it originates from
the middle part of the body it is called madhyam (middle). (5) Pancham 4 (Pa)-This note is produced with the involvement of five parts of the
body, namely navel, chest, heart, throat and head. (6) Dhaivat (Dha)This note follows or chases all other notes. (7) Nishad (Ni)—This note envelops all other notes. स्वरोत्त्पत्तिस्थान SVAROTPATTISTHAAN
(POINTS OF ORIGIN OF MUSICAL NOTES) ४०. एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा
सज्जं तु अग्गजिब्भाए, उरेण रिसभं सरं। कंटुग्गतेण गंधारं मज्झजिभाए मज्झिमं ॥१॥ णासाए पंचमं बूया, दंतोद्वेण य धेवतं।
मुद्धाणेण च णेसादं, सरढाणा वियाहिता॥२॥ ४०. इन सात स्वरों के सात (उच्चारण स्थान) स्वर-स्थान हैं-(१) षड्ज का, जिह्वा का अग्रभाग। (२) ऋषभ का, उरस्थल। (३) गान्धार का, कण्ठ। (४) मध्यम का, जिह्वा का मध्य भाग। (५) पंचम # का, नाक। (६) धैवत का, दन्त-ओष्ठ का संयोग। (७) निषाद का, शिर।
40. These seven svars (musical notes) have seven Svar-sthaan (points of origin)–(i) Shadj is produced from the tip of the tongue. (2) Rishabh is produced from the chest. (3) Gandhar is produced from the throat. (4) Madhyam is produced from the middle of the tongue. (5) Pancham is
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स्थानांगसूत्र (२)
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produced from the nose. (6) Dhaivat is produced from the teeth and lips. 5 (7) Nishad is produced from head.
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जीव निश्रित सप्त स्वर JIVA NISHRIT SAPT SVAR
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४१. सत्त सरा जीवणिस्सिता पण्णत्ता, तं जहा
(SEVEN MUSICAL NOTES PRODUCED BY LIVING BEINGS)
सज्जं रवति मयूरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो णदति गंधारं, मज्झिमं तु गवेलगा ॥ १ ॥
४१. जीव निःसृत सात स्वर हैं - (१) मयूर षड्ज स्वर में, (२) कुक्कुट ऋषभ स्वर में, (३) हंस गान्धार स्वर में, (४) गवेलक (भेड़ ) मध्यम स्वर में, (५) कोयल वसन्त ऋतु में पंचम स्वर में, (६) क्रौञ्च और सारस धैवत स्वर में, (७) हाथी निषाद स्वर में बोलता है।
अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं ।
छटुं च सारसा कोंचा, णेसायं सत्तमं गजो ॥२॥
अजीव निःसृत सप्तस्वर AJIVA NISHRIT SAPT SYAR
41. There are seven jiva nishrit svar (musical notes produced by living beings)-(1) Pea-cock produces Shadj svar. (2) Cock produces Rishabh svar. (3) Swan produces Gandhar svar. (4) Sheep or ram (gavelak) produces Madhyam svar (5) Cuckoo produces Pancham svar 5 5 (in the spring season). (6) Cranes and curlews (kraunch) produce 5 Dhaivat svar. (7) Elephant produces Nishad svar.
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सप्तम स्थान
४२. सत्त सरा अजीवणिस्सिता पण्णत्ता, तं जहा
(SEVEN MUSICAL NOTES PRODUCED BY NON-LIVING THINGS)
सज्जं रवति मुइंगो, गोमुही रिसभं सरं । संखो णदति गंधारं, मज्झिमं पुण झल्लरी ॥१॥ चउचलणपतिट्ठाणा, गोहिया पंचमं सरं । आडंबरो धेवतियं, महाभेरी य सत्तमं ॥ २ ॥
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४२. अजीव - निःसृत सात स्वर हैं - ( 9 ) मृदंग से षड्ज स्वर, (२) गोमुखी से ऋषभ स्वर,
(३) शंख से गान्धार स्वर, (४) झल्लरी से मध्यम स्वर, (५) चार चरणों पर प्रतिष्ठित गोधिका से पंचम फ स्वर, (६) ढोल से धैवत स्वर, (७) महाभेरी से निषाद स्वर निकलता है
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42. There are seven ajiva nishrit svar (musical notes produced by non- 卐 f living things ) – (1) Mridang produces Shadj svar (2) Gomukhi (Turuhi or फ Narasingha; trumpet like musical instrument) produces Rishabh svar.
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Seventh Sthaan
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(3) Conch-shell produces Gandhar svar. (4) Jhallari (Jhanjh; Cymbal like 5 musical instrument) produces Madhyam svar. (v) Godhika fixed on four 卐 legs (a type of musical instrument) produces Pancham svar. (6) Dhol $ (a percussion instrument like big kettledrum) produces Dhaivat svar.
(7) Mahabheri (a huge drum) produces Nishad svar. ॐ स्वरों के लक्षण तथा फल CHARACTERISTICS AND RESULTS OF SEVEN SVARS ४३. एतेसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा
सज्जेण लभति वित्तिं, कतं च णं विणस्सति। गावो मित्ता य पुत्ता य णारीणं चेव वल्लभो॥१॥ रिसभेण उ एसज्जं, सेणावच्चं धणाणि य। वत्थगंधमलंकारं इथिओ सयणाणि य॥२॥ गंधारे गीतजुत्तिणा, वज्जवित्ती कलाहिया। भवंति कइओ पण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा॥३॥ मज्झिमसरसंपण्णा, भवंति सुहजीविणो। खायती पियती देती, मज्झिमसरमस्सितो॥४॥ पंचमसरसंपण्णा, भवंति पुढवीपती। सूरा संगहकत्तारो अणेगगणणायगा॥५॥ धेवतसरसंपण्णा, भवंति कलहप्पिया। 'साउणिया वग्गुरिया, सोयरिया मच्छबंधा य' ॥६॥ 'चंडाला मुट्ठीया मेया, जे अण्णे पावकम्मिणो।
गोघातगा य जे चोरा, णेसायं सरमस्सिता' ॥७॥ ४३. इन सात स्वरों के सात लक्षण (तथा उनका फल) इस प्रकार है
(१) षड्ज स्वर वाला मनुष्य आजीविका प्राप्त करता है, उसका प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। उसके गाएँ, ॐ मित्र और पुत्र होते हैं। वह स्त्रियों को प्रिय होता है। (२) ऋषभ स्वर वाला मनुष्य ऐश्वर्य, सेनापतित्व. धन,
वस्त्र, गन्ध, आभूषण, स्त्री, शयन और आसन को प्राप्त करता है। (३) गान्धार स्वर वाला मनुष्य गाने में
कुशल, वादित्र वृत्तिवाला, कलानिपुण, कवि, प्राज्ञ और अनेक शास्त्रों का पारगामी होता है। (४) मध्यम ॐ स्वर से सम्पन्न पुरुष सुख से खाता, पीता, जीता और दान देता है। (५) पंचम स्वर वाला पुरुष भूमिपाल, + शूर-वीर संग्राहक और अनेक गणों का नायक होता है। (६) धैवत स्वर वाला पुरुष कलहप्रिय, पक्षियों
को मारने वाला (चिड़ीमार) हिरण, सूकर और मच्छी मारने वाला होता है। (७) निषाद स्वर वाला पुरुष के चाण्डाल, वधिक, मुक्केबाज, गो-घातक, चोर और अनेक प्रकार के पाप करने वाला होता है।
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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43. There are seven characteristics (based on the results or fruits) 45 of these seven svars 4 (1) A person with Shadj svar easily gains his livelihood and his
efforts are never wasted. He is endowed with cattle, friends and sons. He is popular among women. (2) A person with Rishabh svar gains grandeur, status of a commander, wealth and grains, apparels, perfumes, ornaments, woman, and furniture. (3) A person with Gandhar svar is a
musician fond of giving performances. He is an accomplished artist and 41 poet besides being wise, clever, and scholarly. (4) A person with
Madhyam svar is a happy-go-lucky man who eats, drinks, gives charity
and lives as he wishes. (5) A person with Pancham svar is a landlord, 45 employer of warriors, and a leader of men. (6) A person with Dhaivat ॐ svar is quarrelsome, hunter of birds, animals including deer, pigs and
fish. (7) A person with Nishad svar (musical note) is chandal (keeper of cremation ground), butcher, boxer, cow-slaughterer, thief and indulges in
a variety of sinful and despicable activities. फ़ सात स्वरों के ग्राम और मूर्च्छनाएँ GRAM AND MURCHCHHANA
४४. एतेसि णं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णत्ता, तं जहा-सज्जगामे, मज्झिमगामे, गंधारगामे। ४४. इन सातों स्वरों के तीन ग्राम हैं-(१) षड्जग्राम, (२) मध्यमग्राम, (३) गान्धारग्राम।
44. There are three grams (scales) of these seven svars-(1) Shadj gram, (2) Madhyam gram, (3) Gaandhaar gram. ४५. सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा
मंगी कोरव्वीया, हरी य रयणी य सारकंता य।
छट्ठी य सारसी णाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा॥१॥ ४६. मज्झिमगामस्सं णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा
उत्तरमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरायता।
अस्सोकंता य सोवीरा, अभिरू हवति सत्तमा॥१॥ ४७. गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा
णंदी य खुद्दिमा पूरिमा, य चउत्थी य सुद्धगंधरा। उत्तरगंधारावि य, पंचमिया हवति मुच्छा उ॥१॥ सुट्टत्तरमायामा, सा छट्ठी णियमसो उ णायव्या। अह उत्तरायता, कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा॥२॥
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ॐ
४५. षड्जग्राम की आरोह-अवरोह, या उतार-चढ़ाव रूप सात मूर्च्छनाएँ हैं-(१) मंगी, (२) कौरवीया, (३) हरित्, (४) रजनी, (५) सारकान्ता, (६) सारसी, (७) शुद्ध षड्जा।
४६. मध्यमग्राम की सात मूर्च्छनाएँ हैं-(१), उत्तरमन्दा, (२) रजनी, (३) उत्तरा, (४) उत्तरायता, (५) अश्वक्रान्ता, (६) सौवीरा, (७) अभिरूद्गता।
४७. गान्धार ग्राम की सात मूर्च्छनाएँ हैं-(१) नन्दी, (२) क्षुद्रिका, (३) पूरका, (४) शुद्धगान्धारा, (५) उत्तरगान्धारा, (६) सुष्टुतर आयामा, (७) उत्तरायता कोटिमाः।
45. The Shadj gram (scale) has seven Murchchhanas (modulations) (1) Mangi, (2) Kauraviya, (3) Harit, (4) Rajani, (5) Sarakanta, (6) Sarasi, and (7) Shuddha Shadja. ___46. The Madhyam gram (scale) has seven Murchchhanas (modulations)-(1) Uttaramanda, (2) Rajani, (3) Uttara, (4) Uttarayata, (5) Ashvakranta, (6) Sauvira, and (7) Abhirudgata.
47. The Gandhar gram (scale) has seven Murchchhanas (modulations)-(1) Nandi, (2) Kshudrika, (3) Purima, (4) Shuddha Gandhara, (5) Uttara Gandhara, (6) Sushtutar-ayama, and (7) Uttarayata-korima. ४८. (प्रश्न) सत्त सरा कतो संभवंति ? गीतस्स का भवति जोणी ?
कतिसमया उस्साया ? कति वा गीतस्स आगारा ?॥१॥ (उत्तर) सत्त सरा णाभीतो, भवंति गीतं च रुण्णजोणीयं।
पदमसया ऊसासा, तिण्णि य गीयस्स आगारा॥२॥ आइमिउ आरंभता, समुबहता य मझगारंमि। अवसाणे य झवेंता. तिण्णि य गेयस्स आगारा॥३॥ छद्दोसे अट्ठगुणे, तिण्णि य वित्ताइं दो य भणितीओ।
जो णाहिति सो गाहिइ, सुसिक्खिओ रंगमज्झमि॥४॥ (छह दोष) भीतं दुतं रहस्सं, गायतो मा य गाहि उत्तालं।
काकस्सरमणुणासं च होंति गेयस्स छद्दोसा ॥५॥ (आठ गुण)
पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहा अविघुटुं। मधुरं समं सुललियं, अट्ठ गुणा होति गेयस्स॥६॥ उर-कंठ-सिर-विसुद्धं, च गिज्जते मयउ-रिभिअ-पदबद्धं । समतालपदुक्खेवं, सत्तसरसीहरं गेयं ॥७॥
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(गेय के आठ गुण) णिहोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं।
उवणीतं सोवयारं च, मितं मधुरमेव य॥८॥ (छन्द के तीन प्रकार) सममद्धसमं चेव, सव्वत्थ विसमं च जं।
तिण्णि वित्तप्पयाराई, चउत्थं णोपलब्भती॥९॥ (गीत की भाषा) सक्कता पागता चेव, दोण्णि य भणिति आहिया।
सरमंडलंमि गिज्जंते पसत्था इसिभासिता॥१०॥ केसी गायति मधुरं ? केसी गायति खरं च रुक्खं च ? विस्सरं पुण केरिसी ? ॥११॥ सामा गायाइ मधुरं, काली गायइ खरं च रुक्खं च।
विस्सरं पुण पिंगला ॥१२॥ (सप्तस्वरसीभर) तंतिसमं तालसमं, पादसमं लयसमं गहसमं च।
णीससिऊससियसमं संचारसमा सरा सत्त॥१३॥ सत्त सरा तओ गामा, मुच्छणा एकविंसती।
ताणा एगूणपण्णासा, समत्तं सरमंडलं ॥१४॥ ४८. (१) प्रश्न- सातों स्वर कहाँ से, किससे उत्पन्न होते हैं ? गीत की योनि-जाति क्या है? उसका * उच्छ्वासकाल कितने समय का है ? और गीत के आकार कितने होते हैं ?
(२-३) उत्तर- सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। रुदन गेय की योनि-जाति है। जितने समय में 9 किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका उच्छ्वासकाल होता है। गीत के तीन आकार होते हैं-आदि में मृदु, मध्य में तीव्र और अन्त में मन्द।
(४) संगीत के छह दोषों, आठ गुणों, तीन वृत्तों और गीत की दो भाषाओं को भली प्रकार जानने + वाला कुशल कलाकार रंग मंच पर जाता है।
(५) गीत के छह दोष इस प्रकार हैं-१. भीत दोष-डरते हुए गाना। २. द्रुत दोष-शीघ्रता वश गाना। ३. हस्व दोष-शब्दों को लघु बनाकर या हाँफते हुए गाना। ४. उत्ताल दोष-ताल के अनुसार न गाना। ५. काकस्वर दोष-काक के समान कर्ण-कटु स्वर से गाना। ६. अनुनास दोष-नाक के स्वरों से गाना।।
(६) गीत के आठ गुण इस प्रकार हैं-१. पूर्ण गुण-स्वर के आरोह-अवरोह आदि से परिपूर्ण गाना। २. रक्त गुण-गाये जाने वाले राग से परिष्कृत गाना। ३. अलंकृत गुण-विभिन्न स्वरों से सुशोभित गाना। ४. व्यक्त गुण-स्पष्ट स्वर से गाना। ५. अविघुष्ट गुण-नियत या नियमित स्वर से गाना। ६. मधुर
गुण-मधुर स्वर से गाना। ७. सम गुण-ताल, वीणा आदि का अनुसरण करते हुए गाना। ८. सुकुमार ॐ गुण-ललित, कोमल लय से गाना।
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(७) गीत के ये आठ गुण और भी होते हैं - १. उरोविशुद्ध-जो स्वर उरःस्थल में विशाल होता २. कण्टविशुद्ध- जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता है, या साफ कण्ठ से गाना। ३. शिरोविशुद्ध-जो स्वर शिर 5 से उत्पन्न होकर भी नासिका से मिश्रित नहीं होता । ४. मृदु-जो राग कोमल स्वर से गाया जाता है। ५. रिभित - जिस गीत में स्वर घोलन हो, आलाप के कारण खेल-सा करता हुआ स्वर । ६. पद-बद्ध - 5 गेय पदों से निबद्ध रचना । ७. समताल पादोत्क्षेप - जिसमें ताल, झांझ आदि का शब्द और नर्तक का पादनिक्षेप, ये सब सम हों, अर्थात् एक दूसरे से मिलते हों । ८. सप्तत्वरसीभर - जिसमें सातों स्वर तंत्री आदि के सम हों ।
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(८) गेय पदों के आठ गुण इस प्रकार हैं - १. निर्दोष बत्तीस प्रकार के दोषों से रहित । २. सारवन्त - सारभूत अर्थ से युक्त होना। ३. हेतुयुक्त - अर्थ - साधक हेतु से संयुक्त होना । ४. अलंकृतकाव्य-गत अलंकारों से युक्त होना । ५. उपनीत - उपसंहार से युक्त होना । ६ सोपचार- कोमल, अविरुद्ध
और अज्जनीय अर्थ का प्रतिपादन करना, अथवा व्यंग्य या हँसी से संयुक्त होना । ७. मित-अल्प पद और अल्प अक्षर वाला होना । ८. मधुर-शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की अपेक्षा प्रिय होना ।
(१०) भणिति - गीत की भाषा दो प्रकार की कही गई है-संस्कृत और प्राकृत । ये दोनों प्रशस्त और ऋषिभाषित हैं और स्वर-मण्डल में गाई जाती हैं।
(९) वृत्त - छन्द तीन प्रकार के होते हैं - १. सम - जिसमें चरण और अक्षर सम हों, अर्थात् चार फ चरण हों और उनमें गुरु-लघु अक्षर भी समान हों अथवा जिसके चारों वरण सरीखे हों । २. अर्धसम - 5 जिसमें चरण या अक्षरों में से कोई एक सम हो, या विषम चरण होने पर भी उनमें गुरु-लघु अक्षर समान हों। अथवा जिसके प्रथम और तृतीय चरण तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण समान हों। फ ३. सर्वविषम - जिसमें चरण और अक्षर सब विषम हों । अथवा जिसके चारों चरण विषम हों । इनके अतिरिक्त चौथा प्रकार नहीं पाया जाता है।
(११) प्रश्न - मधुर गीत कौन गाती है ? परुष और रूक्ष कौन गाती है ? चतुर गीत कौन गाती है ? विलम्ब गीत कौन गाती है ? द्रुत (शीघ्र ) गीत कौन गाती है ? तथा विस्वर गीत कौन गाती है ?
(१२) उत्तर - श्यामा स्त्री मधुर गीत गाती है । काली स्त्री खर, परुष और रूक्ष गाती है। केशी स्त्री चतुर गीत गाती है । काणी स्त्री विलम्ब गीत गाती है । अन्धी स्त्री द्रुत गीत गाती है और पिंगला स्त्री विस्वर गीत गाती है ।
स्थानांगसूत्र (२)
(१३) सप्तस्वरसीभर की व्याख्या - १. तन्त्रीसम - तंत्री- स्वरों के साथ-साथ गाया जाने वाला गीत । २. तालसम-ताल-वादन के साथ-साथ गाया जाने वाला गीत । ३. पादसम - स्वर के अनुकूल निर्मित 5 गेयपद के अनुसार गाया जाने वाला गीत । ४. लयसम-वीणा आदि को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने वाला गीत- साज-बाज की लय अनुसार गाना । ५. ग्रहसम - वीणा 55 आदि के द्वारा जो स्वर पकड़े जाते हैं, उसी के अनुसार गाया जाने वाला गीत । ६. निःश्वसितोच्छ्वसित
सम- सांस लेने और छोड़ने के क्रमानुसार गाया जाने वाला गीत । ७. संचारसम - सितार आदि के साथ गाया जाने वाला गीत ।
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2 5 5 5 5 55 5 5 5 5 55 5 5 55 555555 565 5555 5 5 5 5 5 5552
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इस प्रकार गीत स्वर तंत्री आदि के साथ सम्बन्धित होकर सात प्रकार का हो जाता है।
(१४) उपसंहार-इस प्रकार सात स्वर, तीन ग्राम और इक्कीस मूर्च्छनाएँ होती हैं। प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है, इसलिए ७ x ७ = ४९ भेद हो जाते हैं। इस प्रकार स्वर-मण्डल का वर्णन है समाप्त हुआ।
(सात स्वरों का यही वर्णन सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र भाग-१ स्वर मण्डल में पृष्ठ ४००-४१७ तक है)
48. (Question) Where is the origin of seven svars ? What is the origin or genus of song ? What is the length of breath (utterance in one breath) (of a song) ? How many are the special tones of a song) ? (1)
(Answer) The place of origin of seven svars (musical notes) is navel. Wailing is the origin or genus of song. The length of breath (utterance one breath) of a song is same as the metrical quarter of a stanza. There are three special tones of a song-Soft at the beginning, raise to high at the middle, and end with low tone. (2, 3)
There are six faults, eight merits, three meters, and two languages (in singing a song). A well trained performer who knows these can give a recital on a stage. (4)
Six faults of singing are as follows-(1) Bheet doshto sing with it fright. (2) Drut dosh-to sing fast. (3) Hrasva dosh-to sing with 4 abbreviated words or unstable breathing. (4) Uttal dosh-to sing out of beats or rhythm. (5) Kaak-svar doshto sing in crow-like harsh or coarse voice. (6) Anunasa dosh- to sing in nasal voice. (5)
Eight merits of singing are as follows--(1) Purna guna-to sing with perfection rendering all notes and modulations. (2) Rakta Guna—to sing following proper grammar of the Raga. (3) Alankrit Gun--- to sing with selection of melodious notes. (4) Vyakta guna—to sing with clear rendering of words and notes. (5) Avighusta gun--to sing without 4 discordance and distortions. (6) Madhur guna-to sing in sweet tone. (7) Sama guna-to sing harmoniously with rhythm and beat. (8). guna- to sing with enchanting combination of softness and melody. (6)
There are eight other merits of singing-(1) Urovishuddha--to sing with a note resounding from the chest. (2) Kanthavishuddha-to sing with note that does not get distorted in the throat. (3) Shirovishuddhato sing with a note that originates in the head but does not become nasal. (4) Mridu—to sing with soft and regulated note. (5) Ribhita—to sing with fine variations and modulations in notes producing enchanting
455 456 457 455 456 455 456 457 455 456 455 456 455 456
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The eight merits of a song are as followsn-(1) Nirdosh-It should be free of thirty two faults. (2) Saravanta-It should be meaningful. (3) Hetuyukta-It should be purposeful. (4) Alankrit-It should be embellished with poetic qualities. (5) Upanit-It should be well concluded. (6) Sopachar—It should be expressive of kind, consistent, and blameless meaning or it should be satirical and mirthful. (7) Mit-It should be well measured (not tediously long). (8) Madhur-It should be sweet in terms of word, meaning as well as rendering. (8)
There are three kinds of vritta (chhand or meter) of a song(1) Sam--wherein all the quarter-verses are identical in structure measured in equal number of syllables (long and short). (2) Ardh-samwherein first quarter-verse is identical in structure with third and
second with fourth. (3) Sarva Visham-wherein all the four quarter$ verses are different in structure. There is no fourth kind. (9)
There are said to be two languages of songs-Sanskrit and Prakrit. 4 These two languages are exalted and spoken by sages. They are sung in 41 full range of svars (musical notes). (10)
(Question) What sort of woman sings in sweet tone ? What sort of 55 woman sings in rough and harsh tone ? What sort of woman sings with
skill? What sort of woman sings in slow rhythm ? What sort of woman Hisings in quick rhythm ? What sort of woman sings out of tune ? (11)
(Answer) A young woman sings in sweet tone. A woman with dark complexion sings in rough and harsh tone. A woman with fair complexion sings with skill. A one-eyed woman sings in slow rhythm. A blind woman sings in quick rhythm. A woman with pale or tawny complexion sings out of tune. (12)
The details about Saptasvar Sibhar are as follows (1) Tantri-samthere is a harmony with tantri (instrumental music). (2) Taal samthere is a harmony with beats (of percussion instruments). (3) Pada sam—there is a harmony with lyrics. (4) Laya sam-there is a harmony with rhythm of musical instruments (string, wind, and other). (5) Graha
41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 4545454545
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sam-there is a harmony with the set notes of musical instruments. (6) Nishvasitocchavasit sam-there is a harmony with inhalation and
fi exhalation. (7) Sanchar sam—– there is a harmony with the (speed of) 5 movement of fingers on musical instruments.
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Thus the rendering of a song has seven qualities in consonance with musical instruments. (13)
Conclusion-Thus there are seven svars (musical notes), three grums ( scales ), and twenty one murchchhanas (modulations ). Each svar (musical note) is sung with seven tones making a total of 49 tones. This concludes the description of the sphere of svars (musical notes).
(These details about seven musical notes are also available in Illustrated Anuyogadvar Sutra, part-1, pp. 400-417)
कायक्लेश- पद KAYAKLESH-PAD (SEGMENT OF MORTIFICATION OF BODY)
४९. सत्तविधे कायकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा- ठाणातिए, उक्कुडुयासणिए, पडिमाठाई, वीरासणिए, सज्जिए, दंडायतिए, लगंडसाई ।
४९. कायक्लेश तप सात प्रकार का है - ( १ ) स्थानायतिक - खड़े होकर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थिर होना । (२) उत्कुटुकासन - दोनों पैरों को भूमि पर टिकाकर उकडू बैठना। (३) प्रतिमास्थायी - भिक्षुप्रतिमा की विभिन्न मुद्राओं में स्थित रहना । ( ४ ) वीरासनिक- सिंहासन पर बैठने के समान दोनों घुटनों पर हाथ रखकर अवस्थित होना । (५) नैषयिक - पालथी मारकर स्थिर हो स्वाध्याय करने की मुद्रा में बैठना । (६) दण्डायतिक- डण्डे के समान सीधे चित्त लेटकर दोनों हाथों और पैरों को सटाकर अवस्थित रहना । (७) लगंडशायी - भूमि पर सीधे लेटकर लकुट के समान एड़ियाँ और शिर को भूमि से लगाकर पीठ आदि मध्यवर्ती भाग को ऊपर उठाये रखना ।
विवेचन - कायक्लेश बाह्यतप का पाँचवाँ भेद है। कायक्लेश का उद्देश्य, शरीर को क्लेश या कष्ट देना नहीं, किन्तु विविध आसनों द्वारा, उपसर्गों व कष्टों को सहन करते हुए शरीर की मूर्च्छा मिटाना और तितिक्षा भाव की वृद्धि करना है। प्रस्तुत सूत्र में वर्णित सातों भेद आसन से सम्बन्धित हैं । औपपातिक
49. Kayaklesh tap (austerities of mortification of body) is of seven kinds—(1) Sthanayatik - to stand straight and still, dissociating thoughts 5 from the body. (2) Utkatukasan—to sit squatting with feet straight on the ground. (3) Pratimasthaayi-to sit in various postures related to bhikshupratima (special austerities). (4) Virasanik-to sit in Virasan (posture resembling sitting on a chair without a chair). (5) Naishadyik - to 5 sit cross-legged. (6) Dandayatik-to sleep flat on the back with legs straight like a rod. (7) Lagandashayik-to adopt a posture where head and heal touch the floor and the back is raised.
सप्तम स्थान
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25595555555 5 55955555 5 55 555555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 595959595952
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5555555555555555555555555555555555555 ॐ सूत्र में आसनों के अतिरिक्त सूर्य की आतापना लेना, सर्दी में वस्त्र विहीन रहना, शरीर को नहीं । म खुजलाना, विभूषा नहीं करना यह सभी कायक्लेश के प्रकार बताएँ हैं। ॐ प्रतिमास्थायी का अर्थ है-दशाश्रुतस्कन्ध में वर्णित भिक्षु प्रतिमाओं की विविध मुद्राओं में स्थित ! 卐 रहना। (७) वीरासनिक-वीरासन की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार की है। बद्धपद्मासन की या पद्मासन की
मुद्रा में बैठना। अभयदेवसूरि के अनुसार सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा बनती है, वह वीरासन है। इससे धैर्य, कष्ट, सहिष्णुता तथा शरीर का सन्तुलन बनाये रखने की क्षमता बढ़ती है। ___इसी सूत्र के पाँचवें स्थान सूत्र ५० पर निषद्या के पाँच आसन बताये हैं। अतः तदनुसार निषद्या का ' + अर्थ है बैठकर किये जाने वाले आसन।
Elaboration-Kayaklesh is the fifth category of external austerities. In y fact it is not aimed at tormenting the body but at eliminating the natural fondness for one's own body by ignoring discomforts of adopting various tough postures and also enduring afflictions. This enhances the capacity of forbearance as well. These seven kinds are related to body postures. In
Aupapatik Sutra other kinds of kayaklesh are mentioned-to endure 卐 heat of the sun, to remain unclad in winter, not to scratch body when y ___itching, and avoid embellishing body.
Pratimasthayi means to adopt different postures related to Bhikshu pratimas (special austerities) mentioned in Dashashrutskandh (7). 41 Virasanik—there are numerous descriptions of this posture. To sit in baddha padmasan or padmasan (variations of lotus pose). Abhayadev Suri has described it as 'posture resembling sitting on a chair without a chair'. This posture enhances the capacity of patience, tolerance and physical balance.
In aphorism 50 of the fifth Sthaan of this book five sitting postures have been included in nishadya. Thus nishadya broadly means sitting postures. क्षेत्र, पर्वत, नदी-पद KSHETRA, PARVAT, NADI-PAD
(SEGMENT OF AREAS, MOUNTAINS, RIVERS) ५०. जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पण्णत्ता, तं जहा-भरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे। ५१. जंबूद्दीवे दीवे सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, णिसढे, णीलवंते, रुप्पी, सिहरी, मंदरे।
५०. जम्बूद्वीप द्वीप में सात वर्ष (क्षेत्र) हैं-(१) भरत, (२) ऐरवत, (३) हैमवत, (४) हैरण्यवत, 9 (५) हरिवर्ष, (६) रम्यकवर्ष, (७) महाविदेह। ५१. जम्बूद्वीप द्वीप में सात वर्षधर पर्वत हैं
555555555听听听听听听听听听听听听听听听。
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। (१) क्षुद्रहिमवान्, (२) महाहिमवान्, (३) निषध, (४) नीलवान, (५) रुक्मी, (६) शिखरी, (७) मन्दर (सुमेरु पर्वत)।
50. In Jambu continent there are seven varsh (areas)-(1) Bharat, i (2) Airavat, (3) Haimavat, (4) Hairanyavat, (5) Harivarsh, (6) Ramyak
varsh and (7) Mahavideh. 51. In Jambu continent there are seven Varshdhar parvats (mountains)-(1) Kshudra Himavan, (2) Mahahimavan, (3) Nishadh, (4) Nilavaan, (5) Rukmi, (6) Shikhari and (7) Mandar (Sumeru).
५२. जंबूद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति, तं जहा-गंगा, रोहिता, हरी, सीता, णरकंता, सुवण्णकूला, रत्ता। ५३. जंबुद्दीवे दीवे सत्त महाणदीओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति, तं जहा-सिंधू, रोहितंसा, हरिकंता, सीतोदा, णारिकंता, रूप्पकूला, र तावती।
५२. जम्बूद्वीप द्वीप में सात महानदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं-(१) गंगा, 5 (२) रोहिता, (३) हरित, (४) सीता, (५) नरकान्ता, (६) सुवर्णकूला, (७) रक्ता। ५३. जम्बूद्वीप द्वीप में सात महानदियाँ पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं-(१) सिन्धु, (२) रोहितांशा, (३) हरिकान्ता, (४) सीतोदा, (५) नारीकान्ता, (६) रूप्यकूला, (७) रक्तवती।
52. In Jambu continent east-flowing seven mahanadis (great rivers) fall into Lavan Samudra-(1) Ganga, (2) Rohita, (3) Harit, (4) Sita, (5) Narakanta, (6) Suvarnakoola and (7) Rakta. 53. In Jambu continent west-flowing seven mahanadis (great rivers) fall into Lavan Samudra(1) Sindhu, (2) Rohitamsha, (3) Harikanta, (4) Sitoda, (5) Narikanta, (6) Rupyakoola and (7) Raktavati.
५४. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं सत्त वासा पण्णत्ता, तं जहा-भरहे, [ एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, हरिवासे, रम्मगवासे ] महाविदेहे। ५५. धायइसंडदीवपुरत्तिमद्धे णं सत्त वासहरपब्बता पण्णत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंते, (महाहिमवंते, णिसढे, णीलवंते, रुप्पी, सिहरी), मंदरे।
५४. धातकीषण्डद्वीप के पूर्वार्ध में सात वर्ष (क्षेत्र) हैं-(१) भरत, (२) ऐरवत, (३) हैमवत, (४) हैरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) रम्यक्वर्ष, (७) महाविदेह। ५५. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में सात वर्षधर पर्वत हैं-(१) क्षुद्रहिमवान् (२) महाहिमवान् (३) निषध, (४) नीलवान् (५) रुक्मी, 卐 (६) शिखरी, (७) मन्दर।
54. In the eastern half of Dhatakikhand continent there are seven i varsh (areas)-(1) Bharat, (2) Airavat, (3) Haimavat, (4) Hairanyavat,
(5) Harivarsh, (6) Ramyak-varsh and (7) Mahavideh. 55. In the eastern half of Dhatakikhand continent there are seven Varsh-dhar parvats
55555555555555555555555555555555555555555555555555
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(mountains)-(1) Kshudra Himavan, (2) Mahahimavan, (3) Nishadh, 卐 (4) Nilavaan, (5) Rukmi, (6) Shikhari and (7) Mandar.
५६. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं सत्त महाणदीओ पुरत्थाभिमुहीओ कालोयसमुदं समप्पेंति, तं जहा-गंगा, (रोहिता, हरी, सीता, णरकंता, सुवण्णकूला), रत्ता।
५६. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में सात महानदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई कालोदसमुद्र में मिलती हैं-(१) गंगा, (२) रोहिता, (३) हरित्, (४) सीता, (५) नरकान्ता, (६) सुवर्णकूला, (७) रक्ता।
'56. In the eastern half of Dhatakikhand continent east-flowing seven mahanadis (great rivers) fall into Kalod Samudra-(1) Ganga, (2) Rohita, (3) Harit, (4) Sita, (5) Narakanta, (6) Suvarnakoola and (7) Rakta.
५७. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं सत्त महाणदीओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्येति तं जहा-सिंधू, [ रोहितंसा, हरिकंता, सीतोदा, णारिकता, रुप्पकूला ], रत्तावती। ५८. धायइसंडदीवे ॥ पच्चत्थिमद्धे णं सत्तवासा एवं चेव, णवरं-पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्ति, पच्चत्थाभिमुहीओ कालोदं। सेसं तं चेव।
५७. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में सात महानदियाँ पश्चिमाभिमुख होती हुई लवणसमुद्र में मिलती है हैं-(१) सिन्धु, (२) रोहितांशा, (३) हरिकान्ता, (४) सीतोदा, (५) नारीकान्ता, (६) रूप्यकूला, 9 (७) रक्तवती। ५८. ध्धातकीषण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में सात वर्ष वर्षधर पर्वत और सात महानदियाँ
इसी प्रकार-धातकीषण्ड के पूर्वार्ध के समान ही हैं। अन्तर केवल इतना है कि पूर्वाभिमुखी नदियाँ लवणसमुद्र में और पश्चिमाभिमुखी नदियाँ कालोदसमुद्र में मिलती हैं। शेष सब वर्णन वही है।
57. In the eastern half of Dhatakikhand continent west-flowing seven mahanadis (great rivers) fall into Lavan Samudra-(1) Sindhu, (2) Rohitamsha, (3) Harikanta, (4) Sitoda, (5) Narikanta, (6) Rupyakoola and (7) Raktavati. 58. In the western half of Dhatakikhand continent , there are seven varsh (areas), seven Varsh-dhar parvats (mountains) and + seven mahanadis (great rivers) like those in the eastern half of Dhatakikhand continent. The only difference is that the east-flowing rivers fall in Lavan Samudra and the west flowing rivers fall in Kalod Samudra. All other details are same.
५९. पुक्खरवरदीवडपुरथिमद्धे णं सत्त वासा तहेव, नवरं-पुरत्थाभिमुहाओ पुक्खरोदं समुदं समप्येति, पच्चत्थाभिमुहीओ कालोदं समुदं समप्पेंति। सेसं तं चेव। ६०. एवं पच्चत्थिमद्धेवि नवरं
पुरत्थाभिमुहीओ कालोदं समुदं समप्पेंति, पच्चत्थाभिमुहीओ पुक्खरोदं समप्पेंति। सव्वत्थ वासा * वासहरपव्वता णदीओ य भाणितव्वाणि।
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५९. इसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध में सात वर्ष, सात वर्षधर पर्वत और सात महानदियाँ हैं । अर्थात् धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध के समान ही हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि पूर्वाभिमुखी नदियाँ पुष्करोदसमुद्र में और पश्चिमाभिमुखी नदियाँ कालोदसमुद्र में मिलती हैं । ६०. इसी प्रकार अर्धपुष्करवर द्वीप के पश्चिमार्ध में सात वर्ष, सात वर्षधर पर्वत और सात महानदियाँ धातकीषण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध के समान ही हैं। अन्तर केवल इतना है कि पूर्वाभिमुखी नदियाँ कालोदसमुद्र में और पश्चिमाभिमुखी नदियाँ पुष्करोदसमुद्र में जाकर मिलती हैं।
कुलकर- पद KULAKAR-PAD (SEGMENT OF CLAN FOUNDERS)
६१. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा हुत्था, तं जहामित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपभे ।
विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥१ ॥ (संग्रहणी - गाथा )
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59. In the same way in the eastern half of Pushkaravar continent there are seven varsh (areas), seven Varsh-dhar parvats (mountains) and seven mahanadis (great rivers). This means that they are same as those in the eastern half of Dhatakikhand continent. The only difference is that the east-flowing rivers fall in Pushkarod Samudra and the west flowing rivers fall in Kalod Samudra. 60. In the same way in the western half of Pushkaravar continent there are seven varsh (areas), seven Varsh-dhar parvats (mountains) and seven mahanadis (great rivers) like those in the western half of Dhatakikhand continent. The only difference is that the east-flowing rivers fall in Kalod Samudra and the west flowing rivers fall in Pushkarod Samudra.
६१. जम्बूद्वीप द्वीप में भारतवर्ष में अतीत उत्सर्पिणी काल में सात कुलकर हुए - (१) मित्रदामा, (२) सुदामा, (३) सुपार्श्व, (४) स्वयंप्रभ, (५) विमलघोष, (६) सुघोष, (७) महाघोष ।
61. In Jambu Dveep in Bharat-varsh there have been seven kulakars (clan founders or society makers) during the past Utsarpini ( progressive cycle of time ) — (1) Mitradama, (2) Sudama, (3) Suparshva, (4) Svayamprabh, (5) Vimalaghosh, (6) Sughosh and (7) Mahaghosh
६२. जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए सत्त कुलगरा हुत्था
६३. एएसि णं सत्तण्हं कुलगराणं सत्त भारियाओ हुत्था तं जहा
सप्तम स्थान
पढमित्थ विमलवाहण, चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । ततो य पसेणइए, मरुदेवे चेव णाभी य ॥ १ ॥
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Seventh Sthaan
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चंदजस चंदकंता, सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य।
सिरिकंता मरुदेवी, कुलकरइत्थीण णामाई॥१॥ ६२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में इसी, वर्तमान अवसर्पिणी में सात कुलकर हुए हैं(१) विमलवाहन, (२) चक्षुष्मान्, (३) यशस्वी, (४) अभिचन्द्र, (५) प्रसेनजित्, (६) मरुदेव, 卐 (७) नाभि। ६३. इन सात कुलकरों की साथ भार्याएँ थीं-(१) चन्द्रयशा, (२) चन्द्रकान्ता, (३) सुरूपा, के म (४) प्रतिरूपा, (५) चक्षुष्कान्ता, (६) श्रीकान्ता, (७) मरुदेवी।
62. In Jambu Dveep in Bharat-varsh there have been seven kulakars (clan founders or society makers) during the current Avasarpini (regressive cycle of time)-(1) Vimalavahan, (2) Chakshushman, (3) Yashasvi, (4) Abhichandra, (5) Prasenajit, (6) Marudev and (7) Nabhi. 63. These seven kulakars had seven wives-(1) Chandrayasha, (2) Chandrakanta, (3) Surupa, (4) Pratirupa, (5) Chakshushkanta, (6) Shrikanta and (7) Marudevi ६४. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सत्त कुलकरा भविस्संति
मित्तवाहण सुभोमे य, सुप्पभे यसयंपभे।
दत्ते सुहुमे सुबंधू य, आगमिस्सेण होक्खती॥१॥ ६४. जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी काल में सात कुलकर होंगे-(१) मित्रवाहन, + (२) सुभौम, (३) सुप्रभ, (४) स्वयम्प्रभ, (५) दत्त, (६) सूक्ष्म, (७) सुबन्धु।
64. In Jambu Dveep in Bharat-varsh there will be seven kulakars (clan founders or society makers) during the coming Utsarpini (progressive cycle of time)—(1) Mitravahan, (2) Subhaum, (3) Suprabh, (4) Svayamprabh, (5) Datt, (6) Sukshma and (7) Subandhu कल्पवृक्ष-पद KALPAVRIKSHA-PAD (SEGMENT OF WISH FULFILLING TREE) ६५. विमलवाहणे णं कुलकरे सत्तविधा रुक्खा उवभोगत्ताए हव्वमागच्छिंसु, तं जहा
मतंगया य भिंगा, चित्तंगा चेव होंति चित्तरसा।
मणियंगा य अणियणा, सत्तमगा कप्परुक्खा य॥१॥ ६५. विमलवाहन कुलकर के समय में सात प्रकार के कल्पवृक्ष उपभोग में आते थे-(१) मदांगक, म (२) भृग, (३) चित्रांग, (४) चित्ररस, (५) मण्यंग, (६) अनग्नक, (७) कल्पवृक्ष।
65. During the reign of Kulakar Vimalavahan seven kinds of kalpvriksha (wish fulfilling trees) were used for subsistence(1) Madaangak, (2) Bhring, (3) Chitrang, (4) Chitrarasa, (5) Manyang, (6) Anagnak and (7) Kalp-vriksha
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विवेचन-प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से बहुत पहले यौगलिक व्यवस्था थी। दस प्रकार के के म कल्पवृक्षों के सहारे उनकी जीवन चर्या चलती थी। काल-परिवर्तन हुआ। युगलिक युग के स्थान पर । कुल व्यवस्था का आरम्भ हुआ। लोग संगठित होकर कुल के रूप में रहने लगे। उनका एक मुखिया जो ॐ । सर्वेसर्वा होता था, उसे 'कुलकर' कहा जाता था। व्यवस्था बनाये रखने के लिए अपराधी को दण्ड देने का अधिकार भी कुलकर को होता था। उस प्रथा में मुख्य कुलकर सात हुए।
उत्सर्पिणी काल में २४वें तीर्थंकर के शासन काल के अवसान में सात कुलकर होते हैं, तथा । अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के पहले सात कुलकर होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल के सातवें म कुलकर नाभि राजा हुए। जो भगवान ऋषभदेव के पिता थे।
प्रथम कुलकर विमलवाहन के समय दस कल्पवृक्षों में से तीन कल्पवृक्ष लुप्त हो चुके थे। (१) त्रुटितांग, (२) दीपांग, (३) ज्योतिरंग। कुलकरों का विस्तृत वर्णन आवश्यक नियुक्ति गाथा है १५२-१६५ में है।
Elaboration-Yaugalik system (system of twins) was prevalent long before Bhagavan Risabhadeva's time. These people subsisted on ten kinds of kalpavrikshas. Times changed. Kula (family or clan) system replaced the yugalik system. People organized and started living as families and clans. The chief, who commanded the clan, was called
kulakar. For the smooth running of the social system the kulakar also F had the right to punish a miscreant. In that tradition there were seven F_main kulakars.
In a progressive cycle of time at the end of the period of influence of ī the twenty fourth Tirthankar there are seven kulakars. In a regressive Ficycle of time there are seven kulakars before the time of the first
Tirthankar. In the current regressive cycle of time the seventh kulakar was king Nabhi who was the father of Bhagavan Risabhadeva.
During the time of the first kulakar Vimalavahan three out of the ten kalpavrikshas had become extinct-(1) Trutitang, (2) Dipang and (3) Jyotirang. Detailed description of kulakars is available in Avashyak Niryukti, verses 152-165. दण्डनीति-पद DANDANITI-PAD (SEGMENT OF PENAL CODE)
६६. सत्तविधा दंडनीती पण्णत्ता, तं जहा-हक्कारे, मक्कारे, धिक्कारे, परिभासे, मंडलबंधे, चारए, छविच्छेदे।
६६. दण्डनीति सात प्रकार की है-(१) हाकार-हा ! तूने यह क्या किया? (२) माकार-आगे ऐसा । मत करना। (३) धिक्कार-धिक्कार है तुझे ! तूने ऐसा किया। (४) परिभाष-अल्पकाल के लिए
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Seventh Sthaan
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फ़ नजर-कैद रखने का आदेश देना। (५) मण्डलबन्ध-नियत क्षेत्र के बाहर न जाने का आदेश देना। ॥
(६) चारक-जेलखाने में बन्द रखने का आदेश देना। (७) छविच्छेद-हाथ-पैर आदि शरीर के अंग 卐 काटने का आदेश देना।
66. Dandaniti (penal code) is of seven kinds (1) Hakar-'Ha ! What have you done ? (2) Makar—'Do not do that again'. (3) Dhikkar—'Cursed
you are ! For doing this'. (4) Paribhash-to order for confinement for a ___limited Period. (5) Mandal bandh-to prohibit movement outside a
prescribed area. (6) Charak-order for imprisonment. (7) Chhavichchhedto order dismembering.
विवेचन-कुलकरों के पूर्व सभी मनुष्य अकर्मभूमि या भोगभूमि में जीवन-यापन करते थे। कल्पवृक्षों के सहारे जीवन चलता था। उस समय युगल-धर्म चल रहा था। किन्तु काल के प्रभाव से जब वृक्षों में भी फल-प्रदान की शक्ति घटने लगी और एक युगल दूसरे युगल की भूमि-सीमा में प्रवेश कर फलादि फ़ तोड़ने और खाने लगे, तब अपराधी व्यक्तियों को कुलकरों के सम्मुख लाया जाने लगा। उस समय लोग
इतने सरल और सीधे थे कि कुलकर द्वारा 'हा' (हाय, तुमने क्या किया?) इतना मात्र कह देने पर म आगे अपराध नहीं करते थे। इस प्रकार प्रथम ‘हाकार' दण्डनीति दूसरे कुलकर के समय तक चलती ॥
रही। जब अपराध पर अपराध करने की प्रवृत्ति बढ़ी तो तीसरे-चौथे कुलकर ने 'हा' के साथ 'मा' ॐ दण्डनीति प्रचलित की। जब और भी अपराधप्रवृत्ति बढ़ी तब पाँचवें कुलकर ने 'हा', मा' के साथ + धिक्' दण्डनीति प्रचलित की। इस प्रकार स्वल्प अपराध के लिए 'हा', उससे बड़े अपराध के लिए 'मा'
और उससे बड़े अपराध के लिए 'धिक्' दण्डनीति का प्रचार अन्तिम कुलकर के समय तक रहा।
जब कुलकर-युग समाप्त हो गया और कर्म भूमि का प्रारम्भ हुआ। ऋषभदेव इस काल के प्रथम 5 4 राजा हुए। भगवान ऋषभदेव के समय में जब अपराधप्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ने लगी, तब उन्होंने चौथी
परिभाष और पांचवीं मण्डलबन्ध दण्डनीति का उपयोग किया। अपराध-प्रवृत्तियों की उग्रता बढ़ने पर
भरत चक्रवर्ती ने अन्तिम चारक और छविच्छेद इन दो दण्डनीतियों का प्रयोग करने का विधान किया। ॐ (आवश्यक चूर्णि)
___आचार्य हरिभद्र आदि टीकाकारों का मत है कि भगवान ऋषभदेव ने तो कर्मभूमि की ही व्यवस्था ॐ की। अन्तिम चारों दण्डनीतियों का विधान भरत चक्रवर्ती ने किया है। इस विषय में विभिन्न आचार्यों के
विभिन्न अभिमत हैं। कुछ आचार्यों का मत है, चक्रवर्ती भरत के समय में मृत्युदण्ड का चलन भी हो गया ॐ था। (आवश्यकभाष्य गाथा १८)
Elaboration-Before the period of kulakars everyone lived in the akarmabhumi (period of no endeavour) or bhogabhumi (period of enjoyments). People subsisted on wish-fulfilling trees. But with passage of time the yield of these trees declined and the twins started trespassing areas of other twins to pluck fruits and other things. These criminals were
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y then caught and produced before kulakars. During that period people
were so simple that mere utterance of Ha ! (exclamation conveying—what have you done ?) was enough to avoid any further criminal activity. This penal code of Hakar continued up to the second kulakar.
With increase in criminal activity the third and forth kulakar introduced the Makar code. With further increase the fifth kulakar introduced Dhikkar code. Thus the penal codes of Hakar for simple
offense, Makar for slightly serious offense and Dhikkar for serious $ offense continued till the time of the last kulakar.
When the kulakar age ended, the period of karma bhumi (period of 15 endeavour) commenced. Risabhadeva was the first king of this age. 4 When the criminal activities continued to increase, he introduced the 5 Paribhash and Mandal codes. With a further increase in criminal
tendencies Bharat Chakravarti introduced Charak and Chhavichchhed codes. (Avashyak Churni)
Acharya Haribhadra and other commentators are of the view that Bhagavan Risabhadeva retained the policy of the kulakar period. The last four codes were introduced by Bharat Chakravarti. Acharyas have
different opinions regarding this. Some acharyas also believe that capital 41 punishment was also introduced by Chakravarti Bharat. (Avashyak
Bhashya, verse 18) चक्रवर्तीरत्न-पद CHAKRAVARTI RATNA-PAD
(SEGMENT OF GEMS OF CHAKRAVARTI) ६७. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स सत्त एगिदिय रयणा पण्णत्ता, तं जहाचक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, दंडरयणे, असिरयणे, मणिरयणे, काकणिरयणे।
६८. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स सत्त पंचिंदिय रयणा पण्णत्ता, तं जहा+ सेणावतिरयणे, गाहावतिरयणे, वड्डइरयणे, पुरोहितरयणे, इत्थिरयणे, आसरयणे, हत्थिरयणे। 卐 ६७. प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के सात एकेन्द्रिय रत्न होते हैं-(१) चक्ररत्न, (२) छत्ररत्न, । (३) चर्मरत्न, (४) दण्डरत्न, (५) असिरत्न, (६) मणिरत्न, (७) काकणीरत्न। ६८. प्रत्येक चातुरन्त ॐ चक्रवर्ती राजा के सात पंचेन्द्रिय रत्न होते हैं-(१) सेनापतिरत्न, (२) गृहपतिरत्न, (३) वर्धकीरत्न, . + (४) पुरोहितरत्न, (५) स्त्रीरल, (६) अश्वरत्न, (७) हस्तिरत्न।
67. Every Chaturant Chakravarti (emperor of the land reaching the end of all four directions) has seven ekendriya ratna (one-sensed gem ori best thing of its class)-(1) Chakra ratna (best disc weapon), (2) Chhatra.
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5 (best staff), (5) Asi ratna (best sword), (6) Mani ratna (best bead ) and (7) Kakani ratna (a unique stone). 68. Every Chaturant Chakravarti 5 (emperor of the land reaching the end of all four directions) has seven panchendriya ratna (five-sensed gem or best thing of its class)(1) Senapati ratna (best commander), (2) Grihapati ratna (best household manager ), ( 3 ) Vardhaki ratna (best engineer), (4) Purohit 5 ratna (best priest ), ( 5 ) Stree ratna (best woman ), ( 6 ) Ashva ratna (best horse) and (7) Hasti ratna (best elephant)
विवेचन - किसी उत्कृष्ट या सर्वश्रेष्ठ वस्तु को 'रत्न' कहा जाता है। चक्रवर्ती के ये सभी वस्तुएँ अपनी-अपनी जाति में सर्वश्रेष्ठ होती हैं। चक्र, छत्र आदि एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर से निर्मित हैं, अतः उन्हें एकेन्द्रिय रत्न कहा गया है।
एकेन्द्रिय रत्नों का प्रमाण इस प्रकार है-चक्र, छत्र और दण्ड - व्याम प्रमाण हैं । अर्थात् तिरछे फैलाये हुए दोनों हाथों की अँगुलियों के अन्तराल जितने बड़े होते हैं । चर्मरत्न दो हाथ लम्बा होता है। असि (खड्ग) बत्तीस अंगुल का, मणि चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है। काकणीरत्ल की लम्बाई चार अंगुल होती है । रत्नों का यह माप प्रत्येक चक्रवर्ती के अपने-अपने अंगुल (आत्मांगुल) प्रमाण से है।
चक्र, छत्र, दण्ड और असि, इन चार रत्नों की उत्पत्ति चक्रवर्ती की आयुधशाला में तथा चर्म, मणि और काकणीरत्न की उत्पत्ति चक्रवर्ती के श्रीगृह में होती है । सेनापति, गृहपति, वर्धकी, और पुरोहित इन पुरुषरत्नों की उत्पत्ति चक्रवर्ती की राजधानी में होती है। अश्व और हस्ती इन दो पंचेन्द्रिय तिर्यंच रत्नों की उत्पत्ति वैताढ्य (विजयार्ध) गिरि की उपत्यकाभूमि ( तलहटी) में होती है। स्त्रीरत्न की उत्पत्ति फ वैताढ्य पर्वत की उत्तर दिशा में अवस्थित विद्याधर श्रेणी में होती है। इन रत्नों की उपयोगिता इस प्रकार है
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( १ ) सेनापतिरत्न - यह चक्रवर्ती का प्रधान सेनापति है जो सभी मनुष्यों को जीतने वाला और अपराजेय होता है। (२) गृहपतिरत्न - यह चक्रवर्ती के गृह की सदा सर्वप्रकार से समुचित व्यवस्था करता है और उनके घर के भण्डार को सदा धन-धान्य से भरा-पूरा रखता है । ( ३ ) पुरोहितरत्न - यह 5 राजपुरोहित चक्रवर्ती के शान्ति-कर्म आदि कार्य करता है तथा युद्ध के लिए प्रयाण-काल आदि बतलाता है । (४) हस्तिरत्न - यह चक्रवर्ती की गजशाला का सर्वश्रेष्ठ हाथी होता है और सभी मांगलिक फ्र अवसरों पर चक्रवर्ती इसी पर सवार होकर निकलता है। (५) अश्वरत्न - यह चक्रवर्ती की अश्वशाला 卐 का सर्वश्रेष्ठ अश्व होता है और युद्ध या अन्यत्र दूर जाने में चक्रवर्ती इसका उपयोग करता है। फ्र (६) वर्धकीरत्न - यह सभी बढ़ई, मिस्त्री या कारीगरों का प्रधान, गृहनिर्माण में कुशल, नदियों को पार 5 करने
के लिए पुल निर्माणादि कराने वाला श्रेष्ठ अभियन्ता ( इंजीनियर) होता है। (७) स्त्रीरत्न - यह चक्रवर्ती के विशाल अन्तःपुर में सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य वाली पट्टरानी होती है। (८) चक्ररत्न - यह सभी आयुधों
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चक्रवर्ती के 14 रत्न
एकेन्द्रिय रत्न
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चक्र
असि
मणि
काकिणी रत्न
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पंचेन्द्रिय रत्न
गृहपति
सेनापति
वर्धकी
पुरोहित
अश्व रत्न
गज रत्न
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चित्र परिचय १२ ।
Illustration No. 12
चक्रवर्ती के चौदह रत्न प्रत्येक चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय रत्न एवं सात पंचेन्द्रिय रत्न-इस प्रकार १४ रत्न होते हैं।
सात एकेन्द्रिय रत्न-(१) चक्र रत्न, (२) छत्र रत्न, (३) चर्म रत्न, (४) दण्ड रत्न, (५) असि रत्न, (६) मणि रत्न, (७) काकिणी रत्न।
सात पंचेन्द्रिय रत्न-(१) सेनापति रत्न, (२) गृहपति रत्न, (३) वर्धकी (बढ़इ) रत्न, (४) पुरोहित रत्न, (५) स्त्री रत्न, (६) अश्व रत्न, (७) गज रत्न। ये रत्न अपने समय के श्रेष्ठतम होते हैं। (इनका विस्तृत अर्थ विवेचन में देखें)
-स्थान ७, सूत्र ६७-६८
FOURTEEN GEMS OF CHAKRAVARTI Every Chakravarti has seven ekendriya ratna (onesensed gems) and seven panchendriya ratna (five-sensed gems).
Seven ekendriya ratna-(1) Chakra ratna (best disc weapon), (2) Chhatra ratna (best umbrella), (3) Charma ratna (best leather), (4) Dand ratna (best staff), (5) Asi ratna (best sword), (6) Mani ratna (best bead), and (7) Kakani ratna (a unique stone). . Seven panchendriya ratna-(1) Senapati ratna (best commander), (2) Grihapati ratna (best household manager), (3) Vardhaki ratna (best engineer), (4) Purohit ratna. (best priest), (5) Stree ratna (best woman), (6) Ashva ratna (best horse), and (7) Hasti ratna (best elephant).
The best thing in its particular class in a particular period is called ratna (gem). (for details see elaborations)
-Sthaan 7, Sutra 67-68
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में श्रेष्ठ और अदम्य शत्रुओं का भी दमन करने वाला आयुधरत्न है । (९) छत्ररत्न - यह सामान्य या 5 साधारण काल में धूप, वर्षा, हवा से बचाता है, किन्तु अकस्मात् वर्षाकाल होने पर चक्रवर्ती के हाथ का स्पर्श पाकर बारह योजन लम्बे-चौड़े सारे स्कन्धावार के ऊपर फैलकर धूप और हवा-पानी से सबकी रक्षा करता है । (१०) चर्मरत्न - प्रवास काल में बारह योजन लम्बे-चौड़े छत्र के नीचे प्रातःकाल बोये गये शालि-धान्य के बीजों को मध्याह्न में उपभोग योग्य बना देने में यह समर्थ होता है । (११) मणिरत्न - यह तीन कोण और छह अंश वाला मणि प्रवास या युद्धकाल में रात्रि के समय चक्रवर्ती के सारे कटक में 5 प्रकाश करता है तथा वैताढ्यगिरि की तमिस्रा और खण्डप्रपात गुफाओं से निकलते समय हाथी के सिर 5 के दाहिनी ओर बाँध देने पर सारी गुफाओं में प्रकाश फैल जाता है। (१२) काकिणीरत्न - यह आठ सौवर्णिक प्रमाण, चारों ओर से सम होता है । सर्व प्रकार के विषों का प्रभाव दूर करता है। 5 (१३) खङ्गरत्न - यह अप्रतिहत शक्ति और अमोघ प्रहार वाला होता है । (१४) दण्डरत्न - यह वज्रमय दण्ड शत्रु - सैन्य का मर्दन करने वाला, विषम भूमि को सम करने वाला और सर्वत्र शान्ति स्थापित करने वाला रत्न है। (-प्रवचन सारोद्धार भाग-२, द्वार २१२ गाथा १२१४ से १७)
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Elaboration-The best thing in its particular class is called ratna (gem). The aforesaid things belonging to a Chakravarti are best in their respective class. As Chakra, Chhatra and other things of the first list are made from the bodies of one sensed earth-bodied beings, they are called ekendriya ratna.
The origin of Chakra, Chhatra, Dand and Asi is in the armoury of the Chakravarti. Charma, Mani and Kakini ratna appear in his treasury (Shrigriha). The human gems – Senapati, Grihapati, Vardhaki and 5 5 Purohit—are born in the capital of the Chakravarti. The animal gems, 5 horse and elephant, are born in the valley of Vaitadhya mountain. Stree ratna is born in Vidyadhar range north of Vaitadhya mountain. The qualities of these gems are as follows
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The size of the ekendriya ratnas-Chakra, Chhatra and Dand are vyaam sized (distance between tips of outstretched hands ). Charma 5 ratna is two cubits long. Asi is 32 Anguls (width of a finger) long, Mani is four Anguls long and two Anguls wide. The Kakini ratna is four Anguls long. These dimensions of the ratnas are in Atmanguls (width of fingers of the owner or the specific Chakravarti).
सप्तम स्थान
(1) Senapati ratna — He is the commander-in-chief of the Chakravarti. 5 He conquers every foe and is unconquerable. (2) Grihapati ratna – He is of the household of Chakravarti and ensures that palace the manager
stores have abundant supplies of grains and other thing. (3) Vardhaki ratna-He is the head of the workshop and an expert engineer skilled in
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Seventh Sthaan
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ki building and bridge construction besides other things. (4) Purohit
ratna--his duties include supervising auspicious rituals as well as calculating auspicious moments for various activities including going to war. (5) Stree ratna-She is the most beautiful lady in the large harem of the Chakravarti and chief among queens. (6) Ashva ratna-The best
among horses in the Chakravarti's stable and personally used by him for 9 traveling as well as war. (7) Hasti ratna-The best among elephants ॥
and used by the Chakravarti for a ride on every auspicious occasion. (8) Chakra ratna-The best among weapons and capable of subduing even unconquerable foes. (9) Chhatra ratna-Commonly used for protection from sun, wind and rain but on sudden raining it can expand, by mere touch of the Chakravarti, to cover 12 square Yojan area and protect a large cantonment. (10) Charmaratna-It has the capacity to produce ripe grains by noon from seeds sown in the morning under the aforesaid canopy with 12 Yojan area. (11) Dand ratna-This diamond hard staff has the capacity to crush opposing armies, level uneven land and establish peace everywhere. (12) Asi ratna- This can be used to give a tremendous and destructive blow. (13) Mani ratna-This triangular and six faceted bead provides light in the whole camp-site of the Chakravarti during the night while he is camping for a war or otherwise.
It is also used to cross the pitch dark Tamisra and Khandaprapat caves 4 in Vaitadhya mountain. When tied on the right side of an elephant's
head it lights the whole cave. (14) Kakani ratna-This is a unique cubical stone of eight Sauvarnik dimension. It is used to remove toxic effects of any and all poisons. (see Pravachanasaroddhar 2/212/1214-17)
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दुःषमा-सुषमा-लक्षण पद DUKHAMA-SUKHAMA-LAKSHAN-PAD
(SEGMENT OF SIGNS OF DUKHAMA-SUKHAMA) ६९. सत्तर्हि ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेज्जा, तं जहा-अकाले वरिसइ, काले ण वरिसइ, ॐ असाधू पुजंति, साधू ण पुजंति, गुरूहि जणो मिच्छं पडिवण्णो, मणोदुहता, वइदुहता।
७०. सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तं जहा-अकाले ण वरिसइ, काले वरिसइ, असाधूक ण पुजंति, साधू पुजंति, गुरुहिं जणो सम्मं पडिवण्णो, मणोसुहता, वइसुहता।
६९. सात लक्षणों से दुःषमा काल का आना या प्रकर्ष जाना जाता है-(१) अकाल में वर्षा होने से। म (२) समय पर वर्षा न होने से। (३) असाधुओं की पूजा होने से। (४) साधुओं की पूजा न होने से।
(५) गुरुजनों के प्रति लोगों का असद् व्यवहार होने से। (६) अकारण ही मन में दुःख या उद्वेग होने से। 卐 (७) वचन-व्यवहार सम्बन्धी दुःख से। ७०. सात लक्षणों से सुषमा काल का आना या प्रकर्ष जाना
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Sthaananga Sutra (2)
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5 जाता है, जैसे- (१) अकाल में वर्षा नहीं होने से। (२) समय पर वर्षा होने से । (३) असाधुओं की पूजा
नहीं होने से। (४) साधुओं की पूजा होने से । (५) गुरुजनों के प्रति लोगों का सद्व्यवहार होने से। (६) सहज ही मन में सुख का संचार होने से। (७) वचन - व्यवहार में सद्भाव प्रकट होने से ।
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69. There are seven signs that indicate the coming of Dukham kaal (epoch of sorrow)-(1) untimely rains, (2) absence of rains during monsoon season, ( 3 ) worship of the impious, (4) avoidance of worship of 卐 the pious, (5) misbehaviour with seniors, (6) rise of sadness or agitation 5 in mind for no reason and (7) rude speech and misbehaviour. 70. There seven signs that indicate the coming of Sukham kaal (epoch happiness ) - ( 1 ) absence of untimely rains, ( 2 ) timely rains, (3) avoidance 卐 of worship of the impious, (4) worship of the pious, (5) good behaviour 卐 with seniors, (6) rise of happiness or joy for no reason and (7) polite speech and good behaviour.
जीव - पद JIVA - PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS)
७१. सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा - णेरइया,
तिरिक्खजोणिणीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ, देवा, देवीओ ।
७१. संसारी जीव सात प्रकार के हैं - (१) नैरयिक, (२) तिर्यग्योनिक, (३) तिर्यंचनी, (४) मनुष्य, (५) मनुष्यनी, (६) देव, (७) देवी।
आयुर्भेद - पद AYURBHED-PAD (SEGMENT OF ACCIDENTAL DEATH)
७२. सत्तविधे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा
of
71. Worldly beings are of seven kinds – ( 1 ) Nairayik (infernal beings), (2) Tiryagyonik (males of animals), (3) Tiryanchini (females of animals), 5 (4) Manushya (men), (5) Manushyani (women), (6) Deva (gods) and (7) Devi (goddesses)
अज्झवसाण - णिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाते ।
फासे आणापाणू सत्तविधं भिज्जए आउं ॥ १ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
७२. आयुर्भेद (अकाल मरण) के सात कारण हैं - (9) राग, द्वेष, स्नेह, भय आदि भावों की तीव्रता से । (२) शस्त्राघात आदि के निमित्त से । (३) आहार की हीनाधिकता या निरोध से (४) ज्वर, आतंक, रोग आदि की तीव्र वेदना से । (५) पर के आघात से, गड्ढे आदि में गिर जाने से । (६) साँप आदि के स्पर्श या काटने से । (७) आन-पान - श्वासोच्छ्वास के निरोध से ।
सप्तम स्थान
तिरिक्खजोणिया,
72. There are seven reasons of ayurbhed (accidental or untimely death) — ( 1 ) Due to intensity of feelings like attachment, aversion,
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Seventh Sthaan
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affection and fear. (2) Due to being hit by weapons or other such $ accidents. (3) Due to shortage or excess or abandoning of food intake. 45 卐 (4) Due to aggravation of ailments including fever. (5) Due to attack by
others and also due to falling. (6) Due to touch or bite of a snake or other venomous being. (7) Due to suffocation जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS)
७३. सत्तविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सतिकाइया, तसकाइया, अकाइया। ___ अहवा-सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हलेसा, [ णीललेसा, काउलेसा, तेउलेसा, + पम्हलेसा ], सुक्कलेसा, अलेसा। ___७३. सभी जीव सात प्रकार के हैं-(१) पृथिवीकायिक, (२) अप्कायिक, (३) तेजस्कायिक, (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक, (६) त्रसकायिक, (७) अकायिक। (सिद्ध)
अथवासब जीव सात प्रकार के हैं-(१) कृष्णलेश्या वाले, (२) नीललेश्या वाले, (३) कापोतलेश्या वाले, (४) तेजोलेश्या वाले, (५) पद्मलेश्या वाले, (६) शुक्ललेश्या वाले, (७) अलेश्य (सिद्ध)
73. All living beings are of seven kinds -(1) Prithvikayik (earth-bodied 4 beings), (2) Apkayiks (water-bodied beings), (3) Tejaskayik (fire-bodied
beings), (4) Vayukayik (air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik (plantbodied beings), (6) Tras-kayik (mobile-bodied beings) and (7) Akayik (nonbodied or Siddha).
Also, all living beings are of seven kinds (1) having krishna leshya (black complexion of soul), (2) having neel leshya (blue complexion of soul), (3) having kapot leshya (pigeon complexion of soul), (4) having tejo leshya (fiery complexion of soul), (5) having padma leshya (yellow complexion of soul), (6) having shukla leshya (white complexion of soul) and (7) aleshya or having no leshya (Siddha) ब्रह्मदत्त-पद BRAHMADATT-PAD (SEGMENT OF BRAHMADATT)
७४. बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्त धणूंई उठं उच्चत्तेणं, सत्त य वाससयाइं परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा अधेसत्तमाए पुढवीए अप्पतिढाणे णरए णेरइयत्ताए उववण्णे।।
७४. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा ब्रह्मदत्त सात धनुष ऊँचे थे। वे सात सौ वर्ष की उत्कृष्ट आयु का पालन कर काल कर नीचे सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुए।
74. Chaturant Chakravarti Brahmadatt was seven Dhanush tall. He died at the mature age of seven hundred years and reincarnated as an
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स्थानांगसूत्र (२)
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infernal being in the Apratishthan infernal abode in the seventh Prithvi in the lower world.
मल्ली- प्रवज्या- पद MALLI PRAVRAJYA-PAD (SEGMENT OF INITIATION OF MALLI)
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७५. मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्यइए, तं जहा - मल्ली विदेहरायवरकण्णगा, पडिबुद्धी इक्खागराया, चंदच्छायए अंगराया, रुप्पी कुणालाधिपती, कासीराया, अदीणसत्तू कुरुराया, जितसत्तू पंचाल राया।
७५. मल्ली अर्हत् अपने सहित सात राजाओं के साथ मुण्डित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए - (१) विदेहराज की श्रेष्ठकन्या मल्ली । (२) साकेत निवासी इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि । (३) अंग जनपद का 5 राजा चम्पा निवासी चन्द्रच्छाया । (४) कुणाल जनपद का राजा श्रावस्ती निवासी रुक्मी (५) काशी जनपद का राजा वाराणसी निवासी शंख । (६) कुरु देश का राजा हस्तिनापुर निवासी अदीनशुत्र । (७) पञ्चाल जनपद का राजा कम्पिल्लपुर निवासी जितशत्रु। (ज्ञातासूत्र अध्ययन १९ में विस्तृत वर्णन है)
75. Malli Arhat tonsured her head, renounced the household and got initiated into the ascetic order in a group of seven rulers (inclusive of herself) – ( 1 ) Malli, the virtuous daughter of the king of Videh. 5 (2) Pratibuddha, the Ikshvaku king of Saket ( 3 ) Chandrachchhaya, the 5 king of Champa the capital of Anga country. (4) Rukmi, the king of 卐 Shravasti the capital of Kunal country. (5) Shankh, the king of Varanasi the capital of Kashi country. (6) Adinashatru, the king of Hastinapur the
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5 capital of Kuru country. ( 7 ) Jitashatru, the king of Kampillapur the
卐
capital of Panchal country. (for more details refer to Illustrated Jnata Sutra, Chapter 19)
दर्शन - पद DARSHAN PAD (SEGMENT OF PERCEPTION/FAITH)
७६. सत्तविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा सम्मद्दंसणे, मिच्छद्दंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलद
७६. दर्शन सात प्रकार का है - ( 9 ) सम्यग्दर्शन - यथार्थ श्रद्धान । (२) मिथ्यादर्शन - अयथार्थ फ श्रद्धान। (३) सम्यग्मिथ्यादर्शन - मिश्र श्रद्धान। ( ४ ) चक्षुदर्शन - आँखों से सामान्य प्रतिभास रूप 5 अवलोकन । (५) अचक्षुदर्शन-आँखों के सिवाय शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य प्रतिभासरूप अवलोकन । (६) अवधिदर्शन -अवधिज्ञान होने के पूर्व अवधिज्ञान के विषयभूत पदार्थ का सामान्य प्रतिभासरूप अवलोकन । (७) केवलर्शन- समस्त पदार्थों के सामान्य धर्मों का अवलोकन ।
संखे
76. Darshan (perception/faith) is of seven kinds-(1) Samyagdarshan
फ right perception/ faith, ( 2 ) mithyadarshan - wrong or false perception/
faith, (3) samyagmithyadarshan-mixed or right and wrong perception/
सप्तम स्थान
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Seventh Sthaan
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851))) faith, (4) chakshu darshan-common visual perception through eyes,
(5) achakshu darshan-common sensual perception through mind and 41 sensual organs other than eyes, (6) avadhi darshan-sensual perception of 4
subjects of avadhi-jnana (distant things) preceding attainment of avadhijnana and (7) Keval darshan-common perception of general properties of all things.
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छद्मस्थ-केवलि-पद CHHADMASTH-KEVALI-PAD
(SEGMENT OF CHHADMASTH-KEVALI) ७७. छउमत्थ-वीयरागे णं मोहणिज्जवज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ वेदेति, तं जहाणाणावरणिजं दंसणावरणिज्जं, वेयणिज्जं, आउयं, णाम, गोतं, अंतराइयं।
७७. छद्मस्थ वीतरागी साधु (ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती) मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) आयुष्य, (५) नाम, (६) गोत्र, (७) अन्तराय।
77. A chhadmasth (one who is short of omniscience due to residual karmic bondage) vitarag (devoid of attachment and aversion) experiences or suffers all seven karma-prakritis (species of karmas) other than mohaniya karma—(1) Jnanavaraniya, (2) Darshanavaraniya, (3) Vedaniya, (4) Ayushya, (5) Naam, (6) Gotra and (7) Antaraya.
७८. सत्त ठाणाइं छउमत्थे सब्वभावेणं ण याणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सदं, गंधं। ___ एयाणि चेव उप्पण्णणाण (दसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं) जाणति पासति, तं जहाधम्मत्थिकायं, [ अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सदं ], गंध। ॥
७८. छद्मस्थ जीव सात पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से न तो जान पाता है और न ही देख पाता है卐 (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीररहित जीव, (५) परमाणु ऊ पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध।
जिनको केवलज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है वे अर्हन्, जिन, केवली इन सात पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से + जानते देखते हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीर रहित , जीव, (५) परमाणु पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध।
78. Achhadmasth (a person in state of karmic bondage) person cannot see or know seven things fully (all their possible modes) (1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, (5) ulti particle of matter, (6) shabd (sound) and (7) gandh (smell).
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Arhat, Jina, and Kevali endowed with right knowledge and perception see and know fully (all their possible modes) these seven things—(1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya ( inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, (5) ultimate particle of matter, (6) shabd (sound) and (7) gandh ( smell)
महावीर - पद MAHAVIR PAD (SEGMENT OF MAHAVIR)
७९. समणे भगवं महावीरे वइरोसभणारायसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिते सत्त रयणीओ उड्ड उच्चत्तेणं हुत्था ।
७९. वज्र ऋषभ नाराचसंहनन और समचतुरस्र - संस्थान से संस्थित श्रमण भगवान् महावीर के शरीर की ऊँचाई सात रत्नि (हाथ) प्रमाण थी।
79. Endowed
with Vajra rishabh naaraach samhanan
and
Samchaturasra samsthan, Shraman Bhagavan Mahavir's body was seven Ratni (cubits) tall.
विकथा - पद VIKATHA-PAD (SEGMENT OF GOSSIP)
८०. सत्त विकहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा, मिउकालुणिया, दंसणभेयणी, चरित्तभेयणी ।
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सप्तम स्थान
卐
८०. विकथाएँ सात हैं - ( १ ) स्त्रीकथा, (२) भक्तकथा, (३) देशकथा, (४) राज्यकथा, फ्र (५) मृदु - कारुणिकी - इष्ट का वियोग बताने वाली करुणरस - प्रधान कथा । ( ६ ) दर्शन - भेदिनी- 5 सम्यग्दर्शन का विनाश करने वाली कथा । (७) चारित्र - भेदिनी - सम्यक्चारित्र का विनाश करने वाली । 80. Vikatha (gossip that hinders spiritual practices) is of seven kinds (1) stree-katha (gossip about women), (2) bhakt-katha (gossip about food), (3) desh-katha ( gossip about country), (4) raj-katha ( gossip about king), (5) mridu-karuniki (about separation from the loved one and filled with sentiment of pathos), (6) darshan - bhedini (detrimental to right faith) and ( 7 ) chaaritra-bhedini (detrimental to right conduct ).
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5 आचार्य - उपाध्याय - अतिशेष - पद ACHARYA UPADHYAYA ATISHESH PAD
(SEGMENT OF SPECIAL PRIVILEGE OF ACHARYA AND UPADHYAYA) ८१. आयरिय उवज्झायस्स णं गणंसि सत्त अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा
卐
卐
(१) आयरिय - उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाय णिगिज्झिय- णिगिज्झिय पप्फोडेमाणए वा फ्र पमज्जमाणे वा णातिक्कमति । (२) आयरिय - उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोधेमाणे वा णातिक्कमति । (३) आयरिय - उवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेज्जा, इच्छा णो
Seventh Sthaan
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करेज्जा। (४) आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा एगगो वसमाणे 5
णातिक्कमति। (५) आयरिय-उवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगरातं वा दुरातं वा [ एगओ ? ] 9 वसमाणे णातिक्कमति। (६) उवकरणातिसेसे। (७) भत्तपाणातिसेसे।
८१. आचार्य और उपाध्याय के गण में सात अतिशय (विशेष विधि) होते हैं
(१) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर (बाहर से आने पर) दोनों पैरों की धूलि को झाड़ते हुए, प्रमार्जित करते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। (२) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के 卐 भीतर उच्चार-प्रस्रवण का व्यत्सर्ग और विशोधन करते हए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। म (३) आचार्य और उपाध्याय स्वतन्त्र हैं, यदि इच्छा हो तो दूसरे साधु की वैयावृत्त्य करें, यदि इच्छा न
हो तो न करें। (४) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के भीतर एक रात या दो रात अकेले रहते हुए . म आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। (५) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक रात या दो रात + अकेले रहते हुए आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। (पंचम स्थान में इनका वर्णन आ गया है)। 9 (६) उपकरण की विशेषता-आचार्य और उपाध्याय अन्य साधुओं की अपेक्षा उज्ज्वल वस्त्रपात्रादि रख फ़ सकते हैं। (७) भक्त-पान-विशेषता-स्वास्थ्य और संयम की रक्षा के अनुकूल आगमानुकूल विशिष्ट खान-पान कर सकते हैं।
81. In a gana (group of ascetics) acharya and upadhyaya have seven atishesh (special privileges)
(1) Acharya and upadhyaya do not defy the word of Bhagavan if they 45 carefully dust their feet while entering an upashraya (place of stay).
(2) Acharya and upadhyaya do not defy the word of Bhagavan if they pass their stool and urine or cleanse themselves within the upashraya. Si (3) Acharya and upadhyaya are free of the responsibility of serving other ascetics; they may do so or not as they desire. (4) Acharya and upadhyaya do not defy the word of Bhagavan if they live alone in the
upashraya for one or two nights. (5) Acharya and upadhyaya do not defy 4 the word of Bhagavan if they live alone outside the upashraya for one or
two nights. (these have been explained in Sthaan-5) (6) Upakaranvisheshata-Acharya and upadhyaya can keep cleaner and brighter garbs and equipment. (7) Bhaktapaan-visheshata-Acharya and upadhyaya can have special food and drinks as prescribed in Agams for reasons of health and ascetic-discipline.
संयम-असंयम-पद SAMYAM-ASAMYAM-PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) ८२. सत्तविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयसंजमे, [ आउकाइयसंजमे, तेउकाइयसंजमे, ॐ वाउकाइयसंजमे, वणस्सइकाइयसंजमे ], तसकाइयसंजमे, अजीवकाइयसंजमे। ८३. सत्तविधे
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असंजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयअसंजमे, [ आउकाइयअसंजमे, तेउकाइयअसंजमे, वाउकाइयअसंजमे, वणस्सइकाइयअसंजमे ], तसकाइयअसंजमे, अजीवकाइय असंजमे।।
८२. संयम सात प्रकार का है-(१) पृथिवीकायिक संयम-(२) अप्कायिक संयम, (३) तेजस्कायिक । संयम, (४) वायुकायिक संयम, (५) वनस्पतिकायिक संयम, (६) त्रसकायिक संयम, (७) अजीवकायिक । संयम-अजीव वस्तुओं के ग्रहण और परिभोग का त्याग। ८३. असंयम सात प्रकार का है। (१) पृथिवीकायिक असंयम, (२) अप्कायिक असंयम, (३) तेजस्कायिक असंयम, (४) वायुकायिक 5 असंयम, (५) वनस्पतिकायिक असंयम, (६) त्रसकायिक असंयम, (७) अजीवकायिक-असंयम।
82. Samyam (discipline) is of seven kinds---(1) Prithvikayik samyam (discipline related to earth-bodied beings), (2) Apkayik samyam i (discipline related to water-bodied beings), (3) Tejaskayik samyam i (discipline related to fire-bodied beings), (4) Vayukayik samyam ! (discipline related to air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik samyam
(discipline related to plant-bodied beings), (6) Tras-kayik samyam E (discipline related to mobile-bodied beings) and (7) Ajivakayik samyam i (discipline related to non-being or abstaining from taking and using
material things). 83. Asamyam (indiscipline) is of seven kinds(1) Prithvikayik asamyam (indiscipline related to earth-bodied beings), (2) Apkayik asamyam (indiscipline related to water-bodied beings),
(3) Tejaskayik asamyam (indiscipline related to fire-bodied beings), i (4) Vayukayik asamyam (indiscipline related to air-bodied beings), i (5) Vanaspatikayik asamyam (indiscipline related to plant-bodi
beings), (6) Tras-kayik asamyam (indiscipline related to mobile-bodied beings) and (7) Ajivakayik asamyam (indiscipline related to non-being or not abstaining from taking and using material things). आरम्भ-पद ARAMBH-PAD (SEGMENT OF SINFUL ACTIVITY)
८४. सत्तविहे आरंभे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयआरंभे, [ आउकाइयआरंभे, तेउकाइयआरंभे, वाउकाइयआरंभे, वणस्सइकाइयआरंभे, तसकाइयआरंभे ], अजीवकाइयआरंभे।
८५. सत्तविहे अणारंभे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयअणारंभे। ८६. सत्तविहे सारंभे पण्णत्ते, । तं जहा-पुढविकाइयसारंभे। ८७. सत्तविहे असारंभे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयअसारंभे।
८८. सत्तविहे समारंभे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयसमारंभे। ८९. सत्तविहे असमारंभे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयअसमारंभे।
८४. आरम्भ सात प्रकार का है-(१) पृथ्वीकायिक आरम्भ, (२) अप्कायिक आरम्भ, (३) तेजस्कायिक आरम्भ, (४) वायुकायिक आरम्भ, (५) वनस्पतिकायिक आरम्भ, (६) त्रसकायिक
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ॐ आरम्भ, (७) अजीवकायिक आरम्भ। ८५. इसी प्रकार अनारम्भ सात प्रकार का है, जैसे
पृथिवीकायिक अनारम्भ आदि। ८६. संरम्भ सात प्रकार का है, जैसे-(१) पृथ्वीकायिक संरम्भ आदि। ॐ ८७. असंरम्भ सात प्रकार का है-(१) पृथ्वीकायिक असंरम्भ आदि। ८८. समारम्भ सात प्रकार का 卐 है-(१) पृथ्वीकायिक समारम्भ आदि। ८९. असमारम्भ सात प्रकार का है-(१) पृथ्वीकायिक 5 असमारम्भ आदि।
84. Arambh (sinful activity) is of seven kinds—(1) Prithvikayik arambh 41 (sinful activity related to earth-bodied beings), (2) Apkayik arambh (sinful activity related to water-bodied beings), (3) Tejaskayik arambh (sinful activity related to fire-bodied beings), (4) Vayukayik arambh (sinful activity related to air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik arambh (sinful activity related to plant-bodied beings), (6) Tras-kcyik arambh (sinful activity related to mobile-bodied beings) and (7) Ajivakayik arambh (sinful activity related to non-being). 85. In the same way anarambh (not indulging in sinful activity) is of seven kinds including Prithvikayik anarambh. 86. Samrambh (resolve to indulge in sinful activity) is of seven kinds including Prithvikayik samrambh. 87. Asamrambh (not to resolve to
indulge in sinful activity) is of seven kinds including Prithvikayik 45 asamrambh. 88. Samaarambh (to arrange for means of indulging in sinful
activity) is of seven kinds including Prithvikayik samaarambh. 89. Asamaarambh (not to arrange for means of indulging in sinful si activity) is of seven kinds including Prithvikayik asamaarambh.
विवेचन-समवायांग के सत्तरहवें समवाय में संयम-असंयम के सत्रह भेद बताये हैं। उन्हीं के यहाँ ॥ सात-सात प्रकार बताये हैं। मुख्यतः संयम दो ही प्रकार का है। (१) जीवकाय संयम, (२) अजीवकाय संयम। छह काय के जीवों की हिंसा न करना व रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना जीवकाय संयम है। वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों के व्यवहार में यतना व उपयोग रखना अजीवकाय संयम है। संयम का है विपरीत असंयम है। आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ इनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार है
आरंभ उद्दवओ, परितापकरो भवं समारंभा।
संकप्पो संरंभो, सुद्ध नयाणं तु सचेसिं॥ ___ संरम्भ-प्रवृत्ति का संकल्प समारंभ-प्रवृत्ति के लिए साधन सामग्री जुटाना। आरम्भ-प्रवृत्ति का प्रारम्भ करना। (तत्त्वार्थवार्तिक पृष्ठ ५१३) अथवा आरम्भ-जीव हिंसा करना। संरम्भ-जीव हिंसा का मन में संकल्प करना। समारम्भ-जीवों को परिताप व दुःख पहुँचाना। इनका विरोधी तत्त्व है, अनारम्भ, म असंरम्भ और असमारम्भ।
Elaboration-In the seventeenth chapter of Samvayanga Sutra \i seventeen kinds of samyam-asamyam have been mentioned. They have
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been summed up here as seven kinds. Basically samyam is of two kinds 6 only-(1) jivakaya samyam and (2) ajivakaya samyam. Not to harm six 5 kinds of bodied beings and to endeavour to protect them is jivakaya fi samyam. To be careful in use of garb, bowls and other ascetic equipment
is ajivakaya samyam. Opposite of samyam (discipline) is asamyam (indiscipline). The meanings of other terms are as follows
Samrambh-to resolve to indulge in some activity. Samaarambh-to arrange for means of indulging in such activity. Arambh-to commence such activity. (Tattvarthavartik, p. 513) Here the meanings are-arambh means to harm or kill beings; samrambh means to resolve to harm or kill beings; and samaarambh means to cause torment or pain to beings.
Opposite of these are angrambh, asamrambh and asamaarambh. 4 योनिस्थिति-पद YONISTHITI-PAD (SEGMENT OF PRODUCTIVE LIFE)
९०. [प्र.] अह भंते ! अदसि-कुसुम्भ-कोद्दव-कंगु-रालग-वरट्ट-कोदूसग-सण# सरिसव-मूलग-बीयाणं-एतेसि णं धण्णाणं कोढाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं [मंचाउत्ताणं मासाउत्ताणं म ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुद्दियाणं ] पिहियाणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठति ? म [उ. ] गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्त संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायति
[ तेण परं जोणी पविद्धंसति, तेण परं जोणी विद्धंसति, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं] म जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते। ॐ ९०. प्रश्न-भगवन् ! अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव, कंगु, राल, वरट (गोल चना), कोदूषक (कोद्रव), + सन, सरसों, मूलक, बीज, ये धान्य जो कोष्ठागारगुप्त, (सुरक्षित) पल्यगुप्त, मंचगुप्त, अवलिप्त, लिप्त,
लांछित, मुद्रित, पिहित रखे गये हों, उनकी योनि (उत्पादक शक्ति) कितने काल तक रहती है ? म उत्तर-गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात वर्ष तक उनकी योनि रहती है। उसके पश्चात् । योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वस्त हो जाती है, विध्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है और ॐ योनि का व्युच्छेद हो जाता है। $ 90. (Question) Bhante ! How long the yoni (productive capacity) of
Alasi (linseed), Kusumbh, Kodrava, Kangu, Raal, Varat (round gram),
Kodushak (Kodrav), San (flax), Sarason (mustard), Moolak, and other ' seeds (beej) lasts once they are stored in kotha (silo), palya (basket made 卐 of bamboo or cane), machan (store on a raised wooden platform) and
mala (store on roof top), and after that covered, sealed, marked, stamped and properly closed ?
(Answer) "Long lived one ! Their productive capacity lasts for a minimum period of antarmuhurt (less than 48 minutes) and a maximum
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period of seven years. After that the yoni (productive capacity) gets weak, shattered, destroyed, seedless, and sterile. In other words the seeds no longer germinate on sowing.
स्थिति-पद STHITI-PAD (SEGMENT OF LIFE SPAN) जी ९१. बायरआउकाइयाणं उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। ९२. तच्चाए णं. ॐ वालुयप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयाणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। ९३. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता।
९१. बादर अप्कायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्ष की है। ९२. तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वी के नारक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है। ९३. चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के नारक जीवों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम की ही।
91. The utkrisht sthiti (maximum life span) of apkayik jivas (waterbodied beings) is seven thousand years. 92. The utkrisht sthiti (maximum life span) of infernal beings of Balukaprabha prithvi (third hell) is seven Sagaropam (a conceptual unit of time). 93. The jaghanya sthiti
(minimum life span) of infernal beings of Pankaprabha prithvi (fourth 卐 hell) is seven Sagaropam (a conceptual unit of time). ॐ अग्रमहिषी-पद AGRAMAHISHIS-PAD (SEGMENT OF CHIEF QUEENS) के ९४. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। + ९५. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। ९६. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ।
९४. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वरुण की सात अग्रमहिषियाँ हैं। ९५. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज सोम की सात अग्रमहिषियाँ हैं। ९६. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज यम की सात अग्रमहिषियाँ हैं।
94. Varun, the lok-paal of Shakra Devendra, the king of gods has seven agramahishis (chief queens). 95. Soma, the lok-paal of Shakra Devendra, the king of gods has seven agramahishis (chief queens). 96. Yama, the lok-paal of Shakra Devendra, the king of gods has seven agramahishis (chief queens). देव-पद DEVA-PAD (SEGMENT OF GODS)
९७. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अभिंतरपरिसाए देवाणं सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। ९८. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अग्गमहिसीणं देवीणं सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। ९९. सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता।
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९७. देवेन्द्र देवराज ईशान के आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति सात पल्योपम है । ९८. देवेन्द्र फ 5 देवराज शक्र की अग्रमहिषी देवियों की स्थिति सात पल्योपम है । ९९. सौधर्म कल्प में परिगृहीता
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देवियों की उत्कृष्ट स्थिति सात पल्योपम है ।
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१००. सारस्सयमाइच्चाणं [ देवाणं ? ] सत्त देवा सत्तदेवसता पण्णत्ता ।
१०१. गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पण्णत्ता ।
१००. सारस्वत और आदित्य लोकान्तिक देव स्वामीरूप में सात हैं और उनके सात सौ देवों का
परिवार है। १०१. गर्दतोय और तुषित लोकान्तिक देव स्वामीरूप में सात हैं और उनके सात हजार देवों का परिवार है।
97. The sthiti (life span) of the gods of the inner assembly of Ishan 5 Devendra, the king of gods, is seven Palyopam. 98. The sthiti (life span) of the agramahishis (chief queens) of Shakra Devendra, the king of gods, is seven Palyopam. 99. The utkrisht sthiti ( maximum life span) of the parigrihit devis (married goddesses) of Saudharma kalp is seven
Palyopam.
100. There are seven gods of the status of overlords among Sarasvat and Aditya Lokantik gods and they have a family of seven hundred gods. 101. There are seven gods of the status of overlords among Gardatoya and Tushit Lokantik gods and they have a family of seven thousand gods.
१०२. सणकुमारे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं सत्त सागरोवमाई टिती पण्णत्ता । १०३. माहिंदे 5 कप्पे उक्कोसेणं देवाणं सातिरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । १०४. बंभलोगे कप्पे जहण्णेणं देवाणं सत्त सागरोवमाई टिती पण्णत्ता । १०५. बंभलोय - लंतएसु णं कप्पेसु विमाणा सत्त जोयणसताई उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ।
की
१०२. सनत्कुमार कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम है । १०३. माहेन्द्र कल्प में देवों उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम है । १०४. ब्रह्मलोक कल्प में देवों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम है । १०५. ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प में विमानों की ऊँचाई सात सौ योजन है।
kalp
102. The utkrisht sthiti ( maximum life span) of gods of Sanatkumar is seven Sagaropam. 103. The utkrisht sthiti ( maximum life span) of gods of Mahendra kalp is a little more than seven Sagaropam. 5 104. The jaghanya sthiti (minimum life span) of gods of Brahmalok kalp is seven Sagaropam. 105. In Brahmalok and Lantak kalp the height of vimaans (celestial vehicles) is seven hundred Yojans.
१०६. भवणवासीणं देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं सत्त रयणीओ उडुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । १०७. वाणमंतराणं देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं सत्त रयणीओ उड
सप्तम स्थान
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5555555555555555555555555 ॐ उच्चत्तेणं पण्णत्ता। १०८. जोइसियाणं देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं सत्त रयणीओ म उडे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। १०९. सोहम्मीसाणासे णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं ॐ सत्त रयणीओ उ8 उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
१०६. भवनवासी देवों के भवधारणीय (स्वाभाविक शरीर) शरीरों की उत्कृष्ट ऊँचाई सात हाथ ॐ की है। १०७. वाण-व्यन्तर देवों के भवधारणीय शरीरों की उत्कृष्ट ऊँचाई सात हाथ की है।
१०८. ज्योतिष्क देवों के भवधारणीय शरीरों की उत्कृष्ट ऊँचाई सात हाथ की है। १०९. सौधर्म और ॐ ईशानकल्प के देवों के भवधारणीय शरीरों की उत्कृष्ट ऊँचाई सात हाथ की है।
106. The utkrisht (maximum) height of the bhavadharaniya sharira (incarnation sustaining body) of Bhavan-vasi devas (abode dwelling gods) is seven cubits. 107. The utkrisht (maximum) height of the bhavadharaniya sharira (incarnation sustaining body) of Vanavyantar
devas (interstitial gods) is seven cubits. 108. The utkrisht (maximum) * height of the bhavadharaniya sharira (incarnation sustaining body) of
Jyotishk devas (stellar gods) is seven cubits. 109. The utkrisht
(maximum) height of the bhavadharaniya sharira (incarnation si sustaining body) of Saudharma and Ishan kalp is seven cubits. ॐ नन्दीश्वर द्वीप-पद NANDISHVAR DVEEP-PAD (SEGMENT OF NANDISHVAR DVEEP)
११०. णंदीस्सरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त दीवा पण्णत्ता, तं जहा-जंबुद्दीवे, धायइसडे, ॐ पोक्खरवरे, वरुणवरे, खीरवरे, घयवरे, खोयवरे। १११. णंदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त
समुद्दा पण्णत्ता, तं जहा-लवणे, कालोदे, पुक्खरोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घओदे, खोओदे। म ११०. नन्दीश्वर द्वीप के अन्तराल (मध्य) में सात द्वीप हैं-(१) जम्बूद्वीप, (२) धातकीषण्ड, ॐ (३) पुष्करवर, (४) वरुणवर, (५) क्षीरवर, (६) घृतवर और (७) क्षोदवर द्वीप। [जम्बूद्वीप से 卐 आठवां द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। यह अन्य द्वीपों की अपेक्षा विशेष रमणीय है]। १११. नन्दीश्वर द्वीप है के अन्तराल में सात समुद्र हैं-(१) लवणसमुद्र, (२) कालोद, (३) पुष्करोद, (४) वरुणोद, (५) क्षीरोद, ॐ (६) घृतोद और क्षोदोदसमुद्र। + 110. There are seven dveeps (continents) in the antaral (gap or
middle) of Nandishvar dveep--(1) Jambu dveep, (2) Dhatakikhand, (3) Pushkaravar, (4) Varunavar, (5) Ksheeravar, (6) Ghritavar and (7) Kshaudavar. [Nandishvar dveep is the eighth from Jambu dveep. It is more attractive than other continents ] 111. There are seven samudras (seas) in the antaral (gap or middle) of Nandishvar dveep—(1) Lavan samudra, (2) Kalod, (3) Pushkarod, (4) Varunod, (5) Ksheerod, (6) Ghritod and (7) Kshaudod.
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श्रेणि-पद
SHRENI-PAD (SEGMENT OF ROWS)
११२. सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - उज्जुआयता, एगतोवंका, दुहतोवंका, एगतोखहा,
दुहतोखहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला ।
११२. श्रेणियाँ (आकाश की प्रदेश- पंक्तियाँ) सात है - ( १ ) ऋजु - आयता - सीधी और लम्बी श्रेणी । (२) एकतो वक्रा - एक दिशा में वक्र श्रेणी । (३) द्वितो वक्रा - दो दिशाओं में वक्र श्रेणी । ( ४ ) एकतः खहाएक दिशा में अंकुश के समान मुड़ी हुई श्रेणी । (५) द्वितः खहा- दोनों दिशाओं में अंकुश के समान हुई श्रेणी । (६) चक्रवाला - चाक के समान वलयाकर श्रेणी । (७) अर्धचक्रवाला - आधे चाक के समान अर्धवलयाकर श्रेणी |
112. There are seven shrenis ( rows of space-points ) - ( 1 ) Riju-aayata long and straight row. (2) Ekato-vakraa-a row turned in one direction. (3) Dvito-vakraa-a row turned in two directions. (4) Ekatah-khahaa row curved like a hook in one direction. (5) Dvitah-khaha-a row curved like a hook in two direction. (6) Chakravala-a circular row. (7) Ardhachakravala-a semi-circular row.
विवेचन - जिनमें जीव और पुद्गल की अपने स्वाभाविक रूप में गति होती है, उन आकाश प्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं । जीव और पुद्गल श्रेणी के अनुसार ही गमन करते हैं।
(१) ऋजु - आयता श्रेणी - जब जीव और पुद्गल ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में या अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में सीधी श्रेणी में गमन करते हैं, कोई मोड़ या घुमाव नहीं लेते हैं, तब उसे ऋजु - आयता श्रेणी कहते हैं। इसका आकार [[ ] ऐसी सीधी रेखा के समान है। इस गति में केवल एक समय लगता है।
सप्तम स्थान
(२) एकतोवक्रा श्रेणी - यद्यपि आकाश की प्रदेश - श्रेणियाँ ऋजु (सीधी) ही होती हैं तथापि जीव या पुद्गल के घुमावदार गति के कारण उसको वक्र कहा जाता है। जब जीव और पुद्गल ऋजुगति से गमन करते हुए दूसरी श्रेणी में पहुँचते हैं, तब उन्हें एक घुमाव लेना पड़ता है, इसलिए उसे एकतोवक्रा श्रेणी कहा जाता है। जैसे कोई जीव या पुद्गल ऊर्ध्वदिशा से अधोदिशा की पश्चिम श्रेणी पर जाना चाहता है, फ्र तो पहले समय में वह ऊपर से नीचे की ओर समश्रेणी से गमन करेगा। पुनः दूसरे समय में वहाँ से पश्चिम दिशा वाली श्रेणी पर गमन कर अभीष्ट स्थान पर पहुँचेगा। इस गति में दो समय और एक फ्र घुमाव लगने से उसका आकार [] इस प्रकार का होगा।
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(३) द्वितोवक्रा श्रेणी - जिस गति में जीव या पुद्गल को दोनों ओर मोड़ लेना पड़े उसे द्वितोवक्रा फ श्रेणी कहते हैं । जैसे कोई जीव या पुद्गल आकाश-प्रदेशों की ऊपरीसतह के ईशानकोण से चलकर नीचे जाकर नैर्ऋतकोण में जाकर उत्पन्न होता है, तो उसे पहले समय में ईशानकोण से चलकर पूर्वदिशा वाली श्रेणी पर जाना होगा । पुनः वहाँ से सीधी श्रेणी द्वारा नीचे की ओर जाना होगा। पुनः समरेखा पर 5 पहुँच कर नैर्ऋतकोण की ओर जाना होगा। इस प्रकार इस गति में दो मोड़ और तीन समय लगेंगे।
इसका आकार [1] ऐसा होगा।
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( ४ ) एकत: खहा श्रेणी - जब कोई स्थावर जीव त्रसनाड़ी के वाम पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके
वाम या दक्षिणी किसी पार्श्व में दो या तीन मोड़ लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है, तब उसके नाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर स्पृष्ट होता है, इसलिए उसे 'एकतःखहा' श्रेणी कहा जाता है।
इसका आकार [C] ऐसा होता है।
(५) द्वितः खहा श्रेणी -जब कोई जीव मध्यलोक के पश्चिम लोकान्तवर्ती प्रदेश से चलकर मध्यलोक के पूर्वदिशावर्ती लोकान्तप्रदेश पर जाकर उत्पन्न होता है, तब उसके दोनों ही स्थलों पर लोकान्त का स्पर्श होने से द्वितःखहा श्रेणी कहा जाता है। इसका आकार 2] ऐसा होगा।
(६) चक्रवाला श्रेणी–चक्र के समान गोलाकार गति को चक्रवाला श्रेणी कहते हैं। जैसे- [0]
(७) अर्धचक्रवाला श्रेणी-आधे चक्र के समान आकार वाली श्रेणी को अर्धचक्रवाला कहते हैं।
जैसे-[[C] इन दोनों श्रेणियों से केवल पुद्गल की ही गति होती है, जीव की नहीं। (विस्तृत वर्णन देखें
भगवती सूत्र शतक २५ ) Elaboration-The rows of space-points in which soul and matter move naturally are called shrenis. Soul and matter move in rows only.
(1) Riju-aayata shreni-When soul or matter moves in a straight line in the same plane without any turn or curve, from upper world to lower world or vice versa, it is called Riju-aayata shreni (long and straight row). Only one dimension_is_involved here and it appears like a perpendicular straight line [^]]. The duration of this movement is one
Samaya
(2) Ekato-vakraa shreni-Although the rows of space-points are straight, due to the curved movement of soul and matter they are termed as bent or curved. When soul and matter moving in straight line shift from one row to another in the same plane they have to take one turn. Therefore this movement is called Ekato-vakraa shreni (a row with one
卐
5
bend). For example, when a soul or a matter particle has to shift from a 5 higher level to a western row at lower level it will move downward in a straight line during the first Samaya. Then during the second Samaya it will move westward, again in a straight line and reach the destined point. This movement takes two Samayas and one turn. Two dimensions
Hare involved here and it appears like [[ ]
(3) Dvito-vakraa shreni-When soul or matter has to take two turns to reach the destined spot it is called Dvito-vakraa shreni (a row with two bends).
For example, when a soul or matter particle has to shift from
स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
(330)
தததததததி*தமிழதழபூதமிழததததமி***தமிதிதிததமிழமிழததததததி
फफफफफफफफफफ
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455 456 4545454545454 455 456 455 456 457 456
555555555555555555555555555555555555g 4 higher level to a point diagonally opposite at lower level in a different 4 4 plane, it will move in one direction at the same level during the first si
Samaya. During the second Samaya it will take a turn and move ? downward in a straight line to the level of the destined spot. During the third Samaya it will again take a turn and move towards the destined spot now at the same level. This movement takes three Samayas and two turns. Three dimensions are involved here and it appears like
(4) Ekatah-khaha shreni-When the soul of an immobile being enters the Tras-nadi (the central spine of the Lok or occupied space where living beings exist) from left and after taking two or three turns to reach
the destined spot on its right or left side, it touches the outer space on i one side only. Therefore this is called Ekatah-khaha shreni. I or shaped.
(5) Dvito-vakraa shreni-When a soul leaves an area at the western edge of the lok in the middle world and moves to a spot at the eastern edge of the lok in the middle world it touches the outer space on both
sides. Therefore this is called Dvitah-khaha shreni. It is double-hook. Hi or shaped. 4 (6) Chakravala shreni-A circular movement is called Chakravala 4 shreni. Like O .
(7) Ardhachakravala shreni-A semi-circular movement is called Ardhachakravala shreni. Like . The last two types are associated with matter only, and not soul. (for more details refer to Bhagavati Sutra, Shatak 25)
57 454 455 456 455 456 455 456 457 454 455 456 455 456 457 455 456 457 451 454 455 456 457 454 455 456 457 454 455 456 45
44 45 46 455 456 457 456 457 4554 455 456 457
3-fan-37-ftehera-47 ANIKA-ANIKADHIPATI-PAD
(SEGMENT OF ARMY AND COMMANDER) . ११३. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सत्त अणिया, सत्त अणियाधिपती ॐ पण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए, पीढाणिए, कुंजराणिए, महिसाणिए, रहाणिए, णट्टाणिए, गंधव्याणिए।
[दुमे पायत्ताणियाधिवती, सोदामे आसराया पीढाणिाधिवती, कुंथू हत्थिराया # कुंजराणियाधिवती, लोहितक्खे महिसाणियाधिवती ], किण्णरे रधाणियाधिवती, रिटे + णट्टाणियाधिवती, गीतरती गंधव्याणियाधिवती।
4545455 456 457 451 455 456 454 455 456 4
सप्तम स्थान
(331)
Seventh Sthaan
1991 414 455 456
457 458 45 455 456 457 451 455 456 457 455 456 457 455 456 457 454
455 456
457 455 456 457 455 456
457
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फफफफफफफफ
११३. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की सात सेनाएँ और सात सेनाधिपति हैं - सेनाएँ -
(१) पदातिसेना, (२) अश्वसेना, (३) हस्तिसेना, (४) महिषसेना, (५) रथसेना, (६) नर्तकसेना,
(७) गन्धर्व - ( गायक - ) सेना |
सेनापति - ( १ ) द्रुम - पदातिसेना का अधिपति । ( २ ) अश्वराज सुदामा अश्वसेना का अधिपति । ( ३ ) हस्तिराज कुन्थु - हस्तिसेना का अधिपति । ( ४ ) लोहिताक्ष - महिषसेना का अधिपति । (५) किन्नरका अधिपति । (६) रिष्ट-नर्तकसेना का अधिपति । (७) गीतरति - गन्धर्वसेना का अधिपति ।
रथसेना
113. Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods has seven 5 anikas ( armies) and seven anikadhipati (commanders)-Armies Padatanika-foot soldiers, (2) Pithanika-horse riders, (3) Kunjaranika-elephant riders, (4) Mahishanika--buffalo riders, Rathanika—charioteers, (6) Nartakanika-dancers
(1)
(5)
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(7) Gandharvanika-singers.
११४. बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सत्ताणिया, सत्त अणियाधिपती पण्णत्ता, तं जहा - पायत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए । महदूदुमे पायत्ताणियाधिपती जाव किंपुरिसे रधाणियाधिपती, महारि णट्टाणियाधिपती, गीतजसे गंधव्वाणियाधिपती ।
and
११४. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बली की सात सेनाएँ और सात सेनापति हैं, जैसे- सेनाएँ - (१) पदातिसेना यावत्, ७) गन्धर्वसेना । सेनापति - ( १ ) महाद्रुम - पदातिसेना का अधिपति । यावत् । (५) किम्पुरुष - रथसेना का अधिपति । (६) महारिष्ट - नर्तकसेना का अधिपति । (७) गीतयश - गन्धर्वसेना का अधिपति ।
The commanders of these armies are as follows-(1) Drumcommander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Sudama-commander of horse riders, (3) Hastiraj Kunthu-commander of elephant riders, फ्र
5
(4) Lohitaksh-commander of buffalo riders, (5) Kinnar - commander of फ्र 5 charioteers, ( 6 ) Rishta commander of dancers and ( 7 ) Gitarati— commander of singers.
5
(332)
114. Chamar Asurendra, Vairochanendra Bali, the king of Virochana gods has seven anikas (armies) and seven anikadhipati (commanders)Armies-(1) Padatanika-foot soldiers, ...and SO on up to...
15 (7) Gandharvanika-singers. The commanders of these armies are as 5 follows – (1) Mahadrum-commander of foot soldiers, (2) Ashvaraj 5 Mahasudama-commander of horse riders, (3) Hastiraj Malankarcommander of elephant riders, (4) Mahalohitaksh-commander of buffalo riders, ( 5 ) Kimpurush commander of charioteers, (6) Maharishta— commander of dancers and (7) Gitayash-commander of singers.
स्थानांगसूत्र (२)
ब
Sthaananga Sutra (2)
19595959595959595959595959595959595959595959595959595959595959555@
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११५. धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणिया, सत्त अणियाधिपती ऊ पण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए जाव गंधवाणिए। भद्दसेणे पायत्ताणियाधिपती जाव आणंदे
रधाणियाधिपती, णंदणे णट्टाणियाधिपती, तेतली गंधव्वाणियाधिपती। म ११५. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की सात सेनाएँ और सात सेनापति हैं, जैसे सेनाएँ
(१) पदातिसेना यावत्। (७) गन्धर्वसेना। सेनापति-(१) भद्रसेन-पदातिसेना का अधिपति यावत्। म (५) आनन्द-रथसेना का अधिपति। (६) नन्दन-नर्तकसेना का अधिपति। (७) तेतली-गन्धर्वसेना का अधिपति।
115. Dharan Naagkumarendra, the king of Naag Kumar gods has seven anikas (armies) and seven anikadhipati (commanders)-Armies(1) Padatanika-foot soldiers, ...and so on up to... (7) Gandharvanikasingers. The commanders of these armies are as follows-(1) Bhadrasencommander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Yashodhar-commander of horse riders, (3) Hastiraj Sudarshan-commander of elephant riders, (4) Nilakanth-commander of buffalo riders, (5) Anand-commander of charioteers, (6) Nandan-commander of dancers and (7) Tetali commander of singers.
११६. भूताणंदस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणिया, सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा-पायत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए। दक्खे पायत्ताणियाहिवती जाव णंदुत्तरे रहाणियाहिबई, रत्ती णट्टाणियाहिवई, माणसे गंधव्वाणियाहिवई।
११६. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की सात सेनाएँ और सात सेनापति हैं-सेनाएँ(१) पदातिसेना यावत् (७) गन्धर्वसेना। सेनापति-(१) दक्ष-पदातिसेना का अधिपति यावत्। ॐ (५) नन्दोत्तर-रथसेना का अधिपति। (६) रति-नर्तकसेना का अधिपति। (७) मानस-गन्धर्वसेना का अधिपति।
116. Bhootanand Naagkumarendra, the king of Naag Kumar gods has seven anikas (armies) and seven anikadhipati (commanders)-Armies(1) Padatanika--foot soldiers, ...and so on up to... (7) Gandharvanikasingers. The commanders of these armies are as follows—(1) Dakshcommander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Sugriva-commander of horse riders, (3) Hastiraj Suvikram-commander of elephant riders, 5 (4) Shvetakanth-commander of buffalo riders, (5) Nandottarcommander of charioteers, (6) Rati-commander of dancers and (7) Maanas-commander of singers.
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सप्तम स्थान
(333)
Seventh Sthaan
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११७. (जधा धरणस्स तथा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स । ११८. जधा भूताणंदस्स
5 तथा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स) ।
117. As Dharan has seven armies and seven commanders in the same way all Dakshinadhipatis (the overlords of abode dwelling gods of the south) namely Venudev ...and so on up to... Ghosh also have seven armies and seven commanders. 118. As Bhootanand has seven armies and seven commanders in the same way all Uttarendras (the overlords of north) namely Venudali ...and so on up to... Mahaghosh also have seven armies and seven commanders.
फ्र
११७. जिस प्रकार धरण की सेना और सेनापति हैं, उसी प्रकार दक्षिण दिशा के भवनवासी देवों
के इन्द्र वेणुदेव यावत् । घोष की भी सात-सात सेनाएँ और सात-सात सेनापति हैं । ११८. जिस प्रकार 5 भूतानन्द की सेना और सेनापति हैं, उसी प्रकार उत्तर दिशा के भवनवासी देवों के इन्द्र, वेणुदालि यावत् महाघोष की भी सात-सात सेनाएँ और सात-सात सेनापति हैं।
जहा
११९. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सत्त अणिया, सत्त अणियाहिवती पण्णत्ता, तं पायत्ताणिए जाव रहाणिए, णट्टाणिए, गंधव्वाणिए । हरिणेगमेसी पायत्ताणियाधिपती जाव माढरे धाणियाधिपती, सेते णट्टाणियाहिवती, तुंबुरु गंधव्वाणियाधिपती
११९. देवेन्द्र देवराज शक्र की सात सेनाएँ और सात सेनापति हैं-सेनाएँ - ( १ ) पदातिसेना यावत् । (५) रथसेना, (६) नर्तकसेना, (७) गन्धर्वसेना । सेनापति - (१) हरिनैगमेषी - पदातिसेना का अधिपति यावत् । (५) माढर - रथसेना का अधिपति । (६) श्वेत - नर्तकसेना का अधिपति । (७) तुम्बुरु - गन्धर्वसेना का अधिपति ।
119. Shakra Devendra, the king of gods has seven anikas ( armies) and seven anikadhipati (commanders)-Armies-(1) Padatanika-foot soldiers, ...and SO on up to... ( 7 ) Gandharvanika-singers. The commanders of these armies are as follows—(1) Harinaigameshi - 5 commander of foot soldiers, (2) Ashvaraj Vayu-commander of horse riders, (3) Hastiraj Airavan-commander of elephant riders, (4) Daamardhi-commander of bull riders, (5) Mathar-commander of charioteers, (6) Shvet-commander of dancers and ( 7 ) Tumburucommander of singers.
तं जहा
१२०. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सत्त अणिया, सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, पात्ताणि जाव गंधव्वाणिए । लहुपरक्कमे पायत्ताणियाहिवती जा महासेते णट्टाणियाहिवती, रते गंधव्वाणियाधिपती ।
स्थानांगसूत्र (२)
(334)
फफफफफफफफफफफफ
Sthaananga Sutra (2)
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म १२०. देवेन्द्र देवराज ईशान की सात सेनाएँ और सात सेनापति हैं-सेनाएँ-(१) पदातिसेना
यावत्। सेनापति-(१) लघुपराक्रम-पदातिसेना का अधिपति। यावत्। (६) महाश्वेत-नर्तकसेना का । अधिपति। (७) रत-गन्धर्वसेना का अधिपति।
120. Ishan Devendra, the king of gods has seven anikas (armies) and E seven anikadhipati (commanders)-Armies (1) Padatanika-foot
soldiers, ...and so on up to... (7) Gandharvanika-singers. The F commanders of these armies are as follows-(1) Laghuparakram
commander of foot soldiers, ...and so on up to... (6) Mahashvetcommander of dancers and (7) Rata-commander of singers.
१२१. (जधा सक्कस्स तहा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव आरणस्स। १२२. जधा ईसाणस्स तहा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव अच्चुतस्स)।
१२१. जिस प्रकार शक्र के सेना और सेनापति हैं, उसी प्रकार आरण आदि सभी दक्षिणेन्द्रों की सात-सात सेनाएँ और सात-सात सेनापति हैं। १२२. जिस प्रकार ईशान इन्द्र की सेना और सेनापति । हैं, उसी प्रकार अच्युत आदि सभी उत्तरेन्द्रों की भी सात-सात सेनाएँ और सात-सात सेनापति हैं। A (स्थान ५ सूत्र ५७ से ६७ में पाँच सेनाओं का वर्णन है) ।
__121. As Shakra Devendra, the king of gods has seven armies and seven commanders in the same way all overlords of south up to Aran kalp also have seven armies and seven commanders each. 122. As Ishan
Devendra, the king of gods has seven armies and seven commanders in f the same way all overlords of north up to Achyut kalp also have seven Fi armies and seven commanders each. (Sthaan 5, aphorisms 57 to 67 describe
five armies and commanders only) अनीकाधिपति कक्षा-पद ANIKADHIPATI-KAKSHAA-PAD (SEGMENT OF BRIGADES)
१२३. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो दुमस्स पायत्ताणियाधिपतिस्स सत्त कच्छाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पढमा कच्छा जाव सत्तमा कच्छा।
१२३. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के पदातिसेना के अधिपति द्रुम के सात कक्षाएँ (वर्ग) हैं। है जैसे पहली कक्षा, यावत् सातवीं कक्षा। fi 123. Drum, the commander of foot soldiers of Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods, has seven kakshaas (brigades)—first to seventh.
१२४. चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो दुमस्स पायत्ताणियाधिपतिस्स पढमाए कच्छाए चउसहि देवसहस्सा पण्णत्ता। जावतिया पढमा कच्छा तब्विगुणा दोच्चा कच्छा। जावतिया दोच्चा कच्छा तब्विगुणा तच्चा कच्छा। एवं जाव जावतिया छट्ठा कच्छा तब्विगुणा सत्तमा कच्छा।
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(335)
Seventh Sthaan |
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म १२४. असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की पदातिसेना के अधिपति द्रुम की पहली कक्षा में
६४,००० देव हैं। दूसरी कक्षा में उससे दुगुने १,२८,००० देव हैं। तीसरी कक्षा में उससे दुगुने 卐 २,५६,००० देव हैं। इसी प्रकार सातवीं कक्षा तक दुगुने-दुगुने देव हैं।
124. In the first kakshaa (brigade) of Drum, the commander of foot soldiers of Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods, there are 64,000 gods. In the second kakshaa the number of gods is double that of the first, i.e. 1,28,000. In the third kakshaa the number of gods is double that of the second, i.e. 2,56,000. In the same way the number continues to increase in geometric progression till the seventh kakshaa.
१२५. एवं बलिस्सवि, णवरं-महद्रुमे सट्ठिदेवसाहस्सिओ। सेसं तं चेव। १२६. धरणस्स * एवं चेव, णवरं-अट्ठावीसं देवसहस्सा। सेसं तं चेव। १२७. जधा धरणस्स एवं जाव महाघोसस्स, मणवरं-पायत्ताणियाधिपती अण्णे, ते पुव्वभणिता।
१२५. इसी प्रकार वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की पदातिसेना के अधिपति महाद्रुम की पहली के कक्षा में ६० हजार देव हैं। आगे की कक्षाओं में क्रमशः दुगुने-दुगुने देव हैं। १२६. इसी प्रकार ॐ नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की पदातिसेना के अधिपति भद्रसेन की पहली कक्षा में २८ हजार ॥ + देव हैं। आगे की कक्षाओं में क्रमशः दुगुने-दुगुने देवे हैं। १२७. धरण के समान ही भूतानन्द से - महाघोष तक के सभी इन्द्रों के पदाति सेनापतियों की कक्षाओं की देव-संख्या हैं। विशेष-उनके ॐ पदातिसेनापति दक्षिण और उत्तर दिशा के भेद से भिन्न-भिन्न हैं, जो कि पहले बताये जा चुके हैं।
125. In the same way in the first kakshaa (brigade) of Bali, the commander of foot soldiers of Chamar Asurendra, Vairochanendra Bali, the king of Virochana gods, there are 60,000 gods. The number progressively doubles in the following kakshaas. 126. In the same way in the first kakshaa (brigade) of Bhadrasen, the commander of foot soldiers of Dharan Naagkumarendra, the king of Naag Kumar gods, there are 28, 000 gods. The number progressively doubles in the following kakshaas. 127. In the same way in the kakshaas (brigades) of the commanders of foot soldiers of Bhootanand to Mahaghosh, all the kings of gods, the number of gods is same as those of Dharan. The number progressively doubles in the following kakshaas. They have different commanders for south and north directions as already stated.
१२८. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो हरिणेगमेसिस्स सत्त कच्छाओ पण्णत्ताओ, म तं जहा-पढमा कच्छा एवं जहा चमरस्स तहा जाव अच्चुतस्स। णाणत्तं पायत्ताणियाधिपतीणं।
ते पुवभणिता। देवपरिमाणं इमं-सक्कस्स चउरासीतिं देवसहस्सा, ईसाणस्स असीतिं देवसहस्साइंॐ
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स्थानांगसूत्र (२)
(336)
Sthaananga Sutra (2) |
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मजाव अच्चुतस्स लहुपरक्कमस्स दस देवसहस्सा जाव जावतिया छट्ठा कच्छा तब्विगुणा सत्तमा कच्छा। देवा इमाए गाथाए अणुगंतव्वा
चउरासीति असीति, बावत्तरी सत्तरी य सट्ठी य।
पण्णा चत्तालीसा, तीसा वीसा य दससहस्सा ॥१॥ १२८. देवेन्द्र, देवराज शक्र के पदातिसेना के अधिपति हरिनैगमेषी की सात कक्षाएँ हैं-पहली ॐ कक्षा यावत् सातवीं कक्षा। जैसे चमर की है, उसी प्रकार यावत् अच्युत कल्प तक के सभी देवेन्द्रों के + पदातिसेना के अधिपतियों की सात-सात कक्षाएँ जाननी चाहिए। ॐ उनके पदातिसेना के अधिपतियों के नामों की जो विभिन्नता है, वह पहले कही जा चुकी है। उनकी + पहली कक्षा के देवों का परिमाण इस प्रकार है-शक्र के पदातिसेना के अधिपति ८४ हजार देव हैं। 4 ईशान के पदातिसेना के अधिपति ८० हजार देव हैं। सनत्कुमार के पदातिसेना के अधिपति ७२ हजार
देव हैं। माहेन्द्र के पदातिसेना के अधिपति ७० हजार देव हैं। ब्रह्म के पदातिसेना के अधिपति ६० हजार ॐ देव हैं। लान्तक के पदातिसेना के अधिपति ५० हजार देव हैं। शुक्र के पदातिसेना के अधिपति ४० 1 हजार देव हैं। सहस्रार के पदातिसेना के अधिपति ३० हजार देव हैं। प्राणत के पदातिसेना के अधिपति ॐ २० हजार देव हैं। अच्युत के पदातिसेना के अधिपति १० हजार देव हैं।
पहली कक्षा के देवों का परिमाण इस गाथा के अनुसार है-चौरासी हजार, अस्सी हजार, बहत्तर ॐ हजार, सत्तर हजार, साठ हजार, पचास हजार, चालीस हजार, तीस हजार, बीस हजार और दस हजार।
___उक्त सर्व देवेन्द्रों की शेष कक्षाओं के देवों का प्रमाण पहली कक्षा के देवों के परिमाण से सातवीं ॐ कक्षा तक दुगुना-दुगुना है। + 128. Harinaigameshi, the commander of foot soldiers of Shakra
Devendra, the king of gods, has seven kakshaas (brigades)—first to seventh. Like Chamar, commanders of foot soldiers of all the kings of gods up to Achyut kalp have seven kakshaas each
The different names of commanders of foot soldiers have already been stated. The number of gods in their first kakshaas are-Under the commander of foot soldiers of Shakra there are 84,000 gods. Under the commander of foot soldiers of Ishan there are 80,000 gods. Under the commander of foot soldiers of Sanatkumar there are 72,000 gods. Under 4 the commander of foot soldiers of Maahendra there are 70,000 gods. Under the commander of foot soldiers of Brahma there are 60,000 gods. 1 Under the commander of foot soldiers of Lantak there are 50,000 gods. Under the commander of foot soldiers of Shukra there are 40,000 gods. Under the commander of foot soldiers of Sahasrar there are 30,000 gods. Under the commander of foot soldiers of Pranat there are 20,000 gods. si Under the commander of foot soldiers of Achyut there are 10,000 gods
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सप्तम स्थान
(337)
Seventh Sthaan
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According to this verse the number of gods in the first kakshaas are 4 eighty four thousand, eighty thousand, seventy two thousand, seventy 卐 thousand, sixty thousand, fifty thousand, forty thousand, thirty thousand, twenty thousand, and ten thousand
The number of gods in the remaining kakshaas of all kings of gods $i progressively doubles in the following kakshaas till the seventh kakshaa. वचन-विकल्प-पद VACHAN-VIKALP-PAD
(SEGMENT OF CATEGORIES OF SPEECH) १२९. सत्तविहे वयणाविकप्पे पण्णत्ते, तं जहा-आलावे, अणालावे, उल्लावे, अणुल्लावे, संलावे, पलावे, विप्पलावे।
१२९. वचन-विकल्प (बोलने के भेद) सात प्रकार के हैं-(१) आलाप-कम बोलना, प्रिय बोलना। (२) अनालाप-अयोग्य भाषा बोलना। (३) उल्लाप-ध्वनि-विकृत करके या व्यंग्यपूर्वक बोलना। 5 (४) अनुल्लाप-कुत्सित ध्वनि के साथ या दुष्ट वचन बोलना। (५) संलाप-परस्पर बातचीत करना। (६) प्रलाप-निरर्थक बकवाद करना। (७) विप्रलाप-विरुद्ध वचन बोलना।
129. Vachan-vikalp (categories of speech) are of seven kinds(1) Aalaap—to speak less and speak sweetly, (2) Anaalaap—to speak improper language, (3) Ullaap-to distort voice or use satirical language, (4) Anullaap-to utter harshly or use evil language, (5) Samlaapdialogue, (6) Pralaap-blather and (7) Vipralaap-to speak against or negative speech. विनय-पद VINAYA-PAD (SEGMENT OF MODESTY)
१३०. सत्तविहे विणए पण्णत्ते, तं जहा-णाणविणए, सणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वइविणए, कायविणए, लोगोवयारविणए।
१३०. विनय सात प्रकार का है-(१) ज्ञान-विनय-ज्ञान और ज्ञानवान् की विनय व ज्ञानियों का , बहुमान करना। (२) दर्शन-विनय-सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि का विनय करना। (३) चारित्र-विनयचारित्र और चारित्रवान् का विनय। (४) मनोविनय-मन की अशुभ प्रवृत्ति रोक कर, शुभ प्रवृत्ति में है लगाना। (५) वाग्-विनय-वचन की अशुभ प्रवृत्ति रोकना, शुभ प्रवृत्ति में लगाना। (६) काय-विनय-5 काय की अशुभ प्रवृत्ति रोक कर, शुभ प्रवृत्ति में लगाना। (७) लोकोपचार-विनय-लोक-व्यवहार के अनुकूल सबके साथ यथायोग्य विनय व्यवहार करना। ___130. Vinaya (modesty) is of seven kinds—(1) Jnana-vinaya-to show modesty and respect towards knowledge and those who have acquired knowledge, and also to honour scholarly sages. (2) Darshan-vinaya—to 15 show modesty and respect towards right perception/faith and those
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भाग-1
卐)
स्थानांगसूत्र (२)
(338)
Sthaananga Sutra (2)
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i
i endowed with it. (3) Chaaritra-vinaya-to show modesty and respect towards right conduct and those endowed with it. (4) Manah-vinaya-to 5 restrain evil and engage in good tendencies of mind. (5) Vaag-vinaya — to 5 restrain evil and engage in good tendencies of speech. (6) Kaya-vinaya— to restrain evil and engage in good tendencies of body. (7) Lokopacharvinaya-to be modest towards one and all following the social norms and customs.
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१३१. पसत्थमणविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - अपावए, असावज्जे, उ. किरिए, णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे । १३२. अपसत्थमणविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - पावए, सावज्जे, सकिरिए, सउवक्केसे, अण्हयकरे, छविकरे, भूताभिसंकणे ।
१३१. प्रशस्त मनोविनय सात प्रकार का है - ( १ ) अपापक – मनोविनय - पाप - रहित निर्मल मनोवृत्ति रखना तथा शुभचिन्तन करना । (२) असावद्या- मनोविनय - सावद्य तथा गर्हितकार्य करने का विचार न करना । (३) अक्रिय - मनोविनय - मन को कायिकी, अधिकरणिकी आदि क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं करना । ( ४ ) निरुपक्लेश-मनोविनय - मन को क्लेश, शोक आदि में प्रवृत्त न करना । (५) अनास्रवकर - मनोविनय - कर्मों का आस्रव कराने वाले हिंसादि पापों से मन को
विरत रखना ।
( ६ ) अक्षयकर- मनोविनय - प्राणियों की पीड़ा करने वाले कार्यों से मन को दूर रखना । (७) अभूताभिशंकन - मनोविनय - दूसरे जीवों को भय या शंका आदि उत्पन्न करने वाले कार्यों में मन को प्रवृत्त नहीं करना । १'३२. अप्रशस्त मनोविनय सात प्रकार का है - ( १ ) पापक - अप्रशस्त मनोविनय - पाप कार्यों को करने का चिन्तन करना । ( २ ) सावद्य अप्रशस्त मनोविनय - गर्हित, लोक-निन्दित कार्यों को करने का चिन्तन करना । ( ३ ) सक्रिय अप्रशस्त मनोविनय - कायिकी आदि पापक्रियाओं के करने का चिन्तन करना । (४) सोपक्लेश अप्रशस्त मनोविनय-क्लेश, शोक आदि में मन को लगाना । (५) आस्रवकर अप्रशस्त मनोविनय - कर्मों का आस्रव कराने वाले कार्यों में मन को लगाना । (६) क्षयिकर अप्रशस्त मनोविनय - प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने वाले कार्यों में मन को लगाना । ( ७ ) भूताभिशंकन अप्रशस्त मनोविनय - दूसरे जीवों को भय, शंका आदि उत्पन्न करने वाले कार्यों में मन को लगाना ।
131. Prashast manovinaya (noble mental modesty ) is of seven kinds— (1) Apaapak-manovinaya-to be in a pure mental state free of sin and have noble thoughts. (2) Asavadya-manovinaya-not to think of indulging in sinful and despicable activity. (3) Akriya-manovinaya-not to think of indulging in physical, acquisitive and other such physical activities. (4) Nirupaklesh-manovinaya — to avoid thoughts of pain, grief and other 5 sad states. (5) Anasravakar-manovinaya-to avoid thoughts of sins, like violence, that cause inflow of karmas. (6) Akshayakar-manovinaya-to avoid thoughts of causing pain to living beings. (7) Abhootabhishankanmanovinaya-to avoid thoughts of indulging in activities that terrify or confuse living beings. 132. Aprashast manovinaya (ignoble mental
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modesty) is of seven kinds—(1) Paapak aprashast manovinaya--to think 卐 of indulging in sinful activities. (2) Savadya aprashast manovinaya-toy
think of indulging in despicable and publicly censured activities. 3 (3) Sakriya aprashast manovinaya-to think of indulging in sinful
physical and other such activities. (4) Sopaklesh aprashast manovinaya- 4 to revel in thoughts of pain, grief and other sad states. (5) Aasravakar aprashast manovinaya-to revel in thoughts of sins, like violence, that cause inflow of karmas. (6) Kshayikar aprashast manovinaya-to revel in thoughts of causing pain to living beings. (7) Bhootabhishankan aprashast manovinaya-to revel in thoughts of indulging in activities that terrify or confuse living beings.
१३३. पसत्थवइविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा-अपावए, असावज्जे, [ अकिरिए, 卐 णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे ], अभूताभिसकंणे। १३४. अपसत्थवइविणए सत्तविधे
पण्णत्ते, तं जहा-पावए, (सावज्जे, सकिरिए, सउवक्केसे, अण्हयकरे, छविकरे), भूताभिसंकणे। 卐 १३३. प्रशस्तवाग् विनय सात प्रकार है, जैसे-(१) अपापक-वाग्-विनय-निष्पाप वचन बोलना।
(२) असावद्य-वाग्-विनय-निर्दोष वचन बोलना। (३) अक्रिय-वाग्-विनय-पापक्रियारहित वचन । + बोलना। (४) निरुपक्लेश-वाग्-विनय-क्लेशरहित वचन बोलना। (५) अनास्रवकर-वाग्-विनय-कर्मों + का आस्रव रोकने वाले वचन बोलना। (६) अक्षयिकर-वाग्-विनय-प्राणियों का विघातकारक वचन न
बोलना। (७) अभूताभिशंकन-वाग्-विनय-प्राणियों को भय शंकादि उत्पन्न करने वाले वचन न बोलना। ॥ १३४. अप्रशस्त वाग-विनय सात प्रकार का है-(१) पापक वाग्-विनय-पापयुक्त वचन बोलना।
(२) सावध वाग्-विनय। (३) सक्रिय वाग्-विनय। (४) सोपक्लेश वाग्-विनय। (५) आस्रवकर ॐ वाग्-विनय। (६) क्षयिकर वाग्-विनय। (७) भूताभिशंकन वाग्-विनय।
133. Prashast vaag-vinaya (noble vocal modesty) is of seven kinds (1) Apaapak-vaag-vinaya-to speak sinless words. (2) Asavadya-vaagvinaya-to speak faultless words. (3) Akriya-vaag-vinaya-to speak about sinless activity. (4) Nirupaklesh-vaag-vinaya-to speak non-hurting words. (5) Anasravakar-vaag-vinaya-to speak words that do not cause inflow of karmas. (6) Akshayakar-vaag-vinaya--to avoid speaking words that cause pain to living beings. (7) Abhootabhishankan-vaag-vinaya-to avoid speaking words that terrify or confuse living beings. 134. Aprashast vaag-vinaya (ignoble mental modesty) is of seven kinds—(1) Paapak vaagvinaya-to speak sinful words. (and so on) (2) Savadya vaag-vinaya. (3) Sakriya vaag-vinaya. (4) Sopaklesh vaag-vinaya. (5) Aasravakar vaagvinaya. (6) Kshayikar vaag-vinaya. (7) Bhootabhishankan vaag-vinaya. (these seven are opposite of preceding seven)
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१३५. पसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आउत्तं णिसीयणं, आउत्तं तुअट्टणं, आउत्तं उल्लंघणं, आउत्तं पल्लंघणं, आउत्तं सव्विंदियजोगजुंजणता । १३६. अपसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - अणाउत्तं गमणं, (अणाउत्तं ठाणं, अणाउत्तं णिसीयणं, अणाउत्तं णिसीयणं, अणाउत्तं तुअट्टणं, अणाउत्तं उल्लंघणं, अणाउत्तं पल्लंघणं), अणाउत्त सव्विंदिंयजोगजुंजणता ।
१३५. प्रशस्त काय विनय सात प्रकार का है - ( १ ) आयुक्त गमन - यतनापूर्वक चलना । (२) आयुक्त स्थान- यतनापूर्वक खड़े होना, कायोत्सर्ग करना । (३) आयुक्त निषीदन - यतनापूर्वक बैठना । (४) आयुक्त त्वग्-वर्त्तन - यतनापूर्वक करवट बदलना, सोना। ( ५ ) आयुक्त उल्लंघन - यतनापूर्वक देहली आदि को लांघना । ( ६ ) आयुक्त प्रल्लंघन - यतनापूर्वक नाली आदि को पार करना। (७) आयुक्त सर्वेन्द्रिय योगयोजना - यतनापूर्वक सब इन्द्रियों की प्रवृत्ति करना । १३६. अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का है( १ ) अनायुक्त गमन । ( २ ) अनायुक्त स्थान । (३) अनायुक्त निषीदन । (४) अनायुक्त त्वग्वर्तन । (५) अनायुक्त उल्लंघन। (६) अनायुक्त प्रल्लंघन । (७) अनायुक्त सर्वेन्द्रिय योगयोजना ।
१३७. लोगोवयारविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - अब्भासवत्तित्तं, परच्छंदाणुवत्तित्तं, कज्जहेउं, कतपडिकतिता, अत्तगवेसणता, देसकालण्णता, सव्वत्थेसु अपडिलोमता ।
135. Prashast kaaya-vinaya (noble physical modesty) is of seven kinds (1) Aayukt gaman-to move carefully. (2) Aayukt sthaan-to stand carefully, to perform kaayotsarg. (3) Aayukt nishidan-to sit carefully. (4) Aayukt tvag-vartan-to turn and sleep carefully. (5) Aayukt ullanghan-to step over raised obstacles carefully (like door step). (6) Aayukt prallanghan-to step over grooved obstacles carefully (like a drain). (7) Aayukt sarvendriya yogayojana-to employ all sense-organs carefully. 136. Aprashast kaaya-vinaya ( ignoble vocal modesty ) is of seven kinds—(1) Anaayukt gaman. (2) Anaayukt sthaan (3) Anaayukt 5 nishidan. (4) Anaayukt tvag-vartan. (5) Anaayukt ullanghan. (6) Anaayukt prallanghan. (7) Anaayukt sarvendriya yogayojana. (these are all careless movements)
१३७. लोकोपचार - ( लोकों के साथ व्यवहार की विधि) विनय सात प्रकार का है(१) अभ्यासवर्त्तित्व - श्रुतग्रहण करने के लिए गुरु के समीप बैठना, सद्गुण ग्रहण करने में प्रयत्नशील रहना । परछन्दानुवर्त्तित्व- आचार्यादि के अभिप्राय के अनुसार चलना । (३) कार्यहेतु - 'इसने मुझे ज्ञान दिया' इस कृतज्ञ भाव के साथ विनय करना । (४) कृतप्रतिकृतिता - प्रत्युपकार की भावना से विनय आदि सद्व्यवहार करना । (५) आर्तगवेषणता - रोग पीड़ित के लिए औषध आदि की सुव्यवस्था रखना। (६) देश - कालज्ञता - देश - काल के अनुसार अवसरोचित व्यवहार करना । (७) सर्वार्थ- अप्रतिलोमतासब कार्यों में अनुकूल आचरण करना । प्रतिकूल व अप्रिय आचरण न करना ।
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卐 137. Lokopachar-vinaya is of seven kinds (1) Abhyasavarttitva-toy $i sit with the guru for learning scriptures and pursue acquisition of 4
virtues. (2) Parachhandanuvarttitva-to follow the desire and command of acharya and other seniors. (3) Karyahetu-to be humble with a feeling of gratitude that he has taught me. (4) Kritpratikritita-to respond for favours with modesty and good behaviour. (5) Artagaveshanata-to keep proper arrangements of medicines and other needs of the ailing. (6) Desh-kaalajnata--to mould behaviour according to time and place. (7) Sarvarth apratilomata-to conduct oneself properly and pleasantly in all activity. To avoid unpleasant and improper demeanour.
विवेचन-जैनाचार्यों ने 'विनय' के दो अर्थ किये हैं-आत्मा से कर्म पुद्गलों को दूर हटाना, विनयन या विनाश करना। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान-दर्शन आदि विनय का अर्थ है, ज्ञान आदि की सम्यग् आराधना करते हुए कर्मों को दूर हटाना। दूसरी परिभाषा है-भक्ति बहुमान आदि करना। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान-दर्शन आदि विनय का अर्थ है-ज्ञान एवं ज्ञानियों की भक्ति बहुमान, सेवा व उसकी प्रभावना करना।
'प्रशस्त' का अर्थ है, मन, वचन आदि की उचित शुभ प्रवृत्ति व अशुभ से निवृत्ति। 'विनय' जीवन ॐ व्यवहार की कला है, यह साधु और गृहस्थ सभी के लिए उपयोगी है। औपपातिक सूत्र में तप अधिकार 9 में इनके विविध भेदों का वर्णन है। 5. Elaboration Jain acharyas have given two interpretations of the
term vinaya. One is to remove and destroys (vinayan or vinash) karma $ particles from the soul. According to this interpretation the meaning of * jnana, darshan and other types of vinaya is to shed karmas through
right and proper pursuit of knowledge and other such activities. The second interpretation is to worship, respect and honour with modesty. According to this interpretation the meaning of jnana, darshan and other types of vinaya is to worship, respect, honour and serve knowledge and those endowed with knowledge.
Prashast means gaining noble/pious bent of mind, speech and body and avoiding aprashast or ignoble/evil one. Vinaya is the art of behaviour in life and it is useful for both ascetic and householder Various classifications of vinaya are described in Tap Adhikar of Aupapatik Sutra. समुद्घात-पद SAMUDGHAT-PAD (SEGMENT OF SAMUDGHAT)
१३८. सत्त समुग्धाता पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए, वेउब्वियसमुग्याए, तेजससमुग्घाए, आहारगसमुग्घाए, केवलिसमुग्घाए।
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555555555555555555555555555555555555 ॐ १३८. समुद्घात सात हैं-(१) वेदनासमुद्घात-वेदना से पीड़ित होने पर कुछ आत्म-प्रदेशों का
बाहर निकलना। (२) कषायसमुद्घात-तीव्र क्रोधादि की दशा में कुछ आत्म-प्रदेशों का बाहर निकलना।
(३) मारणान्तिकसमुद्घात-मरण से पूर्व कुछ आत्म-प्रदेशों का बाहर निकलना। (४) वैक्रियसमुद्घात- के म विक्रिया करते समय मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए उत्तर शरीर में जीवप्रदेशों का प्रवेश करना।
(५) तैजस्समुद्घात-तेजोलेश्या प्रकट करते समय कुछ आत्म-प्रदेशों का बाहर निकलना। ॐ 9 (६) आहारकसमुद्घात-समीप में केवली के न होने पर चतुर्दशपूर्वी साधु की शंका के समाधानार्थ के + मस्तक से एक श्वेत पुतले के रूप में कुछ आत्म-प्रदेशों का केवली के निकट जाना और वापिस आना।
(७) केवलिसमुद्घात-आयुष्य के अन्तर्मुहूर्त रहने पर तथा वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति बहुत ॐ अधिक होने पर उसके समीकरण करने के लिए दण्ड, कपाट आदि के रूप में जीव-प्रदेशों का शरीर से
बाहर फैलना। इसमें केवल आठ समय लगते हैं। केवलिसमुद्घात का वर्णन देखें, अनुयोगद्वार भाग-१,
सूत्र १०८। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ ४५६) $ 138. Samudghat (bursting; the process employed for transmutation
and transformation) is of seven kinds-(1) Vedana Samudghat-Bursting forth of some soul-space-points due to intensity of pain. (2) Kashaya Samudghat-Bursting forth of some soul-space-points due to intensity of passions. (3) Maranantik Samudghat-Bursting forth of some soul-spacepoints before the moment of death. (4) Vaikriya Samudghat-To cause some soul-space-points to enter a transmuted body while performing transmutation without completely leaving the original body. (5) Taijas Samudghat-Bursting forth of some soul-space-points while manifesting tejoleshya (fire-power). (6) Aharak Samudghat-When a Kevali is not around to resolve some doubt, a Chaturdash-purvi ascetic sends forth some soul-space-points in the form of a telemigratory body (Aharak Sharira) to a distant Kevali to get an answer. This process is Aharak Samudghat. (7) Kevali Samudghat-When one Antarmuhurt of life span is left but the remaining quanta of the three karmas including Vedaniya is proportionately high, in order to balance the difference this process is employed by bursting forth the soul-space-points to acquire staff-shape and other shapes. It lasts only eight Samaya. (for detailed description of
Kevali Samudghat see Illustrated Anyuogadvar Sutra, part-1, aphorismॐ 108) (Hindi Tika, part-2, p 456)
१३९. मणुस्साणं सत्त समुग्धाता पण्णत्ता एवं चेव। १३९. मनुष्यों के भी इसी प्रकार ये ही सातों समुद्घात होते हैं।
139. In the same way manushyas (human beings) also have these seven Samudghats.
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प्रवचन - निह्नव - पद PRAVACHAN - NIHNAVA-PAD
१४०. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवयणणिण्हगा पण्णत्ता, तं जहाबहुरता, जीवपएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया । १४१. एएस णं सत्तहं पवयणणिण्हगाणं सत्त धम्मायरिया हुत्था, तं जहा- जमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छलुए, गोट्ठामाहिले ।
(SEGMENT OF MENDACIOUS SECEDER)
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१४०. श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में सात प्रवचननिह्नव ( आगम विपरीत प्ररूपणा करने 5 वाले) हुए हैं - (१) बहुरत, (२) जीव प्रादेशिक, (३) अव्यक्तिक, (४) सामुच्छेदिक, (५) द्वैक्रिय, (६) त्रैराशिक, (७) अबद्धिक । १४१. इन सात प्रवचन- निह्नवों के सात धर्माचार्य थे - (१) जमाली, फ (२) तिष्यगुप्त, (३) आषाढ़भूति, (४) अश्वमित्र, (५) गंग, (६) षडुलूक, (७) गोष्ठामाहिल ।
140. In the Tirtha (order) of Shraman Bhagavan Mahavir there were 5 seven Pravachan-nihnavas (mendacious seceders or doctrines or sects antithetical to Agams ) - ( 1 ) Bahurat, (2) Jivapradeshik, (3) Avyaktik, (4) Samuchchhedik, (5) Dvaikriya, (6) Trairashik and ( 7 ) Abaddhik. 141. These seven Pravachan -nihnavas (sects) had seven dharmacharyas (religious preceptors) – ( 1 ) Jamali, ( 2 ) Tishyagupta, ( 3 ) Ashadhabhuti, (4) Ashvamitra, (5) Gang, (6) Shadulak and (7) Goshthamahil.
१४२. एतेसि णं सत्तण्हं पवयणणिण्हगाणं सत्तउप्पत्तिणगरा हुत्था, तं जहा
सावत्थी उस पुरं, सेयविया मिहिलउल्लगातीरं ।
पुरिमंतरंजि दसपुरं, णिण्हगउप्पत्तिणगराई ॥१ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
१४२. इन सात प्रवचन- निह्नवों की उत्पत्ति सात नगरों में हुई - ( १ ) श्रावस्ती, (२) ऋषभपुर, 5 (३) श्वेतविका, (४) मिथिला, (५) उल्लुकातीर, (६) अन्तरंजिका, (७) दशपुर ।
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142. These seven Pravachan nihnavas originated in seven cities(1) Shravasti, (2) Rishabhapur, (3) Shvetavika, (4) Mithila, (5) Ullukatira, (6) Antaranjika and ( 7 ) Dashapur.
अनुभाव - पद ANUBHAAVA-PAD
(SEGMENT OF FRUITS OF KARMA)
१४३. सातावेयणिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पण्णत्ते, तं जहा - मणुण्णा सद्दा, मणुण्णा रूवा, ( मणुण्णा गंधा, मणुण्णा रसा), मणुण्णा फासा, मणोसुहता, वइसुहता । १४४. असातावेयणिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पण्णत्ते, तं जहा - अमणुण्णा सद्दा, ( अमणुण्णा रूवा, अमणुण्णा गंधा, अमणुण्णा रसा, अमणुण्णा फासा, मणोदुहता), वइदुहता ।
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१४३. साता-वेदनीय कर्म का अनुभाव (सुखरूप फल-भोग) सात प्रकार का है-(१) मनोज्ञ शब्द, (२) मनोज्ञ रूप, (३) मनोज्ञ गन्ध, (४) मनोज्ञ रस, (५) मनोज्ञ स्पर्श, (६) मनःसुख, (७) वचन सुख। १४४. असातावेदनीय कर्म का अनुभाव (दुःख रूप फल भोग) सात प्रकार का है-(१) अमनोज्ञ शब्द, 9 (२) अमनोज्ञ रूप, अमनोज्ञ गन्ध, (४) अमनोज्ञ रस, (५) अमनोज्ञ स्पर्श, (६) मनोदुःख, (७) वचोदुःख।
143. The anubhaava (fruits) of Saata-vedaniya karma (karma responsible for experience of pleasure) is of seven kinds—(1) manojna shabd 41 (pleasant sound), (2) manojna rupa (pleasant appearance), (3) manojna gandh (pleasant smell), (4) manojna rasa (pleasant taste), (5) manojna sparsh (pleasant touch), (6) manah sukha (mental pleasure) and (7) vachan
sukha (vocal pleasure). 144. The anubhaava (fruits) of Asaata-vedaniya i karma (karma responsible for experience of misery) is of seven kindsi (1) amanojna shabd (unpleasant sound), (2) amanojna rupa (unpleasant
appearance), (3) amanojna gandh (unpleasant smell), (4) amanojna rasa (unpleasant taste), (5) amanojna sparsh (unpleasant touch), (6) manah duhkha (mental misery) and (7) vachan duhkha (vocal misery). नक्षत्र-पद NAKSHATRA-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS)
१४५. महाणक्खत्ते सत्ततारे पण्णत्ते। १४६. अभिईयादिया णं सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिय पण्णत्ता, तं जहा-अभिई, सवणो, धणिवा, सतभिसया, पुबभद्दवया, उत्तरभद्दवया, रेवती। १४७. अस्सिणियादिया णं सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अस्सिणी, भरणी, कित्तिया, रोहिणी, मिगसिरे, अद्दा, पुणव्वसू।
१४५. मघा नक्षत्र के सात तारे हैं। १४६. अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्वद्वार वाले हैं(१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभिषक्, (५) पूर्वभाद्रपद, (६) उत्तरभाद्रपद, (७) रेवती। १४७. अश्विनी आदि सात नक्षत्र दक्षिणद्वार वाले हैं-(१) अश्विनी, (२) भरणी, (३) कृत्तिका, (४) मृगशिर, (६) आर्द्रा, (७) पुनर्वसु। ___145. Magha nakshatra (Regulus; the 10th) has seven stars. 146. Seven nakshatras including Abhijit are with Purvadvar (when going towards
east is auspicious)-(1) Abhijit (Lyrae; the 22nd), (2) Shravan (Alpha Ī Aquilae; the 23rd), (3) Dhanishtha (Belta Delphini; the 24th), (4) Shat
Bhishag (Lambda Aquarii; the 25th), (5) Purva Bhadrapad (Alpha Pegasi; A the 26th), (6) Uttara Bhadrapad (Gama Pegasi; the 27th) and (7) Revati
(Zeta Piscium; the 28th) 147. Seven nakshatras including Ashvini are with Dakshin-dvar (when going towards south is auspicious)-(1) Asvini (Beta
Arietis; the 1st), (2) Bharani (35 Arietis; the 2nd), (3) Krittika (Eta Tauri For Pleiades; the 3rd), (4) Rohini (Aldebaran; the 4th), (5) Mrigashirsha
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(Lambda Orionis; the 5th), (6) Ardra (Alpha Orionis; the 6th), and Si (7) Punarvasu (Beta Geminorum; the 7th).
१४८. पुस्सादिया णं सत्त णक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता, तं जहा-पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुवाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता। १४९. सातियाइया णं सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया ॐ पण्णत्ता, तं जहा-साती, विसाहा, अणुराहा, जेट्टा, मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा। म १४८. पुष्य आदि सात नक्षत्र पश्चिमद्वार वाले हैं-(१) पुष्य, (२) अश्लेषा, (३) मघा,
(४) पूर्वफाल्गुनी, (६) हस्त, (७) चित्रा। १४९. स्वाति आदि सात नक्षत्र उत्तरद्वार वाले हैं卐 (१) स्वाति, (२) विशाखा, (३) अनुराधा, (४) ज्येष्ठा, (५) मूल, (६) पूर्वाषाढा, (७) उत्तराषाढा।
148. Seven nakshatras including Pushya are with Pashchim-dvar 4 (when going towards west is auspicious)-(1) Pushya (Delta Cancri; the 45 8th), (2) Ashlesha (Alpha Hydrae; the 9th), (3) Magha (Regulus; the
10th), (4) Purva Phalguni (Delta Leonis; the 11th), (5) Uttara Phalguni 卐 (Beta Leonis; the 12th), (6) Hasta (Delta Corvi; the 13th) and (7) Chitra #
(Spica Virginis; the 14th). 149. Seven nakshatras including Swati are with Uttar-dvar (when going towards north is auspicious)-(1) Swati (Arcturus; the 15th), (2) Vishakha (Alpha Librae; the 16th),
(3) Anuradha (Delta Scorpii; the 17th), (4) Jyeshtha (Antares; the 18th), 4 (5) Mula (Lambda Scorpii; the 19th), (6) Purva Ashadha (Delta फ़ Hi Sagittarii; the 20th) and (7) Uttara Ashadha (Sigma Sagittarii; the 21st)
विवेचन-जैन आगमों के अनुसार माना जाता है कि जिस दिशा का जो नक्षत्र हो, उस नक्षत्र के दिन उस दिशा में यात्रा करने पर नक्षत्र सामने रहता है। सन्मख नक्षत्र कार्य की सफलता व सिद्धि में ॐ सहायक बनता है।
Elaboration-According to Jain Agams there is a belief that when moving on a day assigned to a particular constellation in the direction assigned to that particular constellation one faces that particular constellation. This facing constellation is auspicious and augurs success. कूट-पद KOOT-PAD (SEGMENT OF PEAKS) १५०. जंबुद्दीवे दीवे सोमणसे वक्खारपव्वते सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धे सोमणसे या, बोद्धव्वे मंगलावतीकूडे।
देवकुरु विमल कंचण, विसिटकूडे य बोद्धव्ये॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) १५१. जंबुद्दीवे दीवे गंधमायणे वक्खारपव्वते सत्त कूडा पण्णता, तं जहा
सिद्धे य गंधमायण, बोद्धव्वे गंधिलावतीकूडे। उत्तरकुरु फलिहे, लोहितक्खे आणंदणे चेव ॥१॥
स्थानांगसूत्र (२)
(346)
Sthaananga Sutra (2)
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म १५०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सौमनस वक्षस्कारपर्वत पर सात कूट हैं-(१) सिद्धकूट,
(२) सौमनसकूट, (३) मंगलावतीकूट, (४) देवकुरुकूट, (५) विमलकूट, (६) कांचनकूट, (७) विशिष्टकूट। म १५१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में गन्धमादन वक्षस्कारपर्वत पर सात कूट हैं-(१) सिद्धकूट, - (२) गन्धमादनकूट, (३) गन्धिलावतीकूट, (४) उत्तरकुरुकूट, (५) स्फटिककूट, (६) लोहिताक्षकूट, 卐 (७) आनन्दनकूट।
150. In Jambu Dveep on the Saumanas Vakshaskar mountain there are seven koots (peaks)-(1) Siddhakoot. (2) Saumanas-koot. (3) Mangalavatikoot, (4) Devakurukoot, (5) Vimal-koot, (6) Kaanchankoot and (7) Vishishtakoot.
151. In Jambu Dveep on the Gandhamadan Vakshaskar mountain there are seven koots (peaks)-(1) Siddhakoot, (2) Gandhamadan
koot, (3) Gandhilavatikoot, (4) Uttarakurukoot, (5) Sphatik-koot, 45 (6) Lohitaksh-koot and (7) Anandan-koot.
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gorrasileira KULAKOTI-PAD (SEGMENT OF SPECIES)
१५२. बिइंदियाणं सत्त जाति-कुलकोडि-जोणीपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता।
१५२. द्वीन्द्रिय जाति की सात लाख योनि प्रमुख कुलकोटि हैं। ____152. Dvindriya (two-sensed beings) have seven lac (hundred ॐ thousand) species (jati kulakoti) in their genuses (yoni pramukh)
विवेचन-योनि का अर्थ है-उत्पत्ति स्थान। जाति कुलकोटि का अर्थ है, उसमें उत्पन्न होने वाले जीवों के विभिन्न प्रकार व कुल। जैसे गोबर में अनेक जाति के कृमि उत्पन्न होते हैं। उन सबको सामूहिक रूप 卐 में कुल कहते हैं। वृत्तिकार के अनुसार द्वीन्द्रिय जीवों की योनियाँ दो लाख और कुल कोटियाँ सात लाख हैं। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ)
Elaboration-Yoni means place of birth or genus. Jati kulakoti means various species in that particular jati or class. For example numerous species of worms are born in cow dung; they are collectively called kula. According to the commentator (Vritti) two-sensed beings have two lac genuses and seven lac species.
पापकर्म-पद PAAP-KARMA-PAD (SEGMENT OF DEMERITORIOUS KARMA) म १५३. जीवा णं सत्तट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, * तं जहा-णेरइयनिव्वत्तिते, (तिरिखजोणियणिव्यत्तिते, तिरिक्खजोणिणीणिबत्तिते, मणुस्सणिव्वत्तिते,
मणुस्सीणिव्वत्तिते), देवणिव्वत्तिते, देवीणिव्वत्तिते। एवं-चिण- (उवचिण-बंध-उदीर-वेद तह) फणिज्जरा चेव।
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सप्तम स्थान
(347)
Seventh Sthaan
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5 १५३. जीवों ने सात स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्मरूप से संचय किया है, करते हैं और करेंगे
(१) नैरयिक निर्वर्तित पुद्गलों का, (२) तिर्यग्योनिक (तिर्यंच) निर्वर्तित पुद्गलों का, (३) तिर्यग्योनिकी । ॐ (तिर्यंचनी) निर्वर्तित पुद्गलों का, (४) मनुष्य निर्वर्तित पुद्गलों का, (५) मानुषी निर्वर्तित पुद्गलों का, 卐 (६) देव निर्वर्तित पुद्गलों का, (७) देवी निर्वर्तित पुद्गलों का। इसी प्रकार जीवों ने सात स्थानों से निर्वर्तित 5 पुद्गलों का पापकर्मरूप से उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
153. All beings did, do and will acquire (sanchit) karma particles in 5 the form of demeritorious karmas in the past, present and future ___ respectively seven ways-(1) nairayik nirvartit (earned as infernal
beings), (2) tiryagyonik nirvartit (earned as male animals), (3) tiryagyoniki nirvartit (earned as female animals), (4) manushya nirvartit (earned as male human beings), (5) maanushi nirvartit (earned as female human beings), (6) deva nirvartit (earned as male divine beings) and (7) devi nirvartit (earned as female divine beings). ___In the same way all beings did, do and will augment (upachaya), bond (bandh), fructify (udiran), experience (vedan) and shed (nirjaran) the acquired karma particles in the past, present and future respectively in aforesaid seven ways. पुद्गल-पद PUDGAL-PAD (SEGMENT OF MATTER)
१५४. सत्तपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। १५५. सत्तपएसोगाढा पोग्गला जाव सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता।
१५४. सात प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। १५५. सात आकाश प्रदेशों में अवगाहन करने वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। सात समय की स्थिति वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। सात गुण वाले ॐ पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं।
इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गन्ध, रस और स्पर्शों के सात गुण वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त-अनन्त हैं।
154. There are infinite saat pradeshi pudgal-skandhs (aggregates of seven ultimate particles). 155. There are infinite saat pradeshavagadh pudgal-skandhs (ultimate particles occupying seven space-points). There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with stability of seven Samayas. There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with seven units of the attribute of black appearance
In the same way there are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with seven units of each of the remaining attributes of smell, taste, and touch.
॥ सप्तम स्थान समाप्त ॥ • END OF THE SEVEN STHAAN •
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स्थानांगसूत्र (२)
(348)
Sthaananga Sutra (2) |
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अध्ययन सार
आठवें स्थान में आठ की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। जैसे- जीव विज्ञान, गण व्यवस्था, ज्योतिष, आयुर्वेद, भूगोल आदि । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वर्णन आलोचना - पद में किया गया है । वहाँ बताया गया है कि सरल आत्मा माया का आचरण नहीं करता, जबकि कुटिल व्यक्ति माया को अपनी चतुरता समझता है। जिसके मन में पाप के प्रति ग्लानि होती है, धर्म की आस्था होती है और कर्म - फल के सिद्धान्त में विश्वास होता है, वह माया करके प्रसन्न नहीं होता । मायाचारी व्यक्ति दोषों का सेवन करके भी उनको छिपाने का प्रयत्न करता है। उसे अनेक प्रकार के भय सताते रहते हैं। मायावी व्यक्ति को सचेत करने के लिए बताया है कि वह इस लोक में निन्दित होता है, परलोक में भी निन्दित होता है और यदि देवलोक में उत्पन्न होता है, तो वहाँ अन्य देवों के द्वारा तिरस्कार ही पाता है । वहाँ
अष्टम स्थान
से च्यवकर मनुष्य होता है तो दीन-दरिद्र कुल में उत्पन्न होता है और वहाँ भी तिरस्कार - अपमानपूर्ण जीवन-यापन करके अन्त में दुर्गतियों में परिभ्रमण करता है।
इसके विपरीत अपने दोषों की आलोचना करने वाला दोनों लोकों में सुखी होता है।
मायाचारी की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए बताया गया है कि वह अपने मायाचार को छिपाने के लिए भीतर ही भीतर लोहे, ताँबे, सीसे, सोने, चाँदी आदि को गलाने की भट्टियों के समान, कुंभार के आपाक (आवे) के समान और ईंटों के भट्टे के समान निरन्तर संतप्त रहता है।
मायाचार के महान् दोषों को बतलाने का उद्देश्य यही है कि साधक पुरुष मायाचार न करे । मायाचार का यह प्रकरण सरलता के लिए गहरी प्रेरणा देता है।
गणि- सम्पदा-पद में बताया है कि गण-नायक में आचार-सम्पदा, श्रुत-सम्पदा आदि आठ सम्पदाओं का होना आवश्यक है। आलोचना करने वालों को प्रायश्चित्त देने वाले में भी अपरिस्रावी आदि आठ गुणों का होना आवश्यक है।
केवलि - समुद्घात के आठ समयों का वर्णन, आठ कृष्णराजियों का वर्णन, आठ प्रकार के अक्रियावादियों का, आठ प्रकार की आयुर्वेद - चिकित्सा का, आठ पृथिवियों का वर्णन भी द्रष्टव्य है।
इस स्थान के प्रारम्भ में एकल-विहार करने वाले साधु में श्रद्धा, सत्य, मेधा, बहुश्रुतता आदि आठ गुणों की योग्यता का मानदण्ड बताया है।
अष्टम स्थान
(349)
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Eighth Sthaan
20 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 2
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454545454545454545454545454545454545454545454 455 456 457 454 455 456
45 46 45 45
EIGHTH STHAAN (PLACE NUMBER EIGHT)
455 456 45 44 45 46 45 44 45 46 44 45 46 47 46 45 45 456 457 41 41 41 41 41 41 41 41 41 42
INTRODUCTION
The eighth Sthaan compiles things related to the numeral eight. The topics include biology, group management, astrology, medicine, fi geography etc. Most important discussion is in the Alochana (criticism) segment. It is stated there that a simple soul does not indulge in deceit ! whereas an evil soul considers deceit to be his cleverness. A person with a feeling of remorse for sins, faith in religion and belief in doctrine of karma is never happy indulging in deceit. A deceitful person tries to
conceal his faults after committing. He is oppressed with numerous $i fears. As warnings to a deceitful person it is stated that he is cursed in 41
this as well as the next world. Even when he reincarnates in the divine realm he is insulted by other gods. When he descends to reincarnate as a human being again, he is born in a poor family and after leading a life filled with rejection and insults he continues to suffer in cycles of rebirth.
As against this a person who criticizes and repents for his faults, attains happiness in both the worlds.
Describing the mental state of a treacherous person, it is shown that in order to conceal his deceit he continuously remains seething inside 4 like furnaces meant for melting iron, copper, gold and silver and like potter's and brick-maker's kilns.
The purpose of vividly narrating the grave faults of treachery is to 4 ensure that an aspirant avoids practicing deceit. This section about deceit provides profound inspiration to remain simple.
Gani-sampada-pad conveys that it is imperative that a head of a gana (group of ascetics) be a person endowed with eight kinds of wealth (virtues) including wealth of conduct and wealth of scriptures. A person who prescribes atonement to the repenting should also necessarily have eight kinds of wealth including aparisravi.
The descriptions of eight Samayas of Kevali Samudghat, eight levels 4 of darkness, Akriyavadis, eight kinds of Ayurvedic methods of treatment and eight prithvis are also worth studying.
At the beginning of this Sthaan the yardstick of eight virtues of an ascetic indulging in solitary practices have been mentioned. They include faith, truthfulness, intelligence and scholarship.
451 454545454545454545454 455 456 457 4545454545454545454 455 456 455 456 457 45542
455 456 457 451
454 455 456 457 455 456 4
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(350)
Sthaananga Sutra (2) 2441 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 41 55 41 41 41 41 41 45 41 41 41 41 42
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अष्ठम स्थान EIGHTH STHAAN (Place Number Eight)
एकलविहार प्रतिमा-पद EKAL-VIHAR-PRATIMA-PAD (SEGMENT OF SOLITARY STAY)
१. अट्टहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, तं जहा-सड्डी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिमं, अप्पाधिगरणे, धितिमं, वीरियसंपण्णे।
१. आठ स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अणगार एकाकी विहार प्रतिमा को स्वीकार कर विहार करने के योग्य होता है। जैसे-(१) श्रद्धावान् पुरुष, (२) सत्यवादी पुरुष, (३) मेधावी पुरुष, (४) बहुश्रुत पुरुष, (५) शक्तिमान् पुरुष, (६) अल्पाधिकरण पुरुष, (७) धृतिमान् पुरुष, (८) वीर्यसम्पन्न पुरुष। __ 1. An ascetic endowed with eight sthaans (qualities) is qualified to accept ekal-vihar pratima (special ascetic-practice of staying in solitude) (1) Shraddhavan purush (person with faith), (2) Satyavadi purush (truthful person), (3) Medhavi purush (intelligent person), (4) Bahushrut purush (scholarly person), (5) Shaktiman purush (powerful person), (6) Alpadhikaran purush (strife-less person), (7) Dhritiman purush (patient person) and (8) Viryasampanna purush (enthusiastic person).
विवेचन-गुरु व संघ की आज्ञा लेकर अकेला विहार करते हुए आत्म-साधना करने का अभिग्रह ॥ 'एकल विहार प्रतिमा' है। साधु तीन अवस्थाओं में अकेला विचर सकता है-(१) एकल विहार प्रतिमा स्वीकार करने पर। (२) जिनकल्प स्वीकार करने पर। (३) मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमाएँ स्वीकार करने पर।
इनमें से प्रस्तुत सूत्र में एकल-विहार-प्रतिमा स्वीकार करने की योग्यता के आठ अंग बताये गये हैं-(१) श्रद्धावान्-अचल सम्यक्त्वी और दृढ़ चारित्रवान्। (२) सत्यवादी-स्वीकृत प्रतिज्ञा पालने में दृढ़ एवं अर्हत्प्ररूपित तत्त्वों का कथन करने सत्यवादी में। (३) मेधावी-श्रुतग्रहण की प्रखर बुद्धि से युक्त एवं विवेकवान् । (४) बहुश्रुत-कम से कम नौ-दश पूर्व का ज्ञाता। (५) शक्तिमान्। शक्तिमान होने की पाँच
कसौटियाँ हैं-(१) तपस्या, छह मास तक भोजन न मिलने पर भी जो भूख से पराजित न हो। : (२) सत्त्व, भय और निद्रा को जीतने का अभ्यास ‘सत्त्व' है। इसके लिए उसे सब साधुओं के सो जाने । पर क्रमशः उपाश्रय के भीतर, दूसरी बार उपाश्रय के बाहर, तीसरी बार किसी चौराहे पर, चौथी बार
सूने घर में और पांचवीं बार श्मशान में रातभर कायोत्सर्ग करना पड़ता है। (३) सूत्र-भावना, वह सूत्र के परावर्तन से उच्छ्वास, घड़ी, मुहूर्त आदि काल को सूर्य-गति आदि के बिना जानने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। (४) एकत्व, वह आत्मा को शरीर से भिन्न अखण्ड चैतन्यपिण्ड का ज्ञाता हो जाता है।
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अष्टम स्थान
(351)
Eighth Sthaan
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ॐ (५) बल, वह मानसिक बल को इतना विकसित कर लेता है कि भयंकर उपसर्ग आने पर भी वह उनसे
चलायमान नहीं होता है। जो साधक जिनकल्प-प्रतिमा स्वीकार करता है, उसके लिए उक्त पाँचों कसौटियों में सफल होना आवश्यक है। (६) अल्पाधिकरण-जो उपशान्त कलह की उदीरणा तथा नये कलहों का उद्भावक नहीं हो। (७) धृतिमान्-जो रति-अरति में समभाव रखे एवं अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करने में धैर्यवान् हो। (८) वीर्यसम्पन्न-स्वीकृत साधना में निरन्तर उत्साह बनाये रखें।
Elaboration-Ekal-vihar pratima is to resolve to do spiritual practices ! in solitude and to move alone after seeking due permission from the guru and Sangh. An ascetic can move alone under three conditions—(1) on accepting ekal-vihar pratima, (2) on accepting Jina-kalp and (3) on accepting Masiki or other Bhikshu pratimas (special ascetic practices).
Here eight qualifications of accepting ekal-vihar pratima have been listed—(1) Shraddhavan-person with unwavering righteousness and impeccable conduct. (2) Satyavadi-resolute in observing accepted vows and veracious in stating the fundamentals propagated by the Arhat. 4 (3) Medhavi—sagacious and acutely sharp and intelligent in absorbing knowledge from scriptures. (4) Bahushrut-scholar of at least nine to ten
Purvas. (5) Shaktiman—there are five yardsticks of being powerful4 (i) Austerity related : should not be overwhelmed by hunger even if he
does not get food for six months. (ii) Sattva related : the practice to win over fear and sleep is called sattva. For this the aspirant has to practice doing one night Kayotsarg progressively first at the place of stay, then outside the place of stay, then at some crossing, then in some abandoned y house and lastly at cremation ground. (iii) Sutra-bhaavana : the aspirant acquires with the help of Sutra-paravartan (repetition of aphorisms or mantra chanting) the capacity to know different units of time, such as Uchchhavas (one exhale), Ghadi (quarter of an hour) and Muhurt (48 minutes), without the aid of movement of the sun or other such measure. (iv) Ekatva : the aspirant attains self realization and experiences that soul is an indivisible unit of sentience different from the physical body. (v) Bal : the aspirant develops so great a mental strength that gravest of afflictions fails to move him. It is necessary for an aspirant who desires to accept the Jina-kalp pratima to pass the aforesaid five tests. (6) Alpadhikaran--an aspirant who does not fructify or precipitate the pacified karmas responsible for strife and does not trigger new strife. (7) Dhritiman—an aspirant who is detached in indulgence and non-indulgence (rati-arati) as well as patient in enduring
di di ai ai mala|aaaaa aaaaaaaahhhhhhhhhhhiiiiiiiiiiiii
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( 352 )
Sthaananga Sutra (2)
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2. Yoni sangraha (places of origin) are of eight kinds-(1) Andaj, or born from an egg, as are birds, reptiles, etc. (2) Potaj or born as fully formed infants, as are elephants and tigers. ( 3 ) Jarayuj, or placental, isuch as man, cow etc. (4) Rasaj or born out of liquids including milk, fi curd, oil etc. (5) Samsvedaj, or born out of sweat, such as louse, nit, etc. 5 (6) Sammoorchanaj, or of asexual origin, such as worms. (7) Udbhij, or those that burst out of the earth when born, such as khanjanak. (8) Aupapatik, or born instantaneously, such as gods.
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pleasant and unpleasant afflictions. (8) Viryasampanna — an aspirant who is ever enthusiastic in observing the accepted spiritual practices. (Note: All beings in the universe are included in these eight classes) योनि-संग्रह-पद YONI SANGRAHA - PAD (SEGMENT OF PLACE OF ORIGIN)
२. अट्ठविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा- अंडगा, पोतगा, [जराउजा, रसजा, संसेयगा, मुच्छिमा], उब्भिगा, उववातिया ।
२. योनि-संग्रह (उत्पत्ति स्थान ) आठ प्रकार का है - (१) अण्डज, (२) पोतज, (३) जरायुज, (४) रसज, (५) संस्वदेज, (६) सम्मूर्च्छिम, (७) उद्भिज्ज, (८) औपपातिक ।
गति - आगति - पद GATI AAGATI - PAD (SEGMENT OF BIRTH FROM AND TO)
३. अंडगा अट्ठगतिया अट्ठागतिया पण्णत्ता, तं जहा - अंडए अंडएसु उववज्जमाणे अंडएहिंतो वा, पोतएहिंतो वा, (जराउजेहिंतो वा, रसजेहिंतो वा, संसेयगेहिंतो वा, संमुच्छिमेहिंतो वा, उभिएहिंतो वा), उववातिएहिंतो वा उववज्जेज्जा ।
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से चेवणं से अंडए अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगत्ताए वा, पोतगत्ताए वा, (जराउजत्ताए वा, रसजत्ताए वा, संसेयगत्ताए वा, संमुच्छिमत्ताए वा, उब्भियत्ताए वा ), उववातियत्ताए वा गच्छेज्जा । ४. एवं पोतगावि जराउजावि सेसाणं गतिरागती णत्थि ।
३. अण्डज जीव आठ गतिक और आठ आगतिक होते हैं। जैसे
वही अण्डज जीव वर्तमान अण्डज पर्याय को छोड़ता हुआ अण्डजरूप से, या पोतजरूप से, या जरायुजरूप से, या रसजरूप से, या संस्वेदजरूप से, या सम्मूर्च्छिमरूम से, या उद्भिज्जरूप से, या औपपातिकरूप से उत्पन्न होता है।
अष्टम स्थान
(353)
75 5 5 5 5 55 5 5 55 55 59955 5 59595959 595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 55 2
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अण्डज जीव अण्डजों में उत्पन्न होता हुआ अण्डजों से, या पोतजों से, या जरायुजों से, या रसजों 5 से, या संस्वेदजों से, या सम्मूर्च्छिमों से, या उद्भिज्जों से, या औपपातिकों से आकर उत्पन्न होता है।
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Eighth Sthaan
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४. इसी प्रकार पोतज भी और जरायुज भी आठ गतिक और आठ आगतिक है। शेष रसज आदि 5 जीवों की गति और आगति आठ प्रकार की नहीं होती है। (विस्तार के लिए देखें - हिन्दी टीका, भाग-२, पृष्ठ ४८२, वृत्ति पत्र ३९५ )
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3. Andaj jiva (egg-born beings) have eight kinds of gatis (reincarnation 4 to) and eight aagatis (reincarnation from)—A being taking birth as Andaj
being reincarnates from either Andaj beings, Potaj beings, Jarayuj
beings, Rasaj beings, Samsvedaj beings, Sammoorchanaj beings, Udbhij 4 beings, or Aupapatik beings.
The same Andaj being leaving the state of Andaj being reincarnates in the genus of either Andaj beings, Potaj beings, Jarayuj beings, Rasaj ॐ beings, Samsvedaj beings, Sammoorchanaj beings, Udbhij beings or 4. Aupapatik beings. In other words it can reincarnate in any of the said
eight genuses. 4 4. Potaj beings and Jarayuj beings also have eight gatis and aagatis. 4. The remaining beings including Rasaj beings do not have eight kinds of
gatis (reincarnation to) and aagatis (reincarnation from). (for more details see Vritti, leaf 395 and Hindi Tika, part-2, p. 482)
कर्म बन्ध-पद KARMA BANDH-PAD (SEGMENT OF BONDAGE OF KARMAS) म ५. जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वां, तं जहाॐणाणावरणिज्जं, दरिसणावरणिज्जं, वेयणिज्जं, मोहणिज्जं, आउयं, णामं, गोत्तं, अंतराइयं।
६. णेरइया णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा एवं चेव। ७. एवं णिरंतरं म जाव वेमाणियाणं। ॐ ५. सभी जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियों का अतीत काल में संचय किया है, वर्तमान में कर रहे हैं म और भविष्य में करेंगे-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु,
(६) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्तराय। ६. नारक जीवों ने उक्त आठ कर्मप्रकृतियों का संचय किया है, 卐 कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे। ७. इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डक वाले जीवों ने आठ
कर्मप्रकृतियों का संचय किया है, कर रहे हैं और करेंगे। $ 5. All beings did, do and will acquire (sanchaya) eight karma prakritis
(species of karmas) in the past, present and future respectively
(1) Jnanavaraniya, (2) Darshanavaraniya, (3) Vedaniya, (4).Mohaniya, ॐ (5) Ayu, (6) Naam, (7) Gotra and (8) Antaraya. 6. Naarak (infernal) 4 beings did, do and will acquire (sanchaya) the said eight karma prakritis
(species of karmas) in the past, present and future respectively. 7. In the same way all beings of all Dandaks up to Vaimaniks did, do and will acquire (sanchaya) the said eight karma prakritis (species of karmas) in the past, present and future respectively.
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८. जीवा णं अट्ठ कम्मपगडीओ उवचिणिंसु वा उवचिणंति वा उवचिणिस्संति वा एवं चेव । एवं चिण-उवचिण-बंध - उदीर - वेय तह णिज्जरा चेव । एते छ चउवीसा दंडगा भाणियव्वा ।
८. जीवों ने उक्त आठ कर्मप्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, कर रहे हैं और करेंगे। इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक सभी दण्डकों के जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, कर रहे हैं और करेंगे। 5 इस प्रकार चौबीस दण्डों में संचय आदि छह पदों का कथन करना चाहिए ।
8. All beings did, do and will augment (upachaya ), bond (bandh), fructify (udiran), experience (vedan) and shed ( nirjaran) the aforesaid eight species of karmas in the past, present and future respectively. In the same way all beings of all Dandaks up to Vaimaniks did, do and will augment (upachaya ), bond (bandh), fructify (udiran), experience ( vedan) and shed (nirjaran) the aforesaid eight species of karmas in the past, present and future respectively. In the same way these six statements about acquiring (etc.) should be read for all the twenty four Dandaks (places of suffering).
आलोचना - पद ALOCHANA-PAD (SEGMENT OF CRITICISM)
९. अट्ठहिं ठाणेंहि मायी मायं कट्टु णो आलोएज्जा, णो पडिक्कमेज्जा, (णो णिंदेज्जा, णो गरिहेज्जा, णो विउट्टेज्जा, णो विसोहेज्जा, णो अकरणयाए अब्भुट्टेज्जा, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं ) पडिवज्जेज्जा, तं जहा - करिंसु वाहं, करेमि वाहं, करिस्सामि वाहं, अकित्ती वा मे सिया, अवणे वा मे सिया, अविणए वा मे सिया, कित्ती वा मे परिहाइस्सइ, जसे वा मे परिहाइस्सइ ।
९. मायावी व्यक्ति माया करके आठ कारणों से उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा गर्हा, व्यावृत्ति ( निवृत्ति) और विशुद्धि नहीं करता है। "पुनः वैसा नहीं करूँगा”, ऐसा कहने को उद्यत भी नहीं होता है तथा न यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपःकर्म को स्वीकार करता है। वे आठ कारण इस प्रकार हैं- ( 9 ) मैंने (भूतकाल में) अकरणीय कार्य किया है, (२) मैं (वर्तमान में) अकरणीय कार्य कर रहा हूँ, (३) मैं (भविष्य में) अकरणीय कार्य करूँगा, (फिर इनकी आलोचना निन्दा क्यों करूँ ?) (४) (आलोचना करने से) मेरी अपकीर्ति होगी, (५) मेरा अवर्णवाद ( अपयश ) होगा, (६) मेरा अविनय (प्रतिष्ठा को हानि पहुँचेगी) होगा, (७) मेरी (अब तक संचित ) - कीर्ति - (भौतिक वैभव से बढ़ी प्रतिष्ठा कम हो जायेगी, (८) मेरा यश - (सद्गुणों से बढ़ी प्रतिष्ठा) कम हो जायेगा ।
9. For eight reasons a treacherous person, even after committing treachery, does not criticize (alochana) the act, do critical review (pratikraman), reprove (ninda) (before self), reproach ( garha) (before the guru), refrain from doing the act (vyavritti), purge himself (vishuddhi), resolve not to repeat, or accept suitable atonement and penance. Those
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4 eight reasons are-(1) I have (in the past) committed a misdeed. (2) I am 卐 (at present) committing a misdeed. (3) I will (in the future) commit a 卐 misdeed. (so, why criticize and reprove ?) (4) (If I do so) I will become
disreputable (apkirti). (5) I will be dishonoured (avarnavad). (6) Others
will ignore me (avinaya). (7) It will reduce my kirti (already acquired 4 prestige due to worldly, wealth). (8) It will reduce my yash (prestige 4i gained due to virtues).
.१०. (क) अट्टहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएज्जा, (पडिक्कमेजा, शिंदेज्जा, गरिहेज्जा, विउद्देज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जेज्जा, तं जहा
(१) मायिस्स णं अस्सिं लोए गरहिते भवति। (२) उववाए गरहिते भवति। (३) आयाती म गरहिता भवति। (४) एगमवि मायी मायं कटु णो आलोएज्जा, (णो पडिक्कमेज्जा, णो णिंदेज्जा, + णो गरिहेज्जा, णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, णो अकरणयाए अन्भुटेज्जा, णो अहारिहं पायच्छित्तं ॐ तवोकम्म) पडिवज्जेज्जा, पत्थि तस्स आराहणा। (५) एगमवि मायी मायं कटु आलोएज्जा, ॥
(पडिक्कमेज्जा, शिंदेज्जा, गरिहेज्जा, विउद्देज्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज्जा, अहारिहं । ॐ पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जेज्जा, अत्थि तस्स आराहणा। (६) बहुओवि मायी मायं कटु णो ॥
आलोएज्जा, (णो पडिक्कमेज्जा, णो णिंदेज्जा, णो गरिहेज्जा, णो विउद्देज्जा, णो विसोहेज्जा, णो . ॐ अकरणयाए अब्भुटेज्जा, णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवज्जेज्जा, णत्थि तस्स आराहणा।
(७) बहुओवि मायी पायं कटु आलोएज्जा, (पडिक्कमेज्जा, शिंदेज्जा, गरिहेज्जा, विउद्देज्जा, ॐ विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज्जा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा), अत्थि तस्स
आराहणा। (८) आयरिय-उवज्झायस्स वा मे अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा, सेयं, मम ॐ मालोएज्जा मायी णं एसे।
१०. (क) आठ कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता है, ॐ निन्दा करता है, गर्दा करता है, व्यावृत्ति करता है, विशुद्धि करता है, “मैं पुनः वैसा नहीं करूँगा' ऐसा
कहने को उद्यत होता है और (निवृत्ति) यथायोग्य प्रायश्चित्त तथा तपःकर्म स्वीकार करता है। वे आठ कारण इस प्रकार हैं
(१) मायावी का यह लोक गर्हित होता है। (लोक निन्दा करते हैं, जिसे सुनकर मन ही मन उद्विग्न रहता है। (२) उपपात गर्हित होता है। (आगामी जन्म में देवगति में भी किल्विषिक आदि देवों में उत्पन्न फ़ होता है। (३) आजाति-तीसरा जन्म गर्हित होता है। देव योनि से च्युत होकर मनुष्य गति में भी
तिरस्कृत तथा असम्मानित होता है। (४) जो मायावी एक भी मायाचार करके आलोचना प्रतिक्रमण है,
निन्दा, गर्हा, व्यावृत्ति करता और विशुद्धि नहीं करता है, 'पुनः वैसा नहीं करूँगा' ऐसा कहने को उद्यत 卐 भी नहीं होता है, एवं यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपःकर्म को स्वीकार भी नहीं करता है, उसके ॥
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ॐ आराधना नहीं होती है। (५) जो मायावी एक भी बार मायाचार करके उसकी आलोचना करता है, 卐 की प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्यावृत्ति और विशुद्धि करता है, ' मैं पुनः वैसा नहीं करूँगा', ऐसा कहने को
उद्यत होता है, यथायोगय प्रायश्चित्त और तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है। के (६) जो मायावी बहुत मायाचार करके न उसकी आलोचना करता है, न ही प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा,
व्यावृत्ति और विशुद्धि करता है, “मैं पुनः वैसा नहीं करूँगा' ऐसा कहने को भी उद्यत नहीं होता है तथा ।
यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना नहीं होती है। (७) जो मायावी ॥ म बहुत मायाचार करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्यावृत्ति और विशुद्धि 5 + करता है, “मैं पुनः वैसा नहीं करूँगा', ऐसा कहने को उद्यत होता है, यथायोग्य प्रायश्चित्त और और .
तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है। (८) मेरे आचार्य या उपाध्याय को अतिशायी ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो तो वे मुझे देखकर ऐसा न जान लेवें कि यह मायावी है।
इन आठ कारणों से वह आलोचना करने को तैयार होता है।
10. (a) For eight reasons a treacherous person, after committing treachery, does criticize (alochana) the act, do critical review (pratikraman), reprove (ninda) (before self), reproach (garha) (before the guru), refrain from doing the act (vyavritti), purge himself (vishuddhi), resolve not to repeat, or accept suitable atonement and penance. Those eight reasons are
(1) This life (ihalok) of a fraud is condemned. (People censure him and this causes a constant mental disturbance.) (2) Next life (upapat) of a fraud is condemned. (Even in the divine realm he reincarnates as a servant god.) (3) Next to next life (aajati) of a fraud is condemned. (From divine realm he descends to reincarnate as a cursed human being facing insult and dishonour.) (4) A treacherous person, who does not, criticize (alochana) the act, do critical review (pratikraman), reprove (ninda)
(before self), reproach (garha) (before the guru), refrain from doing the 卐 act (uyavritti), purge himself (vishuddhi), resolve not io repeat, or accept
suitable atonement and penance after committing treachery once, is not capable of accomplishing worship or spiritual practice. (5) A treacherous person, who does criticize (alochana) the act, do critical review (pratikraman), reprove (ninda) (before self), reproach (garha) (before the guru), refrain from doing the act (vyavritti), purge himself (vishuddhi), resolve not to repeat, or accept suitable atonement and penance after committing treachery once, is capable of accomplishing worship or
spiritual practice. (6) A treacherous person, who does not criticize 9 (alochana) the act, do critical review (pratikraman), reprove (ninda) 5
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9 (before self), reproach (garha) (before the guru), refrain from doing the t
act (vyavritti), purge himself (vishuddhi), resolve not to repeat, or accept suitable atonement and penance after committing treachery repeatedly, is not capable of accomplishing worship or spiritual practice. (7) A treacherous person, who does criticize (alochana) the act, do critical review (pratikraman), reprove (ninda) (before self), reproach (garha) (before the guru), refrain from doing the act (vyavritti), purge himself 551 (vishuddhi), resolve not to repeat, or accept suitable atonement and penance after committing treachery repeatedly, is capable of accomplishing worship or spiritual practice. (8) When my acharya and upadhyaya attains great knowledge and perception he will know that I was a fraud the moment he saw me. ___For these eight reasons he is ready to criticize (alochana) (etc.).
१०. (ख) मायी णं मायं कटु से जहाणामए अयागरेति वा तंबागरेति वा तउआगरेति वा + सीसागरेति वा रुप्पागरेति वा सुवण्णागरेति वा तिलागणीति वा तुसागणीति वा बुसागणीति वा
णलागणीति वा दलागणीति वा सोंडियालिंछाणि वा भंडियालिंछाणि वा गोलियालिंछाणी वा कुंभारावाएति वा कवेल्लुआवाएति वा इट्टावाएति वा जंतवाडचुल्लीति वा लोहारंबरिसाणि वा। ___ तत्ताणि समजोतिभूताणि किंसुकफुल्लसमाणाणि उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाइं- विणिम्मुयमाणाई, जालासहस्साइं पमुंचमाणाई-पमुंचमाणाई, इंगालसहस्साइं पविक्खिरमाणाईपविक्खिरमाणाई, अंतो-अंतो झियायंति, एवामेव मायी मायं कटु अंतो-अंतो झियाए।
१०. (ख) अकरणीय कार्य करने के बाद मायावी उसी प्रकार भीतर ही भीतर जलता है, जैस कि-लोहा गलाने की भट्टी, ताँबा गलाने की भट्टी, त्रपु (जस्ता) गलाने की भट्टी, शीशा गलाने की भट्टी, ज चाँदी गलाने की भट्टी, सोना गलाने की भट्टी, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, भूसे की अग्नि, नलाग्नि 5 (नरकट-पतले गाँठदार डंठल वाला पौधा, उसकी अग्नि), पत्तों की अग्नि, मुण्डिका का चूल्हा, भण्डिका (छोटी हांडी) का चूल्हा, गोलिका' (बड़ी हांडी) का चूल्हा, घड़ों का पंजावा (कुम्हार का आवा) ॥ खप्परों का पंजावा, ईंटों का पंजावा, गुड़ बनाने की भट्टी, लोहकार की भट्टी, तपती हुई, अग्निमय होती, हुई, किंशुक फूल के समान लाल होती हुई, सहस्रों उल्काओं और सहस्रों ज्वालाओं को छोड़ती हुई, सहस्रों अग्निकणों को फेंकती हुई, भीतर ही भीतर जलती है, उसी प्रकार मायावी माया करके स्व-पाप के भय व चिन्ता से भीतर ही भीतर जलता है। १. ये विभिन्न देशों में विभिन्न वस्तुओं को पकाने, राँधने आदि कार्य के लिए काम में आने वाले छोटे-बड़े चूल्हों के
नाम हैं। 1. These are the names of different sizes of furnaces used in different areas for
cooking and other works.
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10. (b) After committing a misdeed a treacherous person remains 4 seething inside like furnaces meant for melting iron, copper, zinc, lead,
silver and gold; sesame-fire, chaff-fire, hay-fire, bush-fire (nalagni) and __ leaf-fire; like different sizes of stoves (for different sizes of pots, such as mundika, bhandik and golika), potter's and brick-maker's kilns; like a jaggery hearth and a blacksmith's hearth. As these fires burn inside the furnaces with increasing temperature and glow, turning red like Kinshuk flower, throwing thousands of cinders, flames and sparks, in the same way a treacherous person remains seething inside after committing a sin for fear and worry of his sins.
१०. (ग) जंवि य णं अण्णे केइ वदंति तंपि य णं मायी जाणति अहमेसे अभिसंकिज्जामि अभिसंकिज्जामि। मायी णं मायं कटु अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा-णो महिडिएसु (णो महज्जुइएसु णो महाणुभागेसु णो महायसेसु णो महाबलेसु णो महासोक्खेसु) णो दूरंगतिएसु णो चिरद्वितिएसु। से णं तत्थ देवे भवति णो महिड्डिए (णो महज्जुइए णो महाणुभागे णो महायसे णो महाबले णो महासोक्खे णो दूरंगतिए) मओ चिरट्ठितिए। ___जावि य से तत्थ बाहिरभंतरिया परिसा भवति, सावि य णं णो आढाति णो परिजाणाति णो । महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अणुत्ता चेव __ अन्भुटुंति-मा बहुं देवे ! भासउ-भास।
से णं ततो देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव माणुस्सए __ भवे जाइं इमाइं कुलाइं भवंति, तं जहा-अंतकुलाणि वा पंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिद्दकुलाणि 5 वा भिक्खागकुलाणि वा किवणकुलाणि वा, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति। से णं तत्थ पुमे में भवति दुरूवे दुवण्णे दुग्गंधे दुरसे दुफासे अणिढे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे में अणिट्ठस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाएज्जवयणे पच्चायाते।
जावि य से सत्थ बाहिरभंतरिया परिसा भवति, सावि य णं णो आढाति णो परिजाणाति णो महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चेव # अब्भुटुंति -मा बहुं अज्जउत्तो ! भासउ-भासउ।
१०. (ग) यदि कोई अन्य पुरुष आपस में बात करते हैं तो मायावी समझता है कि 'ये मेरे विषय है में ही शंका कर रहे हैं !' कोई मायावी माया करके उसकी आलोचना या प्रतिक्रमण किये बिना ही
काल-मास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है, किन्तु वह महाऋद्धि वाले, महाधुति वाले, महा अनुभव विक्रियादि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्य वाले, के
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5 ऊँची गति वाले और दीर्घस्थिति वाले देवों में उत्पन्न नहीं होता। वह देव होता है, किन्तु महाऋद्धि वाला, 5
महाद्युति वाला, महानुभाव वाला, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्यवाला, ऊँची गति वाला और दीर्घ स्थिति वाला देव नहीं होता ।
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वहाँ देवलोक में उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी न उसको आदर देती है, न उसे स्वामी के रूप में मानती है और न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं 'देव ! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।'
पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर देवलोक से च्युत होकर यहाँ मनुष्यलोक मनुष्य भव में जो अन्तकुल, या प्रान्तकुल, या तुच्छकुल, या दरिद्रकुल, या भिक्षुककुल, या कृपणकुल हैं, या इसी प्रकार के अन्य हीन कुल हैं, उनमें मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है।
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वहाँ वह कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध युक्त, अनिष्ट रस और कठोर स्पर्शवाला पुरुष होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न गमने योग्य होता है। वह हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर अरुचिकरस्वर और अनादेय वचनवाला होता है।
वहाँ उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका न आदर करती है, न उसे 5 स्वामी के रूप में समझती है, न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। जब वह बोलने के लिए खड़ा होता है, तब चार-पाँच मनुष्य बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं'आर्यपुत्र ! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।'
10. (c) When some other persons talk among themselves, the fraud thinks that they were talking about him. After committing a misdeed when a treacherous person dies without self criticism (etc.) before death and reincarnates in the divine realm, he is not born among the gods endowed with great riddhi (opulence or special powers), dyuti (radiance or majesty ), anubhaava (powers of vikriya etc.), yash (fame ), bal फ (strength), sukha (bliss), status and long life span. He becomes a god but not a god endowed with great riddhi (opulence or special powers), dyuti 5 (radiance or majesty ), anubhaava (powers of vikriya etc.), yash (fame ), 5 5 bal (strength), sukha (bliss), status and long life
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Again at the conclusion of his life span, birth and state as a god he descends from the divine realm and is born in this land of humans as a
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There, in the external and internal divine assemblies, he is neither 卐 respected nor recognized as master or invited to sit on a thrown meant for great persons. When he starts his speech four-five gods stand up 卐 without being asked and comment — “O god ! Do not utter much ! Do not speak much !”
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फफफफफफफफफफफफफफफफ
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5 human being in any of these lowly clans-ant-kul, prant-kul, tuchchhakul, daridrakul, bhikshuk-kul, or kripan-kul.
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There he is a man with bad appearance, bad complexion, bad smell, 5 bad taste and rough touch. He is not adorable, not lovable, not beautiful, and not worth cherishing. He is with a voice that is bad, humble, not adorable, not lovable, not beautiful, and not worth cherishing.
5
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There, in the external and internal assemblies, he is neither 5 respected nor recognized as master or invited to sit on a thrown meant for great persons. When he starts his speech four-five men stand up, without being asked, and comment-"O Arya-born! Do not utter much! Do not speak much!"
१०. (घ) मायी णं मायं कटु आलोचित - पडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहा - महिड्डिएसु ( महज्जुइएसु महाणुभागेसु महायसेसु महाबलेसु महासोक्खेसु दूरगंतिएसु) चिरट्ठितिए । से णं तत्थ देवे भवति महिड्डिए जाव चिरट्ठितिए । से णं तत्थ देवे भवति महिडिए जाव चिरट्ठितिए हारविराइयवच्छे कडक - - तुडित - थंभित - भुए अंगद - कुंडल - मट्ठ - गंडतल - कण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणे विचित्तवत्थाभरणे विचित्तमालामउली कल्लाणग-पवर - वत्थ - परिहिते कल्लाणग - 'पवर - गंध - मल्लाणुलेवणधरे' भासुरबोंदी पलंबवणमालधरे दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रसेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघातेणं दिव्वेणं ठाणं दिव्वा इड्डीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे महयाहत - णट्ट - गीत - वादित - तंती- तुडित - घणमुंइंग - पडुप्पवादित - रवेणं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरइ ।
तल-ताल
जावि य से तत्थ बाहिरब्धंतरिया परिसा भवति, सावि य णं आढाइ परिजानाति महरिहेणं आसेणणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अणुत्ता चेव अब्भुतिबहुं देवे ! भास - भासउ ।
से णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं (भवक्खएणं ठितिक्खएणं अनंतरं चयं ) चइत्ता इहेव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति - अड्डाई (दित्ताइं वित्तिण- विउल - भवण-सयणासणजाण - वाहणाई 'बहुधण - बहुजायरूप - रययाई' आओगप ओग - संपउत्ताइं विच्छड्डिय - पउर - भत्तपाणाई बहुदासी - दास - गो - महिस - गवेलय - प्पभूयाई) बहुजणरूप अपरिभूताइं, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति । से णं तत्थ पुमे भवति सुरूवे सुवण्णे सुगंधे सुरसे सुफासे इट्ठे कंते (पिए मणुणे) मणामे अहीणस्सरे ( अदीणस्सरे इट्ठस्सरे कंतस्सरे पियस्सरे मणुण्णस्सरे) मणामस्सरे आदेज्जवयणे पच्चायाते ।
अष्टम स्थान
(361)
****மிமிமிமிததமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிததமிழ********
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5 होता है, वह भुजाओं में कड़े, तोड़े और अंगद ( बाजूबन्द) पहने हुए रहता है। उसके कानों में कपोल
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जावि य से तत्थ बाहिरब्भंतरिया परिसा भवति, सावि य णं आढाति (परिजानाति महरिहेणं 5 आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चेव अब्भुट्ठति ) - फ बहुं अज्जउत्ते ! भासउ - भासउ ।
卐
१०. (घ) मायावी माया करके उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, कालमास में काल कर किसी एक 5 देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। वह महाऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्य वाले, ऊँची गति वाले और दीर्घ स्थिति वाले देवों में उत्पन्न
होता है।
वह यावत् ऊँची गतिवाला और दीर्घ स्थिति वाला देव होता है। उसका वक्षःस्थल हारों से शोभित
फ्र
तक स्पर्श करने वाले चंचल कुण्डल होते हैं। वह विचित्र वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं और सेहरों वाला
धारण किये हुए होता है। उसका शरीर तेजस्वी होता है, वह लम्बी लटकती हुई मालाओं को धारण
माँगलिक एवं उत्तम वस्त्रों को पहने हुए होता है, वह माँगलिक, श्रेष्ठ, सुगन्धित पुष्प और विलेपन को 5
किये रहता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात ( शरीर की बनावट),
दिव्य संस्थान (शरीर की आकृति) और दिव्य ऋद्धि से युक्त होता है। वह दिव्यद्युति, दिव्यप्रभा, 5 दिव्यकान्ति दिव्य अर्चि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित करता है, प्रभासित
उसकी वहाँ जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी
करता है, वह नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादकों के द्वारा जोर से बजाये गये वादित्र, तंत्र, ताल, त्रुटित, फ घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगों को भोगता हुआ रहता है।
के रूप में मानती है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं- 'देव ! और अधिक बोलिए और अधिक बोलिए।'
पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर देवलोक से च्युत होकर यहाँ मनुष्यलोक
सुवर्ण और बहु चाँदी वाले, आयोग और प्रयोग ( लेनदेन) में संप्रयुक्त, प्रचुर भक्त-पान का वितरण
फ करने वाले, अनेक दासी दास, गाय-भैंस, भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित, ऐसे उच्च कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है।
में मनुष्यभव में सम्पन्न, दीप्त, विस्तीर्ण और विपुल शयन, आसन, यान और वाहन वाले, बहुधन, बहु
वहाँ वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस और सुस्पर्श वाला होता है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ
5 और मन को भाने वाला होता है। वह उच्च स्वर, प्रखर स्वर, कान्त स्वर, प्रिय स्वर, मनोज्ञ स्वर, रुचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है।
वहाँ पर उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी के रूप में मानती है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। वह
स्थानांगसूत्र (२)
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जब भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच मनुष्य बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं-9 'आर्यपुत्र ! और अधिक बोलिए और अधिक बोलिए।'
10. (d) After committing a misdeed when a treacherous person dies after doing self criticism (etc.) before death and reincarnates in the divine realm, he is born among the gods endowed with great riddhi (opulence or special powers), dyuti (radiance or majesty), anubhaava (powers of vikriya etc.), yash (fame), bal (strength), sukha (bliss), status and long life span.
There he becomes a god endowed with great riddhi (opulence or special powers), dyuti (radiance or majesty), anubhaava (powers of vikriya etc.), yash (fame), bal (strength), sukha (bliss), status and long si life span. His chest is adorned with necklaces and arms with bangles, 4 bracelets and armlets. Earrings dangle from his ears and touch his cheeks. He is dressed in exclusive, auspicious and excellent garb adorned with unique garlands and danglers. He is embellished with auspicious and fragrant flowers and lotions. His body is radiant with long dangling bead-strings. He is endowed with divine appearance, smell, taste, touch body constitution, body structure and opulence. He illuminates and brightens all the ten directions with his divine glow (dyuti); divine shine (prabha), divine glow (kanti), divine brilliance (archi); divine aura (tej) si and divine orb (leshya). He lives enjoying divine pleasures in accompaniment of dances, dramas, songs and enchanting sounds of a variety of musical instruments (vaditra, tantra, trutit, ghan and it mridang) played by expert musicians.
There, in the external and internal divine assemblies, he is also respected and recognized as master as well as invited to sit on a thrown meant for great persons. When he starts his speech four-five gods 5 stand up without being asked and comment—“O god ! Utter more! 41 Speak more !"
Again at the conclusion of his life span, birth and state as a god hes descends from the divine realm and is born in this land of humans as a 45 human being in any of the upper class clans endowed with great affluence and glory; abundant furniture, carriages and vehicles; heaps of wealth, gold and silver; and flourishing trade and business. These families also 15 donate large quantities of food and drinks, maintain large contingents of slaves, servants, and cattle, and are unsurmountable by many.
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There he is a man with good appearance, good complexion, good smell, good taste and smooth touch. He is adorable, lovable, beautiful, 5 and worth cherishing. He is with a voice that is loud, sharp, adorable, lovable, beautiful, and worth cherishing.
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There, in the external and internal assemblies, he is also respected and recognized as master as well as invited to sit on a thrown meant for great persons. When he starts his speech four-five gods stand without being asked, and comment - “O Arya-born ! Utter more ! Speak more !”
up,
विवेचन - वृत्तिकार आचार्य अभदेव सूरि ने निम्न शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है
आभ्यन्तर परिषद् - पुत्र, कलत्र व स्थानीय देव - देवियाँ । बाह्य परिषद्- नौकर-चाकर सेवा करने वाले। आयुक्षय- आयुष्य कर्म के पुद्गलों का क्षय । भवक्षय- वर्तमान भव (पर्याय) का विनाश। स्थितिक्षय - आयुःस्थिति के बन्ध का क्षय । अन्तकुल- म्लेच्छ, छिंपक आदि कुल । प्रान्त कुल - चाण्डाल आदि कुल । तुच्छ कुल-छोटे परिवार व तुच्छ विचार वाले कुल । दरिद्र कुल-निर्धन कुल । भिक्खागकुल- भिक्षा माँगने वाले कुल । कृपणकुल- दान लेकर आजीविका चलाने वाले कु
आलोचना करने से निम्न आठ गुण निष्पन्न होते हैं
( १ ) लघुता - मन हल्का हो जाता है । (२) प्रसन्नता अनुभव करता है । (३) आत्म - पर नियंत्रिता - अपने व दूसरों पर अनुशासन करने की क्षमता आती है। (४) आर्जव - सरलता आती है । (५) शोधिदोषों को परिष्कार होता है। (६) दुष्कर करण - दुष्कर कार्य करने की सामर्थ्य बढ़ती है। (७) आदरजनता में सन्मान बढ़ता है । (८) निःशल्यता - मन की गाँठे खुलकर ग्रन्थि भेद हो जाता है। (वृत्ति. पत्र ३९७ - ३९९)
Elaboration-Abhayadev Suri, the commentator (Vritti), has interpreted the relevant technical terms as follows
Abhyantar parishad (internal assembly)-this includes sons, relatives and local gods and goddesses. Bahya parishad (external 5 assembly) — this includes subordinates and servants. Ayu-kshaya - destruction of life span determining karma particles. Bhava-kshayatermination of the present birth. Sthiti-kshaya-destruction of the karma determining the duration in present state. Ant-kul-low castes including Mlechchha and Chhimpak. Prant-kul-low castes including Chandal. Tuchchha kul-low castes with rustic habits. Daridra kuldestitute. Bhikshak kul-clans subsisting on begging. Kripan kul-clans subsisting on charity.
Following eight qualities are acquired by self-criticism
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(1) Laghuta-lightness of the mind. (2) Prasannata-experience of 45 joy. (3) Atma-par niyantrata--capacity to discipline self and others.
(4) Arjava—simplicity. (5) Shodhi-correction of faults. (6) Dushkar karan-capacity to accomplish difficult tasks is enhanced. (7) .ladarrespect among people increases. (8) Nihshalyata-inner knots are shattered and psychological complexes are removed. (Vritti, leaves 397-399) संवर-असंवर-पद SAMVAR-ASAMVAR-PAD
(SEGMENT OF BLOCKAGE AND NON-BLOCKAGE OF INFLOW OF KARMAS) ११. अट्टविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियसंवरे, (चक्खिंदियसंवरे, पाणिंदियसंवरे, जिभिंदियसंवरे), फासिंदियसंवरे, मणसंवरे, वइसंवरे, कायसंवरे। १२. अट्ठविहे असंवरे पण्णत्ते, ॐ तं जहा-सोतिंदियअसंवरे, चक्खिंदियअसंवरे, घाणिंदिय-असंवरे, जिभिंदियअसंवरे,
फासिंदियअसंवरे, मणअसंवरे, वइअसंवरे, कायअसंवरे। . + ११. संवर आठ प्रकार का है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-संवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-संवर, (३) घ्राणेन्द्रियसंवर,
(४) रसनेन्द्रिय-संवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-संवर, (६) मनः-संवर, (७) वचन-संवर, (८) काय-संवर। म १२. असंवर के आठ प्रकार है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, (३) घ्राणेन्द्रियम असंवर, (४) रसनेन्द्रिय-असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-असंवर, (६) मनःअसंवर, (७) वचन-असंवर, (८) काय-असंवर।
11. Samvar (blockage of inflow of karmas or abstaining from indulgence in subjects of sense organs) is of eight kinds(1) shrotendriya samvar, (2) chakshurindriya samvar, (3) ghranendriya samvar, (4) rasanendriya samvar, (5) sparshendriya samvar, (6) manah samvar (related to mind), (7) vachan samvar (related to speech) and (8) kaaya samvar (related to body). 12. Asamvar (inflow of karmas
or indulgence in subjects of sense organs) is of eight kinds卐 (1) shrotendriya asamvar, (2) chakshurindriya asamvar, $ (3) ghranendriya asamvar, (4) rasanendriya asamvar, (5) sparshendriya
asamvar, (6) manah asamvar (related to mind), (7) vachan asamvar (related to speech) and (8) kaaya asamvar (related to body). स्पर्श-पद SPARSH-PAD (SEGMENT OF TOUCH)
१३. अट्ठ फासा पण्णत्ता, तं जहा-कक्खडे, मउए, गरुए, लहुए, सीते, उसिणे, गिद्धे, लुक्खे।
१३. स्पर्श आठ प्रकार का है-(१) कर्कश, (२) मृदु, (३) गुरु, (४) लघु, (५) शीत, (६) उष्ण, म (७) स्निग्ध, (८) रूक्ष।
13. Sparsh (touch) is of seven kinds-(1) Karkash sparsh (hard touch fi (2) Mridu sparsh (soft touch), (3) Guru sparsh (heavy touch), (4) Laghu
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sparsh (light touch ), ( 5 ) Sheet sparsh (cold touch ), ( 6 ) Ushna sparsh ५
( hot touch ), ( 7 ) Snigdha sparsh (smooth touch) and (7) Ruksha sparsh f (coarse touch). 卐
5 लोकस्थिति-पद LOK-STHITI-PAD (SEGMENT OF STRUCTURE OF UNIVERSE)
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卐 १४. अट्ठविधा लोगट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा- आगसपतिट्ठिते वाते, वातपतिट्ठिते उदही, (उदधिपतिट्ठिता पुढवी, पुढविपतिट्ठिता तसा थावरा पाणा, अजीवा जीवपतिट्ठिता) जीवा कम्मपतिट्ठिता, अजीवा जीवसंगहीता, जीवा कम्मसंगहीता ।
१४. लोकस्थिति आठ प्रकार की है - ( १ ) वायु (तनुवात) आकाश पर प्रतिष्ठित है । (२) समुद्र (घनोदधि) वायु पर प्रतिष्ठित है । (३) पृथ्वी समुद्र पर प्रतिष्ठित है । (४) त्रस - स्थावर प्राणी पृथ्वी पर 卐 प्रतिष्ठित हैं । (५) अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। (६) जीव कर्म पर प्रतिष्ठित हैं। (७) अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। (८) जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं।
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卐 14. Lok-sthiti (structure of universe) is eight tiered - ( 1 ) vayu (air) is pratishthit (installed) on akash (space), (2) udadhi or ghanodadhi (dense 5 water) is pratishthit (installed) on vayu, (3) prithvi ( earth) is pratishthit 5 ( installed) on ghanodadhi, (4) sthavar and tras pranis ( immobile and mobile beings) are pratishthit (installed) on ( live on ) prithvi, ( 5 ) ajiva
卐
फ्र
(matter) is pratishthit (installed) on jiva (life), (6) jiva ( living being) is
फ्र
5 pratishthit (installed on ) karma ( 7 ) ajivas are accumulated (samgrahit) फ्र by jiva and (8) jivas are bonded (samgrihit) by karma.
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गणिसंपदा - पद GANISAMPAD-PAD (SEGMENT OF WEALTH OF A GANI)
卐
फ्र १५. अट्ठविहा गणिसंपया पण्णत्ता, तं जहा - आचारसंपया, सुयसंपया, सरीरसंपया, वयणसंपया, वायणासंपया, मतिसंपया, पओगसंपया, संगहपरिण्णा णाम अट्ठमा ।
१५. गणी (आचार्य) की सम्पदा आठ प्रकार की है - ( १ ) आचार - सम्पदा - संयम की समृद्धि, 5 (२) श्रुत - सम्पदा - श्रुतज्ञान की समृद्धि, (३) शरीर-सम्पदा - प्रभावक शरीर - सौन्दर्य, (४) वचन - सम्पदावचन- कुशलता, (५) वाचना - सम्पदा - अध्यापन - निपुणता, (६) मति - सम्पदा-हु - बुद्धि की कुशलता, 5 (७) प्रयोग - सम्पदा - वाद -प्रवीणता, (८) संग्रह - परिज्ञा-संघ - व्यवस्था की निपुणता ।
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15. Gani sampada (wealth of a gani / acharya) is of eight kinds— 5 (1) Achar sampada -- wealth of ascetic-discipline, (2) Shrut sampada - फ्र wealth of knowledge of scriptures, (3) Sharira sampada -- wealth of 5 physical qualities like impressive personality, (4) Vachan sampadawealth of speech like lucidity, (5) Vaachana sampada-expertise in teaching, (6) Mati sampada-wealth of wisdom, (7) Prayog sampada
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
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4 expertise of debate and (8) Samgraha parijna-expertise of managing 卐 sangha (religious organization). ॐ महानिधि-पद MAHANIDHI-PAD (SEGMENT OF GREAT WEALTH)
१६. एगमेगे णं महाणिही अट्टचक्कवालपतिवाणे अट्ठट्ठजोयणाई उठं उच्चत्तेणं पण्णत्ते। ज १६. चक्रवर्ती की प्रत्येक महानिधि आठ-आठ पहियों पर आधारित है और आठ-आठ योजन
ऊँची है। fi 16. Each mahanidhi (great chest of treasure) rests on eight wheels and is eight Yojan in height.
विवेचन-ये महानिधान मंजूषा के आकार के एवं प्रत्येक आठ योजन ऊँचा, नो योजन चौड़ा और बारह योजन लम्बा होता है। प्रत्येक के आठ-आठ पहिये होते हैं। तथा एक हजार यक्ष उनकी
सेवा-सँभाल करते हैं। (हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ ५०८। विस्तृत वर्णन देखें, दशाश्रुतस्कन्ध दशा ४ तथा 5 प्रवचन सारोद्धार गाथा ५४०-४६) ।
Elaboration–The said great wealth is in the form of gigantic chests eight Yojan tall, nine Yojan broad, and twelve Yojan long. Each one rests fon eight wheels and is maintained and guarded by one thousand fi Yakshas. (Hindi Tika, part-2, p. 508; for more details see Dashashrutskandha, fi dasha-4 and Pravachanasaroddhar verses 540-46) fi wafa-46 SAMITI-PAD (SEGMENT OF SELF REGULATION)
१७. अट्ठ समितीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, , आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणियासमिती, मणसमिती, वइसमिती, कायसमिती।
१७. समितियाँ आठ हैं-(१) ईर्यासमिति, (२) भाषासमिति, (३) एषणासमिति, (४) आदान# भाण्ड-अमत्र-निक्षेपणासमिति, (५) उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापनासमिति, । (६) मनःसमिति, (७) वचनसमिति, (८) कायसमिति।
17. Samitis (self regulations) are of eight kinds—(1) Irya samitiproper care in movement, (2) bhasha samiti-proper care in speaking, f (3) eshana samitiproper care in seeking and collecting alms, (4) adanF bhand-amatra-nikshepana samiti-proper care in taking and keeping
bowls for food etc., (5) uchchar-prasravan-shleshm-jalla-singhad
prasthapana samiti-proper care in disposal of all kinds of excreta (stool, 6 urine, phlegm, and body and nose scum) at a spot free of living beings,
(6) manah samiti-proper care in thinking, (7) vachan samiti-proper h care in speech and (8)kaaya samiti-proper care in activities of body.
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45岁岁男 %%%% % % %%% %%% %%%% %%% %%%%% %%% आलोचना-पद ALOCHANA-PAD (SEGMENT OF ATONEMENT)
१८. अद्वहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, ॐ आधारवं, ववहारवं ओवीलए. पकुव्बए, अपरिस्साई णिज्जावए, अवायदंसी।
१८. आठ स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अनगार आलोचना (दूसरों को आलोचना-प्रायश्चित्त) देने के । म योग्य होता है-(१) आचारवान्-जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों से सम्पन्न हो। - (२) आधारवान-जो आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोचना किये जाने वाले समस्त अतिचारों को 卐 जानने वाला हो। (३) व्यवहारवान्-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत इन पाँच व्यवहारों का ज्ञाता है म हो। (४) अपव्रीडक-आलोचना करने वाला व्यक्ति. लाज या संकोच से मक्त होकर यथार्थ आलोचना क ॐ सके, ऐसा साहस उत्पन्न करने वाला हो। (५) प्रकारी-आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला हो। म (६) अपरिश्रावी-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो।
(७) निर्यापक-बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके, ऐसा सहयोग देने वाला हो। (८) अपायदर्शी+ प्रायश्चित्त-भंग से तथा यथार्थ आलोचना न करने से होने वाले दोषों को दिखाने वाला हो।
___18. An anagar (ascetic) endowed with eight sthaans (qualities) is qualified to prescribe alochana (criticism and atonement) to others, (1) Aacharvan-who is endowed with five limbs of right conduct, namely knowledge, perception/faith, conduct, austerities and potency of perseverance. (2) Aadhaarvan-who knows about all the transgressions requiring atonement by the one prepared for atonement. (3) Vyavaharvan-who has knowledge of the five kinds of vyavahar
(behaviour or conduct), namely Agam, Shrut, Ajna, Dharana and jeet. 4i (4) Apavridak-who is capable of imparting courage to rise above shyness
and hesitation in order to perform atonement properly. (5) Prakari-who can formalize purification after atonement is concluded. (6) Aprishraavi
who does not reveal the faults of the defaulter to others. (7) Niryaapakॐ who can cooperate even during extended atonement. (8) Apaayadarshi
who can indicate the consequences of breach in and improper performance of prescribed atonement.
१९. अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोइत्तए, तं जहा-जातिसंपण्णे, ॐ कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, सणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, खते, दंते।
१९. आठ स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की (स्वयं) आलोचना करने के लिए ॐ समर्थ होता है-(१) जातिसम्पन्न, (२) कुलसम्पन्न, (३) विनयसम्पन्न, (४) ज्ञानसम्पन्न, (५) दर्शनसम्पन्न,
(६) चारित्रसम्पन्न, (७) क्षान्त (क्षमाशील), (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी)।
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19. An anagar (ascetic) endowed with eight sthaans (qualities) is himself qualified to perform alochana (criticism and atonement) for his own faults-(1) Jati sampanna (of good maternal lineage), (2) Kula sampanna (of good paternal lineage), (3) Vinaya sampanna (endowed with modesty), (4) Jnana sampanna (endowed with knowledge), (5) Darshan
sampanna (endowed with perception/faith), (6) Chaaritra sampanna H (endowed with right conduct), (7) Kshant (endowed with forgiveness) and 4 (8) Daant (endowed with absolute control over sense organs).
गगनगमागमागागागागागागागागा मानामा
। प्रायश्चित्त-पद PRAYASHCHIT-PAD (SEGMENT OF ATONEMENT)
२०. अट्ठविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे।
२०. प्रायश्चित्त आठ प्रकार का है-(१) आलोचना के योग्य, (२) प्रतिक्रमण के योग्य, (३) आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य, (४) विवेक के योग्य, (५) व्युत्सर्ग के योग्य, (६) तप के योग्य, (७) छेद के योग्य, (८) मूल के योग्य। (आगे दशवें स्थान में १० विध प्रायश्चित्त का वर्णन है)
20. Prayashchit (atonement) is of eight kinds—(1) requiring alochana (criticism), (2) requiring pratikraman (critical review), (3) tadubhaya 6 (requiring both alochana and pratikraman) (4) requiring vivek
(sagacity), (5) requiring vyutsarg (abstainment), (6) requiring tapi (austerities), (7) requiring chhed (termination of ascetic state) and (8) requiring mool (reinitiation).
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मदस्थान-पद MAD-STHAAN-PAD
(SEGMENT OF REASONS OF CONCEIT) २१. अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-जातिमए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुतमए, लाभमए, इस्सरियमए।
२१. मद (अहंकार) के स्थान (कारण) आठ हैं-(१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, । (४) रूपमद, (५) तपोमद, (६) श्रुतमद, (७) लाभमद, (८) ऐश्वर्यमद। i 21. There are eight sthaan (reasons) for mad (conceit)–(1) Jati mad
(conceit of maternal lineage), (2) kula mad (conceit of paternal lineage), (3) bal mad (conceit of strength), (4) rupa mad (conceit of appearance or beauty), (5) tapo mad (conceit of austerities), (6) Shrut mad (conceit of scriptural knowledge), (7) laabh mad (conceit of gains) and (8) aishvarya mad (conceit of wealth).
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अष्टम स्थान
(369)
Eighth Sthaan
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ॐ अक्रियावादि-पद AKRIYAVADI-PAD (SEGMENT OF AKRIYAVADI)
२२. अट्ठ अकिरियावाई पण्णत्ता, तं जहा-एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, णिम्मितवाई, + सायवाई, समुच्छेदवाई, णितावाई, ण संतिपरलोगवाई। ॐ २२. अक्रियावादी आठ प्रकार के हैं-(१) एकवादी-एक ही तत्त्व को मानने वाले। (२) अनेकवादी
अनेक तत्त्वों को मानने वाले। (३) मितवादी-जीवों को परिमित या जीव को अंगुष्ट प्रमाण मानने वाले। 4 (४) निर्मितवादी-ईश्वर को सृष्टि का निर्माता मानने वाले। (५) सातवादी-सुख से ही सुख की प्राप्ति मानने ॥ 卐 वाले। (६) समुच्छेदवादी-क्षणिकवादी, वस्तु को सर्वथा क्षण विनाशी मानने वाले। (७) नित्यवादी-वस्तु को
सर्वथा नित्य मानने वाले। (८) असत्-परलोकवादी-मोक्ष एवं परलोक को नहीं मानने वाले। (विस्तार के 卐 लिए देखें-ठाणं पृष्ठ ८३०-३४। हिन्दी टीका ,भाग २, पृष्ठ ५१६)
22. Akriyavadis (sects of non-doers) are of seven kinds—(1) Ekavadiwho believe in singularity of fundamentals, (2) Anekavadi-who believe in i plurality of fundamentals, (3) Mitavadi—who believe in limited number of
souls or thumb-size of soul, (4) Nirmit-vadi—who believe in a creator god, (5) Saat-vadi---who believe in acquisition of bliss through pleasure, (6) Samuchchhed-vadi—who believe in absolutely ephemeral nature of things, (7) Nitya-vadi-who believe in absolute eternality of things and 8) Asatparlok-vadi—who do not believe in next life and liberation. (for more details see Thanam, pp. 830-34 and Hindi Tika, part-2, p. 516)
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महानिमित्त-पद MAHANIMITT-PAD
(SEGMENT OF COMPENDIUMS OF AUGURY) २३. अट्टविहे महाणिमित्ते पण्णत्ते, तं जहा-भोमे, उप्पाते, सुविणे, अंतलिक्खे, अंगे, सरे, लक्खणे, वंजणे।
२३. आठ प्रकार के शुभाशुभ-सूचक महानिमित्त हैं-भौम, उत्पात, स्वप्न, आन्तरिक्ष, अंग, स्वर, ॐ लक्षण, व्यंजन।
23. There are eight mahanimitt (compendiums of augury)if (1) Bhaum (based on indications derived from earth), (2) Utpaat (based
on indications derived from natural calamities), (3) Svapna (based on indications derived from dreams), (4) Aantariksh (based on indications derived from celestial happenings), (5) Anga (based on indications derived from activity in parts of human body), (6) Svar (based on
indications derived from voice tone and breathing), (7) Lakshan (based 卐 on indications derived from marks on the body) and (8) Vyanjan (based $ on indications derived from spots on the body).
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स्थानांगसूत्र (२)
(370)
Sthaananga Sutra (2)
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फ़ विवेचन-जिन कारणों व लक्षणों से भूत, भविष्य तथा वर्तमान में होने वाली शुभाशुभ घटनाओं का
ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसे निमित्त शास्त्र कहते हैं। उनका वर्णन करने वाले महाग्रन्थों को महानिमित्त ॐ कहा जाता है। उनके आठ भेद यहाँ बतायें हैं। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है-(१) भौम-भूमि की
स्निग्धता-रूक्षता भूकम्प आदि से सम्बन्धित शुभाशुभ विषयों को जानना। (२) उत्पात-आकस्मिक घटनाओं जैसे उल्कापात रुधिर-वर्षा आदि से शुभाशुभ फल बताना। (३) स्वप्न-स्वप्नों के द्वारा भावी शुभाशुभ जानना। (४) आन्तरिक्ष-सूर्य-चन्द्र-ग्रह आदि आकाशीय घटनाओं को देखने से शुभाशुभ
जानना। (५) अङ्ग-शरीर के अंगों की स्फुरणा देखकर शुभाशुभ जानना। (६) स्वर-षड्ज आदि सात ॐ स्वर अथवा ईडा-पिंगला-सुषुम्ना तीन स्वर या पक्षियों के स्वर को सुनकर शुभाशुभ जानना। + (७) लक्षण-स्त्री-पुरुषों के शरीर-गत चक्र आदि लक्षणों को देखकर शुभाशुभ जानना। (८) व्यंजन
तिल, मसा, रेखा आदि देखकर शुभाशुभ जानना। लक्षण शरीर के साथ उत्पन्न होते हैं, व्यंजन बाद में। ज्ञाता सूत्र आदि में अष्टांग महा निमित्त वेत्ताओं का वर्णन आता है। साधारण मनुष्य के ३२ लक्षण तथा
तीर्थंकर चक्रवर्ती के १००८ शुभ लक्षणों का वर्णन इसी शास्त्र का विषय है। 41 Elaboration-English explanation of terms already covered. Details 4
about augurs is also available in Jnata Sutra and other scriptures. The 32 auspicious signs of a common man and 1008 auspicious signs of a Tirthankar and Chakravarti are also subjects discussed in books of augury. वचनविभक्ति-पद VACHAN-VIBHAKTI-PAD
(SEGMENT OF INFLECTIONS OF WORDS) २४. अट्ठविधा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहा
णिद्देसे पढमा होती, बितिया उवएसणे। ततिया करणम्मि कता, चउत्थी संपदाणवे॥१॥ पंचमी य अवादाणे, छट्ठी सस्सामिवादणे। सत्तमी सण्णिहाणत्थे, अट्ठमी आमंतणी भवे॥२॥ तत्थ पढमा विभत्ती, णिद्देसे-सो इमो अहं वत्ति। बितिया उण उवएसे-भण 'कुण व' इमं व तं वत्ति॥३॥ ततिया करणम्मि कया-णीतं व कतं व तेण व मए व। हंदि णमो साहाए, हवति चउत्थी पदाणंमि॥४॥ अवणे गिण्हस तत्तो, इत्तोत्ति वा पंचमी अवादाणे। छट्ठी तस्स इमस्स व, गतस्स वा सामि-संबंधे॥५॥
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हवइ पुण सत्तमी तमिमम्मि आहारकालभावे य।
आमंतणी भवे अट्ठमी उ जह हे जुवाण ! त्ति॥६॥ (संग्रहणी-गाथाएँ) । २४. वचन -विभक्तियाँ आठ प्रकार की है-(१) निर्देश (नमोच्चारण) में प्रथमा विभक्ति होती है।
(२) उपदेश क्रिया से व्याप्त कर्म के प्रतिपादन में द्वितीया विभक्ति होती है। (३) क्रिया के प्रति साधकतम ॐ कारण के प्रतिपादन में तृतीय या विभक्ति होती है। (४) सत्कार-पूर्वक दिये जाने वाले पात्र को देने, ' + नमस्कार आदि करने के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। (५) पृथक्ता, पतनादि अपादान बताने के अर्थ है
में पंचमी विभक्ति होती है। (६) स्वामित्त्व-प्रतिपादन करने के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होती है। फ़ (७) सन्निधान का आधार बताने के अर्थ में सप्तमी विभक्ति होती है। (८) किसी को सम्बोधन करने या ॥
पुकारने के अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है। ॐ (१) प्रथमा विभक्ति का चिह्न-वह, यह, मैं, आप, तुम आदि। (२) द्वितीया विभक्ति का चिह्न-को, म 卐 इसको कहो, उसे करो आदि। (३) तृतीया विभक्ति का चिह्न-से, द्वारा, जैसे- गाड़ी से या गाड़ी के द्वारा + आया, मेरे द्वारा किया गया आदि। (४) चतुर्थी विभक्ति का चिह्न-लिए, जैसे-गुरु के लिए नमस्कार ॐ आदि। (५) पंचमी विभक्ति का चिह्न-जैसे घर ले जाओ, यहाँ से ले जा आदि। (६) षष्ठी विभक्ति का + चिह्न-यह उसकी पस्तक है. वह इसकी है आदि। (७) सप्तमी विभक्ति का चिह्न-जैसे उस चौकी पर
पुस्तक, इस पर दीपक आदि। (८) अष्टमी विभक्ति का चिह्न-हे युवक, हे भगवान आदि। ki 24. There are eight kinds of vachan-vibhaktis (inflections or case+ endings) of words (in Sanskrit grammar)—(1) The first vachan-vibhakti
(case-ending) is used for indication (nirdesh) of the meaning of the word
including its gender and number (Nominative case). (2) The second 卐 vachan-vibhakti (case-ending) is used for advice (upadesh) (Accusative
case). (3) The third vachan-vibhakti (case-ending) is used for instrument (karan) (Instrumental case). (4) The fourth vachan-vibhakti (caseending) is used for recipient (sampradan) (Dative case). (5) The fifth vachan-vibhakti (case-ending) is used for the object from which something is separated (apadan) (Ablative case). (6) The sixth vachanvibhakti (case-ending) is used to indicate the relation of one's ownership (sva-svamitva) (Genitive case). (7) The seventh vachan-vibhakti (caseending) is used to mean the receptacle of something (sannidhan) (Vocative case). (8) The eighth vachan-vibhakti (case-ending) is used in addressing (amantran) someone.
(1) The example of the first vachan-vibhakti (case-ending) in the sense of indication (nirdesh) is so (he), imo (this person), or aham (I). (2) The example of the second vachan-vibhakti (case-ending) in the sense of advice (upadesh) is imam bhan (speak this), tam kunasu (do that). (3) The example of the third vachan-vibhakti (case-ending) in the sense
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f of instrument (karan) is tena bhaniyam (was spoken by him) or maye fi kayam (was done by me). (4) The example of the fourth vachan-vibhakti
(case-ending) in the sense of recipient (sampradan) is in the form of namah and svaha (obeisance and oblation). (5) The example of the fifth vachan-vibhakti (case-ending) in the sense of the object from which something is separated (apadan) is etto apanaya (take away from here) or ito ginha (snatch from him). (6) The example of the sixth vachan
vibhakti (case-ending) in the sense of indicating the relation of one's fi ownership (sva-svamitva) is tassa ime vastu (this thing belongs to him or
this person). (7) The example of the seventh vachan-vibhakti (caseending) in the sense of the receptacle of something (sannidhan) is imammi (that thing is in this). (8) The example of the eighth vachan
vibhakti (case-ending) in the sense of addressing (amantran) someone is fi Hay juvan (Oh ! young man).
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छद्मस्थ-केवलि-पद CHHADMASTH-KEVALI-PAD
(SEGMENT OF CHHADMASTH-KEVALI) २५. अट्ठ ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण याणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, (अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सई) गंधं, वातं। ___एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली (सव्वभावेणं, जाणइ पासइ, तं जहा
धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, सई), म गंध, वातं। ॐ २५. आठ पदार्थों को छद्मस्थ पुरुष सम्पूर्ण रूप से न तो जानता है और न देखता है। जैसेम (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीर-मुक्त जीव, (५) परमाणु * पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध, (८) वायु।
प्रत्यक्ष ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हन् जिन केवली इन आठ पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जानते-देखते के हैं, जैसे-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीर-मुक्त जीव, म (५) परमाणु पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध, (८) वायु।
25. A chhadmasth (a person in state of karmic bondage) person cannot see or know six things fully (all their possible modes)-(1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, (5) ultimate particle of matter, (6) shabd (sound), (7) Gandh (smell) and (8) Vauyu (air).
Arhat, Jina, and Kevali endowed with right knowledge and $ perception see and know fully (all their possible modes) these five
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Eighth Sthaan
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things-(1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia ___entity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul..
(5) ultimate particle of matter, (6) shabd (sound), (7) Gandh (smell) and 卐 (8) Vaayu (air). आयुर्वेद-सूत्र AYURVEDA-PAD (SEGMENT OF AYURVEDA)
२६. अट्ठविहे आउब्वेदे पण्णत्ते, तं जहा-कुमारभिच्चे, कायतिगिच्छा, सालाई, सल्लहत्ता, जंगोली, भूतविज्जा, खारतंते, रसायणे।
२६. आयुर्वेद आठ प्रकार का है। जैसे-(१) कुमारभृत्य-बाल-रोगों का चिकित्साशास्त्र। (२) कायचिकित्सा-शारीरिक रोगों का चिकित्साशास्त्र। (३) शालाक्य-शलाका (सलाई) के द्वारा ॐ नाक-कान आदि के रोगों की चिकित्सा का शास्त्र। (४) शल्यहत्था-शस्त्र द्वारा चीर-फाड़ करने का म शास्त्र। (५) जंगोली-सब प्रकार के विषों की चिकित्सा बताने वाला शास्त्र। (६) भूतविद्या-भूत, प्रेत,
यक्षादि से पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा का शास्त्र। (७) क्षारतन्त्र-वाजीकरण, वीर्य-वर्धक औषधियों का फ़ शास्त्र। (८) रसायन-पारद आदि धातु-रसों आदि के निर्माण एवं प्रयोग की विधि तथा उनके द्वार चिकित्सा विधि बताने वाला शास्त्र।
26. Ayurveda (Indian science of medicine and surgery) is of eight kinds-(1) Kaumarabhritya-The part of Ayurveda that deals with nursing, nutrition and cure of ailments of infants (Paediatrics). (2) Kayachikitsa—The part of Ayurveda that deals with the symptoms i and cure of diseases in general. (3) Shalakya (application of needle)The part of Ayurveda that deals with the cure of diseases of eyes, nose and other parts of the upper half of the body. (4) Shalyahatya—The part of Ayurveda that deals with the removal of thorns, cysts etc. or surgery. (5) Jangoli—The part of Ayurveda that deals with the cure for poisons or toxicity. (6) Bhoot-vidya-The part of Ayurveda that deals with warding off evil spirits and pacifying them. (7) Ksharatantra or Baajikaran--The part of Ayurveda that deals with the medicines and tonics for
maintaining and toning up sexual performance. (8) Rasayan-The part of Ayurveda that deals with extracting and formulating medicines from
metallic sources and their application. ॐ अग्रमहिषी-पद AGRAMAHISHI-PAD (SEGMENT OF CHIEF QUEENS)
२७. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अटुग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पउमा, सिवा, सची, ॐ अंजू, अणला, अच्छरा, णवमिया, रोहिणी। २८. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अगुग्गमहिसीओ # पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हा, कण्हराई, रामा, रामरक्खिता, वसू, वसुगुत्ता, वसुमित्ता, वसुंधरा। | स्थानांगसूत्र (२)
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# २९. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो अटुग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। ३०. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो अट्ठग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ।
२७. देवेन्द्र देवराज शक्र के आठ अग्रमहिषियाँ हैं। जैसे-(१) पद्मा, (२) शिवा, (३) शची, (४) अंजु, (५) अमला, (६) अप्सरा, (७) नवमिका, (८) रोहिणी। २८. देवेन्द्र देवराज ईशान के ॐ आठ अग्रमहिषियाँ हैं। जैसे-(१) कृष्णा, (२) कृष्णराजी, (३) रामा, (४) रामरक्षिता, (५) वसु,5 + (६) वसुगुप्ता, (७) वसुमित्रा, (८) वसुन्धरा। २९. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोम
के आठ अग्रमहिषियाँ हैं। ३०. देवन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज वैश्रमण के आठ अग्रमहिषियाँ है।
27. Shakra Devendra, the king of Gods has eight agramahishis (chief queens)-(1) Padmaa, (2) Shiva, (3) Shachi, (4) Anju, (5) Amalaa, (6) Apsara, (7) Navamika and (8) Rohini. 28. Ishan Devendra, the king of Gods has eight agramahishis (chief queens)-(1) Krishnaa, (2) Krishnaraji, (3) Rama, (4) Ramarakshita, (5) Vasu, (6) Vasugupta, (7) Vasumitra and (8) Vasundhara. 29. Soma, the lok-paal of Shakra Devendra, the king of gods has eight agramahishis (chief queens). 30. Vaishraman, the lok-paal of Ishan Devendra, the king of gods has eight agramahishis (chief queens). महाग्रह-पद MAHAGRAHA-PAD (SEGMENT OF GREAT PLANETS)
३१. अट्ठ महग्गहा पण्णत्ता, तं जहा-चंदे, सूरे, सुक्के, बुहे, बहस्सती, अंगारे, सणिंचरे, केऊ।
३१. आठ महाग्रह हैं। जैसे-(१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) शुक्र, (४) बुध, (५) बृहस्पति, (६) अंगार (मंगल), (७) शनैश्चर, (८) केतु। (ग्रहों का विस्तृत वर्णन, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में है)
31. Their are eight Mahagraha (astrological planets) (1) Chandra (the moon), (2) Surya (the sun), (3) Shukra (Venus), (4) Budh (Mercury), (5) Brihaspati (Jupiter), (6) Angarak or Mangal (Mars), (7) Shanishchar (Saturn) and (8) Ketu. तृण वनस्पति-पद TRINA-VANASPATI-PAD (SEGMENT OF GRAMINEOUS PLANTS)
३२. अद्वविधा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा-मूले, कंदे, खंधे, तया, साले, पवाले, पत्ते, पुप्फे।
३२. तृण वनस्पतिकायिक जीव आठ प्रकार के हैं। जैसे-(१) मूल, (२) कन्द, (३) स्कन्ध, (४) त्वचा, (५) शाखा, (६) प्रवाल (कोंपल), (७) पत्र, (८) पुष्प।
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3 2. Gramineous plant-bodied beings are of eight kinds-(1) mool (root), (2) kand (bulbuous root), (3) skandh (trunk), (4) tvacha (bark), (5) shakha (branch), (6) praval (sprout), (7) patra (leaf) and (8) pushp (flower).
संयम-असंयम-पद SAMYAM-ASAMYAM-PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) ३३. चउरिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स अट्ठविधे संजमे कज्जति, तं जहा-चक्खुमातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। (घाणामातो सोक्खातो , अववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। जिब्भामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता
भवति। जिन्भामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति)। फासामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। म फासामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति।
३३. चतुरिन्द्रिय जीवों का घात नहीं करने वाले के आठ प्रकार का संयम होता है, जैसे(१-२) चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग तथा दुःख का संयोग नहीं करने से, (३-४) घ्राणेन्द्रिय
सम्बन्धी सुख का वियोग तथा दुःख का संयोग नहीं करने से, (५-६) रसनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का ॐ वियोग तथा दुःख का संयोग नहीं करने से, (७-८) स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग तथा दुःख का संयोग नहीं करने से।
33. A being not indulging in harming or killing of four-sensed beings has eight kinds of discipline--That related to not terminating the pleasure derived through and not enforcing the experienced through-(1,2) chakshurindriya (sense organ of seeing).
(3,4) ghranendriya (sense organ of smell), (5, 6) rasanendriya (sense + organ of taste) and (7,8) sparshendriya (sense organ of touch).
३४. चउरिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स अट्ठविधे असंजमे कज्जति, तं जहा-चक्खुमातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। जिभामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति)। फासामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति। फासामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति।
३४. चतुरिन्द्रिय जीवों का घात करने वाले के आठ प्रकार का असंयम होता है-5 (१-२) चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग करने एवं दुःख का संयोग करने से, (३-४) घ्राणेन्द्रिय ॐ सम्बन्धी सुख का वियोग एवं दुःख का संयोग करने से, (५-६) रसनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग एवं के म दुःख का संयोग करने से, (७-८) स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख का वियोग एवं दुःख का संयोग करने से।
34. A being indulging in harming or killing of four sensed beings has eight kinds of indiscipline-That related to terminating the pleasure derived through and enforcing the misery experienced through
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4 (1,2) chakshurindriya (sense organ of seeing). (3,4) ghranendriya 卐 (sense organ of smell), (5,6) rasanendriya (sense organ of taste) and 卐 (7,8) sparshendriya (sense organ of touch). म सूक्ष्म-पद SUKSHMA-PAD (SEGMENT OF MINUTE)
३५. अट्ठ सुहुमा पण्णत्ता, तं जहा-पाणसुहुमे, पणगसुहुमे, बीयसुहुमे, हरितसुहुमे, पुप्फसुहुमे, अंडसुहुमे, लेणसुहुमे, सिणेहसुहुमे। ___ ३५. सूक्ष्म जीव आठ प्रकार के हैं। जैसे-(१) प्राणसूक्ष्म-कुन्थु आदि प्राणी, (२) पनकसूक्ष्म-है लीलन-फूलन आदि, (३) बीजसूक्ष्म-धान आदि के बीज के मुख-मूल की कणी आदि जिसे तुष-मुख
कहते हैं। (४) हरितसूक्ष्म-एकदम नवीन उत्पन्न हरित काय जो पृथ्वी के समान वर्ण वाला होता है। 卐 (५) पुष्पसूक्ष्म-वट-पीपल आदि के सूक्ष्म पुष्प। (६) अण्डसूक्ष्म-मक्षिका, पिपीलिकादि के अति सूक्ष्म
अण्डे। (७) लयनसूक्ष्म-कीड़ीनगरा चीटियों की बाम्बी आदि। (८) स्नेहसूक्ष्म-ओस, हिम आदि जलकाय 卐 के सूक्ष्म जीव। 4. 35. Sukshma jiva (minute beings) are of seven kinds——(1) pranॐ sukshma-like minute insects, (2) panak-sukshma-like moss, (3) beej.
sukshma-like tip of grain seed, (4) harit-sukshma-like lichen, + (5) pushp-sukshma-like minute flowers of banyan tree, (6) anda
sukshma--like minute eggs of insects like fly, (7) layan-sukshma-like anthill and (8) sneha-sukshma-like minute water-bodied beings in dew and snow. भरतचक्रवर्ती-पद BHARAT CHAKRAVARTI-PAD
(SEGMENT OF BHARAT CHAKRAVARTI) ३६. भरहस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ठ पुरिसजुगाइं अणुबद्धं सिद्धाइं (बुद्धाइं मुत्ताई के अंतगडाइं परिणिबुडाई) सव्वदुक्खप्पहीणाई, तं जहा-आदिच्यजसे, महाजसे, अतिबले, महाबले, तेयवीरिए, कत्तवीरिए, दंडवीरिए, जलवीरिए।
३६. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के क्रमबद्ध आठ उत्तराधिकारी पुरुष-युग राजा लगातार सिद्ध, + बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त और समस्त दुःखों से रहित हुए। जैसे-(१) आदित्ययश, (२) महायश, (३) अतिबल, (४) महाबल, (५) तेजोवीर्य, (६) कार्तवीर्य, (७) दण्डवीर्य, (८) जलवीर्य।
36. Eight progressive successor rulers of Chakravarti Bharat became perfect (Siddha), enlightened (buddha), liberated (mukta), free of
cyclic rebirth (parinivrit), and ended all miseries in succession4 (1) Adityayash, (2) Mahayash, (3) Atibal, (4) Mahabal, (5) Tejovirya, $ (6) Kartavirya, (7) Dandavirya and (8) Jalavirya.
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पार्श्वगण-पद PARSHVA-GANA-PAD (SEGMENT OF PARSHVA-GANA)
३७. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स अट्ट गणा अट्ट गणहरा होत्था, तं जहा-सुभे, ॐ अज्जघोसे, वसिट्टे, बंभचारी, सोमे, सिरिधरे, वीरभद्दे, जसोभद्दे।
३७. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वनाथ के आठ गण और आठ गणधर हुए-(१) शुभ, (२) आर्यघोष, । म (३) वशिष्ठ, (४) ब्रह्मचारी, (५) सोम, (६) श्रीधर, (७) वीरभद्र, (८) यशोभद्र।
37. Purushadaniya Arhat Parshva had eight ganas (groups of
ic disciples) and eight Ganadharas (chief disciples) (1) Shubha, (2) Aryaghosh, (3) Vashishtha, (4) Brahmachari, (5) Soma, (6) Shridhar,
(7) Virabhadra and (8) Yashodhar. ॐ दर्शन-पद DARSHAN-PAD (SEGMENT OF PERCEPTION/FAITH)
३८. अट्ठविधे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा-सम्मदंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, (अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे), केवलदंसणे, सुविणदंसणे।
३८. दर्शन आठ प्रकार का है। जैसे-(१) सम्यग्दर्शन, (२) मिथ्यादर्शन, (३) सम्यग्मिथ्यादर्शन, (४) चक्षुदर्शन, (५) अचक्षुदर्शन, (६) अवधिदर्शन, (७) केवलदर्शन, (८) स्वप्नदर्शन। 4i 38. Darshan (perception/faith) is of eight kinds—(1) Samyagdarshan
right perception/faith, (2) mithyadarshan--wrong or false perception/ faith, (3) samyagmithyadarshan--mixed or right and wrong perception/ faith, (4) chakshu darshan-common visual perception through eyes,
(5) achakshu darshan-common sensual perception through mind and 卐 sensual organs other than eyes, (6) avadhi darshan-sensual perception
of subject of avadhi-jnana (distant things) preceding attainment of avadhi-jnana, (7) Keval darshan-common perception of general properties of all things and (8) Svapnadarshan-to dream.
गगगगगगगगnamah:5555555555555555555555555555
औपमिक-काल-पद AUPAMIK-KAAL-PAD
(SEGMENT OF CONCEPTUAL UNITS OF TIME) ३९. अट्ठविधे अधोवमिए पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, पोग्गलपरियट्टे, तीतद्धा, अणागतद्धा, सव्वद्धा।
३९. औपमिक अद्धा-(मात्र उपमा द्वारा समझाया जाने वाला काल) आठ प्रकार का है, जैसे(१) पल्योपम, (२) सागरोपम, (३) अवसर्पिणी, (४) उत्सर्पिणी, (५) पुद्गल परिवर्त, (६) अतीत-अद्धा (भूतकाल), (७) अनागत-अद्धा (भविष्य), (८) सर्व-अद्धा (भूत, वर्तमान व भविष्य)।
39. Aupamik addha (conceptual units of time) are of eight kinds4i (1) Palyopam, (2) Sagaropam, (3) Avasarpini, (4) Utsarpini, (5) Pudgal
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55555555555555555555555555555555555 5 parivart (infinite Avasarpini and Utsarpini), (6) Atita addha (past),
(7) Anagat addha (future) and (8) Sarva addha (past, present and future). fi (for more details see Hindi Tika, part-2, p. 539) - विवेचन-जिस काल की गणना संख्या द्वारा नहीं हो सकती केवल उपमा द्वारा समझाया जा सकता 卐 है, उसे औपमिक काल कहा जाता है। (१) पल्य की उपमा से समझाया जाने वाला-पल्योपम। (२) दस 5 करोडा कोड पल्यों का एक सागरोपम। (३-४) दस करोडा करोड सागरोपम का एक उत्सर्पिणी तथा
एक उत्सर्पिणी। (५) अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का एक पुद्गल परावर्तन। (६-७) बीता हुआ काल ॐ अतीत अद्धा तथा भविष्य काल अनागत अद्धा। (८) तीनों काल के समयों को मिलाने से 'सर्वाद्धा' क कहलाता है। (विस्तृत विवरण हेतु देखें-हिन्दी टीका भाग-२ पृष्ठ ५३९)
Elaboration—The period of time beyond the scope of numbers can only be explained by metaphors. This is called metaphoric or conceptual timescale. (1) That which is explained by the analogy of palya (silo) is called Palyopam. (2) Ten koda-kod (one thousand trillion Palyopam make one Sagaropam. (3,4) One thousand trillion Sagaropam make one Utsarpini or one Avasarpini. (5) Infinite Utsarpini-Avasarpini make one Pudgal 15 Paravartan. (6,7) Past time is Ateet Addha and future time is Anagat
Addha. (8) When all three past, present and future are combined it is 卐 call Sarva Addha. (for more details see Hindi Tika, part-2, p. 539) अरिष्टनेमि-पद ARISHTANEMI-PAD (SEGMENT OF ARISHTANEMI)
४०. अरहतो णं अरिट्ठणेमिस्स जाव अट्ठमातो पुरिसजुगातो जुगंतकरभूमी। दुवासपरियाए अंतमकासी।
४०. अर्हत् अरिष्टनेमि से आठवें पुरुषयुग तक युगान्तकर भूमि रही-(मोक्ष जाने का क्रम चालू रहा, आगे नहीं)। अर्हत् अरिष्टनेमि के केवलज्ञान प्राप्त करने के दो वर्ष बाद ही उनके शिष्य मोक्ष जाने लगे थे।
40. Yugantakar Bhumi (age of being liberated) continued from Arhat Arishtanemi to his eighth successor and not after that. Two years after Arhat Arishtanemi attained Keval-jnana, his disciples had started getting liberated.
महावीर-पद MAHAVIR-PAD (SEGMENT OF MAHAVIR) । ४१. समणेणं भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे भवेत्ता अगाराओ अणगारितं पव्वाइया, तं जहा
वीरंगए वीरजसे, संजय एणिज्जए य रायरिसी। सेये सिवे उद्दायणे, तह संखे कासिवद्धणे॥१॥ (संग्रहणी-गाथा)
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४१. श्रमण भगवान् महावीर ने आठ राजाओं को मुण्डित कर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित + किया। (१) वीराङ्गक, (२) वीर्ययश, (३) संजय, (४) एणेयक, (५) सेय, (६) शिव, (७) उद्दायन,
(८) शंखकाशीवर्धन। $ 41. Shraman Bhagavan Mahavir initiated eight kings from
householders to homeless ascetics after getting their heads tonsured5 (1) Virangak, (2) Viryayash, (3) Sanjaya, (4) Eneyak, (5) Seya, (6) Shiva, 'fi (7) Uddayan and (8) Shankhakashivardhan. ऊ आहार-पद AHAR-PAD (SEGMENT OF FOOD)
४२. अट्ठविहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-मणुण्णे असणे, पाणे, खाइमे, साइमे। अमणुण्णे 卐 (असणे, पाणे, खाइमे), साइमे।
४२. आहार आठ प्रकार का है। जैसे-(१) मनोज्ञ अशन, (२) मनोज्ञ पान, (३) मनोज्ञ खाद्य, 9 (४) मनोज्ञ स्वाद्य, (५) अमनोज्ञ अशन, (६), अमनोज्ञ पान, (७) अमनोज्ञ स्वाद्य, (८) अमनोज्ञ खाद्य।
____42. Ahar (food) is of eight kinds-(1) Manojna (palatable) Ashan, (2) Manojna Paan, (3) Manojna Khadya, (4) Manojna Svadya, (5) Amanojna (unpalatable) Ashan, (6) Amanojna Paan, (7) Amanojna Khadya and (8) Amanojna Svadya. (for details refer to Sthaan 4, aphorism 512) कृष्णराजि-पद KRISHNARAJI-PAD (SEGMENT OF ROWS OF DARKNESS)
४३. उप्पिं सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं हेटुिं बंभलोगे कप्पे रिट्टविमाणं-पत्थडे, एत्थ णं ॥ अक्खाडग-समचउरंस-संठाण-संठिताओ अट्ठ कण्हराईओ पण्णताओ, तं जहा-पुरथिमे णं दो है कण्हराईओ, दाहिणे णं दो कण्हराईओ, पच्चत्थिमे णं दो कण्हराईओ, उत्तरे णं दो कण्हराईओ। म पुरथिमा अब्भंतरा कण्हराई दाहिणं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा। दाहिणा अभंतरा कण्हराई है पच्चत्थिमं बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा। पच्चत्थिमा अब्भंतरा कण्हराई उत्तरं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा। उत्तरा
अभंतरा कण्हराई पुरत्थिमं बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा। पुरथिमपच्चथिमिल्लाओ बाहिराओ। दो
कण्हराईओ छलंसाओ। उत्तरदाहिणाओ बाहिराओ दो कण्हराईओ तंसाओ। सव्वाओ वि णं म अभंतरकण्हराईओ चउरंसाओ।
४३. सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के ऊपर और ब्रह्मलोक कल्प के नीचे रिष्ट विमान का प्रस्तट है, वहाँ अखाड़े के समान समचतुरस्र (चतुष्कोण) संस्थान वाली आठ कृष्णराजियाँ (काले पुद्गलों ॐ की पंक्तियाँ हैं, जैसे-(१) पूर्व दिशा में दो कृष्णराजियाँ, (२) दक्षिण दिशा में दो कृष्णराजियाँ, + (३) पश्चिमी दिशा में दो कृष्णराजियाँ, (४) उत्तर दिशा में दो कृष्णराजियाँ। के पूर्व की आभ्यन्तर कृष्णराजि दक्षिण की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है।
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नाना-नानागावामानामानामा111
दक्षिण की आभ्यन्तर कृष्णराजि पश्चिम की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है। पश्चिम की आभ्यन्तर कृष्णराजि उत्तर की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है। उत्तर की आभ्यन्तर कृष्णराजि पूर्व की बाह्य कृष्णराजि से स्पृष्ट है। पूर्व और पश्चिम की बाह्य दो कृष्णराजियाँ षट्कोण हैं। उत्तर और दक्षिण की बाह्य दो कृष्णराजियाँ त्रिकोण हैं। समस्त आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुष्कोण वाली हैं।
43. Above Sanatkumar and Maahendra Kalp and below Brahmalok Kalp there is the prastat (gap) of Rishta Vimaan. In that space there are eight Krishnarajis (rows of dark particles) in square shape (like wrestling
ring)-(1) two Krishnarajis in the east, (2) two Krishnarajis in the south, Fi (3) two Krishnarajis in the west, and (4) two Krishnarajis in the north.
The inner Krishnaraji of east touches the outer Krishnaraji of the south. The inner Krishnaraji of south touches the outer Krishnaraji of the west. The inner Krishnaraji of west touches the outer Krishnaraji of the north. The inner Krishnaraji of north touches the outer Krishnaraji of the east. The two outer Krishnarajis of east and west are hexagonal. The two outer Krishnarajis of north and south are triangular. all the inner Krishnarajis are square.
४४. एतासि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठ णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हराईति वा, मेहराईति वा, मघाति वा, माघवतीति वा, वातफलिहेति वा, वातपलिक्खोभेति वा, देवफलिहेति वा, देवपलिक्खोभेति वा।
४४. इन आठ कृष्णराजियों के आठ नाम हैं। जैसे-(१) कृष्णराजि, (२) मेघराजि, (३) मघा, (४) माघवती, (५) वातपरिघ, (६) वातपरिक्षोभ, (७) देवपरिघ, (८) देवपरिक्षोभ। 5 44. These eight Krishnarajis have eight names—(1) Krishnaraji,
2) Megharaji. (3) Magha, (4) Maaghavati, (5) Vaatparigh, : (6) Vaatparikshobh, (7) Devaparigh and (8) Devaparikshobh.
४५. एतासि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु ओवासंतरेसु अट्ठ लोगंतियविमाणा पण्णत्ता, तं जहा-अच्ची, अच्चीमाली, वइरोअणे, पभंकरे, चंदाभे, सूराभे, सुपइट्ठाभे, अग्गिच्चाभे।
४५. इन आठों कृष्णराजियों के आठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिक देवों के विमान हैं। जैसे। (१) अर्चि, (२) अर्चिमाली, (३) वैरोचन, (४) प्रभंकर, (५) चन्द्राभ, (६) सूर्याभ, (७) सुप्रतिष्ठाभ, न 1 (८) अग्न्यर्चाभ।
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Eighth Sthaan
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45. In the eight avakashantars (intervening space) of these eight 4 Krishnarajis are located the Vimaans of eight Lokantik Devas (gods 41 at the edge of universe)--(1) Archi, (2) Archimali, (3) Vairochan, 卐 (4) Prabhankar, (5) Chandrabh, (6) Suryabh, (7) Supratishthabh and (8) Agnyarchabh. ४६. एतेसु णं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु अट्ठविधा लोगंतिया देवा पण्णत्ता, तं जहा--
सारस्सतमाइच्चा, वण्ही वरुणा या गद्दतोया य।
तुसिता अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव बोद्धव्या॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) ४६. इन आठों लोकान्तिक विमानों में आठ प्रकार के लोकान्तिक देव हैं। (१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) वह्नि, (४) वरुण, (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अव्याबाध, (८) अग्न्यर्च। 卐 46. In these eight Lokantik Vimaans there are eight Lokantik Devas
(1) Sarasvat, (2) Aditya, (3) Vahni, (4) Varun, (5) Gardatoya, (6) Tushit,
(7) Avyabadh and (8) Agnyarch. + ४७. एतेसि णं अट्ठण्हं लोगंतियदेवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता।
४७. इन आठों लोकान्तिक देवों की जघन्य और उत्कृष्ट भेद से रहित-एक-समान स्थिति + आठ-आठ सागरोपम की है। 5 47. Without a variation of maximum and minimum, the common life \i span of each of these eight Lokantik Devas is eight Sagaropam.
विवेचन-नौवें स्थान में नौ लोकान्तिक देवों का कथन है। आठों के विमान कृष्णराजियों के बीच के म भाग में स्थित है तथा नौवाँ रिष्टाभ विमान सबके मध्य में स्थित है। उसमें रिष्ट नामक देव का आवास है।
तीर्थंकर जब दीक्षा का विचार करते हैं। तब ये देव आकर उनका वर्धापन कर संसार में धर्म का उद्योत करने की प्रार्थना करते हैं। (भगवती शतक ६, उ. ५)
Elaboration In the Ninth Sthaan there is a mention of nine Lokantik gods. Eight Vimaans are located in the middle of Krishna
ninth, Rishtabh Vimaan, is located at the center of all these. It is the 4 abode of Rishta Deva. When a Tirthankar decides to get initiated these 41 gods approach him to offer commendation and request him to spread the
light of religion. (Bhagavati Shatak 6/5) मध्यप्रदेश-पद MADHYA PRADESH-PAD (SEGMENT OF MIDDLE SECTIONS) ।
४८. अट्ठ धम्मत्थिकाय-मज्झपएसा पण्णत्ता। ४९. अट्ठ अधम्मत्थिकाय- (मज्झपएसा पण्णत्ता)। ५०. अट्ट आगासत्थिकाय- (मज्झपएसा पण्णत्ता)। ५१. अट्ठ जीव-मज्झपएसा पण्णत्ता।
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-गागागाना
४८. धर्मास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश मध्य भाग में रहने वाले रुचक प्रदेश हैं। ४९. अधर्मास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश हैं। ५०. आकाशास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश हैं। ५१. जीव के आठ मध्य प्रदेश हैं। fi 48. There are eight Madhya Pradesh (core sections) of Dharn astikaya. fi 49. There are eight Madhya Pradesh (core sections) of Adharmastikaya.
50. There are eight Madhya Pradesh (core sections) of Akashastikaya. 51. There are eight Madhya Pradesh (core sections) of Jiva.
विवेचन-तिर्यक् लोक के मध्य भाग में एक राजु परिमाण लम्बाई-चौड़ाई वाले आकाश-प्रदेशों के दो प्रतर हैं। मेरु पर्वत के ठीक मध्य भाग में इनका स्थान है। इन दोनों प्रतरों के बीचोबीच गाय के स्तन के आकार में चार-चार आकाश प्रदेश हैं। इन्हें आठ रुचक प्रदेश कहा जाता है। ये ही रुचक प्रदेश के दिशा-विदिशाओं की मर्यादा के कारण बनते हैं। (आचारांग श्रु. १ अ. १ उ. १ नियुक्ति गाथा ४२) जीव के आठ रुचक प्रदेश जीव के मध्य भाग में स्थित रहते हैं। ये आठों रुचक प्रदेश सदा अपने शुद्ध स्वरूप में रहते हैं। इन प्रदेशों के साथ कभी कर्मबन्ध नहीं होता। भव्य, अभव्य सभी जीवों के रुचकक प्रदेश सिद्ध भगवान के रुचक प्रदेशों की तरह शुद्ध स्वरूप में रहते हैं। (भगवती सूत्र शतक ८। उ. ९) ___Elaboration-At the center of Tiryak lok at the mid-section of Merus mountain there are two levels of space. At the center of these two levels there are four space-sections each resembling four teats in udder of a cow. These are called Madhya Pradesh or Ruchak Pradesh. These core sections determine the extant of directions (Acharanga 1/1/1, Niryukti verse 42). Such Ruchak Pradesh (core sections) also exist in other agglomerate entities as well as soul. In soul also they are located at the exact center and are always in their pristine sublime form irrespective of the individual being worthy or unworthy of liberation or even liberated. They are, in fact, free of any karmic bondage. (Bhagavati Sutra 8/9) महापद्म-पद MAHAPADMA-PAD (SEGMENT OF MAHAPADMA)
५२. अरहा णं महापउमे अट्ठ रायाणो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वावेस्सति, तं जहा-पउमं, पउमगुम्मं, णलिणं, णलिणगुम्मं, पउमद्धयं, धणुद्धयं, कणगरहं, भरहं।
५२. (भावी प्रथम तीर्थंकर) अर्हत् (इन) महापद्म आठ राजाओं को मुण्डित कर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित करेंगे। जैसे-(१) पद्म, (२) पद्मगुल्म, (३) नलिन, (४) नलिनगुल्म, (५) पद्मध्वज, (६) धनुर्ध्वज, (७) कनकरथ, (८) भरत।।
52. Arhat Mahapadma (the first Tirthankar in future) will initiate eight kings from householders to homeless ascetics after getting their heads tonsured-(1) Padma, (2) Padmagulm, (3) Nalin, (4) Nalinagulm, (5) Padmadhvaj, (6) Dhanurdhvaj, (7) Kanakarath and (8) Bharat.
步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙牙%%%
अष्टम स्थान
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Eighth Sthaan
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कृष्ण- अग्रमहिषी - पद KRISHNA-AGRAMAHISHI-PAD
(SEGMENT OF CHIEF QUEENS OF KRISHNA)
५३. कण्हस्स णं वासुदेवस्स अट्ठ अग्गमहिसीओ अरहतो णं अरिट्ठणेमिस्स अंतिए मुंडा भवेत्ता अगाराओ अणगारितं पव्वइया सिद्धाओ ( बुद्धाओ मुत्ताओ अंतगडाओ परिणिव्बुडाओ) सव्वदुक्खप्पहीणाओ, तं जहा
५४. वीरियपुव्वस्स णं अट्टवत्थू अट्ठ चूलिया वत्थू पण्णत्ते ।
५३. श्रीकृष्ण वासुदेव की आठ पटरानियों ने अर्हत् अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर सिद्धगति प्राप्त
की। उनके नाम हैं
पउमावती य गोरी, गंधारी लक्खणा सुसीमा य।
जंबवती सच्चभामा, रुप्पिणी अग्गमहिसीओ ॥ १ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
५४. वीर्यप्रवाद पूर्व के आठ वस्तु (मूल अध्ययन) और आठ चूलिका - वस्तु हैं।
(१) पद्मावती, (२) गौरी, (३) गंधारी, (४) लक्षणा, (५) सुसीमा, (६) जोबवती, (७) सत्यगाथा, फ्र और (८) रुक्मिणी) (विस्तृत वर्णन देखें - अन्तकृद्दशा में)
53. Eight chief queens of Krishna Vasudev were initiated by Arhat Arishtanemi from householders to homeless ascetics after getting their heads tonsured and they all became perfect (Siddha), enlightened (buddha), liberated (mukta), free of cyclic rebirth (parinivrit) to end all miseries. Their names are ( 1 ) Padmavati, (2) Gauri, (3) Gandhari, (4) Lakshmana, ( 5 ) Susima, (6) Jambavati, ( 7 ) Satyabhama and (8) Rukmini.
54. Viryapravad Purva (one of the subtle canon) has eight Vastu (basic chapters) and eight Chulika-vastu (appendices).
गति - पद GATI - PAD (SEGMENT OF GENUSBS)
५५. अट्ठ गतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - णिरयगती, तिरियगती, (मणुयगती, देवगती), सिद्धिगती, गुरुगती, पणोल्लणगती, पब्भारगती।
५५. गतियाँ आठ हैं। जैसे- (१) नरकगति, (२) तिर्यग्गति, (३) मनुष्यगति, (४) देवगति, (५) सिद्धगति, (६) गुरुगति, (७) प्रणोदनगति, (८) प्राग् - भारगति ।
55. There are eight gatis (genuses ) - ( 1 ) narak gati (genus of infernal 5 beings ), ( 2 ) tiryanch gati (animal genus ), ( 3 ) manushya gati (genus of 5 human beings), (4) deva gati (divine genus ), ( 5 ) Siddha gati (Siddha genus For status ), (6) Guru gati (natural movement of Paramanu and other
Sthaananga Sutra (2)
स्थानांगसूत्र (२)
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ज्योतिष मण्डल
ऊर्ध्व दिशा
उत्तर
ईशान
वायव्य
आठ रुचक प्रदेश
नैर्ऋत्य
आग्नेयी
दक्षिण
अधो दिशा
TRILOK
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चित्र परिचय १३ ।
Illustration No. 13
आठ रुचक प्रदेश जम्बूद्वीप के मध्य भाग में मेरु पर्वत है। इस पर्वत के ठीक मध्य भाग में मध्य लोक व अधोलोक के सीमान्त पर दो प्रतर हैं। इन प्रतरों के बीच गौ-स्तनाकार चार आकाश प्रदेश ऊपर व चार नीचे यों आठ आकाश प्रदेश हैं, जिन्हें रुचक प्रदेश कहा जाता है। ये रुचक प्रदेश ही सम्पूर्ण लोक का केन्द्र भाग हैं। इन्हीं से सभी दिशा और विदिशाओं का आरम्भ होता है। इसके जिस तरफ सूर्योदय होता है वह पूर्व, सूर्यास्त होने वाली पश्चिम, बायीं तरफ उत्तर व दाहिनी तरफ दक्षिण दिशा मानी जाती है। इसी प्रकार चारों कोनों में चार विदिशा तथा ऊपर ऊर्ध्व दिशा जहाँ सभी देव लोक हैं, नीचे अधोदिशा जहाँ पर सभी नरक भूमियाँ हैं।
चित्र में सूर्योदय की पूर्व व सूर्यास्त की पश्चिम दिशा बताई है। उत्तर में विशाल पर्वत श्रेणियाँ तथा दक्षिण में अथाह समुद्र दिखाये गये हैं। (विशेष वर्णन के लिए देखें-स्थान १०, सूत्र ३०-३१, पृ. ४८४)
-स्थान ८, सूत्र ५२, पृ. ३८३
EIGHT RUCHAK PRADESH Meru mountain is at the center of Jambudveep. At the midsection of Meru mountain there are two levels of space. At the center of these there are four space-sections, each resembling four teats in udder of a cow. These are called Ruchak Pradesh. This is the starting point of cardinal and intermediate directions. From this point the directions of sunrise and sunset are called east and west respectively. To the left and right are north and south respectively. The intermediate directions are in four corners. Directly above is zenith, the place of divine realms and below is nadir, the place of infernal realms.
In the illustration east and west are shown as directions of sunrise and sunset. Towards north are shown great mountain ranges and towards south is shown unfathomable sea. (for detailed discription please refer to-Sthaan 10, Sutra 30-31, p. 484)
-Sthaan 8, Sutra 52, p. 383
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things), (7) Pranod gati (movement caused by someone, such as shooting an arrow or moving a vehicle) and (8) Pragbhar gati (movement caused by a load, such as the downward movement of a boat when loaded).
विवेचन-परमाणु आदि की स्वाभाविक गति को गुरुगति कहा जाता है। प्रकाश की, शब्द की, वायु के गति, गुरुगति तथा किसी दूसरे की प्रेरणा से होने वाली गति प्रणोदनगति कहलाती है। जैसे तीर का ना, वाहन का चलना आदि। द्रव्यों से आक्रान्त होने पर जो दसरी गति होती है, उसे प्रागभार गति जाते हैं। जैसे नाव में भरे भार से उसकी नीचे की ओर होने वाली गति। शेष गतियाँ प्रसिद्ध हैं।
Elaboration-explanations given in parentheses. औप-समुद्र-पद DVEEP-SAMUDRA-PAD (SEGMENT OF ISLANDS AND SEAS)
५६. गंगा-सिन्धु-रत्त-रत्तवतिदेवीणं दीवा अट्ठ-अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता। १७. उक्कामुह-मेहमुह-विज्जुमुह-विज्जुदंतदीवा णं दीवा अट्ठ-अट्ठ जोयणसयाई आयाम
खंभेणं पण्णत्ता। । ५६. गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तवती नदियों की अधिष्ठात्री देवियों के द्वीप आठ-आठ योजन आबे-चौड़े हैं। ५७. उल्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख और विद्युद्दन्त द्वीप आठ-आठ सौ योजन
ET 86. The islands of adhishthatri devis (the ruling goddesses) of Ganga, Sindhu, Rakta and Raktavati rivers are eight Yojan long and eight Yojan wide. 57. Ulkamukh, Meghamukh, Vidyunmukh and Vidyuddant islands are eight hundred Yojan long and eight hundred Yojan wide.
५८. कालोदे णं समुद्दे अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते। ५३. अभंतरपुक्खरद्धे णं अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते। ६०. एवं बहिरपुक्खरद्धेवि।
५८. कालोद समुद्र चक्रवाल विष्कम्भ-(गोलाई की अपेक्षा) से आठ लाख योजन विस्तृत है। ५९. आभ्यन्तर पुष्करार्ध चक्रवाल विष्कम्भ से आठ लाख योजन है। ६०. इसी प्रकार बाह्य पुष्करार्ध भी चक्रवाल विष्कम्भ से आठ लाख योजन विस्तृत है।
58. The chakraval vishkambh (circumference) of Kalod Samudra is said to be eight hundred thousand Yojans. 59. The chakraval vishkambh (circumference) of inner Pushkarardh is said to be eight hundred thousand Yojans. 60. In the same way the chakraval vishkambh (circumference) of outer Pushkarardh is also said to be eight hundred thousand Yojans.
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अष्टम स्थान
(385)
Eighth Sthaan
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काकणिरत्न- पद KAKANIRATNA PAD (SEGMENT OF KAKANI GEM)
६१. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ठसोवण्णिए काकणिरयणे छत्तले दुवाल - संसिए अट्टकणिए अधिकरणिसंठिते ।
61. Every Chaturant Chakravarti has a Kakini ratna weighing eight Suvarna (an ancient coin). It has six surfaces, twelve angle, eight diagonals and is anvil-shaped.
६१. प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के आठ सुवर्ण जितना भारी काकिणी रत्न होता है। वह छह फ तल, बारह कोण, आठ कर्णिका वाला और अहरन (एरण) के संस्थान वाला होता है।
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मागध-योजन - पद MAAGADH YOJAN-PAD (SEGMENT OF MAAGADH YOJAN)
६२. मागधस्स णं जोयणस्स अट्ठ धणुसहस्साइं णिधत्ते पण्णत्ते ।
६२. मगध देश के योजन का प्रमाण आठ हजार धनुष प्रमाण है।
62. The measure of Yojan in Magadh country is eight thousand Dhanush.
जम्बूद्वीप - पद JAMBUDVEEP PAD (SEGMENT OF JAMBU CONTINENT)
६३. जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए अट्ठा जोयणाई विक्खंभेणं, सातिरेगाइं अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता । ६४. कूडसामली णं अट्ठ जोयणाई एवं चेव । ६५. तिमिसगुहा णं अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं । ६६. खंडप्पवातगुहा णं अट्ठ (जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं) ।
६३. सुदर्शन जम्बू वृक्ष आठ योजन ऊँचा, बहुमध्यप्रदेश ( ठीक बीच में) भाग में आठ योजन चौड़ा और सर्व परिमाण में कुछ अधिक आठ योजन है । ६४. कूट शाल्मली वृक्ष भी पूर्वोक्त वाला जानना चाहिए । ६५. तमिस्र गुफा आठ योजन ऊँची है । ६६. खण्डप्रपात गुफा आठ ऊँची है।
प्रमाण योजन
63. The beautiful Jambu tree is eight Yojan tall, eight Yojan wide in the middle and a little more than eight Yojan in overall dimension. 564. The dimensions of Koot Shalmali tree should also be read as फ्र aforesaid. 65. Tamisra cave is eight Yojan high. 66. Khandaprapat cave is eight Yojan high.
स्थानांगसूत्र (२)
विवेचन - वैताढ्य पर्वत के मूल में पश्चिम में तमिस्रा गुफा तथा पूर्व भाग में खण्ड प्रपात गुफा है। पूर्वी गुफा के किनारे गंगा तथा पश्चिमी दिशा के किनारे सिन्धु नदी बहती है । गुफाओं के उत्तर-दक्षिण दोनों तरफ एक-एक विशाल द्वार है। ये द्वार सदा बन्द हीं रहते हैं । जब चक्रवर्ती षट्खण्ड विजय को फ
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Sthaananga Sutra (2)
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Elaboration - In the base of Vaitadhya mountain there are two caves, f Tamisra in the west and Khand-prapat in the east. The opening of the
eastern caves is on the banks of Ganges and that of the western cave is on the banks of Sindhu. On the northern and southern sides of the two caves
there are large gates. These gates are always closed. When a Chakravarti 6 launches his victory march, his commander opens the gates entering in f Tamisra cave and leaving from Khand-prapat. (Jambudveep pra.-1)
६७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महाणदीए उभतो कूले अट्ठ वक्खारपब्बया पण्णत्ता, तं जहा-चित्तकूडे, पम्हकूडे, णलिणकूडे, एगसेले, तिकूडे, वेसमणकूडे, # अंजणे, मायंजणे। ६८. जंबुद्वीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीतोयाए महाणदीए उभतो है
कूले अट्ठ वक्खारपव्वता पण्णत्ता, तं जहा-अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे, चंदपव्वते, । सूरपव्वते, णागपब्बते, देवपव्वते।
६७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के दोनों कूलों पर आठ में वक्षस्कारपर्वत हैं, जैसे-(१) चित्रकूट, (२) पक्ष्मकूट, (३) नलिनकूट, (४) एकशैल, (५) त्रिकूट, । (६) वैश्रमणकूट, (७) अंजनकूट, (८) मातांजनकूट। ६८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम है
में शीतोदा महानदी के दोनों कूलों पर आठ वक्षस्कारपर्वत हैं, जैसे-(१) अंकावती, (२) पक्ष्मावती, , (३) आशीविष, (४) सुखावह, (५) चन्द्रपर्वत, (६) सूरपर्वत, (७) नागपर्वत, (८) देवपर्वत। i 67. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain there are
eight Vakshaskar mountains on the two banks of great river Sita(1) Chitrakoot, (2) Padmakoot, (3) Nalinakoot, (4) Ekashaila, (5) Trikoot, (6) Vaishraman-koot, (7) Anjan-koot and (8) Matanjan-koot.68. In Jambu
Dveep in the western part of Mandar mountain there are eight i Vakshaskar mountains on the two banks of great river i (1) Ankavati, (2) Pakshmavati, (3) Ashivish, (4) Sukhavah, (5) Chandraparvat, (6) Suryaparvat, (7) Naag-parvat and (8) Devaparvat. विजय-पद VIJAYA-PAD (SEGMENT OF VIJAYA)
६९. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए महाणदीए उत्तरे णं अट्ठ चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता, तं जहा-कच्छे, सुकच्छे, महाकच्छे, कच्छगावती, आवत्ते, (मंगलावत्ते, पुक्खले), पुक्खलावती। ७०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए महाणदीए दाहिणे णं अट्ठ चक्कपट्टिविजया पण्णत्ता, तं जहा-वच्छे, सुवच्छे, (महावच्छे, वच्छगावती, रम्मे, रम्मगे, रमणिज्जे), मंगलावती।
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अष्टम स्थान
(387)
Eighth Sthaan
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६९. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के उत्तर में चक्रवर्ती के आठ विजयक्षेत्र हैं। जैसे- (१) कच्छ, (२) सुकच्छ, (३) महाकच्छ, (४) कच्छकावती, (५) आवर्त, (६) मंगलावर्त, (७) पुष्कल, (८) पुष्कलावती । ७०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में 5 सीता महानदी के दक्षिण में चक्रवर्ती के आठ विजयक्षेत्र हैं, जैसे- ( १ ) वत्स, (२) सुवत्स, (३) महावत्स, (४) वत्सकावती, (५) रम्य, (६) रम्यक, (७) रमणीय, (८) मंगलावती ।
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69. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain to the
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north of great river Sita there are eight Vijaya Kshetra (state-like subdivisions) of a Chakravarti (1) Kachchha, (2) Sukachchha, फ (3) Mahakachchha, ( 4 ) Kachchhakavati, (5) Avart, (6) Mangalavart, 5 (7) Pushkal, ( 8 ) Pushkalavati. 70. In Jambu Dveep in the eastern part of 5 Mandar mountain to the south of great river Sita there are eight Vijaya 卐 Kshetra (state-like subdivisions) of a Chakravarti-(1) Vatsa,
फ्र
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卐
卐 (2) Suvatsa, (3) Mahavatsa, (4) Vatsakavati, (5) Ramya, ( 6 ) Ramyak, फ्र 5 (7) Ramaniya, (8) Mangalavati.
卐
卐
७१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणदीए दाहिणे णं अट्ठ चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता, तं जहा - पम्हे, ( सुपम्हे, महापम्हे, पम्हगावती, संखे, णलिणे, कुमुए),
फ्र
5 सलिलावती । ७२. जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणदीए उत्तरे णं अट्ठ
க चक्कवट्टिविजया पण्णत्ता, तं जहा - वप्पे, सुवप्पे, (महावप्पे, वप्पगावती, वग्गू, सुवग्गू, गंधिल )
5 गंधिलावती ।
卐
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७१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के दक्षिण में आठ विजय क्षेत्र हैं, जैसे- (१) पक्ष्म, (२) सुपक्ष्म, (३) महापक्ष्म, (४) पक्ष्मकावती, (५) शंख, (६) नलिन, (७) कुमुद, (८) सलिलावती । ७२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में शीतोदा महानदी के उत्तर में चक्रवर्ती के आठ विजयक्षेत्र हैं, जैसे- (१) वप्र, (२) सुवप्र, (३) महावप्र, (४) वप्रकावती, (५) वल्गु, (६) सुवल्गु, (७) गन्धिल, (८) गन्धिलावती ।
फ्र
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71. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to the south of great river Sitoda there are eight Vijaya Kshetra (state-like subdivisions) of a Chakravarti—(1) Pakshma, (2) Supakshma, 卐
卐
फ (3) Mahapakshma, ( 4 ) Pakshmavati, (5) Shankha, ( 6 ) Nalin, (7) Kumud, फ्र
5 (8) Salilavati. 72. In Jambu Dveep in the western part of Mandar
mountain to the north of great river Sitoda there are eight Vijaya
Kshetra (state-like subdivisions) of a Chakravarti - ( 1 ) Vapra,
5
出
卐
फ ( 2 ) Suvapra, ( 3 ) Mahavapra, ( 4 ) Vaprakavati, (5) Valgu, ( 6 ) Suvalgu, फ 5 (7) Gandhil, ( 8 ) Gandhilavati.
卐
5 स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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ॐ राजधानी-पद RAJADHANN-PAD (SEGMENT OF CAPITAL CITIES)
७३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए महाणदीए उत्तरे णं अट्ठ रायहाणीओ के पण्णत्ताओ, तं जहा-खेमा, खेमपुरी, (रिट्ठा, रिट्ठपुरी, खग्गी, मंजूसा, ओसधी), पुंडरीगिणी।
७४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पुरथिमे णं सीताए महाणईए दाहिणे णं अट्ठ रायहाणीओ के पण्णत्ताओ, तं जहा-सुसीमा, कुंडला, (अपराजिया, पभंकरा, अंकावई, पम्हावई, सुभा), रयणसंचया।
७३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में शीता महानदी के उत्तर में आठ राजधानियाँ हैं, जैसे-(१) क्षेमा, (२) क्षेमपुरी, (३) रिष्टा, (४) रिष्टपुरी, (५) खड्गी, (६) मंजूषा, (७) औषधि, # (८) पौण्डरीकिणी। ७४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के दक्षिण में
आठ राजधानियाँ हैं. जैसे-(१) ससीमा. (२) कण्डला. (३) अपराजिता, (४) प्रभंकरा, (५) अंकावती... (६) पक्ष्मावती, (७) शुभा, (८) रत्नसंचया।
73. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain to the north of great river Sita there are eight rajadhanis (capital cities)
(1) Kshama, (2) Kshemapuri, (3) Rishta, (4) Rishtapuri, (5) Khadgi, fi (6) Manjusha, (7) Aushadhi, (8) Paundarikini. 74. In Jambu Dveep in the F eastern part of Mandar mountain to the south of great river Sita there are
eight rajadhanism(1) Susima, (2) Kundala, (3) Aparajita, (4) Prabhankara,
(5) Ankavati, (6) Pakshamavati, (7) Shubha, (8) Ratnasanchaya. म ७५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओदाए महाणदीए दाहिणे णं अट्ठ
रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आसपुरा, (सीहपुरा, महापुरा, विजयपुरा, अवराजिता, अवरा, असोया), वीतसोगा। ७६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणईए उत्तरे णं अट्ट रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-विजया, वेजयंती, (जयंती, अपराजिया, चक्कपुरा, खग्गपुरा, अवज्ज्ञा), अउज्झा।
७५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में शीतोदा महानदी के दक्षिण में आठ * राजधानियाँ हैं, जैसे-(१) अश्वपुरी, (२) सिंहपुरी, (३) महापुरी, (४) विजयपुरी, (५) अपराजिता, 5 (६) अपरा, (७) अशोका, (८) वीतशोका। ७६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में
शीतोदा महानदी के उत्तर में आठ राजधानियाँ हैं, जैसे-(१) विजया, (२) वैजयन्ती, (३) जयन्ती, 4 (४) अपराजिता, (५) खड्गपुरी, (७) अवध्या, (८) अयोध्या।
75. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to the south of great river Sitoda there are eight rajadhanis—(1) Ashvapuri, (2) Simhapuri, (3) Mahapuri, (4) Vijayapuri, (5) Aparajita, (6) Apara, (7) Ashoka, (8) Vigatashoka. 76. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to the north of great river Sitoda there are eight
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8555555555555))) ))))))) ))))))))))) 3 rajadhanis—(1) Vijaya, (2) Vaijayanti, (3) Jayanti, (4) Aparajita, 卐 (5) Chakrapuri, (6) Khadgapuri, (7) Avadhya, and (8) Ayodhya. * अरिहंत-चक्रवर्ती-पद ARIHANT-CHAKRAVARTI-PAD
(SEGMENT OF ARIHANT AND CHAKRAVARTI) ७७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए महाणदीए उत्तरे णं उक्कोसपए अट्ठ म अरहंता, अट्ठ चक्कवट्टी, अट्ठ बलदेवा, अट्ठ वासुदेवा उप्पजिंसु वा उप्पज्जंति वा उप्पज्जिस्संति वा। + ७८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए [ महाणदीए ? ] दाहिणे णं उक्कोसपए ॐ एवं चेव। ७९. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओयाए महाणदीए दाहिणे णं.
उक्कोसपए एवं चेव। ८०. एवं उत्तरेणवि। 卐 ७७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के उत्तर में उत्कृष्टतः आठ 9
अर्हत् (तीर्थंकर), आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और
उत्पन्न होंगे। ७८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के दक्षिण में उत्कृष्टतः । ॐ इसी प्रकार आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं 5 + और उत्पन्न होंगे। ७९. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में सीतोदा महानदी के दक्षिण में
उत्कृष्टतः इसी प्रकार आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न 卐 होते हैं और उत्पन्न होंगे। ८०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में सीतोदा महानदी के 卐
उत्तर में उत्कृष्टतः इसी प्रकार आठ अर्हत्, आठ चक्रवर्ती, आठ बलदेव और आठ वासुदेव उत्पन्न हुए थे, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे।
77. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain to the north of great river Sita a maximum of eight Arhats (Tirthankars), eight - Chakravartis, eight Baladevas and eight Vasudevas did, do and will take birth. 78. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain to the 45 south of great river Sita a maximum of eight Arhats (Tirthankars), eight Chakravartis, eight Baladevas and eight Vasudevas did, do and will take birth. 79. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to $i the south of great river Sitoda a maximum of eight Arhats (Tirthankars), eight Chakravartis, eight Baladevas and eight Vasudevas did, do and
take birth. 80. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to the north of great river Sitoda a maximum of eight Arhats (Tirthankars), eight Chakravartis, eight Baladevas and eight Vasudevas
did, do and will take birth. ॐ पर्वत-गुफा-पद PARVAT-GUFA-PAD (SEGMENT OF MOUNTAINS AND CAVES)
८१. जंबुद्वीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए महाणईए उत्तरे णं अट्ठ दीहवेयड्डा, ॐ अट्ठ तिमिसगुहाओ, अट्ठ खंडगप्पवातगुहाओ, अट्ठ कयमालगा देवा, अट्ठ णट्टमालगा देवा, अट्ठ
स्थानांगसूत्र (२)
(390)
Sthaananga Sutra (2)
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गंगाकुंडा, अट्ठ सिंधुकुंडा, अट्ठ गंगाओ, अट्ठ सिंधूओ, अट्ठ उसभकूडा पव्वता, अट्ठ उसभकूडा देवा ॥ पण्णत्ता। ८२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं सीताए दाहिणे णं अट्ठ दीहवेअड्डा एवं चेव जाव अट्ट उसभकूडा देवा पण्णत्ता, णवरमेत्थ रत्त-रत्तावती, तासिं चेव कुंडा।।
८१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के उत्तर में आठ दीर्घ वैताढ्य, ॐ आठ तमिस्र गुफाएँ, आठ खण्डकप्रताप गुफाएँ, आठ कृतमालक देव, आठ गंगाकुण्ड, आठ सिन्धुकुण्ड, 卐 आठ गंगा, आठ सिन्धु, आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ ऋषभकूट देव हैं। ८२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप
में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के दक्षिण में आठ दीर्घ वैताढ्य, आठ तमिस्र गुफाएँ, आठ म खण्डकप्रताप गुफाएँ, आठ कृतमालक देव, आठ रक्ताकुण्ड, आठ रक्तवती कुण्ड, आठ रक्ता, आठ रक्तवती, आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ ऋषभकूट देव हैं।
81. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain to the 45 north of great river Sita there are eight Deergh Vaitadhya mountains, eight Tamisra caves, eight Khandaprapatak caves, eight Kritamalak gods, eight Nrityamalak gods, eight Gangakund, eight Sindhukund, eight Ganga, eight Sindhu, eight Rishabhakoot mountains and eight Rishabhakoot gods. 82. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain to the south of great river Sita there are eight Deergh 45
Vaitadhya mountains, eight Tamisra caves, eight Khandaprapatak 1 ___caves, eight Kritamalak gods, eight Nrityamalak gods, eight Raktakund,
eight Raktavatikund, eight Rakta, eight Raktavati, eight Rishabhakoot 5 mountains and eight Rishabhakoot gods.
८३. जंबुद्वीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीतोयाए महाणदीए दाहिणे णं अट्ठ ॐ दीहवेयड्डा जाव अट्ठ णट्टमालगा देवा, अट्ठ गंगाकुंडा, अट्ठ सिंधुकुंडा, अट्ठ गंगाओ, अट्ठ सिंधूओ,
अट्ठ उसभकूडा पव्वता, अट्ठ उसभकूडा देवा पण्णत्ता। ८४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स ॐ पच्चत्थिमे णं सीओयाए महाणदीए उत्तरे णं अट्ठ दीहवयेड्डा जाव अट्ट णट्टमालगा देवा पण्णत्ता। अट्ठ
रत्ताकुंडा, अट्ठा रत्तावतिकुंडा, अट्ठ रत्ताओ, (अट्ठ रत्तावतीओ, अट्ठ उसभकूडा पवता), अट्ठ ॐ उसभकूडा देवा पण्णत्ता। ८५. मंदरचूलिया णं बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोइणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता।
८३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में सीतोदा महानदी के दक्षिण में आठ दीर्घ । ॐ वैताढ्य, आठ तमिस्रगुफाएँ, आठ खण्डकप्रपात गुफाएँ, आठ कृतमालक देव, आठ नृत्यमालक देव, के
आठ गंगाकुण्ड, आठ सिन्धुकुण्ड, आठ गंगा, आठ सिन्धु, आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ ऋषभकूट देव हैं। ८४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में सीतोदा महानदी के उत्तर में आठ दीर्घ वैताढ्य, आठ तमिस्रगुफाएँ, आठ खण्डकप्रपात गुफाएँ, आठ कृतमालक देव, आठ नृत्यमालक देव,
आठ रक्ताकुण्ड, आठ रक्तवतीकुण्ड, आठ रक्ता, आठ रक्तावती, आठ ऋषभकूट पर्वत और आठ ॐ ऋषभकूट देव हैं। ८५. मन्दर पर्वत की चूलिका बहुमध्यदेश भाग में आठ योजन चौड़ी है।
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अष्टम स्थान
(391)
Eighth Sthaan
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83. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to the south of great river Sitoda there are eight Deergh Vaitadhya mountains, eight Tamisra caves, eight Khandaprapatak caves, eight Kritamalak gods, eight Nrityamalak gods, eight Gangakund, eight Sindhukund, eight Ganga, eight Sindhu, eight Rishabhakoot mountains and eight Rishabhakoot gods. 84. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain to the north of great river Sita there are eight Deergh Vaitadhya mountains, eight Tamisra caves, eight Khandaprapatak 15 caves, eight Kritamalak gods, eight Nrityamalak gods, eight Raktakund, $i eight Raktavatikund, eight Rakta, eight Raktavati, eight Rishabhakoot mountains and eight Rishabhakoot gods. 85. Mandar Chulika (the peak of Mandar mountain) is eight Yojan wide at its middle.
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धातकीषण्डद्वीप-पद DHATAKIKHAND-DVEEP-PAD
(SEGMENT OF DHATAKIKHAND CONTINENT) ८६. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं धायइरुक्खे अट्ठ जोयणाई उडं उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई विक्खंभेण, साइरेगाइं अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ते। ८७. एवं धायइरुक्खाओ
आढवेत्ता सच्चेव जंबूदीववत्तव्वता भाणियव्या जाव मंदर-चूलियति। ८८. एवं पच्चत्थिमद्धेवि * महाधायइरुक्खातो आढवेत्ता जाव मंदरचूलियति।
८६. धातकीषण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में धातकीवृक्ष आठ योजन ऊँचा, बहुमध्यदेश भाग में आठ योजन चौड़ा और सर्व परिमाण में कुछ अधिक आठ योजन विस्तृत है। ८७. इसी प्रकार धातकीषण्ड के पूर्वार्ध में धातकीवृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक का सर्व वर्णन जम्बूद्वीप की वक्तव्यता के समान है। ८८. इसी प्रकार धातकीषण्ड के पश्चिमार्ध में महाधातकी वृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक का सर्व वर्णन जम्बूद्वीप की वक्तव्यता के समान है।
86. In the eastern half of Dhatakikhand Dveep the Dhataki tree is eight Yojan tall, eight Yojan wide in the middle and a little more than eight Yojan in overall dimension. 87. In the same way all the description of the eastern half of Dhatakikhand Dveep starting from Dhataki tree up to Mandar Chulika should be read as that mentioned about Jambu Dveep. 88. In the same way all the description of the western half of Dhatakikhand Dveep starting from Mahadhataki tree up to Mandar Chulika should be read as that mentioned about Jambu Dveep. पुष्करवर-द्वीप-पद PUSHKARVAR-DVEEP-PAD (SEGMENT OF PUSHKARVAR CONTINENT)
८९. एवं पुक्खरवरदीवडूपुरथिमद्धेवि पउमरुक्खाओ आढवेत्ता जाव मंदरचूलियति। ९०. एवं पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धेवि महापउमरुक्खातो जाव मंदरचूलियति।
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स्थानांगसूत्र (२)
(392)
Sthaananga Sutra (2)
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८९. इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध पूर्वार्ध में पद्मवृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक का सर्व वर्णन
जम्बूद्वीप की वक्तव्यता के समान है । ९०. इसी प्रकार पुष्करवरद्धीपार्ध के पश्चिमार्ध के महापद्म वृक्ष से लेकर मन्दरचूलिका तक का सर्व वर्णन जम्बूद्वीप की वक्तव्यता के समान है।
89. In the same way all the description of the eastern half of Pushkarvardveepardh (half Pushkarvar continent) starting from Padma tree up to Mandar Chulika should be read as that mentioned about Jambu Dveep. 90. In the same way all the description of the western half of Pushkarvardveepardh starting from Mahapadma tree up to Mandar Chulika should be read as that mentioned about Jambu Dveep.
कूट- पद KOOT-PAD (SEGMENT OF PEAKS)
९१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वते भद्दसालवणे अट्ठ दिसाहत्थिकूडा पण्णत्ता, पउमुत्तर णीलवंते, सुहत्थि अंजणागिरी ।
तं जहा
कुमुदे य पलासे य वडेंसे रोयणागिरी ॥ १ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
९१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत के भद्रशाल वन में आठ दिशाहस्तिकूट (पूर्व आदि दिशाओं में हाथी के समान आकार वाले शिखर) कहे गये हैं, जैसे- (१) पद्मोत्तर, (२) नीलवान्, (३) सुहस्ती, (४) अंजनगिरि, (५) कुमुद, (६) पलाश, (७) अवतंसक, (८) रोचनगिरि ।
91. In Jambudveep there are said to eight Dishahastikoots (elephantshaped peaks in cardinal and intermediate directions including east) in Bhadrashal forest on Mandar mountain-(1) Padmottar, (2) Neelavaan, (3) Suhasti, (4) Anjanagiri, (5) Kumud, (6) Palaash, (7) Avatamsak and (8) Rochan-giri.
जगती - पद JAGATI PAD (SEGMENT OF PLATEAU)
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९२. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स जगती अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ।
९२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप की जगती आठ योजन ऊँची और बहुमध्यदेश भाग में आठ योजन विस्तृत है।
92. The plateau around Jambudveep is eight Yojan high and eight Yojan wide in the middle.
कूट - पद KOOT-PAT (SEGMENT OF PEAKS)
९३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं महाहिमवंते वासहरपव्वते अट्ठ कूडा पण्णत्ता,
अष्टम स्थान
(393)
Eighth Sthaan
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तं जहा
९४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रुप्पिमि वासहरपव्वते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, सिद्धेय रुप्पि रम्मग, णरकंता बुद्धि रुप्पकूडे य । हिरण्णवते मणिकंचणे, य रुप्पिम्मि कूडा उ ॥१॥
तं जहा
९३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर आठ कूट हैं, जैसे - ( 9 ) सिद्ध कूट, (२) महाहिमवान् कूट, (३) हिमवान् कूट, (४) रोहित कूट, (५) कूट, (६) हरिकान्त कूट, (७) हरिवर्ष कूट, (८) वैडूर्य कूट । ९४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत
के उत्तर में रुक्मी वर्षधर पर्वत पर आठ कूट हैं, जैसे- (१) सिद्ध कूट, (२) रुक्मी कूट, (३) रम्यक कूट, (४) नरकान्त कूट, (५) बुद्धि कूट, (६) रुप्य कूट, (७) हैरण्यवत कूट, (८) मणिकांचन कूट।
सिद्धे महाहिमवंते, हिमवंते रोहिता हिरीकूडे ।
हरिकंता हरिवासे, वेरुलिए चेव कूडा उ ॥ १ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
93. In Jambu continent, south of Mandar Mountain on Mahahimavan Varshadhar mountain there are eight koots (peaks ) – ( 1 ) Siddhakoot, (2) Mahahimavan koot, (3) Himavan koot, (4) Rohit koot, (5) Hri koot, (6) Harikant koot, (7) Harivarsh koot and (8) Vaidurya koot. 94. In Jambu continent, north of Mandar Mountain, on Rukmi Varshadhar mountain there are eight koots (peaks ) - ( 1 ) Siddha koot, (2) Rukmi koot, ( 3 ) Ramyak koot, (4) Narakant koot, (5) Buddhi koot, (6) Rupya koot, (7) Hairanyavar and (8) Manikanchan koot.
९५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं रुयगवरे पव्यते अट्ठ कूडा पण्णत्ता,
रिट्ठे तवणिज्ज कंचणा, रयत दिसासोत्थिते पलंबे य । अंजणे अंजणपुलए, रुयगस्स पुरित्थमे कूडा ॥१ ॥
तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमद्वितीयाओ परिवसंति, दुत्तरायणंदा, आणंदा दिवद्वणा ।
तं जहा
विजया य वेजयंती, जयंती अपरााजिया ॥ २ ॥
तं जहा
९५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत के पूर्व में रुचकवर पर्वत के ऊपर आठ कूट हैं, जैसे - (१) रिष्ट कूट, (२) तपनीय कूट, (३) कांचन कूट, (४) रजत कूट, (५) दिशास्वस्तिक कूट, (६) प्रलम्ब कूट, (७) अंजन कूट, (८) अंजनपुलक कूट।
उन कूटों पर महाऋद्धिवाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी महत्तरिकाएँ रहती हैं । ( 9 ) नन्दोत्तरा, (२) नन्दा, (३) आनन्दा, (४) नन्दिवर्धना, (५) विजया, (६) वैजयन्ती, (७) जयन्ती, (८) अपराजिता ।
स्थानांगसूत्र (२)
(394)
Sthaananga Sutra (2)
ॐ ॐ ॐ फ्र
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95. In Jambu continent, east of Mandar Mountain on Ruchakavar mountain there are eight koots (peaks)-(1) Risht koot, (2) Tapaniya koot, (3) Kanchan, (4) Rajat koot, (5) Dishasvastik koot, (6) Pralamb koot, (7) Anjan koot and (8) Anjanapulak koot.
On these peaks reside eight Dishakumari Mahattarikas (chiefs of directional goddesses) having great wealth... and so on up to... life span of one Palyopam-(1) Nandottara, (2) Nanda, (3) Ananda, (4) Nandivardhana, (5) Vijayaa, (6) Vaijayanti, (7) Jayanti and (8) Aparajita.
९६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं रुयगवरे पवते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा- कणए कंचणे पउमे, णलिणे ससि दिवायरे चेव।
वेसमणे वेरुलिए, रुयगस्स उ दाहिणे कूडा॥१॥ तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमहितीयाओ परिवसंति, तं जहा- समाहारा सुप्पतिण्णा, सुप्पबुद्धा जसोहरा।
लच्छिवती सेसवती, चित्तगुत्ता वसुंधरा ॥२॥ ९६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में रुचकवर पर्वत के ऊपर आठ कूट हैं, जैसे-(१) कनक कूट, (२) कांचन कूट, (३) पद्म कूट, (४) नलिन कूट, (५) शशी कूट, (६) दिवाकर कूट, (७) वैश्रमण कूट, (८) वैडूर्य कूट।
वहाँ महाऋद्धिवाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी महत्तरिकाएँ रहती हैं, जैसे-(१) समाहारा, (२) सुप्रतिज्ञा, (३) सुप्रबुद्धा, (४) यशोधरा, (५) लक्ष्मीवती, (६) शेषवती, (७) चित्रगुप्ता, (८) वसुन्धरा।
96. In Jambu continent, south of Mandar Mountain on Ruchakavar mountain there are eight koots (peaks) (1) Kanak koot, (2) Kaanchan koot, (3) Padma koot. (4) Nalin koot. (5) Shashi koot. (6) Diwakar koot. (7) Vaishraman koot and (8) Vaidurya koot.
On these lakes reside eight Dishakumari Mahattarikas (chiefs of 4 directional goddesses) having great wealth... and so on up to... life span of one Palyopam—(1) Samaahaara, (2) Suptratijna, (3) Suprabuddhaa, (4) Yashodhara, (5) Lakshmivati, (6) Sheshavati, (7) Chitraguptaa and (8) Vasundhara. ___ ९७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं रुयगवरे पब्बते अट्ट कूडा पण्णत्ता, तं जहा- सोस्थिते य अमोहे य, हिमवं मंदरे तहा।।
रुअगे रुयगुत्तमे चंदे, अट्ठमे य सुदंसणे॥१॥
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तत्थ णं अट्ठदिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमद्वितीयाओ परिवसंति, ___ तं जहा- इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावती।
एगणासा णवमिया, सीता भद्दा य अट्ठमा॥२॥ ९७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम में रुचकवर पर्वत के ऊपर आठ कूट हैं, जैसे-(१) स्वस्तिक कूट, (२) अमोह कूट, (३) हिमवान कूट, (४) मन्दर कूट, (५) रुचक कूट, (६) रुचकोत्तमा कूट, (७) चन्द्र कूट, (८) सुदर्शन कूट।
वहाँ ऋद्धिशाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी महत्तरिकाएँ रहती हैं, जैसे-(१) इलादेवी, (२) सुरादेवी, (३) पृथ्वी, (४) पद्मावती, (५) एकनासा, (६) नवमिका, (७) सीता, (८) भद्रा।
97. In Jambu continent, west of Mandar Mountain on Ruchakavar mountain there are eight koots (peaks)-(1) Swastika koot, (2) Amoha koot, (3) Himavan koot, (4) Mandar koot, (5) Ruchak koot, (6) Ruchakottama koot, (7) Chandra koot and (8) Sudarshan koot.
On these lakes reside eight Dishakumari Mahattarikas (chiefs of directional goddesses) having great wealth... and so on up to... life span 卐 of one Palyopam-(1) Iladevi, (2) Suradevi, (3) Prithvi, (4) Padmavati, (5) Ekanasa, (6) Navamika, (7) Sita and (8) Bhadraa.
९८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रुअगवरे पवते अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा- रयण-रयणुच्चए या, सव्वरयण रयणसंचए चेव।
विजये य वेजयंते, जयंते अपराजिते॥१॥ तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्डियाओ जाव पलिओवमद्वितीयाओ परिवसंति, तं जहा- अलंबुसा मिस्सकेसी, पोंडरिगी य वारुणी।
___आसा सव्वगा चेव, सिरी हिरी चेव उत्तरतो॥२॥ __ ९८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में रुचकवर पर्वत के ऊपर आठ कूट हैं। 5 + जैसे-(१) रत्नकूट, (२) रत्नोच्चय कूट, (३) सर्वरत्न कूट, (४) रत्नसंचय कूट, (५) विजय कूट, म (६) वैजयन्त कूट, (७) जयन्त कूट, (८) अपराजित कूट।
वहाँ महाऋद्धिवाली यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाली आठ दिशाकुमारी महत्तरिकाएँ रहती हैं, ॐ जैसे-(१) अलंबुषा, (२) मिश्रकेशी, (३) पौण्डरिकी, (४) वारुणी, (५) आशा, (६) सर्वगा, (७) श्री, के
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98. In Jambu continent, north of Mandar Mountain on Ruchakavar mountain there are eight koots (peaks)-(1) Ratna koot, (2) Ratnochchaya
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koot, (3) Sarvaratna koot, ( 4 ) Ratnasanchaya koot, ( 5 ) Vijaya koot, (6) Vaijayant koot, (7) Jayant koot and (8) Aparajit koot.
On these lakes reside eight Dishakumari Mahattarikas (chiefs of directional goddesses) having great wealth... and so on up to... life span of one Palyopam – (1) Alambusha, ( 2 ) Mishrakeshi, ( 3 ) Paundariki, 5 5 (4) Vaaruni, ( 5 ) Asha, ( 6 ) Sarvaga, (7) Shri and (8) Hri.
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(7) Vaarishena and (8) Balahaka.
१००. अट्ठ उड्डलोगवत्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहामेघंकरा मेघवती, सुमेघा मेघमालिणी ।
तोयधारा विचित्ता य, पुप्फमाला अणिंदिता ॥१॥
महत्तरिका - पद MAHATTARIKA-PAD (SEGMENT OF MAHATTARIKAS) ९९. अट्ठ अहेलोगवत्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, भोगंकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी । सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा ॥ १ ॥
तं जहा
९९. अधोलोक में रहने वाली आठ दिशाकुमारियों की महत्तरिकाएँ (प्रधान) हैं, जैसे- (9) भोगंकरा, (२) भोगवती, (३) सुभोगा, (४) भोगमालिनी, (५) सुवत्सा, (६) वत्समित्रा, (७) वारिषेणा, 5 (८) बलाहका ।
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100. In Urdhvalok (upper world) reside eight Dishakumari Mahattarikas (chiefs of directional goddesses) – (1) Meghankara, (2) Meghavati, (3) Sumegha, ( 4 ) Meghamalini, (5) Toyadhaara, (6) Vichitraa, (7) Pushpamaala and (8) Anindita.
99. In Adholok (lower world) reside eight Dishakumari Mahattarikas (chiefs of directional goddesses ) – ( 1 ) Bhogankara, (2) Bhogavati,
(3) Subhoga, (4) Bhogamalini, ( 5 ) Suvatsaa,
( 6 ) Vatsamitraa, 5
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१००. ऊर्ध्वलोक में रहने वाली आठ दिशाकुमारी - महत्तरिकाएँ हैं। जैसे- (१) मेघंकरा, 5 (२) मेघवती, (३) सुमेघा, (४) मेघमालिनी, (५) तोयधारा, (६) विचित्रा, (७) पुष्पमाला, 卐 (८) अनिन्दिता ।
अष्टम स्थान
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विवेचन - पूर्व - पश्चिम, उत्तर-दक्षिण दिशाओं का विभाग मेरुपर्वत से होता है । जम्बूद्वीप से ही समस्त द्वीपों की गणना होती है। जम्बद्वीप से १७वाँ द्वीप रुचकवर द्वीप है । इस द्वीप के ठीक मध्य भाग में गोलाकार रुचक पर्वत है। उनके चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट (शिखर) है। इन ३२ कूटों पर
३२ दिशा कुमारियों का आवास स्थान है । ८ दिशा कुमारियाँ अधोलोक के गजदंत पर्वतों के कूटों पर ८ ऊर्ध्वलोक में नन्दन वन में कूटों पर तथा ४ विदिशा के रुचक पर्वतों के कूटों पर ४ मध्य रुचक पर्वतों 5
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Eighth Sthaan
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ॐ के कूटों पर यों कुल छप्पन दिशा कुमारियाँ कूटों पर स्थित अपने-अपने आवासों में रहती है। तीर्थंकरों . म के जन्म अवसर सर्वप्रथम में आकर उनका सूतिका कर्म आदि सम्पन्न कराती है। (जम्बूद्वीप. वक्ष ५)
Elaboration-The dividing point of directions east-west and northsouth is Meru mountain. The counting of continents starts from Jambudveep. The seventeenth continent from Jambudveep is Ruchakavar dveep. At the center of this continent is a circular mountain called Ruchak. In its four directions there are eight peaks each. On these 32 peaks reside 32 Dishakumaris. There are 8 Dishakumaris on the peaks of Gajadant mountain in Adholok, 8 on the peaks in Nandanavan in Urdhvalok, 4 on peaks of Ruchak mountains in intermediate directions and 4 on the peaks of the central Ruchak mountain. Thus a total of 56 Dishakumaris reside in their respective abodes on these peaks. They all arrive for performing the post birth rituals (sutika karma) when a Tirthankar is born.
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कल्प-पद KALP-VIMAAN-PAD (SEGMENT OF DIVINE REALMS)
१०१. अट्ठ कप्पा तिरिय-मिस्सोववण्णगा पण्णत्ता, तं जहा-सोहम्मे, (ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे, बंभलोगे, लंतए महासुक्के), सहस्सारे।
१०१. तिर्यग्-मिश्रोपन्नक (तिर्यंच और मनुष्य दोनों के उत्पन्न होने के योग्य) कल्प आठ हैं, जैसेॐ (१) सौधर्म, (२) ईशान, (३) सनत्कुमार, (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्मलोक, (६) लान्तक, (७) महाशुक्र, म (८) सहस्रार।
101. There are said to be eight tiryagmishropannak kalps (the divine realms where animals and human beings both can reincarnate) (1) Saudharma, (2) Ishan, (3) Sanatkumar, (4) Maahendra, (5) Brahmalok, (6) Lantak, (7) Mahashukra and (8) Sahasrar.
विवेचन-इस सूत्र का भाव है-आठवें देवलोक तक तिर्यंच और मनुष्य दोनों ही जा सकते हैं, किन्तु + नौवें से छव्वीसवें देवलोक तक केवल मनुष्यगति का जीव ही उत्पन्न होता है।
Elaboration—Beyond these eight Devaloks only human beings can \i reincarnate up to the twenty sixth one.
१०२. एतेसु णं अट्ठसु कप्पेसु अट्ठ इंदा पण्णत्ता, तं जहा-सक्के, (ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे, बंभे, लंतए, महासुक्के), सहस्सारे। १०३. एतेसि णं अट्ठण्हं इंदाणं अट्ठ परियाणिया विमाणा # पण्णत्ता, तं जहा-पालए, पुप्फए, सोमणसे, सिरिवच्छे, णंदियावत्ते, कामकमे, पीतिमणे, मणोरमे।
१०२. इन आठों कल्पों में आठ इन्द्र हैं, जैसे-(१) शक्र, (२) ईशान, (३) सनत्कुमार, ॐ (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्म, (६) लान्तक, (७) महाशुक्र, (८) सहस्रार। १०३. इन आठों इन्द्रों के
स्थानांगसूत्र (२)
(398)
Sthaananga Sutra (2)
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95555555555555555555555555555555555558 । आठ पारियानिक (यात्रा में काम आने वाले) विमान हैं, जैसे-(१) पालक, (२) पुष्पक, (३) सौमनस, (४) श्रीवत्स, (५) नंद्यावर्त, (६) कामक्रम, (७) प्रीतिमन, (८) मनोरम।
102. There are said to be eight Indras (overlords) in these Kalps(1) Shakra, (2) Ishan, (3) Sanatkumar, (4) Maahendra, (5) Brahma, (6) Lantak, (7) Mahashukra and (8) Sahasrar. 103. These eight Indras are said to have eight paariyanik vimaans (celestial vehicles used for
traveling)(1) Paalak, (2) Pushpak, (3) Saumanas, (4) Shrivatsa, F (5) Nandyavart, (6) Kamakram, (7) Pritiman and (8) Manoram. # प्रतिमा-पद PRATIMA-PAD (SEGMENT OF SPECIAL CODES)
१०४. अट्टमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासीतेहिं भिखासतेहिं । अहासुत्तं (अहाअत्थं अहातच्चं अहामग्गं अहाकप्पं सम्मं काएणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया) अणुपालितावि भवति।
१०४. अष्टअष्टमिका नामक भिक्षुप्रतिमा ६४ दिन-रात में तथा २८८ भिक्षादत्तियों के द्वारा, सूत्रानुसार, अर्थानुसार तत्वानुसार मार्गानुकूल आचारकल्प के अनुरूप तथा सम्यक् प्रकार से स्पर्श करें, पालन करें, अतिचारों से शुद्धिकरण करके, अन्त तक पालन की जाती है। ____104. The Ashta-ashtamika Bhikshupratima (a specific practice with special codes) is sincerely observed (palit), purified (shodhit; for transgressions), completed (purit; for breaking fast), concluded (kirtit; break the fast) and successfully performed (aradhit) for 64 (8x8) days and nights with 288 bhikshadattis (servings of alms) according to the scriptures (yathasutra), correct interpretation (yatha-arth), prescribed procedure (yathamarg) and code of praxis (yathakalp), perfectly following fundamentals (yathatattva), with equanimity (samata) and touching the body (actually, not just conceptually). जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS)
१०५. अट्ठविधा संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पढमसमयणेरइया, अपढमसमयणेरइया, (पढमसमयतिरिया, अपढमसमयदेवा ।
१०५. संसार-समापन्नक जीव आठ प्रकार के हैं-(१) प्रथम समय नारक-नरकायु के उदय के प्रथम समय वाले नारक। (२) अप्रथम समय नारक-प्रथम समय के सिवाय शेष समय वाले नारक। (३) प्रथम समय तिर्यंच-तिर्यगायु के उदय के प्रथम समय वाले तिर्यंच। (४) अप्रथम समय तिर्यंच। (५) प्रथम समय मनुष्य-मनुष्यायु के उदय के प्रथम समय वाले मनुष्य। (६) अप्रथम समय मनुष्य। (७) प्रथम समय देव-देवायु के उदय के प्रथम समय वाले देव। (८) अप्रथम समय देव।
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मनानानानानानानामनामनामनामानामा
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Eighth Sthaan
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105. Samsar-samapannak jivas (worldly living beings) are of eight ! kinds—(1) Pratham samaya naarak-infernal beings at the first moment ! of birth or fruition of infernal-life-span determining karma. (2) Apratham samaya naarak-infernal beings at post birth moments. (3) Pratham samaya tiryanch-animals at the first moment of birth or fruition of animal-life-span determining karma. (4) Apratham samaya tiryanchanimals at post birth moments. (5) Pratham samaya manushya-human beings at the first moment of birth or fruition of human-life-span ! determining karma. (6) Apratham samaya manushya-human beings at post birth moments. (7) Pratham samaya deva--gods at the first moment
of birth or fruition of divine-life-span determining karma. (8) Apratham 4 samaya deva--gods at post birth moments.
१०६. अट्ठविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा णेरइया, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खंजोणिणीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ, देवा, देवीओ, सिद्धा। ___अहवा-अट्ठविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-आभिणिबोहियणाणी, (सुयणाणी, ओहिणाणी,
मणपज्जवणाणी), केवलणाणी, मतिअण्णाणी, सुतअण्णाणी, विभंगणाणी। + १०६. सर्वजीव आठ प्रकार के हैं-(१) नारक, (२) तिर्यग्योनिक, (३) तिर्यग्योनिकी, (४) मनुष्य,
(५) मानुषी, (६) देव, (७) देवी, (८) सिद्ध। म अथवा सर्वजीव आठ प्रकार के हैं-(१) आभिनिबोधिकज्ञानी, (२) श्रुतज्ञानी, (३) अवधिज्ञानी,
(४) मनःपर्यवज्ञानी, (५) केवलज्ञानी, (६) मतिअज्ञानी, (७) श्रुतअज्ञानी, (८) विभंगअज्ञानी। 4 106. All beings are of eight kinds-(1) Nairayik (infernal beings), 41 (2) Tiryagyonik (males of animals), (3) Tiryanchini (females of animals),
(4) Manushya (men), (5) Manushyani (women), (6) Deva (gods), (7) Devi (goddesses) and (8) Siddha.
Also all beings are of eight kinds——(1) abhinibodhik jnani, (2) shrutjnani, (3) avadhi-jnani, (4) manahparyav jnani, (5) Keval-jnani, (6) mati
ajnani (without mati-jnana), (7) shrut-ajnani (without shrut-jnana) and 5 (8) vibhang-ajnani (having pervert knowledge). संयम-पद SAMYAM-PAD (SEGMENT OF ASCETIC-DISCIPLINE)
१०७. अविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-पढमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे, अपढमसमय सुहुमसंपरायसरागसंजमे, पढमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे, अपढमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे, पढमसमय उवसंतकसाय-वीतरागसंजमे, अपढमसमय उवसंतकसायवीतरागसंजमे, पढमसमयखीणकसायवीतरागसंजमे, अपढमसमयखीणकसायवीतरागसंजमे।
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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म १०७. संयम आठ प्रकार का है-(१) प्रथम समय सूक्ष्मसाम्परायसराग संयम, (२) अप्रथम समय : भी सूक्ष्मसाम्परायसराग संयम, (३) प्रथम समय बादरसाम्परायसराग संयम, (४) अप्रथम समय
बादरसाम्परायसराग संयम, (५) प्रथम समय उपशान्तकषायवीतराग संयम, (६) अप्रथम समय
उपशान्तकषायवीतराग संयम, (७) प्रथम समय क्षीणकषायवीतराग संयम, (८) अप्रथम समय है कक्षीणकषायवीतराग संयम। (देखें-स्थान १, सूत्र ११०-१२०) # 107. Samyam is of eight kinds—(1) pratham Samaya sukshma
samparaya saraag samyam (discipline with attachment and subtle passions during the first Samaya of attaining the level), (2) apratham samaya sukshma samparaya saraag samyam (discipline with attachment and subtle passions any time after the first Samaya of attaining the level), (3) pratham Samaya badar samparaya saraag samyam (discipline with attachment and gross passions during the first Samaya of attaining the level), (4) apratham samaya badar samparaya saraag samyam (discipline 51 with attachment and gross passions any time after the first Samaya of attaining the level), (5) pratham Samaya upashant-kashaya Vitarag samyam (discipline with detachment and pacified passions during the first Samaya of attaining the level), (6) apratham Samaya upashant
kashaya Vitarag samyam (discipline with detachment and pacified fi passions any time after the first Samaya of attaining the level), fi (7) pratham Samaya ksheen-kashaya Vitarag samyam (discipline with i
detachment and extinct passions during the first Samaya of attaining the level) (8) apratham Samaya ksheen-kashaya Vitarag samyam (discipline with detachment and extinct passions at any time after the first Samaya of attaining the level). (see Sthaan-1, aphorisms - 110-120) पृथ्वी-पद PRITHVI-PAD (SEGMENT OF LANDS)
१०८. अट्ट पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रयणप्पभा, (सक्करप्पभा, वालुअप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, तमा), अहेसत्तमा, ईसिपब्भारा।
१०८. पृथ्वियाँ आठ हैं-(१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा, (७) अधःसप्तमी (तमस्तमः प्रभा), (८) ईषत्प्राग्भारा (सिद्ध शिला)।
108. Prithvi (lands) are of eight kinds—(1) Ratnaprabha, (2) Sharkaraprabha, (3) Balukaprabha, (4) Pankapr abha, (5) Dhoom
prabha, (6) Tamah-prabha, (7) Adhah saptami (tamstamah-prabha) and H (8) Ishatpragbhara (Siddhashila). म १०९. ईसिपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागे अट्ठजोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं # पण्णत्ते। ११०. ईसिपउभाराए णं पुढवीए अट्ठ णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-ईसिति वा,
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555555555555555555555555555555555555/ ॐ ईसिपन्भाराति वा, तणूति वा, तणुतणूइ वा, सिद्धीति वा, सिद्धालएति वा, मुत्तीति वा, मुत्तालएति वा।
१०९. ईषत्प्राग्भारा पृथिवी के बहुमध्य देशभाग में आठ योजन लम्बे-चौड़े क्षेत्र का बाहल्य (मोटाई) आठ योजन है। ११०. ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के आठ नाम हैं। जैसे-(१) ईषत्, (२) ईषत्प्रग्भारा, (३) तनु, (४) तनुतनु, (५) सिद्धि, (६) सिद्धालय, (७) मुक्ति, (८) मुक्तालय। ____109. The eight Yojan long and wide area in the midsection of Ishatpragbhara prithvi is eight Yojan deep (thick). 110. Ishatpragbhara prithvi has eight names (1) Ishat, (2) Ishatpragbhara, (3) Tanu, (4) Tanutanu, (5) Siddhi, (6) Siddhalaya, (7) Mukti and (8) Muktalaya. अभ्युत्थातव्य-पद ABHYUTTHATAVYA-PAD (SEGMENT OF ALERTNESS)
१११. अट्टहिं ठाणेहिं सम्मं घडितव्वं जतितव्वं परक्कमितव्यं अस्सिं च णं अटे णो पमाएतव्वं भवति
(१) असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणताए अब्भुटेतव्वं भवति। (२) सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अब्भुटुंतव्वं भवति। (३) णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अन्भुट्टेयव्वं भवति। (४) पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणताए विसोहणताए अन्भुद्वैतव्वं भवति। (५) असंगिहीतपरिजणस्स संगिण्हताए अब्भुट्टेयव्वं भवति। (६) सेहं आयारगोयरं गाहणताए अब्भुट्टेयव्वं भवति। (७) गिलाणस्स अगिलाए यावच्चकरणताए अब्भुट्टेयव्वं भवति।
(८) साहम्मियाणमधिकरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सितो अपक्खग्गाही मज्झत्थभावभूते कहं णु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमंतुमा उवसामणताए अन्भुट्टेयव्वं भवति।
१११. आठ स्थानों की प्राप्ति के लिए साधक सम्यक् चेष्टा करे, सम्यक् प्रयत्न करे, सम्यक् पराक्रम करे। इन आठों के विषय में कुछ भी प्रमाद (उपेक्षा) नहीं करना चाहिए
(१) अब तक नहीं सुने हुए धर्मों को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए जागरूक रहे। (२) सुने हुए धर्मों को मन से ग्रहण करे और उनकी स्थिति और स्मृति के लिए सतत् जागरूक रहे। (३) संयम के द्वारा नवीन कर्मों का निरोध करने के लिए जागरूक रहे। (४) तपश्चरण के द्वारा पुराने कर्मों को पृथक् करने और विशोधन करने के लिए जागरूक रहे।
(५) असंगृहीत परिजनों (तथा निराश्रित सहधर्मी) का संग्रह (अपने साथ सम्मिलित) करने के लिए जागरूक रहे।
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(६) शैक्ष (नवदीक्षित) मुनि को आचार-गोचर (साधु धर्म की मर्यादा और भिक्षाचरी) का सम्यक् ॥ बोध कराने के लिए जागरूक रहे।
(७) ग्लान (रोग व पीड़ा ग्रस्त) साधु की ग्लानि-भाव से रहित होकर वैयावृत्त्य करने के लिए जागरूक रहे।
(८) साधर्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर-'ये मेरे साधर्मिक किस प्रकार अपशब्द, कलह और तू-तू, मैं-मैं से मुक्त हों' ऐसा विचार करते हुए लिप्सा और अपेक्षा से रहित होकर किसी का पक्ष न लेकर मध्यस्थ भाव को स्वीकार कर उसे उपशान्त करने के लिए जागरूक रहे।
111. An aspirant should do right effort, right endeavour and right pursuance to attain eight sthaans (goals)
(1) He should be ever alert to listen to hitherto unknown dharmas (codes of conduct; religious fundamentals).
(2) He should be ever alert to understand the listened dharmas and retain in his memory.
(3) He should be ever alert to block the inflow of new karmas with the help of ascetic-discipline.
(4) He should be ever alert to accomplish purification by shedding karmas with the help of austerities. ___ (5) He should be ever alert to organize (to bring them in his organization) the scattered relatives (and co-religionists).
___(6) He should be ever alert to impart right knowledge of achar-gochar i (ascetic-discipline and alms-collection) to neo-initiates.
(7) He should be ever alert to serve the ailing ascetics without any feeling of disgust. ___(8) When there is a strife among his co-religionists, he should be ever alert to pacify such strife with equanimity and without any demand, expectation or partiality, contemplating as to how those co-religionists may be free of slandering, strife and calling names. विमान-पद VIMAAN-PAD (SEGMENT OF CELESTIAL VEHICLES)
११२. महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसताइं उठें उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ११२. महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में विमान आठ सौ योजन ऊँचे हैं।
112. The vimaans of Mahashukra and Sahasrar kalps are eight | hundred Yojan in height.
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Eighth Sthaan
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वादि-सम्पदा-पद VAADI-SAMPADA-PAD (SEGMENT OF WEALTH OF VAADIS) + ११३. अरहतो णं अरिट्ठणेमिस्स अट्ठसया वादीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए वादे ॐ अपराजिताणं उक्कोसिया वादिसंपया हुत्था।
११३. अर्हत् अरिष्टनेमि के वादी मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी, जो देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् में वाद-विवाद के समय किसी से भी पराजित नहीं होते थे।
113. In the sangh of Arhat Arishtanemi the utkrishta sampada (maximum wealth or number) of vaadi munis (debater ascetics) was eight hundred. They were absolutely undefeated and unconquerable in any assembly of gods, men and Asurs (demons or lower gods). केवलिसमुद्घात-पद KEVALI-SAMUDGHAT-PAD (SEGMENT OF KEVALI-SAMUDGHAT)
११४. अट्ठसमइए केवलिसमुग्घाते पण्णत्ते, तं जहा-पढमे समए दंडं करेति, बीए समए : कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेति, पंचमे समए लोगं पडिसाहरति, छठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति।
११४. केवलिसमुद्घात आठ समय का होता है-(१) पहले समय में दण्ड समुद्घात करते हैं, (२) दूसरे समय में कपाट, (३) तीसरे समय में मन्थान, (४) चौथे समय में लोकपूरण, (५) पाँचवें समय में । लोक-व्याप्त आत्मप्रदेशों का उपसंहार (संकोचन), (६) छठे समय में मन्थान का उपसंहार, (७) सातवें समय में कपाट का उपसंहार, (८) आठवें समय में दण्ड का उपसंहार करते हैं। (विशेष विस्तार के लिए। सचित्र अनुयोगद्वार सूत्र, भाग १, सूत्र १०८; हिन्दी टीका, भाग २, पृ. ४५६ तथा प्रज्ञापना सूत्र समुद्घात पद देखें) ।
114. Kevali Samudghat is of eight Samayas-(1) In the first Samaya shape of dand (cylindrical) is acquired. (2) In the second Samaya shape of kapaat (cubical) is acquired. (3) In the third Samaya shape of manthaan u (churning stick) is acquired. (4) In the fourth Samaya shape of lokapuran
(enveloping the whole lokakash) is acquired. (5) In the fifth Samaya y 卐 upasamhar (shrinking) of lokapuran (to regain the shape of manthaan) isy
accomplished. (6) In the sixth Samaya upasamhar (shrinking) of 4 manthaan (to regain the shape of kapaat) is accomplished. (7) In the y seventh Samaya upasamhar (shrinking) of kapaat (to regain the shape of 3 dand) is accomplished. (8) In the eighth Samaya upasamhar (shrinking) of dand (to nothingness) is accomplished. (for detailed description of Kevali Samudghat see Illustrated Anyuogadvar Sutra, part-1, aphorism-108; Hindi Tika, part-2, p 456 and Prajnapana Sutra, Samudghat Pad) अनुत्तरौपपातिक-पद ANUTTARAUPAPATIK-PAD (SEGMENT OF ANUTTARAUPAPATIK)
११५. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गतिकल्लाणाणं ॐ (ठितिकल्लाणाणं) आगमेसिभदाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयसंपया हुत्था।
---1-
1नानानानानानानानानाजाना
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
45岁历历步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步
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११५. श्रमण भगवान महावीर के अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले साधुओं की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी। वे कल्याणगति वाले, कल्याणस्थिति वाले और आगामी काल में निर्वाण प्राप्त करने वाले हैं। 卐
115. In the sangh of Shraman Bhagavan Mahavir the maximum 5 ¡ number of ascetics reincarnating in Anuttar vimaans was eight hundred. They are in blissful genus, blissful state and destined to attain liberation in next birth.
वाणव्यन्तर- पद VANAVYANTAR-PAD (SEGMENT OF INTERSTITIAL GODS)
११६. अट्ठविधा वाणमंतरा देवा पण्णत्ता, तं जहा -पिसाया, भूता, जक्खा, रक्खसा, किण्णरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधव्या । ११७. एतेसि णं अट्ठविहाणं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ
चेइयरुक्खा पण्णत्ता,
तं जहा
कलंबो उ पिसायाणं, वडो जक्खाण चेइयं । तुलसी भूयाण भवे, रक्खाणं च कंडओ ॥१॥
असोओ किण्णराणं च, किंपुरिसाणं तु चंपओ ।
णागरुक्खो भुयंगाणं, गंधवाणं य तेंदुओ ॥ २ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
अष्टम स्थान
११८. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठजोयणसते उड्डमबाहाए सूरविमाणे चारं चरति । ११९. अट्ठ णक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमद्दं जोगं जोएंति, तं जहा - कत्तिया, रोहिणी, पुणव्वसू, महा, चित्ता, विसाहा, अणुराधा, जेट्ठा ।
११६. वाण-व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं - ( १ ) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, फ (५) किन्नर, (६) किम्पुरुष, (७) महोरग, (८) गन्धर्व । ११७. इन आठ प्रकार केवाण - व्यन्तर देवों के आठ चैत्यवृक्ष (प्रिय वृक्ष) होते हैं, जैसे- (१) कदम्ब पिशाचों का, (२) वट यक्षों का, (३) तुलसी भूतों का, (४) काण्डक राक्षसों का, (५) अशोक किन्नरों का, (६) चम्पक किम्पुरुषों का, (७) नागवृक्ष भुजंगों - महोरगों का, (८) तिन्दुक गन्धर्वो का चैत्यवृक्ष होता है ।
116. Vanavyantar devas (interstitial gods) are of eight kinds— (1) Pishach, ( 2 ) Bhoot, (3) Yaksha, (4) Rakshas, (5) Kinnar, (6) Kimpurush, फ्र (7) Mahorag and (8) Gandharva. 117. These eight kinds of interstitial gods have (liking for) eight kinds of Chaityavriskhas (temple-trees)( 1 ) Kadamb is liked by Pishach, (2) Vat (banyan) is liked by Yaksha, (3) Tulsi is liked by Bhoot, (4) Kandak is liked by Rakshas, (5) Ashoka is 5 liked by Kinnar, (6) Champak is liked by Kimpurush, (7) Naag tree is 5 liked by Bhujang or Mahorag and (8) Tinduk is liked by Gandharva.
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5 ज्योतिष्क - पद JYOTISHK - PAD (SEGMENT OF STELLAR GODS )
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(405)
Eighth Sthaan
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118. At a height of eight hundred Yojans from the beautiful leve! land of this Ratnaprabha prithvi travels the Surya vimaan (the celestial vehicle of the stellar god Surya). 119. Eight nakshatras (constellations)
join Chandrama (the moon) to form Pramardayoga (touching or 5 conjunction with the moon ) - ( 1 ) Krittika (Eta Tauri or Pleiades; the ! 5 3rd ), ( 2 ) Rohini (Aldebaran; the 4th), (3) Punarvasu (Beta Geminorum; the 7th), (4) Magha ( Regulus; the 10th ), ( 5 ) Chitra ( Spica Virginis; the 14th), (6) Vishakha (Alpha Librae; the 16th), ( 7 ) Anuradha (Delta 5 Scorpii; the 17th) and ( 8 ) Jyeshtha (Antares; the 18th).
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विवेचन - चन्द्रमा के साथ स्पर्श करने को प्रमर्दयोग कहते हैं। उक्त आठ नक्षत्र उत्तर और दक्षिण दोनों 5 ओर से स्पर्श करते हैं । चन्द्रमा उनके बीच में से गमन करता हुआ निकल जाता है। इस योग का फल ५
मनुष्य लोग के लिए सुभिक्ष आदि बताया है । (वृत्ति)
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११८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त समतल और रमणीय भूमि भाग से आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्यविमान भ्रमण करता है। ११९. आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ मिलकर प्रमर्दयोग करते हैं(१) कृत्तिका, (२) रोहिणी, (३) पुनर्वसु, (४) मघा, (५) चित्रा, (६) विशाखा, (७) अनुराधा, (८) ज्येष्ठा ।
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Elaboration-To touch the moon is called pramard yoga. The aforesaid y eight constellations touch the moon from both south and north. The moon passes through them. It is said that this conjunction is beneficial for the human world in terms of good rains and crops.
द्वार - पद DVAR PAD (SEGMENT OF GATES )
5] बन्धस्थिति-पद BANDHASTHITI-PAD
१२०. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स दारा अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । १२१. सव्वेसिंपिणं दीवसमुद्दाणं दारा अट्ठ जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ।
१२०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के चारों द्वार आठ-आठ योजन ऊँचे हैं। १२१. सभी द्वीप और समुद्रों के द्वार आठ-आठ योजन ऊँचे हैं।
(SEGMENT OF DURATION OF BONDAGE)
१२२. पुरिसवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स जहण्णेणं अट्ठसंवच्छराई बंधटिती पण्णत्ता ।
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5 १२३. जसोकित्तीणामस्स णं कम्मस्स जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ताइं बंधठिती पण्णत्ता । १२४. उच्चागोतस्स णं कम्मस्स (जहण्णेणं अट्ठ मुहुत्ताई बंधटिती पण्णत्ता ।
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120. The four dvars (gateways) of Jambudveep continent are eight Yojans in height. 121. The duars of all continents and seas are eight Yojans each in height.
स्थानांगसूत्र (२)
(406)
Sthaananga Sutra (2)
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95555555555555555555555555555555555553 - १२२. पुरुषवेदनीय कर्म का जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्ष है। १२३. यशः कीर्तिनामकर्म का जान्य है स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त है। १२४. उच्चगोत्र कर्म का जघन्य स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त है।
122. The minimum duration of bondage of Purush-vedaniya karma (karma responsible for male gender) is eight years. 123. The minimum fi duration of bondage of Yashah-kirti naam karma (karma responsible for
fame and popularity) is eight years. 124. The minimum duration of
bondage of Uchcha gotra karma (karma responsible for birth in family of f higher status) is eight years. कुलकोटि-पद KULAKOTI-PAD (SEGMENT OF SPECIES)
१२५. तेइंदियाणं अट्ठ जाति-कुलकोडी-जीणीपमुह-सतसहस्सा पण्णत्ता। । १२५. त्रीन्द्रिय जीवों की जाति-कुलकोटियोनियाँ आठ लाख हैं। (देखें-स्थान ७, सूत्र १५२)
125. Trindriya (three-sensed beings) have eight lac (hundred thousand) species (jati kulakoti) in their genuses (yoni pramukh). (see F Sthaan-7, aphorism-152) fi 47964-47 PAAP-KARMA-PAD (SEGMENT OF DEMERITORIOUS KARMA)
१२६. जीवाणं अट्ठठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, मतं जहा-पढमसमयणेरइयणिव्यत्तिते, (अपढमसमयणेरइयणिव्वत्तिते, पढमसमयतिरियणिव्वत्तिते,
अपढमसमयतिरियणिव्वत्तिते, पढमसमयमणुयणिव्वत्तिते, अपढमसमयमणुयणिव्वत्तिते, पढमसमयदेवणिव्वत्तिते), अपढमसमयदेवणिव्वत्तिते। __एवं-चिण-उवचिण- (बंध-उदीर-वेद तह) णिज्जरा चेव।
__ १२६. जीवों ने आठ स्थानों से निर्वर्तित (निष्पादित) पुद्गलों का पापकर्मरूप से संचय किया है, म कर रहे हैं और करेंगे। जैसे9 (१) प्रथम समय यावत् का। (२) अप्रथम समय नैरयिक निर्वर्तित पुद्गलों का। (३) प्रथम समय + तिर्यंचनिर्वर्तित यावत्। (४) अप्रथम समय तिर्यंचनिर्वर्तित पुद्गलों का। (५) प्रथम समय मनुष्यनिर्वर्तित है यावत्। (६) अप्रथम समय मनुष्यनिर्वर्तित पुद्गलों का। (७) प्रथम समय देवनिर्वर्तित यावत्। 卐 (८) अप्रथम समय देवनिर्वर्तित पुद्गलों का। है इसी प्रकार सभी जीवों ने उनका उपचय, बन्धन, उदीरण, वेदन और निर्जरण अतीत काल में 9 किया है, वर्तमान में करते हैं और आगे करेंगे। 5 126. All beings did, do and will acquire (sanchit) karma particles in
the form of demeritorious karmas in the past, present and future respectively eight ways
)))))))))))5555555555555555555
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| अष्टम स्थान
(407)
Eighth Sthaan
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(1) pratham samaya nairayik nirvartit (earned as infernal beings during the first moment of birth), (2) apratham samaya nairayik nirvartit (earned as infernal beings after the moment of birth), (3) pratham samaya tiryagyonik nirvartit (earned as animals during the first moment of birth), (4) apratham samaya tiryagyonik nirvartit (earned as animals after the moment of birth), (5) pratham samaya manushya nirvartit (earned as human beings during the first moment of birth), (6) apratham samaya manushya nirvartit (earned as human beings after the moment of birth), (7) pratham samaya deva nirvartit (earned as divine beings during the first moment of birth) and (8) apratham samaya deva nirvartit (earned as divine beings after the moment of birth).
In the same way all beings did, do and will augment (upachaya), bond (bandh), fructify (udiran), experience (vedan) and shed (nirjaran) the acquired karma particles in the past, present and future respectively in aforesaid eight ways.
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TEN-T PUDGAL-PAD (SEGMENT OF MATTER)
१२७. अट्ठपएसिया खंधा अंणता पण्णत्ता। १२८. अट्ठपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव अट्ठगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता।
१२७. आठ प्रदेशी पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। १२८. आकाश के आठ प्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल अनन्त कहे गये हैं। ____ आठ गुण वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं।
इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आठ गुण वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं।
127. There are infinite aath pradeshi pudgal-skandhs (aggregates of eight ultimate particles). 128. There are infinite aath pradeshavagadh pudgal-skandhs (ultimate particles occupying eight space-points). ...and so on up to... There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with eight units of the attribute of black appearance
In the same way there are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with eight units of each of the remaining attributes of smell, taste, and touch.
1 3110Mİ RE FATA II • END OF THE EIGHTH STHAAN
456 457 458 45 145 144 145 1456 457 455 456 457
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FIFIE (P)
( 408 )
Sthaananga Sutra (2)
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5 संघ से पृथक् करने का विधान है। यहाँ पर यह द्रष्टव्य है, चूँकि बिना किसी विशेष कारण के किसी साधु
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को संघ से पृथक् करना वर्जित है। अतः इन कारणों का वर्णन आचार्य के लिए भी उपयोगी है।
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उसके पश्चात् संयम की साधना में अग्रसर होने के लिए ब्रह्मचर्य का संरक्षण अत्यन्त उपयोगी व आवश्यक है। ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ या बाड़ों का वर्णन (सूत्र ३) है। साधक के लिए नौ विकृतियों (विगयों) का वर्णन भी ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए कवच का काम करता है । पाप के नौ स्थानों का और F पाप-वर्धक नौ प्रकार के श्रुत का परिहार भी आवश्यक है, प्रस्तुत स्थान में उनका भी वर्णन किया गया है।
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सार संक्षेप
नौवें स्थान में नव संख्याओं से सम्बन्धित विभिन्न विषयों का संकलन है। इसमें सर्वप्रथम विसंभोग का वर्णन (सूत्र 9 ) है । 'संभोग' शब्द यहाँ एकसमान धर्म का आचरण करने वाले साधुओं का एक मण्डली में बैठकर खान-पान आदि व्यवहार अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। संघ मर्यादा की दृष्टि से सांभोगिक साधु को
नवम स्थान
5
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5
5
5 तीर्थ में तीर्थंकर नामकर्म का बंध करने वाले नौ व्यक्तियों का कथन । इसी प्रसंग में तीर्थंकर नामकर्म
בתתתתת - 855
इस स्थान में कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन भी हुआ है। जैसे भगवान महावीर के
बाँधने के बीस स्थानों की चर्चा है। तथा इसी सन्दर्भ में भगवान महावीर के अनन्य श्रद्धालु महाराज
5
5 श्रेणिक के भव-भवान्तर का वर्णन बहुत ही महत्त्व का है। इसमें भगवान महावीर का तत्त्व दर्शन व आचार दर्शन बड़े स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त हुआ है।
सूत्र १३ में रोगोत्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख आरोग्य शास्त्र की दृष्टि से मनन करने योग्य है, साथ ही मनोविज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इनमें आठ कारण तो शारीरिक रोगोत्पत्ति से सम्बन्धित हैं तथा नौवां कारण मानसिक रोगों को उत्पन्न करने वाला है। आज का चिकित्सा विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुँच रहा है कि समस्त रोगों की जड़ मनोविकार है। आज कुशल चिकित्सक वही माना जाता है जो शरीर मन दोनों की चिकित्सा साथ-साथ करता है। इस सन्दर्भ में प्रस्तुत प्रकरण चिन्तनमनन की विशेष दिशा दिखाता है।
ईश्वर, तलवर आदि पदों पर नियुक्ति का वर्णन उस समय की राज व्यवस्था का दिग्दर्शन कराता है। इस प्रकार इस नवम स्थान में भगवान पार्श्वनाथ, भगवान महावीर तथा राजा श्रेणिक से सम्बन्धित बहुत ही उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है।
अवगाहना, दर्शनावरण कर्म, नौ महानिधियाँ, आयुःपरिणाम, भावी तीर्थंकर, कुलकोटि, पापकर्म आदि पदों के द्वारा अनेक ज्ञातव्य विषयों का संकलन किया गया है। संक्षेप में यह स्थान अनेक दृष्टियों महत्त्वपूर्ण है।
नवम स्थान
(409)
Ninth Sthaan
2 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 59595 55 55 2
********************************தமிழின்
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INTRODUCTION
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NINTH STHAAN (PLACE NUMBER NINE)
The ninth Sthaan compiles things related to the numeral nine.
It starts with the discussion on visambhog (aphorism-1). The term
After this comes the listing of nine guptis (aphorism-3) or fences for
protection (ensuring proper observance) of Brahmacharya (celibacy), which is essential for furtherance of practice of ascetic-discipline. The description of nine vigaya (prohibited things) also acts as a shield protecting Brahmacharya. Also essential is avoiding the nine sources of sin and nine kinds of sin-enhancing scriptures; this sthaan lists these as well.
sambhog here means group activities including eating by ascetics
following the same code of conduct. There is a code of expelling
sambhogik (ascetics who partakes in group activities) from the sangh on 卐
disciplinary grounds. It should be noted that as it is not allowed to expel
an ascetic from the sangh without some specific reason, the mention of those reasons here is useful even for an acharya.
This chapter also compiles some important historical facts. For
example the listing of nine persons acquiring the bondage of Tirthankar
卐 naam-karma (karma determining status of Tirthankar) in the religious
order of Bhagavan Mahavir. Also important in the same context is the narration of the progressive births of king Shrenik, a matchless devotee
of Bhagavan Mahavir. Here the doctrine and code of conduct of Bhagavan Mahavir has been lucidly expressed.
The mention of nine causes of disease (aphorism-13) is worth pondering from health as well as psychological viewpoints. Of these, eight are sources of physical ailments and the ninth is that of mental ailments. Modern medical science is coming to the conclusion that the root of all diseases is mental perversion. Today only that doctor is recognized as an expert healer who treats body and mind in consonance. In this context this section provides new directions.
The appointments on posts and positions like Ishvar and Talavar reveals the system of governance prevalent in those days.
Thus, very useful information about Bhagavan Parshva Naath, Bhagavan Mahavir and king Shrenik is available in this ninth chapter. Numerous useful topics have been compiled in segments of Avagahana, Darshanavaran Karma, nine great treasures, Ayuhparinam, future Tirthankars, Kulakoti, paap-karma, etc. In brief, this chapter is important from many angles.
स्थानांगसूत्र (२)
(410)
55555555555555555555555555555555E
Sthaananga Sutra (2)
555555555555555555555
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नवम स्थान NINTH STHAAN (Place Number Nine)
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+ विसंभोग-पद VISAMBHOG-PAD (SEGMENT OF EXPULSION)
१. णवहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहाम आयरियपडिणीयं, उवज्झायपडिणीयं, थेरपडिणीयं, कुलपडिणीयं, गणपडिणीयं, संघपडिणीयं, म णाणपडिणीयं, सणपडिणीयं,चरित्तपडिणीयं।
१. नौ कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ साम्भोगिक साधु को (प्रत्यनीक होने पर) विसाम्भोगिक करता हुआ म तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। जैसे-(१) आचार्य-प्रत्यनीक, (२) उपाध्याय-प्रत्यनीक,
(३) स्थविर-प्रत्यनीक, (४) कुल-प्रत्यनीक, (५) गण-प्रत्यनीक, (६) संघ-प्रत्यनीक, (७) ज्ञानॐ प्रत्यनीक, (८) दर्शन-प्रत्यनीक, (९) चारित्र-प्रत्यनीक।
1. A Shraman Nirgranth does not defy the word of Bhagavan if he ostracizes (visambhogik) a sadharmik sambhogik (a co-religionist team
mate) for nine reasons-(if he is)-(1) acharya-pratyaneek (opposed to Facharya), (2) upadhyaya-pratyaneek (opposed to upadhyaya), (3) sthavir4. pratyaneek (opposed to sthavir), (4) kula-pratyaneek (opposed to the 5 group of disciples of same acharya), (5) gana-pratyaneek (opposed to
gana), (6) sangh-pratyaneek (opposed to the religious organization), (7) jnana-pratyaneek (opposed to right knowledge), (8) darshan
pratyaneek (opposed to. right perception/faith) and (9) chaaritra5 pratyaneek (opposed to right conduct).
विवेचन-कर्त्तव्य के प्रतिकूल आचरण अथवा निन्दा, ईर्ष्या, वैरभाव तथा मर्यादा विरुद्ध आचरण फ करना प्रत्यनीकता है। एक मण्डली में बैठकर खान-पान करने वाला श्रमणों का आचार साम्भोगिक हैं। + जब कोई साधु सूत्रोक्त नौ पदों में से किसी के भी साथ उसकी प्रतिष्ठा, मर्यादा तथा आचार विधि के
प्रतिकूल आचरण करता है, तब श्रमण-निर्ग्रन्थ उसे अपनी मण्डली से पृथक् कर सकते हैं। इस के पृथक्करण या सम्बन्ध विच्छेद को ही 'विसम्भोग' कहा गया है।
Elaboration-Pratyaneek means one who goes against or behaves contrary to the prescribed discipline or codes. The ascetics who do combined studies and eat together in a group are called sambhogik. When a sambhogik ascetic goes against the prescribed code of behaviour with any one two or all of the nine, the acharya ostracizes him from that group. Such ostracizing is called visambhog.
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नवम स्थान
(411)
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Ninth Sthaan
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ब्रह्मचर्य-अध्ययन-पद BRAHAMCHARYA-ADHYAYAN-PAD
(SEGMENT OF CHAPTERS ON BRAHAMCHARYA) २. णव बंभचेरा पण्णत्ता, तं जहा-सत्थपरिण्णा, लोगविजओ, (सीओसणिज्जं, सम्मत्तं, आवंती, धूतं, विमोहो), उवहाणसुयं, महापरिण्णा।
२. आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य-सम्बन्धी नौ अध्ययन हैं-(१) शस्त्रपरिज्ञा, (२) लोकविजय, (३) शीतोष्णीय, (४) सम्यक्त्व, (५) आवन्ती-लोकसार, (६) धूत, (७) विमोह, (८) उपधानश्रुत, * (९) महापरिज्ञा।
2. There are nine chapters on brahamcharya in Acharanga Sutra (1) Shastraparijna, (2) Lokavijaya, (3) Sheetoshniya, (4) Samyaktva, (5) Aavanti-Lokasar, (6) Dhoot, (7) Vimoha, (8) Upadhan shrut and (9) Mahaparijna. ब्रह्मचर्य-गुप्ति-पद BRAHAMCHARYA-GUPTI-PAD
(SEGMENT OF FENCES OF CELIBACY) ३. णव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) विवित्ताइं सयणासणाई सेवित्ता भवति-णो ॐ इत्थिसंसत्ताई णो पसुसंसत्ताइं णो पंडगसंसत्ताई। (२) णो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति। (३) णो
इत्थिठाणाई सेवित्ता भवति। (४) णो इत्थीणमिंदियाइं मणोहराई मणोरमाइं आलोइत्ता णिज्झाइत्ता ॐ भवति। (५) णो पणीतरसभोई [ भवति ? ]। (६) णो पायभोयणस्स अतिमातमाहारए सया म भवति। (७) णो पुव्वरतं पुव्वकीलियं सरेत्ता भवति। (८) णो सदाणुवाती णो रूवाणुवाती णो । सिलोगाणुवाती [ भवति ? ]। (९) णो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भवति।
३. ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ (बाड़ें अथवा रक्षा कवच) हैं। जैसे-(१) ब्रह्मचारी एकान्त में शयन और + आसन करता है। जिन आवासों में स्त्री, पशु और नपुंसक रहते हों, वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं रहना
चाहिए। (२) ब्रह्मचारी विकार उत्पन्न करने वाली स्त्रियों से सम्बन्धित बातें नहीं करता है। (३) ब्रह्मचारी ॐ स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों पर नहीं बैठता है। जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो कम से कम एक मुहूर्त के + तक उस स्थान पर नहीं बैठे। (४) ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोहर रूप और मनोरम इन्द्रियों व अंगोपांगों को
नहीं देखे। (५) ब्रह्मचारी प्रणीतरस-घृत-तेलबहुल गरिष्ठ भोजन नहीं करे। (६) ब्रह्मचारी रूखा, सादा ॐ भोजन भी अधिक मात्रा में नहीं करे। (७) ब्रह्मचारी पूर्वकाल में (ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने से पूर्व) भोगे ॥ + हुए भोगों और स्त्रीक्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करे। (८) ब्रह्मचारी स्त्रियों के मनोज्ञ शब्दों को सुनने का,
सुन्दर रूपों को देखने का और स्त्रियों द्वारा कीर्ति-प्रशंसा की अभिलाषा नहीं करे। (९) ब्रह्मचारी 卐 शारीरिक सुखों में आसक्त नहीं हो।
3. There are nine guptis (fences or shields) of Brahmacharya (celibacy)-(examples) (1) A brahmachari (celibate) sleeps and sits in solitude. A brahmachari avoids residing in abodes where women,
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स्थानांगसूत्र (२)
(412)
Sthaananga Sutra (2)
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जएमए
फ एफ5555) फ्र) )55558 animals or eunuches live. (2) A brahmachari avoids talking about women (avoids erotic conversation). (3) A brahmachari avoids sitting on places where women sit (he does not take a seat left by a woman for at least one muhurt). (4) A brahmachari avoids looking at attractive appearance of a woman as well as sense organs and other parts of the female body. (5) A brahmachari avoids rich and heavy food (praneetrasa). (6) A brahmachari avoids excessive quantities even of dry and drab food. (7) A brahmachari avoids recalling the carnal and other pleasures enjoyed in the past (before taking the vow of celibacy). (8) A E brahmachari does not desire listening to sweet words, seeing beautiful forms, and being appreciated and praised by women. (9) A brahmachari does not get attached to physical pleasures.
ब्रह्मचर्य-अगुप्ति-पद BRAHAMCHARYA-AGUPTI-PAD
(SEGMENT OF DETRIMENTS OF CELIBACY) ४. णव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) णो विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता भवतिइत्थिसंसत्ताइं पसुसंसत्ताई पंडगसंसत्ताई। (२) इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति। (३) इत्थिठाणाई सेवित्ता : भवति। (४) इत्थीणं इंदियाइं (मणोहराई मणोरमाइं आलोइत्ता) णिज्झाइत्ता भवति। (५) पणीयरसभोई [भवति ? ]। (६) पायभोयणस्स अइमायमाहारए सया भवति। (७) पुबरयं पुव्वकीलियं सरित्ता, भवति। (८) सद्दाणुवाई रूवाणुवाई सिलोगाणुवाई [ भवति ? ]। (९) सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवति।
४. ब्रह्मचर्य की नौ अगुप्तियाँ (ब्रह्मचर्य को हानि पहुँचाने वाली) हैं। जैसे-(१) जो ब्रह्मचारी एकान्त में शयन व आसन का सेवन नहीं करे। स्त्री, पशु, नपुंसक सहित स्थानों पर रहता है। (२) जो ब्रह्मचारी म स्त्रियों की कथा वार्ता करे। (३) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों के बैठने-उठने के स्थानों का सेवन करता है।
(४) जो ब्रह्मचारी स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों व अंगोंपांगों को देखता है और उनका चिन्तन के करता है। (५) जो ब्रह्मचारी प्रणीत रसवाला भोजन करता है। (६) जो ब्रह्मचारी सदा अधिक मात्रा में 5
आहार-पान करता है। (७) जो ब्रह्मचारी पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों और स्त्रियों के साथ की हुई काम
क्रीड़ाओं का स्मरण करता है। (८) जो ब्रह्मचारी मनोज्ञ शब्दों को सुनने का, सुन्दर रूपों को देखने का और है कीर्ति-प्रशंसा का अभिलाषी होता है। (९) जो ब्रह्मचारी शरीर सम्बन्धी सुख में आसक्त होता है।
3. There are nine aguptis (detriments or causes of breaking) of i Brahmacharya (celibacy)(examples) (1) A brahmachari (celibate) 41
avoids sleeping and sitting in solitude. A brahmachari resides in abodes where women, animals or eunuches live. (2) A brahmachari talks about women (erotic conversation). (3) A brahmachari sits on places where women sit. (4) A brahmachari looks at and thinks about attractive 15 appearance of a woman as well as sense organs and other parts of the
नवम स्थान
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Ninth Sthaan
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female body. (5) A brahmachari consumes rich and heavy food (praneet5 rasa ). ( 6 ) A brahmachari consumes excessive quantities of food. (7) A brahmachari recalls the carnal and other pleasures enjoyed in the past. (8) A brahmachari desires listening to sweet words, seeing beautiful फ forms, and being appreciated and praised by women. (9) A brahmachari gets attached to physical pleasures.
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तीर्थंकर - पद TIRTHANKAR PAD (SEGMENT OF TIRTHANKAR)
५. अभिनंदणाओ णं अरहओ सुमती अरहा णवहिं सागरोवमकोडीसयसहस्सेहिं बीइक्कं हिं सपणे
५. अर्हत् अभिनन्दन के पश्चात् नौ लाख करोड़ सागरोपमकाल व्यतीत हो जाने पर सुमति अर्हत् उत्पन्न हुए ।
5. Arhat Sumati was born after nine lac crore (nine trillion) Sagaropam of Arhat Abhinandan.
सद्भावपदार्थ - पद SADBHAAVA-PADARTH-PAD (SEGMENT OF ETERNAL THINGS)
६. णव सब्भावपयत्था पण्णत्ता, तं जहा - जीवा अजीवा, पुण्णं, पावं, आसवो, संवरो, णिज्जरा, बंधो, मोक्खो ।
६. सद्भाव रूप (सदा काल विद्यमान) पारमार्थिक पदार्थ (तत्त्व) नौ हैं - (१) जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आस्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बन्ध, (९) मोक्ष ।
6. There are nine sadbhaava rupa ( eternal) paramarthik padarth 5 (fundamentals or reals regarded as objects of faith for a Jain)-(1) jiva (soul), ( 2 ) ajiva (matter), (3) punya (meritorious karma), (4) paap (demeritorious karma ), ( 5 ) asrava (inflow of karmas), (6) samvar (blockage of inflow of karmas), (7) nirjara (shedding of karmas), फ्र (8) bandh (bondage of karmas) and (9) moksha (liberation).
जीव- पद JIVA - PAD (SEGMENT OF LIVING ORGANISMS)
७. णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइया, (आउकाइया, ते उकाइया, वाउकाइया), वणस्सइकाइय, बेइंदिया, (तेइंदिया, चउरिंदिया), पंचिंदिया ।
७. संसार - समापन्नक (संसारी) जीव नौ प्रकार के हैं - (१) पृथ्वीकायिक, (२) अष्कायिक, (३) तेजस्कायिक, (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक, (६) द्वीन्द्रिय, (७) त्रीन्द्रिय, (८) चतुरिन्द्रिय, (९) पंचेन्द्रिय ।
7. There are nine kinds of samsar-samapannak jivas (worldly beings) - (1) Prithvikayik ( earth-bodied beings), (2) Apkayiks (water-bodied beings),
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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गति - आगति-पद GATI-AAGATI-PAD (SEGMENT OF BIRTH FROM AND TO)
(3) Tejaskayik (fire-bodied beings ), ( 4 ) Vayukayik (air-bodied beings), फ (5) Vanaspatikayik (plant-bodied beings ), ( 6 ) Dvindriya (Two-sensed beings), (7) Trindriya (three-sensed beings), (8) Chaturindriya (four-sensed beings), (9) Panchendriya (five-sensed beings).
८. पुढविकाइया णवगतिया णवआगतिया पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइए, पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा, जाव पंचिंदिएहिंतो वा उववज्जेज्जा ।
८. पृथ्वीकायिक जीव नौ प्रकार की गति वाले और नौ प्रकार की आगति वाले हैं
से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकायत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए जाव पंचिंदियत्ताए वा 5 गच्छेज्जा । ९. एवमाउकाइयावि जाव पंचिंदियत्ति ।
फ्र
8. Prithvikayik jiva (earth-bodied beings) have nine kinds of gatis (reincarnation to) and five aagatis (reincarnation from)
नवम स्थान
(१) पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाला पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकों से, यावत् [ अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों, वनस्पतिकायिकों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों, चतुरिन्द्रियों] अथवा पंचेन्द्रिय जीवों 5 में से आकर उत्पन्न हो सकता है।
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(२) वही पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय को छोड़ कर पृथ्वीकायिक रूप से यावत् [अप्पकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय] अथवा पंचेन्द्रिय रूप में उत्पन्न हो सकता है । ९. इसी प्रकार अप्कायिक से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव नौ प्रकार की गति फ वाले और नौ प्रकार की आगति वाले हैं।
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(1) A being taking birth as an earth-bodied being reincarnates from either earth-bodied beings, ...and so on up to... [Apkayik (water-bodied beings), Tejaskayik (fire-bodied beings), Vayukayik (air-bodied beings), Vanaspatikayik (plant-bodied beings), Dvindriya (Two-sensed beings), फ Trindriya (three-sensed beings), Chaturindriya ( four-sensed beings)] or 5 Panchendriya (five-sensed beings).
Ninth Sthaan
(2) The same earth-bodied being leaving the state of earth-bodied beings reincarnates in the genus of either earth-bodied beings, ...and so on up to ... [Apkayik (water-bodied beings), Tejaskayik (fire-bodied beings), Vayukayik (air-bodied beings), Vanaspatikayik (plant-bodied 5 beings), Dvindriya (Two-sensed beings), Trindriya (three-sensed beings), Chaturindriya (four-sensed beings)] or Panchendriya (five-sensed 卐 beings). 9. In the same way all beings from Apkayik (water-bodied beings) to Panchendriya (five-sensed beings) also have nine kinds of gatis (reincarnation to) and five aagatis (reincarnation from).
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जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS) म १०. णवविधा सबजीवा पण्णत्ता, तं जहा-एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया,
रइया, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया, मणुया, देवा, सिद्धा। ___ अहवा-णवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पढमसमयणेरइया, अपढमसमयणेरइया, म (पढमसमयतिरिया, अपढमसमयतिरिया, पढमसमयमणुया, अपढमसमयमणुया, पढमसमयदेवा), अपढमसमयदेवा, सिद्धा।
१०. सब जीव नौ प्रकार के हैं। जैसे-(१) एकेन्द्रिय, (२) द्वीन्द्रिय, (३) त्रीन्द्रिय, (४) चतुरिन्द्रिय, 4 (५) नारक, (६) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, (७) मनुष्य, (८) देव, (९) सिद्ध।
____ अथवा सब जीव नौ प्रकार के हैं-प्रथम समय में उत्पन्न नारक, (२) अप्रथम समय में उत्पन्न नारक,
(३) प्रथम समयवर्ती तिर्यंच, (४) अप्रथम समयवर्ती तिर्यंच, (५) प्रथम समयवर्ती मनुष्य, (६) अप्रथम + समयवर्ती मनुष्य, (७) प्रथम समयवर्ती देव, (८) अप्रथम समयवर्ती देव, (९) सिद्ध।
____10. All jivas (beings) are of nine kinds—(1) Ekendriya (one-sensed beings), (2) Dvindriya (Two-sensed beings), (3) Trindriya (three-sensed beings), (4) Chaturindriya (four-sensed beings), (5) Naarak (infernal beings) (6) Panchendriya (five-sensed animal beings), (7) manushya (human beings), (8) deva (divine beings) and (9) Siddha (liberated souls).
Also, all jivas (beings) are of nine kinds-(1) Pratham samaya naarak (infernal beings at the first moment of birth), (2) Apratham 9 samaya naarak (infernal beings at post birth moments), (3) Pratham samaya tiryanch, (4) Apratham samaya tiryanch, (5) Pratham samaya manushya, (6) Apratham samaya manushya, (7) Pratham samaya deva,
(8) Apratham samaya deva and (9) Siddha. __ अवगाहना-पद AVAGAHANA-PAD (SEGMENT OF SPACE OCCUPATION)
११. णवविहा सव्वजीवोगाहणा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइओगाहणा, आउकाइयोगाहणा (तेउकाइओगाहणा, वाउकाइओगाहणा), वणस्सइकाइओगाहणा, बेइंदियओगाहणा, तेइंदियओगाहणा, चउरिदियओगाहणा, पंचिंदियओगाहणा।
११. सब जीवों की अवगाहना नौ प्रकार की है-(१) पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना, : (२) अप्कायिक जीवों की, (३) तेजस्कायिक जीवों की, (४) वायुकायिक जीवों की, (५) वनस्पतिकायकि # जीवों की, (६) द्वीन्द्रिय जीवों की, (७) त्रीन्द्रिय जीवों की, (८) चतुरिन्द्रिय जीवों की, (९) पंचेन्द्रिय जीवों । 卐 की अवगाहना।
11. Avagahana (space occupation) of all beings is of nine kinds- 4 (1) avagahana of Prithvikayik (earth-bodied beings), (2) avagahana of y
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Apkayik (water-bodied beings), (3) avagahana of Tejaskayik (fire-bodied
beings), (4) avagahana of Vayukayik (air-bodied beings), (5) avagahana B of Vanaspatikayik (plant-bodied beings), (6) avagahana of Dvindriya 卐
(Two-sensed beings), (7) avagahana of Trindriya (three-sensed beings), (8) avagahana of Chaturindriya (four-sensed beings), (9) avagahana of Panchendriya (five-sensed beings). संसार-पद SAMSAR-PAD (SEGMENT OF CYCLES OF BIRTH)
१२. जीवा णं णवहिं ठाणेहिं संसारं वत्तिंसु वा वत्तंति वा वत्तिस्संति वा, तं जहापुढविकाइयत्ताए, (आउकाइयत्ताए, तेउकाइयत्ताए, वाउकाइयत्ताए, वणस्सइकाइयत्ताए, बेइंदियत्ताए, तेइंदियत्ताए, चरिंदियत्ताए), पंचिंदियत्ताए।
१२. जीवों ने नौ स्थानों से (नौ पर्यायों से) संसार-परिभ्रमण किया है, कर रहे हैं और आगे करेंगे, जैसे-(१) पृथ्वीकायिक रूप से, यावत् (२) अप्कायिक, (३) तेजस्कायिक, (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक, (६) द्वीन्द्रिय, (७) त्रीन्द्रिय, (८) चतुरिन्द्रिय और (९) पंचेन्द्रिय रूप से।
12. All beings did, do and will move around in cycles of rebirth (samsar k paribhraman) from nine sthaans (modes or forms)-(1) Prithvikayik (earth-bodied beings), (2) Apkayik (water-bodied beings), (3) Tejaskayik (fire-bodied beings), (4) Vayukayik (air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik (plant-bodied beings), (6) Dvindriya (Two-sensed beings), (7) Trindriya (three-sensed beings), (8) Chaturindriya (four-sensed beings), (9) Panchendriya (five-sensed beings). रोगोत्पत्ति-पद ROGOTPATTI-PAD (SEGMENT OF ORIGINOF DISEASE)
१३. णवहिं ठाणेहिं रोगुप्पत्ती सिया, तं जहा-(१) अच्चासणयाए, (२) अहितासणयाए, (३) अतिणिदाए, (४) अतिजागरितेणं, (५) उच्चारणिरोहेणं, (६) पासवणणिरोहेणं, (७) अद्धाणगमणेणं, (८) भोयणपडिकूलताए, (९) इंदियत्थविकोवणयाए।
१३. नौ स्थानों-कारणों से रोग की उत्पत्ति होती है, जैसे-(१) अधिक या निरन्तर बैठे रहने से, या अधिक भोजन करने से। (२) अहितकर (गलत) आसन से बैठने से, या अहितकर भोजन करने से। (३) अधिक नींद लेने से, (४) अधिक जागने से, (५) उच्चार (मल) का निरोध करने से, (६) प्रस्रवण (मूत्र) का वेग रोकने से, (७) अधिक मार्ग-गमन से, (८) भोजन की प्रतिकूलता से, (९) इन्द्रियार्थविकोपन अर्थात् काम-विकार से। ____13. Disease is caused due to nine sthaans (reasons)—(1) Atyasansitting continuously for a long time or excessive eating. (2) Ahitasansitting in harmful or wrong posture or eating harmful food. (3) Atinidraexcessive sleeping. (4) Atijagaran-keeping awake inordinately. Hi
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नवम स्थान
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Ninth Sthaan
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(5) Uchchaar nirodh-restraining urge to pass stool. (6) Prasravan nirodh-restraining urge to pass urine. (7) Adhvagaman-excessive walking. (8) Bhojan pratikoolata-unsuitable nature of food. H (9) Indriyarth vikopan-carnal perversions. Y
विवेचन - 'रोग' केवल शरीर की विकृतियों से ही नहीं, किन्तु मन की विकृतियों या मनोविकारों से भी उत्पन्न होते हैं । प्रस्तुत सूत्र में भी आठ कारण शरीर के विकार और नौवाँ कारण मनोविकार या काम विकार बताया है। इनमें तीन बिन्दुओं पर टीकाकार ने विशेष स्पष्टीकरण किया है
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( १ ) अच्चासणयाए - इसके दो अर्थ हैं - (I) अत्यासन - निरन्तर बैठे रहने से अथवा (II) अत्यशनअधिक भोजन करने से ।
(२) अहियासणयाए - इसके तीन अर्थ हैं - (I) अहितासन - गर्म पत्थर आदि पर बैठना, अथवा प्रतिकूल व गलत आसन से बैठना, (II) अहित - अशन - शरीर की प्रकृति के प्रतिकूल व आरोग्य के प्रतिकूल भोजन करना। (III) अध्यसन - बार - बार भोजन करना, पहले किया हुआ भोजन पचने से ५ पहले ही दूसरा भोजन करना ।
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(३) इन्दियत्थ विकोवणया - इन्द्रियार्थ विकोपन का अर्थ है - काम विकार, या कामासक्ति । वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने काम विकार के दस दोषों का उल्लेख किया है। जो क्रमशः एक के बाद एक आते हैं। जैसे - ( 9 ) कामभोगों की प्राप्ति की अभिलाषा, (२) प्राप्त करने की चिन्ता, (३) सतत स्मरण, (४) सतत ५ कीर्तन, (५) उद्वेग, (६) प्रलाप, (७) उन्माद (पागलपन), (८) व्याधि, (९) जड़ता / अंगोपांगों की ५ शून्यता और १०. मृत्यु । (हिन्दी टीका भाग २ पृष्ठ ६१२ तथा वृत्ति पत्र ४२३-४२४)
Elaboration-Diseases are caused not only by physical disorders but mental disorders as well. Of these aforesaid causes eight are sources of physical ailments and the ninth is that of mental ailments. The commentator (Tika) has given additional information on three points
(2)
(1) Acchasanayaye— This term is interpreted two ways — (i) atyasan or sitting continuously for a long time and (ii) atyashan or excessive eating. Ahiyasanayaye-This term is interpreted three (i) ahitasan—sitting on hot stone or in harmful or wrong posture; (ii) ahit-ashan-eating food that is unsuitable for the nature and health of an individual; and (iii) adhyasan-eating frequently or before the food eaten earlier is digested.
(3) Indiyattha vikovana-Indriyarth vikopan means carnal perversions or lust. Abhayadev Suri, the commentator (Vritti), has mentioned ten faults related to carnal perversion that are progressive in nature (1) desire for carnal pleasures, (2) anxiety to avail, (3) continued thinking, ( 4 ) continued talks, ( 5 ) agitated state, (6) blathering, स्थानांगसूत्र (२)
(418)
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Sthaananga Sutra (2)
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4 (7) delirium, (8) disease, (9) comatose state and (10) death. (Vritti, leaves 卐 423-424 and Hindi Tika, part-2, p.612) ॐ दर्शनावरणीयकर्म-पद DARSHANAVARANIYA KARMA-PAD
(SEGMENT OF DARSHANAVARANIYA KARMA) १४. णवविधे दरिसणावरणिज्जे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-णिद्दा, गिद्दाणिद्दा, पयला, पयलापयला, थीणगिरी, चक्खुदसणावरणे, अचक्खुदंसणावरणे, ओहिदंसणावरणे, केवलदंसणावरणे।।
१४. दर्शनावरणीय कर्म नौ प्रकार का है-(१) निद्रा-हल्की नींद सोना, जिससे सुखपूर्वक सोया है है और जगाया जा सके। (२) निद्रानिद्रा-गहरी नींद सोना। सुख के साथ नींद आये किन्तु कठिनता से 5
जगाया जा सके। (३) प्रचला-खड़े या बैठे हुए ऊँघना। (४) प्रचला-प्रचला-चलते-चलते सोना।
(५) स्त्यानर्द्धि-दिन में सोचे काम को निद्रावस्था में कराने वाली घोर निद्रा। (६) चक्षदर्शनावरण-चक्ष के के द्वारा होने वाले सामान्य बोध का आवरण करने वाला कर्म। (७) अचक्षुदर्शनावरण-चक्षु के सिवाय शेष
इन्द्रियों और मन से होने वाले सामान्य बोध का आवरक कर्म। (८) अवधिदर्शनावरण-इन्द्रिय और मन म की सहायता के बिना मूर्त पदार्थों के सामान्य दर्शन का प्रतिबन्धक कर्म। (९) केवलदर्शनावरण-सर्व द्रव्य 卐 + और पर्यायों के साक्षात् दर्शन का आवरक कर्म।
14. Darshanavaraniya karma (perception obscuring karma) is of nine kinds-(1) Nidra-light sleep or to sleep and awake easily. (2) Nidranidra-deep sleep or to sleep easily but awake with difficulty.
(3) Prachala-to drowse while standing or sitting. (4) Prachala5 prachala--to sleep while walking. (5) Styanardhi--the deep sleep when
thoughts of the day are acted upon in sleep (sleep-walking). (6) Chakshudarshanavaran-the karma that obscures the normal visual perception. (7) Achakshudarshanavaran-the karma that obscures the normal perception through mind and sense organs other than eye. (8) Avadhidarshanavaran-the karma that obscures the extrasensory perception of tangible things. (9) Kevaldarshanavaran-the karma that obscures the direct perception of all things and all modes. welfare-14 JYOTISH-PAD (SEGMENT OF ASTROLOGY)
१५. अभिई णं णक्खत्ते सातिरेगे णवमुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएति। १६. अभिइआइया णं + णव णक्खत्ता णं चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहा-अभिई, सवणो धणिट्ठा, (सयभिसया,, पुबाभद्दवया, उत्तरापोट्टवया, रेवई, अस्सिणी), भरणी।
१५. अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करता है। १६. अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ उत्तर दिशा से योग करते हैं, जैसे-(१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, म (४) शतभिषक्, (५) पूर्वभाद्रपद, (६) उत्तरभाद्रपद, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (९) भरणी।
听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
नवम स्थान
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Ninth Sthaan
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15. Abhijit nakshatra (Lyrae; the 22nd constellation) is in conjunction फ with the moon for nine Muhurts. 16. Nine nakshatras (constellations) f including Abhijit have north-sided conjunction with Chandrama (the moon)—–— (1) Abhijit (Lyrae; the 22nd ), ( 2 ) Shravan (Alpha Aquilae; the 卐 23rd), (3) Dhanishtha (Belta Delphini; the 24th), (4) Shat Bhishag 5 (Lambda Aquarii; the 25th), (5) Purva Bhadrapad (Alpha Pegasi; the f 526th), (6) Uttara Bhadrapad ( Gama Pegasi; the 27th), (7) Revati (Zeta 5 5 Piscium; the 28th), (8) Asvini (Beta Arietis; the 1st) and ( 9 ) Bharani (35 Arietis; the 2nd).
१७. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ णव जोअणसताई उड्ड 5 अबाहाए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ।
१७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम और रमणीय भूमि-भाग से नौ सौ योजन की ऊँचाई पर सबसे ऊपर वाला तारा ( शनैश्चर) भ्रमण करता है।
17. At a height of nine hundred Yojans from the beautiful level land of this Ratnaprabha prithvi travels the highest star (Saturn).
मत्स्य-पद MATSYA-PAD (SEGMENT OF FISH)
१८. जंबुद्दीवे णं दीवे णवजोयणिआ मच्छा पविसिंसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा ।
१८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में नौ योजन की लम्बाई वाले मत्स्यों ने अतीत काल में प्रवेश किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में करेंगे।
18. Nine Yojan long matsyas (fishes) did, do and will enter Jambudveep continent.
विवेचन - वृत्तिकार कहते हैं - यद्यपि लवण समुद्र में पाँच सौ योजन के मत्स्य होते हैं, किन्तु जगती के रंध्र में केवल नौ योजन वाले मत्स्य ही प्रवेश पा सकते हैं, इससे बड़े नहीं। ये मत्स्य लवणसमुद्र से जम्बूद्वीप की नदियों में आ जाते हैं । ( वृत्ति. पत्र ४२५)
Elaboration-The commentator (Vritti) informs that although there are five hundred Yojan long fishes in Lavan Samudra on nine Yojan long fishes can enter the river-mouths, no larger than this. This fishes come into the rivers from Lavan Samudra. (Vritti, leaf 425)
बलदेव - वासुदेव - पद BALADEVA-VAASUDEVA-PAD
१९. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए णव बलदेव वासुदेवपियरो हुत्था, तं जहा
स्थानांगसूत्र (२)
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(SEGMENT OF BALADEVA-VAASUDEVA)
(420)
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Sthaananga Sutra (2)
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पयावती य बंभे रोद्दे सोमे सिवेति य। महसीहे अग्गिसीहे, दसरहे णवमे य वसुदेवे॥१॥ इत्तो आढत्तं जधा समवाये गिरवसेसं जाव।
एगा से गब्भवसही, सिज्झिहिति आगमेसेणं॥२॥ (संग्रहणी-गाथा) १९. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारत वर्ष में इसी अवसर्पिणी में बलदेवों और वासुदेवों के नौ पिता के 9 हो चुके हैं-(१) प्रजापति, (२) ब्रह्म, (३) रौद्र, (४) सोम, (५) शिव, (६) महासिंह, (७) अग्निसिंह, 卐 (८) दशरथ, (९) वसुदेव। म यहाँ से आगे शेष सब वर्णन समवायांग के समान है यावत् वह आगामी काल में एक जन्म लेकर ॐ सिद्ध होंगे।
___19. In Jambudveep continent in Bharat area during current 4 regressive cycle of time there have been nine fathers of Baladevas and 4 Vaasudeva—(1) Prajapati, (2) Brahma, (3) Raudra, (4) Soma, (5) Shiva, (6) Mahasimha, (7) Agnisimha, (8) Dasharath and (9) Vasudeva.
The following description should be read as in Samavayanga up to ki 'they will become Siddha after one reincarnation'. ॐ २०. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए णव बलदेव-वासुदेवपितरो
भविस्संति, णव बलदेव-वासुदेवमायरो भविस्संति। एवं जधा समवाए गिरवसेसं जाव म महाभीमसेणे, सुग्गीवे य अपच्छिमे।
एए खलु पडिसत्तू, कित्तिपुरिसाण वासुदेवाणं
सब्बे वि चक्कजोही, हम्मेहंती सचक्केहिं ॥१॥ २०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी में बलदेव और वासुदेव के नौ के माता-पिता होंगे। इस प्रकार जैसे समवायांग में वर्णन किया है, वैसे महाभीमसेन और सुग्रीव तक सर्व + वर्णन जानना चाहिए।
गाथार्थ-वे प्रतिवासुदेव कीर्तिपुरुष वासुदेवों के प्रतिशत्रु होंगे। वे सब चक्रयोधी होंगे और वे सब अपने ही चक्रों से वासुदेवों के द्वारा मारे जावेंगे।
20. In Jambudveep continent in Bharat area during the future progressive cycle of time there will be nine parents of Baladevas and
Vaasudeva. 4. The following description should be read as in Samavayanga up to
Mahabhimasen and Sugriva.
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| नवम स्थान
(421)
Ninth Sthaan
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These famous Vaasudevas will have Prativaasudevas as their $ enemies. These enemies will wield disc weapons and will be killed by their own disc weapons by Vaasudevas.
विवेचन-प्रत्येक अवसर्पिणी काल में नौ बलदेव तथा नौ वासुदेव होते हैं। इनकी माताएँ भिन्न-भिन्न ॥ होती हैं, परन्तु पिता एक ही होते हैं। दोनों में परस्पर घनिष्ठ प्रेम होता है। वासुदेव प्रतिवासुदेव पर विजय * प्राप्त कर तीन खण्ड का अधिपति बनता है। वासुदेव के देहावसान के पश्चात् बलदेव संयम ग्रहण करते हैं। ॐ इस अवसर्पिणी के आठ बलदेव मोक्ष गति में गये तथा नौवें बलभद्र, बलदेव पाँचवें देवलोक में गये। इनका विशेष वर्णन समवायांग सूत्र में होने से यहाँ उसी के अनुसार जानने की सूचना दी है।
Elaboration—There are nine Baladevas and nine Vaasudevas in every si regressive cycle of time. Each of these pairs have same father but si different mothers. The two have great affection for each other. Vaasudeva becomes the monarch of three sections of the continent (half the continent) by defeating Prativaasudeva. Baladeva gets initiated as an ascetic after the death of Vaasudeva. Eight Baladevas of this regressive cycle got liberated and Balabhadra, the ninth, reincarnated in the fifth Devalok. Detailed description of these is available in Samavayanga Sutra. महानिधि-पद MAHANIDHI-PAD (SEGMENT OF GREAT TREASURE)
२१. एगमेगे णं महाणिधी णव-णव जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ते। २१. एक-एक महानिधि नौ-नौ योजन विस्तार वाली है।
21. Every mahanidhi (great treasure) has an expanse of nine Yojans each. २२. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स णव महाणिहिओ [ णो ? ] पण्णत्ता, तं जहा
णेसप्पे पंडुयए, पिंगलए सव्वरयण महापउमे। काले य महाकाले, माणवग, महाणिहि संखे ॥१॥ णेसप्पंमि णिवेसा, गामागर-णगर-पट्टणाणं च। दोणमुह-मडंबाणं, खंधाराणं गिहाणं च॥२॥ गणियस्स य बीयाणं, माणुम्माणस्स जं पमाणं च। धण्णस्स य बीयाणं, उप्पत्ती पंडुए भणिया ॥३॥ सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। आसाण य हत्थीण य, पिंगलग णिहिम्मि सा भणिया॥४॥
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स्थानांगसूत्र (२)
(422)
Sthaananga Sutra (2)
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रयणाई सव्वरयणे, चोद्दस पवराई चक्कवट्टिस्स । उप्पज्जंति एगिंदियाई पंचिंदियाई च ॥५॥
वत्थाण य उप्पत्ती, णिष्फत्ती चैव सव्वभत्तीणं । रंगाण य धोयाण य, सव्वा एसा महापउमे ॥६॥ काले कालण्णाणं, भव्य पुराणं च तीसु वासेसु । सिप्पसतं कम्माणि य, तिण्णि पयाए हियकराई ॥७ ॥ लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं चं ।
रूप्पस्स सुवण्णस्स य, मणि - मोत्ति - सिल - प्पवालाणं ॥८ ॥ जोधाण य उप्पत्ती, आवरणाणं य पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धनीती, माणवए दंडणीती य ॥ ९ ॥
ट्टविही गाडगविही, कव्वस्स चउव्विहस्स उप्पत्ती । संखे महाणिहिम्मी, तुडियंगाणं च सव्वेसिं ॥ १० ॥ चक्कट्ठपट्ठाणा, अट्ठस्सेहा य णव य विक्खंभे । बारसदीहा मंजूस - संठिया जह्नवीए मुहे ॥११॥ वेरुलियमणि -कवाडा, कणगमयाविविध - रयण- ससि
- सूरर- चक्क - लक्खण- अणुसम - जुग - बाहु - वयणा य ॥१२॥ पलि ओवमट्टितीया, णिहिसरिणाम य तेसु खलु देवा । जेसिं ते आवासा, अक्किज्जा आहिवच्चा वा ॥ १३ ॥
२२. एक-एक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा की नौ-नौ निधियाँ होती हैं
एते वणिहिणो, पभूतधणरयणसंचयसमिद्धा ।
जे वसमुवगच्छंती, सव्वेसिं चक्कवट्टीणं ॥ १४ ॥ ( संग्रहणी गाथा )
( संग्रहणी - गाथा ) - (१) नैसर्पनिधि, (२) पाण्डुकनिधि, (३) पिंगलनिधि, (४) सर्वरत्ननिधि,
नवम स्थान
- पडिपुण्णा ।
(५) महापद्मनिधि, (६) कालनिधि, (७) महाकालनिधि, (८) माणवकनिधि, (९) शंखनिधि ॥ १ ॥
(१) नैसर्पनिधि से ग्राम, आकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मडंब, स्कन्धावार और गृहों की प्राप्ति होती है ॥२॥
(२) पाण्डुक महानिधि से गणना योग्य वस्तुएँ तथा बीजों के मान- उन्मान का प्रमाण तथा धान्य और बीजों की उत्पत्ति होती है ॥ ३ ॥
(423)
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Ninth Sthaan
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म (३) पिंगलकनिधि में स्त्री, पुरुष, घोड़े और हाथियों के समस्त वस्त्र-आभूषण की विधि का वर्णन है॥४॥
(४) चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय रत्न और सात पंचेन्द्रिय रत्न, ये सब चौदह श्रेष्ठरत्न सर्वरत्ननिधि से उत्पन्न होते हैं ॥५॥
(५) महापद्मनिधि से रंगे हुए या श्वेत सभी प्रकार के वस्त्रों की उत्पत्ति और निष्पत्ति होती है ॥६॥
(६) काल महानिधि से अतीत और अनागत काल के तीन-तीन वर्षों के शुभाशुभ का ज्ञान, सौ प्रकार के शिल्प, प्रजा के लिए हितकारक सुरक्षा, कृषि और वाणिज्य कर्म आदि की प्राप्ति होती है॥७॥
(७) महाकालनिधि से लोहे, चाँदी तथा सोने के आकर, मणि, मुक्ता, स्फटिक और प्रवाल की उत्पत्ति होती है॥८॥
(८) माणवक महानिधि से योद्धाओं, आवरणों (कवचों) और आयुधों की उत्पत्ति, सर्व प्रकार की युद्धनीति और दण्डनीति की प्राप्ति होती है ॥९॥
(९) शंख महानिधि से नृत्यविधि, नाटकविधि, चार प्रकार के काव्यों तथा सभी प्रकार के वाधों की प्राप्ति होती है ॥१०॥
। प्रत्येक महानिधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थित है। वे आठ योजन ऊँची, नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी और मंजूषा के आकार वाली होती हैं। ये सभी महानिधियाँ गंगा के मुहानों (अग्रभाग) पर स्थित रहती हैं ॥११॥
.उन निधियों के कपाट वैडूर्यरत्नमय तथा सुवर्णमय होते हैं। उनमें अनेक प्रकार के रत्न जड़े होतें हैं। उन पर चन्द्र, सूर्य और चक्र के आकार के चिह्न होते हैं वे सभी कपाट समान होते हैं, उनके दरवाजे के मुखभाग में खम्भे के समान गोल और लम्बी द्वार-शाखाएँ होती हैं ॥१२॥
.ये सभी निधियाँ एक-एक पल्योपम की स्थिति वाले देवों से अधिष्ठित रहती हैं। उन पर निधियों के नाम वाले देव निवास करते हैं। ये निधियाँ खरीदी या बेची नहीं जा सकती हैं और उन पर सदा देवों का आधिपत्य रहता है ॥१३॥
-ये नवों निधियाँ विपुल धन और रत्नों के संचय से समृद्ध रहती हैं और चक्रवर्तियों के वश में ॐ रहती हैं॥१४॥
22. Every Chaturant Chakravarti has nine mahanidhis (great treasures)-(collative verse) (1) Naisarpanidhi, (2) Panduk-nidhi, fi (3) Pingal-nidhi, (4) Sarvaratnanidhi, (5) Mahapadmanidhi, (6) Kaal- $1 nidhi, (7) Mahakaal-nidhi, (8) Manavak-nidhi and (9) Shankhanidhi. #1#
(1) Naisarpanidhi is the source of gram (villages), aakar (settlement near a mine), nagar (city), pattan (harbour), dronmukh (hamlet), madamb (borough), skandhavar (cantonment) and griha (houses). #2#
| स्थानांगसूत्र (२)
(424)
Sthaananga Sutra (2)
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2. पाण्डुक
1. नैसर्प निधि
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निधि
5. महापना निधि
7. महाकाल निधि
चक्रवर्ती की नौ निधियां
महानिधान मंजूषा
8. माणवक निधि
3. पिंगलक निधि
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७. शंख निधि
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4. सर्वरत्न निधि
6. काल महानिधि
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। चित्र परिचय १४ ।
Illustration No. 14 चक्रवर्ती की नौ निधियाँ प्रत्येक चक्रवर्ती के शासन में उसके असीम पुण्योदय प्रभाव से ये नौ निधियाँ (अक्षय निधान) प्रकट होती हैं।
चित्र के मध्यम में मंजूषा दिखाई है। प्रत्येक महानिधि मंजूषा आकार में होती है। यह मंजूषा आठ-आठ चक्रों वाली, आठ योजन ऊँची, नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी होती है। निधियों के नाम व गुण इस प्रकार हैं
(१) नैसर्प निधि-राजमहल आदि का निर्माण। (२) पांडुक निधि-एक प्रकार का कृषि विज्ञान। (३) पिंगलक निधि-रल व आभूषण आदि से सम्बन्धित। (४) सर्वरत्न निधि-अश्व, गज, चक्र व दण्ड आदि चौदह रत्नों की उत्पत्ति का हेतु। (५) महापद्म निधि-परिधान आदि की निधि। (६) काल निधि-बर्तन व व्यापार की वस्तुएँ देने वाली। (७) महाकाल निधि-सोना, चाँदी, मणि, रत्न-प्रदायी। (८) माणवक निधि-तलवार आदि अस्त्र-शस्त्र दायी। (९) शंख निधि-नृत्य-संगीत आदि कला ज्ञान ।
-स्थान ९, सूत्र २१-२२
CHAKRAVARTIS NINE NIDHIS Nine mahanidhis (great treasures) appear during the reign of every Chakravarti due to fruition of his unlimited punya karma.
At the center of the illustration is shown a manjusha (box). Each of these great treasures rest on eight wheels each. They are eight Yojan high, nine Yojan wide, twelve Yojan long and box shaped. The names and attributes of the treasures are as follows
(1) Naisarpa-nidhi--construction of palace and other such structures. (2) Panduk-nidhi-a type of agricultural science. (3) Pingal-nidhi-related to all ornaments.
(4) Sarvaratna-nidhi-the source of the fourteen unique gems including horses and elephants and other such possessions Chakra and dand.
(5) Mahapadma-nidhi-the source of all types of clothes and apparels. (6) Kaal-nidhi-the source of things of trades and crafts. (7) Mahakaal-nidhi-the source of silver and gold as also beads and gems. (8) Manavak-nidhi-the source of armours and weapons including swords. (9) Shankha-nidhi-the source of knowledge of arts including dance and music.
-Sthaan 9, Sutra 21-22
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4 (2) Panduk-nidhi is the source of countable, measurable and i weighable things as well as cereals and seeds. #3#
(3) Pingal-nidhi contains the source book (processes of making) of all 4i apparels and ornaments for woman, man, horse and elephant. #4#
(4) Sarvaratnanidhi is the source of the fourteen unique gems of Chakravarti including seven ekendriya and seven panchendriya. #5#
(5) Mahapadmanidhi is the source of all types of coloured and white clothes and apparels. #6#
(6) Kaal-nidhi is the source of knowledge about good and bad happenings during three years each in the past and future as also that of f hundred crafts and activities of public benefit including security, agriculture and trade. #7#
(7) Mahakaal-nidhi is the source of minerals like iron, silver and gold as also beads, pearls, crystal-quartz and coral. #8#
(8) Manavak-nidhi is the source of warriors, armours, and weapons 5 as well as knowledge of military strategy and panel code. #9#
(9) Shankhanidhi is the source of knowledge of methodology of dance and drama as well as all kinds of musical instruments. #10#
Each of these great treasures rests on eight wheels each. They are eight Yojan high, nine Yojan wide, twelve Yojan long and box shaped. They are located at the mouth of the river Ganges. #11#
The doors of these treasures are Vaidurya (catseye) and gold studded. Many other gems are also studded therein. They have motifs of the moon, the sun, and disc. All these gates have same appearance. At the opening of the gate there are round and sleek pilaster-like door jambs (dvar-shakha). #12#
Gods bearing names of each treasures and with one Palyopam life span are installed on all these treasures. These treasures cannot be bought or sold. They are always under the control of gods. #13#
All these nine treasures abound in wealth and gems and are owned by Chakravartis. #14#
विवेचन-वृत्तिकार का कथन है कि चक्रवर्ती के राज्य के लिए सभी उपयोगी और आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति इन निधियों से होती है। आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने लिखा है-परम्परागत मान्यता के अनुसार प्रत्येक महानिधान के ३-३ भाग हैं। पहले भाग में देवासन है, दूसरे भाग में रत्न
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नवम स्थान
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Ninth Sthaan
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के संचय है और तीसरे भाग में रत्नमय ग्रन्थों का संग्रह है। इन ग्रन्थों में महानिधियों के उपयोग-प्रयोग का है सब ज्ञान भरा है। संक्षेप में इन नौ महानिधियों को ज्ञान की इन शाखाओं से सम्बद्ध मान सकते हैं।
(१) नैसर्पनिधि-वास्तु शास्त्र। (२) पांडुक निधि-गणित शास्त्र। (३) पिंगल निधि-मंडन शास्त्र या शृंगार प्रसाधन साधन। (४) सर्व रत्न निधि-लक्षण शास्त्र। (५) महापद्म निधि-वस्त्र-उत्पत्ति व निर्माण
शास्त्र। (६) काल निधि-काल विज्ञान, शिल्प विज्ञान, कृषि विज्ञान और कर्म विज्ञान का प्रतिपादक ॐ महाग्रन्थ। इसमें सौ प्रकार के शिल्पों का वर्णन है। (७) महाकाल निधि-धातु शास्त्र। (८) माणवक निधि
राजनीति व दण्ड शास्त्र। (९) शंख निधि-नाट्य व वाद्य शास्त्र। (हिन्दी टीका, भाग २, पृष्ठ ६२३ । ठाणं पृष्ठ ८७७)
Elaboration—The commentator (Vritti) states that everything required in the empire of a Chakravarti is available in these treasures. Acharya Shri Atmamarm ji M. adds that according to the traditional belief each of these great treasures have three sections. First has the seat of the deity, second has the treasure and the third has the collection of books. These books contain all information and knowledge about application and use of these treasures. The subjects covered by these branches of knowledge related to the nine treasures are as follows
(1) Naisarpanidhi-architecture, (2) Panduk-nidhi-mathematics, (3) Pingal-nidhi-beautification and embellishing, (4) Sarvaratnanidhi-- augury, (5) Mahapadmanidhi-textile and dress design and production, (6) Kaal-nidhi-astrology, crafts, technology, agriculture and
engineering, (7) Mahakaal-nidhi-metallurgy, (8) Manavak-nidhi15 politics, administration and law, and (9) Shankhanidhi-drama and
music. (Hindi Tika, part-2, p. 623; Thanam, p. 877) ॐ विकृति-पद VIKRITI-PAD (SEGMENT OF CONTAMINANTS) + २३. णव विगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-खीरं, दधिं, णवणीतं, सप्पिं, तेलं, गुलो, महुं, ॐ मज्जं, मंसं।
२३. नौ विकृतियाँ हैं, जैसे-(१) दूध, (२) दही, (३) नवनीत (मक्खन), (४) घी, (५) तेल, ॐ (६) गुड़, (७) मधु, (८)मद्य, (९) माँस।
23. There are nine vikritis (contaminants; food related)-(1) milk, (2) curd, (3) butter, (4) refined butter, (5) oil, (6) jaggery, (7) honey, 9 (8) alcohol and (9) meat..
विवेचन-जो पदार्थ शारीरिक व मानसिक विकार पैदा करते हैं उन्हें यहाँ 'विकृति' कहा है। प्रवचन सारोद्धार वृत्ति गाथा २३५ में बताया है, दूध, दही, घी आदि स्वयं विकृति हैं, तथा इनसे बने पदार्थ भी 5 विकृतिकारक होने से विकृतिगत माने गये हैं। (ठाणं पृष्ठ ८७८)
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Sthaananga Sutra (2)
स्थानांगसूत्र (२) 35555555555555
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Fi Elaboration-Here vikriti are things that create disorders of body and F mind or cause physical and mental agitation when eaten. It is mentioned
in Pravachan Saroddhar Vritti (verse 235) that milk, curd, butter etc. are contaminants and things made from them too are placed in the same category. (Thanam, p. 878) बोन्दी-(शरीर)-पद BONDI-PAD (SEGMENT OF BODY)
२४. णव-सोत-परिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तं जहा-दो सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, पाऊ।
२४. औदारिक शरीर से नौ स्रोत सतत झरते रहते हैं। जैसे-दो कर्ण, दो नेत्र, दो नाक, एक मुख, एक उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) और एक अपान (मलद्वार)। i 24. There are nine places in the body that always ooze--two ears, two
eyes, two holes in the nose, one mouth, one urethra and one anus. पुण्य-पद PUNYA-PAD (SEGMENT OF MERITORIOUS ACTIVITY)
२५. णवविधे पुण्णे पण्णत्ते, तं जहा-अण्णपुण्णे, पाणपुण्णे, वत्थपुण्णे, लेणपुण्णे, सयणपुण्णे, मणपुण्णे, वइपुण्णे, कायपुण्णे, णमोक्कारपुण्णे।
२५. पुण्य नौ प्रकार का है, जैसे-(१) अन्नपुण्य, (२) पानपुण्य, (३) वस्त्रपुण्य, (४) लयन(भवन)-पुण्य, (५) शयनपुण्य, (६) मनपुण्य, (७) वचनपुण्य, (८) कायपुण्य, (९) नमस्कारपुण्य।
25. Punya (meritorious activities) are of nine kinds-(1) anna-punya (that related to grains or food), (2) paan-punya (that related to drinks), (3) vastra-punya (that related to dress or clothes), (4) layan-punya (that related to house), (5) shayan-punya (that related to sleep or bed), (6) manah-punya (that related to mind or thoughts), (7) vachan-punya (that related to words or speech), (8) kaya-punya (that related to body) and (9) namaskar-punya (that related to homage or greeting).
२६. णव पावस्सायतणा पण्णत्ता, तं जहा-पाणातिवाते, मुसावाए, (अदिण्णादाणे, मेहुणे), परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे।
२६. पाप के आयतन (स्थान, पाप बंध के कारण) नौ हैं। जैसे-(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ।
26. There are nine ayatan (sthaan or causes) of bondage of paap karma (demeritorious karmas)-(1) Pranatipat (harming or destroying life), (2) Mrishavad (falsity), (3) Adattadan (stealing), (4) Maithun (indulgence in sexual activities), (5) Parigraha (acts of possession of things), (6) anger, (7) conceit, (8) deceit and (9) greed.
4555555555555555555555555555555555555555555558
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(427)
Ninth Sthaan
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फफफफफफफफ
पापश्रुतप्रसंग- पद PAAP SHRUT-PRASANG-PAD (SEGMENT OF ELABORATION OF EVIL LITERATURE)
२७. णवविधे पावसुयपसंगे पण्णत्ते, तं जहा
२७. पापश्रुतप्रसंग (पाप के कारणभूत शास्त्र का विस्तार) नौ प्रकार का है, जैसे- ( १ ) उत्पात श्रुतप्रकृति- विप्लव और राष्ट्र - विप्लव का सूचक शास्त्र । (२) निमित्तश्रुत-भूत, वर्तमान और भविष्य के फल का प्रतिपादक शास्त्र । ( ३ ) मन्त्रश्रुत - मन्त्र - विद्या का प्रतिपादक शास्त्र । (४) आख्यायिका श्रुत-परोक्ष बातों की प्रतिपादक मातंगविद्या का शास्त्र । (५) चिकित्साश्रुत - रोग निवारक औषधियों का प्रतिपादक आयुर्वेद शास्त्र । (६) कलाश्रुत - स्त्री-पुरुषों की कलाओं का प्रतिपादक शास्त्र । ( ७ ) आवरणश्रुतभवन निर्माण की वास्तुविद्या का शास्त्र । (८) अज्ञानश्रुत-नृत्य, नाटक, संगीत आदि का शास्त्र । (९) मिथ्याप्रवचन - कुतीर्थिक मिथ्यात्वियों शास्त्र |
उप्पाते णिमित्ते मंते, आइक्खिए तिगिच्छए । कला आवरणे अण्णाणे मिच्छापवयणे ति य ॥१ ॥
27. Paap-shrut-prasang ( elaboration of evil scriptures or literature) is of nine kinds-(1) Utpat-shrut-the scriptures about natural calamities and national disturbances. (2) Nimitta-shrut-the scriptures about augury or fortune telling. (3) Mantra-shrut-the scriptures about mantras and their applications. (4) Akhyayika-shrut-the scriptures about maatang vidya or methods of indirect perception. (5) Chikitsashrut-the scriptures about medicines and cures, such as Ayurveda. (6) Kala-shrut—the scriptures about arts. (7) Avaran-shrut—the scriptures about architecture. (8) Ajnana-shrut-the scriptures about dance, drama, music and other performing arts. (9) Mithyapravachanthe scriptures of heretics and the unrighteous.
विवेचन - समवायांग सूत्र २९/१ में उनतीस प्रकार के पापश्रुत का वर्णन है। वहाँ इनका विस्तार के साथ कथन किया जायेगा । वास्तव में जिन शास्त्रों में सम्यग् ज्ञान - दर्शन आदि का वर्णन नहीं हैं, और जिनसे सम्यग् दर्शनादि की वृद्धि-विशुद्धि नहीं होती, वे सभी पापश्रुत माने गये हैं। कारण कि प्रायः वासना पूर्ति, धन प्राप्ति या दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से ही इन भौतिक विद्याओं का प्रयोग किया जाता है । सम्यक् दृष्टि तो इनको भी सम्यक् श्रुत रूप में परिणत कर सकता है।
Elaboration-More details about Paap-shrut are available in Samavayanga Sutra (29/1) where twenty nine types of these works have been listed. In fact the books where right knowledge and perception are not discussed, and which do not enhance virtues leading to righteousness are all said to be Paap-shrut. The reason for this is that all these mundane subjects are mostly used for gratification of desires and greed
Sthaananga Sutra (2)
5 स्थानांगसूत्र (२)
(428)
சுமித்தமிழ****************************!
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फफफफफफफफफफफ or to harm others. However, a righteous person can turn all these into samyak-shrut or pious literature.
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नैपुणिक - सूत्र NAIPUNIK-PAD (SEGMENT OF EXPERT) २८. णव णेउणिया वत्थू पण्णत्ता, तं जहा
फ्र
२८. नैपुणिक वस्तु नौ हैं। (अपने विषय के विशेषज्ञ या गम्भीर ज्ञाता अथवा नौवें अनुप्रवाद पूर्व की नौ वस्तु-अध्ययन का ज्ञाता को यहाँ नैपुणिक कहा है ।)
(१) संख्यान - नैपुणिक - गणित शास्त्र का विशेषज्ञ । (२) निमित्त - नैपुणिक - निमित्त शास्त्र का विशेषज्ञ । (३) काय - - नैपुणिक - शरीर की ईडा, पिंगला आदि नाड़ियों का स्वरोदय शास्त्र का विशेषज्ञ । (४) पुराण - नैपुणिक - प्राचीन इतिहास या प्राचीन साहित्य का विशेषज्ञ । (५) पारिहस्तिक - नैपुणिक - जो जन्म से ही समस्त कार्यों में कुशल हो । (६) परपंडित - अनेक शास्त्रों को जानने वाला । अथवा पंडित मित्रों के संसर्ग में रहने वाला। (७) वादी - रसायन शास्त्रका ज्ञाता अथवा वाद-विवाद करने में कुशल । फ (८) भूतिकर्म - नैपुणिक - भस्म लेप करके और डोरा आदि बाँध कर चिकित्सा करने में (९) चिकित्सा - नैपुणिक - शारीरिक चिकित्सा करने में कुशल ।
कुशल ।
संखाणे णिमित्ते काइए पोराणे पारिहत्थिए । परपंडिते वाई य, भूतिकम्मे तिगिच्छिए ॥१ ॥
28. There are nine naipunik things (here naipunik means a profound 5 scholar or expert of his subject or a scholar of nine chapters of the ninth
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subtle_canon_named Anupravad Purva ) —– ( 1 ) Sankhyan-naipunika 卐
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scholar of mathematics. (2) Nimitta-naipunik-a scholar of augury, (3) Kaya-naipunik-a scholar of nervous system and Svarodaya Shastra (the special yogic topic related to breathing), (4) Puran-naipunik-a 卐 scholar of history and mythology or ancient scriptures. (5) Paarihastiknaipunik-a prodigy. (6) Parapandit-naipunik-a scholar of many subjects or one who has many scholars as friends. (7) Vaadia scholar of 5 chemistry or an expert debater. (8) Bhootikarma-naipunik-a exponent फ्र of superstitious rituals or a magic healer. (9) Chikitsa-naipunik—a 卐 scholar of medicine and surgery or an accomplished doctor.
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गण-पद GANA-PAD (SEGMENT OF GROUP OF ASCETICS)
२९. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णव गणा हुत्था, तं जहा - गोदासगणे, उत्तर - बलिस्सहगणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उद्दवाइयगणे, विस्सवाइयगणे, कामड्डियगणए, माणवगणे, कोडियगणे ।
नवम स्थान
(429)
Ninth Sthaan
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२९. श्रमण भगवान महावीर के नौ गण- (एक समान सामाचारी का पालन करने वाले और एक-समान वाचना करने वाले साधुओं के समुदाय) थे, जैसे- (१) गोदासगण, (२) उत्तरबलिस्सहगण, (३) उद्देहगण, (४) चारणगण, (५) ऊर्ध्ववातिकगण, (६) विश्ववादिकगण, (७) कामर्धिकगण, (८) मानवगण, (९) कोटिकगण ।
29. Shraman Bhagavan Mahavir had nine Ganas (group of ascetics following the same praxis and style of recitation)-(1) Godas gana, ( 2 ) Uttar-balissaha gana, (3) Uddeha gana, (4) Chaaran (5) Urdhvavatik gana, (6) Vishvavadik gana, (7) Kamardhik gana, (8) Manav gana, and (9) Kotik gana.
5
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विवेचन - आर्य भद्रबाहु के ( वीर निर्वाण १७० के आसपास) समय से लेकर आर्य सुप्रतिबद्ध
( वीर निर्वाण ३३९ तक) के काल में इन गणों की उत्पत्ति हुई है । जैसे गोदासगण की उत्पत्ति आर्य
Elaboration These Ganas were founded between the periods of Arya
फ्र
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卐 reason his gana was called Kotik gana.
卐 भिक्षाशुद्धि - पद BHIKSHASHUDDHI PAD
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भद्रबाहु के शिष्यों से हुई तथा आर्य सुस्थित ने सूर्य मंत्र का कोटि जप किया जिस कारण उनका गण 5 5 कोटिकगण कहलाया ।
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फ्र
For example Godas gana was founded by disciples of Arya Bhadrabahu.
gana,
Arya Susthit chanted Surya Mantra ten million (koti) times and for this
卐
5 Bhadrabahu (around 170 ANM) and Arya Supratibaddha (339 ANM). 5
(SEGMENT OF RIGHTEOUS ALMS-SEEKING)
३०. समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्धे भिक्खे पण्णत्ते,
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5 तं जहा - ण हणइ, ण हणावइ, हणंतं णाणुजाणइ, ण पयइ, ण पयावेति, पयंतं णाणुजाणति,
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किणति, णकिणावेति, किणंतं णाणुजाणति ।
३०. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए नौ कोटि (नौ प्रकार) की परिशुद्ध भिक्षा
卐 का निरूपण किया है, जैसे - ( 9 ) आहार के लिए स्वयं सचित्त वस्तु का घात नहीं करता है । (२) दूसरों
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5 से सचित्त वस्तु का घात नहीं कराता है। (३) सचित्त वस्तु के घात की अनुमोदन नहीं करता है।
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(४) स्वयं आहार नहीं पकाता है। (५) दूसरों से नहीं पकवाता है। (६) पकाने वालों की अनुमोदना नहीं
करता है। (७) आहार को स्वयं नहीं खरीदता है। (८) दूसरों से नहीं खरीदवाता है। (९) मोल लेने वाले
5 की अनुमोदना नहीं करता है।
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फ्र
30. Shraman Bhagavan Mahavir has prescribed nine kinds of
bhikshashuddhi (pure
Nirgranths (Jain ascetics) (1) He does not destroy living organisms
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卐 स्थानांगसूत्र (२)
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फ्र
himself for food. (2) He does not cause others to destroy living organisms
or righteous alms-seeking) for Shraman
(430)
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5 55 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5552
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Sthaananga Sutra (2) 卐
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for food (3) He does not approve others destroying living organisms for 5
i food. (4) He does not cook food himself. (5) He does not get food cooked by others. (6) He does not approve others cooking food. ( 7 ) He does not buy food himself. (8) He does not get food bought by others. (9) He does not approve others buying food.
३१. देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज वरुण की नौ अग्रमहिषियाँ हैं । ३२. देवराज ईशान की अग्रमहिषियों की स्थिति नौ पल्योपम की है । ३३. ईशानकल्प में देवियों की स्थिति नौ पल्योपम की है।
देव - पद DEVA-PAD (SEGMENT OF GODS)
३१. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो णव अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ । ३२. ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अग्गमहिसीणं णव पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । फ्र ३३. ईसाणे कप्पे उक्कोसेणं देवीणं णव पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ।
देव निकाय - पद DEVANIKAYA-PAD (SEGMENT OF ABODES OF GODS)
३४. णव देवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा
31. Varun, the lok-paal of Ishan Devendra, the king of gods has nine 5 agramahishis (chief queens). 32. The life span of agramahishis (chief queens) of Ishan Devendra, the king of gods, is nine Palyopam. 33. The maximum life span of goddesses in Ishan Kalp is nine Palyopam.
सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥ १ ॥
देवेन्द्र
उत्कृष्ट
25 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595955 5 5 5 5 5 559
३४. देव (लोकान्तिदेव) निकाय नौ हैं - ( १ ) सारस्वतः (२) आदित्य, (३) वह्नि, (४) वरुण, क (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अव्याबाध, (८) अग्न्यर्च, (९) रिष्ट ।
३५. अव्वाबाहाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता । ३६. ( अग्गिच्चाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता) । ३७. ( रिट्ठाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता)।
नवम स्थान
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34. There are nine Devanikaya (the abodes of Lokantik gods) - 5 (1) Sarasvat, (2) Aditya, (3) Vahni, (4) Varun, (5) Gardatoya, (6) Tushit, (7) Avyabadh, (8) Agnyarch and (9) Rishta.
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३५. अव्याबाध देव स्वामी रूप में नौ हैं और उनका नौ सौ देवों का परिवार है । ३६. (अग्न्यर्च फ देव स्वामी रूप में नौ हैं और उनके नौ सौ देवों का परिवार है) । ३७. (रिष्ट देव स्वामी के रूप में नौ हैं। और उनके नौ सौ देवों का परिवार है।
फ्र
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( 431 )
35. In position of master there are nine Avyabadh gods and they have a family (retinue) of nine hundred gods. 36. In position of master there f
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Ninth Sthaan
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are nine Agnyarch gods and they have a family (retinue) of nine
hundred gods. 37. In position of master there are nine Rishta gods and 9 they have a family (retinue) of nine hundred gods.
३८. णव गेवेज्ज-विमाण-पत्थडा पण्णता, तं जहा-(१-३) हेट्ठिम-हेछिम-गेविजहै दिमाण-पत्थडे, हेट्ठिम-मज्झिम-गेविज-विमाण-पत्थडे, हेट्ठिम-उवरिम-गेविज्ज-विमाणॐ पत्थडे। 4 (४-६) मज्झिम-हेद्विम-गेविज्ज-विमाण-पत्थडे, मज्झिम-मज्झिम-गेविज्ज विमाणम पत्थडे। मज्झिम-उवरिम-गेविज-विमाण-पथडे। ॐ (७-९) उवरिम-हेट्ठिम-गेविज्ज-विमाण-पत्थडे, उवरिम-मज्झिम-गेविज्ज-विमाण
पत्थडे, उवरिम-उवरिम गेविज्ज-विमाण-पत्थडे। ___३९. एतेसि णं णवण्हं गेविज विमाण पत्थडाणं णव णामधिज्जा पण्णत्ता, तं जहा
. भद्दे सुभद्दे सुजाते, सोमणसे पियदरिसणे।
सुदंसणे अमोहे य, सुप्पबुद्धे जसोधरे॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) ३८. ग्रैवेयक विमान के प्रस्तट (पटल) नौ हैं-(१) अधस्तन-त्रिक का अधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (२) अधस्तन-त्रिक का मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (३) अधस्तन त्रिक का उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (४) मध्यम त्रिक का अधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (५) मध्यम त्रिक का मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (६) मध्यम त्रिक का उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (७) उपरितन त्रिक का अधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (८) उपरितन त्रिक का मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। (९) उपरितन त्रिक का उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट। ___३९. इन ग्रैवेयक विमानों के नवों प्रस्तटों के नौ नाम ये हैं-(१) भद्र, (२) सुभद्र, (३) सुजात,
(४) सौमनस, (५) प्रियदर्शन, (६) सुदर्शन, (७) अमोह, (८) सुप्रबुद्ध, (९) यशोधर। _____ 38. The Graiveyak Vimaans have nine prastat (levels) (1) Adhastan , (lower) Graiveyak Vimaan prastat (level) of the lower triad. 9 (2) Madhyam (middle) Graiveyak Vimaan prastat (level) of the lower triad., (3) Uparitan (upper) Graiveyak Vimaan prastat (level) of the lower triad. (4) Adhastan (lower) Graiveyak Vimaan prastat (level) of the middle triad. (5) Madhyam (middle) Graiveyak Vimaan prastat (level) of 4 the middle triad. (6) Uparitan (upper) Graiveyak Vimaan prastat (level) of the middle triad. (7) Adhastan (lower) Graiveyak Vimaan prastat
(level) of the upper triad. (8) Madhyam (middle) Graiveyak Vimaan ॐ prastat (level) of the upper triad. (9) Uparitan (upper) Graiveyak Vimaan
prastat (level) of the upper triad.
स्थानांगसूत्र (२)
(432)
Sthaananga Sutra (2)
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5559555 595 555 55 55 5 55 5 5 5 5 5 5555 5 55 555 5552
39. The names of these nine levels of these Graiveyak Vimaans are (1) Bhadra, (2) Subhadra, (3) Sujaat, (4) Saumanas, (5) (6) Sudarshan, (7) Amoha, (8) Suprabuddha and (9) Yashodhar.
आयुपरिणाम - पद AYU-PARINAAM-PAD
(SEGMENT OF CAPACITY OF AYUSHYA KARMA)
४०. नवविहे आउपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा - गतिपरिणामे, गतिबंधणपरिणामे, ठितीबंधणपरिणामे, उडुंगारवपरिणामे, अहेगारवपरिणामे, तिरियंगारवपरिणामे दीहंगारवपरिणामे, फ्र रहस्संगारवपरिणामे ।
४०. आयुःपरिणाम नौ प्रकार का है - गति परिणाम, गतिबन्ध परिणाम, स्थिति परिणाम, स्थितिबन्ध परिणाम, ऊर्ध्वगौरव परिणाम, अधोगौरव परिणाम, तिर्यक् गौरव परिणाम, दीर्घगौरव परिणाम, हस्वगौरव परिणाम |
Priyadarshan,
नवम स्थान
40. Ayu-parinaam (capacity of ayushya karma) is of nine kinds (1) Gatiparinaam, (2) Gatibandh parinaam, ( 3 ) Sthiti parinaam, 5 (4) Sthitibandh parinaam, (5) Urdhvagaurav parinaam, ( 6 ) Adhogaurav parinaam, (7) Tiryak gaurav parinaam, (8) Deergh gaurav parinaam and 5 (9) Hrasva gaurav parinaam.
1555555
ठितीपरिणामे,
विवेचन - आयुष्य कर्म की स्वाभाविक शक्ति को आयु परिणाम कहते हैं। परिणाम शब्द, स्वभाव, शक्ति और धर्म इत्यादि अर्थों का बोधक है। आयुष्य कर्म बँधते समय जीव के साथ ये बातें निश्चित हो जाती है - (१) वह किस गति में जायेगा, (२) वहाँ उसकी स्थिति कितनी होगी, (३) वह ऊँचा, नीचा या तिरछा कहाँ जायेगा, तथा (४) दूरवर्ती क्षेत्र में या निकटवर्ती क्षेत्र में कहाँ तक जायेगा। संक्षेप में इनका विवेचन इस प्रकार है
(१) गति परिणाम - जीव को अपनी निश्चित गति में पहुँचाने वाला आयुष्य कर्म ।
(२) गति बंध - परिणाम - अपनी नियत गति के योग्य कर्म का बन्ध कराने वाला आयु का स्वभाव | 5 जैसे देव-नरक गति वाला जीव केवल मनुष्य तथा तिर्यंच गति के आयु का ही बंध करता है।
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2 5 5 55 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5595555555 5 55 5 5 5 5 5 55 55 55492
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(३) स्थिति - परिणाम - भव सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त से लेकर तेतीस सागरोपम तक की स्थिति का 5 यथायोग्य बन्ध कराने वाला परिणाम ।
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(४) स्थितिबन्धन - परिणाम - पूर्व भव की आयु
अनुसार अगले भव की नियत आयुस्थिति का फ बन्ध कराने वाला परिणाम । २५६ आवलिका से कम तथा ३३ सागरोपम से अधिक आयु का बन्ध कोई जीव नहीं करता।
(५) ऊर्ध्वगौरव - परिणाम - जीव को ऊर्ध्वदिशा में गमन कराने वाला परिणाम | (६) अधोगौरव - परिणाम - जीव को अधोदिशा में गमन कराने वाला परिणाम ।
(433)
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Ninth Sthaan
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25559555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5555 5 5 5 5 5 55 555 5555 555.
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(७) तिर्यग्गौरव - परिणाम - जीव को तिर्यग्दिशा में गमन कराने वाला परिणाम ।
(८) दीर्घगौरव - परिणाम - जीव को बहुत दूर तक लोक के अन्त भाग तर्क गमन कराने वाला परिणाम । (९) हस्वगौरव - परिणाम-जीव को अल्प गमन कराने वाला परिणाम ।
Elaboration-The natural capacity of ayushya karma (life span determining karma) is called ayu-parinaam. The term parinaam includes various meanings including nature, strength and action. With the bonding of ayushya karma many things about the soul come in force. They include (1) The genus it will reincarnate into. (2) The period of its stay in that genus. (3) The direction it will take-up, down or transverse. (4) The distance it will cover-far or near. Brief details about the aforesaid are as follows
(1) Gatiparinaam-The ayushya karma that ensures the passage to the destined genus.
(2) Gatibandh parinaam-the nature of the existing life span that! ensures the bondage of karmas leading to the specific genus of reincarnation. For example a soul in divine or infernal realms enters the bondage of ayushya karma only for human or animal
genus.
(3) Sthiti parinaam-the capacity to acquire the bondage of exact duration of life in the destined genus varying from Antar Muhurt (less than 48 minutes) to thirty three Sagaropam.
(4) Sthitibandh parinaam-the capacity to determine the specific life
span in the destined genus on the basis of the preceding birth. No soul acquires bondage of life span less than 256 Avalika and more than 33 Sagaropam.
(5) Urdhvagaurav parinaam-The capacity to move the soul in upward direction.
(6) Adhogaurav parinaam-The capacity to move the soul in
downward direction.
(7) Tiryak gaurav parinaam-The capacity to move the soul in transverse direction.
(8) Deergh gaurav parinaam-The capacity to move the soul to long distances right up to the edge of the universe.
(9) Hrasva gaurav parinaam-The capacity to move the soul to short distances.
स्थानांगसूत्र (२)
(434)
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Sthaananga Sutra (2)
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1-1-1-नानानानानानामा
प्रतिमा-पद PRATIMA-PAD (SEGMENT OF SPECIAL CODES)
४१. णवणवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीतीए रातिदिएहिं चाहिं य पंचुत्तरेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं (अहाअत्थं अहातच्चं अहामगं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया) आराहिया यावि भवति।
४१. नव-नवमिका भिक्षुप्रतिमा ८९ दिन-रात तथा ४०५ भिक्षादत्तियों के द्वारा सूत्र, अर्थ, तत्त्व, कल्प के अनुसार तथा सम्यक् प्रकार काय से आचरित, पालित, शोधित, पूरित, कीर्तित और आराधित की जाती है।
41. The Nava-navamika Bhikshupratima (a specific practice with special codes) is sincerely observed (palit), purified (shodhit; for transgressions), completed (purit); for breaking fast), concluded (kirtit; break the fast) and successfully performed (aradhit) for 81 (9 x 9) days and nights with 405 bhikshadattis (servings of alms) according to the scriptures (yathasutra), correct interpretation (yatha-arth), prescribed procedure (yathamarg) and code of praxis (yathakalp), perfectly
following fundamentals (yathatattva), with equanimity (samata) and 5 touching the body (actually not just conceptually). प्रायश्चित्त-पद PRAYASHCHIT-PAD (SEGMENT OF ATONEMENT)
४२. णवविधे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा-आलोयणारिहे (पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे), मूलारिहे, अणवट्टप्पारिहे।
४२. प्रायश्चित्त नौ प्रकार का है, जैसे-(१) आलोचना के योग्य, (२) प्रतिक्रमण के योग्य, # (३) तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य, (४) विवेक के योग्य, (५) व्युत्सर्ग के योग्य, । (६) तप के योग्य, (७) छेद के योग्य, (८) मूल के योग्य, (९) अनवस्थाप्य के योग्य।
42. Prayashchit (atonement) is of nine kinds—(1) requiring alochana (criticism), (2) requiring pratikraman (critical review), (3) tadubhaya (requiring both alochana and pratikraman) (4) requiring vivek (sagacity), (5) requiring vyutsarg (abstainment), (6) requiring tap (austerities), (7) requiring chhed (termination of ascetic state), (8) requiring mool (reinitiation) and (9) requiring anavasthapya (reinitiation when atonement has already been done). कूट-पद (दक्षिणवर्ती कूट) KOOT-PAD (SEGMENT OF PEAKS)
४३. जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं भरहे दीहवेतड्ढे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
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नवम स्थान
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सिद्धं भरहे खंडग, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा।
भरहे वेसमणे या, भरहे कूडाण णामाई॥१॥ . ४४. जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं णिसहे वासहरपव्वते णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धे णिसहे हरिवस, विदेह हरि धिति अ सीतोया।
अवरविदेहे रुपगे णिसहे कूडाण णामिवि॥१॥ ४३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में भरत क्षेत्र में दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर नौ कूट । 卐 हैं-(१) सिद्धायतन कूट, (२) भरत कूट, (३) खण्डकप्रपातगुफा कूट, (४) माणिभद्र कूट, (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, (७) तमिस्रगुफा कूट, (८) भरत कूट, (९) वैश्रमण कूट।
४४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर नौ कूट हैं(१) सिद्धायतन कूट, (२) निषध कूट, (३) हरिवर्ष कूट, (४) पूर्वविदेह कूट, (५) हरि कूट, (६) धृति ॐ कूट, (७) सीतोदा कूट, (८) अपरविदेह कूट, (९) रुचक कूट।
43. In Jambu Dveep south of Mandar mountain in Bharat area on the Deergh Vaitadhya mountain there are nine koots (peaks)(1) Siddhayatan koot, (2) Bharat koot, (3) Khandak-prapat-gufa koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhaya koot, (6) Purnabhadra koot, (7) Tamisra-gufa koot, (8) Bharat koot, and (9) Vaishraman koot.
44. In Jambu Dveep south of Mandar mountain in Bharat area on 4 the Nishadh Varshadhar mountain there are nine koots (peaks)
(1) Siddhayatan koot, (2) Nishadh koot, (3) Harivarsh koot,
(4) Purvavideha koot, (5) Hari koot, (6) Dhriti koot, (7) Sitoda koot, 2 (8) Apar-videh koot and (9) Ruchak koot. मध्यवर्ती कूट MADHYAVARTI-PAD (SEGMENT OF THE MIDDLE PEAKS) ४५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरपवते णंदणवणे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
णंदणे मंदरे चेव, णिसहे हेमवते रयय रुपए य।
सागरचित्ते वइरे, बलकूडे चेव बोद्धव्वे ॥१॥ ४५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के नन्दन वन में नौ कूट हैं, जैसे-(१) नन्दन कूट, (२) मन्दर कूट, (३) निषध कूट, (४) हैमवत कूट, (५) रजत कूट, (६) रुचक कूट, (७) सागरचित्र के कूट, (८) वज्र कूट, (९) बल कूट।
45. In Jambu Dveep in Nandan van of Mandar mountain there are nine koots (peaks)-(1) Nandan koot, (2) Mandar koot, (3) Nishadh koot,
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स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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। (4) Haimavat koot, (5) Rajat koot, (6) Ruchak koot, (7) Sagar-chitra koot, F (8) Vajra koot, (9) Bala koot. ४६. जंबुद्दीवे दीवे मालवंतवक्खारपब्बते णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धे य मालवंते, उत्तरकुरु कच्छ सागरे रयते।
सीता य पुण्णणामे, हरिस्सहकूडे य बोद्धेब्वे॥१॥ . ४६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के ऊपर नौ कूट हैं, जैसे-(१) सिद्धायतन कूट, (२) माल्यवान् कूट, (३) उत्तरकुरु कूट, (४) कच्छ कूट, (५) सागर कूट, (६) रजत कूट, 2 (७) सीता कूट, (८) पूर्णभद्र कूट, (९) हरिस्सह कूट।
46. In Jambu Dveep on Malyavan Vakshaskar mountain there are nine koots (peaks)-(1) Siddhayatan koot, (2) Malyavan koot, - (3) Uttarakurukoot, (4) Kachchha koot, (5) Agar koot, (6) Rajat koot, (7) Sita koot, (8) Purnabhadra koot, (9) Harissaha. ४७. जंबुद्दीवे दीवे कच्छे दीहवेयड्ढे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धे कच्छे खंडग, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा।
कच्छे वेसमणे या, कच्छे कूडाण णामाई॥१॥ ४७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कच्छवर्ती दीर्घ वैताढ्य के ऊपर नौ कूट हैं-(१) सिद्धायतन कूट, (२) कच्छ कूट, (३) खण्डकप्रपात कूट, (४) माणिभद्र कूट, (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, कम (७) तमिस्रगुफा कूट, (८) कच्छ कूट, (९) वैश्रमण कूट।
47. In Jambu Dveep on Kachchhavarti Deergh Vaitadhya mountain 卐 there are nine koots (peaks) (1) Siddhayatan koot; (2) Kachchha koot, 4i (3) Khandak-prapat koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhya koot,
(6) Purnabhadra koot, (7) Tamisra-gufa koot, (8) Kachchha koot, + (9) Vaishraman koot. ४८. जंबुद्दीवे दीवे सुकच्छे दीहवेयड्ढे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धे सुकच्छे खंडग, माणी वेयड पुण्ण तिमिसगुहा।
सुकच्छे वेसमणे या, सुकच्छे कूडाण णामाई॥१॥ ४९. एवं जाव पोक्खलावइम्मि दीहवेयड्डे। ५०. एवं वच्छे दीहवेयड्डे। ५१. एवं जावई मंगलावतिम्मि दीहवेयड्डे।
४८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सुकच्छवर्ती दीर्घ वैताढ्य पर्वत के ऊपर नौ कूट हैं, जैसेॐ (१) सिद्धायतन कूट, (२) सुकच्छ कूट, (३) खण्डकप्रपातगुफा कूट, (४) माणिभद्र कूट, (५) वैताढ्य + कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, (७) तमिस्रगुफा कूट, (८) सुकच्छ कूट, (९) वैश्रमण कूट। ४९. इसी प्रकार
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Ninth Sthaan
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महाकच्छ, कच्छकावती, आवर्त, मंगलावर्त, पुष्कल और पुष्कलावंती विजय में विद्यमान दीर्घ वैताढ्यों के ऊपर नौ कूट हैं । ५०. इसी प्रकार वत्स विजय में विद्यमान दीर्घ वैताढ्य पर नौ कूट हैं । ५१. इसी प्रकार सुवत्स, महावत्स, वत्सकावती, रम्य, रम्यक, रमणीय और मंगलावती विजयों में विद्यमान दीर्घ वैताढ्यों के ऊपर नौ कूट हैं।
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48. In Jambu Dveep on Sukachchhavarti Deergh Vaitadhya mountain there are nine koots (peaks ) - ( 1 ) Siddhayatan koot, (2) Sukachchha koot, (3) Khandak-prapat gufa koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhya koot, (6) Purnabhadra koot, (7) Tamisra-gufa koot, (8) Sukachchha koot, (9) Vaishraman koot. 49. In the same way in Mahakachchha, 5 Kachhakavati, Avart, Mangalavarta, Pushkal and Pushkalavati Vijayas there are nine peaks each. 50. In the same way on Deergh Vaitadhya mountains in Vatsa Vijaya there are nine peaks. 51. In the same way in 5 Suvatsa, Mahavatsa, Vatsakavati, Ramya, Ramyak, Ramaniya and Mangalavati Vijayas there are nine peaks each.
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तं जहा
सिद्धे अ विज्जुणामे, देवकुरा पम्ब कणग सोवत्थी । सीओदाय सयजले, हरिकूडे चेव बोद्धव्वे ॥१ ॥
५३. जंबुद्दीवे दीवे पम्हे दीहवेयड्डे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धे पम्हे खंडग, माणी वेयड (पुण्ण तिमिसगुहा । म्हे वेसणे या, पम्हे कूडाण णामाई ) ॥ १ ॥
५४. एवं चेव जाव सलिलावतिम्मि दीहवेयड्डे । ५५. एवं वप्पे दीहवेयड्डे । ५६. एवं जाव गंधिलावतिम्मि दीहवेयड्डे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहासिद्धे गंधिल खंडग, माणी वेयड्ड पुण्ण तिमिसगुहा । धावति वेसणे, कूडाणं होंति णामाई ॥ १ ॥
एवं सव्वेसु दीहवेडेसु दो कूडा सरिसणामगा, सेसा ते चेव ।
५२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के ऊपर नौ कूट
(१) सिद्धायतन कूट, (२) विद्युत्प्रभ कूट, (३) देवकुराकूट, (४) पक्ष्मकूट, (५) कनककूट, (६) स्वस्तिककूट, (७) सीतोदा कूट, (८) शतज्वल कूट, (९) हरिकूट ।
५२. जंबुद्दीवे दीवे विज्जुपव्वते णव कूडा पण्णत्ता,
५३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पद्मवर्ती दीर्घ वैताढ्य के ऊपर नौ कूट हैं(१) सिद्धायतन कूट, (२) पक्ष्म कूट, (३) खण्डकप्रपातगुफा कूट, (४) माणिभद्र कूट, (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, (७) तमिस्रगुफा कूट, (८) पक्ष्म कूट, (९) वैश्रमण कूट ।
स्थानांगसूत्र (२)
(438)
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Sthaananga Sutra (2)
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5555555555555555555555555555 ५४. इसी प्रकार सुपक्ष्म, महापक्ष्म, पक्ष्मकावती, शंख, नलिन, कुमुद और सलिलावती विजय में विद्यमान दीर्घ वैताढ्य के ऊपर नौ-नौ कूट हैं। ५५. इसी प्रकार वप्र विजय में विद्यमान दीर्घ वैताढ्य के ऊपर नौ कूट हैं।
५६. इसी प्रकार सुवप्र, महावप्र, वप्रकावती, वल्गु, सुवल्गु, गन्धिल और गन्धिलावती में विद्यमान दीर्घ वैताढ्य के ऊपर नौ-नौ कूट हैं-(१) सिद्धायतन कूट, (२) गन्धिलावती कूट, (३) खण्डकप्रपातगुफा कूट, (४) माणिभद्र कूट, (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, (७) तमिस्रगुफा कूट, (८) गन्धिलावती कूट, (९) वैश्रमण कूट। __इसी प्रकार सभी दीर्घवैताढ्यों के ऊपर दो-दो (दूसरा और आठवां) कूट एक ही नाम के (उसी विजय के नाम के) हैं और शेष सात कूट वे ही हैं।
52. In Jambu Dveep on Vidyutprabh Vakshaskar mountain there are nine koots (peaks)-(1) Siddhayatan koot, (2) Vidyutprabh koot, (3) Devakura koot, (4) Pakshma koot, (5) Kanak koot, (6) Swastika koot, (7) Sitoda koot, (8) Shatajval koot, (9) Hari koot.
53. In Jambu Dveep on Padmavarti Deergh Vaitadhya mountain there are nine koots (peaks) (1) Siddhayatan koot, (2) Pakshma koot,
(3) Khandak-prapat gufa koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhya koot, i (6) Purnabhadra koot, (7) Tamisra-gufa koot, (8) Pakshma koot,
(9) Vaishraman koot. i 54. In the same way on Deergh Vaitadhya mountains in Supakshma, i Mahapakshma, Pakshamakavati, Shankh, Nalin, Kumud, and Salilavati
Vijayas there are nine peaks each. 55. In the same way on Deergh 卐 Vaitadhya mountains in Vapra Vijaya there are nine peaks each. ___56. In the same way on Deergh Vaitadhya mountains in Suvapra, Mahavapra, Vaprakavati, Valgu, Suvalgu, Gandhil, and Gandhilavati Vijayas there are nine koots (peaks) each—(1) Siddhayatan koot, (2) Gandhilavati koot, (3) Khandak-prapat gufa koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhya koot, (6) Purnabhadra koot, (7) Tamisra-gufa koot, (8) Gandhilavati koot, (9) Vaishraman koot.
In the same way on all Deergh Vaitadhya mountains two koots each (second and eighth) bear the same name (that of the particular Vijaya) and the remaining seven koots have common names. उत्तरवर्ती कूट NORTHERN PEAKS
५७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं णीलवंते वासहरपवते णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
नवम स्थान
(439)
Ninth Sthaan
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सिद्धे णीलवंते विदेह, सीता कित्ती य णारिकंता य।
अवरविदेहे रम्मगकूडे, उवदंसणे चेव ॥१॥ ५८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं एरवते दीहवेतड्ढे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा
सिद्धेश्वए खंडग, माणी वेयड पुण्ण तिमिसगुहा।
एरवते वेसमणे, एरवते कूडणामाई॥१॥ __५७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के ऊपर उत्तर में नीलवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर नौ # कूट हैं, जैसे
(१) सिद्धायतन कूट, (२) नीलवान् कूट, (३) पूर्वविदेह कूट, (४) सीता कूट, (५) कीर्ति कूट, (६) नारिकान्ता कूट, (७) अपरविदेह कूट, (८) रम्यक कूट, (९) उपदर्शन कूट।
५८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में ऐरवत क्षेत्र के दीर्घ वैताढ्य के ऊपर नौ * कूट हैं, जैसे-(१) सिद्धायतन कूट, (२) ऐरवत कूट, (३) खण्डकप्रपातगुफा कूट, (४) माणिभद्र कूट, ॐ (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्र कूट, (७) तमिस्रगुफा कूट, (८) ऐरवत कूट, (९) वैश्रमण कूट। [इन + कूटों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में आया है।]
57. In Jambu Dveep north of Mandar mountain on the Nilavaan varshadhar mountain there are nine koots (peaks) (1) Siddhayatan 4 koot, (2) Nilavaan koot, (3) Purvavideh koot, (4) Sita koot, (5) Kirti
koot, (6) Narikanta koot, (7) Apar-videh koot, (8) Ramyak koot, (9) Upadarshan koot.
58. In Jambu Dveep north of Mandar mountain on the Deergha Vaitadhya mountain of Airavat area there are nine koots (peaks) (1) Siddhayatan koot, (2) Airavat koot, (3) Khandak-prapat gufa koot, (4) Manibhadra koot, (5) Vaitadhya koot, (6) Purnabhadra koot,
(7) Tamisra-gufa koot, (8) Airavat koot, (9) Vaishraman koot. (more \i details on these peaks ar available in Jambudveep Prajnapti Sutra) पार्श्व-उच्चत्त्व-पद PARSHVA-UCHCHATVA-PAD (SEGMENT OF HEIGHT OF PARSHVA)
५९. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए वज्जरिसहणारायसंघयणे समचउरंस-संठाण-संठिते णव ॐ रयणीओ उ8 उच्चत्तेणं हुत्था। + ५९. पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् वज्र ऋषभनाराचसंहनन और समुचतुरस्रसंस्थान युक्त नौ हाथ ॐ ऊँचे थे। - 59. Endowed with Vajra rishcbh naaraach samhanan and
Samchaturasra samsthan, Purushadaniya Parshva Arhat's body was nine Ratni (cubits) tall.
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Sthaananga Sutra (2)
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5 तीर्थंकर नामनिर्वतन - पद TIRTHANKAR NAAM NIRVATAN PAD
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६०. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्थंसि णवहिं जीवेहिं तित्थगरणामगोत्ते कम्मे
5 णिव्यत्तिते, तं जहा - सेणिएणं, सुपासेणं, उदाइणा, पोट्टिलेणं अणगारेणं, दढाउणा, संखेणं, सतपणं, सुलसाए सावियाए, रेवतीए ।
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(१)
६०. श्रमण भगवान महावीर के तीर्थं में नौ जीवों ने तीर्थंकर नाम - गोत्र कर्म अर्जित किया था । श्रेणिक, (२) सुपार्श्व, (३) उदायी, (४) पोट्टिल अनगार, (५) दृढायु, (६) श्रावक शंख,
(७) श्रावक शतक, (८) श्राविका सुलसा, (९) श्राविका रेवती ।
(SEGMENT OF ACQUIRING TIRTHANKAR NAAM KARMA)
60. Nine souls in the order of Shraman Bhagavan Mahavir acquired Tirthankar naam-gotra karma-(1) Shrenik, (2) Suparshva, (3) Udayi, (4) Pottila Anagar, (5) Dridhayu, (6) Shravak Shankh, (7) Shravak Shatak, (8) Shravika Sulasa and (9) Shravika Revati.
विवेचन - तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म बंध के कारण बीस स्थानकों की पुनः - पुनः आराधना करने का
वर्णन ज्ञाता सूत्र में आता है। इन्हीं २० स्थानकों को संक्षिप्त कर १६ कारण भावना के रूप में तत्त्वार्थ
सूत्र अध्याय ६ में कथन है। सूत्र में, भगवान महावीर के तीर्थ में तीर्थंकर गोत्र कर्म बाँधने वाले नौ
5 महान आत्माओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
(१) श्रेणिक - मगधपति श्रेणिक का वर्णन निरयावलिका में आता है। अन्य सूत्रों में भी उनका नामोल्लेख मिलता है । त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में इनका विस्तृत वर्णन है।
(२) सुपार्श्व - ये भगवान महावीर के चाचा थे । विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है । (३) उदायी - कोणिक पुत्र उदायी । विशेष वर्णन त्रिषष्टि० परिशिष्ट पर्व सर्ग ६
'आया है।
(४) पोट्टिल अनगार - अनुत्तरौपपातिक सूत्र में पोट्टिल अनगार का वर्णन आता है । परन्तु प्रस्तुत पोट्टल अनगार कोई अन्य थे। इनका वर्णन नहीं मिलता है।
(५) दृढायु - इनके विषय में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।
( ६ - ७) शंख - शतक - शंख श्रावक का यत्किंचित वर्णन भगवती सूत्र श. १२ । उ. १ तथा उद्देशक २०-२१ में है ।
(८) सुलसा - राजगृह के राजा प्रसेनजित के रथिक नाग की पत्नी थी। यह दृढ़ सम्यक्त्वधारिणी थी। इसके ३२ पुत्र थे । वृत्ति में इसका जीवन वृत्तान्त मिलता है।
(९) रेवती - भगवान महावीर की मुख्य श्राविका थी । गोशालक द्वारा तेजोलेश्या छोड़ने पर भगवान महावीर आहत हुए तब सिंह अनगार रेवती श्राविका से बीजोरा पाक लेकर आया। उसके सेवन से भगवान का रोग शान्त हुआ । विशेष वर्णन भगवती शतक १५ में मिलता है।
ये सभी आगामी चौबीसी में तीर्थंकर होंगे। (विस्तार हेतु ठाणं पृष्ठ ८८३-८८५ देखें)
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Ninth Sthaan
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ज्ञातव्य है कि तीर्थंकर नामगोत्र का बंध मनुष्य भव में ही होता है और बंध होने से तीसरे भव में ५ वह निश्चित ही तीर्थंकर बनता है।
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Elaboration Jnata Sutra contains description of repeated worship of y twenty sthanak (auspicious things) that lead to bondage of Tirthankar naam-gotra karma. These twenty sthanaks have been included in the sixteen bhaavanas (attitudes or sentiments) mentioned in Tattvarth Sutra (Chapter 6). Brief description of the nine great souls in the order of Bhagavan Mahavir mentioned in Tattvarth Sutra is as follows
(3) Udayi-He was the son of king Konik. Detailed story available in Trishashti Parishishta Parva, Chapter 6.
(1) Shrenik-Story of King Shrenik of Magadh is given in Niryavalika Sutra. His name also finds mention in many other scriptures. His complete biography is available in Trishashti Shalaka F Purush Charitra.
(2) Suparshva-He was Bhagavan Mahavir's uncle. No more details are available.
(4) Pottila Anagar-In Anuttaraupapatik Sutra there is a mention of Pottila Anagar. But this Pottila Anagar appears to be different. No details about him are available.
(5) Dridhayu-No details about him are available.
(6, 7) Shravaks Shankh and Shatak-Very brief details only about Shankh Shravak are available in Bhagavati Sutra (12/1 and 20-21).
(8) Shravika Sulasa-She was the wife of Naag, a charioteer of king Prasenjit of Rajagriha. She was a staunch practicer of Jain code of laity. She had 32 sons. Her story is available in the Vritti.
(9) Shravika Revati-She was one of the important Shravikas of Bhagavan Mahavir. When Goshalak launched Tejoleshya (fire-power) and Bhagavan Mahavir was hurt, it was she who had sent the medicine with Simha Anagar. More details are available in Bhagavati Shatak 15. All these nine persons will become Tirthankars in the coming Chaubisi (set of 24). (for details see Thanam, pp. 883-885). It should be noted that Tirthankar naam-karma can only be acquired as a human being and the soul, as a rule, becomes a Tirthankar in the third reincarnation from acquiring the bondage.
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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| भावितीर्थंकर-पद BHAAVI TIRTHANKAR-PAD
(SEGMENT OF FUTURE TIRTHANKARS) ६१. एस णं अज्जो ! कण्हे वासुदेवे, रामे बलदेवे, उदए पेढालपुत्ते, पुट्टिले, सतए गाहावती, । दारुए णियंटे, सच्चई णियंठीपुत्ते, सावियबुद्धे अंब [म्म ? ] डे परिवायए, अज्जावि णं सुपासा
पासावच्चिज्जा। आगमेस्साए उस्सप्पिणीए चाउज्जामं धम्मं पण्णवइत्ता सिज्झिहिंति (बुज्झिहिंति मुच्चिहिंति परिणिब्बाइहिंति सम्बदुक्खाणं) अंतं काहिति।।
६१. हे आर्यों ! (१) वासुदेव कृष्ण, (२) बलदेव राम, (३) उदक पेढालपुत्र, (४) पोट्टिल, (५) गृहपति शतक, (६) निर्ग्रन्थ दारुक, (७) निर्ग्रन्थीपुत्र सत्यकी, (८) श्राविका के द्वारा प्रतिबुद्ध अम्मड परिव्राजक, (९) पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित आर्या सुपार्था। ये नौ आगामी उत्सर्पिणी में चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत और सर्व दुःखों से रहित होंगे।
61. O Noble ones ! These nine will propagate Chaturyam dharma (the four limbed religion) in the coming progressive cycle of time and become perfect (Siddha), enlightened (buddha), liberated (mukta), free of cyclic rebirth (parinivrit), and end all miseries—(1) Vaasudeva Krishna, (2) Baladeva Rama, (3) Udak Pedhalaputra, (4) Pottila, (5) Grihapati Shatak, (6) Nirgranth Daruk, (7) Nirgranthiputra Satyaki, (8) Ammad Parivrajak enlightened by a Shravika and (9) Arya Suparshvaa, initiated in the lineage of Parshva Naat
विवेचन-इनमें से १ कृष्ण वासुदेव, २ राम बलदेव का चरित्र तो प्रसिद्ध है। (३) उदक पेढाल पुत्र-ये पेढाल के पुत्र थे। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुए। इनका वर्णन सूत्रकृतांग सूत्र २३वें अध्ययन में है। (४) पोट्टिल का जीवन वृत्तान्त उपलब्ध नहीं है। (५) शतक का वर्णन भी उपलब्ध नहीं है है। (६) दारुक-दारुक निर्ग्रन्थ का वर्णन अन्तकृद्दशासूत्र में आता है। परन्तु वे तो अन्तकृद् केवली हो चुके हैं। अतः ये दारुक कोई अन्य ही होंगे। (७) निर्ग्रन्थी पुत्र सत्यकी-इनका भी विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं है। (८) श्राविका बुद्ध अम्मड़ परिव्राजक-सुलसा से प्रतिबुद्ध अम्मड़ परिव्राजक का उल्लेख औपपातिक सूत्र में आता है, परन्तु वृत्तिकार का कथन है वह अम्मड़ इनसे कोई अन्य होना चाहिए। (९) आर्या सुपार्था-विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं है। (देखें-ठाणं पृष्ठ ८८६-८७)
Elaboration-The stories of (1) Vaasudeva Krishna and (2) Baladeva i Rama are well known. (3) Udak Pedhalaputra-He was the son of
Pedhal and was initiated in the lineage of Bhagavan Parshva Naath 1 Details about him are available in the 23rd chapter of Sutrakritanga
Sutra. (4) Pottila---no details are available. (5) Grihapati Shatak-no details are available. (6) Nirgranth Daruk-There is a mention of one Daruk in Antakriddasha Sutra but he has already attained omniscience. Therefore this Daruk must be some other person, (7) Nirgranthiputra
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Satyaki-no details are available. (8) Ammad Parivrajak enlightened by a Shravika-The mention of Ammad Parivrajak who was enlightened by Sulasa Shravika is available in Aupapatik Sutra. However, according to the commentator (Vritti) this is some other person. (9) Arya Suparshvaa, initiated in the lineage of Parshva Naath-no details are available. महापद्म- तीर्थंकर - पद MAHAPADMA TIRTHANKAR PAD (SEGMENT OF MAHAPADMA TIRTHANKAR)
६२. (क) एस णं अज्जो ! सेणिए राया भिंभिसारे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पा पुढवीए सीमंतए णरए चउरासीतिवाससहस्सद्वितीयंसि णिरयंसि णेरइयत्ताए उव्वज्जिहति । से णं तत्थ णेरइए भविस्सति - काले कालोभासे (गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए ) परमकिहे वण्णं । णं तत्थ वेयणं वेदिहिती उज्जलं (तिउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं दिव्यं) दुरहियासं ।
से णं ततो णरयाओ उव्वट्टेत्ता आगमेसाए उस्सप्पिणीए इहेव जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्डगिरिपायमूले पुडेसु जणवएसु सतदुवारे णगरे संमुइस्स कुलकरस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुमत्ताए पच्चायाहिति ।
तए णं सा भद्दा भारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्टमाण य राइंदियाणं वीतिक्कंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीण - पडिपुण्ण - पंचिंदिय - सरीरं लक्खण - वंजण - ( गुणोववेयं माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण - सुजाय - सव्वंगं - सुंदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं) सुरूवं दारगं पयाहिती | जं यणि चणं से दारए पयाहिती, तं रयणिं च णं सतदुवारे नगरे सम्भंतरबाहिरए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति ।
तणं तस्स दारयस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते ( णिवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते) बारसाहे अयमेयारूवं गोण्णं गुणणिप्फण्णं णामधिज्जं कार्हिति, जम्हा णं अम्हमिमंसि दारगंसि जातंसि समाणंसि सयदुवारे णगरे सब्भिंतरबाहिरए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे या रयणवासे य वासे वुट्टे, तं होउ णं अम्हमिमस्स दारगस्स णामधिज्जं महापउमे - महापउमे । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधिज्जं कार्हिति महापउमेत्ति ।
६२. (क) आर्यो ! श्रेणिक राजा भिम्भसार (बिम्बसार) मरण काल में मृत्यु प्राप्त कर इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के सीमन्तक नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले भाग में नारक रूप से उत्पन्न होगा। उसका वर्ण काला, काली आभावाला, अति लोमहर्षक भयंकर उद्वेग जनक और परम कृष्ण होगा । वह वहाँ ज्वलन्त मन, वचन और काय तीनों की कसौटी करने वाली, अत्यन्त तीव्र, प्रगाढ़, कटुक, कर्कश, प्रचण्ड, दुःखकारी दुर्ग की भाँति अलंघ्य, ज्वलन्त, असह्य वेदना अनुभव करेगा।
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(444)
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वह उस नरक से निकल कर आगामी उत्सर्पिणी में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, वैताठ्यगिरि की तलहटी में 'पुण्ड्र' (विंध्याचल के समीप) के शतद्वार नगर में सन्मति कुलकर की भद्रा : नामक भार्या की कुक्षि से पुरुष रूप से उत्पन्न होगा। __वह भद्रा भार्या परिपूर्ण नौ मास तथा साढ़े सात दिन-रात बीत जाने पर सुकुमार हाथ-पैर वाले, अहीन-परिपूर्ण, पंचेन्द्रिय शरीर वाले लक्षण व्यंजन और गुणों से युक्त अवयव वाले, मान, उन्मान, प्रमाण आदि से सर्वांग सुन्दर शरीर वाले, चन्द्र की भाँति सौम्य आकृति वाले, कमनीय, प्रियदर्शन और सुरूप पुत्र को जन्म देगी।
जिस रात में वह बालक को जन्म देगी, उस रात में समूचे शतद्वार नगर में भीतर और बाहर, भारप्रमाण और कुम्भप्रमाण पद्म (फूलों) और रत्नों की वर्षा होगी।
उस बालक के माता-पिता ग्यारह दिन व्यतीत हो जाने पर, अशुचिकर्म के निवृत्त हो जाने पर बारहवें दिन उसका यथार्थ गुणनिष्पन्न नाम संस्कार करेंगे। "हमारे इस बालक के उत्पन्न होने पर समस्त शतद्वार नगर के भीतर-बाहर भार प्रमाण और कुम्भ प्रमाण वाले पद्म और रनों की वर्षा हुई है," : अतः हमारे बालक का नाम महापद्म होना चाहिए। इस प्रकार विचार-विमर्श कर उस बालक के माता-पिता उसका नाम 'महापद्म' रखेंगे।
62. (a) O Noble ones ! After dying at the time of his death, King Shrenik Bhimbhasar (Bimbasar) will reincarnate as a naarak (infernal being) in the Simantak Narak in this Ratnaprabha Prithvi (first hell) in the section with a standard life span of eighty four thousand years.
His complexion will be black, a black that is shining, hair-raising, extremely horrifying and dense black. There he will suffer an agony that is burning; trying for mind, speech and body; very acute, dense, bitter, harsh, intense; unsurmountable like a tormenting fort; excruciating and 4 intolerable.
Coming out of that hell he will take birth from the womb of Bhadraa, the wife of Sanmati Kulakar in Shatadvar city of Pundra state (near Vindhyachal) at the foot of Vaitadhyagiri in Bharat area in Jambudveep continent during the coming Utsarpini (progressive cycle).
At the end of nine months and seven and a half days that Bhadraa will give birth to a radiant, lovable, and handsome son with delicate limbs, perfect body endowed with five sense organs and all auspicious signs and marks; perfect and beautiful in all dimensions including weight and size; and an appearance as soothing as the moon.
The night she will give birth to the child, there will be showers of large and abundant quantity of flowers (padma) and gems inside and outside Shatadvar city.
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After eleven days are passed and post birth cleansing ceremonies are ! concluded, on the twelfth day, the parents will perform the naming ceremony and give the child a name suiting his virtues. "At the time of the birth of this child there were showers of large and abundant quantity of flowers (padma) and gems inside and outside Shatadvar city.
६२. ( ख ) तए णं महापउमं दारगं अम्मापितरो सातिरेगं अट्ठवासजातगं जाणित्ता फ्र महता - महता रायाभिसेएणं अभिसिंचिर्हिति । से णं तत्थ राया भविस्सति महता - हिमवंतमहंत - मलय-मंदर - महिंदसारे रायवण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरिस्सति ।
Therefore, this boy should be called Mahapadma. After such deliberations the parents of the child will name him Mahapadma.
तए णं तस्स महापउमस्स रण्णो अण्णदा कयाइ दो देवा महिड्डिया महासोक्खा सेणाकम्मं फ कार्हिति तं जहा - पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य ।
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तए णं सतदुवारे णगरे बहवे राईसर - तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ - सेट्ठि - सेणावति5 सत्थवाहप्पभितयो अण्णमण्णं सद्दावेहिंति, एवं वइस्संति- - जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रणो दो देवा महिड्डिया ( महज्जुइया महाणुभागा महायसा महाबला ) महासोक्खा सेणाकम्मं
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5 करेन्ति, तं जहा - पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य । तं होउ णं अम्हं देवाणुप्पिया ! महापउमस्स रण्णो
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दोच्चेवि णामधेज्जे देवसेणे - देवसेणे । तते णं तस्स महापउमस्स रण्णो दोच्चेवि णामधेज्जे भविस्सइ
देवसेणेति ।
तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो अण्णया कयाइ सेय-संखतल - विमल-सण्णिकासे चउदंते :
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हत्थरयणे समुप्पज्जिहिति । तए णं से देवसेणे राया तं सेयं संखतल - विमल - सण्णिकासं चउदंतं
5 हत्थिरयणं दुरूढे समाणे सतदुवार नगरं मज्झं-मज्झेणं अभिक्खणं - अभिक्खणं अतिज्जाहिति य : णिज्जाहितिय ।
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तए णं सतदुवारे णगरे बहवे राईसर - तलवर - ( - ( माडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ - सेट्ठि - सेणावतिसत्थवाह - प्पभितयो ) अण्णमण्णं सद्दावेहिंति, एवं वइस्संति - जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं ५ देवसेणस्स रण्णो सेते संखतल - विमल - सण्णिकासे चउदंते हत्थिरयणे समुप्पण्णे, तं होइ णमम्हं Y देवाप्पिया ! देवसेणस्स तच्चेवि णामधेज्जे विमलवाहणे । तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो तच्चेवि ५ णामज्जे भविस्सति विमलवाहणेति ।
६२. (ख) बालक महापद्म को आठ वर्ष से कुछ अधिक आयु का हुआ जानकर उसके माता-पिता उसे महान् राज्याभिषेक के द्वारा अभिषिक्त करेंगे। वह वहाँ महान् हिमालय, महान् मलय, मन्दर और महेन्द्र पर्वत के समान सर्वोच्च राजा होगा ।
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तब उस महापद्म राजा को अन्य किसी समय महर्धिक, महाधुति-सम्पन्न, महानुभाग, महायशस्वी, - महाबली, महान् सौख्य वाले पूर्णभद्र और माणिभद्र नाम के दो देव राजा महापद्म को सैनिक शिक्षा देंगे। म तब उस शतद्वार नगर में अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य श्रेष्ठी,
सेनापति, सार्थवाह आदि एक दूसरे को इस प्रकार सम्बोधित करेंगे और इस प्रकार से कहेंगेदेवानुप्रियो ! महर्धिक, महाद्युतिसम्पन्न, महानुभाव, महायशस्वी, महाबली और महान् सौख्य वाले पूर्णभद्र और माणिभद्र नामक दो देव राजा महापद्म को सैनिक शिक्षा दे रहे हैं, अतः हमारे महापद्म राजा का दूसरा नाम 'देवसेन' होना चाहिए। तब से उस महापद्म राजा का दूसरा नाम देवसेन होगा।
अन्यथा किसी समय उस देवसेन राजा के निर्मल शंखतल के समान श्वेत, चार दाँत वाला हस्तिरत्न उत्पन्न होगा। तब वह राजा देवसेन श्वेत चार दाँत वाले हस्तिरत्न पर आरूढ़ होकर शतद्वार नगर के बीचोंबीच होते हुए बारबार आवागमन करेगा।
तब उस शतद्वार नगर के अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि परस्पर एक दूसरे को सम्बोधित कर इस प्रकार कहेंगे-देवानुप्रियो ! हमारे राजा देवसेन के पास निर्मल शंखतल के समान श्वेत, चार दाँत वाला हस्तिरत्न है, अतः देवानुप्रियो ! हमारे राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' होना चाहिए। तब से उस देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' होगा।
62. (b) Realizing that child Mahapadma is more than eight years old, i his parents will ceremoniously crown him as a king. There he will be the i loftiest of kings like the great Himalaya, Malay, Mandar and Mahendra mountains.
Then, at some other time, two gods, Purnabhadra and Manibhadra, endowed with great opulence, great radiance, great knowledge, great fame, great power and great bliss will impart him military training.
At that time many regional kings (raja), influential and rich persons (ishvar), knights of honour (talavar), landlords (mandavik), heads of large families (kautumbik), affluent people (ibhya), established : merchants (shreshti), commanders (senapati), caravan chiefs (sarthavaha), and others in the city will converse-_“Beloved of gods ! Two gods, Purnabhadra and Manibhadra, endowed with great opulence, great radiance, great knowledge, great fame, great power and great bliss 4 are imparting military training to our king. Therefore, another name of our king Mahapadma should be Devasen. Since that moment the second name of king Mahapadma will be Devasen.
At some other time an elephant as 'white as the inner surface of a white conch-shell and four tusks will appear in his courtyard. Then King
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Devasen will frequent the middle of the city riding that white four卐 tusked elephant.
At that time many regional kings (raja), influential and rich persons i (ishvar), knights of honour (talavar), landlords (mandavik), heads of large
families (kautumbik), affluent people (ibhya), established merchants 45 (shreshti), commanders (senapati), caravan chiefs (sarthaval
others in the city will converse—“Beloved of gods! Our king has a gem of 5 an elephant as white as the inner surface of a white conch-shell and four tusks. Therefore, the third name of our king should be Vimalavahan. Since that moment the third name of king Devasen will be Vimalavahan.
६२. (ग) तए णं से विमलवाहणे राया तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता अम्मापितीहिं देवत्तं गतेहिं गुरुमहत्तरएहिं अब्भणुण्णाते समाणे, उर्दुमि सरए, संबुद्धे अणुत्तरे मोक्खमग्गे पुणरवि है लोगंतिएहि जीयकप्पिएहिं देवेहिं, ताहिं इटाणि कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं
कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगलाहिं सस्सिरिआहिं वग्गूहिं अभिणंदिज्जमाणे अभियुब्बमाणे य जबहिया सुभूमिभागे उज्जाणे एगं देवदूसमादाय मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयाहिति। से णं
भगवं जं चेव दिवसं मुंडे भवित्ता (अगाराओ अणगारियं) पव्वयाहिति तं चेव दिवसं सयमेयमेतारूवं + अभिग्गहं अभिगिहिहिति-जे केइ उवसगा उप्पज्जिहिति, तं जहा-दिव्वा वा माणुसा वा : तिरिक्खजोणिया वा ते सव्वे सम्मं सहिस्सइ खमिस्सइ तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सइ।
तए णं से भगवं अणगारे भविस्सति-इरियासमिते भासासमिते एवं जहा वद्धमाणसामी तं चेव मणिरवसेसं जाव अव्वावारविउसजोगजुत्ते।
तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स दुवालसहिं संवच्छरेहिं वीतिक्कंतेहिं तेरसहि य । + पक्खेहिं तेरसमस्स णं संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अणुत्तरेणं णाणेणं जहा भावणाते
केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जिहिति। जिणे भविस्सति केवली सवण्णू सबदरिसी सणेरइय जाव पंच महब्बयाई सभावणाई छच्च जीवणिकाए धम्मं देसमाणे विहरिस्सति।
६२. (ग) तब वह विमलवाहन राजा तीस वर्ष तक गृहस्थ अवस्था में रहकर, माता-पिता के : स्वर्गवासी हो जाने पर, गुरुजनों और महत्तर परिवार के मुखिया पुरुषों की अनुज्ञा लेकर शरद् ऋतु में ॐ जीताचार का पालन करने वाले, लोकान्तिक देवों द्वारा अनुत्तर मोक्षमार्ग के लिए संबुद्ध होंगे। तब वे 卐 इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनःप्रिय, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, माँगलिक श्रीकार-सहित वाणी से
अभिनन्दित और संस्तत होते हए नगर के बाहर 'सभमिभाग' नाम के उद्यान में एक मुण्डित हो अगार से अनगार अवस्था में प्रव्रजित होंगे।
वे भगवान जिस दिन मुण्डित होकर प्रव्रजित होंगे, उसी दिन वे स्वयं ही इस प्रकार का अभिग्रह है ग्रहण करेंगे
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"देवता, मनुष्य अथवा तिर्यग्योनिक जीवों द्वारा किसी प्रकार के भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सबको मैं भली भाँति सहन करूँगा, अहीन भाव से दृढ़ता के साथ सहन करूँगा, तितिक्षा करूँगा और अविचल फ
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भाव से सहूँगा।"
तब वे भगवान (महापद्म) अनगार ईर्यासमिति से भाषासमिति से संयुक्त होकर जैसे वर्धमान स्वामी (तपश्चरण में संलग्न हुए थे, उन्हीं के समान) सर्व अनगार धर्म का पालन करते हुए, मन-वचन-काय 5 योग की गुप्ति से युक्त होंगे।
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उन भगवान महापद्म को इस प्रकार के विहार से विचरण करते हुए बारह वर्ष और तेरह पक्ष बीत 5 जाने पर, तेरहवें वर्ष के मध्य अनुत्तर ज्ञान के द्वारा (भावना अध्ययन के कथनानुसार) केवल वर ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होंगे। तब वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर नारक आदि सर्व लोकों के पर्यायों को जानेंगे - देखेंगे। वे भावना सहित पाँच महाव्रतों की, छह जीवनिकायों की तथा धर्म देशना करते हुए विहार करेंगे।
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62. (c) Then that King Vimalavahan, after spending thirty years as a householder, at the death of his parents will seek permission from seniors and heads of the family to prepare for renunciation. In the 卐 winter season the Lokantik gods responsible for Jitaachar (the duty of inviting the future Tirthankar to take to the path of liberation) will inspire him to take to the matchless path of liberation. Being greeted and praised in isht (desirable), kaant (beautiful ), manojna ( attractive), 5 manah-priya ( enchanting), udaar (kind), kalyan (beneficent), shiva (propitious ), dhanya (commendable), mangalik (auspicious), shrikar 卐 i sahit (with the respectful prefix Shri) he will come out of the city in Subhumibhag garden, retain just one divine-cloth and, abandoning the household, will get initiated as an anagar (homeless-ascetic).
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On the very day that Bhagavan will tonsure his head and get initiated, he will accept a resolve-"I will endure each and every affliction caused by men, gods, or animals with equanimity, tolerance and unwavering mind."
Then that Bhagavan (Mahapadma), practicing Irya samiti (careful movement) and Bhasha samiti (careful speech) and observing all codes of ascetic conduct and austerities (as Vardhaman Swami had done) will accomplish man-vachan-kaya yoga gupti (self-restraint related to associations of mind, speech and body).
Moving around this way when twelve years and thirteen fortnights are past, during the thirteenth year that Bhagavan Mahapadma will attain Keval jnana-darshan through peerless knowledge (as mentioned
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卐 in the Bhaavana chapter of Acharanga Sutra). Then as a Jina, Kevali,
Sarvajna and Sarvadarshi (Victor over senses, Omniscient, all knowing and all seeing) he will know and see all modes of all things in all worlds including hell. He will lead an itinerant life preaching about five great vows in word and spirit, six forms of life and dharma (code of conduct).
६२. (घ) से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं एगे आरंभठाणे पण्णत्ते। एवामेव ॐ महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं एगं आरंभठाणं पण्णवेहिति।
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं दुविहे बंधणे पण्णत्ते, तं जहा-पेज्जबंधणे य। 卐 दोसबंधणे य। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं दुविहं बंधणं पण्णवेहिति, तं जहा-: पेज्जबंधणे च, दोसबंधणे च।
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं तओ दंडा पण्णत्ता, तं जहा-मणदंडे, वयदंडे, कायदंडे। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं तओ दंडे पण्णवेहिति, तं जहा-मणोदंड,
वयदंडं, कायदंड। + से जहाणामए (अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा-कोहकसाए,
माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं चत्तारि कसाए पण्णवेहिति, तं जहा-कोहकसायं, माणकसायं, मायाकसायं, लोभकसायं।
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहा-सद्दे, रूवे, है गंधे, रसे, फासे। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं पंच कामगुणे पण्णवेहिति, तं ॐ जहा-सई, रूवं, गंधं, रसं, फासं।
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं छज्जीवणिकाया पण्णत्ता, तं जहापुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं छज्जीवणिकाए पण्णवेहिति, तं जहा-पुढविकाइए, आउकाइए, तेउकाइए, वाउकाइए, वणस्सइकाइए), तसकाइए।
से जहाणामए (अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं) सत्त भयवाणा पण्णत्ता, तं जहा(इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, अकम्हाभए, वेयणभए, मरणभए, असिलोगभए)। एवामेव ॐ महापउमेवि अरहा समणाणं णिगंथाणं सत्त भयट्ठाणे पण्णवेहिति, (तं जहा-इहलोगभयं, - परलोगभयं आदाणभयं अकम्हाभयं वेयणभयं मरणभयं असिलोगभयं)।
___एवं अट्ठ मयट्ठाणे, णव बंभचेरगुत्तीओ, दसविधे समणधम्मे, एवं जाव तेत्तीसमासातणाउत्ति।। ॐ ६२. (घ) आर्यो ! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए एक आरम्भ-स्थान का निरूपण किया है, . ॐ इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए एक आरम्भ स्थान का निरूपण करेंगे।
"नानागागागागा113119555555;)))))))))))
स्थानांगसूत्र (२)
(450)
Sthaananga Sutra (2)
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35555555555555555555555))) ॐ आर्यों ! मैंने जैसे श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के बन्धनों का निरूपण किया है, जैसे-प्रेयस् प्रबन्धन (राग) और द्वेषबन्धन। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के - बन्धन कहेंगे। प्रेयसबन्धन और द्वेषबन्धन।
आर्यों ! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड तीन प्रकार के दण्डों का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए मनोदण्ड, वचनदण्ड और म कायदण्ड तीन प्रकार के दण्डों का निरूपण करेंगे।
आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय चार कषायों का निरूपण किया है। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए चार प्रकार के कषायों का निरूपण करेंगे। क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय। ___आर्यों ! मैंने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए जैसे पाँच कामगुणों का निरूपण किया है, जैसे-शब्द, रूप,
गन्ध, रस म और स्पर्श। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पाँच गुणों का निरूपण करेंगे। है जैसे-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श।
आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक छह जीवनिकायों का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक, छह जीवनिकायों का निरूपण करेंगे।
आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे सात भयस्थानों का निरूपण किया है, इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्माद्भय, वेदनाभय, मरणभय और अश्लोकभय। इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए सात भयस्थानों का निरूपण करेंगे, इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्माद्भय, वेदनाभय, मरणभय और अश्लोकभय। ___आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे आठ मदस्थानों का, नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियों का, दस प्रकार के श्रमण-धर्मों का यावत् तेतीस आशातनाओं का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए आठ मदस्थानों का, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियों का, दस प्रकार के श्रमण-धर्मों का यावत् तेतीस आशातनाओं का निरूपण करेंगे।
62 (d) O noble ones! As I have defined one kind of aarambh sthaan * (sinful activity) for Shraman nirgranths, in the same way Arhat † Mahapadma will define one kind of aarambh sthaan (sinful activity) for Fi Shraman nirgranths.
O noble ones ! As I have defined two kinds of bandhan (bondage) for Shraman nirgranths, such as preyas bandhan (bondage of attachment) and dvesh bandhan (bondage of aversion); in the same way Arhat
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नवम स्थान
(451)
Ninth Sthaan
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Mahapadma will define two kinds of bandhan (bondage) for Shraman nirgranths, such as preyas bandhan (bondage of attachment) and duesh bandhan (bondage of aversion).
O noble ones! As I have defined three kinds of dand (punishment or abuse) for Shraman nirgranths, such as manodand (mental abuse), vachan dand (vocal abuse) and kaya dand (physical abuse); in the same way Arhat Mahapadma will define three kinds of dand (abuse), such as manodand (mental abuse), vachan dand (vocal abuse) and kaya dand (physical abuse), for Shraman nirgranths.
O noble ones! As I have defined four kinds of kashaya (passions) for Shraman nirgranths, such as anger, conceit, deceit and greed; in the same way Arhat Mahapadma will define four kinds of passions, for Shraman nirgranths, such as anger, conceit, deceit and greed.
O noble ones! As I have defined five kinds of kaam-guna (sensual attributes) for Shraman nirgranths, such as sound, appearance, smell, taste and touch; in the same way Arhat Mahapadma will define five kinds of sensual attributes for Shraman nirgranths, such as sound, appearance, smell, taste and touch.
O noble ones! As I have defined six kinds of jiva nikaya (life forms) for Shraman nirgranths, such as prithvikayik (earth-bodied beings), apkayik (water-bodied beings), tejaskayik (fire-bodied beings), vayukayik (air-bodied beings), vanaspatikayik (plant-bodied beings) and tras-kayik (mobile-bodied beings); in the same way Arhat Mahapadma will define six kinds of life forms, such as earth-bodied beings, water-bodied beings, fire-bodied beings, air-bodied beings, plant-bodied beings and mobilebodied beings, for Shraman nirgranths.
O noble ones! As I have defined seven kinds of bhaya sthaans (reasons of fear) for Shraman nirgranths, such as ihalok bhaya (fear related to this world), paralok bhaya (fear related to the other world or next birth), aadan bhaya (fear of loosing wealth), akasmat bhaya (sudden or causeless fear), vedana bhaya (fear of ailment or pain), maran bhaya (fear of death), ashlok bhaya (fear of infamy); in the same way Arhat Mahapadma will define seven kinds of reasons of fear, such as ihalok bhaya, paralok bhaya, aadan bhaya, akasmat bhaya, vedana bhaya, maran bhaya and ashlok bhaya, for Shraman nirgranths.
स्थानांगसूत्र (२)
(452)
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Sthaananga Sutra (2)
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O noble ones! As I have defined eight madsthaans (causes of conceit), nine brahmacharya guptis (shields of celibacy), ten kinds of shramanफ religions ( ascetic conduct ) ...and so on up to ... thirty three ashatana (disrespect) for Shraman nirgranths, in the same way Arhat Mahapadma will define eight madsthaans (causes of conceit), nine brahmacharya guptis (shields of celibacy), ten kinds of shramanreligions (ascetic conduct ) ...and so on up to... thirty three ashatana 卐 (disrespect) for Shraman nirgranths:
卐
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६२. (च) से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए अच्छत्तए अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्टसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्धवित्तीओ पण्णत्ताओ। एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावं (मुंडभावं) अण्हाणयं अदंतवणयं अच्छत्तयं अणुवाहणयं भूमिसेज्जं फलगसेज्जं कट्टसेज्जं केसलोयं बंभचेरवासं परघरपवेसं) लद्धावलद्धवित्ती पण्णवेहिति ।
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं आधाकम्मिएति वा उद्देसिएति वा मीसज्जाएति वा अज्झोयरएति वा पूतिए कीते पामिच्चे अच्छेज्जे अणिसट्टे अभिहडेति वा कंतारभत्तेति वा 5 दुब्भिक्खभत्तेति वा गिलाणभत्तेति वा वद्दलियाभत्तेति वा पाहुणभत्तेति वा मूलभोयणेति वा कंदभोयणेति वा फलभोयणेति वा बीयभोयणेति वा हरियभोयणेति वा पडिसिद्धे । एवामेव 5 महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं आधाकम्मियं वा (उद्देसियं वा मीसज्जायं वा अज्झोयरयं वा पूतियं कीतं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्टं अभिहडं वा कंतारभत्तं वा दुब्भिक्खभत्तं वा गिलाणभत्तं वा 5 वद्दलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा फलभोयणं वा बीयभोयणं वा) हरित भोयणं वा पडिसेहिस्सति ।
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से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वतिए सपडिक्कमणे अचेलए धम्मे पण्णत्ते । एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वतियं (सपिडक्कमणं) अचेलगं धम्मं पण्णवेहिति
से जहाणाम अज्जो
म समणोवासगाणं पंचाणुव्यतिए सत्तसिक्खावतिए - दुवालसविधे सावगधम्मे पण्णत्ते । एवामेव महापउमेवि अरहा समणोवासगाणं पंचाणुव्वतियं (सत्तसिक्खावतियं दुवालसविधं ) सावगधम्मं पण्णवेस्सति ।
६२. (च) आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान - त्याग, अदन्त-धावन, छत्र-धारण - त्याग, उपानह ( जूता ) त्याग, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या,
नवम स्थान
से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं सेज्जातरपिंडेति वा रायपिंडेति वा पडिसिद्धे । 5 एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं सेज्जातरपिंडं वा रायपिंडं वा, पडिसेहिस्सति ।
(453)
259595955555 5 5 55 5 5 55 5555 5 5 5 5 5 5 55559552
Ninth Sthaan
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ॐ केशलोच, ब्रह्मचर्यवास और परगृहप्रवेश कर लब्ध-अपलब्ध वृत्ति (आदर-अनादरपूर्वक प्राप्त भिक्षा)
का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, . स्नानत्याग, भूमिशय्या फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास और परगृहप्रवेश कर म लब्ध-अलब्ध वृत्ति का निरूपण करेंगे।
___ आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवपूरक, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, आछेद्य, अनिसृष्ट, अभ्याहृत, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, वादलिकाभक्त, प्राघूर्णिकभक्त, मूलभोजन, कन्दभोजन, फलभोजन, बीजभोजन और हरितभोजन का निषेध किया है, उसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थोंके लिए आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवपूरक, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, आछेद्य, अनिसृष्टिक, अभ्याहृत, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, वार्दलिकाभक्त, प्राघूर्णिकभक्त, मूलभोजन, कन्दभोजन, फलभोजन बीजभोजन और हरितभोजन का निषेध करेंगे। ___आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे-प्रतिक्रमण और अचलेतायुक्त (अल्प वस्त्र) पाँच महाव्रतरूप धर्म का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिक्रमण और अचेलतायुक्त पाँच महाव्रतरूप धर्म का निरूपण करेंगे।
आर्यों ! मैंने श्रमणोपासकों के लिए जैसे पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के श्रावकधर्म का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप ॐ बारह प्रकार के श्रावकधर्म का निरूपण करेंगे।
___ आर्यों ! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड का निषेध किया है, इसी ॐ प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड का निषेध करेंगे।
62. (e) O noble ones ! As I have defined nagnabhaava (state of being unclad), mundabhaava (state of being tonsured), snana-tyag (not taking a bath), adanta-dhavan (not brushing teeth), chhatra-dhaaran-tyag (not using umbrella), upanaha-tyag (not wearing shoes), bhumi shayya (sleeping on the ground), phalak shayya (sleeping on a strip of wood), kashtha shayya (sleeping on a wooden plank), keshaloch (pulling out hair), brahmacharya vaas (practicing celibacy and accepting alms respectfully and disrespectfully from others' homes for Shraman nirgranths; in the same way Arhat Mahapadma will define
nagnabhaava, mundabhaava, snana-tyag, adanta-dhavan, chhatra___dhaaran-tyag, upanaha-tyag, bhumi shayya, phalak shayya, kashtha
shayya, keshaloch, brahmacharya vaas and accepting alms respectfully and disrespectfully from others' homes for Shraman nirgranths.
O noble ones! As I have prohibited adhakarmic, auddeshik, mishrajat, 4 adhyavapurak, putik, kreet, praamitya, aachhedya, anishrisht, abhyahrit,
kaanatarbhakt, durbhikshabhakt, glaan-bhakt, vardilikabhakt, praghurnikabhakt, mool-bhojan, kanda bhojan, phal bhojan, beej bhojan,
四听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F5555555555555听听听听听听听听听听听听听
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Sthaananga Sutra (2)
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मानामागगनागासागर
and harit bhojan (kinds of alms already defined) for Shraman nirgranths, h in the same way Arhat Mahapadma will define adhakarmic, auddeshik, A mishrajat, adhyavapurak, putik, kreet, praamitya, aachhedya, F anishrisht, abhyahrit, kaanatarbhakt, durbhikshabhakt, glaan-bhakt,
vardilikabhakt, praghurnikabhakt, mool-bhojan, kanda bhojan, phal bhojan, beej bhojan, and harit bhojan for Shraman nirgranths.
O noble ones ! As I have defined dharma (code of conduct) of five great vows inclusive of pratikraman (critical review) and achelata (unclad state) for Shraman nirgranths; in the same way Arhat Mahapadma will define dharma of five great vows inclusive of pratikraman and achelata for Shraman nirgranths.
O noble ones ! As I have defined twelve fold Shravak dharma (codes for laity) inclusive of five Anuvrats (minor vows) and seven Shikshavrats
ementary vows); in the same way Arhat Mahapadma will define twelve fold Shravak dharma (codes for laity) inclusive of five Anuurats (minor vows) and seven Shikshavrats (complementary vows).
O noble ones ! As I have proscribed Shayyatar pind (alms from the host) and Raja pind (alms from the king or state); in the same way Arhat 6 Mahapadma will proscribe Shayyatar pind (alms from the host) and Raja pind (alms from the king or state).
६२. (झ) से जहाणामए अज्जो ! मम णव गणा एगारस गणधरा। एवामेव महापउमस्सवि अरहतो णव गणा एगारस गणधरा भविस्संति।
से जहाणामए अज्जो ! अहं तीसं वासाइं अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता (अगाराओ A अणगारियं) पव्वइए, दुवालस संवच्छराई तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता तेरसहिं पक्खेहिं
ऊणगाइं तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता, बायालीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, बावत्तरिवासाइं सब्बाउयं पालइत्ता सिज्झिस्सं (बुज्झिस्सं मुच्चिस्सं परिणिव्वाइस्स) सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सं। एवामेव महापउमेवि अरहा तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता (मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पवाहिती, दुवालस संवच्छराइं (तेरसपक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, तेरसहिं पक्खेहिं ऊणगाइं तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता, बायालीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता), बावत्तरिवासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिज्झिहिती (बुझिहिती मुच्चिहिती परिणिव्वाइहिती), सम्बदुक्खाणमंतं काहिती
जस्सील-समायारो, अरहा तित्थंकरो महावीरो। तस्सील-समायारो, होति उ अरहा महापउमो॥१॥ संग्रहणी-गाथा)
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गागागागागागागागागागागागागागागागाग
नवम स्थान
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Ninth Sthaan
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६२. ( झ ) आर्यों !
मेरे जैसे नौ गण और ग्यारह गणधर हैं, इसी प्रकार अर्हत् महपद्म के भी नौ ॐ गण और ग्यारह गणधर होंगे।
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आर्यों ! जैसे मैं तीस वर्ष तक अगारवास में रहकर मुण्डित हो अगार से अनगार अवस्था में
5 प्रव्रजित हुआ, बारह वर्ष और तेरह पक्ष तक छद्मस्थ-पर्याय का पालन कर, तेरह पक्षों से कम तीस ! वर्षों तक केवल-पर्याय धारणकर बयालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय पालन कर सर्व आयु बहत्तर वर्ष
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5 पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त होकर सर्व दुःखों का अन्त करूँगा । इसी प्रकार अर्हत् । 5 महापद्म भी तीस वर्ष तक अगारवास में रहकर मुण्डित हो, अगार से अनगार अवस्था में प्रव्रजित होंगे,
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बारह वर्ष तेरह पक्ष तक छद्मस्थ-पर्याय का पालन कर, तेरह पक्षों से कम तीस वर्षों तक केवलिपर्याय !
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का पालन कर बयालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय पालन कर, बहत्तर वर्ष की सम्पूर्ण आयु भोग कर
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5 सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त होकर सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।
5
(गाथा) जिस प्रकार के शील- समाचार वाले अर्हत् तीर्थंकर महावीर हुए हैं, उसी प्रकार के फ्र शील- समाचार वाले अर्हत् महापद्म होंगे।
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62. (f) O noble ones! As I have nine Ganas and nine Ganadhars; in the same way Arhat Mahapadma will have nine Ganas and nine Ganadhars. 卐 O noble ones! As I will become perfect (Siddha), enlightened 4 5 (buddha), liberated (mukta), free of cyclic rebirth (parinivrit), and end all miseries after spending thirty years as householder, getting initiated as a homeless ascetic after tonsuring my head, moving about as chhadmasth ascetic for twelve years and thirteen fortnights, and living as an omniscient for thirteen fortnights less thirty years completing a Y total ascetic-life of forty two years and total life span of seventy two y years; in the same way Arhat Mahapadma will become perfect (Siddha), y 5 enlightened (buddha), liberated (mukta), free of cyclic rebirth 4 (parinivrit), and end all miseries after spending thirty years as householder, getting initiated as a homeless ascetic after tonsuring his head, moving about as a chhadmasth ascetic for twelve years and thirteen fortnights, and living as an omniscient for thirteen fortnights y less thirty years completing a total ascetic-life of forty two years and total life span of seventy two years.
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विशेष शब्दों के अर्थ : फलक शय्या -पतले व लम्बे काष्ट की बनी शय्या । कान्तारभक्त-लम्बी अटवी आदि की यात्रा में सार्थवाह श्रमणों के लिए भोजन बनाकर दे देते थे, वह । दुर्भिक्ष भक्त - दुर्भिक्ष आदि में फ राजा व धनाढ्य व्यक्ति जो भक्त पान देते थे, वह । ग्लान भक्त- रोगी के लिए दिया जाने वाला भोजन । बर्दलिका भक्त - आकाश में बादल व घटाएँ छाई हों, ऐसे समय में श्रमण भिक्षा के लिए नहीं जा सकते,
स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
Arhat Mahapadma will follow the same ascetic conduct and praxis 5 (shila-samachar) as Arhat Tirthankar Mahavir did.
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फफफफफफफ
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फ्र
फफफफफफफफ
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ததததமிமிமிமிமிமிமி***********************ழி
तब उनके लिए गृहस्थ विशेष रूप में बनाकर जो भोजन दे, वह । प्राघूर्णक भक्त - अतिथि आदि के लिए बना हुआ भोजन । अथवा भिक्षुओं के लिए बनवाकर दिया जाने वाला भोजन । (वृत्ति - पत्र ४३८ से ४४४ तक आधाकर्मिक आदि के लिए देखें दशवैकालिक अ. ३)
नक्षत्र - पद NAKSHATRAS-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS) ६३. णव णक्खत्ता चंदस्स पच्छंभागा पण्णत्ता, तं जहा
TECHNICAL TERMS
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Phalak shayya-bed made of long strip of wood. Kantar bhakt-the food prepared by caravan chief and given to ascetics during a long arduous journey. Durbhiksh bhakt-the food distributed by kings and the rich during a famine. Glan bhakt-food prepared for the sick. 卐 Bardalika bhakt-food prepared and sent for ascetic when the weather is cloudy, and ascetics cannot go out to seek alms. Praghurnak bhaktfood prepared for some guests or that specifically prepared for ascetics (Vritti, leaves 438 to 444). (For other kinds of food including Adhakarmik refer to Illustrated Dashavaikalik Sutra, Ch. 3.)
६३. जिन नौ नक्षत्रों का योग चन्द्रमा के पश्चिम भाग से होता है, उनके नाम हैं- (१) अभिजित, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) रेवती, (५) अश्विनी, (६) मृगशिर, (७) पुष्य, (८) हस्त, (९) चित्रा । 63. Nine nakshatras (constellations) have west-sided conjunction with Chandrama (the moon)-(1) Abhijit (Lyrae; the 22nd), (2) Shravan (Alpha Aquilae; the 23rd ), ( 3 ) Dhanishtha (Belta Delphini; the 24th), (4) Revati ( Zeta Piscium; the 28th), (5) Asvini ( Beta Arietis; the 1st ), (6) Mrigashirsha (Lambda Orionis; the 5th ), ( 7 ) Pushya (Delta Cancri; the 8th), (8) Hasta (Delta Corvi; the 13th) and (9) Chitra (Spica Virginis; the 14th).
भई सो धणिट्ठा, रेवति अस्सिणि मग्गसिर पूसो ।
हत्थो चित्ता य तहा, पच्छं भागा णव हवंति ॥ १ ॥ ( संग्रहणी - गाथा )
विमान - पद VIMAAN PAD (SEGMENT OF CLELESTIAL VEHICLES)
६४. आणत - पाणत- - आरणच्चुतेसु कप्पेसु विमाणा णव जोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । ६४. आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में विमान नौ योजन ऊँचे हैं।
64. The vimaans (celestial vehicles) in Anat, Pranat, Aran and Achyut kalp are nine hundred Yojans tall.
नवम स्थान
(457)
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Ninth Sthaan
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कुलकर- पद KULAKAR-PAD (SEGMENT OF KULAKARS) ६५. विमलवाहणे णं कुलकरे णव धणुसताई उड्डुं उच्चत्तेणं हुत्था।
६५. विमलवाहन कुलकर नौ सौ धनुष ऊँचे थे।
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65. Vimalavahan Kulakar was nine hundred Dhanush tall.
तीर्थ प्रवर्तन - पद TIRTHA PRAVARTAN PAD (SEGMENT OF FORD ESTABLISHMENT) ६६. उसभेणं अरहा कोसलिएणं इमीसे ओसप्पिणीए णवहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं वीक्कंताहिं तिथे पवत्तिते ।
६६. कोशला नगरी में उत्पन्न अर्हत् ऋषभ ने इस अवसर्पिणी का नौ कोडाकोडी सागरोपम काल व्यतीत होने पर तीर्थं का प्रवर्तन किया ।
66. Born in Koshala city, Arhat Rishabh established the religious ford (Tirtha) when a period of nine Kodakodi Sagaropam had passed since the beginning of this Avasarpini (regressive cycle).
अन्तद्वीप - पद ANTARDVEEP PAD (SEGMENT OF MIDDLE ISLANDS)
६७. घणदंत - लट्ठदंत - गूढदंत - सुद्धदंतदीवा णं दीवा णव - णव जोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता |
६७. घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और शुद्धदन्त ये द्वीप ( अन्तद्वीप) नौ-नौ सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं। 67. The middle islands named Ghanadant, Lashtadant, Goodhadant and Shuddhadant are nine hundred Yojans long and wide each.
शुक्रग्रह - वीथी- पद SHUKRA GRAHA VITHI-PAD (SEGMENT OF ORBITS OF VENUS) ६८. सुक्कस्स णं महागहस्स णव वीहीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - हयवीही, गयवीही, नागवीही, वसहवीही, गोवीही, उरगवीही, अयवीही, मियवीही, वेसाणरवीहो ।
६८. शुक्र महाग्रह की नौ वीथियाँ (परिभ्रमण की गलियाँ) हैं, जैसे- (१) हयवीथि, (२) गजवीथि, 5 (३) नागवीथि, (४) वृषभवीथि, (५) गोवीथि, (६) उरगवीथि, (७) अजवीथि, (८) मृगवीथि, (९) वैश्वानरवीथि ।
68. The great planet Shukra (Venus) has nine vithis (orbits)— (1) Hayavithi, (2) Gajavithi, (3) Naagavithi, (4) Vrishabhavithi, (5) Gauvithi, (6) Uragavithi, (7) Ajavithi, (8) Mrigavithi and (9) Vaishvanaravithi.
विवेचन-वृत्तिकार ने शुक्रग्रह की इन नौ वीथियों के सन्दर्भ में भद्रबाहु संहिता के श्लोक उद्धृत करके बताया है कि प्रत्येक वीथि में तीन-तीन नक्षत्र भ्रमण करते हैं। जब शुक्र ग्रह प्रथम तीन वीथियों में भ्रमण
Sthaananga Sutra (2)
स्थानांगसूत्र (२)
(458)
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आचार्य श्री आत्मारामजी म. ने विस्तार करते हुए लिखा है
(१) हय, गज और नाग-इन तीन वीथियों में क्रमशः भरणी-कृतिका-रोहिणी, मृगशिरा-आर्द्रापुनर्वसु, पुष्य-आश्लेषा और मघा-ये नौ नक्षत्र शुक्र ग्रह के साथ विचरण करते हैं। दूसरी वृषभ-गो 5
उरगवीथि में क्रमशः-पूर्वा फाल्गुनी-उत्तरा फाल्गुनी-हस्त, चित्रा-स्वाति-मूल और अनुराधा--ज्येष्ठामें मूल तथा अन्तिम-अज, मृग-वैश्वानरवीथि में-पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण नक्षत्र, धनिष्टा, शतभिसग्म पूर्वाभाद्रपदा-और उत्तराभाद्रपदा-रेवती एवं अश्विनी नक्षत्र है। (हिन्दी टीका भाग २ पृष्ठ ६८०)
___Elaboration-Quoting Bhadrabahu Samhita, the commentator (Vritti) F has explained that three constellations move around in each of these F nine orbits. When Venus moves in the first three orbits it augurs good 卐 F rains, good crops and increase of wealth. When it is in the three middle
orbits the rains and produce are medium. When in the last three orbits it is painful for people as it augurs famine and loss of wealth. (Vritti, leaf 445; Bhadrabahu Samhita, Ch. 15)
Acharya Shri Atmamarm ji M. adds the list of triads of constellations moving in each of the aforesaid orbits
(1) Hayavithi-Bharani (35 Arietis), Krittika (Eta Tauri or Pleiades) and Rohini (Aldebaran); (2) Gajavithi-Mrigashira (Lambda Orionis), Ardra (Alpha Orionis) and Punarvasu (Beta Geminorum); (3) Naagavithi-Pushya (Delta Cancri), Ashlesha (Alpha Hydrae), and Magha (Regulus); (4) Vrishabhavithi-Purva Phalguni (Delta Leonis), Uttara Phalguni (Beta Leonis) and Hasta (Delta Corvi); (5) Gauvithi
Chitra (Spica Virginis), Swati (Arcturus) and Vishakha (Alpha Librae); i (6) Uragavithi- Anuradha (Delta Scorpii), Jyeshtha (Antares) and Mula
(Lambda Scorpii); (7) Ajavithi-Purva Ashadha (Delta Sagittarii), i Uttara Ashadha (Sigma Sagittarii) and Shravan (Alpha Aquilae); ! (8) Mrigavithi-Dhanishtha (Belta Delphini), Shat Bhishag (Lambda
Aquarii) and Purva Bhadrapad (Alpha Pegasi); (9) VaishvanaravithiUttara Bhadrapad (Gama Pegasi), Revati (Zeta Piscium) and Asvini (Beta Arietis). (Hindi Tika, part-2, p. 680) कर्म-पद KARMA-PAD (SEGMENT OF KARMA)
६९. णवविधे णोकसायवेयणिज्जे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-इत्थिवेए, पुरिसवेए, णपुंसकवेए, हासे, रती, अरती, भये, सोगे, दुगुंछा।
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नवम स्थान
(459)
Ninth Sthaan
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६९. नोकषाय वेदनीय कर्म नौ प्रकार का है, जैसे-(१) स्त्रीवेद, (२) पुरुषवेद, (३) नपुंसकवेद, + (४) हास्य वेदनीय, (५) रति वेदनीय, (६) अरति वेदनीय, (७) भयवेदनीय, (८) शोक वेदनीय,
(९) जुगुप्सा वेदनीय। ___69. Nokashaya vedaniya karmas are of nine kinds-(1) Stri-veda (causing feminine gender), (2) Purush-veda (causing masculine gender), (3) Napumsak-ved (causing neuter gender), (4) Hasya vedaniya (causing
laughter), (5) Rati vedaniya (causing indulgence), (6) Arati vedaniya 45 (causing non-indulgence), (7) Bhaya vedaniya (causing fear), (8) Shok 4 vedaniya (causing grief) and (9) Jugupsa vedaniya (causing disgust).
विवेचन-क्रोध, मान आदि चार कषाय के अनन्तानुबन्धी आदि १६ भेद होते हैं। इन सोलह कषायों ॐ के साहचर्य से जो मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं, वे कषायों के साथ मिलकर अपना फल देते हैं, उन्हें 卐 'नो कषाय' कहा गया है। नो कषाय के रूप में अनुभव में आने वाले कर्म नो कषाय वेदनीय हैं।
Elaboration—There are 16 categories of passions (anger, etc.) including Anantanubandhi. The consequences of perversions created due to association with these sixteen passions are called nokashaya. The karmas that come to fruition in the form of experience of these nokashayas are called nokashaya vedaniya karmas. कुलकोटि-पद KULAKOTI-PAD (SEGMENT OF SPECIES)
७०. चउरिदियाणं णव जाइ-कुलकोडि-जोणिपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता। ७१. भुयगपरिसप्पथलयर-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं णव जाइ-कुलकोडि-जोणिपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता।
७०. चतुरिन्द्रिय जीवों की नौ लाख जाति-कुलकोटियाँ हैं। ७१. पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक स्थलचरभुजग-परिसरों की नौ लाख जाति-कुलकोटियाँ हैं।
70. Chaturindriya (four-sensed beings) have nine lac (hundred thousand) species (jati kulakoti) in their genuses (yoni pramukh). 70. Panchendriya tiryanch-yonik sthalachar parisarp (limbed reptilian
five-sensed animals) have nine lac (hundred thousand) species (jati fi kulakoti) in their genuses (yoni pramukh). 41 9790744-46 PAAP-KARMA-PAD (SEGMENT OF DEMERITORIOUS KARMA)
७२. जीवा णं णवट्ठाणणिव्यत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिसंति वा, म तं जहा-पुढविकाइयणिव्यत्तिते, (आउकाइयणिव्वत्तिते, तेउकाइयणिव्वत्तिते, वाउकाइयणिव्वत्तिते, +वणस्सइकाइयणिव्वत्तिते, बेइंदियणिव्वत्तिते, तेइंदियणिव्वत्तिते, चउरिदियणिव्यत्तिते,) पंचिंदियणिव्वत्तिते।
एवं-चिण-उवचिण (बंध-उदीर-वेद तह) णिज्जरा चेव।
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स्थानांगसूत्र (२) ।
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Sthaananga Sutra (2)
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- ७२. जीवों ने नौ स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्मरूप से अतीतकाल में संचय किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्य में करेंगे, जैसे___ (१) पृथ्वीकायिकनिर्वर्तित यावत्, (२) अप्कायिकनिर्वर्तित, (३) तेजस्कायिकनिर्वर्तित, (४) वायुकायिकनिर्वर्तित, (५) वनस्पतिकायिकनिर्वर्तित, (६) द्वीन्द्रियनिर्वर्तित, (७) त्रीन्द्रियनिर्वर्तित, (८) चतुरिन्द्रियनिर्वर्तित, (९) पंचेन्द्रियनिर्वर्तित पुद्गलों का।
इसी प्रकार उनका उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
72. All beings did, do and will acquire (sanchit) karma particles in the form of demeritorious karmas in the past, present and future respectively 4 nine ways—(1) Prithvikayik nirvartit (earned as earth-bodied beings), (2) Apkayiks nirvartit (earned as water-bodied beings), (3) Tejaskayik nirvartit (earned as fire-bodied beings), (4) Vayukayik nirvartit (earned as air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik nirvartit (earned as plant-bodied beings), (6) Dvindriya nirvartit (earned as two-sensed beings), (7) Trindriya nirvartit (earned as three-sensed beings), (8) Chaturindriya nirvartit (earned as four-sensed beings), (9) Panchendriya nirvartit (earned as five-sensed beings).
In the same way all beings did, do and will augment (upachaya), bond (bandh), fructify (udiran), experience (vedan) and shed (nirjaran) the acquired karma particles in the past, present and future respectively in aforesaid nine ways. पुद्गल-पद PUDGAL-PAD (SEGMENT OF MATTER)
७३. णवपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता जाव णवगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। ___७३. नौ प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध अनन्त हैं। आकाश के नौ प्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल अनन्त हैं। नौ समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त हैं। नौ गुण काले पुद्गल अनन्त हैं। __ इसी प्रकार शेष वर्ण तथा गन्ध, रस और स्पर्शों के नौ गुण वाले पुद्गल अनन्त जानना चाहिए।
73. There are infinite nau pradeshi pudgal-skandhs (aggregates of nine ultimate particles). There are infinite nau pradeshavagadh pudgalskandhs (ultimate particles occupying nine space-points). ...and so on up to... There are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with nine units of the attribute of black appearance
In the same way there are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with nine units of each of the remaining attributes of smell, taste, and touch.
॥ नवम स्थान समाप्त ॥ • END OF THE NINTH STHAAN
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नवम स्थान
(461)
Ninth Sthaan
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॥ दशम स्थान
___सार : संक्षेप
प्रस्तुत स्थान में दस की संख्या से सम्बद्ध विविध विषयों का वर्णन है। सर्वप्रथम लोकस्थिति के १० 卐 प्रकार बताये गये हैं। तदनन्तर इन्द्रिय-विषयों के और पुद्गल-संचलन के १० प्रकार बताकर क्रोध की
उत्पत्ति के १० कारणों का विस्तार से विवेचन किया है। अन्तरंग में क्रोधकषाय का उदय होने पर और ॐ बाह्य में सूत्र निर्दिष्ट अन्य कारणों के मिलने पर क्रोध उत्पन्न होता है। अतः साधक को क्रोध उत्पन्न करने 卐 वाले कारणों से बचना चाहिए। इसी प्रकार अहंकार के १० कारणों का और चित्त-समाधि-असमाधि
के १०-१० कारणों का निर्देश मननीय है। प्रव्रज्या के १० कारणों से ज्ञात होता है कि मनुष्य किस卐 किस निमित्त के मिलने पर घर त्याग कर साधु बनता है। वैयावृत्त्य के १० प्रकारों से सिद्ध है कि
साधक को आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि गुरुजनों के सिवाय रुग्ण साधु की, नव दीक्षित की और 9 साधर्मिक साधु की भी वैयावृत्त्य करना आवश्यक है।
प्रतिसेवना, आलोचना और प्रायश्चित्त के १०-१० दोषों का वर्णन साधक को उनसे बचने की ॐ प्रेरणा देता है। उपघात-विशोधि और संक्लेश-असंक्लेश के १०-१० भेद उपघात और संक्लेश के कारणों से बचने तथा विशोधि और असंक्लेश या चित्त-निर्मलता रखने की सूचना देते हैं।
स्वाध्याय-काल में ही स्वाध्याय करना चाहिए, अस्वाध्याय काल में नहीं, क्योंकि उल्कापात आदि के समय पठन-पाठन करने से दृष्टिमन्दता आदि अनेक दोषों की सम्भावना रहती है। नगर के राजादि - प्रधान पुरुष के मरण होने पर स्वाध्याय करना लोकविरुद्ध है, इसी प्रकार अन्य अस्वाध्याय कालों में + स्वाध्याय करने पर शास्त्रों में अनेक दोषों का वर्णन किया है।
धर्म-पद के अन्तर्गत ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और कुलधर्म, लौकिक कर्त्तव्यों के पालन की और श्रुतधर्म, चारित्रधर्म आदि आत्मधर्म पारलौकिक कर्तव्यों के पालन की प्रेरणा देते हैं।
स्थविरों के १०भेद व उनकी विनय और वैयावत्त्य करने के सचक हैं। पत्र के दस भेद ता परिस्थिति के परिचायक हैं। तेजोलेश्या प्रयोग के १० प्रकार तेजोलब्धि की उग्रता के द्योतक हैं। दान के १० भेद भारतीय दान की प्राचीनता और विविधता को प्रकट करते हैं।
भगवान महावीर के छद्मस्थकालीन १० स्वप्न, १० आश्चर्यक (अछेरे) एवं अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण वर्णनों के साथ दस दशाओं के भेद-प्रभेदों का वर्णन मननीय है। इसी प्रकार दृष्टिवाद के १० भेद आदि ऊ अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का संकलन इस दसवें स्थान में किया गया है।
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स्थानांगसूत्र (२)
(462)
Sthaananga Sutra (2)
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INTRODUCTION
This Sthaan contains various topics connected with numeral ten. It starts with ten attributes of Lok (occupied space). After that there is a mention of ten subjects of sense organs and movement of matter followed by detailed description of ten causes of anger. Internally anger is produced by fruition of krodh kashaya (angerpassion) and externally by the other causes mentioned in the related aphorism. Therefore the aspirant should avoid these anger-producing causes. In the same way the ten causes of conceit and those of spiritual tranquillity (chitta samadhi) and non-tranquillity (asamadhi) are worth pondering. Ten causes of initiation reveal the inspiring factors that lead to renunciation and initiation. Ten reasons of vaiyauritya (service) inform us that it is essential for an aspirant to serve ailing, neo-initiate and co-religionist ascetics besides acharya, upadhyaya, sthavir and other seniors.
TENTH STHAAN (PLACE NUMBER TEN)
The description of ten faults of pratisevana, alochana and prayashchit inspires the aspirant to avoid them. Ten categories of upaghat-vishodhi and sakleshasanklesh inform about avoiding the causes of upaghat and sanklesh and seek vishodhi and asanklesh.
Studies should be done only during the prescribed time and not otherwise because studies during falling of a comet and other such proscribed periods cause many harms including eye ailments. To continue studies during the mourning period on the death of the king or some other prominent person is against social norms. Many other faults of studies during proscribed period have been mentioned.
दशम स्थान
(463)
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The listing of various social duties (dharma) including gram-dharma, nagardharma, rashtra-dharma and kula-dharma as well as spiritual duties including shrut-dharma and chaaritra-dharma provide guidance for performing these duties. 卐 The ten categories of sthavirs inform about serving them and paying them due respect. List of ten kinds of sons reveals the then prevalent social conditions. The ten uses of tejoleshya explain the intensity of fire power. The ten categories of charity convey the variety and antiquity of Indian practice of charity.
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The details about ten dreams of Bhagavan Mahavir during his chhadmasth period, ten miraculous happenings, ten spiritual states (dasha) with their subcategories and other important details are worth contemplating. This tenth Sthaan also contains ten divisions of Drishtivaad (the subtle canon) and many other 卐 important topics.
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Tenth Sthaan 卐
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लोकस्थिति-पद LOKASTHITI-PAD (SEGMENT OF STATE OF OCCUPIED SPACE)
१. दसविधा लोगट्टिती पण्णत्ता, तं जहा
दशम स्थान TENTH STHAAN (Place Number Ten)
( १ ) जण्णं जीवा उद्दाइत्ता - उद्दाइत्ता तत्थेव - तत्थेव भुज्जो - भुज्जो पच्चायंति - एवं एगा लोगट्टिती पण्णत्ता ।
(२) जण्णं जीवाणं सया समितं पावे कम्मे कज्जति - एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता । (३) जण्णं जीवाणं सया समितं मोहणिज्जे पावे कम्मे कज्जति - एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता । ( ४ ) ण एवं भूतं वा भव्वं वा, भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति - एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ।
(५) ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं तसा पाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरा पाणा
भविस्संति, थावरा पाणा वोच्छिज्जिस्संति तसा पाणा भविस्संति - एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ।
(६) ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोगे अलोगे भविस्सति, अलोगे वा लोगे भविस्सति - एवंप्पेगा लोगट्टिती पण्णत्ता ।
(७) ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोए अलोए पविस्सति, अलोए वा लोए पविस्सति - एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ।
(८)
जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा, जाव ताव जीवा ताव ताव लोए- एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता । (९) जाव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गतिपरियाए ताव ताव लोए, जाव ताव लोगे ताव ताव ५ जीवाण य पोग्गलाण य गतिपरियाए एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ।
(१०) सव्र्व्वसुवि णं लोगंतेसु अबद्धपासपुट्टा पोग्गला लुक्खत्ताए कज्जंति, जेणं जीवा य पोग्गला यणो संचायंति बहिया लोगंता गमणयाए - एवंप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ।
१. लोक स्थिति अर्थात् लोक का स्वभाव दस प्रकार का है
(१) जीव बार-बार मरते हैं और वहीं (लोक में उन्हीं में प्रदेशों पर) बार-बार उत्पन्न होते हैं।
(२) जीव को निरन्तर प्रतिक्षण पाप कर्म का बन्ध होता रहता है।
(३) जीव प्रतिक्षण मोहनीय पापकर्म का बन्ध करते हैं ।
स्थानांगसूत्र (२)
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(464)
Sthaananga Sutra (2)
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गागागागा
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(४) न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न ऐसा कभी होगा कि जीव अपना जीवत्व 卐 (जीव सत्ता) छोड़कर अजीव हो जायें और अजीव जीव हो जायें।
(५) न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है, और न कभी ऐसा होगा कि त्रसजीवों का सर्वथा अभाव या लोप हो जाये और सब जीव स्थावर हो जायें। अथवा स्थावर जीवों का संसार से लोप हो जाये और सब जीव त्रस हो जायें।
(६) न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न कभी ऐसा होगा कि लोक, अलोक हो जाय और अलोक, लोक हो जाये।
(७) न कभी ऐसा हुआ है, न ऐसा हो रहा है और न कभी ऐसा होगा कि लोक अलोक में प्रवेश कर जाये और अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाय।
(८) जहाँ तक लोक है, वहाँ तक जीव हैं और जहाँ तक जीव हैं वहाँ तक लोक है।
(९) जहाँ तक जीव और पुद्गलों का एक छोर से दूसरे छोर तक गतिपर्याय (गमन) है, वहाँ तक लोक है और जहाँ तक लोक है, वहाँ तक जीवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है।
(१०) लोक के सभी अन्तिम भागों (लोकान्त) में अबद्ध पार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और स्पृष्ट) पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा रूक्ष कर दिये जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर गति करने के के लिए समर्थ नहीं होते हैं। अर्थात् पुद्गलों की रूक्षता तथा धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण जीव और पुद्गल लोक के बाहर नहीं जा सकते।
उक्त दसों बातें लोक में स्वाभाविक नियम से विद्यमान हैं। यह लोकस्थिति है। 1. Lokasthiti (state of occupied space or universe) is of ten kinds
(1) Jivas (living beings) die again and again and are born again and again there only (at different space points in the Lok or universe).
(2) Jiva (soul) bonds with paap karmas (demeritorious karmas) incessantly every moment.
(3) Jiva (soul) acquires bondage of Mohaniya (deluding) paap karma every moment.
(4) It never happened, is not happening and will never happen that jiva (soul) gets deprived of its jivatva (state of being the soul entity) and becomes ajiva (matter) and ajiva (matter) becomes jiva (soul).
(5) It never happened, is not happening and will never happen that there is a total absence or extinction of tras jivas (mobile beings) and all
beings become sthavar (immobile). Or there is a total absence or i extinction of sthavar (immobile beings) and all beings become tras
(mobile).
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(6) It never happened, is not happening and will never happen that Lok (universe or occupied space) becomes Alok (the space beyond or unoccupied space) and Alok becomes Lok.
(7) It never happened, is not happening and will never happen that! Lok enters Alok and Alok enters Lok
(8) As far as Lok exists Jiva does and as far as Jiva exists Lok does.
(9) As far as the gatiparyaya (movement or passage) of Jiva and pudgal (matter) is, exists Lok and as far as the Lok is, exists gatiparyaya (movement or passage) of Jiva and pudgal (matter).
(10) At all the edges of the Lok the rough particles of matter convert all the other abaddha parshvasprisht (unattached but touching) particles into rough particles restricting their movement beyond the edge of universe. In other words due to the acquired roughness (rukshata) and absence of the entity of motion (Dharmastikaya) soul and matter can not go beyond the Lok.
The aforesaid ten conditions exist in the Lok due to natural law. This is Lok-sthiti or state of the occupied space.
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इन्द्रियार्थ-पद INDRIYARTH-PAD (SEGMENT OF SUBJECTS OF SENSE ORGANS) २. दसविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहा
णीहारि पिडिमे लुक्खे, भिण्णे जज्जरिते इ य।
दीहे रहस्से पुहत्ते य, काकणी खिंखिणिस्सरे॥१॥ (संग्रह-गाथा) २. शब्द दस प्रकार का है, जैसे-(१) निर्हारी-घण्टे से निकलने वाला घोषवान् (गूंजने वाला) ॐ शब्द। (२) पिण्डिम-घोष-रहित नगाड़े का शब्द। (३) रूक्ष-काक ध्वनि के समान कर्कश शब्द।। + (४) भिन्न-वस्तु के टूटने या छेदन-भेदन से होने वाला शब्द। (५) जर्जरित-तार वाले बाजे का शब्द।।
(६) दीर्घ-दूर तक सुनाई देने वाला मेघ गर्जना जैसा शब्द। (७) ह्रस्व-सूक्ष्म या थोड़ी दूर तक सुनाई म देने वाला वीणादि का शब्द। (८) पृथक्-अनेक बाजों का संयुक्त शब्द। (९) काकणी-सूक्ष्म कण्ठों से
निकली गीत ध्वनि का शब्द। (१०) किंकिणीस्वर-धुंघरुओं की ध्वनि रूप शब्द। 451 2. Shabd (sound) is of ten kinds—(1) Nirhari-resonant sound
produced by a gong. (2) Pindim-non-resonant sound produced by a drum. (3) Rooksha-harsh sound like that of a crow. (4) Bhinna-breakin or shattering sound. (5) Jarjarit-sound of a stringed instrument. (6) Deergh-far reaching sound like thunder of a cloud. (7) Hrasva-sound covering a short distance like that of a Vina. (8) Prithak--combined sound
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(466)
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85555555555555555555555555555555555555 15 of numerous instruments, like orchestral sound. (9) Kakani-low pitched 4 fi singing. (10) Kinkinisvar-tinkling sound of small bells.
३. दस इंदियत्था तीता पण्णत्ता, तं जहा-देसेणवि एगे सद्दाइं सुणिंसु सवेणवि एगे सद्दाई सुणिंसु। देसेणवि एगे रूवाई पासिंसु, सब्वेणवि एगे रूवाइं पासिंसु। (दसेणवि एगे गंधाई जिंधिंसु, # सवेणवि एगे गंधाइं जिंधिंसु। देसेणवि एगे रसाइं आसादेंसु सव्वेणवि एगे रसाइं आसा-सु। देसेणविक है एगे फासाइं पडिसंवेदेंसु) सव्वेणवि एगे फासाइं पडिसंवेदेंसु।।
३. इन्द्रियों के अतीतकालीन विषय (ग्राह्य पदार्थ) दस हैं, जैसे-(१) जीव ने शरीर के एक (भाग) : से भी शब्द सुने थे। (२) अनेक जीवों ने शरीर के सर्वदेश (समस्त भागों) से भी शब्द सुने थे। # (३) अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी रूप देखे थे। (४) अनेक जीवों ने शरीर के सर्वदेश से भी त रूप देखे थे। (५) अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी गन्ध सूंघे थे। (६) अनेक जीवों ने शरीर के 5
सर्व देश से भी गन्ध सूंघे थे। (७) अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी रस चखे थे। (८) अनेक जीवों ने शरीर के सर्व देश से भी रस चखे थे। (९) अनेक जीवों ने शरीर के एक देश से भी स्पर्शों का फ़ वेदन किया था। (१०) अनेक जीवों ने शरीर के सर्व देश से भी स्पर्शों का वेदन किया था।
3. There are ten indriyarth (subjects of sense organs) related to the past-(1) Some jivas (living beings) experienced sounds from one part of the body (deshatah). (2) Some jivas (living beings) experienced sound 41 from all parts of the body (sarvatah). (3) Some jivas experienced forms from one part of the body. (4) Some jivas experienced forms from all parts of the body. (5) Some jivas experienced odours from one part of the body. (6) Some jivas experienced odours from all parts of the body. (7) Some jivas experienced taste from one part of the body. (8) Some jivas experienced taste from all parts of the body. (9) Some jivas experienced touch from one part of the body. (10) Some jivas experienced touch from all parts of the body.
विवेचन-टीकाकार ने 'देशतः' और 'सर्वतः' के अनेक अर्थ किये हैं। जैसे-बहुत-से शब्दों के समूह में किसी को सुनना और किसी को न सुनना देशतः सुनना है। सबको सुनना सर्वतः सुनना है। अथवा देशतः सुनने का अर्थ इन्द्रियों के एक देश से अर्थात् श्रोत्र से सुनना है। संभिन्नश्रोतोलब्धि वाला आत्मा सभी इन्द्रियों से शब्द सुनता है। अथवा एक कान से सुनना देशतः और दोनों कानों से सुनना सर्वतः सुनना कहलाता है।
Elaboration-The commentator (Tika) has interpreted the terms deshatah and sarvatah many ways. To hear some sound and not another from a group of sounds is deshatah (partially); and to hear all of them is sarvatah (fully). To hear some sound from one part of the body is ) deshatah and to hear from all parts of the body is sarvatah. A person
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endowed with the Sambhinnashrotolabdhi special power hears from all sense organs. Also to hear from one ear is deshatah and to hear from both the ears is sarvatah.
४. दस इंदियत्था पुडुप्पण्णा पण्णत्ता, तं जहा-देसेणवि एगे सदाइं सुणेति, सब्वेणवि एगे सदाइं सुणेति। (दसेणवि एगे रूवाई पासंति, सब्बेणवि एगे रूवाइं पासंति। देसेणवि एगे गंधाई 卐 जिंघंति, सवेणवि एगे गंधाइं जिंघंति। देसेणवि एगे रसाइं आसाति, सबेणवि एगे रसाइं !
आसानैति। देसेणवि एगे फासाइं पडिसंवेदेति, सव्वेणवि एगे फासाइं पडिसंवेदेति)।
४. इन्द्रियों के वर्तमानकालीन विषय दस हैं, जैसे-(१) कई शरीर के एक देश से भी शब्द सुनते : हैं। (२) कई जीव शरीर के सर्वदेश से भी शब्द सुनते हैं। (३) कई जीव शरीर के एक देश से भी रूप 卐 देखते हैं। (४) कई जीव शरीर के सर्वदेश से भी रूप देखते हैं। (५) कई जीव शरीर के एक देश से भी
गन्ध सूंघते हैं। (६) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी गन्ध सूंघते हैं। (७) कई जीव शरीर के एक देश से भी रस चखते हैं। (८) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी रस चखते हैं। (९) कई जीव शरीर के । एक देश से भी स्पर्शों का अनभव करते हैं। (१०) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी स्पर्शों का अनुभव करते हैं।
4. There are ten indriyarth (subjects of sense organs) related to the present-(1) Some jivas (living beings) experience sounds from one part of the body (deshatah). (2) Some jivas (living beings) experience sound : from all parts of the body (sarvatah). (3) Some jivas experience forms from one part of the body. (4) Some jivas experience forms from all parts of the body. (5) Some jivas experience odours from one part of the body. !
jivas experience odours from all parts of the body. (7) Some ! jivas experience taste from one part of the body. (8) Some jivas : experience taste from all parts of the body. (9) Some jivas experience touch from one part of the body. (10) Some jivas experience touch from all parts of the body.
५. दस इंदियत्था अणागता पण्णत्ता, तं जहा-देसेणवि एगे सद्दाइं सुणिस्संति, सव्वेणवि एगे 5 सद्दाइं सुणिस्संति। दिसेणवि एगे रूवाई पासिस्संति, सवेणवि एगे रूवाइं पासिस्संति। देसेणवि एगे !
गंधाई जिंघिस्संति, सब्वेणवि एगे गंधाइं जिंघिस्संति। देसेणवि एगे रसाइं आसादेस्संति, सव्वेणवि । के एगे रसाइं आसादेस्संति। देसेणवि एगे फासाइं पडिसंवेदेस्संति), सव्वणेवि एगे फासाइं । ॐ पडिसंवेदेस्संति।
५. इन्द्रियों के भविष्यकालीन विषय दस हैं-(१) कई जीव शरीर के एक देश से भी शब्द सुनेंगे। ॐ (२) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी शब्द सुनेंगे। (३) कई जीव शरीर के एक देश से भी रूप
देखेंगे। (४) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी रूप देखेंगे। (५) कई जीव शरीर के एक देश से भी ।
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॥5555555)भागागागाना
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गन्ध सूंधेगे। (६) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी गन्ध सूंघेगे। (७) कई जीव शरीर के एक देश से - भी रस चखेंगे। (८) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी रस चखेंगे। (९) कई जीव शरीर के एक देश से 5 भी स्पर्शों का वेदन करेंगे। (१०) कई जीव शरीर के सर्व देश से भी स्पर्शों का वेदन करेंगे।
5. There are ten indriyarth (subjects of sense organs) related to the future-(1) Some jivas (living beings) will experience sounds from one part of the body (deshatah). (2) Some jivas (living beings) will experience sound from all parts of the body (sarvatah). (3) Some jivas will experience forms from one part of the body. (4) Some jivas will experience forms from all parts of the body. (5) Some jivas will experience odours from one part of the body. (6) Some jivas will experience odours from all parts of the body. (7) Some jivas will experience taste from one part of the body. (8) Some jivas will experience taste from all parts of the body. (9) Some jivas will experience touch from one part of the body. (10) Some jivas will experience touch from all parts of the body. अच्छिन्न पुद्गल-चलन-पद ACHCHHIANA PUDGAL-CHALAN-PAD
(SEGMENT OF SHIFT OF INTEGRATED PARTICLE) ६. दसहिं ठाणेहिं अच्छिण्णे पोग्गले चलेज्जा, तं जहा-आहारिज्जमाणे वा चलेजा। । परिणामेज्जमाणे वा चलेजा। उस्ससिज्जमाणे वा चलेजा। णिस्ससिज्जमाणे वा चलेजा। वेदेज्जमाणे
वा चलेजा। णिज्जरिज्जमाणे वा चलेजा। विउविज्जमाणे वा चलेजा। परियारिज्जमाणे वा चलेजा। । जक्खाइटे वा चलेजा। वातपरिगए वा चलेज्जा।
६. दस स्थानों से अच्छिन्न (शरीर या स्कन्ध के साथ संबद्ध) पुद्गल चलित (स्थानांतरित) होता है, ॐ जैसे-(१) आहार के रूप में ग्रहण किया जाता हुआ पुद्गल। (२) आहार के रूप में परिणत किया जाता हुआ पुद्गल। (३) उच्छ्वास के रूप में ग्रहण किया जाता हुआ पुद्गल। (४) निःश्वास के रूप में
परिणत किया जाता हुआ पुद्गल। (५) वेद्यमान (जिनका वेदन किया जा रहा है) पुद्गल। का (६) निर्जीर्यमाण पुद्गल। (७) विक्रियमाण (वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत होता हुआ) पुद्गल।
(८) परिचारणा (मैथुन) के समय। (९) शरीर के यक्षाविष्ट होने पर तथा (१०) वायु से प्रेरित होकर के पुद्गल सम्बद्ध स्कंध से चलित होता है।
6. For ten reasons achchhinna pudgal (matter particle integrated 4 with a body or lump) shifts from its place-(1) Particle being eate
(2) Particle being transformed into food. (3) Particle being inhaled. (4) Particle being exhaled. (5) Particle causing sufferance (karma particle). (6) Particle being shed (karma. particle). (7) Particle being transmuted (vikriyaman). (8) During copulation. (9) When a body is under the spell of an evil spirit. (10) Under the influence of wind.
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क्रोधोत्पत्तिस्थान- पद KRODHOTPATTISTHAAN PAD (SEGMENT OF ORIGIN OF ANGER)
७. दसहि ठाणेंहिं कोधुप्पत्ती सिया, (१ - २) तं जहा - मणुण्णाई मे सद्द-फरिस - रसरूव - गंधाई अवहरिंसु । अमणुण्णाई मे सद्द-फरिस - रस- रूव - गंधाई उवहरिंसु ।
( ३ - ४ ) मणुण्णाई मे सद्द-फरिस - रस- रूव-गंधाई अवहरइ । अमणुण्णाई मे सहफरिस - ( रस - रूव) - गंधाई उवहरति ।
( ५ - ६ ) मणुण्णाई मे सद्द - (फरिस - रस- रूव-गंधाई ) अवहरिस्सति । अमणुण्णाई मे सद्द(फरिस - रस - रूव - गंधाई) उवहरिस्सति ।
७ - ८ ) मणुणाई मे सद्द - (फरिस - रस- - रूव) - गंधाई अवहरिसु वा अवहरइ वा अवहरिस्सति वा अणुणाई मे सद्द - (फरिस - रस- रूव - गंधाई) उवहरिंसु वा उवहरति वा उवहरिस्सति वा ।
(९) मणुण्णामणुण्णाई मे सद्द - (फरिस - रस - रूव - गंधाई ) अवहरिंसु वा अवहरति वा अवहरिस्सति वा, उवहरिंसु वा उवहरति वा उवहरिस्सति वा ।
(१०) अहं च णं आयरियं-उवज्झायाणं सम्मं वट्टामि, ममं च णं आयरिय-उवज्झाया मिच्छं विप्पडिवण्णा ।
७. दस कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है
(१) अमुक पुरुष ने (अतीत में) मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपहरण किया। (२) अमुक पुरुष ने मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध प्राप्त कराये हैं (इस स्मृति से)।
(३) वह पुरुष ( वर्तमान में) मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपहरण करता है। (४) वह पुरुष मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध को प्राप्त कराता है।
(५) वह पुरुष (भविष्य में) मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपहरण करेगा । (इस आशंका से ) (६) वह पुरुष मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध प्राप्त करायेगा ।
(७) वह पुरुष मेरे मनोज्ञ शब्द, रस और गन्ध का अपहरण करता था, अपहरण करता है और अपहरण करेगा (इस चिन्तन से)। (८) उस पुरुष ने मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध प्राप्त ५ कराये हैं । (९) उस पुरुष ने मेरे मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपहरण किया है, करता है और करेगा तथा प्राप्त कराये हैं, कराता है और करायेगा ।
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(१०) मैं आचार्य और उपाध्याय के प्रति सम्यक् व्यवहार करता हूँ, परन्तु आचार्य और उपाध्याय मेरे साथ प्रतिकूल व्यवहार करते हैं । ( इस मिथ्या धारणा से)
7. There are ten reasons for rise of anger -
(Due to recollection.) (1) That person deprived me of the sound, touch, taste, smell, vision and smell I liked. (2) That person made me experience the sound, touch, taste, smell, vision and smell I disliked.
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(3) That person is depriving me of the sound, touch, taste, smell, vision and smell I like. (4) That person is making me experience the sound, touch, taste, smell, vision and smell I dislike.
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(Due to apprehension.) (5) That person will deprive me of the sound, touch, taste, smell, vision and smell I like. (6) That person will make me experience the sound, touch, taste, smell, vision and smell I dislike.
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(Due to anxiety.) (7) That person did, does and will deprive me of the 5 sound, touch, taste, smell, vision and smell I liked. (8) That person did, 卐 does and will cause me experience the sound, touch, taste, smell, vision and smell I disliked. (9) That person did, does and will deprive me of the sound, touch, taste, smell, vision and smell I liked, and cause me f experience the sound, touch, taste, smell, vision and smell I disliked.
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(Due to misunderstanding.) (10) My behaviour with the acharya and upadhyaya is proper but behaviour of acharya and upadhyaya with me is not proper.
संयम- असंयम- पद SAMYAM - ASAMYAM - PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE)
८. दसविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा - पुढविकाइयसंजमे, ( आउकाइयसंजमे, तेउकाइयसंजमे, वाउकाइयसंजमे), वणस्सतिकाइयसंजमे, बेइंदियसंजमे, 5 पंचिंदियसंजमे, अजीवकायसंजमे ।
तेइंदियसंजमे,
चउरिंदियसंजमे,
९. दसविधे असंजमे पण्णत्ते, तं जहा - पुढविकाइय असंजमे, आउकाइय असंजमे, काय असंजमे, वाउकाइयअसंजमे, वणस्सतिकाइयअसंजमे, (बेइंदियअसंजमे, तेइंदियअसंजमे, चउरिदिय असंजमे, पंचिंदिय असंजमे ), अजीवकाय असंजमे ।
८. संयम दस प्रकार का है, जैसे- ( १ ) पृथ्वीकायिक- संयम, (२) अष्कायिक- संयम, (३) तेजस्कायिक- संयम, (४) वायुकायिक- संयम, (५) वनस्पतिकायिक- संयम, (६) द्वीन्द्रिय-संयम, (७) त्रीन्द्रिय- संयम, (८) चतुरिन्द्रिय-संयम, (९) पंचेन्द्रिय- संयम, (१०) अजीवकाय - संयम |
९. असंयम दस प्रकार का है, जैसे- (१) पृथ्वीकायिक- असंयम, (२) अप्कायिक-असंयम, (३) तेजस्कायिक-असंयम, (४) वायुकायिक-असंयम, (५) वनस्पति- कायिक- असंयम, (६) द्वीन्द्रिय - असंयम, (७) त्रीन्द्रिय- असंयम, (८) चतुरिन्द्रिय- असंयम, (९) पंचेन्द्रिय- असंयम, (१०) अजीवकाय - असंयम ।
8. Samyam (discipline) is of ten kinds-(1) Prithvikayik samyam (discipline related to earth-bodied beings), (2) Apkayik samyam (discipline related to water-bodied beings), (3) Tejas-kayik samyam 5 (discipline related to fire-bodied beings), (4) Vayukayik samyam
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फ्र दशम स्थान
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+ (discipline related to air-bodied beings ), ( 5 ) Vanaspatikayik samyam फ (discipline related to plant-bodied beings), (6) dvindriya samyam फ्र (discipline related to two-sensed beings), (7) trindriya samyam (discipline related to three-sensed beings), (8) chaturindriya samyam + (discipline related to four-sensed beings), (9) panchendriya samyam (discipline related to five-sensed beings) and (10) ajivakaya samyam (discipline related to non-beings).
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9. Asamyam (indiscipline) is of ten kinds-(1) Prithvikayik asamyam 5 (indiscipline related to earth-bodied beings), (2) Apkayik asamyam (indiscipline related to water-bodied beings), (3) Tejas-kayik asamyam (indiscipline related to fire-bodied beings), (4) Vayukayik asamyam + (indiscipline related to air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik asamyam 5 (indiscipline related to plant-bodied beings), (6) dvindriya asamyam 5 (indiscipline related to two-sensed beings), (7) trindriya asamyam (indiscipline related to three-sensed beings), (8) chaturindriya asamyam (indiscipline related to four-sensed beings), (9) panchendriya asamyam (indiscipline related to five-sensed beings) and (10) ajivakaya asamyam (indiscipline related to non-beings).
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संवर- असंवर- पद SAMVAR-ASAMVAR-PAD
(SEGMENT OF BLOCKAGE AND NON-BLOCKAGE OF INFLOW OF KARMAS)
१०. दसविधे संवरें पण्णत्ते, तं जहा- सोतिंदियसंवरे, ( चक्खिंदियसंवरे, घाणिंदियसंवरे, जिब्भिंदियसंवरे), फासिंदियसंवरे, मणसंवरे, वयसंवरे, कायसंवरे, उवकरणसंवरे, सूचीकुसग्गसंवरे । ११. दसविधे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा- सोतिंदिय असंवरे, ( चक्खिदिय असंवरे, फ्र घाणिंदियअसंवरे, जिब्भिंदियअसंवरे, फासिंदिय असंवरे, मणअसंवरे, वयअसंवरे, कायअसंवरे, ५ उवकरण असंवरे, सूचीकुसग्गअसंवरे ।
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१०. संवर दस प्रकार का है, जैसे- (१) श्रोत्रेन्द्रिय-संवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-संवर, (३) घ्राणेन्द्रिय- 5 (४) रसनेन्द्रिय-संवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-संवर, (६) मन-संवर, (७) वचन - संवर, फ्र (८) काय - संवर, (९) उपकरण- संवर, (१०) सूचीकुशाग्र - संवर ।
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११. असंवर दस प्रकार का है, जैसे- (१)
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श्रोत्रेन्द्रिय- असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, (३) घ्राणेन्द्रिय- असंवर, (४) रसनेन्द्रिय - असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय- असंवर, (६) मन - असंवर, (७) वचन - असंवर, (८) काय असंवर, (९) उपकरण - असंवर, (१०) सूचीकुशाग्र- असंवर ।
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10. Samvar (blockage of inflow of karmas or abstaining from 卐 indulgence in subjects of sense organs) is of six kinds-(1) shrotendriya 卐 (2) chakshurindriya samvar, (3) ghranendriya samvar, 5 5 (4) rasanendriya samvar, (5) sparshendriya samvar, (6) manah samvar
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ܟܡܕܡ
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(related to mind), (7) vachan samvar (related to speech), (8) kaaya samvar (related to body), (9) upakaran samvar (related to equipment)
F and (10) suchi - kushagra samvar (the insignificant ).
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11. Asamvar (inflow of karmas or indulgence in subjects of sense organs) is of six kinds-(1) shrotendriya asamvar, (2) chakshurindriya Fasamvar, (3) ghranendriya asamvar, (4) rasanendriya asamvar,
F (5) sparshendriya asamvar, (6) manah asamvar (related to mind), 5
F (7) vachan asamvar (related to speech ), ( 8 ) kaaya asamvar related to 5 F body), (9) upakaran samvar (related to equipment) and (10) suchi- 5 kushagra samvar (the insignificant ).
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उपधि । जो उपकरण प्रतिदिन काम में आते हैं उन्हें ओघ उपधि कहते हैं और जो किसी कारण विशेष
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से संयम की रक्षा के लिए ग्रहण किये जाते हैं उन्हें उपग्रह उपधि कहते हैं । इन दोनों प्रकार की उपधि का यतनापूर्वक संरक्षण करना उपकरण- संवर है ।
काँटा आदि निकालने या वस्त्र आदि सीने के लिए सूई रखी जाती है। इसी प्रकार कारण विशेष से कुशाग्र भी ग्रहण किये जाते हैं। इनकी सँभाल रखना कि जिससे अंगच्छेद आदि न हो सके। इन दोनों 5 पदों को उपलक्षण मानकर इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं की सार- सँभाल रखना सूचीकुशाग्र-संवर है। Elaboration Of the samvars mentioned here first eight are bhaava samvar (related to thoughts) and the last two are dravya samvar (related to physical things). Upadhi or ascetic-equipment are of two kinds-ogh-upadhi and upagraha-upadhi. The equipment for everyday use are ogh-upadhi and those used for some specific reason to protect 卐 ascetic-discipline are upagraha-upadhi. To use and maintain these equipment carefully is upakaran samvar.
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विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वर्णित आदि के आठ भावसंवर और अन्त के दो द्रव्यसंवर हैं। उपकरणों के 5 संवर को उपकरणसंवर कहते हैं। उपधि (उपकरण) दो प्रकार की होती है - ओघ उपधि और उपग्रह
अहंकार - पद AHANKAR-PAD (SEGMENT OF CONCEIT)
१२. दसहिं ठाणेहिं अहमंतीति थंभिज्जा, तं जहा - जातिमएण वा, कुलमएण वा, (बलमएण वा, रूवमएण वा, तवमएण वा, सुतमएण वा, लाभमएण वा ), इस्सरियमएण वा, णागसुवण्णा वा मे अंतियं हव्यमागच्छंति, पुरिसधम्मतो वा मे उत्तरिए आहोधिए णाणदंसणे समुप्पण्णे ।
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A needle is kept for sewing as well as for removing a thorn from the body. In the same way pointed grass is also taken for some specific use. फ These things should also be kept carefully so that no harm is caused to anybody. To keep other possessions, in addition to the stated two, carefully is called Suchi-kushagra samvar.
दशम स्थान
95959 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5959595959595 95 95 96 95 96 2
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(473)
Tenth Sthaan
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55555555555555555555555555555555555551 卐 १२. दश कारणों से पुरुष अपने आपको ‘अहमंती'- 'मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ' ऐसा अभिमान करता है, ! + जैसे-(१) जाति के मद से। (२) कुल के मद से। (३) बल के मद से। (४) रूप के मद से। (५) तप के
मद से। (६) शास्त्रज्ञान के मद से। (७) लाभ साधनों की उपलब्धि के मद से। (८) ऐश्वर्य प्राप्ति के मद 卐 से। (९) 'मेरे पास नागकुमार या सुपर्णकुमार देव दौड़कर आते हैं', इस प्रकार के भाव से। (१०) 'मुझे सामान्य जनों की अपेक्षा विशिष्ट अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न हुआ है' इस प्रकार के भाव से।
12. For ten reasons a person takes pride in considering himself to be the best-(1) Jati mad (conceit of maternal lineage), (2) kula mad (conceit of paternal lineage), (3) bal mad (conceit of strength), (4) rupa mad (conceit of appearance or beauty), (5) tapo mad (conceit of austerities), (6) Shrut mad (conceit of scriptural knowledge), (7) laabh y mad (conceit of means of gain), (8) aishvarya mad (conceit of gaining wealth), (9) with the thought that gods including Naag Kumar and Suparna Kumar come rushing on my call, and (10) with the thought that I have acquired higher degree of Avadhi-jnana and avadhi-darshan as compared to others. समाधि-असमाधि-पद SAMADHI-ASAMADHI-PAD
(SEGMENT OF EQUANIMITY AND ITS ABSENCE) १३. दसविधा समाधी पण्णत्ता, तं जहा-पाणातिवायवेरमणे, मुसावायवेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, + मेहुणवेरमणे, परिग्गहवेरमणे, इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, आयाण-भंड-मत्तणिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-जल्ल-पारिट्ठावणिया समिती।
१४. दसविधा असमाधी पण्णत्ता, तं जहा-पाणातिवाते (मुसावाए, अदिण्णादाणे, मेहुणे), परिग्गहे, इरियाऽसमिती, (भासाऽसमिती, एसणाऽसमिती, आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेणाऽसमिती), ॐ उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-जल्ल-पारिट्ठावणियाऽसमिती।
१३. दस कारणों से आत्मा समाधि भाव को प्राप्त होता है-(१) प्राणातिपात-विरमण, ॐ (२) मृषावाद-विरमण, (६) ईयासमिति, (७) भाषासमिति, (८) एषणासमिति, (९) आदाननिक्षेपण + (पात्रनिक्षेपण) समिति, (१०) उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापना समिति। इन सबके सम्यक् शुद्ध पालन से।
१४. दस कारणों से आत्मा असमाधि को प्राप्त होता है-(१) प्राणातिपात-अविरमण, ॐ (२) मृषावाद-अविरमण, (३) अदत्तादान-अविरमण, (४) मैथुन-अविरमण, (५) परिग्रह-अविरमण, 卐 (६) ईर्या-असमिति (गमन की असावधानी), (७) भाषा-असमिति (बोलने की असावधानी),
(९) आदान-भाण्ड-अमत्र-निक्षेप की असमिति, (१०) उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्लफ़ परिष्ठापना-असमिति।
स्थानांगसूत्र (२)
(474)
Sthaananga Sutra (2)
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13. There are ten reasons for a soul attaining samadhi bhaava
(equanimous attitude)-(1) pranatipat viraman (to abstain from harming
14. There are ten reasons for a soul attaining asamadhi (not
or destroying life). (2) mrishavaad viraman (to abstain from falsity).
(3) adattadan viraman (to abstain from acts of stealing). (4) maithun viraman (to abstain from indulgence in sexual activities). (5) parigraha viraman (to abstain from acts of possession of things). (6) irya samiti (proper care in movement), (7) bhasha samiti (proper care in speaking),
(8) eshana samiti (proper care in seeking and collecting alms), (9) adanbhand-amatra-nikshepana samiti (proper care in taking and keeping
bowls for food etc.) and (10) uchchar-prasravan-shleshm-jalla-singhad prasthapana samiti (proper care in disposal of all kinds of excreta 卐
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including stool, urine, phlegm, and body and nose scum). By properly observing all these.
attaining samadhi bhaava)-(1) Pranatipat aviraman (not to abstain
from harming or destroying life). (2) Mrishavad aviraman (not to abstain from falsity). (3) Adattadan aviraman (not to abstain from acts of stealing). (4) Maithun aviraman (not to abstain from indulgence in sexual activities). (5) Parigraha aviraman (not to abstain from acts of possession of things). (6) Irya asamiti (absence of care in movement), (7) bhasha asamiti (absence of care in speaking), (8) eshana asamiti (absence of care in seeking and collecting alms), (9) adan-bhand-amatranikshepana asamiti (absence of care in taking and keeping bowls for food etc.) and (10) uchchar-prasravan-shleshm-jalla-singhad prasthapana asamiti (absence of care in disposal of all kinds of excreta including stool, urine, phlegm, and body and nose scum).
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PRAVRAJYA-PAD (SEGMENT OF INITIATION) १५. दसविधा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं जहा
sa da aktywn, gfavn afsegen da | सारणिया रोगिणिया, अणाढिता देवसण्णत्ती ॥१ ॥ वच्छबंधिया । (संग्रहणी - गाथा )
१५. प्रव्रज्या दस प्रकार की है, जैसे- (१) छन्दाप्रव्रज्या - अपनी या दूसरों की इच्छा से ली जाने
वाली
से ली जाने वाली प्रव्रज्या । जैसे शिवभूति मल्ल ने । (२) (३) परिघूनाप्रव्रज्या - दरिद्रता से ली जाने वाली
दीक्षा । जैसे लकड़हारे ने सुधर्मा स्वामी के पास । ( ४ ) स्वप्नाप्रव्रज्या - स्वप्न देखने से ली जाने वाली, या
दशम स्थान
(475)
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दीक्षा । जैसे भवदत्त ने बड़े भाई भावदत्त के कहने से तथा गोविन्दाचार्य ने । (२) रोषाप्रव्रज्या - रोष फ्र
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स्वप्न में ली जाने वाली दीक्षा । जैसे पुष्पचूला ने। (५) प्रतिश्रुताप्रव्रज्या - पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली दीक्षा । जैसे मलयकुमार ने । (६) स्मारणिकाप्रव्रज्या - पूर्व जन्मों का स्मरण होने पर ली जाने वाली दीक्षा । जाति स्मरण ज्ञान होने या ज्ञान कराने से । जैसे मल्ली भगवती ने छह राजाओं को प्रतिबोध दिया । (७) रोगिणिकाप्रव्रज्या - रोग के हो जाने पर ली जाने वाली दीक्षा । जैसे- सनत्कुमार चक्रवर्ती ने (८) अनादृताप्रव्रज्या - अनादर होने पर ली जाने वाली दीक्षा । जैसे नन्दीषेण तथा हरिकेश बल ने । ५ (९) देवसंज्ञप्तिप्रव्रज्या - देव के द्वारा प्रतिबुद्ध करने पर ली जाने वाली दीक्षा । जैसे तेतली प्रधान ने तथा मैतार्य ने। (१०) वत्सानुबन्धिकाप्रव्रज्या - दीक्षित होते हुए पुत्र के स्नेह निमित्त से ली जाने वाली दीक्षा । ५ 5 जैसे भृगु पुरोहित ने तथा वज्र स्वामी की माता ने। (हिन्दी टीका पृष्ठ ७०९ )
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15. Pravrajya (initiation) is of ten kinds-(1) Chhanda pravrajya-toy get initiated by one's own or others' desire; as Bhavadatt got on advise of y 5 elder brother Bhaavadatt, also as Govindacharya got. (2) Rosha ५ pravrajya-to get initiated due anger; as Shivabhuti Malla got. (3) Paridyuna pravrajya-to get initiated due to poverty; as the woodcutter got by Sudharma Swami. (4) Svapna pravrajyn-to get initiated y by being inspired in a dream or that got in dream; as Pushpachula got. 5 (5) Pratishruta pravrajya-to get initiated due to promise given in the 卐 past; as Malaya Kumar got. (6) Smaranika pravrajya-to get initiated due to some memories from the past birth. In other words, on attaining or inspiring jati-smaran-jnana; as Malli Bhagavati enlightened six 5 kings. ( 7 ) Roginika pravrajya — to get initiated due to ailment; as Santkumar Chakravarti got. (8) Anadrita pravrajya-to get initiated due to being insulted; as Nandishen and Harikeshabal got. (9) Devasanjapti pravrajya-to get initiated due to being enlightened by some god; as Tetali Pradhan and Maitarya got. (10) Vatsanubandhika pravrajya-to
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get initiated due to love for one's son who is getting initiated; as Bhrigu
Purohit and Vajra Swami's mother got. (for more details see appendix-3; Hindi Tika, part-2, p. 709 )
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श्रमण धर्म - पद SHRAMAN DHARMA-PAD (SEGMENT OF SHRAMAN DHARMA
१६. दसविधे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे,
तवे, चियाए, बंभचेरवासे ।
१६. श्रमण - धर्म दस प्रकार का है - (१) क्षान्ति (क्षमा धारण करना), (२) मुक्ति (लोभ नहीं करना), फ्रं (३) आर्जव ( मायाचार नहीं करना), (४) मार्दव (अहंकार नहीं करना), (५) लाघव (गौरव नहीं रखना),
(६) सत्य (सत्य वचन बोलना ), (७) संयम धारण करना, (८) तपश्चरण करना, (९) त्याग ( साम्भोगिक
साधुओं को भोजनादि देना), (१०) ब्रह्मचर्यवास (ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुजनों के पास रहना ।
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卐 स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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16. Shraman Dharma (religion of Jain ascetic) is of ten kinds-5 (1) kshanti (forgiveness), (2) mukti (contentment or absence of greed ), 5 ( 3 ) arjava ( honesty or purity of mind) (4) maardava (modesty or 卐 gentleness), (5) laghava (humbleness), (6) satya (truth), (7) samyam 卐 (ascetic-discipline), (8) tap (austerities), (9) tyag (detachment; offer food and other things to colleague ascetics), and (10) brahmacharya vaas (to live with gurus and practice celibacy).
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१७. वैयावृत्त्य (सेवा-शुश्रूषा) दस प्रकार की है। जैसे - ( १ ) आचार्य का वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का वैयावृत्त्य, (३) स्थविर का वैयावृत्त्य, ( ४ ) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (५) ग्लान का वैयावृत्त्य, (६) शैक्ष का वैयावृत्त्य, (७) कुल का वैयावृत्त्य, (८) गण का वैयावृत्त्य, (९) संघ का वैयावृत्त्य, (१०) साधर्मिक का वैयावृत्त्य । ( विस्तार के लिए देखें ठाणं पृष्ठ ९६२)
17. Vaiyavritya ( service) is of ten kinds – ( 1 ) acharya vaiyavritya (service of acharya ), ( 2 ) upadhyaya vaiyavritya (service of upadhyaya), 5 (3) sthavir vaiyavritya (service of senior ascetics), (4) tapasvi vaiyavritya (service of ascetics observing austerities), (5) glaan vaiyavritya (service of ailing ascetics), (6) shaiksha vaiyavritya (service of neo-initiates), (7) kula vaiyavritya (service of disciples of one acharya), (8) gana 5 vaiyavritya (service of group of many kulas ), ( 9 ) sangha vaiyavritya 5 ( service of group of many ganas) and (10) sadharmik vaiyavritya (service th of ascetics following the same praxis). (for details see Thanam p. 962)
वैयावृत्त्य - पद VAIYAVRITYA-PAD (SEGMENT OF SERVICE)
१७. दसविधे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा - आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, थेरवेयावच्चे, 卐 तवस्सिवेयावच्चे, गिलाणवेयावच्चे, सेहवेयावच्चे, कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, साहम्मियवेयावच्चे।
परिणाम - पद PARINAAM-PAD (SEGMENT OF MANIFESTATION)
१८. दसविधे जीवपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा - गतिपरिणामे, इंदियपरिणामे, कसायपरिणामे, लेसापरिणामे, जोगपरिणामे, उवओगपरिणामे, णाणपरिणामे, दंसणपरिणामे, चरित्तपरिणामे, वेयपरिणामे ।
१८. जीव का परिणाम दस प्रकार का है - ( १ ) गति - परिणाम-नरक आदि गतियों की प्राप्ति, (२) इन्द्रिय- परिणाम - पाँच इन्द्रियों की प्राप्ति, (३) कषाय- परिणाम - कषायों की परिणति, (४) लेश्या - परिणाम - लेश्याओं का स्पर्श करना, (५) योग - परिणाम - मन आदि तीनों योगों का व्यापार, (६) उपयोग - परिणाम - दोनों प्रकार के उपयोग, (७) ज्ञान - परिणाम - पाँच ज्ञान, (८) दर्शन - परिणाम - तीनों दर्शन, (९) चारित्र - परिणाम - पाँच चारित्र, (१०) वेद - परिणाम - तीनों वेद ।
दशम स्थान
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18. Jiva parinaam (manifestations of soul) are of ten kinds-(1) Gati. y parinaam-going into genuses including hell, (2) indriya parinaamacquiring five sense organs, (3) kashaya parinaam-getting passions, y (4) leshya parinaam-to manifest leshyas, (5) yoga-parinaammanifestation of action with three associations including mental, (6) upayog parinaam-two kinds of indulgences, (7) jnana parinaam five kinds of knowledge, (8) darshan parinaam-three kinds of perception, (9) chaaritra parinaam-five kinds of conduct, and (10) veda parinaam-three kinds of gender.
१९. दसविधे अजीवपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-बंधणपरिणामे, गतिपरिणामे, संठाणपरिणामे, भेदपरिणामे, वण्णपरिणामे, रसपरिणामे, गंधपरिणामे, फासपरिणामे, अगुरुलहुपरिणामे, सद्दपरिणामे।
१९. अजीव का परिणाम दस प्रकार का है-(१) बन्धन-परिणाम-पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध होना। (२) गति-परिणाम-पुद्गलों की गति, (३) संस्थान-परिणाम, (४) भेद-परिणाम, (५) वर्ण-परिणाम-स्निग्धता, रुक्षता के आधार पर, (६) रस-परिणाम, (७) गन्ध-परिणाम, (८) स्पर्श-परिणाम, (९) अगुरु-लघु-परिणाम, (१०) शब्द-परिणाम।
19. Ajiva parinaam (manifestations of matter) are of ten kinds(1) bandhan parinaam-mutual bondage of matter particles, (2) gati parinaam-movement of matter particles, (3) samsthan parinaamstructure of matter, (4) bhed parinaam-separation, (5) varna parinaam--appearance or colour, (6) rasa parinaam-taste, (7) gandh parinaam-smell, (8) sparsh parinaam-touch, (9) aguru-laghu parinaam-not gross but minute form, and (10) shabd parinaam--sound.
विवेचन-एक रूप को छोड़कर दूसरे रूप में परिवर्तित होना, अथवा विद्यमान पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय धारण करना 'परिणाम' है। द्रव्यार्थिकनय से सभी पदार्थ ध्रुव है, नित्य है तथा
पर्यायार्थिकनय से सभी पदार्थ अनित्य हैं। एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को प्राप्त करना, पदार्थ ॐ का स्वभाव है। संसारी जीवों में गति आदि दस परिणाम पाये जाते हैं। जीव की तरह जीव रहित पदार्थों में भी परिणमन होता रहता है। (ठाणं, पृष्ठ ९६४)
Elaboration-To manifest or transform from one form to another or shift from one mode to another is called parinaam. According to dravyarthik naya (existent material aspect) all substances are constant and permanent and according to paryayarthik naya (transformational aspects) all substances are impermanent. To shift from one mode to another is intrinsic nature of substance. In worldly beings there are ten
555555555555555555555555555555555555EEEEER
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गगगगगगगगा卐5555))
such manifestations including shift to genuses. Like the living, the non-4 living is also subject to transformation and ten such transformations
have been listed here. (Thanam, p. 964) ॐ अस्वाध्याय-पद ASVADHYAYA-PAD (SEGMENT OF PROHIBITION OF STUDIES)
२०. दसविधे अंतलिक्खए असज्झाइए पण्णत्ते, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, म विज्जुते, णिग्याते, जुवए, जक्खालित्ते, धूमिया, महिया, रयुग्घाते। म २०. अन्तरिक्ष (आकाश) सम्बन्धी अस्वाध्यायकाल (स्वाध्याय के लिए वर्जित काल) दस प्रकार का + है, जैसे-(१) उल्कापात-बिजली गिरने या तारा टूटने पर। (२) दिग्दाह-दिशाओं को जलती हुई देखने # पर। (३) गर्जन-आकाश में मेघों की घोर गर्जना तथा (४) विद्युत्-तड़तड़ाती हुई बिजली चमकने पर, , (५) निर्घात-मेघों के होने या न होने पर आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन या वज्रपात के होने पर, म
(६) यूपक-सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा एक साथ मिलने पर, (७) यक्षादीप्त-यक्षादि के द्वारा किसी एक दिशा में बिजली जैसा प्रकाश दिखने पर, (८) धूमिका-कोहरा होने पर, (९) महिका-तुषार या ॥ बर्फ गिरने पर, (१०) रज-उद्घात-तेज आँधी से धूलि उड़ने पर। (विस्तार के लिए देखें ठाणं पृष्ठ ९६९) ___20. There are ten asvadhyaya kaal (period when studies are prohibited) due to reasons related to antariksh (space)-(When there is-) (1) Ulkapaat-a falling star or a comet is seen. (2) Digdahaconflagration in certain direction. (3) Garjana-loud thunder of clouds in the sky. (4) Vidyut--frequent lightening. (5) Nirghat-thunder storm with or without clouds caused by evil spirits. (6) Yupak---mixing of lights of sun and moon at dusk. (7) Yakshadipt-demonic glow created by Yakshas. 41 (8) Dhoomika-mist. (9) Mahika---frost. (10) Rajodghat-sandstorm.
२१. दसविधे ओरालिए असज्झाइए पण्णत्ते, तं जहा-अहि, मंसे, सोणिते, असुइसामंते, है सुसाणसामंते, चंदोवराए, सूरोवराए, पडणे, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे।
२१. औदारिक शरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय दस प्रकार का है-(१) अस्थि, (२) माँस, (३) रक्त, (४) अशुचि, (५) श्मशान के समीप होने पर, (६) चन्द्र-ग्रहण, (७) सूर्य-ग्रहण होने पर, (८) पतनप्रमुख व्यक्ति के मरने पर, (९) राजविप्लव होने पर, (१०) उपाश्रय के भीतर सौ हाथ क्षेत्र में है औदारिक कलेवर के होने पर। इन दस कारणों से स्वाध्याय करने का निषेध है।
21. There are ten asvadhyaya kaal (period when studies prohibited) due to reasons related to audarik sharira (gross physical body)-(In proximity of-) (1) bones, (2) flesh, (3) blood, (4) impurities, (5) cremation ground, (and at the time of-) (6) lunar eclipse, (7) solar eclipse, (8) death of some prominent person, (9) disturbance in the state and (10) presence of a corpse within hundred yards of the place of stay.
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卐 संयम-असंयम-पद SAMYAM-ASAMYAM-PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) २२. पंचिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स दसविधे संजमे कज्जति, तं जहा-सोतामयाओ ॐ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति। सोतामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति। चक्खुमयाओ सोक्खाओ # अववरोवेत्ता भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति। घाणामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता
भवति। घाणामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति। जिभामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति। जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति। फासामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति।) फासामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति।
२२. पंचेन्द्रिय जीवों का घात नहीं करने वाले साधक के दस प्रकार का संयम होता हैम (१-२) श्रोत्रेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने तथा दुःख का संयोग नहीं करने से,
(३-४) चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने तथा दुःख का संयोग नहीं करने से, ॐ (५-६) घ्राणेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने तथा दुःख का संयोग नहीं करने से,
(७-८) रसनेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने तथा दुःख का संयोग नहीं करने से। (९-१०) स्पर्शनेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने तथा दुःख का संयोग नहीं करने से।
22. A being not indulging in harming or killing of five-sensed beings has ten kinds of discipline--That related to not terminating the pleasure derived through and not enforcing the misery experienced through(1,2) shrotrendriya (sense organ of hearing), (3,4) chakshurindriya (sense organ of seeing). (5,6) ghranendriya (sense organ of smell), (7,8) rasanendriya (sense organ of taste) and (9,10) sparshendriya (sense organ of touch).
२३. पंचिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स दसविधे असंजमे कज्जति, तं जहा-सोतामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति। सोतामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। चक्खुमयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता
भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। घाणामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं, ॐ दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। जिब्भामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति। जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति। फासामयाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति। फासामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति।
२३. पंचेन्द्रिय जीवों का घात करने वाले व्यक्ति के दस प्रकार का असंयम होता है, जैसे(१-२) श्रोत्रेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग करने और दुःख का संयोग करने से। 卐 (३-४) चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग करने और दुःख का संयोग करने से। ॐ (५-६) घ्राणेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग करने और दुःख का संयोग करने से।
(७-८) रसनेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग करने और दुःख का संयोग करने से। ऊ (९-१०) स्पर्शनेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग करने और दुःख का संयोग करने से।
नागनागनाना
स्थानांगसूत्र (२)
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23. A being indulging in harming or killing of five sensed beings has ten kinds of indiscipline-That related to terminating the pleasure derived through and enforcing the misery experienced through
(1,2) shrotrendriya (sense organ of hearing), (3,4) chakshurindriya f (sense organ of seeing). (5,6) ghranendriya (sense organ of smell), fi (7,8) rasanendriya (sense organ of taste) and (9,10) sparshendriya (sense fi organ of touch).
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। सूक्ष्म-पद SUKSHMA-PAD (SEGMENT OF MINUTES)
२४. दस सुहुमा पण्णत्ता, तं जहा-पाणसुहुमे, पणगसुहुमे, (बीयसुहुमे, हरितसुहुमे, पुप्फसुहुमे, अंडसुहुमे, लेणसुहुमे), सिणेहसुहुमे, गणियसुहुमे, भंगसुहुमे।
२४. सूक्ष्म दस प्रकार के हैं। जैसे-(१) प्राण-सूक्ष्म-कुन्थुआदि सूक्ष्मजीव, (२) पनक-सूक्ष्म-काई आदि, (३) बीज-सूक्ष्म-धान्य आदि का अग्रभाग, (४) हरितसूक्ष्म-हरे रंग के सूक्ष्मतृण आदि, 2 (५) पुष्प-सूक्ष्म-वट आदि के पुष्प, (६) अण्डसूक्ष्म-चींटी आदि के अण्डे, (७) लयनसूक्ष्म-कीड़ीनगरा, । (८) स्नेहसूक्ष्म-ओस आदि, (९) गणितसूक्ष्म-कुशाग्रबुद्धि से समझने योग्य गणित सम्बन्धी प्रश्न, । (१०) भंगसूक्ष्म-कुशाग्रबुद्धि से समझने योग्य विभिन्न विकल्प।
24. Sukshma (minutes) are of ten kinds—(1) prana-sukshma (minute F insects like kunthu), (2) panak-sukshma (lichen or moss), (3) beejh sukshma (tip of a cereal), (4) harit-sukshma (minute green grass), A (5) pushp-sukshma (minute flowers, like those of banyan tree), (6) anda
sukshma (minute eggs of ants and other insects), (7) layan-sukshma 7 (anthill), (8) sneh-sukshma (dew etc.), (9) ganit-sukshma (subtle fi mathematical questions requiring sharp wit to understand) and
(10) bhang-sukshma (subtle divisions and alternatives requiring sharp wit to understand). महानदी-पद MAHANADI-PAD (SEGMENT OF GREAT RIVERS)
२५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं गंगा-सिंधु-महाणदीओ दस महाणदीओ । समप्पेंति, तं जहा-जउणा, सरऊ, आवी, कोसी, मही, सतद्दू, वितत्था, विभासा, एरावती, चंदभागा।
२५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में गंगा (नेपाल के पूर्व भाग में) सिन्धु - (कैलाश पर्वत से उद्गम) महानदी में दश महानदियाँ मिलती हैं-(१) यमुना (हिमालय से), (२) सरयू
(घाघरा-घग्घर) (३) आवी (राप्ती-उद्गम नेपाल की पर्वतमाला से) (४) कोशी (नेपाल के पूर्व भाग 2 में), (५) मही (बिहार पटना के पास), (६) शतद्रु (सतलज-पंजाब में) (७) वितस्ता (झेलम),
(८) विपाशा (व्यास), (९) ऐरावती (रावी), (१०) चन्द्रभागा (चिनाब)। (इनमें से प्रथम पाँच गंगा में । तथा शेष पाँच सिन्धु में मिलती हैं)।
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25. In Jambu continent, to the south of Mandar Mountain (in Bharat area) ten great rivers join the great rivers Ganga (east Nepal) and Sindhu (Mt. Kailash)-(1) Yamuna (from Himalaya), (2) Sarayu (Ghagghar or Ghaghara), (3) Aavi (Rapti from mountains in Nepal), (4) Kosi (east
pal), (5) Mahi (near Patna in Bihar), (6) Shatadru (Sataluj), (7) Vitasta (Jhelum), (8) Vipasa (Vyas), (9) Airavati (Ravi) and (10) Chandrabi i (Chenab). (first five join the Ganga and last five the Sindhu) म २६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रत्ता-रत्तवतीओ महाणदीओ दस महाणदीओ
समप्पेंति, तं जहा-किण्हा, महाकिण्हा, णीला, महाणीला, महातीरा, इंदा, (इंदसेणा, सुसेणा,
वारिसेणा), महाभोगा। म २६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में रक्ता और रक्तावती महानदी में दश
महानदियाँ मिलती हैं-(१) कृष्णा, (२) महाकृष्णा, (३) नीला, (४) महानीला, (५) महातीरा, म (६) इन्द्रा, (७) इन्द्रसेना, (८) सुषेणा, (९) वारिषेणा, (१०) महाभोगा।
26. In Jambu continent, to the north of Mandar Mountain (in Airavat area) ten great rivers join the great rivers Rakta and Raktavati(1) Krishna, (2) Mahakrishna, (3) Nila, (4) Mahanila and (5) Mahatira, (6) Indra, (7) Indrasena, (8) Sushena, (9) Varishena and (10) Mahabhoga. राजधानी-पद RAJADHANI-PAD (SEGMENT OF CAPITAL CITIES) २७. जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे दस रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा
चंपा महुरा वाणारसी य सावत्थि तह य साकेतं।
हत्थिणाउर कंपिल्लं, मिहिला कोसंबि रायगिहं॥१॥ (संग्रहणी गाथा) २७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में दस राजधानियाँ हैं-(१) चम्पा-अंगदेश की राजधानी, ॐ (२) मथुरा-सूरसेन देश की राजधानी, (३) वाराणसी-काशी देश की राजधानी, (४) श्रावस्ती-कुणाल
देश की राजधानी, (५) साकेत-कोशल देश की राजधानी, (६) हस्तिनापुर-कुरु देश की राजधानी, ॐ (७) कम्पिला (पांचाल), (८) मिथिला (विदेह), (९) कौशाम्बी-वत्स देश की राजधानी, (१०) राजगृह+ मगध देश की राजधानी।। 41 27. In Jambu continent in Bharat area there are ten rajadhanis , $i (capital cities)—(1) Champa (of Anga), (2) Mathura (of Surasen), !
(3) Varanasi (of Kashi), (4) Shravasti (of Kunal), (5) Saket (of Koshal),
(6) Hastinapur (of Kuru), (7) Kampill (of Panchal), (8) Mithila (of Videh), 卐 (9) Kaushambi (of Vatsa) and (10) Rajagriha (of Magadh).
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स्थानांगसूत्र (२)
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राज- पद RAJ PAD (SEGMENT OF KINGS)
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२८. एयासु णं दससु रायहाणीसु दस रायाणो मुंडा भवेत्ता ( अगाराओ अणगारियं) पव्वइया, 卐 तं जहा - भरहे, सगरे, मघवं, सणंकुमारे, संती, कुंथू, अरे, महापउमे, हरिसेणे, जयणामे ।
२८. इन दस राजधानियों में दस राजा मुण्डित होकर अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित हुए, फ्र जैसे - ( 9 ) भरत, (२) सगर, (३) मघवा, (४) सनत्कुमार, (५) शान्ति, (६) कुन्थु, (७) अर, 卐 (८) महापद्म, ( ९ ) हरिषेण, (१०) जय ।
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२९. जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए दस जोयणसयाइं उव्वेहेणं, धरणितले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उवरिं दसजोयणसयाइं विक्खंभेणं, दसदसाइं जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ।
२९. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत एक हजार योजन भूमि में गहरा है, भूमितल पर दस हजार योजन विस्तृत है, ऊपर पण्डकवन में एक हजार योजन विस्तृत और सर्व परिमाण से एक लाख योजन ऊँचा है।
28. In the said ten capital cities ten kings got tonsured and initiated to be ascetics-(1) Bharat, (2) Sagar, (3) Maghava, (4) Sanatkumar, (5) Shanti, (6) Kunthu, ( 7 ) Ar, (8) Mahapadma, (9) Harishen and (10) Jai. विवेचन-उक्त १० राजधानियों में १२ चक्रवर्ती राजा हुए जिनमें से दस ने संयम धारण किया। आवश्यक नियुक्ति गा. २९७ अनुसार ये १० चक्रवर्ती निम्न नगरों में दीक्षित हुए। १. भरत और सगर - साकेत - अयोध्या में, मघवा - श्रावस्ती में, सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर और सुभूम-ये पाँच 5 हस्तिनापुर में । महापद्म वाराणसी, हरिषेण तथा ब्रह्मदत्त कांपिल्यपुर में आठवें सुभूम तथा बारहवें ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती दीक्षित नहीं हुए। (हिन्दी टीका, भाग २, पृष्ठ ७२४)
दशम स्थान
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Elaboration-In the aforesaid ten capitals at different times there were twelve Chakravartis. Out of these ten became ascetics. According to Avashyak Niryukti (verse 297) these emperors got initiated in the following cities – Bharat and Sagar in Saket (Ayodhya ); Maghava in 5 Shravasti; Sanatkumar, Shanti, Kunthu, Ar, and Mahapadma in Hastinapur; Mahapadma in Varanasi; and Harishen and Jai in Kampilyapur. The eighth and twelfth Chakravartis named Subhum and Brahmadatt respectively did not get initiated. (Hindi Tika, part-2, p. 724) मन्दर - पद MANDAR-PAD (SEGMENT OF MANDAR)
Tenth Sthaan
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29. In Jambu continent the Mandar mountain is one thousand Yojan deep in the ground. At ground level its expanse is ten thousand Yojans. फ At Pandak forest on its top the expanse is one thousand Yojans. Its overall height is one hundred thousand Yojans.
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845555555555555555555555555555555 म दिशा-पद (रुचक प्रदेश क्षेत्र) DISHA-PAD (SEGMENT OF DIRECTIONS)
३०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ॐ उवरिमहेढिल्लेसु खुड्डगपतरेसु, एत्थ णं अट्ठपएसिए रुयगे पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ
पवहंति, तं जहा पुरथिमा, पुरथिमदाहिणा, दाहिणा, दाहिणपच्चत्थिमा, पच्चत्थिमा, + पच्चत्थिमुत्तरा, उत्तरा, उत्तरपुरस्थिमा, उड्डा, अहा। ३१. एतासि णं दसण्हं दिसाणं दस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा
इंदा अग्गीह जाया य, णेरती वारुणी य वायव्या।
सोमा ईसाणी य, विमला य तमा य बोद्धव्या॥१॥ म ३०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के ठीक मध्य भाग में (नौ सौ योजन नीचे जहाँ मध्य +लोक समाप्त होता है तथा अधोलोक प्रारम्भ होता है)। रत्नप्रभा पृथिवी के ऊपर क्षुल्लक प्रतर में गाय के
स्तनाकार चार तथा उसके नीचे के क्षुल्लक प्रतर में गोस्तनाकार चार, इस प्रकार आठ आकाश प्रदेश + वाला रुचक कहा गया है। इसी से दसों दिशाओं का उद्गम होता है, जैसे-(१) पूर्वदिशा,
(२) पूर्व-दक्षिण-आग्नेयदिशा, (३) दक्षिणदिशा, (४) दक्षिण-पश्चिम-नैर्ऋत्य दिशा, (५) पश्चिम ॐ दिशा, (६) पश्चिम-उत्तर-वायव्य दिशा, (७) उत्तर दिशा, (८) उत्तर-पूर्व-ईशान दिशा, (९) ऊर्ध्व 卐 दिशा, (१०) अधोदिशा।
३१. इन दस दिशाओं के दस नाम हैं-(१) इन्द्रा, (२) आग्नेयी, (३) याम्या, (४) नैर्ऋती, 卐 (५) वारुणी, (६) वायव्या, (७) सोमा, (८) ईशानी, (९) विमला, (१०) तमा।
30. In Jambu continent in the exact middle of the (perpendicular section of) Mandar mountain (nine hundred Yojans below where the middle world ends and lower world starts) just above Ratnaprabha prithvi there is a Ruchak pradesh (Ruchak section) with eight spacesections (akash pradesh) at two micro-levels (kshullak pratar) of four space-sections each, resembling four teats in udder of a cow, one above
the other and facing each other. From this core section originate ten 45 directions (1) East, (2) South-east (Aagneya), (3) South, (4) South-west ST (Nairritya), (5) West, (6) North-west (Vayavya), (7) North, (8) North-east (Ishan), (9) Zenith and (10) Nadir.
31. These ten directions have ten names (1) Indrad, (2) Aagneyi, 9 (3) Yamya, (4) Nairriti, (5) Vaaruni, (6) Vayavyaa, (7) Somaa, (8) Ishani,
(9) Vimala and (10) Tamaa. ॐ गोतीर्थ-पद GOTIRTHA-PAD (SEGMENT OF SLOPING BANK)
३२. लवणस्स णं समुदस्स दस जोयणसहस्साइं गोतित्थविरहिते खेत्ते पण्णत्ते।
स्थानांगसूत्र (२)
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३२. लवणसमुद्र का दस हजार योजन क्षेत्र गोतीर्थ-रहित (समतल) है।
32. Ten thousand Yojan area of Lavan Samudra is without gotirtha (slope).
३३. लवणस्स णं समुद्दस्स दस जोयणसहस्साई उदगमाले पण्णत्ते। ३३. लवणसमुद्र की उदकमाला (वेला) दस हजार योजन चौड़ी है।
33. The udak-mala (wave crest) of Lavan Samudra is ten thousand Yojan wide.
विवेचन-जिस जलस्थान (तालाब-समुद्र आदि) पर गायें जल पीने के लिए उतरती हैं, वह क्रम से ढलान वाला स्थान आगे-आगे अधिक नीचा होता है, उसे गोतीर्थ कहते हैं। लवणसमुद्र के दोनों पावों प्र में, (जम्बूद्वीप तथा धातकीषण्ड से) ९५-९५ हजार योजन भीतर जल स्थान गोतीर्थ के आकार में है। बीच में दस हजार योजन तक पानी समतल है, उसमें ढलान नहीं है, उस समतल भूमि को र 'गोतीर्थविरहित' कहा जाता है। ___ जल की ऊपर उठती शिखा या चोटी को (जो समुद्र से ऊँची उठी है) उदकमाला कहते हैं। यह समुद्र के मध्यभाग में होती है। लवणसमुद्र की उदकमाला दस हजार योजन चौड़ी और सोलह हजार योजन ऊँची होती है। वेलंधर देव इसकी रक्षा करते हैं। ___Elaboration-The sloping area within a water-body, starting from the bank, where cows frequent for drinking water is called gotirtha. This i gradual slope continues to increase towards the middle. On both ends of 4 Lavan Samudra (from Jambudveep and Dhatakikhand) the gotirtha is
ninety five thousand Yojans long. In the center the area of level sea bed : is ten thousand Yojans long. This level area devoid of slope (gotirtha) is called gotirtha-virahit.
A wave crest is called udak-mala. It is in the middle of a sea. The wave crest (maximum) of Lavan Samudra is ten thousand Yojans wide and sixteen thousand Yojans high. It is guarded by Velandhar gods. पातालकलश-पद PATAL KALASH-PAD (SEGMENT OF PATAL KALASH)
३४. सब्वेवि णं महापाताला दसदसाइं जोयणसहस्साइं उव्वेहेणं पण्णत्ता, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसियाए सेढीए दसदसाइं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ता, उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ता। तेसि णं महापातालाणं कुड्डा सब्बवइरामया सव्वत्थ समा दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता।
३४. लवणसमुद्र में चारों दिशाओं में चार महापाताल कलश हैं। सभी महापाताल (पातालकलश) एक लाख योजन गहरे हैं। (उनके नाम हैं-वलयामुख, केतुक, यूपक और ईश्वर)। ये गोतीर्थ रहित
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5 स्थान पर हैं। नीचे मूल भाग में वे दस हजार योजन चौड़े हैं। मूल भाग के विस्तार से दोनों ओर
5 एक-एक प्रदेश की वृद्धि से बढ़ते हुए बहुमध्यदेश भाग एक लाख योजन चौड़े हैं। ऊपर मुखमूल में उनका विस्तार दस हजार योजन है। उन पातालों की भित्तियाँ सर्व वज्रमयी, सर्वत्र समान और सर्वत्र दस हजार योजन चौड़ी हैं।
34. There are four Mahapatal Kalash (gigantic pitcher shaped areas ) in four directions in Lavan Samudra. All these Mahapatal Kalash are one hundred thousand Yojans deep (their names are-Valayamukh, 5 Ketuk, Yupak and Ishvar). These areas are devoid of slope (gotirtha). At the base (sea bed) they are ten thousand Yojan wide. With a gradual increase in area, with every space-point of height from the sea-bed, they reach a maximum width of one hundred thousand Yojans in the middle and then start decreasing. Their width at the mouth or surface of the sea is ten thousand Yojans. The walls of these Paataals are diamond hard, uniform and ten thousand Yojan thick.
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३५. सव्वेवि णं खुद्दा पाताला दस जोयणसताई उव्वेहेणं पण्णत्ता, मूले दसदसाई जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसियाए सेढीए दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पण्णत्ता, उवरिं मुहमूले दसदसाई जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । तेसि णं खुड्डापातालाणं कुड्डा सव्ववइरामया सव्वत्थ समा दस जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ता ।
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३५. लवणसमुद्र की दिशाओं और विदिशाओं में सभी छोटे पातालकलश एक हजार योजन गहरे हैं। मूल भाग में उनका विस्तार सौ योजन है। मूलभाग के विस्तार से दोनों ओर एक-एक प्रदेश की वृद्धि से बहुमध्य देशभाग में उनका विस्तार एक हजार योजन है। ऊपर मुखमूल में उनका विस्तार सौ योजन
है।
उन छोटे पातालकलशों की भित्तियाँ सर्व वज्रमयी, सर्वत्र समान और सर्वत्र दश योजन विस्तार वाली है। उनकी कुल संख्या ७८८४ है । (विस्तार के लिए देखें- गणितानुयोग पृष्ठ ३४२ तथा जीवाभिगम)
35. There are small Patal Kalash (pitcher shaped areas) in all cardinal and intermediate directions in Lavan Samudra. They are one thousand Yojans deep. At the base (sea bed) they are one hundred Yojan wide. With a gradual increase in area, with every space-point of height from the sea-bed, they reach a maximum width of one thousand Yojans in the middle and then start decreasing. Their width at the mouth or surface of the sea is one thousand Yojans.
The walls of these Paataals are diamond hard, uniform and ten Yojan thick. Their total number is 7884. (for more details refer to Ganitanuyog, 5 p. 342 and Jivabhigam)
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पर्वत-पद PARVAT-PAD (SEGMENT OF MOUNTAINS) म ३६. धायइसंडगा णं मंदरा दसजोयणसयाई उब्बेहेणं, धरणीतले देसूणाई दस जोयणसहस्साई , विक्खंभेणं, उवरिं दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता।
३७. पुक्खरवरदीवडगा णं मंदरा दस जोयणसयाइं उव्वेहेणं, एवं चेव।
३६. धातकीषण्ड के मन्दर पर्वत, भूमि में एक हजार योजन गहरे, भूमितल पर कुछ कम दस हजार योजन विस्तृत और ऊपर एक हजार योजन विस्तृत हैं।
३७. पुष्करवरद्वीपार्ध के मन्दर पर्वत इसी प्रकार भूमि में एक हजार योजन गहरे, भूमितल पर म कुछ कम दस हजार योजन विस्तृत और ऊपर एक हजार योजन ऊँचे हैं।
36. In Dhatakikhand the Mandar mountain is one thousand Yojan 1 deep in the ground. At ground level its expanse is slightly less than ten fi thousand Yojans. At the top its expanse is one thousand Yojans.
37. In the same way in Pushkaravar Dveep the Mandar mountain is one thousand Yojan deep in the ground. At ground level its expanse is
slightly less than ten thousand Yojans. At the top its expanse is one 卐 thousand Yojans.
३८. सब्वेवि णं वट्टवेयडपव्वता दस जोयणसयाई उठं उच्चत्तेणं, दस गाउयसयाइं उब्वेहेणं, ई सव्वत्थ समा पल्लगसंठिता, दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। ॐ ३८. सभी वृतवैताढ्य पर्वत (गोलाई वाले) एक हाजर योजन ऊँचे, एक हजार गव्यूति (कोश) गहरे, सर्वत्र समान विस्तार वाले, पल्य के आकार से संस्थित और दस सौ (एक हजार) योजन विस्तृत हैं।
38. All Vaitadhya mountains are round. They are one thousand Yojans high, one thousand Gavyut (Kosa) deep in the ground, uniformly wide, silo shaped and ten hundred (one thousand) Yojan in expanse. जम्बूद्वीप क्षेत्र-पद JAMBUDVEEP KSHETRA-PAD
(SEGMENT OF AREAS IN JAMBUDVEEP) ३९. जंबुद्दीवे दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा-भरहे, एरवते, हेमवते, हेरण्णवते, हरिवस्से, रम्मगवस्से, पुवविदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा।
३९. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में (मानव-निवास के) दस क्षेत्र हैं-(१) भरत क्षेत्र, (२) ऐरवत क्षेत्र, 4 (३) हैमवत क्षेत्र, (४) हैरण्यवत क्षेत्र, (५) हरिवर्ष क्षेत्र, (६) रम्यकवर्ष क्षेत्र, (७) पूर्वविदेह क्षेत्र, म (८) अपरविदेह क्षेत्र, (९) देवकुरु क्षेत्र, (१०) उत्तरकुरु क्षेत्र।
39. In Jambudveep continent there are ten areas (of human 卐 habitation)—(1) Bharat area, (2) Airavat area, (3) Haimavat area,
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40. At its base the expanse of Manushottar Parvat is ten hundred twenty two (1022) Yojan. 41. All Anjanak Parvats are ten hundred (1000) Yojan deep in the ground, ten thousand Yojans wide at ground level, and ten hundred (1000) Yojan wide at the top. 42. All Dadhimukh mountains 5 卐 are ten hundred Yojan deep in the ground, uniformly wide, silo shaped and ten hundred (one thousand) Yojan in expanse. 43. All Ratikar mountains are ten hundred Yojan high, ten hundred Gavyut (Kosa) deep 卐 in the ground, uniformly wide, dish shaped and ten thousand Yojan in expanse. 44. All Ruchakavar Parvats are ten hundred (1000) Yojan deep in the ground, ten thousand Yojans wide at ground level, and ten hundred (1000) Yojan wide at the top. 45. The Kundalavar Parvats are फ्र also like Ruchakavar Parvats.
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(4) Hairanyavat area, (5) Harivarsh area, (6) Ramyak-varsh and (7) Purva Videh area, (8) Apar Videh area, (9) Devakuru area and (10). Uttar-kuru area.
विविध पर्वत - पद VIVIDH PARVAT-PAD (SEGMENT OF MISCELLANEOUS MOUNTAINS)
४०. माणुसुत्तरे णं पव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते । ४१. सव्वेवि णं अंजण - पव्वता दस जोयणसयाई उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं उवरिं दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पण्णत्ता । ४२. सव्वेवि णं दहिमुहपव्वता दस जोयणसताइं उबेहेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठिता, दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेण पण्णत्ता । ४३. सव्वेवि णं रतिकरपव्वता दस जोयणसताई उड्डुं उच्चत्तेणं, दसगाउयसताइं उव्वेहेणं सव्वत्थ समा झल्लरिसंठिता, दस जोयणसताई विक्खंभेणं पण्णत्ता । ४४. रुयगवरे णं पव्वते दस जोयणसताई उब्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं उवरिं दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पण्णत्ते । ४५. एवं कुंडलवरेवि ।
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४०. मानुषोत्तर पर्वत मूल में दस सौ बाईस (१०२२) योजन विस्तार वाला है । ४१. सभी अंजनक पर्वत दस सौ (१०००) योजन गहरे, मूल में दश हजार योजन विस्तृत और ऊपर दस सौ (१०००) योजन विस्तार वाले हैं । ४२. सभी दधिमुखपर्वत भूमि में दस सौ योजन गहरे, सर्वत्र समान ५ विस्तार वाले, पल्य के आकार से संस्थित और दस हजार योजन चौड़े हैं । ४३. सभी रतिकर पर्वत y सौ (१०००) योजन ऊँचे, दस सौ गव्यूति (कोश) गहरे, सर्वत्र समान, झल्लरी के आकार के और दस हजार योजन विस्तार वाले हैं । ४४. रुचकवर पर्वत दस सौ (१०००) योजन गहरे, मूल में दस हजार 5 योजन विस्तृत और ऊपर दस सौ (१०००) योजन विस्तार वाले हैं । ४५. इसी प्रकार कुण्डलवर पर्वत भी रुचकवर पर्वत के समान है।
विवेचन - (४०) मानुषोत्तर पर्वत पुष्करवर द्वीप के ठीक मध्य भाग में कुण्डलाकार है । यही मनुष्य लोक की सीमा बाँधता है। इससे बाहर मानव जाति का निवास नहीं है । ( ४१-४५) तेरहवें रुचक द्वीप
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के ठीक मध्य भाग में गोलाकार रुचक पर्वत तथा ग्यारहवें कुण्डल द्वीप में गोलाकार कुण्डल पर्वत स्थित 卐 है। (विस्तार के लिए देखें-जीवाभिगम सूत्र)
Elaboration—(40) Manushottar Parvat is located at the center of Pushkaravar Dveep and is ring shaped. This forms the boundary of human habitation outside which there is no existence of human beings. (41-45) The circular Ruchak Parvat is located at the center of the Ruchak Dveep (thirteenth Dveep). The circular Kundal Parvat is located at the center of the Kundal Dveep (eleventh Dveep). (for details see Jivabhigam Sutra) द्रव्यानुयोग-पद DRAWANUYOGA-PAD (SEGMENT OF DISQUISITION OF ENTITIES)
४६. दसविहे दवियाणुओगे पण्णत्ते, तं जहा-दवियाणुओगे, आउयाणुओगे, एगट्ठियाणुआगे, माउयाणुओगे, एगट्ठियाणुओगे, करणाणुओगे, अप्पितणप्पिते, भाविताभाविते, बाहिराबाहिरे, सासतासासते, तहणाणे, अतहणाणे।
४६. द्रव्यानुयोग दस प्रकार का है-(१) द्रव्यानुयोग, (२) मातृकानुयोग, (३) एकाथिकानुयोग, (४) करणानुयोग, (५) अर्पितानर्पितानुयोग, (६) भाविताभावितानुयोग, (७) बाह्याबाह्यानुयोग, ज (८) शाश्वताशाश्वतानुयोग, (९) तथाज्ञानानुयोग, (१०) अतथाज्ञानानुयोग।
____46. Dravyanuyoga (disquisition of entities) is of ten kinds(1) Dravyanuyoga, (2) Matrikanuyoga, (3) Ekarthikanuyoga, (4) Karananuyoga, (5) Arpitanarpitanuyoga, (6) Bhaavitabhaavitanuyoga, (7) Bahyabahyanuyoga, (8) Shashvatashashvatanuyoga, (9) Tathajnananuyoga, and (10) Atathajnananuyoga.
विवेचन-'अनुयोग' का अर्थ है, विषय के अनुसार व्याख्या करना। अनुयोग चार प्रकार का है। जीवादि द्रव्यों की व्याख्या करने वाले अनुयोग को द्रव्यानयोग कहते हैं। जिसमें गण और पर्याय पाये जाते हैं उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य के सहभागी धर्मों (ज्ञानादि) को गुण और क्रमभावी धर्मों (मनुष्य आदि) को पर्याय कहते हैं। इन गुणों और पर्यायों वाले द्रव्य का विवेचन द्रव्यानुयोग का विषय है।
(२) मातृकानुयोग-इस अनुयोग में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप मातृकापद के द्वारा द्रव्यों का विवेचन है।
(३) एकाथिकानुयोग-इसमें एक अर्थ के वाचक अनेक शब्दों की व्याख्या के द्वारा द्रव्यों का विवेचन है। जैसे-सत्त्व, भूत, प्राणी और जीव, ये शब्द एक अर्थ के वाचक हैं आदि।
(४) करणानुयोग-द्रव्य की निष्पत्ति में प्रयुक्त होने वाले साधक कारण को 'करण' कहते हैं। जैसे घट की निष्पत्ति में मिट्टी, कुम्भकार, चक्र आदि। जीव की क्रियाओं में काल, स्वभाव, नियति आदि के साधक हैं। इस प्रकार द्रव्यों के साधकतम कारणों का विवेचन इस करणानुयोग का विषय है।
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(५) अर्पितानर्पितानुयोग-मुख्य या प्रधान विवक्षा को अर्पित और गौण या अप्रधान विवक्षा को अर्पित कहते हैं। इस अनुयोग में सभी द्रव्यों के गुण-पर्यायों का विवेचन मुख्य और गौण की विवक्षा से किया गया है।
(६) भाविताभावितानुयोग- इस अनुयोग में दूसरे द्रव्यसे प्रभावित (भावित ) या अप्रभावित (अभावित) होने का विचार किया गया है। जैसे- सकषाय जीव अच्छे या बुरे वातावरण से प्रभावित होता है, किन्तु अकषाय जीव नहीं होता आदि ।
(७) बाह्याबाह्यानुयोग - इस अनुयोग में एक द्रव्य की दूसरे द्रव्य के साथ बाह्यता, ( भिन्नता या विलक्षणता) और अबाह्यता (अभिन्नता समानता) का विचार किया गया है।
(८) शाश्वताशाश्वतानुयोग - इस अनुयोग में द्रव्यों के शाश्वत (नित्य) और अशाश्वत (अनित्य ) धर्मों का विचार किया गया है।
(९) तथाज्ञानानुयोग - इसमें द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप का जैसा स्वरूप है, वैसा ही विचार किया गया है। (१०) अतथाज्ञानानुयोग - इस अनुयोग में मिथ्यादृष्टियों के द्वारा प्ररूपित द्रव्यों के स्वरूप का ( अयथार्थ स्वरूप का) निरूपण किया गया है।
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Elaboration-Anuyoga means disquisition based on theme and specific parameters. There are four thematic categories of Anuyoga related to Jain scriptures. The elaboration of dravya (entities) like jiva (soul) is classified as dravyanuyoga. That which has guna (attributes) and paryaya (modes) is called dravya. The basic properties of a dravya are Y 5 called guna (attributes), such as jnana (knowledge or sentience) and progressively variant properties are called paryaya (modes), such as human being. The disquisition of entities having these two, attributes and modes, is called dravyanuyoga. The remaining anuyogas from the aforesaid list are explained as follows
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(2) Matrikanuyoga-this anuyoga deals with entities in context of their origin, destruction and permanence (these three terms are known as matrika pad or fundamental and magical phrase).
(4) Karananuyoga-The causes instrumental in manifestation of an entity are called karan. For example the causes instrumental in manifestation of a pitcher are clay, potter, and wheel. Some of the instrumental causes for activities of soul are time, nature and destiny. Elaboration of such instrumental causes is the theme of Karananuyoga.
स्थानांगसूत्र (२)
(3) Ekarthikanuyoga — this elaborates entities with the help of 5 synonyms. For example prani (beings), bhoot (organisms ), jiva (souls ), and sattva (entities) are synonyms
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卐 (5) Arpitanarpitanuyoga-The basic or important meaning or 5 property of a word or thing is called arpit and the auxiliary or ordinary one is called anarpit. This anuyoga deals with attributes and modes of all entities in context of important and ordinary.
(6) Bhaavitabhaavitanuyoga-This anuyoga discusses the influence or absence of influence of one entity on another. For example a soul with passion is influenced by good or bad surroundings, whereas one without passions is not.
(7) Bahyabahyanuyoga-This anuyoga deals with mutual differences among entities or uniqueness of each entity.
(8) Shashvatashashvatanuyoga-This anuyoga deals with the permanent and impermanent properties of entities.
(9) Tathajnananuyoga-This anuyoga elaborates the real forms of entities exactly as they are.
(10) Atathajnananuyoga-This anuyoga deals with unreal forms of entities as propagated by heretics.
उत्पातपर्वत - पद UTPATAPARVAT-PAD (SEGMENT OF UTPATAPARVAT)
४७. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तिगिंछिकूडे उप्पातपव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते । ४८. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमस्स महारण्णो सोमप्प उप्पातपव्वते दस जोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं, दस गाउयसताइं उब्वेहेणं, मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ते । ४९. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो जमस्स महारण्णो जमप्प उप्पातपव्यते एवं चेव । ५०. एवं वरुणस्सवि । ५१. एवं वेसमणस्सवि ।
४७. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर का तिगिंछकूट ( असंख्यद्वीप समुद्रों को लाँघकर अरुणवर समुद्र में स्थित ) नामक उत्पात पर्वत मूल में दस सौ बाईस (१०२२) योजन विस्तृत है । ४८. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के लोकपाल महाराज सोम का सोमप्रभ नामक उत्पातपर्वत दस सौ (१०००) योजन ऊँचा, दस सौ कोश भूमि में गहरा और मूल में दस सौ (१०००) योजन चौड़ा है। ४९. असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर के लोकपाल यम महाराज का यमप्रभ नामक उत्पातपर्वत सोम के उत्पातपर्वत के समान ही ऊँचा, गहरा और विस्तार वाला है । ५०. इसी प्रकार वरुण लोकपाल का वरुणप्रभ उत्पातपर्वत और ५१. वैश्रमण लोकपाल का वैश्रमणप्रभ उत्पातपर्वत भी जानना चाहिए ।
47. Tingichha koot, the Utpat parvat of Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods, (located beyond innumerable islands and seas in Arunavar Samudra) is ten hundred twenty two (1022) Yojan wide at its base. 48. Somaprabh, the Utpat parvat of Soma, the lok-paal of Chamar
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Asurendra, the king of Asur Kumar gods is ten hundred (1000) Yojans high, ten hundred (1000) Kosa deep in the ground, and ten hundred 5 (1000) Yojan wide at its base. 49. Yamaprabh, the Utpat parvat of Yama, 5 the lok-paal of Chamar Asurendra, the king of Asur Kumar gods is as high, deep and wide as the Utpataparvat of Soma. The same should be read for-50. Varunaprabh, the Utpat parvat of Lok-pal Varun and 51. Vaishramanaprabh, the Utpat parvat of Lok-pal Vaishramana.
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५२. बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो रुयगिंदे उप्पातपव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते । ५३. बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सोमस्स एवं चेव, जधा चमरस्स लोकपालाणं तं चेव बलिस्सवि ।
५२. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पातपर्वत मूल में दस सौ बाईस (१०२२) योजन विस्तृत है । ५३. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के लोकपाल महाराज सोम, यम, वैश्रमण और वरुण के स्व-स्व नाम वाले उत्पातपर्वतों की ऊँचाई एक-एक हजार योजन, गहराई एक-एक हजार 5 गव्यूति और मूल भाग का विस्तार एक-एक हजार योजन है।
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52. Ruchakendra, the Utpat parvat of Bali Vairochanendra, the king of फ्र Vairochan gods, is ten hundred twenty two (1022) Yojan wide at its base. 53. Each of the Utpat parvats of Soma, Yama, Vaishraman and Varun, the lok-paals of Bali Vairochanendra, the king of Vairochan gods, bearing each one's name respectively, is one thousand Yojans high, one thousand Kosa deep in the ground, and one thousand Yojan wide at their bases.
५४. धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो धरणप्पभे उप्पातपव्वते दस जोयणसयाई उडुं उच्चत्तेणं, दस गाउयसताइं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसताई विक्खंभेणं । ५५. धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररणो कालवालस्स महारण्णो कालवालप्पभे उप्पातपव्वते दस जोयणसयाई उडुं उच्चत्तेणं एवं चेव । ५६. एवं जाव संखवालस्स । ५७ एवं भूताणंदस्सवि । ५८. एवं लोगपालाणवि से, जहा धरणस्स । ५९. एवं जाव थणितकुमाराणं सलोगपालाणं भाणियव्वं, सव्वेसिं उप्पायपव्वया भाणियव्वा सरिसणामगा । ६०. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो सक्कप्प उप्पातपव्वते दस जोयणसहस्साई उड्डुं उच्चत्तेणं, दस गाउयसहस्साइं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ते । ६१. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो । जधा सक्करस तथा सव्वेसिं लोगपालाणं, सव्वेसिं च इंदाणं जाव अच्चुयत्ति । सव्वेसिं पमाणमेगं ।
५४. नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण का धरणप्रभ नामक उत्पातपर्वत दस सौ (१०००) योजन
ऊँचा, दस सौ गव्यूति गहरा और मूल में दस सौ (१०००) योजन विस्तार वाला है । ५५. नागकुमारेन्द्र
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नागकुमारराज के लोकपाल कालपाल महाराज का कालपालप्रभ नामक उत्पातपर्वत दस सौ योजन
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5 ऊँचा, दससौ गव्यूति गहरा और मूल में दस सौ योजन विस्तार वाला है । ५६. इसी प्रकार कोलपाल, 5 शैलपाल और शंखपाल नामक लोकपालों के स्व-स्व नाम वाले उत्पातपर्वत की ऊँचाई, गहराई और मूल में विस्तार जानना चाहिए । ५७. इसी प्रकार भूतेन्द्र भूतराज भूतानन्द के भूतानन्टप्रभ नामक 5 5 उत्पातपर्वत की ऊँचाई एक हजार योजन, गहराई एक हजार गव्यूति और मूल का विस्तार एक हजार
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योजन है । ५८. इसी प्रकार भूतानन्द के लोकपाल महाराज कालपाल, कोलपाल, शंखपाल और
शैलपाल के स्व-स्व नाम वाले उत्पातपर्वतों की ऊँचाई एक-एक हजार योजन, गहराई एक-एक हजार 5
60. Shakraprabh, the Utpat parvat of Shakra Devendra, the king of gods, is ten thousand Yojan high, ten thousand Kosa deep in the ground, and 5 ten thousand Yojan wide at its base. 61. The description of Somaprabh,
गव्यूति और मूल में विस्तार एक-एक हजार योजन धरण के समान है । ५९. इसी प्रकार सुपर्णकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों के इन्द्रों के और उनके लोकपालों के अपने-अपने नामवाले उत्पातपर्वतों की ऊँचाई, गहराई और मूल में विस्तार धरण तथा उनके लोकपालों के समान है । ६०. देवेन्द्र देवराज 5 शक्र के शक्रप्रभ नामक उत्पात पर्वत की ऊँचाई दस हजार योजन, गहराई दस हजार गव्यूति और मूल
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में विस्तार दस हजार योजन है । ६१. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोम के सोमप्रभ फ्र नामक उत्पात पर्वत का वर्णन शक्र के उत्पातपर्वत के समान है। शेष सभी लोकपालों के उत्पातपर्वतों 5 का तथा अच्युतकल्पपर्यन्त सभी इन्द्रों के उत्पातपर्वतों की ऊँचाई आदि का प्रमाण एक ही समान है। 54. Dharanaprabh, the Utpat parvat of Dharan Naag kumarendra, 5 the king of Naag Kumar gods, is ten hundred twenty two (1022) Yojan wide at its base. 55. Kaalpaalprabh, the Utpat parvat of Kaalpaal, the lok-paal of Dharan Naag-kumarendra, the king of Naag Kumar gods is 5 ten hundred (1000) Yojans high, ten hundred (1000) Kosa deep in the ground, and ten hundred (1000) Yojan wide at its base. 56. In the same way each of the Utpat parvats of the lok-paals Kolpaal, Shailpaal, and Shankhpaal, bearing each one's name respectively, have the same height, depth in the ground, and width at their bases. 57. In the same way Bhootanandaprabh, the Utpat parvat of Bhootanand Bhootendra, the king of Bhoot gods, is one thousand Yojan high, one thousand Kosa deep in the ground, and one thousand Yojan wide at its base. 58. In the same way each of the Utpat parvats of Kaalpaal, Kolpaal, Shailpaal, and 5 Shankhpaal, the lok-paals of Bhootanand, bearing each one's name respectively, is one thousand Yojans high, one thousand Kosa deep in the ground, and one thousand Yojan wide at its base. 59. In the same way the Utpat parvats of the Indras of Suparna Kumar to Stanit Kumar gods and their lok-paals have the same height, depth in the ground, and width at their bases as those of Dharan and his lok-pals.
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(493)
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the Utpat parvat of Soma, the lok-pal of Shakra Devendra, the king of gods, is same as that of Shakra. The dimensions of the Utpat parvats of all the remaining lok-pals and those of all the Indras up to Achyut Kalp
are same.
Elaboration-When the gods from the lower world and the upper world come to the middle world they first arrive at a mountain and create Uttar-vaikriya sharira (secondary transmuted body) and only then proceed to the middle world. The mountains so used by them are called Utpat parvat. Each god has a different Utpat parvat. The Utpat parvats of Chamar and Bali are on Tingichha koot. Those of the sixteen Indras of the remaining eight abode dwelling gods are in the directions of their respective capitals. The Indras of Vanavyantars and Jyotishks have neither Utpat parvats nor lok-pals. The Vaimaniks have ten Indras and each one of them have four lok-paals. The Utpat parvats five are in the north and five in the south. On these Utpat parvats there are beautiful places and other facilities for sojourn and transmutation. (Hindi Tika, part-2, p. 741)
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विवेचन - अधोलोकवर्ती या ऊर्ध्वलोकवर्ती देव जब मध्यलोक में आते हैं, तब प्रथम वे किसी पर्वत पर आकर उत्तर वैक्रिय शरीर का निर्माण करते हैं, फिर वहाँ से मध्यलोक में आते हैं। उन्हीं पर्वतों को 'उत्पात पर्वत' कहा जाता है । उत्पात पर्वत सभी देवों के भिन्न-भिन्न होते हैं । चमरेन्द्र और बलि वैराचन्द्र के उत्पात पर्वत, तिगिंछ कूट पर शेष आठ भवनपतियों के १६ इन्द्रों के, उनके लोकपालों के 55 जिस दिशा में उनकी राजधानी है, उसी दिशा में उत्पात पर्वत है । वानव्यन्तर और ज्योतिषीन्द्रों के न उत्पात पर्वत है और न उनके लोकपाल हैं। वैमानिकों के १० इन्द्र और प्रत्येक के चार-चार लोकपाल हैं। उनके ५ के उत्पात पर्वत उत्तर में, ५ के दक्षिण दिशा में है। इन उत्पात पर्वतों पर उन इन्द्र आदि के 5 रमणीय प्रासाद भी है, जहाँ वे रुककर उत्तर वैक्रिय करते हैं । (हिन्दी टीका, भाग २, पृष्ठ ७४१)
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स्थानांगसूत्र (२)
(494)
अवगाहना-पद AVAGAHANA PAD (SEGMENT OF SPACE OCCUPATION)
६२. बायरवणस्सइकाइयाणं उक्कोसेणं दसजोयणसयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता। 5 ६३. जलचर - पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं दस जोयणसयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता । ६४. उरपरिसप्प - थलचर- पंचिंदियतिरक्खिजोणियाणं उक्कोसेणं ( दस जोयणसताई
सरीरोगाहणा पण्णत्ता) ।
६२. बादर वनस्पतिकायिक जीवों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ (१०००) योजन है। (यह अवगाहना समुद्रवर्ती कमल की नाल की अपेक्षा से है ) ६३. जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों 5 के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ (१०००) योजन है । ६४. उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ (१०००) योजन है ।
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62. The maximum avagahana (space occupation) of vanaspatikayik T beings (plant-bodied beings) is ten hundred (1000) Yojans (this relates to 5 f the long stem of lotus flower in sea ). 63. The maximum avagahana 5 hi (space occupation) of Jalachar panchendriya tiryagyonik beings (five h sensed aquatic animals) is ten hundred (1000) Yojans. 64. The maximum फ्र avagahana (space occupation) of Urparisarp sthalachar panchendriya 卐 tiryagyonik beings (five sensed non-limbed reptilian terrestrial animals) F is ten hundred (1000) Yojans.
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5 तीर्थंकर - पद TIRTHANKAR-PAD (SEGMENT OF TIRTHANKAR)
६५. संभवाओ णं अरहातो अभिणंदणे अरहा दसहिं सागरोवमकोडिसतसहस्सेहिं वीतिक्कंतेहिं समुप्पण्णे ।
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६५. अर्हत् सम्भव के पश्चात् अभिनन्दन अर्हत् दस लाख करोड़ सागरोपम समय बीत जाने पर उत्पन्न हुए थे ।
65. Arhat Abhinandan was born after ten lac crore (nine trillion) Sagaropam of Arhat Sambhava.
अनन्त भेद - पद ANANT-PAD (SEGMENT OF THE ENDLESS OR INFINITE)
६६. दसविहे अणंतए पंण्णत्ते, तं जहा - णामाणंतए ठवणाणंतए, दव्वाणंतए, गणणाणंतए, पएसाणंतए, एगतोणंतए, दुहतोणंतए, देसवित्थाराणंतए, सव्यवित्थाराणंतए सासताणंतए ।
दशम स्थान
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६६. अनन्त दस प्रकार का है, जैसे - ( १ ) नाम - अनन्त - किसी वस्तु का 'अनन्त' नाम रखना । (२) स्थापना - अनन्त - किसी वस्तु में 'अनन्त' शब्द की स्थापना करना । ( ३ ) द्रव्य - अनन्त - परिमाण की 5 दृष्टि से 'अनन्त' का व्यवहार करना । (४) गणना - अनन्त - गिनने योग्य वस्तु के बिना ही एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात अनन्त, इस प्रकार गिनना । ( ५ ) प्रदेश - अनन्त - प्रदेशों की अपेक्षा 'अनन्त' की गणना | (६) एकतः अनन्त - एक ओर से अनन्त, जैसे अतीतकाल की अपेक्षा अनन्त समयों की गणना। फ (७) द्विधा - अनन्त - दोनों ओर से अनन्त, जैसे- अतीत और अनागत दोनों काल की अपेक्षा अनन्त समयों की गणना । (८) देश - विस्तार अनन्त - दिशा या प्रतर की दृष्टि से अनन्त गणना । ( ९ ) सर्वविस्तार अनन्तक्षेत्र की व्यापकता की दृष्टि से अनन्त । जैसे आकाशास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हैं । (१०) शाश्वत - अनन्त - 5 शाश्वतता या नित्यता की दृष्टि से अनन्त । जैसे जीव, अजीव आदि द्रव्य अनादि अनन्त हैं ।
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66. Anant (endless or infinite ) is of five kinds -- ( 1 ) naam anant - whose name is Anant ( 2 ) sthapana-anant — to install the word 'anant' in 5 some thing. (3) dravya-anant—use of the term anant in terms of 5 measure. (4) ganana-anant-counting of numbers from one to infinite in absence of countable things. (5) pradesh-anant counting endless space फ्र points. ( 6 ) Ekatah-anant-unidirectional infinite such as counting फ्र
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Tenth Sthaan
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5 55555559 infinite Samayas of the past. (7) Duidha-anant-bi-directional infinite 4 such as counting infinite Samayas of the past as well as the future. 卐 (8) Desh-vistar-anant-the endlessness of the expanse of space in one + specific direction. (9) Sarva-vistar-anant-the endlessness of the overall
expanse of space. For example Akashastikaya has infinite space-points. (10) Shashvat-anant-eternally infinite, such as entities like soul that
are without a beginning or an end. 5 geargau PURVAVASTU-PAD (SEGMENT OF PURVAVASTU)
६७. उप्पायपुवस्स णं दस वत्थू पण्णत्ता। ६८. अत्थि-णत्थिप्पवायपुबस्स णं दस चूलवत्थू ॐ पण्णत्ता।
६७. उत्पादपूर्व (प्रथम पूर्व) के वस्तु नामक (बड़े अध्ययन) दस अध्ययन हैं। ६८. अस्तिम नास्तिप्रवादपूर्व (चौथा पूर्व) के चूलावस्तु नामक दस लघु अध्ययन हैं।।
67. The Vastu division of Utpaad Purva (the first volume of the fourteen volume subtle canon) has ten chapters. 68. Asti-nastipravada Purva (the fourth Purva) has ten small chapters called Chulavastu. प्रतिसेवना-पद PRATISEVANA-PAD (SEGMENT OF MISCONDUCT) ६९. दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता, तं जहा
दप्प पमायऽणाभोगे, आउरे आवतीसु य।
संकिते सहसक्कारे, भयप्पओसा य वीमंसा ॥१॥ (संग्रहणी गाथा) ६९. प्रतिसेवना दश प्रकार की है, जैसे-(१) दर्पप्रतिसेवना, (२) प्रमादप्रतिसेवना, E (३) अनाभोगप्रतिसेवना, (४) आतुरप्रतिसेवना, (५) आपत्प्रतिसेवना, (६) शंकितप्रतिसेवना, ॐ (७) सहसाकरणप्रतिसेवना, (८) भयप्रतिसेवना, (९) प्रदोषप्रतिसेवना, (१०) विमर्शप्रतिसेवना।
69. Pratisevana (misconduct) is of ten kinds—(1) darp-pratisevana, (2) pramad-pratisevana, (3) anabhog-pratisevana, (4) aatur-pratisevana,
(5) apatpratisevana, (6) shankit-pratisevana, (7) sahasakaranॐ pratisevana, (8) bhayapratisevana, (9) pradosh-pratisevana, and 卐 (10) vimarsh-pratisevana.
विवेचन-गृहीत व्रत की मर्यादा के प्रतिकूल आचरण करने को प्रतिसेवना कहते हैं। प्रतिसेवनाओं 卐 का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) दर्पप्रतिसेवना-दर्प या उद्धत भाव से गमन आदि क्रियाएँ करना।
(२) प्रमादप्रतिसेवना-विकथा आदि प्रमाद के वश दोष सेवन करना। ___(३) अनाभोगप्रतिसेवना-विस्मृतिवश अनजाने या उपयोगशून्यता से अयोग्य आचरण करना।
गागा1248
स्थानांगसूत्र (२)
(496)
Sthaananga Sutra (2)
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(४) आतुरप्रतिसेवना-भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर अयोग्य वस्तु का सेवन करना। (५) आपत्प्रतिसेवना-आपत्ति आने पर अयोग्य कार्य करना। (६) शंकितप्रतिसेवना-एषणीय वस्तु में भी शंका होने पर उसका सेवन करना। (७) सहसाकरणप्रतिसेवना-अकस्मात् किसी अयोग्य वस्तु का सेवन हो जाना। (८) भयप्रतिसेवना-भय-वश किसी अयोग्य वस्तु का सेवन करना। (९) प्रदोषप्रतिसेवना-द्वेष-वश जीव-घात आदि करना। (१०) विमर्शप्रतिसेवना-शिष्यों की परीक्षा के लिए किसी अयोग्य कार्य को करना। (इन प्रतिसेवनाओं के अन्य उपभेदों का विस्तृत विवेचन निशीथभाष्य आदि से जानना चाहिए।)
Elaboration—transgressing the discipline of accepted vows is called pratisevana (misconduct); details are as follows___ (1) Darp-pratisevana-to indulge in actions, including movement, with arrogance or pride. ___(2) Pramad-pratisevana-to commit faults out of stupor, such as loose talk. ___(3) Anabhog-pratisevana-to indulge in misconduct inadvertently or . due to lack of enthusiasm.
(4) Aatur-pratisevana-to consume harmful things due to torment of hunger and thirst.
(5) Apatpratisevana-to indulge in misconduct under dire circumstances.
(6) Shankit-pratisevana–to avoid acceptable things due to some doubt.
(7) Sahasakaran-pratisevana-accidental use of unacceptable things. ___(8) Bhayapratisevana-to use unacceptable things out of fear.
(9) Pradosh-pratisevana-to kill or harm beings out of animosity.
(10) Vimarsh-pratisevana-to indulge in proscribed act in order to test disciples. (More details about these and other kinds of misconduct can be fi seen in works like Nisheeth Sutra.) आलोचना-पद ALOCHANA-PAD (SEGMENT OF SELF-CRITICISM) ७०. दस आलोयणादोसा पण्णत्ता, तं जहा
आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा। छण्णं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी॥१॥
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ॐ ७०. आलोचना के दस दोष हैं, जैसे-(१) आकम्प्य या आकम्पित दोष, (२) अनुमन्य या + अनुमानित दोष, (३) दृष्टदोष, (४) बादरदोष, (५) सूक्ष्म दोष, (६) छन्न दोष, (७) शब्दाकुलित दोष, (८) बहुजन दोष, (९) अव्यक्त दोष, (१०) तत्सेवी दोष।
70. There are ten faults related to alochana (self-criticism) (1) aakampya or aakampit dosh, (2) anumanya or anumanit dosh, (3) drisht dosh,
(4) badar dosh, (5) sukshma dosh, (6) chhanna dosh, (7) shabdakulit dosh, ॐ (8) bahuja dosh, (9) avyakt dosh, and (10) tatsevi dosh.
__ विवेचन-दोष-विशुद्धि के लिए आलोचना की जाती है, इसलिए आलोचना करने वाले का हृदय ॐ बालक के समान सरल और अहंकार रहित होना चाहिए। माया सहित की गई आलोचना से + आत्म-शुद्धि नहीं होती। प्रस्तुत सूत्र में दस कारण बताये हैं, जिनसे आलोचना करता हुआ भी व्यक्ति आराधक नहीं हो सकता।
(१) आकंपइत्ता-गुरु प्रसन्न होने पर थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, यह सोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास दोषों की आलोचना करना।
(२) अणुमाणइत्ता-दोषों का अनुमान करके आलोचना करना, जैसे कि बिल्कुल छोटा अपराध ॐ बताने से गुरु थोड़ा दण्ड देंगे, यह सोचकर अपने अपराध को बहुत छोटा करके बताना।
(३) जं दिटुं-जिस दोष का सेवन करते हुए गुरु आदि ने देख लिया हो, उसी की आलोचना करना, अन्य की नहीं।
(४) बायरं-बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करना।
(५) सुहमं-छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना। इसके पीछे माया कपट भाव ही रहता है। क्योंकि दूसरे यह समझेंगे कि जो छोटे-छोटे दोषों की भी आलोचना करता है, वह बड़े-बड़े दोषों की म आलोचना क्यों न करेगा? यह विश्वास उत्पन्न कराने के लिए सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना करना।
(६) छनं-अधिक लज्जा के कारण इस तरह गुनगुनाकर आलोचना करना, जिसे आचार्यादि । ॐ भली-भाँति सुन न सकें।
(७) सद्दाउलगं-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिस आलोचना को अनधिकारी भी ॐ सुन सकें।
(८) बहुजण-एक ही दोष की आलोचना बहुत से गुरुओं के पास जाकर करना। (९) अव्वत्त-जिसको प्रायश्चित्त-विधान का ज्ञान नहीं है, उसके पास आलोचना करना।
(१०) तस्सेवी-जिस दोष की आलोचना करनी है, उसी दोष का सेवन करने वाले के पास है आलोचना करना। (विस्तार व तुलना के लिए देखें ठाणं, पृष्ठ ९७८)
Elaboration-Self criticism is aimed at atonement of fault. Therefore, the attitude of the atoner should be child-like simple and free of conceit.
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Deceitful self-criticism does not lead to spiritual purity. This aphorism states ten reasons due to which an atoner fails to become a spiritualist(1) Aakampya or aakampit dosh-First to please the guru with the intention that when pleased he will prescribe mild atonement, and then to reveal committed faults before him.
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(2) Anumanya or anumanit dosh-to indulge in criticism of imaginary faults; for example using imagination to reduce the gravity of one's faults before the guru with the assumption that for a minor fault he will prescribe a minor atonement.
(3) Drisht dosh-to do self-criticism only of the faults that the guru has seen committing and avoiding all others.
(4) Badar dosh-to do self-criticism only of grosser faults and not others.
(6) Chhanna dosh-to whisper while doing self-criticism before the guru so that it is hard for him to hear clearly.
(7) Shabdakulit Dosh-to do self-criticism in loud voice so that even the unconcerned are able to hear.
७१. दसहिं ठाणेहिं, संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोएत्तए, तं जहा - जाइसंपण्णे, कुलसंपण्णे, (विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, दंसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे), खंते, दंते, 5 अपच्छातावी।
(5) Sukshma dosh-to do self-criticism specially of minor faults for 卐 the purpose of confidence building that when such minor faults have 卐 been taken care of the grosser faults must naturally have been taken into account.
दशम स्थान
(8) Bahujan Dosh-to do self-criticism of one fault before many gurus. (9) Avyaht Dosh-to do self-criticism before a person who has no 卐 knowledge of the procedures of atonement.
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(10) Tatsevi Dosh-to do self-criticism before a person who himself Findulges in the same fault. (for more details and comparative discussion see Thanam, p. 978)
(499)
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७१. दस स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के योग्य होता है, (१) जातिसम्पन्न, (२) कुलसम्पन्न, (३) विनयसम्पन्न, (४) ज्ञानसम्पन्न, (५) दर्शनसम्पन्न, 5 (६) चारित्रसम्पन्न, (७) क्षान्त (क्षमासम्पन्न ), ( ८ ) दान्त (इन्द्रिय- जयी), (९) अमायावी ( मायाचाररहित), (१०) अपश्चात्तापी (पीछे पश्चात्ताप नहीं करने वाला) ।
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71. An anagar (ascetic) endowed with ten sthaans (qualities) is himself qualified to perform alochana (criticism and atonement) for his own faults-(1) Jati sampanna (of good maternal lineage), (2) Kula sampanna (of good paternal lineage), (3) Vinaya sampanna (endowed with modesty), (4) Jnana sampanna (endowed with knowledge), (5) Darshan sampanna (endowed with perception/faith), (6) Chaaritra sampanna (endowed with right conduct), (7) Kshant (endowed with forgiveness), (8) Daant (endowed with absolute control over sense organs), (9) Amayavi (free of deceit) and (10) Apashchatapi (who does not consequently repent).
७२. दसहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, आहारवं, ववहारवं, ओवीलए, पकुव्वए, अपरिस्साई, णिज्जावए, अवायदंसी, पियधम्मे, दढधम्मे।
७२. दस स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है, जैसे-(१) आचारवान्-जो 卐 ज्ञान आदि पंच आचारों से युक्त हो। (२) आधारवान्-आलोचना के द्वारा बताये हुए अतिचारों को मन 1 में धारण करने वाला हो। (३) व्यवहारवान-जो पाँच व्यवहारों का ज्ञाता हो। (४) अपव्रीडक-आलोचना फ़ करने वाले की लज्जा या संकोच छुड़ाकर उसमें आलोचना करने का साहस उत्पन्न करने वाला हो। + (५) प्रकारी-अपराधी के आलोचना करने पर उसकी शुद्धि करने वाला हो। (६) अपरिश्रावी-आलोचना
करने वाले के दोष दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो। (७) निर्यापक-बड़े प्रायश्चित्त को भी 卐 निर्वाह कर सके, ऐसा सहयोग देने वाला हो। (८) अपायदर्शी-सम्यक् आलोचना न करने के दुष्फलों को
बताने वाला हो। (९) प्रियधर्मी-धर्म से प्रेम रखने वाला हो। (१०) द्रढ़धर्मा-आपत्तिकाल में भी धर्म में : ॐ दृढ़ रहने वाला हो।
72. An anagar (ascetic) endowed with ten sthaans (qualities) is qualified to prescribe alochana (criticism and atonement) to others(1) Aacharvan-who is endowed with five limbs of right conduct, namely knowledge, perception/faith, conduct, austerities and potency of perseverance. (2) Aadhaarvan-who knows about all the transgressions requiring atonement by the one prepared for atonement.
(3) Vyavaharvan-who has knowledge of the five kinds of vyavahar 卐 (behaviour or conduct), namely Agam, Shrut, Ajna, Dharana and jeet. 4 (4) Apavridak—who is capable of imparting courage to rise above !
shyness and hesitation in order to perform atonement properly. (5) Prakari—who can formalize purification after atonement is concluded. (6) Aprishraavi-who does not reveal the faults of the defaulter to others. (7) Niryaapak-who can cooperate even during extended atonement. (8) Apaayadarshi—who can indicate the
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नाना।
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consequences of breach in and improper performance of prescribed atonement. (9) Priyadharmi-who loves religion. (10) Dridhadharmaho is resolute in observing codes even under adverse conditions.
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प्रायश्चित्त-पद PRAYASHCHIT-PAD (SEGMENT OF ATONEMENT)
७३. दसविधे पायच्छित्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, (पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, म विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे), अणवटुप्पारिहे, पारंचियारिहे। ___७३. प्रायश्चित्त दस प्रकार का है, जैसे-(१) आलोचना के योग्य-गुरु के सामने निवेदन करने से ही जिसकी शुद्धि हो। (२) प्रतिक्रमण के योग्य–'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' इस प्रकार के उच्चारण से जिस :
दोष की शुद्धि हो। (३) तदुभय के योग्य-जिसकी शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से हो। 5 (४) विवेक के योग्य-जिसकी शुद्धि ग्रहण किये गये अशुद्ध भक्त-पानादि के त्याग से हो। (५) व्युत्सर्ग के म योग्य-जिस दोष की शुद्धि कायोत्सर्ग से हो। (६) तप के योग्य-जिस दोष की शुद्धि अनशनादि तप के * द्वारा हो। (७) छेद के योग्य-जिस दोष की शुद्धि दीक्षा-पर्याय के छेद से हो। (८) मूल के योग्य-जिस म दोष की शुद्धि पुनः दीक्षा देने से हो। (९) अनवस्थाप्य के योग्य-जिस दोष की शुद्धि तपस्यापूर्वक पुनः .
दीक्षा देने से हो। (१०) पारांचिक के योग्य-भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक एक बार संघ से पृथक् कर पुनः दीक्षा देने से जिस दोष की शुद्धि हो।
73. Prayashchit (atonement) is of ten kinds(1) requiring alochana (criticism), (2) requiring pratikraman (critical review followed by uttering—'may my misdeeds be undone'. ), (3) tadubhaya (requiring both alochana and pratikraman) (4) requiring vivek (sagacity of rejecting the impure), (5) requiring vyutsarg (abstainment and dissociation), (6) requiring tap (austerities including fasting), (7) requiring chhed (termination of ascetic state), (8) requiring mool (reinitiation), (9) requiring anavasthapya (reinitiation after observing prescribed austerities) and (10) requiring paranchik (reinitiation after censuring and summarily expelling once from the Sangh).
विवेचन-प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। जिस प्रकार चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु रोग निवारण के लिए की जाती है। उसी प्रकार प्रायश्चित्त चिकित्सा के साथ आचार्यों ने सात प्रयोजन बताये हैं-(१) प्रमादजनित दोषों का निराकरण, (२) भावों की प्रसन्नता, (३) शल्य रहित होना, (४) अव्यवस्था का निराकरण, (५) मर्यादा का पालन, (६) संयम की दृढ़ता और
(७) आराधना। निशीथभाष्य में बताया है-तीर्थंकर धन्वन्तरि है, प्रायश्चित्त प्राप्त साधु रोगी, अपराध क रोग और प्रायश्चित्त औषध है। (निशीथभाष्य गाथा ६५०७)
Elaboration-Atonement is.a kind of treatment. As treatment is given to a patient for curing his disease and not to cause him pain, in the same
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55555555555555555555步步步步步步步步步步步步步生 way atonement is for spiritual cure. Acharyas have given seven objects along with cure by atonement-(1) for removing faults caused by stupor, (2) for gaining blissful feeling, (3) for being free of the thorns of sin, (4) for removing disorder, (5) for following discipline, (6) for resoluteness in ascetic practices and (7) for accomplishing spiritual goals (Tattvarth Vartik). It is mentioned in Nisheeth Bhashya that Tirthankar is a doctor, an ascetic requiring atonement is a patient, fault is a disease and atonement is a medicine (Nisheeth Bhashya, verse 6500)
मिथ्यात्व-पद MITHYATVA-PAD
(SEGMENT OF UNRIGHTEOUSNESS) ७४. दसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, तं जहा-अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, उम्मग्गे मग्गसण्णा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा।
७४. मिथ्यात्व दस प्रकार का है, जैसे-(१) अधर्म को धर्म मानना, (२) धर्म को अधर्म मानना, . (३) उन्मार्ग को सुमार्ग मानना, (४) सुमार्ग को उन्मार्ग मानना, (५) अजीव को जीव मानना, (६) जीव
को अजीव मानना, (७) असाधुओं को साधु मानना, (८) साधुओं को असाधु मानना, (९) अमुक्तों को 卐 मुक्त मानना, (१०) मुक्तों को अमुक्त मानना।
___74. Mithyatva (unrighteousness) -is of ten kinds-(1) to accept
adharma (misconduct or irreligiosity) as dharma (right conduct or + religiosity), (2) to accept dharma (right conduct or religiosity) as
adharma (misconduct or irreligiosity), (3) to accept unmarg (wrong path) as sumarg (right path), (4) to accept sumarg (right path) as unmarg (wrong path), (5) to accept ajiva (non-being or matter) as jiva (being or soul), (6) to accept jiva (being or soul) as ajiva (non-being or matter), (7) to accept asadhu (non-ascetic or impious) as sadhu (ascetic or pious), (8) to accept sadhu (ascetic or pious) as asadhu (non-ascetic or impious), (9) to accept amukta (non-liberated) as mukta (liberated) and (10) to accept mukta (liberated) as amukta (non-liberated). तीर्थंकर वासुदेव-पद TIRTHANKAR VAASUDEVA-PAD
(SEGMENT OF TIRTHANKAR VAASUDEVA) ७५. चंदप्पभे णं अरहा दस पुब्बसतसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे प्पहीणे। ७६. धम्मे णं + अरहा दस वाससयहस्साइं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे प्पहीणे। ७७. णमी णं अरहा दस वाससहस्साइं
सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे प्पहीणे।
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ॐ ७५. अर्हत् चन्द्रप्रभ दस लाख पूर्व की पूर्ण आयु पालकर सिद्ध यावत् समस्त दुःखों से मुक्त हुए। म म ७६. अर्हत् धर्मनाथ दस लाख पूर्व की पूर्ण आयु भोगकर सिद्ध यावत् समस्त दुःखों से मुक्त हुए। ७७. अर्हत् नमि दस हजार वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर सिद्ध यावत् समस्त दुःखों से मुक्त हुए।
75. Arhat Chandraprabh became perfect (Siddha), ...and so on up to... and ended all miseries after concluding a life span of ten lac (hundred thousand) Purva. 76. Arhat Dharmanaath became perfect (Siddha), ...and so on up to... and ended all miseries after concluding a life span of ten lac (hundred thousand) Purva. 77. Arhat Nami became perfect (Siddha), ...and so on up to... and ended all miseries after concluding a life span of ten thousand years.
७८. पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साइं सवाउयं पालित्ता छट्ठीए तमाए पुढवीए रयत्ताए उववण्णे।
७८. पुरुषसिंह नाम के पाँचवें वासुदेव दस लाख वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर 'तमा' नाम की छठी पृथिवी में नारक रूप से उत्पन्न हुए।
78. Purush Simha, the fifth Vaasudev, reincarnated as an infernal being in Tama, the sixth Prithvi, after concluding a life span of ten lac (hundred thousand) years.
७९. णेमी णं अरहा दस धणूई उड्ढे उच्चत्तेणं, दस य वाससयाई सब्बाउयं पालइत्ता सिद्धे प्पहीणे।
७९. अर्हत् नेमि के शरीर की ऊँचाई दस धनुष की थी। वे एक हजार वर्ष की आयु पाल कर म सिद्ध यावत् समस्त दुःखों से मुक्त हुए।
79. Arhat Nemi was ten Dhanush tall and he became perfect ॐ (Siddha), ...and so on up to... and ended all miseries after concluding a și life span of one thousand years. ॐ ८०. कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उठं उच्चत्तेणं, दस य वाससयाइं सव्वाउयं पालइत्ता तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववण्णे।
८१. वासुदेव कृष्ण के शरीर की ऊँचाई दस धनुष की थी। वे दस सौ (१०००) वर्ष की पूर्णायु पालकर ‘वालुकाप्रभा' नाम की तीसरी पृथिवी में उत्पन्न हुए।
80. Vaasudeva Krishna was ten Dhanush tall and he reincarnated as an infernal being in Balukaprabha, the third Prithvi, after concluding a 4 life span of ten hundred (1000) years.
दशम स्थान
(503)
Tenth Sthaan
855 5 55 5 5F 5F FF $$$ $$$$$$$$ 听听听听听听听听听听听听听四
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भवनवासि-पद BHAVAN-VASI-PAD (SEGMENT OF ABODE DWELLING GODS)
८१. दसविहा भवणवासी देवा पण्णत्ता, तं जहा-असुरकुमारा जाव थणियकुमारा।
८१. भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुपर्णकुमार, (४) विद्युत्कुमार, (५) अग्निकुमार, (६) द्वीपकुमार, (७उदधिकुमार, (८) दिशाकुमार, (९) वायुकुमार, (१०) स्तनितकुमार।
81. Bhavan-vasi gods (abode dwelling gods) are of ten kinds(1) Asur-kumar, (2) Naag-kumar, (3) Suparn-kumar, (4) Vidyut-kumar, (5) Agni-kumar, (6) Dveep-kumar, (7) Udadhi-kumar, (8) Disha-kumar, (9) Vayu-kumar, and (10) Stanit-kumar. ८२. एएसि णं दसविधाणं-भवणवासीणं देवाणं दस चेइयरुक्खा पण्णत्ता, तं जहा
अस्सत्थ सत्तिवण्णे, सामलि उंबर सिरीस दहिवण्णे।
वंजुल-पलास-वग्धा, तते य कणियाररुक्खे ॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) ८२. इन दसों प्रकार के भवनवासी देवों के दस चैत्यवृक्ष होते हैं-(१) असुरकुमार का-अश्वत्थ (पीपल)। (२) नागकुमार का-सप्तपर्ण (सात पत्ते वाला) वृक्ष विशेष। (३) सुपर्णकुमार का-शाल्मली (सेमल) वृक्ष। (४) विद्युत्कुमार का-उदुम्बर (गूलर) वृक्ष। (५) अग्निकुमार का-शिरीष (सिरीस) वृक्ष। (६) द्वीपकुमार का-दधिपर्ण वृक्ष। (७) उदधिकुमार का-वंजुल (अशोक वृक्ष)। (८) दिशाकुमार का-पलाश में वृक्ष। (९) वायुकुमार का-व्याघ्र (लाल एरण्ड) वृक्ष। (१०) स्तनितकुमार का-कर्णिकार (कनेर) वृक्ष।
82. These ten kinds of abode dwelling gods have ten kinds of Chaityavriskhas (temple-trees)-(1) Ashvattha tree (Ficus religiosa) of Asur-kumar, (2) Saptaparna tree (Alstonia scholaris) of Naag-kumar, (3) Shalmali tree (silk-cotton; Bombax ceiba) of Suparn-kumar, (4) Udumbar tree (Ficus glomerata) of Vidyut-kumar, (5) Shirish tree (Acacia) of Agni-kumar, (6) Dadhiparna tree of Dveep-kumar, (7) Vanjul tree (Ashoka) of Udadhi-kumar, (8) Palash tree (Butea monosperma) of Disha-kumar, (9) Vyaghra tree (red castor-oil plant) of Vayu-kumar, and (10) Karnikaar tree (kaner; oleander) of Stanit-kumar. सौख्य-पद SAUKHYA -PAD (SEGMENT OF JOY) . ८३. दसविधे सोक्खे पण्णत्ते, तं जहा
आरोग्ग दीहमाउं, अड्डेजं काम भोग रांतोसे।
अत्थि सुहभोग णिक्खम्ममेव तत्तो अणबाहे॥१॥ ८३. सुख दस प्रकार का है, जैसे-(१) आरोग्य (नीरोगता)। (२) दीर्घ आयुष्य। (३) आढ्यता (धन की सम्पन्नता)। (४) काम (शब्द और रूप का सुख)। (५) भोग (गन्ध, रस और स्पर्श का सुख)।
ॐ
स्थानांगसूत्र (२)
(504)
Sthaananga Sutra (2)
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दसा
भवनपति देवा के चैत्य वक्ष।
असुरकुमार
नागकुमार
सुपर्णकुमार
अग्जिकमीर
द्वीपकुमार
उदधिकुमार
विद्युतकुमार
दिशाकुमार।
स्तनित कुमार
वायुकुमार
ITURES
TRILOK
015
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चिह्न
| चित्र परिचय १५ ।
Illustration No. 15 भवनपति देवों के चैत्य वृक्ष और चिह्न भवनपति जाति के दस देवों के चैत्य वृक्ष (उनके प्रिय वृक्ष) तथा उनको मुकुटों में बने चिह्नों का दिग्दर्शन प्रस्तुत चित्र में है। इनके नाम आदि इस प्रकार हैंनाम
वृक्ष (१) असुरकुमार
पीपल
चूडामणि रत्न (२) नागकुमार
सप्तपर्ण
नागफन (३) सुपर्णकुमार
सेमल (४) विद्युत्कुमार
उदुम्बर
वज्र (५) अग्निकुमार
शिरीष
कलश (६) द्वीपकुमार
दधिपर्ण
सिंह (७) उदधिकुमार
अशोक
अश्व (८) दिशाकुमार
पलाश वायुकुमार
लाल एरण्ड
मकर (१०) स्तनितकुमार
सिकोरा -स्थान १०, सूत्र ८२ तथा प्रज्ञापना पद २
गरुड़
गज
कनेर
CHAITYA VRIKSHAS AND SYMBOLS OF
BHAVAN-VASI GODS This illustration presents chaitya vrikshas (the trees each one likes) of ten kinds of Bhavan-vasi gods with their symbols drawn on their crowns. Their names are as followsGods
Trees
Symbols (1) Asur-kumar
Pipal
Chudamani (2) Naag-kumar
Saptaparna
Snake-hood Suparn-kumar
Semal
Garud Vidyut-kumar
Udumbar
Vajra Agni-kumar
Shirish
Urn (6) Dveep-kumar
Dadhiparna
Lion Udadhi-kumar
Ashoka
Horse Disha-kumar
Palash
Elephant Vayu-kumar
Red Erand
Crocodile (10) Stanit-kumar
Kaner
Earthen cup -Sthaan 10, Sutra 82 and Prajnapana verse 2
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மகதத்திதிசுததததமி****ழ******************ழிக
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(६) सन्तोष - निर्लोभता (अल्प इच्छा)। (७) अस्ति- जब जिस वस्तु की आवश्यकता हो, तब उसकी पूर्ति 5 हो जाना। (८) शुभभोग - सुन्दर, रम्य भोगों की प्राप्ति होना । (९) निष्क्रमण - प्रव्रजित होने का सुयोग मिलना । (१०) अनाबाध - जन्म - मृत्यु आदि की बाधाओं से रहित मुक्ति-सुख ।
फफफफ
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83. Sukha (joy) is of ten kinds (1) Aarogya (good health), (2) Deergh 5 ayushya (long life), (3) Adhyata (affluence), (4) Kaam (joys of sound and 5 beauty), (5) Bhog (joys of smell, taste and touch ), ( 6 ) Santosh 5 (contentment), (7) Asti (fulfillment), (8) Shubh-bhog (pleasures and 卐 enjoyments), (9) Nishkraman (renunciation) and (10) Anabadh ( freedom 5 from obstacles of life and death; liberation).
फ्र
卐
फ्र
- विशोधि-पद UPAGHAT VISHODHI-PAD
उपघात
(SEGMENT OF IMPURITY AND PURITY)
८४. दसविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहा - उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते, (एसणोवघाते, परिकम्मोवघाते), परिहरणोवघाते, णाणोवघाते, दंसणोवघाते, चरित्तोवघाते, अचियत्तोवघाते, सारक्खणोवघाते ।
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८४. उपघात- (दोष सेवन से होने वाली चारित्र हानि ) दस प्रकार का है - (१) उद्गमदोष - भिक्षा के उद्गम सम्बन्धी दोष से होने वाला उपघात, (२) उत्पादनादोष - भिक्षासम्बन्धी उत्पाद से होने वाला चारित्र का उपघात । (३) एषणादोष-गोचरी के दोष से होने वाला चारित्र का उपघात । (४) परिकर्मदोष-वस्त्र- 5 पत्र आदि के सँवारने से होने वाला चारित्र का उपघात । (५) परिहरणदोष-अकल्प्य उपकरणों के उपभोग फ से होने वाला चारित्र का उपघात । (६) प्रमाद आदि से होने वाला ज्ञान का उपघात । (७) शंका आदि से फ्र होने वाला दर्शन का उपघात । (८) समितियों के यथाविधि पालन न करने से होने वाला चारित्र का उपघात । (९) अप्रीति या अविनय से होने वाला विनय आदि गुणों का उपघात । (१०) संरक्षण-उपघातशरीर, उपधि आदि में मूर्च्छा रखने से होने वाला परिग्रह-विरमण का उपघात ।
卐
5
(505)
பூமிமிமிததமிழ************************சுழி
84. Upaghat (impairment of conduct due to impurity or fault) is of ten kinds (1) Udgamopaghat-impairment of conduct due to faults of accepting alms (2) Utpadanopaghat-impairment of conduct due to faults 5 of producing alms. (3) Eshanopaghat-impairment of conduct due to faults of alms seeking. (4) Parikarmopaghat-impairment of conduct due to faults related to extra care of garb, bowls and other ascetic equipment. (5) Pariharanopaghat-impairment of conduct due to using prohibited equipment. (6) Jnanopaghat-- Impairment of jnana (knowledge) due to फ्र stupor and other faults. (7) Darshanopaghat - Impairment of darshan 5 (perception/faith) due to doubt. (8) Chaaritropaghat-Impairment of फ्र chaaritra (right conduct) due to improper observation of samitis (self சு regulation). (9) Apriti-upaghat-Impairment of virtues including vinaya फ्र
फ्र
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दशम स्थान
Tenth Sthaan
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சு
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சு
फ्र
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5
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5555555555555559 (modesty) due to aversion and immodesty. (10) SanrakshanopaghatImpairment of parigraha viraman (vow of non-possession) due to fondness for body and possessions.
८५. दसविधा विसोही पण्णत्ता, तं जहा-उग्गमविसोही, उप्पायविसोही, (एसणविसोही, परिकम्मविसोही, परिहरणविसोही, णाणविसोही, दंसणविसोही, चरित्तविसोही, अचियत्तविसोही), सारक्खणविसोही।
८५. विशोधि दस प्रकार की है-(१) उद्गम-विशोधि-उद्गम-सम्बन्धी दोषों की विशुद्धि। 卐 (२) उत्पादना-विशोधि-उत्पादन-सम्बन्धी दोषों की विशुद्धि । (३) एषणा-विशोधि-एषणा-सम्बन्धी दोषों + की विशुद्धि। (४) परिकर्म-विशोधि-वस्त्र-पात्रादि सँवारने से उत्पन्न दोषों की विशुद्धि। (५) परिहरण
विशोधि-अकल्प्य उपकरणों के उपभोग से उत्पन्न दोषों की विशुद्धि। (६) ज्ञान-विशोधि-ज्ञान के अंगों का + यथाविधि अभ्यास न करने से लगे हुए दोषों की विशुद्धि। (७) दर्शन-विशोधि-सम्यग्दर्शन में लगे हुए
दोषों की विशुद्धि। (८) चारित्र-विशोधि-चारित्र में लगे हुए दोषों की विशुद्धि। (९) अप्रीति-विशोधिॐ अप्रीति की विशुद्धि (१०) संरक्षण-विशोधि-संयम के साधनभूत उपकरणों में मूर्छादि रखने से लगे हुए + दोषों की विशुद्धि।
85. Vishodhi (purification) is of ten kinds (related to faults mentioned $ in preceding aphorism)-(1) Udgam-vishodhi-purification of faults of + Udgam. (2) Utpadan-vishodhi-purification of faults of Utpadan.
(3) Eshana-vishodhi-purification of faults of due to faults of Eshana. (4) Parikarm-vishodhi-purification of faults of Parikarm. (5) Pariharanvishodhi-purification of faults of Pariharan. (6) Jnana-vishodhiPurification of faults related to jnana. (7) Darshan-vishodhiPurification of faults related to darshan (perception/faith). (8) Chaaritravishodhi-Purification of faults related to chaaritra. (9) Apritivishodhi--Purification of faults related to Apriti. (10) Sanrakshanvishodhi-Purification of faults related to Sanrakshan.
संक्लेश-असंक्लेश-पद SANKLESH-ASANKLESH-PAD
(SEGMENT OF PERTURBED AND UNPERTURBED STATE OF MIND) ८६. दसविधे संकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा-उवहिसंकिलेसे, उवस्सयसंकिलेस, कसायसंकिलेसे, भत्तपाणसंकिलेसे, मणसंकिलेसे, वइसंकिलेसे, कायसंकिलेसे, णाणसंकिलेसे, दंसण-संकिलेसे, चरित्तसंकिलेसे।
८६. संक्लेश-(मानसिक विक्षोभ व असमाधि) दस प्रकार का है-(१) उपधि-संक्लेशवस्त्र-पात्रादि उपधि के निमित्त से होने वाला। (२) उपाश्रय-संक्लेश-उपाश्रय या निवास स्थान के ऊ निमित्त से होने वाला। (३) कषाय-संक्लेश-क्रोधादि के निमित्त से होने वाला। (४) भक्त-पान
| स्थानांगसूत्र (२)
(506)
Sthaananga Sutra (2)
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- 595 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 555 55552
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to speech), (7) Kaya-sanklesh (that related to body), (8) Jnana-sanklesh
(that related to knowledge), (9) Darshan-sanklesh (that related to perception/faith) and (10) Chaaritra-sanklesh (that related to conduct). ८७. दसविधे असंकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा - उवहि असंकिलेसे, उवस्सय असंकिलेसे,
卐
5 कसाय असंकिलेसे, भत्तपाणअसंकिलेसे, मणअसंकिलेसे, वइअसंकिलेसे, काय असंकिलेसे, णाण असंकिलेसे, दंसण असंकिलेसे, चरित्तअसंकिलेसे ।
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संक्लेश - आहारादि के निमित्त से होने वाला। (५) मनः संक्लेश-मन के उद्वेग से होने वाला । फ
(६) वाक् - संक्लेश - वचन के निमित्त से होने वाला। (७) काय - संक्लेश- शरीर के निमित्त से होने वाला । (८) ज्ञान - संक्लेश- ज्ञान की अशुद्धि से होने वाला । ( ९ ) दर्शन- संक्लेश-दर्शन की अशुद्धि से होने वाला । (१०) चारित्र संक्लेश- चारित्र की अशुद्धि से होने वाला ।
86. Sanklesh (perturbed state of mind) is of ten kinds-(1) Upadhisanklesh (that related to possessions), (2) Upashraya-sanklesh (that related to place of stay ), ( 3 ) Kashaya - sanklesh (that related to passions फ like anger ), ( 4 ) Bhakt-paan-sanklesh (that related to food and water), 5
(5) Manah-sanklesh (that related to mind) (6) Vak-sanklesh (that related
卐
卐
(२) उपाश्रय - असंक्लेश, (३) कषाय-असंक्लेश, (४)
(७) काय असंक्लेश,
(८)
८७. असंक्लेश - ( प्रत्येक स्थिति में मन की प्रसन्नता) दस प्रकार का है - (१) उपधि - असंक्लेश, भक्त - पान - असंक्लेश, (५) मनः असंक्लेश, ज्ञान - असंक्लेश, (९) दर्शन - असंक्लेश, फ
फ्र
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(६) वाक् - असंक्लेश, (१०) चारित्र असंक्लेश ।
5 to speech), (7) Kaya- asanklesh (that related to body), (8) Jnana-asanklesh फ्र
5 (that related to knowledge ), ( 9 ) Darshan-asanklesh (that related to perception/faith) and (10) Chaaritra-asanklesh (that related to conduct ).
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5 बल - सूत्र BAL-PAD (SEGMENT OF STRENGTH)
87. Asanklesh (unperturbed state of mind) is of ten kinds-(1) Upadhiasanklesh (that related to possessions ), ( 2 ) Upashraya- asanklesh (that 5 related to place of stay), (3) Kashaya - asanklesh (that related to passions 5 like anger), (4) Bhakt-paan-asanklesh (that related to food and water), (5) Manah-asanklesh (that related to mind) (6) Vak-asanklesh (that related
८८. दसविधे बले पण्णत्ते, तं जहा- सोतिंदियबले, ( चक्खिंदियबले, घाणिंदियबले, 5 जिब्भिंदियबले), फासिंदियबले, णाणबले, दंसणबले, चरित्तबले, तवबले, वीरियबले ।
7 95 95 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 5555 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 2
दशम स्थान
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८८. बल दस प्रकार का है - (१) श्रोत्रेन्द्रिय-बल । (२) चक्षुरिन्द्रिय-बल । (३) घ्राणेन्द्रिय-बल । फ्र (४) रसनेन्द्रिय-बल। (५) स्पर्शनेन्द्रिय-बल (पाँचों इन्द्रियों की पर्याप्त शक्ति को यहाँ बल कहा है ) । (६) ज्ञानबल। (७) दर्शनबल। (८) चारित्रबल। (९) तपोबल। (१०) वीर्यबल ।
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Tenth Sthaan
फ्र
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2 95 95 5 5 55 55 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59555555555955 5 52
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ததததத****************************மிதில்
kinds—(1) shrotrendriya-bal, y ( 2 ) chakshurindriya-bal, (3) ghranendriya-bal, (4) rasanendriya-bal, ५ (5) sparshanendriya-bal, (here bal means full capacity of sense organs), 5 (6) jnana-bal, ( 7 ) darshan-bal, ( 8 ) chaaritra-bal, ( 9 ) tapo-bal and 5 (10) virya-bal (strength of knowledge, perception / faith, conduct, austerities and potency of endeavour).
88. Bal
भाषा- पद BHASHA-PAD (SEGMENT OF SPEECH OR LANGUAGE)
(strength) is of ten
८९. दसविहे सच्चे पण्णत्ते, तं जहा
८९. सत्य दस प्रकार का है, जैसे
जव सम्म ठवणा, णामे रूवे पडुच्चसच्चे य
ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य॥ १ ॥ ( संग्रहणी गाथा )
( १ ) जनपद - सत्य - जिस जनपद के निवासी जिस वस्तु के लिए जो शब्द बोलते हैं, उसे वहाँ पर बोलना । जैसे - कन्नड़ देश में जल के लिए 'नीरू' और तमिल में 'तण्णी' बोलना ।
( २ ) सम्मत - सत्य - जिस वस्तु के लिए जो शब्द रूढ़ है, उसे ही बोलना । जैसे- जल में उत्पन्न कमल
को पंकज बोलते हैं, किन्तु मेंढक को नहीं ।
(३) स्थापना - सत्य - निराकार वस्तु में साकार वस्तु की स्थापना कर बोलना । जैसे - शतरंज की गोटों को हाथी, ऊँट, वजीर आदि कहना ।
(४) नाम - सत्य - गुणरहित होने पर भी जिसका जो नाम है, उसे उसी नाम से पुकारना । जैसेनिर्धन को लक्ष्मीनाथ कहना।
(५) रूप - सत्य - किसी रूप या वेष के धारण करने से उसे वैसा बोलना । जैसे- स्त्री वेषधारी पुरुष को स्त्री कहना ।
(६) प्रतीत्य - सत्य - अपेक्षा से बोला गया वचन प्रतीत्य- सत्य कहलाता है। जैसे- अनामिका अंगुली को कनिष्ठा की अपेक्षा बड़ी कहना और मध्यमा की अपेक्षा छोटी कहना ।
(७) व्यवहार - सत्य - लोक-व्यवहार में बोले जाने वाले शब्द व्यवहार-सत्य कहलाते हैं। जैसे-पर्वत जलता है। वास्तव में पर्वत नहीं जलता, किन्तु उसके ऊपर स्थित वृक्ष आदि जलते हैं ।
(८) भाव - सत्य - व्यक्त पर्याय के आधार से बोला जाने वाला सत्य । जैसे- काक के भीतर रक्त- माँस आदि अनेक वर्ण की वस्तुएँ होने पर भी उसे 'काला' कहना ।
(९) योग - सत्य - किसी वस्तु के सयोग से उसे उसी नाम से बोलना । जैसे- दण्ड के संयोग से पुरुष को दण्डी कहना ।
स्थानांगसूत्र (२)
(१०) औपम्य - सत्य - किसी वस्तु की उपमा से उसे वैसा कहना । जैसे - चन्द्र के समान सौम्य मुख होने से चन्द्रमुखी कहना ।
(508)
फफफफफफफ
Sthaananga Sutra (2)
फ्र
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தமிழகக*த********E
55555555555555555555555555555
89. Satya (truth) is of ten kinds-(1) Janapad-satya-to use area specific terminology used by the inhabitants of that area. For example, to use the terms niru and tanni for water in Karnatak and Tamilnadu respectively.
(2) Sammat-satya-to use the popular terminology. For example the word pankaj (mud-born) is popularly used for lotus and not for frog.
(3) Sthapana-satya-to use terms where name of a thing with form is installed on formless thing. For example chess pieces are called king and queen.
(4) Naam-satya-to call someone by his name although the name does not bear any resemblance with his virtues. For example to call someone by his name Laxmipati (owner of wealth) although he is poor.
(5) Rupa-satya-to call someone by virtue of his dress or appearance. For example to call a man, disguised as woman, a woman.
(6) Pratitya-satya-to use relative terminology. For example to call the ring finger as bigger finger with reference to the little finger and smaller finger with reference to the middle finger.
(7) Vyavahar-satya-to use common parlance. For example 'a burning mountain' is commonly used phrase although what burns is vegetation or something else but not the mountain.
(8) Bhaava-satya-to speak on the basis of evident or apparent reality. For example to call a crow black although it also contains blood, flesh and other things of other colours.
(9) Yoga-satya-to use association based terminology. For example to call person dandi (staff bearer) because he carries a dand (staff).
(10) Aupamya-satya-to use metaphoric terminology. For example to call a woman Chandramukhi (moon-faced) because her face is smooth as the moon.
९०. दसविधे मोसे पण्णत्ते, तं जहा
९०. मृषा (असत्य) वचन दस प्रकार के हैं - (१) क्रोध के निमित्त से असत्य बोलना । (२) मान निमित्त से असत्य बोलना । (३) माया के निमित्त से असत्य बोलना । (४) लोभ के निमित्त से असत्य बोलना । (५) राग के निमित्त से असत्य बोलना। (६) द्वेष के निमित्त से असत्य बोलना । (७) हास्य
दशम स्थान
कोधे माणे माया, लोभे पिज्जे तहेव दोसे य
हास भए अक्खाइय, उवघात णिस्सिते दसमे ॥ १ ॥
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Tenth Sthaan
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निमित्त से असत्य बोलना। (८) भय के निमित्त से असत्य बोलना। (९) आख्यायिका अर्थात् । म कथा-कहानी को सरस या रोचक बनाने के निमित्त से असत्य मिश्रण कर बोलना। (१०) दूसरों को
पीड़ा-कारक सत्य भी असत्य है। जैसे-काने को काना कहकर पुकारना। उपघात के निमित्त से मृषा या । 卐 असत् वचन बोलना।
90. Mrisha vachan (false statement) is of ten kinds—(1) to tell a lie out of anger, (2) to tell a lie out of conceit, (3) to tell a lie out of deceit, (4) to tell a lie out of greed, (5) to tell a lie out of attachment, (6) to tell a lie out of aversion, (7) to tell a lie out of mirth, (8) to tell a lie out of fear, (9) to tell a lie in order to make a story interesting and (10) telling a
hurting truth is also considered a lie. For example to call a blind, blind. * Also to tell a lie with the intention of hurting or damaging some one.
९१. दसविधे सच्चामोसे पण्णत्ते, तं जहा-उप्पण्णमीसए, विगतमीसए, उप्पण्णविगतमीसए, 卐 जीवमीसए, अजीवमीसए, जीवाजीवमीसए, अणंतमीसए, परित्तमीसए, अद्धामीसए, अद्धद्धामीसए।
९१. सत्यमृषा (मिश्र) वचन दस प्रकार के हैं__(१) उत्पन्न-मिश्रक-वचन-उत्पत्ति से संबद्ध सत्य-मिश्रित असत्य वचन बोलना। जैसे–'आज इस ॐ गाँव में दस बच्चे उत्पन्न हुए हैं।' ऐसा बोलने में एक अधिक या हीन भी हो सकता है।
(२) विगत-मिश्रक-वचन-विगत अर्थात् मरण से संबद्ध सत्य-मिश्रित असत्य वचन बोलना। म जैसे-'आज इस नगर में दस व्यक्ति मर गये हैं।' ऐसा बोलने पर एक अधिक या हीन भी हो सकता है।
(३) उत्पन्न-विगत-मिश्रक-उत्पत्ति और मरण से सम्बद्ध सत्य मिश्रित असत्य वचन बोलना। जैसेआज इस नगर में दस बच्चे उत्पन्न हुए और दस ही बूढ़े मर गये हैं। ऐसा बोलने पर इससे एक-दो हीन या अधिक का जन्म या मरण भी सम्भव है।
(४) जीव-मिश्रक-वचन-अधिक जीते हुए कृमि-कीटों के समूह में कुछ मृत जीवों के होने पर भी उसे जीवराशि कहना।
(५) अजीव-मिश्रक-वचन-अधिक मरे हुए कृमि-कीटों के समूह में कुछ जीवितों के होने पर भी ॐ उसे मृत या अजीवराशि कहना।
(६) जीव-अजीव-मिश्रक-वचन-जीवित और मृत राशि में संख्या को कहते हुए कहना कि इतने जीवित हैं और इतने मृत हैं। ऐसा कहने पर एक-दो के हीन या अधिक जीवित या मृत की भी संभावना है।
(७) अनन्त-मिश्रक-वचन-पत्रादि संयुक्त मूल कन्दादि वनस्पति में यह अनन्तकाय है' ऐसा वचन बोलना अनन्त-मिश्रक मृषा वचन है। क्योंकि पत्रादि में अनन्त नहीं, किन्तु परीत (सीमित संख्यात या ॐ असंख्यात) ही जीव होते हैं।
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| स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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(८) परीत-मिश्रक-वचन-अनन्तकाय की अल्पता होने पर भी परीत वनस्पति में परीत का 5 2961 0571
(8) 3761-f90-907-37T 3terra chir-faquc HRITHI o alt विशेष के होने पर साथियों से सूर्य के अस्तगत होते समय ‘रात हो गई' ऐसा कहना।
(90) 3787–3761-1970-1249-36T fer rang cater to Paint # of El Bulle सम्बन्धी सत्यासत्य वचन बोलना। जैसे-एक पहर दिन बीतने पर भी प्रयोजनवश कार्य की शीघ्रता से TETE TOT Cheat
91. Satya-mrisha (mixture of truth and lie) is of ten kinds(1) Utpanna-mishrak-vachan-to tell a lie mixed with truth with regard 6 to origin. For example—Ten children were born in this village today. In this statement the uttered number could be less or more by one.
(2) Vigat-mishrak-vachan-to tell a lie mixed with truth with regard F to past or death. For example-Ten persons died in this village today. In f this statement the uttered number could be less or more by one.
(3) Utpanna-vigat-mishrak-vachan-to tell a lie mixed with truth Fi with regard to birth and death. For example-Ten children were born
and ten persons died in this village today. In this statement the uttered numbers of birth and death could be less or more by one or two.
(4) Jiva-mishrak-vachan—to call a heap of living insects mixed with a few dead ones as a heap of beings.
(5) Ajiva-mishrak-vachan-to call a heap of dead insects mixed with a few living ones as a heap of non-beings.
(6) Jiva-ajiva-mishrak-vachan-to tell the number of living and dead beings in a mixed heap of living and dead. In such statement the uttered numbers of living and dead could be less or more by one or two.
(7) Anant-mishrak-vachan-to call bulbous roots mixed with leaves as anant-kaya (infinite-bodied). This is because leaves do not have anant (infinite) but pareet (countable or uncountable) beings.
(8) Pareet-mishrak-vachan—to call leaves and other largely pareet vanaspati as pareet kaya although a few anant-kaya are mixed with it.
(9) Addha-mishrak-vachan-to give mixed statement with regard to addha or time. For example to say for some specific purpose that it is F night while the sun is still setting.
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दशम स्थान
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(10) Addha-addha-mishrak-vachan-to give mixed statement with regard to addha-addha or divisions of time (parts of day or night). For example to say for some specific purpose that it is noon when only first quarter of the day has passed.
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दृष्टिवाद - पद DRISHTIVAAD-PAD (SEGMENT OF DRISHTIVAAD)
९२. दिट्टिवायस्स णं दस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - दिट्टिवाएति वा, हेउवाएति वा, भूयवाएति वा, तच्चावाएति वा, सम्मावाएति वा, धम्मावाएति वा, भासाविजएति वा, पुव्वगतेति वा, अणुजोगगतेति वा, सव्वपाणभूतजीवसत्तसुहावहेति वा ।
९२. दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के दस नाम हैं
(१) दृष्टिवाद - अनेक दृष्टियों से या अनेक नयों की अपेक्षा वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करने वाला । ( २ ) हेतुवाद - हेतु - प्रयोग से या अनुमान के द्वारा वस्तु की सिद्धि करने वाला । (३) भूतवाद - भूत अर्थात् सद्-भूत पदार्थों का निरूपण करनेवाला ।
(४) तत्त्ववाद या तथ्यवाद - सारभूत तत्त्व का, या यथार्थ तथ्य का प्रतिपादन करने वाला ।
(५) सम्यग्वाद - पदार्थों के सत्य अर्थ का प्रतिपादन करने वाला ।
(८) पूर्वगत - सर्वप्रथम गणधरों के द्वारा ग्रन्थित या रचित उत्पादपूर्व आदि का वर्णन करने वाला।
( ९ ) अनुयोगगत - प्रथमानुयोग, गण्डिकानुयोग आदि अनुयोगों का वर्णन करने वाला ।
(६) धर्मवाद - वस्तु के पर्यायरूप धर्मों का अथवा चारित्ररूप धर्म का प्रतिपादन करने वाला । (७) भाषाविचय या भाषाविजय - सत्य आदि अनेक प्रकार की भाषाओं का विचय अर्थात् निर्णय करने वाला अथवा भाषाओं की विजय अर्थात् समृद्धि का वर्णन करने वाला ।
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92. There are ten names of Drishtivaad, the twelfth Anga(1) Drishtivaad-that which propagates fundamentals from many angles or nayas (stand-points).
(2) Hetuvaad-that which establishes things through cause hypothesis.
(3) Bhoot-vaad-that which discusses bhoot (eternal realities). (4) Tattvavaad-that which propagates basic fundamentals and evident reality.
(5) Samyagvaad — that which propagates the true meaning of things. स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
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(१०) सर्वप्राण - भूत - जीव- सत्त्व - सुखावह - सभी द्वीन्द्रियादि प्राणी, वनस्पतिरूप भूत, पंचेन्द्रिय जीव ५ और पृथिवी आदि सत्त्वों के सुखों का प्रतिपादन करने वाला।
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(6) Dharmavaad-that which propagates the modal properties of things or the codes of conduct.
(7) Bhashavichaya or Bhashavijaya—that establishing classification and categories of language (for example truthful speech). Also that which describes richness of language.
(8) Purvagat — that which narrates the primary works by Ganadhars, such as Utpaad Purva.
शस्त्र - पद SHASTRA-PAD (SEGMENT OF WEAPONS) ९३. दसविधे सत्थे पण्णत्ते, तं जहा
फ्र
(9) Anuyogagat - that which describes Anuyogas like Prathamanuyoga 5 and Gandakanuyoga.
( 10 ) Sarva-pran-bhoot-jiva-sattva-sukhavah – that which propagates 5 happiness of all entities, souls and beings, such as two-sensed beings, plant-bodied beings, five sensed-beings, and earth-bodied beings.
which deals with
93. Shastras (weapons ) are of ten kinds -- (1) Agnishastra (fire), (2) Vish-shastra (poison), (3) Lavan-shastra (salt), (4) Snehashastra (oil),
(5) Kshaar-shastra (alkali), (6) Amlashastra (acid), (7) Dushprayukta man फ्र
5 (evil intent ), ( 8 ) Dushprayukta vachan ( evil speech ), ( 9 ) Dushprayukta 5 5 kaya (evil action of body) and ( 10 ) Avirati bhaava (attitude of non- 卐 detachment).
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विवेचन - हिंसा के साधन को 'शस्त्र' कहते हैं । वह दो प्रकार का होता है - द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । फ्र सूत्रोक्त १० प्रकार के शस्त्रों में से आदि के छह द्रव्यशस्त्र हैं और अन्तिम चार भावशस्त्र हैं । लवण,
क्षार, अम्ल, आदि वस्तुओं के सम्पर्क से सचित्त वनस्पति आदि अचित्त हो जाती हैं। इसी प्रकार स्नेहतेल, घृतादि से भी सचित्त वस्तु अचित्त हो जाती है, इसलिए लवण आदि को भी शस्त्र कहा गया है। Elaboration-Means of violence is shastra (weapon). It is of two types-dravyashastra (physical weapon) and bhaavashastra (mental weapon). Out of the ten weapons listed in the aforesaid aphorism first six are physical weapons and the last four are mental weapons. Salt,
दशम स्थान
सत्थमग्गी विसं लोणं, सिणेहो खारमंबिलं ।
दुप्पउत्तो मणो वाया, काओ भावो य अविरति ॥ १ ॥ ( संग्रह - गाथा )
९३. शस्त्र दस प्रकार के हैं -- (१) अग्निशस्त्र, (२) विषशस्त्र, (३) लवणशस्त्रे, (४) स्नेहशस्त्र, (५) क्षारशस्त्र, (६) अम्लशस्त्र, (७) दुष्प्रयुक्त मन, (८) दुष्प्रयुक्त वचन, (९) दुष्प्रयुक्त काय, (१०) अविरति भाव |
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alkali and acid destroy living organism turning sachit plants to achit plants. Same is true for oily things. That is why these things have been ! included in weapons.
दोष-पद DOSH PAD (SEGMENT OF FAULTS) ९४. दसविहे दोसे पण्णत्ते, तं जहा
तज्जातदोसे मतिभंगदोसे, पसत्थारदोसे परिहरणदोसे । सलक्खण-वक्कारण- - हेउदोसे, संकामणं णिग्गह- वत्थुदोसे ॥ १ ॥
९४. पारस्परिक तत्त्व चर्चा शास्त्रार्थ या वाद विवाद के दस प्रकार के दोष हैं। जैसे(१) तज्जात - दोष - वादकाल में प्रतिवादी से क्षुब्ध होकर उसके वैयक्तिक दोषों को प्रकट करना या चुप रह जाना । (२) मतिभंग-दोष - प्रतिपक्षी के आक्षेप का उत्तर न दे पाना या भयादि के कारण तत्त्व को भूल जाना । ( ३ ) प्रशास्तृ-दोष - सभ्य या सभाध्यक्ष की ओर से होने वाला पक्षपात आदि दोष । ५ (४) परिहरण - दोष-वादी के द्वारा दिये गये दोष का छल या जाति से परिहार करना ।
( ५ ) स्वलक्षण-दोष - वस्तु के निर्दिष्ट लक्षण में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति या असम्भव दोष का होना ।
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मानना । ( ७ ) हेतु-दोष - हेतु का असिद्धता, विरुद्धता आदि दोष से दोषयुक्त होना । (८) संक्रमण-दोष -
फ प्रस्तुत प्रमेय को छोड़कर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना । ( ९ ) निग्रह - दोष - छल, जाति, वितण्डा आदि
5 के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना । (१०) वस्तुदोष - पक्ष सम्बन्धी प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत आदि दोषों में से कोई दोष होना। (विस्तार के लिए देखें-हिन्दी टीका, भाग २, पृष्ठ ७७४ । ठाणं, पृष्ठ ९८६)
(६) कारण-दोष - कारण - सामग्री के एक अंश को कारण मान लेना, या पूर्ववर्ती होने मात्र से कारण ५
94. There are ten faults of mutual discussion or debate - ( 1 ) Tajjat- 4 dosh-to expose personal drawbacks of the opponent during a debate or remain silent when irritated by him. (2) Matibhang-dosh-inability to
counter the charges made by the opponent or to forget the points out of Y 5 fear. (3) Prashaasrit-dosh — faults committed by the chairperson or g
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H made by the opponent. (5) Svalakshan-dosh — faults of irrelevance,
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5 experts. (4) Pariharan-dosh — to deceitfully evade or neglect the charges!
(6) Kaaran-dosh-to accept a part of the causal material as the cause or
exaggeration and impossibility in the stated attributes of a thing. 4
to accept a point as a cause just because of precedence. (7) Hetu-dosh
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5 faults of reasoning including unauthenticity, irrelevance and
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5 antitheticity. ( 8 ) Sankraman-dosh — the fault of shifting from the 4 prescribed topic to some other topic. (9) Nigraha-dosh-to silence the opponent by deceit, belligerence and other such means. (10) Vastu-doshfaults related to the basic theme of the opponent such as apparent fault 5 or conceptual fault.
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5 fa97a-VISHESH-PAD (SEGMENT OF SPECIAL FAULTS) ९५. दसविधे विसेसे पण्णत्ते, तं जहा
वत्थु तज्जातदोसे य, दोसे एगट्ठिएति य। कारणे य पुडुप्पण्णे, दोसे णिच्चेहिय अट्ठमे॥
अत्तणा उवणीते य, विसेसेति य ते दस॥१॥ ९५. वाद के विशेष दोष दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) वस्तुदोष-विशेष-पक्ष सम्बन्धी दोष के है विशेष प्रकार। (२) तज्जात-दोष-विशेष-वादकाल में प्रतिवादी के जन्म आदि सम्बन्धी विशेष दोष। म (३) दोष-विशेष-मतिभंग आदि दोषों के विशेष प्रकार। (४) एकार्थिक-विशेष-एक अर्थ के वाचक
शब्दों की निरुक्ति-जनित विशेष प्रकार। (५) कारण-विशेष-कारण के विशेष प्रकार। (६) प्रत्युत्पन्न ॐ दोष-विशेष-वस्तु को क्षणिक मानने पर कृतनाश और अकृत-अभ्यागम आदि दोषों की प्राप्ति। म (७) नित्यदोष-विशेष-वस्तु को सर्वथा नित्य मानने पर प्राप्त होने वाले दोष के विशेष प्रकार।
(८) अधिकदोष-विशेष-वादकाल में दृष्टान्त, उपनय आदि का अधिक प्रयोग। (९) आत्मोपनीतके विशेष-उदाहरण दोष का एक प्रकार। (१०) विशेष-वस्तु का भेदात्मक धर्म। (देखें-ठाणं, पृष्ठ ९२७। हिन्दी टीका, पृष्ठ ७७८)
95. There are ten vishesh dosh (special faults) of debate(1) Vastudosh-vishes--special faults related to theme. (2) tajjat-dosh
vishes-special faults related to birth and other personal matters about ॐ the opponent during a debate. (3) Dosh-vishes-special categories of
faults like matibhang. (4) Ekarthik-vishes-special faults related to etymology of synonyms. (5) Kaaran-vishes-special faults related to kaaran. (6) Pratyutpanna-dosh-vishes-special faults related to intentional destruction and unintentional origin caused by accepting a
thing as transitory. (7) Nitya-dosh-vishes-special faults due to accepting f a thing as absolutely eternal or permanent. (8) Adhik-dosh-vishes- 4
special faults related to excessive use of examples and quotes during a debate. (9) Atmopaneet-vishes-a kind of udaharan dosh. (10) Vishes
the disintegrative nature of things or theme. में शुद्धवाग्-अनुयोग-पद SHUDDHAVAG-ANUYOGA-PAD
(SEGMENT OF INDEPENDENT PHRASES) # ९६. दसविधे सुद्धवायाणुओगे पण्णत्ते, तं जहा-चंकारे, मंकारे, पिंकारे, सेयंकारे, सायंकारे, एगत्ते, पुधत्ते, संजहे, संकामिते, भिण्णे।
९६. वाक्य-निरपेक्ष शुद्ध पद का अनुयोग (शुद्ध वाक्यानुयोग) दस प्रकार का है, जैसे
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卐 वाक्य में आये हुए जिन पदों का वाक्यार्थ से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता, किन्तु उनके प्रयोग से : वाक्यों का अर्थ व्यवस्थित समझा जा सकता है, उन्हें 'शुद्ध वाक्यानुयोग' कहा जाता है।
(१) चकार- अनुयोग-'च' शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग होता है, जैसे-कहीं समुच्चय, कहीं + अन्वादेश, कहीं अवधारण, कहीं पाद पूरण आदि अर्थों का बोध इससे होता है। जैसे इत्थीओ सयणाणि यं। 卐 (२) मकार-अनुयोग-'म' शब्द के अनेक अर्थों का विस्तार। जैसे-'जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव' आदि पदों में 'म' का प्रयोग आगमिक है, इससे वाक्य की सुन्दरता बढ़ जाती है।
(३) पिकार-अनुयोग-'अपि' शब्द सम्भावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय आदि अनेक अर्थों में में प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'चउवीसं पि केवली' देवा वि तं नमसंति आदि।
(४) सेयंकार-अनुयोग-जैसे-कहीं 'से' शब्द 'अर्थ' का वाचक होता है, कहीं 'वह' का वाचक होता है, कहीं विकल्प, प्रश्न अथवा आरंभ। जैसे से भिक्खू वा, से किं तं नाणं।
(५) सायंकार-अनुयोग-'सायं' आदि निपात शब्दों के अथ का विचार। जैसे-वह कहीं सत्य अर्थ का और कहीं प्रश्न का बोधक होता है।
(६) एकत्व-अनुयोग-जहाँ बहुत सी बातें मिलकर एक वस्तु के प्रति कारण हो, जैसे-'नाणं च दसणं चेव, चरित्तं य तवो तहा। एस मग्गुत्ति पनत्तो' यहाँ पर ज्ञान, दर्शनादि समुदितरूप को ही मोक्षमार्ग 卐 कहा है।
(७) पृथक्त्व-अनुयोग-बहुवचन के अर्थ का विचार। जैसे-'धम्मत्थिकायप्पदेसा' इस पद में बहुवचन का प्रयोग उसके असंख्यात प्रदेश बतलाने के लिए है। . (८) संयूथ-अनुयोग-एकत्र किये हुए पदों को 'संयूथ' कहते हैं, जैसे-'सम्मदंसणसुद्ध' इस समासान्त
पद का विग्रह अनेक प्रकार से किय जा सकता हैॐ (१) 'सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध'-तृतीया विभक्ति के रूप में, (२) 'सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध'चतुर्थी विभक्ति के रूप में, (३) 'सम्यग्दर्शन से शुद्ध'-पंचमी विभक्ति के रूप में।
(९) संक्राति-अनुयोग-जहाँ विभक्ति और वचन बदलकर वाक्य का अर्थ किया जाता है, वह 卐 संक्रामित अनुयोग है। जैसे-'साहूणं वंदणेणं नासति पावं असंकिया भावा' अर्थात् साधुओं को वन्दना करने ॥
से पाप नष्ट होता है और साधु के पास रहने से भाव अशंकित होते हैं। यहाँ वन्दना के प्रसंग में 'साहूणं'
षष्ठी विभक्ति है। उसका भाव अशंकित होने के सम्बन्ध में पंचमी विभक्ति के रूप से संक्रमित किया + गया। यह विभक्ति-संक्रमण है तथा 'अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाइत्ति वुच्चई' यहाँ ‘से चाई' यह बहुवचन के स्थान में एकवचन का संक्रामित प्रयोग है।
(१०) भिन्न-अनुयोग-क्रमभेद और कालभेद आदि का विचार जिसमें हो, वह। जैसे-'तिविहं तिविहेणं' यह संग्रहवाक्य है। इसमें (१) मणेणं वायाए काएणं, (२) न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि न 卐 समणुजाणामि इन दो खण्डों का संग्रह किया गया है। द्वितीय खण्ड 'न करेमि' आदि तीन वाक्यों में
“तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खण्ड 'मणेणं' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' का
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स्पष्टीकरण है। यहाँ 'न करेमि' आदि बाद में है और 'मणेणं' आदि पहले। यह क्रम भेद है। काल-भेद 卐
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फ का उदाहरण जैसे - सक्के देविंदे देवराया वंदति नम॑सति' यहाँ अतीत के अर्थ में वर्तमान की क्रिया का प्रयोग है।
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96. Shuddhavag-anuyoga (phrases independent of the sentence) are of ten kinds (a phrase that has no connection with the meaning of the sentence but it is used to impart vividness or beauty to the meaning is called Shuddhavag-anuyoga)
(1) Chakar-anuyoga-the letter 'cha' is used many ways, such as collective, conjunctive and conceptual.
(2) Makar-anuyoga-elaboration of numerous meanings of the letter 'ma'. At many places it adds to the beauty of the sentence.
(3) Pikar-anuyoga-the term api is used many ways, such as conveying probability, freedom, expectation, and assimilation.
(4) Seyamkar-anuyoga-the term se is also used many ways, such as meaning, he, alternative, interrogation, and beginning.
-
(5) Sayamkar-anuyoga-the term syam is used to convey true meaning as well as an interrogative.
(6) Ekatva-anuyoga-where combination of many terms conveys a single direction or meaning. For example the statement that knowledge, perception and conduct lead to liberation.
(7) Prithakatva-anuyoga-use of plurals.
(8) Samyutha-anuyoga-combination of many phrases that can be interpreted many ways.
(9) Sankranti-anuyoga-where meaning is derived by parsing and changing tense.
(10) Bhinna-anuyoga-where change of sequence and periodicity are used. (This aphorism specially relates to Sanskrit grammar, therefore examples loose their meaning in translation.)
- DAAN-PAD (SEGMENT OF CHARITY ९७. दसविहे दाणे पण्णत्ते, तं जहा
दशम स्थान
अणुकंपा संग चेव, भये कालुणिएति य । लज्जाए गारवेणं च, अहम्मे उण सत्तमे ॥
धम्मेय अट्टमे वुत्ते, काहीति य कर्तति य ॥१ ॥
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९७. दान दस प्रकार का है, जैसे-(१) अनुकम्पादान-करुणाभाव से देना। (२) संग्रहदान-सहायता के लिए देना। (३) भयदान-भय से देना। (४) कारुण्यदान-मृत्त व्यक्ति के पीछे देना। (५) लज्जादानलोक-लाज से देना। (६) गौरवदान-यश के लिए या अपना बड़प्पन बताने के लिए देना। (७) अधर्मदानअधार्मिक व्यक्ति को या जिससे हिंसा आदि का पोषण हो उसे देना। (८) धर्मदान-धार्मिक व त्यागी व्यक्ति को देना। (९) कृतमितिदान-कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए देना। (१०) करिष्यतिदान-भविष्य में किसी का सहयोग प्राप्त करने की आशा से देना। (इनके विस्तार हेतु हिन्दी टीका, पृष्ठ ७८२ तथा वृत्ति पत्र ४७२ देखना चाहिए)
97. Daan (charity) is of ten kinds-(1) Anukampa daan-charity with compassion, (2) Samgraha daan-charity for help, (3) Bhaya daan___charity out of fear, (4) Kaarunya daan-charity to honour a deceased
person, (5) Lajja daan-charity for regard of public opinion, (6) Gaurav daan-charity for fame or show of greatness, (7) Adharma daancharity to an irreligious person or to support evil activities, (8) Dharma daan-charity to a religious or detached person, (9) Kritmit daancharity to express gratitude and (10) Karishyati daan-charity with a
hope of cooperation in future. (for more details refer to Vritti, leaf 472 and : Hindi Tika, part-2, p. 782) गति-पद GATI-PAD (SEGMENT OF REINCARNATION)
९८. दसविधा गती पण्णत्ता, तं जहा-णिरयगती, णिरयविग्गहगती, तिरियगती, तिरिय : विग्गहगती, (मणुयगती मणुयविग्गहगती, देवगती, देवविग्गहगती), सिद्धगती, सिद्धविग्गहगती।
९८. गति दस प्रकार की है, जैसे-(१) नरकगति, (२) नरकविग्रहगति, (३) तिर्यग्गति, : (४) तिर्यग्विग्रहगति, (५) मनुष्यगति, (६) मनुष्यविग्रहगति, (७) देवगति, (८) देवविग्रहगति, (९) सिद्धिगति, (१०) सिद्धि-विग्रहगति। ___98. There are ten kinds of gatis (reincarnations)—(1) narak gati g (reincarnation as infernal beings), (2) narak vigraha gati (reincarnation with oblique movement as infernal beings), (3) tiryanch gati (reincarnation as an animal), (4) tiryanch vigraha gati (reincarnation with oblique movement as an animal), (5) manushya gati (reincarnation as human beings), (6) manushya vigraha gati (reincarnation with oblique movement as human beings), (7) deva gati (reincarnation as divine being), (8) deva vigraha gati (reincarnation with oblique movement as divine being), (9) Siddha gati (reincarnation as Siddha) and (10) Siddha vigraha gati (reincarnation with oblique movement as Siddha).
'नागमजा
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विवेचन - 'विग्रह' शब्द के तीन अर्थ होते हैं-वक्र या मोड़ और शरीर तथा आकाश विभाग का फ्र अतिक्रमण कर गमन करना । प्रारम्भ के आठ पदों में से चार गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव ऋजु और वक्र दोनों प्रकार से गमन करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक गति का प्रथम पद ऋजुगति का बोधक है और 卐 द्वितीयपद वक्रगति का बोधक है, यह स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु सिद्धिगति तो सभी जीवों की विग्रहरहित ही होती है अर्थात् सिद्धजीव सीधी ऋजुगति से मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर टीकाकार ने 'सिद्धिविग्गहगइ' त्ति सिद्धावविग्रहेण - अवक्रेण गमनं 'सिद्ध्यविग्रहगतिः, अर्थात् सिद्धि-मुक्ति में अविग्रह से बिना मुड़े जाना, ऐसी निरुक्ति करके दसवें पद की संगति बिठलाई है। नवें 5 पद को सामान्य अपेक्षा से और दसवें पद को विशेष की विवक्षा से कहकर भेद बताया है। दसवें भेद में 5 शब्द केवल 'पारलौकिक गति' के अर्थ का ही सूचक है I
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Elaboration—The terms Vigraha has three meanings. 'Vakra' or oblique, 5 'moad' or turn and to move transgressing the body and a section of space. The first eight statements inform that beings taking birth in four gatis (genuses) have both straight and oblique movement. Thus it can be interpreted that the first statement about each genus relates to riju gati (straight movement) and the second relates to vigraha gati (oblique movement). However, reincarnation as Siddha is always with straight movement and never with oblique movement. Keeping this in view the commentator (Tika) has interpreted the tenth statement 'siddha vigraha gati (reincarnation with oblique movement as Siddha)' as siddhi-avigraha
gati or reincarnation in state of siddhi without oblique movement. The ninth statement is simple whereas the tenth is with special nuance. The tenth statement is thus indicative of supernatural movement.
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विग्रहगति
मुण्ड - पद MUND-PAD (SEGMENT OF VICTORS)
९९. दस मुंडा पण्णत्ता, तं जहा- सोतिंदियमुंडे, ( चक्खिंदियमुंडे, जिब्भिंदियमुंडे), फासिंदियमुंडे, कोहमुंडे, (माणमुंडे) मायांमुंडे) लोभमुंडे, सिरमुंडे ।
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९९. यहाँ 'मुण्ड' शब्द से ( तत्सम्बन्धी दोषों को दूर करने का भाव प्रकट किया है) दस प्रकार के 5 हैं, जैसे- (१) श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड - श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का मुण्डन (त्याग) करने वाला । (२) चक्षुरिन्द्रियमुण्डचक्षुरिन्द्रिय के विषय का त्याग करने वाला, (३) घ्राणेन्द्रियमुण्ड - घ्राणेन्द्रिय के विषय का त्याग करने वाला। (४) रसनेन्द्रियमुण्ड - रसनेन्द्रिय के विषय का त्याग करने वाला । (५) स्पर्शनेन्द्रियमुण्ड - स्पर्शनेन्द्रिय के विषय का त्याग करने वाला । (६) क्रोधमुण्ड-क्रोध कषाय का त्याग। (७) मानमुण्ड - मानकषाय का त्याग । (८) मायामुण्ड - मायाकषाय का त्याग । ( ९ ) लोभमुण्ड - लोभकषाय का त्याग करने वाला । (१०) शिरोमुण्ड - सिर के केशों का मुण्डन करने-कराने वाला ।
99. Mund (victors over indulgence of sense organs or who have control over sense organs or who are equanimous towards good and bad sensations)
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are of five kinds – (1) shrotrendriyamund, ( 2 ) chakshurindriyamund, (3) ghranendriyamund, (4) rasanendriyamund, (5) sparshanendriyamund, (6) krodh-mund-victors over anger, (7) maan-mund-victors over conceit, ( 8 ) maya-mund-victors over deceit, (9) lobh-mund-victors over greed and (10) shiro-mund-who has tonsured his head.
संख्यान - पद SANKHYAN PAD (SEGMENT OF MATHEMATICS) १००. दसविधे संखाणे पण्णत्ते, तं जहा
१००. जिस उपाय से किसी वस्तु की संख्या या परिमाण का ज्ञान हो वह 'संख्यान' है। संख्यान (गणित) दस प्रकार का है, जैसे- ( १ ) परिकर्म - जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि से सम्बन्धित गणित । (२) व्यवहार- पाटी गणित - प्रसिद्ध श्रेणी व्यवहार, मिश्रक व्यवहार आदि । जैसे १२ के लिए दर्जन । बीस के लिए 'कोडी' यह सब व्यवहार गणित है । (३) रज्जु - क्षेत्रगणित, सेंटीमीटर, फुट, अंगुल, रज्जु आदि ५ की ऊँचाई - लम्बाई- गहराई आदि माप विधि । ( ४ ) राशि - धान्य आदि के ढेर को नापने का गणित । (५) कला - सवर्ण - अंशों वाली संख्या समान करना । तथा औषधियों आदि के निर्माण में रासायनिक द्रव्यों की मात्रा आदि का परिमाण करना । (६) यावत् तावत् - गुणाकार या गुणा करने वाला गणित । ५ (७) वर्ग - दो समान संख्याओं का गुणन - फल। जैसे ४ को ४ से गुणा करना । (८) घन - तीन समान Y संख्याओं का गुणन - फल । जैसे ५ x ५ २५ । ( ९ ) वर्ग - वर्ग - वर्ग का वर्ग । पहली संख्या को उसी वर्ग 4 से गुणा करना । (१०) कल्प- लकड़ी आदि की चिराई आदि का माप करने वाला गणित। (गणित सम्बन्धी ५ विस्तृत विवेचन के लिए देखें-वृत्ति पत्र ४७१ तथा ठाणं, पृष्ठ ९९३-९४)
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परिकम्मं ववहारो रज्जू रासी कला - सवण्णे य ।
जावंतावति वग्गो, घणो य तह वग्गवग्गोवि ॥ १ ॥ कप्पो य. ॥
५
100. Sankhyan (mathematics) is of ten kinds-(1) Parikarma-sankhyan-y addition, subtraction, multiplication division, etc. (2) Vyavahar- sankhyan - 5 lowest common multiple, highest common factor, factors, compounds, etc. ५ This also includes popular collective units such as dozen for twelve and kodi (score) for twenty. (3) Rajju-sankhyan - lines and areas (geometry ). ( 4 ) Rashi F sankhyan - squares, cubes, logarithms, etc. This also includes measures of 5 heaps of grain or cereals. (5) Kala-savarn-fractions and their calculations. 卐 This also includes proportions of ingredients in a medical formulation. 卐 (6) Yavat-tavat-multiplication. (7) Varga-squares. (8) Ghan-cubes. (9) Varg-Varg-square of square. (10) Kalp-calculation of sawn wood. (for more details about mathematics see Vritti, leaf, 471 and Thanam pp. 993-994) प्रत्याख्यान - पद PRATYAKHYAN PAD (SEGMENT OF ABSTAINMENT)
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. १०१. दसविधे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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अणागयमतिक्कंतं, कोडीसहियं णियंटितं चेव। सागारमणागारं परिमाणकडं णिरवसेसं॥
संकेयर्ग चेव अद्धाए, पच्चक्खाणं दसविहं तु॥१॥ १०१. प्रत्याख्यान के दस प्रकार है, जैसे-(१) अनागत-प्रत्याख्यान-आगे किये जाने वाले तप को 卐 किसी विशेष परिस्थिति में पहले ही कर लेना। (२) अतिक्रान्त-प्रत्याख्यान-जो तप कारणवश वर्तमान में
न किया जा सका हो, उसे भविष्य में करना। (३) कोटिसहित-प्रत्याख्यान-जो एक प्रत्याख्यान का अन्तिम ॐ दिन और दूसरे प्रत्याख्यान का आदि दिन हो, वह कोटिसहित प्रत्याख्यान है। जैसे यवमध्य चन्द्र
प्रतिमा आदि। (४) नियंत्रित-प्रत्याख्यान-नीरोग या सरोग अवस्था में नियंत्रण या नियमपूर्वक अवश्य ही किया जाने वाला तप। यह तप १४ पूर्वधर, जिनकल्पी आदि के लिए ही होता है। (५) सागारप्रत्याख्यान-आगार या अपवाद के साथ किया जाने वाला तप। जैसे नवकारसी पोरसी आदि। (६) अनागार-प्रत्याख्यान-अपवाद या छूट के बिना किया जाने वाला तप। (७) परिमाणकृत-प्रत्याख्यानदत्ति, कवल, गृह, द्रव्य, भिक्षा आदि के परिमाण वाला प्रत्याख्यान। (८) निरवशेष-प्रत्याख्यान-चारों
प्रकार के आहार का सर्वथा परित्याग। (९) संकेत-प्रत्याख्यान-संकेत या चिह्न के साथ किया जाने वाला ऊ प्रत्याख्यान। विविध अभिग्रहों के साथ किया जाने वाला। (१०) अद्धा-प्रत्याख्यान-मुहूर्त, प्रहर आदि काल
की मर्यादा के साथ किया जाने वाला प्रत्याख्यान। 卐 101. Pratyakhyan (abstainment) is of ten kinds—(1) Anagat
pratyakhyan--to advance, under special circumstances, the obs of some austerity resolved to be observed in future. (2) Atikrantpratyakhyan--to postpone for future the observation of some austerity for some specific reason. (3) Kotisahit-pratyakhyan—the last day of one abstainment and the first day of the immediate next abstainment. (4) Niyantrit-pratyakhyan-a tap (austerity) done with complete control following prescribed rules irrespective of being normal or ailing. This is meant only for Fourteen Purvadhars, Jinakalpi and other such higher ascetics. (5) Sagaar-pratyakhyan-austerities done with some relaxations. (6) Anagaar-pratyakhyan-austerities done without any relaxations. (7) Parimanakrit-pratyakhyan-abstainment related to 4 specific quantity or number of things like servings, morsels, houses, things and alms. (8) Niravashesh-pratyakhyan-abstaining completely from all the four kinds of food. (9) Sanket-pratyakhyan--abstainment done with specific signs or indications or that done with special resolves. (10) Addha-pratyakhyan-abstainment done for specific duration such as Muhurt (48 minutes), Prahar (three hours), etc.
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दशम स्थान
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सामाचारी-पद SAMACHARI-PAD (SEGMENT OF ASCETIC-BEHAVIOUR) १०२. दसविहा सामायारी पण्णत्ता, तं जहा
इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य णिसीहिया। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य णिमंतणा॥
उवसंपया य काले, सामायारी दसवि हा उ॥१॥ (संग्रह-श्लोक) १०२. सामाचारी दस प्रकार की है, जैसे-(१) इच्छा-सामाचारी-कार्य करने या कराने में ! इच्छाकार (आपकी इच्छा हो तो) का प्रयोग। (२) मिच्छा-समाचारी-भूल हो जाने पर मेरा दुष्कृत मिथ्या
हो मिच्छामि दुक्कडं बोलना। (३) तथाकार-समाचारी-आचार्य के वचन को 'तह' त्ति कहकर स्वीकार 卐 करना। (४) आवश्यक-समाचारी-उपाश्रय से बाहर जाते समय आवस्सही ‘आवश्यक कार्य के लिए
जाता हूँ', ऐसा बोलकर जाना। (५) नैषेधिकी-समाचारी-कार्य से निवृत्त होकर के आने पर 'निसही' ॐ 'मैं निवृत्त होकर आया हूँ' ऐसा बोलकर उपाश्रय में प्रवेश करना। (६) आपृच्छा-समाचारी-किसी कार्य 卐 के लिए आचार्य से पूछकर जाना। (७) प्रतिपृच्छा-समाचारी-दूसरों का काम करने के लिए आचार्य र आदि से पूछना। (८) छन्दना-समाचारी-आहार करने के लिए साधर्मिक साधुओं को बुलाना। 卐 (९) निमंत्रणा-समाचारी-'मैं आपके लिए आहारादि लाऊँ' इस प्रकार गुरुजनादि को निमंत्रित करना।
(१०) उपसंपदा-समाचारी-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए कुछ समय तक दूसरे
आचार्य के पास जाकर उनके समीप रहना। (विशेष वर्णन अनयोगद्वारसत्र भाग तथा 卐 अ. २६ देखना चाहिए)। - 102. Samachari (ascetic-behaviour) is of ten kinds—(1) Icchasamachari—to seek permission for doing or getting done some work stating-If you desire so. (2) Mithya-samachari--to utter michchhami y dukkadam (may my misdeed be undone) with a feeling of repentance for any misdeed committed. (3) Tatha-samachari-to assent the order or word of the preceptor by uttering tahat'. (4) Avashyaki-to utter avassahi (I am going for some necessary work. ) in order to inform the y guru when going out for any necessary work. (5) Naishedhiki- 4 samachari—to utter nisahi (I am relieved of the work. ) in order to announce on return after doing some work and before entering the upashraya. (6) Apricchaa-samachari-to seek permission of the guru before doing any work. (7) Pratiprichhaa-samachari-to seek permission for doing some other person's work. (8) Chhandana-samachari-to offer acquired things including food to other ascetics of the group. (9) Nimantrana-samachari-to invite other ascetics of the group to
partake in things to be acquired in future saying--May I bring this for 4 you. (10) Upasampad-samachari—to go and stay with some other senior 5
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ascetic or guru for some time in order to acquire special expertise of knowledge, perception and conduct. (for more details refer to Illustrated Anuyogadvara Sutra, part-1, aphorism-206 and Uttaradhyayan Ch. 26). दस महा स्वप्न पद (स्वप्न) DAS-MAHA-SVAPNA-PAD (SEGMENT OF TEN GREAT DREAMS) DREAMS
१०३. (क) समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तं जहा
(१) एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुमिणे पराजितं पासित्ता णं पडिबुद्धे। (२) एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं पुंसकोइलगं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। (३) एगं च णं महं
चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। (४) एगं च णं महं दामदुगं के सब्बरयणामयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। (५) एगं च णं महं सेतं गोवरगं सुमिणे पासित्ता णं
पडिबुद्धे। (६) एगं च णं महं पउमसरं सवओ समंता कुसुमितं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। (७) एगं च णं महं सागरं उम्मी-वीची-सहस्सकलितं भुयाहिं तिणं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे।
(८) एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। (९) एगं च णं महं म हरि-वेरुलिय-वण्णाभेणं णियएणमंतेणं माणुसुत्तरं पव्वतं सब्बतो समंता आवेढियं परिवेढियं
सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। (१०) एगं च णं महं मंदरे पव्वते मंदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगयमत्ताणं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे।
१०३. (क) श्रमण भगवान महावीर छद्मस्थ काल की अन्तिम रात्रि में (वैशाख शुक्ल नवमी की रात) इन दस महास्वप्नों को देखकर प्रतिबुद्ध हुए, जैसे
(१) एक महान् घोर रूप वाले, दीप्तिमान् ताड़ वृक्ष जैसे लम्बे पिशाच को स्वप्न में पराजित किया, ॐ यह देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
(२) एक महान् श्वेत पंख वाले पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
(३) एक महान् चित्र-विचित्र पंखों वाले पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। __ (४) सर्वरत्नमयी दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
(५) एक महान् श्वेत गोवर्ग (गायों का समूह) को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। (६) एक महान् सर्व ओर से प्रफुल्लित कमल वाले सरोवर को देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
(७) एक महान्, छोटी-बड़ी लहरों से व्याप्त महासागर को स्वप्न में भुजाओं से पार किया हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
(८) एक महान्, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
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(९) एक महान् हरित और वैडूर्य वर्णवाले अपने आँत समूह के द्वारा मानुषोत्तर पर्वत को सर्व Y ओर से आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए । (१०) मन्दर - पर्वत पर मन्दर- - चूलिका के ऊपर एक महान् सिंहासन पर अपने को स्वप्न में बैठा
y
हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए।
103. (a) Shraman Bhagavan Mahavir got enlightenment after seeing ten great dreams on the last night (Vaishakh Shukla ninth) of his y chhadmasth period (while he was short of omniscience due to residual karmic bondage)
(1) He got enlightened after seeing a dream that he has defeated a hideous and tall Taal-pishach (a demon).
(2) He got enlightened after seeing a pumsakokil (male cuckoo) with white feathers in a dream.
(3) He got enlightened after seeing pumsakokil (male cuckoo) with multi-coloured feathers in a dream.
(4) He got enlightened after seeing two large multi-gem bead strings
in a dream.
(5) He got enlightened after seeing a large herd of white cows in a dream.
(6) He got enlightened after seeing a great pond filled with blooming lotus flowers in a dream.
(7) He got enlightened after seeing in a dream that he has swum across a great ocean filled with small and large waves.
(8) He got enlightened after seeing a brilliant and radiant sun in a dream.
(9) He got enlightened after seeing in a dream that he has encircled and enveloped the Manushottar mountain from all sides with his greenish cat's-eye colour intestines.
(10) He got enlightened after seeing in a dream that he is sitting on a great throne on the summit of the Mandar mountain.
१०३. स्वप्न - फल |
(ख) (१) जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुमिणे पराजितं पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं समणेणं भगवता महावीरेणं मोहणिज्जे कम्मे मूलओ उग्घाइते ।
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5555555555555555555555555555555555558 म (२) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं (पुंसकोइलगं सुमिणे पासित्ता ,
) पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे सुक्कज्झाणोवगए विहरइ। + (३) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं (पुंसको इलगं सुमिणे ॐ पासित्ता णं) पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे ससमय-परसमयियं चित्तविचित्तं दुवालसंगं
गणिपिडगं आघवेति पण्णवेति परूवेति दंसेति णिदंसेति उवदंसेति, तं जहा-आयारं जाव दिहिवायं। 卐 (४) जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं दामदुगं सबरयणामय (सुमिणे पासित्ता णं) पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्मं पण्णवेति, तं जहा-अगारधम्मं च अणगारधम्मं च।।
(५) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं सेतं गोवग्गं सुमिणे (पासिता णं) पडिबुद्धे, तण्णं ऊ समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउवण्णाइण्णे संघे, तं जहा-समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ।
(६) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं पउमसरं (सव्वओ समंता कुसुमितं सुमिणे म पासित्ता णं) पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे चउबिहे देवे पण्णवेति, तं जहा-भवणवासी, ॐ वाणमंतरे, जोइसिए, वेमाणिए।
(७) जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं सागरं उम्मी-वीची- (सहस्स-कलितं भुयाहिं म तिण्णं सुमिणे पासित्ता णं) पडिबुद्धे, तं णं समणेणं भगवता महावीरेणं अणादिए अणवदग्गे दीहमद्धे चाउरंते संसारकंतारे तिण्णे।
(८) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं दिणयरं (तेयसा जलंतं सुमिणे पासित्ता णं) ॐ पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अणंते अणुत्तरे (णिव्वाघाए णिरावरणे कसिणे म पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे) समुप्पण्णे।
(९) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं हरि-वेरुलिय (वण्णाभेणं णियएणमंतेणं माणुसुत्तरं पचतं सवतो समंता आवेढियं परिवेढियं सुमिणे पासित्ता णं) पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स 9 भगवतो महावीरस्स सदेवमणुयासुरलोगे उराला कित्ति-वण्ण-सद्द-सिलोगा परिगुव्बंति-इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीरे।
(१०) जणं समणे भगवं महावीरे एगं च णं महं मंदरे पव्वते मंदरचूलियाए उवरि ॐ (सीहासणवरगयमत्ताणं सुमिणे पासित्ता णं) पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मझगते केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेति पण्णवेति (परूवेति दंसेति णिदंतेति) उवदंसेति।
१०३. स्वप्न-फल
(ख) (१) श्रमण भगवान महावीर महान् घोर रूप वाले दीप्तिमान् एक ताल पिशाच को स्वप्न में 卐 पराजित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने मोहनीय कर्म को मूल 卐
से उखाड़ फेंका।
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दशम स्थान
(525)
Tenth Sthaan GEEEEEEEEEEEELFIERIFIE IF Irirririn-in-.-.-.--.
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4555555555555555555555555555555555555 + (२) श्रमण भगवान महावीर श्वेत पंखों वाले एक महान् पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध म हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर शुक्लध्यान को प्राप्त होकर विचरने लगे। ॐ (३) श्रमण भगवान महावीर चित्र-विचित्र पंखों वाले एक महान् पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर
प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने स्व-समय और पर-समय का निरूपण करने * वाले द्वादशांग गणिपिटक का व्याख्यान किया, प्रज्ञापन किया, प्ररूपण किया, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया। वह द्वादशांग गणिपिटक आचारांग से यावत् दृष्टिवाद तक का है।
(४) श्रमण भगवान महावीर सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म की प्ररूपणा की। जैसे-अगारधर्म (श्रावकधर्म) और अनगार धर्म (साधुधर्म)। |
(५) श्रमण भगवान महावीर एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके के फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर का चार वर्ण से व्याप्त संघ हुआ। जैसे- (१) श्रमण, (२) श्रमणी, (३) श्रावक, (४) श्राविका।
(६) श्रमण भगवान महावीर सर्व ओर से प्रफुल्लित कमलों वाले एक महान् सरोवर को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने चार प्रकार के देवों की प्ररूपणा की। जैसे-(१) भवनवासी, (२) वानव्यन्तर, (३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक।
(७) श्रमण भगवान महावीर में एक महान् छोटी-बड़ी लहरों से व्याप्त महासागर को स्वप्न में 9 भुजाओं से पार किया हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने अनादि, ॐ अनन्त, प्रलम्ब और चार अन्त (गति) वाले संसार रूपी कान्तार (महावन) या भवसागर को पार किया।
(८) श्रमण भगवान महावीर तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध ॐ हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, पूर्ण, + प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ। ॐ (९) श्रमण भगवान महावीर हरित और वैडूर्य वर्ण वाले अपने आँत-समूह के द्वारा मानुषोत्तर
पर्वत को सर्व ओर से आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप ॐ श्रमण भगवान महावीर की देव, मनुष्य और असुरों के लोक में उदार, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लाघा
व्याप्त हुई कि श्रमण भगवान महावीर ऐसे महान् हैं, श्रमण भगवान महावीर ऐसे महान् हैं, इस प्रकार से उनका यश तीनों लोकों में फैल गया।
(१०) श्रमण भगवान महावीर मन्दर-पर्वत पर मन्दर-चूलिका के ऊपर एक महान् सिंहासन पर ॐ अपने को स्वप्न में बैठा हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने देव, + मनुष्यों और असुरों की परिषद् के मध्य में विराजमान होकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान किया,
प्रज्ञापन किया, प्ररूपण किया, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया।
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| स्थानांगसूत्र (२)
(526)
Sthaananga Sutra (2)
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51 444444444444454 MEANING OF THE DREAM
103. (b) (1) He got enlightened after seeing a dream that he has defeated a hideous and tall Taal-pishach (a demon). This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir uprooting and destroying Mohaniya karma.
(2) He got enlightened after seeing a pumsakokil (male cuckoo) with white feathers in a dream. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir attaining Shukla dhyan (purest of attitude and feelings) and moving about.
(3) He got enlightened after seeing pumsakokil (male cuckoo) with multi-coloured feathers in a dream. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir stating (vyakhyan), propagating (prajnapan),
detailing (prarupan), explaining (darshan), clarifying (nidarshan) and fi simplifying (upadarshan) multifaceted knowledge in the shape of
Dvadashang Ganipitak (twelve limbed canon) from Acharanga to Drishtivad.
(4) He got enlightened after seeing two large multi-gem bead strings in a dream. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir preaching
two way religion-Agaar dharma (conduct of laity) and Anagaar dharma fi (conduct of ascetics).
(5) He got enlightened after seeing a large herd of white cows in a dream. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir having a large four limbed religious organization including Shraman, Shramani, Shravak and Shravika.
(6) He got enlightened after seeing a great pond filled with blooming lotus flowers in a dream. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir having four kinds of gods in his attendance-Bhavanavasi, Vaanavyantar, Jyotishk and Vaimanik.
(7) He got enlightened after seeing in a dream that he has swum across a great ocean filled with small and large waves. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir crossing the great forest or ocean of beginningless, endless and extensive cycles of rebirth in four genuses.
(8) He got enlightened after seeing a brilliant and radiant sun in a dream. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir attaining 5 infinite, matchless, uninterrupted, unveiled, full and complete Keval F Darshan and Keval Jnana (omniscience).
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दशम स्थान
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Tenth Sthaan
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(9) He got enlightened after seeing in a dream that he has encircled 91 and enveloped the Manushottar mountain from all sides with his
greenish cat's-eye colour intestines. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir's pious, glory and utterance, glow and fame
enveloping the realms of gods, humans and demons. 'Shraman Bhagavan 4 Mahavir is so great ! Shraman Bhagavan Mahavir is so great !' this way \ his fame spread in three worlds.
(10) He got enlightened after seeing in a dream that he is sitting on a great throne on the summit of the Mandar mountain. This manifested in Shraman Bhagavan Mahavir sitting in the assembly of gods, humans and demons and stating (vyakhyan), propagating (prajnapan), detailing (prarupan), explaining (darshan), clarifying (nidarshan) and simplifying
(upadarshan) the sermon of the omniscient. में सम्यक्त्व-पद SMAYAKTVA-PAD (SEGMENT OF RIGHTEOUSNESS) १०४. दसविधे सरागसम्मइंसणे पण्णत्ते, तं जहा
णिसगुवएसरुई, आणारुई सुत्तबीयरुइमेव।
अभिगम वित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई॥१॥ (संग्रहणी गाथा) म १०४. सराग सम्यग्दर्शन दस प्रकार का है, जैसे-(१) निसर्गरुचि-बिना किसी बाह्य निमित्त से
उत्पन्न हुआ। (२) उपदेशरुचि-गुरु आदि के उपदेश से उत्पन्न हुआ। (३) आज्ञारुचि-अर्हत्-प्रज्ञप्त 卐 सिद्धान्त से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। (४) सूत्ररुचि-सूत्र-ग्रन्थों के अध्ययन से उत्पन्न हुआ।
(५) बीजरुचि-बीज की तरह अनेक अर्थों के बोधक एक ही वचन के मनन से उत्पन्न हुआ। ॐ (६) अभिगमरुचि-सूत्रों के विस्तृत अर्थ से उत्पन्न हुआ। (७) विस्ताररुचि-प्रमाण-नय के विस्तारपूर्वक + अध्ययन से उत्पन्न हुआ। (८) क्रियारुचि-धार्मिक-क्रियाओं के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन। , (९) संक्षेपरुचि-संक्षेप से कुछ धर्म-पदों के सुनने मात्र से उत्पन्न हुआ। (१०) धर्मरुचि-श्रुतधर्म और म चारित्र धर्म के श्रद्धान से उत्पन्न हुआ। (देखें उत्तरा. अ. २८ गा. १६ से २७ तक)
104. Sarag samyagdarshan (righteousness of the attached) is of ten kinds—(1) Nisarg-ruchi-acquired without any outside help. (2) Upadesh4 ruchi-acquired through teachings of a guru. (3) Ajna-ruchi-acquired
through the doctrines of Arhat. (4) Sutra-ruchi-acquired through study of scriptures. (5) Beej-ruchi-acquired through contemplation of just one seed-like phrase conveying numerous meanings. (6) Abhigam-ruchiacquired through study of elaboration of aphoristic scriptures. (7) Vistaarruchi-acquired through detailed study of logics (praman and naya). (8) Kriya-ruchi-acquired through indulgence in religious rituals and
स्थानांगसूत्र (२)
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activities. (9) Sankshep-ruchi-acquired through listening to brief
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फ religious texts. ( 10 ) Dharma-ruchi — acquired through faith in ascetic 5 f religion and conduct. (see Uttaradhyayan Sutra 28/ 16-27)
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१०५. संज्ञाएँ दस प्रकार की हैं, जैसे - ( १ ) आहारसंज्ञा, (२) भयसंज्ञा, (३) मैथुनसंज्ञा, फ्र (४) परिग्रहसंज्ञा, (५) क्रोधसंज्ञा, (६) मानसंज्ञा, (७) मायासंज्ञा, (८) लोभसंज्ञा, (९) लोकसंज्ञा 5 (विशेष ज्ञानोपयोग), (१०) ओघसंज्ञा (कुछ लोग इसे छठी इन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय अथवा इ- एस-पी. एक्स्ट्रा फ्र सेन्सरी पसेप्सन भी कहते हैं ।)
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105. Sanjna (desires) are of ten kinds-(1) ahar-sanjna (desire for फ्र food), (2) bhaya-sanjna (desire to run away from fear), (3) maithunsanjna (desire for sex), (4) parigraha-sanjna (desire for possessions ), 5 fi ( 5 ) krodh-sanjna (tendency of anger ), ( 6 ) maan-sanjna (tendency of 5 f conceit), (7) maaya-sanjna (tendency of deceit), (8) lobh-sanjna (tendency 5 of greed) (9) Lok-sanjna (general knowledge) and (10) Ogh-sanjna (unusual awareness; some people call it sixth sense or ESP/extra sensory perception).
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संज्ञा - पद SANJNA PAD (SEGMENT OF DESIRE )
१०५. दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - आहारसण्णा, (भयसण्णा, मेहुणसण्णा), परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, (माणसण्णा, मायासण्णा), लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा ।
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१०६. णेरइयाणं दस सण्णाओ एवं चेव । १०७. एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
१०६. इसी प्रकार नारकों के दस संज्ञाएँ हैं । १०७. इसी प्रकार वैमानिकों तक सभी दण्डक वाले जीवों को दस-दस संज्ञाएँ हैं ।
वेदना- पद VEDANA-PAD (SEGMENT OF PAIN)
१०८. णेरइया णं दसविधं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-स पिवासं, कंडुं, परज्झं, भयं, सोगं, जरं, वाहिं ।
106. In the same way naaraks (infernal beings) also have ten sanjnas. 5 107. In the same way all beings of all dandaks up to Vaimaniks also have 卐 ten sanjnas each.
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१०८. नारक जीव दस प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करते रहते हैं, जैसे- (१) शीत वेदना,
दशम स्थान
- सीतं, उसिणं,
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Tenth Sthaan
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5 (६) परजन्यवेदना (परतंत्रता का या परजनित कष्ट), (७) भय वेदना, (८) शोक वेदना, (९) जरा 5
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वेदना, (१०) व्याधि वेदना । (जहाँ शीत वेदना होती है, वहाँ उष्ण नहीं, जहाँ उष्ण वेदना होती है, वहाँ 5 शीत नहीं होती ) ।
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(२) उष्ण वेदना, (३) क्षुधा वेदना, (४) पिपासा वेदना, (५) कण्डू वेदना ( खुजली का कष्ट ), 5
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108. Naarak jiva (infernal beings) suffer ten kinds of vedana (pain) (1) Sheet vedana (suffering of cold), (2) Ushna vedana (suffering of heat), (3) Kshudha vedana (suffering of hunger), (4) Pipasa vedana (suffering of thirst), (5) Kandu vedana (suffering of itching), (6) Parajanya vedana (suffering of dependence or suffering caused by others), (7) Bhaya vedana (suffering of fear), (8) Shoak vedana (suffering of grief), (9) Jara vedana (suffering of dotage) and (10) Vyadhi vedana (suffering of disease). छद्मस्थ-पद CHHADMASTH-PAD (SEGMENT OF CHHADMASTH)
१०९. दस ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं ण जाणति ण पासति, तं जहा-धम्मत्थिकायं, (अधम्मत्थिकायं, आगासस्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं परमाणुपोग्गलं, सई, गंध), वातं, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सति, अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति। ___एताणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा (जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ, तं जहाधम्मत्थिकायं जाव अयं सम्बदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति।
१०९. छद्मस्थ आत्मा दस पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से न जानता है, और न देखता है, जैसे(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीरमुक्त जीव, (५) परमाणुॐ पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध, (८) वायु, (९) यह जिन होगा, या नहीं, (१०) यह सभी दुःखों का
अन्त करेगा या नहीं। ऊ किन्तु विशिष्ट ज्ञान और दर्शन के धारक अर्हत्, जिन, केवली उन्हीं दस पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से + जानते-देखते हैं, जैसे-(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीरमुक्त
जीव, (५) परमाणु-पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध, (८) वायु, (९) यह जिन होगा, या नहीं, (१०) यह ॐ सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं।
109. A chhadmasth (a person in state of karmic bondage) person cannot see or know ten things fully (all their possible modes) 4 (1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia entity),
(3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, (5) ultimate particle of matter, (6) shabd (sound), (7) Gandh (smell), (8) Vaayu (air), (9) he will become ajina or not and (10) he will end all misery or not.
An Arhat, Jina, and Kevali endowed with right knowledge and perception see and know fully (all their possible modes) these five things—(1) Dharmastikaya (motion entity), (2) Adharmastikaya (inertia
ntity), (3) Akashastikaya (space entity), (4) disembodied soul, 15 (5) ultimate particle of matter, (6) shabd (sound), (7) Gandh (smell),
(8) Vaayu (air), (9) he will become a jina or not and (10) he will end all misery or not.
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5555555555555555555555555555555555558 ॐ दशा-पद DASHA-PAD (SEGMENT OF CHAPTERS
११०. दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, ॐ अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरणदसाओ, बंधदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।
११०. दस दशा (अध्ययन) वाले दस आगम हैं, जैसे-(१) कर्मविपाकदशा, (२) उपासकदशा, (३) अन्तकृत्दशा, (४) अनुत्तरोपपातिकदशा, (५) आचारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), (६) प्रश्नव्याकरणदशा, (७) बन्धदशा, (८) द्विगृद्धिदशा, (९) दीर्घदशा, (१०) संक्षेपकदशा।
110. There are ten Agams with ten dasha (chapters) each(1) Karmavipaak Dasha, (2) Upasak Dasha, (3) Antakrit Dasha, (4) Anuttaropapatik Dasha, (5) Achaar Dasha, (Dashashrutskandh),
(6) Prashnavyakaran Dasha, (7) Bandh Dasha, (8) Dvigriddhi Dasha, 4 (9) Deergh Dasha and (10) Sankshepak Dasha.
विवेचन-'दशा' शब्द तीन अर्थों का सूचक है। जिन-जिन सूत्रों के दस अध्ययन हैं वे। जो विशेष * 'दशा' अवस्थाओं के प्रतिपादक है तथा जिन सूत्रों में दस-दस अधिकारों का वर्णन है, उन शास्त्रों का के नाम ‘दशा' है।
Elaboration The term dasha conveys three meanings. The scriptures that have ten chapters; those that discuss special conditions (dasha); and those that have ten adhikars or sections are all called dasha. १११. कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
मियापत्ते य गोत्तासे, अंडे सगडेति यावरे। माहणे णंदिसेणे, सोरिए य उदुंबरे॥
सहसुद्दाहे आमलए,-कुमारे लेच्छई इति ॥१॥ १११. कर्मविपाकदशा-विपाक श्रुत के प्रथम श्रुतस्कंध के दस अध्ययन हैं, जैसे-(१) मृगापुत्र, (२) गोत्रास, (३) अण्ड, (४) शकट, (५) ब्राह्मण, (६) नन्दिषेण, (७) शौरिक, (८) उदुम्बर, (९) सहस्रोद्दाह आमरक, (१०) कुमारलिच्छवी।
111. The first part of Karmavipaak Dasha (Vipaak Shrut) has ten chapters (1) Mrigaputra, (2) Gotraas, (3) Anda, (4) Shakat, (5) Brahman, (6) Nandishen, (7) Shaurik, (8) Udumbar, (9) Sahasroddaha Aamarak and (10) Kumar Lichchhivi.
विवेचन-उल्लिखित सूत्र में गिनाए गये अध्ययन दुःखविपाक के हैं, किन्तु इन नामों में और वर्तमान में प्रचलित नामों में निम्न अन्तर है-९ देवदत्ता, १० अंजू।
Elaboration - These chapters are from Duhkha Vipaak. The last two names in modern editions are different—(9) Devadatta and (10) Anju.
355559545555555555555555555555555555555555555548
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११२. उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
आणंदे कामदेवे आ, गाहावतिचूलणीपिता। सुरादेवे चुल्लसतए, गाहावतिकुंडकोलिए॥
सद्दालपुत्ते महासतए, णंदिणीपिया लेइयापिता॥१॥ ११२. उपासकदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे-(१) आनन्द, (२) कामदेव, (३) गृहपति चूलिनीपिता, (४) सुरादेव, (५) चुल्लशतक, (६) गृहपति कुण्डकोलिक, (७) सद्दालपुत्र, 9 (८) महाशतक, (९) नन्दिनीपिता, (१०) लेयिका (सालिही) पिता।
112. There are ten chapters in Upasak Dasha-(1) Anand, (2) Kaam vi Deva, (3) Grihapati Chulinipita, (4) Suradeva, (5) Chullashatak,
(6) Grihapati Kundakolik, (7) Saddalaputra, (8) Mahashatak, (9) Nandinipita and (10) Leyika (Salihi) pita. ११३. अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
णमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव। जमाली य भगाली य, किंकसे चिल्लए ति य॥
फाले अंबडपुत्ते य एमेते दस आहिता॥१॥ ११४. अणुत्तरोववातियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
इसिदासे य धण्णे य, सुणक्खत्ते कातिए ति य। संठाणे सालिभद्दे य, आणंदे तेतली ति य॥
दसण्णभद्दे अतिमुत्ते, एमेते दस आहिया॥१॥ ११३. अन्तकृत्दशा के दस अध्ययन हैं, जैसे-(१) नमि, (२) मातंग, (३) सोमिल, (४) रामगुप्त, (५) सुदर्शन, (६) जमाली, (७) भगाली, (८) किंकष, (९) चिल्वक फाल. (१०) अम्बडपुत्र।
११४. अनुत्तरोपपातिकदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे-(१) ऋषिदास, (२) धन्य, (३) सुनक्षत्र, (४) कार्तिक, (५) संस्थान, (६) शालिभद्र, (७) आनन्द, (८) तेतली, (९) दशार्णभद्र, (१०) अतिमुक्त।
113. There are ten chapters in Antakrit Dasha-(1) Nami; (2) Matang, 卐 (3) Somil, (4) Ramagupta, (5) Sudarshan, (6) Jamali, (7) Bhagali,
(8) Kinkash, (9) Chilvak Phaal and (10) Ambadaputra. ___114. There are ten chapters in Anuttaropapatik Dasha-(1) Rishidas,
(2) Dhanya, (3) Sunakshatra, (4) Kartik, (5) Samsthan, (6) Shalibhadra, \ (7) Anand, (8) Tetali, (9) Dasharnabhadra and (10) Atimukta.
विवेचन-सूत्र ११३-११४ में अन्तकृद्दशा तथा अनुत्तरोपपातिक दशा के नाम और गणना में अन्तर 卐 है। इसका कारण वाचना-भेद हो सकता है। वर्तमान में प्रचलित नाम आदि के लिए मूल सूत्र देखें।
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Sthaananga Sutra (2)
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Elaboration There are variations in the names in Antakrit Dasha and Anuttaropapatik Dasha. This could be due to variant readings of original texts. For present names refer to the available editions.
११५. आयारदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-वीसं असमाहिट्ठाणा, एगवीसं सबला, तेत्तीसं आसायणाओ, अट्ठविहा गणिसंपया, दस चित्तसमाहिट्ठाणा, एगारस उवासगपडिमाओ,
बारस भिक्खुपडिमाओ, पज्जोसवणाकप्पो, तीसं मोहणिज्जट्ठाणा, आजाइट्ठाणं। म ११५. आचारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के दस अध्ययन हैं-(१) बीस असमाधिस्थान, (२) इक्कीस
शबलदोष, (३) तेतीस आशातना, (४) अष्टविध गणिसम्पदा, (५) दस चित्त समाधिस्थान, (६) ग्यारह
उपासकप्रतिमा, (७) बारह भिक्षुप्रतिमा, (८) पर्युषणाकल्प, (९) तीस मोहनीयस्थान, + (१०) आजातिस्थान।
115. There are ten chapters in Achaar Dasha (Dashashrutskandh) (1) Twenty Asamadhisthaan, (2) Twenty one Shabal Dosh, (3) Thirty three Ashatana, (4) Ashtavidh Ganisampada, (5) Ten Chittasamadhi Sthaan, (6) Eleven Upasak Pratima, (7) Twelve Bhikshu Pratima,
(8) Paryushana Kalp, (9) Thirty Mohaniya Sthaan and (10) Ajaitshtaan. म ११६. पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-उवमा, संखा, इसिभासियाई, । आयरियभासियाई, महावीरभासिआई, खोमगपसिणाई, कोमलपसिणाई अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई।।
११६. प्रश्नव्याकरणदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे-(१) उपमा, (२) संख्या, (३) ऋषिभासित, + (४) आचार्यभाषित, (५) महावीरभाषित, (६) क्षौमकप्रश्न, (७) कोमलप्रश्न, (८) आदर्शप्रश्न, ॐ (९) अंगुष्ठप्रश्न, (१०) बाहुप्रश्न।
116. There are ten chapters in Prashnavyakaran Dasha-(1) Upama, (2) Sankhya, (3) Rishibhashit, (4) Acharyabhashit, (5) Mahavir Bhashit,
(6) Kshaumak Prashna, (7) Komal Prashna, (8) Adarsh Prashna, 4 (9) Angushtha Prashna and (10) Bahu Prashna.
विवेचन-प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययनों का वर्णन जो यहाँ दिया है उनका वर्तमान में उपलब्ध ॐ प्रश्नव्याकरण से कुछ भी सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता। सम्भव है कि मूल प्रश्नव्याकरण में नाना विद्याओं 9 और मंत्रों का निरूपण था, अतएव उसका किसी समय विच्छेद हो गया और उसकी स्थानपूर्ति के लिए
नवीन प्रश्नव्याकरण की रचना की गई हो, जिसमें पाँच आस्रवों और पाँच संवरों का विस्तृत वर्णन है। ॐ यह रचना कब किसने की यह प्रश्न विचारणीय है।
Elaboration-The names of ten chapters of Prashnavyakaran mentioned here have no resemblance with the names in the available editions. It is possible that original Prashnavyakaran dealt with a
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दशम स्थान
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variety of special powers and mantras and that became extinct at some
point of time. In order to fill the void a new book with the same name
could have been written where the subject matter is five Asravas and 5 five Samvars. When and by whom this new work was written is a matter 5 of research.
११७. बंधदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
बंधे य मोक्खे य देवड्डि, दसारमंडलेवि य ।
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आयरियविप्पडिवत्ती, उवज्झायविप्पडिवत्ती, भावणा, विमुत्ती, सातो, कम्मे ।
११७. बन्धदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे- (9) बन्ध, (२) मोक्ष, (३) देवर्धि, (४) दशारमण्डल, (५) आचार्य - विप्रतिपत्ति, (६) उपाध्याय - विप्रतिपत्ति, (७) भावना, (८) विमुक्ति, (९) सात, (१०) कर्म ।
117. There are ten chapters in Bandh Dasha-(1) Bandh, (2) Moksha, (3) Devardhi, (4) Dashaar Mandal, (5) Acharya-vipratipatti, 5 (6) Upadhyaya-vipratipatti, (7) Bhaavana, (8) Vimukti, ( 9 ) Saat and 5 (10) Karma.
सुखेत्ते,
११८. दोगेद्धिदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-वाए, विवाए, उववाते,
कसिणे, बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा, बावन्तरि सव्वसुमिणा ।
हारे रामगुत्ते य, एमेते दस आहिता ।
११८. द्विगृद्धिदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे- (१) वाद, (२) विवाद, (३) उपपात, (४) सुक्षेत्र, (५) कृत्स्न, (६) बयालीस स्वप्न, (७) तीस महास्वप्न, (८) बहत्तर सर्वस्वप्न, (९) हार, (१०) रामगुप्त ।
118. There are ten chapters in Dvigriddhi Dasha – ( 1 ) Vaad,
(2) Vivaad, (3) Upapat, (4) Sukshetra, (5) Kritsna, (6) Forty two dreams, (7) Thirty great dreams, (8) Seventy two dreams in total, (9) Haar and (10) Ramagupta.
११९. दीहदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
चंदे सूरे य सुक्के य, सिरिदेवी पभावती । दीवसमुद्दोववत्ती बहूपत्ती मंदरेति य ॥
थेरे संभूतिविजए य, थेरे पम्ह ऊसासणीसासे ॥१ ॥
११९. दीर्घदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे- चन्द्र, (२) सूर्य, (३) शुक्र, (४) श्रीदेवी, (५) प्रभावती, (६) द्वीप - समुद्रोपपत्ति, (७) बहुपुत्री मन्दरा, (८) स्थविर सम्भूतविजय, (९) स्थविर पक्ष्म, (१०) उच्छ्वास - निःश्वास ।
स्थानांगसूत्र ( २ )
(534)
Sthaananga Sutra (2)
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119. There are ten chapters in Deergh Dasha-(1) Chandra, (2) Surya, (3) Shukra, (4) Shridevi, (5) Prabhavati, (6) Dveep-samudrotpatti, (7) Bahuputri Mandara, (8) Sthavir Smbhuavijaya, (9) Sthavir Pakshma and (10) Uchchhavaas-nihshvaas.
१२०. संखेवियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-खुड्डिया विमाणपविभत्ती, महल्लिया ॥ विमाणपविभत्ती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, विवाहचूलिया, अरुणोववाते, वरुणोववाते, गरुलोदवाते, वेलंधरोववाते, वेसमणोववाते।
१२०. संक्षेपिकदशा के दस अध्ययन हैं, जैसे-(१) क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति, (२) महतीविमानप्रविभक्ति, (३) अंगचूलिका (आचार आदि अंगों की चूलिका), (४) वर्गचूलिका (अन्तकृत्दशा की चूलिका), म (५) विवाहचूलिका (व्याख्याप्रज्ञप्ति की चूलिका), (६) अरुणोपपात, (७) वरुणोपपात, (८) गरुडोपपात, (९) वेलंधरोपपात, (१०) वैश्रमणोपपात।
120. There are ten chapters in Sankshepak Dasha—(1) Kshullikavimaan. pravibhakti, (2) Mahativimaan-pravibhakti, (3) Angachulika (Appendix of Angas including Achaaranga), (4) Vargachulika (Appendix of Antakriddasha), (5) Vivahachulika (Appendix of Vyakhyaprajnapti), 45
(6) Arunopapat, (7) Varunopapat, (8) Garudopapat, (9) Velandharopapat and ॐ (10) Vaishramanopapat.
विवेचन-सूत्र ११७-१२० तक में कथित दशाओं के विषय में-बंधदशा-बन्ध एवं मोक्ष आदि को ॐ बतलाने वाली जो दशाएँ हैं, वे बंधदशा कहलाती हैं। वह दशा वर्तमान में अनुपलब्ध है, किन्तु + आचारांगसूत्र के २४वें और २५वें अध्ययन का नाम भावना और विमुक्ति है। उनका स्वरूप और विषय गुरु परम्परा से जानना चाहिए।
द्विगृद्धिदसा-वह दशा भी वर्तमान मे अनुपलब्ध है, किन्तु भगवती सूत्र के १६वें शतक में एक स्वप्न उद्देशक देखा जाता है। उसमें स्वप्नों का विस्तत वर्णन है।
दीर्घदशा-यह दशा भी स्वरूप से अवगत नहीं है। फिर भी इसके कितनेक अध्यय निरयावलिका में देखने को मिलते हैं, जैसे कि-चन्द्र, सूर्य, शुक्र और बहुपुत्रिका। ये चार अध्ययन पुष्पिता नामक सूत्र के ॐ तीसरे वर्ग में हैं। श्रीदेवी नाम का अध्ययन पुष्पचूलिका नामक चौथे वर्ग में है। शेष अध्ययन कहीं पर
भी उपलब्ध नहीं है। + संक्षेपिक दशा-यह दशा भी वर्तमान में अनुपलब्ध है, फिर भी नन्दीसूत्र के टीकाकार आचार्य
मलयगिरि ने इस विषय में कुछ वर्णन किया है जैसे-क्षुल्लिका विमान-प्रविभक्ति में आवलिका-प्रविष्ट ॐ विमानों तथा पुष्पावकीर्ण लघु विमानों का वर्णन है। महती विमान-प्रविभक्ति में आवलिका प्रविष्ट बड़े 卐 विमानों का वर्णन है। अंग सूत्रों पर जो चूलिकाएँ हैं, उनका वर्णन जिस अंग में है, वह अंगचूलिका
कहलाता है, जैसेकि आचारांगचूलिका इत्यादि। जिसमें वर्गों का वर्णन हो, उसे वर्गचूलिका कहते हैं, जैसे कि ज्ञाता धर्मकथा के दूसरे श्रुतस्कन्ध में वर्ग हैं। अध्ययनों के समूह को वर्ग कहते हैं। व्याख्याचूलिका
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अरुणोपपात में अरुण नामक देव के उपपात का वर्णन है। जब कोई साधु इस सूत्र का अध्ययन + उपयोग पूर्वक परावर्तन करता है, अरुण देव उसके समझ उपस्थित हो जाता है।
. नन्दीचूर्णि में एक प्रसंग है-एक बार एक श्रमण अरुणोपपात ग्रन्थ का परावर्तन कर रहा था। उस 卐 समय अरुणदेव का आसन चलित हुआ। उसने अवधिज्ञान से देखा और शीघ्र अपने दिव्य ऐश्वर्य के
साथ मुनि के समक्ष प्रकट हुआ। वन्दना कर, हाथ जोड़कर भूमि से ऊपर अधर में बैठ गया और ग्रन्थ 1 का स्वाध्याय सुनते-सुनते उसका मन वैराग्य से भर गया। ग्रन्थ का स्वाध्याय समाप्त होने पर उसने में 卐 मुनि से कहा-भगवन् ! आपने बहुत अच्छा स्वाध्याय किया। आप कुछ वर माँगे। मुनि ने कहा-मुझे वर के
की कोई जरूरत नहीं ! यह सुनकर वह मुनि को वन्दना कर स्वस्थान पर लौट गया। इसी प्रकार ॐ वरुणोपपात, गरुलोपपात, बेलंधरोपपात और वैश्रवणोपपात के विषय में जानना चाहिए। (नन्दी वृत्ति म पत्र २०६। स्थानांग वृत्ति ४८६। हिन्दी टीका, पृष्ठ ८२३) ___Elaboration about Dashas listed in aphorisms 117-120)
Bandha Dasha--The scripture that deals with bondage and liberation is called Bandha Dasha. This scripture is not available now. However there are two chapters in Acharanga Sutra that deal with these topics--Bhaavana (24th) and Vimukti (25th). They should be interpreted and understood according to the guru lineage.
Dvigriddhi Dasha-This scripture is also not available now. However, in Bhagavati Sutra (16th Shatak) there is a chapter named Svapna that has detailed discussion about dreams.
Deergh Dasha-This scripture is also not available in its original form. However, Some of its chapters can be seen in Niryavalika. For example-Chandra, Surya, Shukra and Bahuputrika, these four
chapters are in the third section named Pushpita and the chapter titled 4 Shridevi is in the fourth section named Pushpachulika. Remaining 41 chapters are not available.
Sankshepak Dasha—This is also an extinct scripture. However, Acharya Malayagiri, the commentator (Tika), has provided some \ information in this regard-Kshullikavimaan-pravibhakti contains
description about Avalika-pravisht vimaans (a kind of miniature vimaan) and other small vimaans covered with flowers. Mahativimaanpravibhakti contains description of larger vimaans. Angachulika contains details about appendices of Angas including those of Achaaranga. Vargachulika contains details about vargas (sections or
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group of chapters). For example the second Shrut Skandh of Jnata Dharma-katha has sections. Vivahachulika is the appendix of Vyakhyaprajnapti. Only an ascetic with a minimum ascetic life of eleven years is qualified to study these five chapters. (Vyavahar Bhashya 10/26) Arunopapat contains the description of instantaneous birth of Arun Deva. When some ascetic studies it with devotion Arun Deva appears before him.
There is an incident narrated in Nandi Churni-Once a Shraman was studying the book Arunopapat reading aloud. At that time the throne of Arun Deva trembled. The god used his avadhi-jnana and saw the engrossed Shraman. The god appeared before the ascetic without any delay and after paying homage sat with joined palms slightly above the ground in the space. He continued to listen with rapt attention and while doing so he got overwhelmed with a feeling of detachment. When the reading was concluded the god said to the ascetic-Bhagavan ! It was a nice reading. Please seek some boon. The ascetic replied-I have no need for boons. At this the god paid homage to the ascetic and returned to his place. The same should be repeated for Varunopapat, Garudopapat, Velandharopapat and Vaishramanopapat. (Nandi Vritti, leaf 206; Sthananga Vritti, p. 486 and Hindi Tika, p. 823)
- KAAL-CHAKRA-PAD (SEGMENT OF TIME CYCLE) १२१. दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणीए । १२२. दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणीए । १२१. अवसर्पिणी का काल दस कोडाकोडी सागरोपम है।
१२२. उत्सर्पिणी का काल दश कोडाकोडी सागरोपम है।
121. Avasarpini kaal (regressive half cycle) is ten Kodakodi Sagaropam long.
122. Utsarpini kaal (progressive half cycle) is ten Kodakodi Sagaropam long.
अनन्तर- परम्पर- पद ANANTAR-PARAMPAR-PAD
१२३. दसविधा णेरइया पण्णत्ता, तं जहा - अणंतरोववण्णा, परंपरोववण्णा, अनंतरावगाढा, परंपरावगाढा, अणंतराहारगा, परंपराहारगा, अणंतरपज्जत्ता, परंपरपज्जत्ता, चरिमा, अचरिमा । एवं - णिरंतरं जाव वेमाणिया ।
दशम स्थान
(SEGMENT OF ANANTAR-PARAMPAR)
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Tenth Sthaan
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१२३. नारक दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) अनन्तर-उपपन्न-जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय ही हुआ ! 卐 है। (२) परम्पर उपपन्न-जिन्हें उत्पन्न हुए दो तीन आदि अनेक समय बीत चुके हैं। (३) अनन्तर-: + अवगाढ-विवक्षित क्षेत्र से संलग्न आकाश-प्रदेश में अवस्थित। (४) परम्पर-अवगाढ-विवक्षित क्षेत्र से । ॐ व्यवधान वाले आकाश-प्रदेश में अवस्थित। (५) अनन्तर-आहारक-उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ! ॐ ग्रहण करने वाले। (६) परम्पर-आहारक-दो आदि समयों के पश्चात् आहार ग्रहण करने वाले।।
(७) अनन्तर-पर्याप्त-जिनके पर्याप्त होने में एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ा। (८) परम्पर-पर्याप्तॐ दो-तीन आदि समयों के पश्चात् पर्याप्त होने वाले। (९) चरम-अन्तिम बार नरकगति में उत्पन्न होने ५ 卐 वाले। (१०) अचरम-जो आगे भी नरकगति में पुनः उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों में जीवों के दस-दस प्रकार है।
123. Naarak (infernal beings) are of ten kinds——(1) Anantarupapanna-those who have passed just one Samaya after birth. (2) Parampar-upapanna-those who have passed two, three or more Samayas after birth. (3) Anantar-avagadh-existing in the space-point adjacent to the point of reference. (4) Parampar-avagadh-existing in a space-point distant from the point of reference. (5) Anantar-aharak-those who have food intake during the first Samaya after birth. (6) Paramparaharak-those who have food intake after the first two Samayas of birth. (7) Anantar-paryapt-those who attain full development instantaneously without a lapse of even one Samaya. (8) Parampar-paryaptattain full development after a lapse of two, three or more Samayas. (9) Charam-those who are born in hell for the last time. (10) Acharamthose who will be born in hell in future as well. नरक-पद NARAK-PAD (SEGMENT OF HELL)
१२४. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए दस णिरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता। __१२४. चौथी पंकप्रभा पृथिवी में दस लाख नारकावास हैं।
124. In Pankaprabha Prithvi, the fourth hell, there are ten lac (one million) infernal abodes. Perfa-6 STHITI-PAD (SEGMENT OF LIFE SPAN)
१२५. रयणप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। १२६. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। १२७. पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता।।
१२८. असुरकुमाराणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। एवं जाव थणियकुमाराणं। | स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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१२५. रत्नप्रभा पृथिवी में नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है।
१२६. चौथी पंकप्रभा पृथिवी में नारकों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम कही गई है। १२७. पाँचवीं धूमप्रभा पृथिवी में नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम की है।
१२८. असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। इसी प्रकार स्तनितकुमार तक के सभी भवनवासी देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है।
125. The jaghanya sthiti (minimum life span) of infernal beings of Ratnaprabha prithvi (first hell) is ten thousand years.
126. The utkrisht sthiti (maximum life span) of infernal beings of Pankaprabha prithvi (fourth hell) is ten Sagaropam (a conceptual unit of time)
127. The jaghanya sthiti (minimum life span) of infernal beings of 5 Dhoom-prabha prithvi (fifth hell) is ten Sagaropam.
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128. The jaghanya sthiti (minimum life span) of Asur Kumar gods is ten thousand years. In the same way the minimum life span of all abode dwelling gods up to Stanit Kumar gods is ten thousand years.
१२९. बायरवणस्सतिकाइयाणं उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता । १३०. वाणमंतराणं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता ।
१३१. बंभलोगे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । १३२. लंतए कप्पे देवाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ।
१२९. बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की है। १३०. वानव्यन्तर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। १३१. ब्रह्मलोककल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है।
१३२. लान्तक कल्प में देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम की है।
129. The utkrisht sthiti (maximum life span) of badar vanaspatikayik jivas (gross plant-bodied beings) is ten thousand years.
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132. The jaghanya sthiti (minimum life span) of gods in Lantak Kalp is ten Sagaropam (a conceptual unit of time).
दशम स्थान
130. The jaghanya sthiti (minimum life span) of Vanavyantar gods is ten thousand years.
131. The utkrisht sthiti (maximum life span) of gods in Brahmalok फ्र Kalp is ten Sagaropam (a conceptual unit of time)
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१३३. दसहिं ठाणेहिं जीवा आगमेसिभद्दत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-अणिदाणताए, ॐ दिट्ठिसंपण्णताए, जोगवाहिताए, खंतिखमणताए, जितिंदियताए, अमाइल्लताए, अपासत्थताए, सुसामण्णताए, पवयणवच्छल्लताए, पवयणउब्भावणताए।
१३३. दस कारणों से जीव आगामी भद्रता (आगामीभव में सुख देने वाले कर्म। जो जीव को देवत्व की प्राप्ति और तदनन्तर मनुष्य भव पाकर मुक्ति-प्राप्ति) के योग्य शुभ कर्म का उपार्जन करते हैं।
(१) निदान नहीं करने से-तप के फल से सांसारिक सुखों की कामना न करने से। (२) दृष्टिसम्पन्नता से-सम्यग्दर्शन की सांगोपांग आराधना से।
(३) योगवाहिता से-मन, वचन, काय की समाधि रखने से तथा स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा आदि में योगवाहिता से।
(४) क्षान्ति-क्षमणता से-समर्थ व शान्तिसम्पन्न होकर के भी अपराधी को क्षमा करने एवं क्षमा धारण करने की भावना से।
(५) जितेन्द्रियता से-पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जीतने से। (६) ऋजुता से-मन, वचन, काय की सरलता से। (७) अपार्श्वस्थता से-चारित्र पालन में शिथिलता न रखने से। (८) सुश्रामण्य से-श्रमण धर्म का यथाविधि पालन करने से। (९) प्रवचनवत्सलता से-जिन-आगम जिन प्रवचन और जिन शासन के प्रति गाढ अनुराग रखने से। (१०) प्रवचन-उद्भावनता से-आगम और शासन की प्रभावना व गुणोत्कीर्तन करने से।
133. For ten reasons jiva (soul) acquires pious karmas leading to future nobility (the karmas that bring bliss in future reincarnation. This relates to the souls that reincarnate as gods and then as humans to get liberated)
(1) By anidaan-by not having aspirations of mundane pleasures as fruits of austerities.
(2) By drishtisampannata—by perfect endeavour for gaining and practicing right perception/faith.
(3) By yogavahita—by achieving perfect equanimity of mind, speech and action and sincere indulgence in studies, meditation and other such spiritual practices.
(4) By kshantikshamanata-by having a forgiving attitude and forgiving a miscreant in spite of having authority and power to punish.
स्थानांगसूत्र (२)
(540)
Sthaananga Sutra (2)
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(5) By jitendriyata—by winning over or having absolute control over 4 pleasures of sense organs.
(6) By rijuta—by simplicity of mind, speech and action.
(7) By aparshvasthata-by avoiding relaxation in observing code of 4 _conduct.
(8) By Sushramanya—by immaculately following ascetic duties.
(9) By pravachan-vatsalata-by having profound love and faith in Jina-agam (Jain scriptures) Jina-pravachan (word of the Jina) and Jina-shasan (order of the Jina).
(10) By pravachan-udbhaavana-by spreading Jain canon and influence of the Jina and singing in its praise. आशंसा-प्रयोग-पद ASHAMSA-PRAYOGA-PAD (SEGMENT OF HAVING DESIRES)
१३४. दसविहे आसंसप्पओगे पण्णत्ते, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, दुहओलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामासंसप्पओगे, भोगासंसप्पओगे,' लाभासंसप्पओगे, पूयासंसप्पओगे, सक्कारासंसप्पओगे।
१३४. आशंसा प्रयोग (इच्छा-का प्रयोग) दस प्रकार का है, जैसे-(१) इहलोकाशंसा-प्रयोग-इस लोक-सम्बन्धी सुख-भोग की इच्छा करना। (२) परलोकाशंसा-प्रयोग-परलोक सम्बन्धी सुख-भोग की ऊ इच्छा करना। (३) द्वयलोकाशंसा-प्रयोग-दोनों लोक-सम्बन्धी इच्छा करना। (४) जीविताशंसा-प्रयोग
चिरकाल तक जीवित रहने की इच्छा करना। (५) मरणाशंसा-प्रयोग-संकट आदि आने पर मरने की की इच्छा करना। (६) कामाशंसा-प्रयोग-काम (शब्द और रूप) की इच्छा करना। (८) लाभाशंसा-प्रयोग
धन, सत्ता आदि लौकिक लाभों की इच्छा करना। (९) पूजाशंसा-प्रयोग-पूजा, ख्याति और प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा करना। (१०) सत्काराशंसा-प्रयोग-दूसरों से सत्कार पाने की इच्छा करना।
134. Ashamsa-prayoga (to wish) is of ten kinds--(1) Ihalokashamsaprayoga--to wish for happiness in this life. (2) Paralokashamsaprayoga-to wish for happiness in next life. (3) Dvayalokashamsaprayoga-to wish for happiness in both worlds. (4) Jivitashamsaprayoga-to wish for immortality. (5) Maranashamsa-prayoga-to wish for death when tormented. (6) Kaamashamsa-prayoga--to wish for physical gratification (sound and beauty). (7) Bhogashamsa-prayoga-to wish for physical gratification (smell, taste and touch). (8) Labhashamsaprayoga-to wish for mundane gains like wealth and power. (9) Pujashamsa-prayoga-to wish for worship, fame and praise. (10) Satkarashamsa-prayoga--to wish for being honoured and respected by others.
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दशम स्थान
(541)
Tenth Sthaan
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ॐ धर्म-पद DHARMA-PAD (SEGMENT OF DHARMA)
१३५. दसविधे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा-गामधम्मे, णगरधम्मे, रट्ठधम्मे, पासंडधम्मे, कुलधम्मे, ॐ गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, अत्थिकायधम्मे।
१३५. धर्म दस प्रकार का है, जैसे-(१) ग्रामधर्म-गाँव की परम्परा या व्यवस्था का पालन करना। + (२) नगरधर्म-नगर की परम्परा या व्यवस्था का पालन करना। (३) राष्ट्रधर्म-राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य का
पालन करना। (४) पाषण्डधर्म-पापों का खण्डन करने वाला आचार अथवा सम्प्रदायों का धार्मिक
क्रियाकाण्ड। (५) कुलधर्म-कुल के परम्परागत आचार का पालन करना। (६) गणधर्म-गणतंत्र राज्यों 卐 की परम्परा या व्यवस्था का पालन करना। (७) संघधर्म-संघ की समाचारी, मर्यादा और व्यवस्था का
पालन करना। (८) श्रुतधर्म-द्वादशांग श्रुत की आराधना या अभ्यास करना। (९) चारित्रधर्म-श्रमण धर्म + व १७ प्रकार के संयम की आराधना करना, चारित्र का पालन। (१०) अस्तिकायधर्म-अस्तिकाय अर्थात् बहुप्रदेशी द्रव्यों का धर्म (स्वभाव)।
135. Dharma (duty or religion) are of ten kinds—(1) Gram-dharma (village duty)--to follow the village traditions customs and codes. (2) Nagar-dharma (city duty)--to follow the village traditions customs and codes. (3) Rashtra-dharma (national duty)—to follow national
duties. (4) Pakhand-dharma (heretic religion)-to follow conduct that 45 does not defy sins, also to observe hollow rituals of heretic sects.! 4. (5) Kula-dharma (family duty)—to follow family traditions and codes.
(6) Gana-dharma (republic duty)-to follow the customs and codes of republic system. (7) Sangh-dharma (duty of religious organization) to follow praxis, discipline and codes of the religious organization. ! (8) Shrut-dharma--to study and worship the twelve limbed Jain canon. (9) Chaaritra dharma-to practice and follow Jain religion and 17 kinds of ascetic-discipline; to practice ascetic conduct. (10) Astikaya-dharmathe properties of Astikaya or agglomerative entities.
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र की भावना को समझाने के लिए आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने प्रारम्भ में धर्म की छह परिभाषाएँ दी हैं-(१) धर्म-वस्तु का अपना स्वभाव, (२) जाति, वर्ण, समुदाय आदि से के सम्बन्धित कर्त्तव्य व कार्य व्यवहार, (३) समाज की सुरक्षा व शान्ति के लिए निश्चित किया आचरण व
वृत्ति। (४) देश व राष्ट्र से सम्बन्धित व्यवहार, (५) उचित-अनुचित का विचार करने वाला, सम्यक् ॐ विवेक। (६) ईश्वर तथा परलोक आदि से सम्बन्धित विश्वास तथा आराधना की विधि। धर्म के इन के सभी अर्थों के परिप्रेक्ष्य में सूत्रोक्त दस धर्म को समझना चाहिए। 5 Elaboration In order to elaborate the sentiment of this aphorism
Acharya Shri Atmamarm ji M. has mentioned six meanings of the term + dharmd-(1) the intrinsic nature of a thing; (2) the duties and code of
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| स्थानांगसूत्र (२) ... ......
6542)
Sthaananga Sutra (2) 8555555555555555555555555555555555555
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conduct related to caste, creed, sect or other social group; (3) the codes
and duties defined for security and peace in society; (4) national duties; 4
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5 (5) sagacity to discern right and wrong; (6) belief and method of worship 5 of god, next life etc. The aforesaid ten kinds of dharmas should be seen in context of all these six meanings.
स्थविर - पद STHAVIR PAD (SEGMENT OF SENIOR PERSON)
१३६. दस थेरा पण्णत्ता, तं जहा - गामथेरा, नगरथेरा, रटुथेरा, पसत्थथेरा, कुलथेरा, गणथेरा, संघथेरा, जातिथेरा, सुअथेरा, परियायथेरा ।
दशम स्थान
१३६. स्थविर (ज्येष्ठ या वृद्ध ज्ञानी पुरुष ) दस प्रकार के हैं, जैसे - ( 9 ) ग्राम - स्थविर - ग्रामका व्यवस्थापक, ज्येष्ठ, वृद्ध और बुद्धिमान् पुरुष । ( २ ) नगर - स्थविर - नगर का व्यवस्थापक, ज्येष्ठ, वृद्ध और ज्ञानी पुरुष । ( ३ ) राष्ट्र - स्थविर - राष्ट्र का व्यवस्थापक, ज्येष्ठ, वृद्ध और ज्ञानी पुरुष |
(४) प्रशास्तृ - स्थविर - प्रशासन करने वाला प्रधान अधिकारी अथवा धर्मोपदेशक । (५) कुल - स्थविर - लौकिक पक्ष में कुल का ज्येष्ठ या वृद्ध पुरुष । लोकोत्तर पक्ष में एक आचार्य की शिष्य परम्परा में ज्येष्ठ क साधु । (६) गण - स्थविर - लौकिक पक्ष में गणराज्य का प्रधान पुरुष । लोकोत्तर पक्ष में साधुओं के गण में
ज्येष्ठ साधु । (७) संघ- स्थविर - लौकिक पक्ष में राज्य संघ का प्रधान पुरुष । लोकोत्तर पक्ष साधु संघ
का ज्येष्ठ साधु । (८) जाति - स्थविर - साठ वर्ष या इससे अधिक आयु वाला वृद्ध । (९) श्रुत - स्थविर - स्थानांग और समन्गयांग श्रुत का धारक । (१०) पर्याय - स्थविर - बीस वर्ष की या इससे अधिक की दीक्षा पर्याय वाला साधु ।
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136. Sthavir ( senior or experienced person) are of ten kinds-- 5 (1) Gram-sthavir ( village elder ) — the senior, elderly and wise leader of a village. (2) Nagar-sthavir (city elder ) — the senior, elderly and wise leader of a city. (3) Rashtra- sthavir (senior national leader)—the senior, elderly and wise leader of a country. (4) Prashastri - sthavir (senior administrator)-chief administrative officer or religious preacher. (5) Kula-sthavir (family senior)-the senior most or eldest person in personal family or in a family or group of ascetics. (6) Gana-sthavir (leader of a gana)-the senior most or eldest person in republic (gana) or in a group (gana) of ascetics (7) Sangh- sthavir (leader of a sangh)—the senior most or eldest person in a federal republic (sangh) or in a group (sangh) of ascetics. (8) Jati-sthavir (elderly)-an old man of 60 or more years of age. (9) Shrut- sthavir — a scholar of Sthananga and Samvayanga Shrut. (10) Paryaya-sthavir-an ascetic with twenty years or more of period of initiation.
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Tenth Sthaan
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पुत्र- पद PUTRA-PAD (SEGMENT OF SON)
१३७. दस पुत्ता पण्णत्ता, तं जहा - अत्तए, खेत्तए, दिण्णए, विण्णए, उरसे, मोहरे, सोंडीरे, संबुडे, उवयाइले, धम्मंतेवासी ।
१३७. पुत्र दस प्रकार के हैं, जैसे - ( १ ) आत्मज - अपने पिता से उत्पन्न पुत्र । (२) क्षेत्रज - नियोगविधि से उत्पन्न पुत्र । (३) दत्तक-गोद लिया हुआ पुत्र । (४) विज्ञक - विद्या दान करने वाले गुरु का शिष्य । (५) औरस - स्नेहवश स्वीकार किया पुत्र अथवा विवाहिता पत्नी से उत्पन्न । ( ६ ) मौखर - अपनी वचन- कुशलता या चापलूसी के कारण पुत्र रूप से स्वीकृत । (७) शौण्डीर - शूरवीरता के कारण अपने अधीन किये व्यक्ति पुत्र रूप से स्वीकृत । (८) संवर्धित - पालन-पोषण किया गया अनाथ पुत्र । ( ९ ) औपयाचितक - देवता की आराधना से उत्पन्न पुत्र या प्रिय सेवक। (१०) धर्मान्तेवासी - धर्माराधन के ! लिए समीप रहने वाला शिष्य ।
137. Putra (sons) are of ten kinds-(1) Atmaj-father's son (own son). ! (2) Kshetraj-son by niyoga process (consented conception by wife from other person or artificial insemination). (3) Dattak - adopted son. (4) Vijnak-son-like student of a teacher. (5) Auras-accepted as son out of love; also a son by married wife. (6) Maukhar-accepted as son due to flattery or glib talking. (7) Shaundir-a conquered person accepted as a 5 son due to his bravery. ( 8 ) Samvardhit-an orphan raised as son. H (9) Aupayachitak—son or beloved servant bestowed by some deity. (10) Dharmantevasi-a disciple living with a guru for religious practices.
अणुत्तर - पद ANUTTAR-PAD (SEGMENT OF MATCHLESS THINGS)
१३८. केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पण्णत्ता, तं जहा - अणुत्तरे णाणे, अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरिते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिए, अणुत्तरा खंती, अणुत्तरा मुत्ती, अणुत्तरे अज्जवे, अणुत्तरे मद्दवे, अणुत्तरे लाघवे ।
१३८. केवली के दस ( अनुपम या सबसे उत्तम) हैं, जैसे- (१) अनुत्तर ज्ञान, (२) अनुत्तर दर्शन, (३) अनुत्तर चारित्र, (४) अनुत्तर तप, (५) अनुत्तर वीर्य (आत्म शक्ति), (६) अनुत्तर क्षान्ति, (७) अनुत्तर मुक्ति, (८) अनुत्तर आर्जव, (९) अनुत्तर मार्दव, (१०) अनुत्तर लाघव ।
138. A Kevali has ten anuttar (matchless) things - ( 1 ) anuttar jnana (matchless knowledge ), ( 2 ) anuttar darshan (matchless perception ), (3) anuttar chaaritra (matchless conduct ), (4) anuttar tap (matchless austerities); (5) anuttar virya (matchless spiritual potency), (6) anuttar kshanti (matchless forgiveness ), (7) anuttar mukti (matchless contentment), (8) anuttar arjava (matchless spiritual purity), (9) anuttar maardava (matchless gentleness), and (10) anuttar laghava (matchless modesty).
स्थानांगसूत्र (२)
(544)
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Sthaananga Sutra (2)
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कुरा- पद KURA PAD (SEGMENT OF KURA )
१३९. समयखेत्ते णं दस कुराओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पंच देवकुराओ पंच उत्तरकुराओ ।
तत्थ णं दस महतिमहालया महादुमा पण्णत्ता, तं जहा - जम्बू सुदंसणा, धायइरुक्खे, महाधायइरुक्खे, पउमरुक्खे, महापउमरुक्खे, पंच कूडसामलीओ ।
तत्थ णं दस देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, तं जहा - अणाढिते जंबुद्दीवाधिपती, सुदंसणे, पियदंसणे, पोंडरीए, महापोंडरीए, पंच गरुला वेणुदेवा ।
१३९. समयक्षेत्र (मनुष्यलोक) में दस कुरा हैं, जैसे- पाँच देवकुरा, पाँच उत्तरकुरा । (जम्बूद्वीप में १-१, धातकीषण्ड में २-२ पुष्करार्द्ध द्वीप में २-२ यों पाँच देव कुरु, पाँच उत्तर कुरु)
वहाँ दस महातिमहान् दस महाद्रुम हैं, जैसे- (१) (उत्तर कुरु में) जम्बू सुदर्शन वृक्ष, (२) धातकी वृक्ष, (३) महाधातकी वृक्ष, (४) पद्म वृक्ष, (५) महापद्म ये पाँच महावृक्ष हैं तथा देव कुरु में पाँच कूटशाल्मली महा वृक्ष हैं ।
वहाँ महर्धिक, महाद्युतिसम्पन्न, महानुभाग, महायशस्वी, महाबली और महासुखी तथा एक पल्योपम की स्थिति वाले दस देव रहते हैं, जैसे- (१) जम्बूद्वीपाधिपति अनादृत, (२) सुदर्शन, (३) प्रियदर्शन, 5 (४) पौण्डरीक, (५) महापौण्डरीक । तथा पाँच गरुड़ वेणुदेव (पाँच कूट शाल्मली वृक्षों पर निवास करते हैं) ।
139. In the Samaya kshetra (area inhabited by humans) there are ten 5 Kuras (specific section of land)-five Devakuras and five Uttar-kuras (one each in Jambudveep, two each in Dhatakikhand and two each in Pushkarardh Dveep; thus there are five Devakuras and five Uttar-kuras).
There are ten best among the best mahadrums (great trees) there—(in Uttar- kuru) (1) Jambu Sudarshan tree, (2) Dhataki tree, (3) Mahadhataki tree, ( 4 ) Padma tree, ( 5 ) Mahapadma tree and in Devakur there are five Koot-shalmali great trees.
On these trees reside ten gods having great wealth, great radiance, great
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दुःषमा - लक्षण - पद DUKHAMA LAKSHAN PAD (SEGMENT OF SIGNS OF DUKHAMA )
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Is power, great fame, great strength, great happiness and life span of one 5 Palyopam (a metaphoric unit of time)-(1) Jambudveepadhipati Anadrit Dev, (2) Sudarshan, (3) Priyadarshan, (4) Paundareek, (5) Mahapaundareek, 5 and five Garud Venu Devas on five Koot-shalmali trees.
१४०. दसहिं ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेज्जा, तं जहा - अकाले वरिसइ, असाहू पूइज्जति,
साहू ण पूइज्जति, गुरुसु जणो मिच्छं पडिवण्णो, अमणुण्णा सद्दा, (अणुण्णा रुवा, अमणुण्णा गंधा, अण्णा रसा, अमणुण्णा) फासा ।
दशम स्थान
(545)
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Tenth Sthaan
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卐 १४०. दस निमित्तों से विषम दुःषमा-काल का आगमन जाना जाता है, जैसे-(१) अकाल में वर्षा !
होने से, (२) समय पर वर्षा न होने से, (३) असाधुओं की पूजा होने से, (४) साधुओं की पूजा न होने । 卐 से, (५) गुरुजनों के प्रति मनुष्यों का मिथ्या या असद् व्यवहार होने से, (६) अमनोज्ञ शब्दों, ! म (७) अमनोज्ञ रूपों, (८) अमनोज्ञ गन्धों के, (९) अमनोज्ञ रसों के और (१०) अमनोज्ञ स्पर्शों के हो । जाने से। (अमनोज्ञ शब्द से भयावह, अनिष्ट कारक, दूषित, रोग वर्धक आदि भाव समझना चाहिए।
140. There are ten signs that indicate the coming of Dukham kaal (epoch of sorrow)-(1) untimely rains, (2) absence of rains during monsoon season, (3) worship of the impious, (4) avoidance of worship of 5 the pious, (5) misbehaviour with seniors, (6) amanojna shabd (repulsive 4 and hurting words), (7) amanojna rupa (repulsive and hurting scenes or visions), (8) amanojna gandh (repulsive and hurting smells), (9) amanojna rasa (repulsive and hurting tastes) and (10) amanojna sparsh (repulsive and hurting touch). (amanojna includes fearful, harmful, polluted, contaminated etc.) सुषमा-लक्षण-पद SUKHAMA-LAKSHAN-PAD (SEGMENT OF SIGNS OF SUKHAMA)
१४१. दसहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तं जहा-अकाले ण वरिसति, (काले वरिसति, असाहू ण पूइज्जंति, साहू पुइज्जंति, गुरुसु जणो सम्म पडिवण्णो, मणुण्णा सद्दा, मणुण्णा रूवा, मणुण्णा गंधा, मणुण्णा रसा), मणुण्णा फासा।
१४१. दस निमित्तों से सुषमा काल की अवस्थिति जानी जाती है, जैसे-(१) अकाल में वर्षा न । + होने से, (२) समय पर वर्षा होने से, (३) असाधुओं की पूजा नहीं होने से, (४) साधुओं की पूजा होने में
से, (५) गुरुजनों के प्रति मनुष्य का सद्व्यवहार होने से, (६) मनोज्ञ शब्दों के, (७) मनोज्ञ रूपों के, 卐 (८) मनोज्ञ गन्धों के, (९) मनोज्ञ रसों के, (१०) मनोज्ञ स्पर्शों के होने से। ___141. There are ten signs that indicate the coming of Sukham kaal (epoch of happiness)-(1) absence of untimely rains. (2) timely rai (3) avoidance of worship of the impious, (4) worship of the pious, (5) good behaviour with seniors, (6) manojna shabd (attractive and beneficent words), (7) manojna rupa (attractive and beneficent scenes or visions), (8) manojna gandh (attractive and beneficent smells), (9) manojna rasa (attractive and beneficent tastes) and (10) manojna sparsh (attractive and beneficent touch).
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कल्प-वृक्ष-पद KALPAVRIKSHA-PAD (SEGMENT OF WISH FULFILLING TREE)
१४२. सुसमसुसमाए णं समाए दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, तं जहा| स्थानांगसूत्र (२)
Sthaananga Sutra (2)
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मतंगया य भिंगा, तुडितंगा दीव जोति चित्तंगा।
चित्तरसा मणियंगा, गेहागारा अणियणा य॥१॥ (संग्रहणी-गाथा) १४२. सुषम-सुषमा काल में दस प्रकार के वृक्ष उपभोग के लिए सुलभता से प्राप्त होते हैं, जैसेॐ (१) मदाग-शरीर के लिए पौष्टिक रस देने वाले। (२) भृग-भोजन के लिए आवश्यक पात्र आदि के
देने वाले। (३) त्रुटितांग-मनोरंजन के लिए वादित्रध्वनि उत्पन्न करने वाले। (४) दीपांग-प्रकाश करने के
वाले। (५) ज्योतिरंग-सूर्य के समान उष्णता उत्पन्न करने वाले। (६) चित्रांग-अनेक प्रकार की ॐ माला-पुष्प उत्पन्न करने वाले। (७) चित्ररस-अनेक प्रकार के मनोज्ञ रस देने वाले। (८) मणि-अंग- + आभरण प्रदान करने वाले। (९) गेहाकार-आश्रय के लिए घर के आकार वाले। (१०) अनग्न-नग्नता * को ढाकने वाले। (विशेष वर्णन जीवाभिगम तृतीय प्रतिपत्ती)
142. During the Sukham-sukhama kaal (period of extreme happiness) ten kinds of kalp-vriksha (wish fulfilling trees) were easily available for subsistence-(1) Madaanga-providing nutritious juice, (2) Bhringproviding pots (etc.) for food, (3) Trutitang-producing instrumental music for entertainment, (4) Dipang-producing light, (5) Jyotirangproducing heat (like the sun), (6) Chitrang-providing a variety of flowers and garlands, (7) Chitrarasa-providing a variety of tasty juices, (8) Mani-ang-providing ornaments, (9) Gehakar--house-shaped, used as abodes, (10) Anagnak--used for covering nudity (providing dress). (more details available in Jivabhigam, third Pratipatti). कुलकर-पद KULAKAR-PAD (SEGMENT OF CLAN FOUNDERS) १४३. जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे तीताए उस्सप्पिणीए दस कुलगरा हुत्था, तं जहा
सयंजले सयाऊ य, अणंतसेणे व अजितसेणे य। कक्कसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे य सत्तमे॥१॥
दढरहे दसरहे, सयरहे। (संग्रहणी गाथा) १४४. जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगामीसाए उस्सप्पिणी दस कुलगरा भविस्संति, तं जहा+ सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहणे, संमती, पडिसुते, दढधणू, दसधणू, सतधणू। म १४३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, अतीत उत्सर्पिणी में दस कुलकर उत्पन्न हुए
थे, जैसे-(१) स्वयंजल (शतजल), (२) शतायु, (३) अनन्तसेन, (४) अजितसेन, (५) कर्कसेन, ॐ (६) भीमसेन, (७) महाभीमसेन, (८) दृढ़रथ, (९) दशरथ, (१०) शतरथ।
१४४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, आगामी उत्सर्पिणी में दस कुलकर होंगे, जैसेॐ (१) सीमंकर, (२) सीमन्धर, (३) क्षेमकर, (४) क्षेमन्धर, (५) विमलवाहन, (६) सन्मति, 9 (७) प्रतिश्रुत, (८) दृढधनु, (९) दशधनु, (१०) शतधनु।
दशम स्थान
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Tenth Sthaan
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143. In Jambu Dveep in Bharat - varsh there have been seven y kulakars (clan founders or society makers) during the past Utsarpini y (progressive cycle of time).-(1) Svayamjal (Shatajal), (2) Shatayu, Y फ्र (3) Anantasen, (4) Ajitasen, (5) Karkasen, (6) Bhimasen, 4 (7) Mahabhimasen, (8) Dridharath, (9) Dasharath and (10) Shatarath. 144. In Jambu Dveep in Bharat-varsh there will be seven kulakars y (clan founders or society makers) during the coming Utsarpini y (progressive cycle of time ) . - ( 1 ) Simankar, (2) Simandhar, Y
Y
5 (3) Kshemankar, (4) Kshemandhar, (5) Vimalavahan, (6) Sanmati, (7) Pratishrut, (8) Gridhadhanu, ( 9 ) Dashadhanu and (10) Shatadhanu. विवेचन - 'कुलकर' का अर्थ है, विशिष्ट बुद्धि सम्पन्न, कुल व्यवस्थापक पुरुष । वैदिक परम्परा में इन्हें 'मनु' कहा गया है। वर्तमान अवसर्पिणी काल का यहाँ उल्लेख नहीं है। कारण, कहीं सात व कहीं पन्द्रह कुलकरों का उल्लेख होने से यहाँ उसका कथन नहीं किया है।
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१४५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं सीताए महाणईए उभओकूले दस
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5 वक्खारपव्यता पण्णत्ता, तं जहा - मालवंते, चित्तकूडे, पम्हकूडे, (णालिणकूडे, एगसेले, तिकडे,
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卐 १४६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं सीओदाए महाणईए उभओकूले दस
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Elaboration-Kulakars are specially endowed clan founders and heads. In Vedic tradition they are called Manu. There is no mention of
the present regressive cycle of time here. This is because at different places different numbers, such as seven or fifteen, have been mentioned.
वक्षस्कार- पद VAKSHASKAR-PAD (SEGMENT OF VAKSHASKAR)
वक्खारपव्वता पण्णत्ता, तं जहा - विज्जुप्पभे, (अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावसे,
5 चंदपव्वते, सूरपव्वते, णागपव्वते, देवपव्वते), गंधमायणे।
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१४५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में सीता महानदी के दोनों कूलों (उत्तरी व
5 दक्षिणी तट) पर दस वक्षस्कार पर्वत हैं, जैसे- (१) माल्यवानकूट, (२) चित्रकूट, (३) पक्ष्मकूट,
(४) नलिनकूट, (५) त्रिकूट, (७) वैश्रमणकूट, (८) अंजनकूट, (९) मातांजनकूट, (१०) सौमनसकूट । १४६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, मन्दर पर्वत के पश्चिम में शीतोदा महानदी के दोनों कूलों (उत्तर दक्षिण) पर दस वक्षस्कार पर्वत, जैसे- (१) विद्युत्प्रभकूट, (२) अंकावतीकूट, (३) पक्ष्मावतीकूट, (४) आशीविषकूट, (५) सुखावहकूट, (६) चन्द्रपर्वतकूट, (७) सूर्यपर्वतकूट, (८) नागपर्वतकूट, (९) देवपर्वतकूट, (१०) गन्धमादनकूट ।
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वेसमणकूडे, अंजणे, मायंजणे), सोमणसे ।
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145. In Jambu Dveep in the eastern part of Mandar mountain there are ten Vakshaskar mountains on the two banks of great river Sita
स्थानांगसूत्र (२)
(548)
Sthaananga Sutra (2)
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(1) Malyavan-koot, (2) Chitrakoot, (3) Padmakoot, (4) Nalinakoot, (5) Ekashaila, (6) Trikoot, (7) Vaishraman-koot, (8) .Anjan-koot, (9) Matanjan-koot and (10) Saumanas-koot.
146. In Jambu Dveep in the western part of Mandar mountain there are ten Vakshaskar mountains on the two banks of great river Sitoda-(1) Vidyutprabh-koot, (2) Ankavatikoot, (3) Pakshmavatikoot, (4) Ashivish-koot, (5) Sukhavah-koot, (6) Chandraparvat-koot,
(7) Suryaparvat-koot, (8) Naag-parvat-koot, (9) Devaparvat-koot and 4 (10) Gandhamadan-koot.
१४७. एवं धायइसंडपुरथिमद्धेवि वक्खारा भाणियव्वा जाव पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमद्धे।
१४७. इसी प्रकार धातकीषण्ड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में तथा पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध-पश्चिमार्ध में सीता और शीतोदा महानदियों के दोनों कूलों पर दस-दस वक्षस्कार पर्वत है।
147. In the same way in eastern and western halves of Dhatakikhand and those of Pushkaravaradveepardh there are ten Vakshaskar mountains each on both the banks of great rivers Sita and Sitoda.
विवेचन-जिन पर्वतों की ऊँचाई, गहराई एवं परिधि सम हो तथा जिनकी सुन्दरता व सुरम्यता भी समान हो, उन्हें 'वक्षस्कार पर्वत' कहा जाता है। महाविदेह क्षेत्र में बीस वक्षस्कार पर्वत है।
Elaboration—The mountains with all the three dimensions-height, 41 depth and circumference-equal and, which are equally beautiful and $i attractive are called Vakshaskar parvat. There are twenty Vakshaskar
parvats in Mahavideh area. कल्प-पद KALP-PAD (SEGMENT OF DIVINE REALMS)
१४८. दस कप्पा इंदाहिट्ठिया पण्णत्ता, तं जहा-सोहम्मे, (ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे, बंभलोए, लंतए, महासुक्के), सहस्सारे, पाणते, अच्चुते। १४९. एतेसु णं दससु कप्पेसु दस इंदा पण्णत्ता, तं जहा-सक्के ईसाणे, (सणंकुमारे, माहिंदे, बंभे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे,
पाणते), अच्चुते। ॐ १४८. इन्द्रों से अधिष्ठित कल्प (देव विमान) दस हैं, जैसे-(१) सौधर्म कल्प, (२) ईशान कल्प,
(३) सनत्कुमार कल्प, (४) माहेन्द्र कल्प, (५) ब्रह्मलोक कल्प, (६) लान्तक कल्प, (७) महाशुक्र कल्प, (८) सहसार कल्प, (९) प्राणत कल्प, (१०) अच्युत कल्प। १४९. इन दस कल्पों में दस इन्द्र हैं, जैसे-(१) शक्र, (२) ईशान, (३) सनत्कुमार, (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्म, (६) लान्तक, (७) महाशुक्र, 9 (८) सहस्रार, (९) प्राणत, (१०) अच्युत।
148. There are said to be ten Indradhishthit kalps (the divine realms 45 ruled by Indras)-(1) Saudharma kalp, (2) Ishan kalp, (3) Sanatkumar "i kalp, (4) Maahendra kalp, (5) Brahmalok kalp, (6) Lantak kalp,
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Tenth Sthaan
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卐 (7) Mahashukra kalp, (8) Sahasrar kalp, (9) Pranat kalp, and (10) Achyut kalp. 149. There are said to be ten Indras (overlords) in these Kalps - ( 1 ) Shakra, (2) Ishan, (3) Sanatkumar, (4) Maahendra, फ (5) Brahma, (6) Lantak, (7) Mahashukra, (8) Sahasrar, (9) Pranat, and 5 ( 10 ) Achyut.
१५०. एतेसि णं दसहं इंदाणं दस परिजाणिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहा - पालए, पुष्फए, (सोमणसे, सिरिवच्छे, णंदियावत्ते, कामकमे, पीतिमणए, मणोरमे), विमलवरे, सव्वतोभद्दे ।
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१५०. इन दसों इन्द्रों के पारियानिक (यात्रा पर जाने के लिए) विमान दस हैं, जैसे- (१) पालक, (२) पुष्पक, (३) सौमनस, (४) श्रीवत्स, (५) नन्द्यावर्त, (६) कामक्रम, (७) प्रीतिमना, (८) मनोरम, 5 (९) विमलवर, (१०) सर्वतोभद्र ।
(दस कल्पों के इन्द्र आदि का विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना पद १ तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि में है )
150. These ten Indras are said to have ten paariyanik vimaans (celestial vehicles used for traveling ) – (1) Paalak, (2) Pushpak, (3) Saumanas, (4) Shrivatsa, (5) Nandyavart, (6) Kamakram, 5 (7) Pritimana, (8) Manoram, (9) Vimalavar and ( 10 ) Sarvatobhadra. 5 (for more details about kalps and Indras refer to Prajnapana/1 and Jambudveep Prajnapti)
प्रतिमा- पद PRATIMA PAD (SEGMENT OF SPECIAL CODES)
१५१. दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेण रातिंदियसतेणं अद्धछट्ठेहि य भिक्खासतेहिं अहासुतं (अहाअत्थं अहातचं अहामग्गं अहाकप्पं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया) आराहिया आवि भवति ।
१५१. दस - दशमिका भिक्षु प्रतिमा सौ दिन-रात तथा ५५० भिक्षा - दत्तियों द्वारा यथासूत्र, यथाअर्थ यथातथ्य, यथामार्ग, यथाकल्प तथा सम्यक् प्रकार काय से आचरित, पालित, शोधित, पूरित, कीर्त्तित और आराधित की जाती है। (विशेष वर्णन अन्तकृद्दशा सूत्र पृष्ठ पर देखें)
151. The Dash-dashamika Bhikshupratima (a specific practice with special codes) is sincerely observed (palit ), purified (shodhit; for transgressions), completed (purit); for breaking fast), concluded ( kirtit;
break the fast) and successfully performed (aradhit) for 100 ( 10x10) days 5 and nights with 550 bhikshadattis (servings of alms) according to the 5 scriptures ( yathasutra), correct interpretation ( yatha- arth), prescribed 5 procedure ( yathamarg ) and code of praxis ( yathakalp), perfectly following fundamentals ( yathatattva), with equanimity (samata) and touching the body (actually not just conceptually). (for more details refer to Antakriddashanga Sutra)
स्थानांगसूत्र ( २ )
(550)
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Sthaananga Sutra (2)
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जीव-पद JIVA-PAD (SEGMENT OF LIVING BEINGS) ॐ १५२. दसविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पढमसमयएगिंदिया, # अपढमसमयएगिदिया, (पढमसमयबेइंदिया, अपढमसमयबेइंदिया, पढमसमयतेइंदिया, ॐ अपढमसमयतेइंदिया, पढमसमयचरिंदिया, अपढमसमयचउरिंदिया, पढमसमयपंचिंदिया), + अपढमसमयपंचिंदिया। 卐 १५२. संसारी जीव दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) प्रथम समय-जिनको उत्पन्न हुए प्रथम समय ही
हुआ है ऐसे एकेन्द्रिय जीव। (२) अप्रथम समय-जिनको उत्पन्न हुए एक से अधिक समय हो चुका है ॐ ऐसे एकेन्द्रिय जीव। (३) प्रथम समय में उत्पन्न द्वीन्द्रिय जीव। (४) अप्रथम समय में उत्पन्न द्वीन्द्रिय फ़ जीव। (५) प्रथम समय में उत्पन्न त्रीन्द्रिय जीव। (६) अप्रथम समय में उत्पन्न त्रीन्द्रिय जीव। (७) प्रथम
समय में उत्पन्न चतुरिन्द्रिय जीव। (८) अप्रथम समय में उत्पन्न चतुरिन्द्रिय जीव। (९) प्रथम समय में म उत्पन्न पंचेन्द्रिय जीव। (१०) अप्रथम समय में उत्पन्न पंचेन्द्रिय जीव।
152. Samsar-samapannak jivas (worldly living beings) are of ten kinds-(1) Pratham samaya ekendriya jivas-one-sensed beings at the 4i first moment of birth. (2) Apratham samaya ekendriya jivas-one-sensed 卐 beings at post birth moments. (3) Pratham samaya dvindriya jivas. 41 (4) Apratham samaya dvindriya jivas. (5) Pratham samaya trindriya jivas.
(6) Apratham samaya trindriya jivas. (7) Pratham samaya chaturindriya : jivas. (8) Apratham samaya chaturindriya jivas. (9) Pratham samaya ॐ panchendriya jivas. (10) Apratham samaya panchendriya jivas.
१५३. दसविधा सव्वजीव पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, (आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया), वणस्सइकाइया, बेंदिया, (तेइंदिया, चउरिदिया), पंचेंदिया, अणिंदिया। ____ अहवा-दसविधा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पढमसमयणेरइया, अपढमसमयणेरइया, (पढमसमयतिरिया, अपढमसमयतिरिया, पढमसमयमणुया, अपढमसमयमणुया, पढमसमयदेवा), अपढमसमयदेवा, पढमसमयसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा।
१५३. सर्व जीव दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) पृथ्वीकायिक, (२) अप्कायिक, (३) तेजस्कायिक , म (४) वायुकायिक, (५) वनस्पतिकायिक, (६) द्वीन्द्रिय, (७) त्रीन्द्रिय, (८) चतुरिन्द्रिय, (९) पंचेन्द्रिय,. (१०) अनिन्द्रिय (सिद्ध) जीव।
अथवा सर्व जीव दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) प्रथम समय-उत्पन्न नारक। (२) अप्रथम : समय-उत्पन्न नारक। (३) प्रथम समय में उत्पन्न तिर्यंच। (४) अप्रथम समय में उत्पन्न तिर्यंच। (५) प्रथम
समय में उत्पन्न मनुष्य। (६) अप्रथम समय में उत्पन्न मनुष्य। (७) प्रथम में समय में उत्पन्न देव। ॐ 卐 (८) अप्रथम समय में उत्पन्न देव। (९) प्रथम समय में सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध । (१०) अप्रथम समय में 5
सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध।
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दशम स्थान
(551) .
Tenth Sthaan
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153. All beings are of ten kinds(1) Prithvikayik (earth-bodied beings), (2) Apkayik (water-bodied beings), (3) Tejaskayik (fire-bodied
beings), (4) Vayukayik (air-bodied beings), (5) Vanaspatikayik (plant5 bodied beings), (6) Dvindriya (Two-sensed beings), (7) Trindriya (three卐 sensed beings), (8) Chaturindriya (four-sensed beings), (9) Panchendriya (five-sensed beings) and (10) Anindriya (without sense organs; Siddha).
Also all beings are of ten kinds-(1) Pratham samaya naarak4 infernal beings at the first moment of birth. (2) Apratham samaya 卐 naarak-infernal beings at post birth moments. (3) Pratham samaya 4 tiryanch (animals). (4) Apratham samaya tiryanch. (5) Pratham samaya i manushya (human beings). (6) Apratham samaya manushya. (7) Pratham • samaya deva (gods). (8) Apratham samaya deva. (9) Pratham samaya Siddha (liberated beings). (10) Apratham samaya Siddha.
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शतायुष्क दशा-पद SHATAYUSHK-PAD (SEGMENT OF HUNDRED YEARS OFAGE) १५४. वाससताउयस्स णं पुरिसस्स दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा
बाला किड्डा य मंदा य, बला पण्णा य, हायणी।
पवंचा पब्भारा य मुम्मुही सायणी तधा॥१॥ १५४. सौ वर्ष की आयु वाले पुरुष की दस दशाएँ (अवस्था) हैं, जैसे-(१) बालदशा, (२) क्रीडादशा, (३) मन्दादशा, (४) बलादशा, (५) प्रज्ञादशा, (६) हायिनीदशा, (७) प्रपंचादशा, (८) प्रारभारादशा, (९) उन्मुखीदशा, (१०) शायिनीदशा। ___154. There are ten avasthas (states) of a hundred year old man(1) Baal dasha, (2) Krida dasha, (3) Manda dasha, (4) Bala dasha,
(5) Prajna dąsha, (6) Hayini dasha, (7) Prapancha dasha, (8) Pragbhara fi dasha, (9) Unmukhi dasha, and (10) Shaayini dasha.
विवेचन-मनुष्य की पूर्ण आयु सौ वर्ष मानकर, दस-दस वर्ष की एक-एक दशा का वर्णन प्रस्तुत ॐ सूत्र में किया है-(१) बालदशा-जन्म से दस वर्ष तक की अवस्था। (२) क्रीडादशा-इसमें खेल-कूद की + प्रवृत्ति प्रबल रहती है। (३) मन्दादशा-इसमें भोग-प्रवृत्ति की अधिकता से विशिष्ट बुद्धि के कार्यों की
मन्दता रहती है। (४) बलादशा-इसमें मनुष्य अपने बल का प्रदर्शन करने की क्षमता प्राप्त करता है।। 9 (५) प्रज्ञादशा-इसमें मनुष्य की बुद्धि धन कमाने, कुटुम्ब पालने आदि में लगी रहती है। "
(६) हायनीदशा-इसमें शक्ति व इन्द्रिय बल क्षीण होने लगता है। (७) प्रपंचादशा-इसमें मुख से : लार-थूक आदि गिरने लगते हैं, कफ बढ़ने लगता है। (८) प्राग्भारदशा-इसमें शरीर झुर्रियों से व्याप्त हो ।
जाता है। (९) उन्मुखीदशा-इसमें मनुष्य बुढ़ापे से आक्रान्त हो मौत के सन्मुख हो जाता है। 9 (१०) शायिनीदशा-इसमें मनुष्य दुर्बल, दीनस्वर, होकर शय्या पर पड़ा रहता है। (हरिभद्रसूरि कृत दसवें
टीका पत्र ८ तथा स्थानांग वृत्ति पत्र ४९३)
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स्थानांगसूत्र (२)
(552)
Sthaananga Sutra (2) |
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Elaboration-Taking the full life span of man to be one hundred years E it has been divided into ten states of ten years each (1) Baal dasha4 from birth to ten years of age. (2) Krida dasha-here the tendency of 卐 playfulness is strong. (3) Manda dasha-due to the strong tendency of 41 carnal pleasures the intellectual activities become dull here. (4) Bala
dasha-here man acquires the capacity to display his power. (5) Prajna dasha-here man is busy with activities of earning and supporting his family. (6) Hayini dasha-here physical strength and capacities start
declining. (7) Prapancha dasha--here salivation and coughing increases. 4 (8) Pragbhara dasha-here the body gets filled with wrinkles.
(9) Unmukhi dasha-here man is oppressed with dotage and faces death. (10) Shaayini dasha-here man gets weak, emaciated and is bed ridden. (Dashavaikalik Tika by Haribhadra Suri, leaf 8 and Sthananga Vritti leaf 493)
तृणवनस्पति-पद TRINAVANASPATI-PAD (SEGMENT OF GRAMINEOUS PLANTS) ॐ १५५. दसविधा तणवणस्सतिकाइया पण्णत्ता, तं जहा-मूले, कंदे, (खंधे, तया, साले,
पवाले, पत्ते), पुप्फे, फले, बीये। ज १५५. तृणवनस्पतिकायिक जीव दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) मूल, (२) कन्द, (३) स्कन्ध,
(४) त्वक्, (५) शाखा, (६) प्रवाल, (७) पत्र, (८) पुष्प, (९) फल, (१०) बीज। 4 155. Gramineous plant-bodied beings are of ten kinds—(1) mool 9 (root), (2) kand (bulbuous root), (3) skandh (trunk), (4) tvak (bark),
(5) shakha (branch), (6) praval (sprout), (7) patra (leaf), (8) pushp (flower), (9) phal (fruit) and (10) beej (seed). श्रेणि-पद SHRENI-PAD (SEGMENT OF RANGES)
१५६. सवाओवि णं विज्जाहरसेढीओ दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। १५६. दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर अवस्थित सभी विद्याधर-श्रेणियाँ दस-दस योजन विस्तृत हैं।
156. Each of the Vidyadhar ranges located on Deergh Vaitadhya mountain is ten Yojans wide.
१५७. सवाओवि णं आभिओगसेढीओ दस-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। १५७. दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर अवस्थित सभी आभियोगिक-श्रेणियाँ दस-दस योजन विस्तृत हैं।
157. Each of the Aabhiyogik ranges located on Deergh Vaitadhya mountain is ten Yojans wide. ॐ विवेचन-भरत और ऐरवत क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में पूर्व लवण समुद्र से लेकर पश्चिम लवण
समुद्र तक लम्बा और मूल में पचास योजन चौड़ा एक-एक वैताढ्य पर्वत है। इसकी ऊँचाई पच्चीस
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योजन है। भूमितल से दस योजन की ऊँचाई पर उसके उत्तरी और दक्षिणी भाग पर विद्याधरों की ॐ श्रेणियाँ (नगर) हैं। उनमें विद्याधर रहते हैं, जो कि विद्याओं के बल से आकाश में गमनादि करने में 卐 समर्थ होते हैं। वे श्रेणियाँ दोनों ओर दस-दस योजन चौड़ी हैं। इन विद्याधर-श्रेणियों से भी दस योजन + की ऊँचाई पर दोनों ओर आभियोगिक देवों की श्रेणियाँ हैं, जिनमें अभियोग जाति के व्यन्तर देव रहते ॐ हैं। ये देव शक्रेन्द्र आदि इन्द्रों व उनके लोकपालों की आज्ञा का पालन करते हैं। (विशेष वर्णन जम्बूद्वीप । 卐 प्रज्ञप्ति में)
Elaboration-At the center of Bharat as well as Airavat areas there is 41 a Vaitadhya mountain fifty Yojan wide at the base stretching from east 41 Lavan Samudra to west Lavan Samudra. Its height is twenty five $ Yojans. Ten Yojans above from the ground level there are Vidyadhar
ranges (group of abodes) on its north and south faces. Vidyadhars (gods 5. with special powers) capable of flying and performing other such y
activities live here. These ranges are ten Yojan long on both sides. Ten 卐 Yojans higher than these ranges are ranges of Aabhiyogik gods (a kind of
ir gods). These gods are under the command of Shakra and other Indras and their lok-paals. (more details in Jambudveep Prajnapti) ग्रैवेयक-पद GRAIVEYAR-PAD (SEGMENT OF GRAIVEYAK)
१५८. गेविज्जगविमाणा णं दस जोयणसयाई उठं उच्चत्तेणं पण्णत्ता।
१५८. (नव) ग्रैवेयक विमानों के जितने भी विमान हैं, उनकी ऊँचाई दस सौ (१०००) योजन है। __158. All the vimaans in the sector of Graiveyak vimaans are ten hundred (1000) Yojan in height. तेजसा-भस्मकरण-पद TEJASA-BHASMAKARAN-PAD
(SEGMENT OF BURNING BY FIRE-POWER) - १५९. दसहि ठाणेहिं सह तेयसा भासं कुज्जा, तं जहा
(१) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते समाणे परिकुविते तस्स तेयं णिसिरेज्जा। से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा।।
(२) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेजा, से य अच्चासातिते समाणे देवे परिकुविए तस्स तेयं णिसिरेज्जा। से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता, तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा।
(३) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते समाणे परिकुविते देवेवि य परिकुविते ते दुहओ पडिण्णा तस्स तेयं णिसिरेज्जा। ते तं परिताति, ते तं परितावेत्ता तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा।
स्थानांगसूत्र (२)
(554)
Sthaananga Sutra (2)
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(४) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते [ समाणे ? ] परिकुविए तस्स तेयं णिसिरेज्जा । तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जंति, ते फोडा भिण्णा समाणा फ्र
तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
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(५) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते [ समाणे ? ] देवे परिकुविए तस्स तेयं णिसिरेज्जा । तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जंति, ते फोडा भिण्णा समाणा 5 तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
5
(६) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते [ समाणे ? ] परिकुविए देवेवि य परिकुविए ते दुहओ पडिण्णा तस्स तेयं णिसिरेज्जा । तत्थ फोडा संमुच्छंति, (ते फोडा भिज्जंति, ते फोडा भिण्णा समाणा तामेव सह तेयसा) भासं कुज्जा ।
(७) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते [ समाणे ? ] परिकुविए तस्स तेयं णिसिरेज्जा । तत्थ फोडा संमुच्छिंति, ते फोडा भिज्जंति, तत्थ पुला संमुच्छंति, ते
भिजंति, ते लाभण्णा समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
(८) ( केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते [ समाणे ? ] देवे परिकुविए तस्स तेयं णिसिरेज्जा । तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जंति, तत्थ पुला संमुच्छंति, ते लाभिज्जत, ते पुला भिण्णा समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
परिकुवि
( ९ ) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते [ समाणे ? ] देवेवि य परिकुविए ते दुहओ पडिण्णा तस्स तेयं णिसिरेज्जा । तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जंति, तत्थ पुला संमुच्छंति, ते पुला भिज्जंति, ते पुला भिण्णा समाणा तामेव सह तेयसा भासं कुज्जा ।
(१०) केइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, तेयं णिसिरेज्जा, से य तत्थ णो कम्मति, णो पकम्मति, अंतिअंचियं करेति, करेत्ता आयाहिणपयाहिणं करेति, करेत्ता उड्डुं वेहासं उप्पतति, उप्पतेत्ता से णं ततो पडिहते पडिणियत्तति, पडिणियत्तिता तमेव सरीरगं अमाणे - अणुदहमाणे सह तेयसा भासं कुज्जा - जहा वा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवे तेए ।
१५९. दस कारणों से श्रमण-माहन (अति-आशातना करने वाले को) तेज से (अपनी तेजोलेश्या से) भस्म कर डालता है, जैसे
दशम स्थान
(१) यदि कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धि से सम्पन्न ) श्रमण-माहन की तीव्र आशातना ( अवज्ञा, अवेहलना करता है, तो वह उस आशातना से पीड़ित उद्वेलित होता हुआ उस व्यक्ति पर क्रोधित होता है। तेजोलब्धि का प्रयोग करता है तब उसके शरीर से तेज निकलता है। वह तेज उस उपसर्ग 5 वाले को परितापित करता है और उसे भस्म कर देता है।
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(२) यदि कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण - माहन की अत्याशातना करता है, उसकी अत्याशातना करने पर उस श्रमण की सेवा में रहने वाला कोई देव कुपित होता है। तब उस देव के शरीर से तेज निकलता है। वह तेज उस उपसर्ग करने वाले को परितापित करता है और परितापित कर उस तेज से उसे भस्म कर देता है।
(३) कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उस असह्य अत्याशातना से परिकुपित हो, वह श्रमण-माहन और परिकुपित देव दोनों ही उसे मारने की प्रतिज्ञा करते हैं। तब उन दोनों के शरीर से तेज निकलता है। वे दोनों तेज उस उपसर्ग करने वाले व्यक्ति को परितापित करते हैं और परितापित करके उसे उस तेज से भस्म कर देते हैं।
(४) कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण - माहन की अत्याशातना करता है। वह उस अत्याशातना से परिकुपित होता है, तब उसके शरीर से तेज निकलता है, उससे उस उपसर्ग कर्ता व्यक्ति शरीर में स्फोट (फोड़े-फफोले ) उत्पन्न होते हैं। वे फोड़े फूटते हैं और फूटते हुए उसे उस तेज से भस्म कर देते हैं।
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(५) कोई व्यक्ति तथारूप ( तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण - माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर कोई देव परिकुपित होता है, तब उसके शरीर से तेज निकलता है, उससे उस उपसर्ग करने वाले व्यक्ति के शरीर में स्फोट (फोड़े) उत्पन्न होते हैं। वे स्फोट फूटते हैं और उस तेज से वह भस्म हो जाता है।
(६)
कोई व्यक्ति तथारूप ( तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण - माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर परिकुपित वह श्रमण-माहन और परिकुपित देव, ये दोनों ही उसे मारने की प्रतिज्ञा करते हैं । तब उन दोनों के शरीरों से तेज निकलता है। उससे उस उपसर्ग कर्ता के शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं । वे स्फोट फूटते हैं और फूटते हुए उसे उस तेज से भस्म कर देते हैं।
(७) कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण-माहन की अत्याशातना करता है। उससे कुपित होकर वह तेज छोड़ता है। उससे उस व्यक्ति के शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं। वे स्फोट फूटते हैं तब उनमें से पुल - ( छोटी-छोटी फुंसियाँ उत्पन्न होती हैं । वे फूटती हैं और फूटती हुई उस तेज से उसे भस्म ५ डालती हैं।
स्थानांगसूत्र (२)
(८) कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण - माहन की अत्याशातना करता है। उसके अत्याशातना करने पर कोई देव परिकुपित होता है, तब उसके शरीर से तेज निकलता है, उससे उस
व्यक्ति के शरीर में स्फोट उत्पन्न होते हैं । वे स्फोट फूटते हैं, तब उनमें पुल - (फुंसियाँ) निकलती हैं। वे ५ फूटती हैं और फूटती हुई उस तेज से उसे भस्म कर देती हैं।
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(९) कोई व्यक्ति तथारूप (तेजोलब्धिसम्पन्न ) श्रमण माहन की अत्याशातना करता है। उसके 4 अत्याशातना करने पर परिकुपित वह श्रमण-माहन और परिकुपित देव दोनों ही उसे मारने की प्रतिज्ञा करते हैं । तब उन दोनों के शरीरों से तेज निकलता है। उससे उस व्यक्ति के शरीर में स्फोट उत्पन्न होते ५
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नहीं कर पाता है। केवल वह तेज उसके ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आता-जाता है, दायें-बायें के प्रदक्षिणा करता है और यह सब करके ऊपर आकाश में चला जाता है। वहाँ से लौटकर उसके
श्रमण-माहन के प्रबल तेज से प्रतिहत होकर वापिस उसी फेंकने वाले के पास चला जाता है और
उसके शरीर में प्रवेश कर उसे उसकी तेजोलब्धि के साथ भस्म कर देता है, जिस प्रकार मंखली पुत्र ॥ 卐 गोशालक के तपस्तेज ने उसी को भस्म कर दिया था। + 159. For ten reasons a Shraman-mahan (Jain ascetic) burns a person F (who has gravely insulted him) to ashes with his tej (tejoleshya 01
fire-power) y (1) When some person indulges in grave ashaatana (disrespect; 4 insult; sacrilege) of a tatharupa (endowed with tejoleshya) Shraman, the
Shraman gets hurt, agitated and angry at that person. He uses his tejoleshya and a fire emanates from his body. This fire burns the offender and reduces him to ashes.
(2) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman, some god in attendance of that Shraman gets angry at that person. Then a fire emanates from the god's body. This fire burns the offender and reduces him to ashes.
(3) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman, the Shraman and the god in his service both get angry due to that intolerable affliction. They both resolve to kill the offender. Then a fire emanates from the bodies of the two. This fire burns the offender and reduces him to ashes.
(4) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman, the Shraman gets hurt, agitated and angry at that person. He uses his tejoleshya and a fire emanates from his body. This fire causes blisters (sfot) on the body of the offender. These blisters then burst and reduce him to ashes.
(5) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman, some god in attendance of that Shraman gets angry at that person. Then a fire emanates from the god's body. This fire causes
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(6) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman, the Shraman and the god in his service both get angry due to 4 that intolerable affliction. They both resolve to kill the offender. Then a
fire emanates from the bodies of the two. This fire causes blisters on the 41 body of the offender. These blisters then burst and reduce him to ashes.
(7) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman, the Shraman gets hurt, agitated and angry at that person. He uses his tejoleshya and a fire emanates from his body. This fire causes blisters on the body of the offender. These blisters then burst and produce many small boils (pul). These boils then burst and reduce him to ashes.
(8) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa si Shraman, some god in attendance of that Shraman gets angry at that person. Then a fire emanates from the god's body. This fire causes blisters on the body of the offender. These blisters then burst and produce many small boils. These boils then burst and reduce him to ashes.
(9) When some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa # Shraman, the Shraman and the god in his service both get angry due to
that intolerable affliction. They both resolve to kill the offender. Then a fire emanates from the bodies of the two. This fire causes blisters on the
body of the offender. These blisters then burst and produce many small ki boils. These boils then burst and reduce him to ashes.
(10) Some person indulges in grave ashaatana of a tatharupa Shraman and launches fire-power at him. That fire fails to attack the Shraman's body or enter it. This fire only moves up, down and around the Shraman and finally goes up in the sky. Returning from the sky and repulsed by the tremendous radiance of the Shraman it goes back to the
launcher, enters his body and reduces him to ashes along with his fire4 power. This happens in the same way as Mankhali Putra Goshalak was 41 reduced to ashes by his own fire-power.
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में आये तीन शब्दों पर वृत्तिकार ने विशेष प्रकाश डाला है। श्रमण-तपःप्रधान में ॐ संयमी जीवन का और माहन-अहिंसा करुणा प्रधान त्यागी जीवन का वाचक है। तेजोलब्धि-यह विशिष्ट
तपः साधना के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली दाहक शक्ति है, जो दूसरे को जलाकर भस्म कर सकती है।
तेजोलब्धि सम्यग् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि, दोनों प्रकार के साधकों को प्राप्त हो सकती है। यहाँ तथारूप म श्रमण-माहन से सम्यग्दृष्टि साधक के लिए संकेत है।
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स्थानांगसूत्र (२)
(558)
Sthaananga Sutra (2) 44145145151414141414141414141414141414141414141414141414145454545454544
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म तेजोलब्धि मारक भी होती है और उपकारक भी। मारक तेजोलब्धि जलाकर भस्म कर सकती है म उसकी क्षमता कम से कम एक व्यक्ति को तथा अधिक से अधिक सोलह जनपदों (देशों) को जलाकर
भस्म कराने की है। उपकारक तेजोलब्धि का प्रयोग शान्त, हर्षोल्लषित व करुणापूरित चित्त से किया 卐 जाता है। (हिन्दी टीका, भाग २, पृष्ठ ८६२)
Elaboration-the commentator (Vritti) has laid special emphasis on three terms used in the aforesaid aphorism. Shraman-this word
signifies a disciplined ascetic life with emphasis on austerities. MahanHi this word signifies a detached life with emphasis on ahimsa and fi
compassion. Tejolabdhi-This is a fire-power acquired through practice of special austerities. It can burn and reduce others to ashes. This power can be acquired both by the righteous as well as the unrighteous. Here tatharupa Shraman-mahan indicates a righteous aspirant.
Tejolabdhi is destructive as well as constructive. The destructive tejolabdhi can burn and reduce anything to ashes. Its capacity ranges from a single person to sixteen states. The constructive tejolabdhi is
employed by serene, joyful and compassionate mind. (Hindi Tika, part-2, 3 p. 862) आश्चर्यक-पद ASHCHARYAK-PAD (SEGMENT OF THE MIRACULOUS) १६०. दस अच्छेरगा पण्णत्ता, तं जहा
उवसग्ग गन्भहरणं, इत्थीतित्थं अभाविया परिसा। कण्हस्स अवरकंका, उत्तरणं चंदसूराणं॥१॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पातो य अट्ठसयसिद्धा।
अस्संजतेसु पूआ, दसवि अणंतेण कालेणं॥२॥ १६०. दस आश्चर्य कहे हैं, जैसे-(१) उपसर्ग-तीर्थंकरों के ऊपर उपसर्ग होना। जैसे भगवान महावीर को शूलपाणि, संगम के मारणांतिक उपसर्ग हुए। केवलज्ञान होने के पश्चात् गोशालक द्वारा
तेजोलब्धि का प्रयोग हुआ। (२) गर्भहरण-भगवान महावीर का गर्भापहरण होना। (३) स्त्री का तीर्थकर 卐 होना। जैसे १९वें तीर्थंकर भगवती मल्ली। (४) अभावित परिषत्-तीर्थंकर भगवान महावीर का प्रथम
धर्मोपदेश, वैशाख शुक्ला दसमी के दिन विफल हुआ अर्थात् उसे सुनकर किसी भी श्रोता ने चारित्र ॐ अंगीकार नहीं किया क्योंकि उसमें श्रोता देव परिषद् थी।। (५) कृष्ण का द्रौपदी को पद्मनाभ राजा के म चंगुल से छुड़ाने के लिए अमरकंका का नगरी (धातकीषण्ड) में जाना। यह क्षेत्र कपिल वासुदेव की ,
अधीनता का था। (६) चन्द्र और सूर्य देवों का कौशाम्बी में विमान-सहित अपने मूल शरीर के साथ ॐ भगवान महावीर के दर्शन करने आना। पृथ्वी पर उतरना। (७) हरिवंश कुल की उत्पत्ति। जैसे-हरिवर्ष । क्षेत्र में जन्मे युगलिक को देव उठाकर भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में ले आया। वहाँ वह राजा बने। उनसे
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दशम स्थान
(559)
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हरिवंश कुल की उत्पत्ति हुई। युगलियों का राजा बनना व वंश चलाना आश्चर्य है। (८) चमर का + उत्पात-चमरेन्द्र का सौधर्मकल्प में जाना। (९) एक सौ आठ सिद्ध-इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे
में एक समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक साथ एक सौ आठ जीवों का सिद्ध होना। (१०) इस अवसर्पिणी काल में असंयमी की पूजा बढ़ी। यह भी एक आश्चर्य है।
160. There are said to be ten ashcharyas (miracles)—(1) Upasarg (affliction) Afflictions on Tirthankars. For example Bhagavan Mahavir 4 had to suffer near fatal afflictions at the hands of Shulapani and
Sangam. After attaining omniscience he had to endure the tejoleshya of Goshalak. (2) Garbhaharan-the transplantation of embryo in case of Bhagavan Mahavir. (3) Female becoming a Tirthankar-Bhagavati Malli, the 19th Tirthankar. (4) Abhavit Parishat--The first sermon of Bhagavan Mahavir (Vaishakh Shukla tenth) went waste as no listener got initiated after the sermon. This was because the assembly consisted of gods only. (5) Krishna going to Amarkanka city (in Dhatakikhand) to get Draupadi released from king Padmanabh. This area was under the rule of Kapil Vaasudev. (6) Descending of gods Chandra and Surya in their original body and with their vimaans in Kaushambi to pay homage to Bhagavan Mahavir. (7) Origin of the Harivamsha lineage. Gods brought twins from Harivarsh area to Champanagari in Bharat area. They became rulers and started a lineage. Twins becoming rulers and starting a family lineage is a miracle. (8) Disturbance created by Chamar
by going to Saudharma Kalp. (9) One hundred and eight Siddhas# Attaining of the Siddha status by 108 beings of maximum dimension at
once during the third epoch of this regressive cycle. (10) The worship of the non-ascetic has been on the rise during this regressive cycle; this too
is a miracle. + विवेचन-जो घटनाएँ सामान्य रूप से सदा नहीं होती, किन्तु किसी विशेष कारण से चिरकाल के 卐 पश्चात् कभी कभार होती हैं, उन्हें आश्चर्य-कारक होने से 'आश्चर्यक' या अच्छेरा कहा जाता है।
जैनशासन में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर के समय तक ऐसी दस अद्भुत या ॐ आश्चर्यजनक घटनाएँ घटी हैं। इनमें से पहली, दूसरी, चौथी, छठी और आठवीं घटना भगवान महावीर
के शासनकाल से सम्बन्धित हैं। तीसरी घटना भगवान मल्लीनाथ, पाँचवी घटना भगवान अरिष्टनेमि, सातवीं घटना भगवान शीतलनाथ, नवीं घटना भगवान ऋषभदेव तथा दसवीं घटना भगवान !
सुविधिनाथ के निर्वाण के पश्चात् भगवान शान्तिनाथ के शासन काल के मध्य में हुई। इनमें निम्न # अच्छेरों का वर्णन सम्बद्ध सूत्रों से जाना जा सकता है
ना-1-1-1-1-1-1-नानागाजीपा
स्थानांगसूत्र (२)
(560)
Sthaananga Sutra (2)
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गोशालक को उपसर्ग
श्री कृष्ण वासुदेव
दस आश्चर्य (1)
13. स्त्री तीर्थंकर
लवण समुद्र
5. शंखध्वनि
Mo
For Private &
4. अभावित परिषद
अपरकंका
कपिल वासुदेव
COX
12. गर्भ संहरण
BBC
TRILOK SHARN
16 Mainali.org
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| चित्र परिचय १६ ।
Illustration No. 16 दस आश्चर्य (१) जो घटना चिरकाल के पश्चात् असामान्य रूप से होती है, उसे आश्चर्य कहा जाता है। इस अवसर्पिणीकाल में दस आश्चर्य निम्न प्रकार हुए
(१) उपसर्ग-तीर्थंकरों को उपसर्ग : जैसे गोशालक ने भगवान महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग किया।
(२) गर्भ-हरण-भगवान महावीर का देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला माता के गर्भ में स्थानान्तरण। (३) स्त्री-तीर्थंकर-भगवान मल्लीनाथ स्त्री देह में तीर्थंकर हुए। (४) अभावित परिषद्-भगवान महावीर की प्रथम धर्मदेशना में किसी ने चारित्र ग्रहण नहीं किया।
(५) श्रीकृष्ण वासुदेव का धातकीषण्ड की अपर कंकानगरी में गमन तथा कपिल वासुदेव के शंख ध्वनि करने पर दोनों वासुदेवों का शंख ध्वनि से मिलन हुआ। एक वासुदेव की सीमा में दूसरे वासुदेव का जाना आश्चर्य है।
-स्थान १०, सूत्र १६० (क्रमशः अगले पृष्ठ पर)
10
TEN ASHCHARYAS (MIRACLES)-I Unusual happenings after a prolonged gap are called ashcharya or miracles. The ten miracles of the current regressive cycle are as follows
(1) Upasarg (affliction)-Afflictions on Tirthankars. For example Bhagavan Mahavir had to endure the tejoleshya of Goshalak.
(2) Garbhaharan-The transplantation of embryo (to be Bhagavan Mahavir) from the womb of Devananda to mother Trishala.
(3) Female Tirthankar-Bhagavan Mallinaath became Tirthankar with female body.
(4) Abhavit Parishat-In the first sermon of Bhagavan Mahavir no listener got initiated.
(5) Krishna going to Amarkanka city (in Dhatakikhand) and exchanging of conch-shell sounds with another Vaasudev, Kapil, there. Going of one Vaasudeva in the territory of another is a miracle.
-Sthaan 10, Sutra 160 (continue on next page)
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दस आश्चर्य (2)
देव वाणी : 'यही तुम्हारा राजा होगा'
सूर्य विमान
चन्द्र विमान
IPICTION
युगलिक राजा
YAVEENADI.
एक समय एक सौ आठ केवली सिद्ध
सुधमा सभा में चमरेन्द्र
महावीर की शरण में चमरेन्द्र
'असंयति पूजा
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चित्र परिचय १७
दस आश्चर्य (२)
(६) चन्द्र-सूर्य देव अपने विमान सहित भगवान के दर्शन करने एक साथ समवसरण में आये । (७) हरिवंश कुल की उत्पत्ति - हरिवर्ष में जन्मे युगलिक को देवता चम्पानगरी में उठाकर ले आय और वहाँ का राजा बना दिया। जिससे हरिवंश कुल की उत्पत्ति हुई ।
(८) असुरराज चमरेन्द्र ने शक्र की सौधर्म सभा में जाकर उत्पात मचाया। शक्र द्वारा वज्र फैंकने पर बचने के लिए भागकर ध्यानस्थ श्रमण भगवान महावीर के चरणों में शरण ली।
Illustration No. 17
(९) तीसरे आरे में उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक सौ आठ मुनि एक साथ सिद्ध हुए । (१०) असंयति पूजा - भगवान सुविधिनाथ के शासनकाल पश्चात् असंयति जनों की पूजा बढ़ी।
- स्थान १०, सूत्र १६८
TEN ASHCHARYAS (MIRACLES)-II
(6) Descending of gods Chandra and Surya with their vimaans in the Samavasaran together to pay homage to Bhagavan Mahavir.
(7) Origin of the Harivamsha lineage - Gods brought twins from Harivarsh area to Champanagari and made them rulers. This was the origin of the Harivamsha clan.
(8) Chamarendra, the king of Asurs came to Shakra's assembly and created disturbance. When Shakra launched his Vajra Chamar flew and took refuge at the feet of meditating Bhagavan Mahavir.
(9) One hundred and eight ascetics of largest physique attained the Siddha status at once during the third epoch of this cycle.
(10) The worship of non-ascetics increased after the period of influence of Bhagavan Suvidhinaath.
- Sthaan 10, Sutra 160
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(१) ८ अच्छेरा-भगवती सूत्र शतक १५/शतक ३/२। (२) अच्छेरा-आचारांग २४वाँ अध्ययन आवश्यक नियुक्ति। (३) ५ अच्छेरा-ज्ञातासूत्र ८वाँ तथा अध्ययन १६।
(४) ६-७, ९-१० अच्छेरा-स्थानांग वृत्ति, आवश्यक नियुक्ति, प्रवचन सारोद्धार वृत्ति। (विवरण : के लिए देखें-ठाणं पृष्ठ १०१५)
Elaboration-Unusual happenings are called Achchhera or ashcharya or miracles. In the Jain order from Bhagavan Risabhadeva to Bhagavan, Mahavir there are mentions of ten such miracles. Of the aforesaid miracles the first, second, fourth, sixth and eighth incidents are related to Bhagavan Mahavir's period. The third incident is related to the period of Bhagavan Malli Naath, fifth to that of Bhagavan Arishtanemi, seventh to that of Bhagavan Sheetal Naath, ninth to that of Bhagavan Risabhadeva and tenth to the period between nirvana of Bhagavan Suvidhi Naath and the period of influence of Bhagavan Shanti Naath. The details about some of the miracles can bee seen in the following works___8th miracle-Bhagavati Sutra (15/3/2)
_1st miracle-Acharanga Sutra ch. 24th ___5th miracle-Jnata Sutra 8th and 16th chapters; Avashyak Niryukti
6, 7, 9 and 10 miracles-Sthananga Vritti, Avashyak Niryukti and Pravachanasaroddhar Vritti. (for details see Thanam p. 1015) काण्ड-पद KAAND-PAD (SEGMENT OF SECTIONS)
१६१. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणे कंडे दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। १६२. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए वइरे कंडे दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते।
१६३. एवं वेरुलिए, लोहितक्खे, मसारगल्ले, हंसगब्भे, पुलाए, सोगंधिए, जोतिरसे, अंजणे, अंजणपुलए, रययं, जातरूवे, अंके, फलिहे, रिटे। जहा रयणे तहा सोलसविधा भाणितवा।
१६१. इस रत्नप्रभा पृथिवी का पहला रत्नकाण्ड दस सौ (१०००) योजन मोटा है। १६२. इस रत्नप्रभा पृथिवी का दूसरा वज्रकाण्ड दस सौ योजन मोटा है।
१६३. इसीप्रकार वैडूर्यकाण्ड, लोहिताक्षकाण्ड, मसारगल्लकाण्ड, हंसगर्भकाण्ड, पुलककाण्ड, ॐ सौगन्धिककाण्ड, ज्योतिरसकाण्ड, अंजनकाण्ड, अंजनपुलककाण्ड, रजतकाण्ड, जातरूपकाण्ड, म अंककाण्ड, स्फटिककाण्ड और रिष्टकाण्ड भी दस सौ-दस सौ योजन मोटे हैं।
दशम स्थान
(561)
Tenth Sthaan
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161. The first section of this Ratnaprabha Prithvi, the Ratna-kaand is ten hundred Yojan thick.
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162. The second section of this Ratnaprabha Prithvi, the Vajra-kaand is ten hundred Yojan thick.
163. In the same way the other sections, namely Vaidurya - kaand, 5 Lohitaksha-kaand, Masaragalla-kaand, Hamsagarbha-kaand, Pulakkaand, Saugandhik-kaand, Jyotirasa-kaand, Anjana-kaand, फ्र Anjanapulak-kaand, Rajat-kaand, Jaatarupa-kaand, Anka-kaand, Sphatik-kaand, and Rishta-kaand (all these are names of various gem stones) are also ten hundred Yojan thick.
विवेचन - यह रत्नप्रभा पृथिवी एक राजु परिमाण लम्बी (ऊँची) चौड़ी (विस्तृत) है। इसकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसके तीन काण्ड (हिस्से) हैं। (१) खरकाण्ड, (२) पंक - बहुल काण्ड और (३) जल - बहुल काण्ड । इनमें से से खरकाण्ड सबसे ऊपर है, वह मोटाई में १६ हजार योजन प्रमाण है। उसके नीचे का दूसरा काण्ड पंकबहुल है, जोकि मोटाई में ८४ हजार योजन है। उसके नीचे 5
Elaboration This Ratnaprabha prithvi is one Rajju long and wide. Its thickness is one hundred eighty thousand Yojans. It has three sections (kaand) Khar-kaand, Pank-bahul kaand, and Jal-bahul kaand. Khar
का तीसरा जलबहुल काण्ड है, जो मोटाई में ८० हजार योजन है। खरकाण्ड १६ भागों में विभाजित है।
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इनमें एक-एक भाग की मोटाई एक-एक हजार योजन की है। इनमें पहले भाग को रत्नकाण्ड, क्रमशः फ सोलहवें भाग को रिष्ट काण्ड कहते हैं। ये १६ काण्ड हजार-हजार योजन की मोटाई वाले हैं। खरकाण्ड सोलह प्रकार के रत्न होने से इस पृथिवी का नाम रत्नप्रभा प्रसिद्ध है। विस्तृत विवर, जीवाभिगम से जानना चाहिए। (चित्र देखें)
kaand is the top most section and its thickness is sixteen thousand Yojans.
Yojans. The lowest section is Jal-bahul kaand with a thickness of 80 thousand Yojans. Khar-kaand is divided into 16 layers with names listed in the aforesaid three aphorisms. As Khar-kaand is made up of sixteen kinds of gems (ratna) this earth is popularly known as Ratnaprabha. (for detailed description see Jivabhigam Sutra; also see illustration)
उद्वेध - पद UDVEDH-PAD (SEGMENT OF DEPTH)
१६४. सव्वेवि णं दीव - समुद्दा दस जोयणसताइं उव्वेहेणं पण्णत्ता ।
सव्वेवि णं महादहा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता ।
१६५.
The section below it is Pank-bahul kaand with a thickness of 84 thousand 卐
१६६ . सव्वेवि णं सलिलकुंडा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता ।
स्थानांगसूत्र
सूत्र
५
(२)
(562)
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Sthaananga Sutra (2)
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A रत्न प्रभा पृथ्वी के तीन काण्ड
संपूर्णमान1 लाख 80 हजार योजन
ANDhvv
1.5 योजन 4.5 योजन 6योजन
XXXXXX.
७
11. खरकाण्ड 16 हजार योजन
kakkcixeokutekkikikan obaxxxxxxxx
**
* *** * XXXXXX**
१२
तनुवात वलय घनवात वलय
घनोदधि वलय
XXXXXXXX R
** * *Y
2. पंक काण्ड
84 हजार
3. जल काण्ड
-80 हजार
घनोदधि वलय
घनवात वलय
तनुवात वलय
असंख्य 20 ह. ।यो. चौड़ाई योजन योजन
असंख्य
आकाश
आकाश
18 mnairy.org
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| चित्र परिचय १८ ।।
Illustration No. 18
रत्नप्रभा के तीन काण्ड रत्नप्रभा प्रथम नरक भूमि की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसके तीन खण्ड (भाग) हैं। __सबसे नीचे आकाश है, उस पर तनुवात है, उस पर घनवात और उस पर घनोदधि स्थित है। सबसे नीचे का-(१) जलकाण्ड जल बहुल ८० हजार योजन का है। (२) दूसरा पंककाण्ड (कीचड़मय) यह ८४ हजार योजन का है तथा तीसरा खरकाण्ड (रत्नमय) है। खरकाण्ड के १६ भाग हैं, प्रत्येक काण्ड १-१ हजार योजन का है, जो भिन्न-भिन्न रत्नों की प्रभा लिए हुए है। ऊपर से सबसे पहला वैडूर्यकाण्ड है तथा सबसे नीचे १६वाँ रिष्टकाण्ड है।
-स्थान १०, सूत्र १६१-१६३
THREE SECTIONS OF RATNAPRABHA This Ratnaprabha prithvi (first hell) is one hundred eighty thousand Yojans thick. It has three sections (kaand). ___Lowest is akash (space) above which is tanuvaat, then ghanavaat and then ghanodadhi. The lowest section is Jal kaand with a thickness of 80 thousand Yojans. The second section above it is Pank-bahul kaand with a thickness of 84 thousand Yojans. The third Khar-kaand is the top most section and its thickness is sixteen thousand Yojans. Kharkaand is divided into 16 layers made up of sixteen kinds of gems (ratna). The highest among these is Vaidurya kaand and the lowest is Risht kaand.
-Sthaan 10, Sutra 161-163
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१६७. सीता-सीतोया णं महाणईओ मुहमूले दस-दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ताओ। १६४. सभी द्वीप और समुद्र दस सौ-दस सौ (एक-एक हजार) योजन गहरे हैं। १६५. सभी महाद्रह दस-दस योजन गहरे हैं। १६६. सभी सलिलकुण्ड (प्रपातकुण्ड) दस-दस योजन गहरे हैं।
१६७. सीता-शीतोदा महानदियों के मुखमूल (समुद्र में प्रवेश करने के स्थान दस-दस योजन गहरे हैं। : 164. All Dveeps (continents or islands) and samudras (seas) are ten hundred Yojans deep.
165. All Mahadraha (great lakes) are ten hundred Yojans deep. 166. All Salil kund (waterfall-lakes) are ten hundred Yojans deep.
167. The mouths of Sita and Sitoda great rivers are ten hundred Yojans deep. नक्षत्र-पद NAKSHATRA-PAD (SEGMENT OF CONSTELLATIONS)
१६८. कत्तियाणक्खत्ते सबबाहिराओ मण्डलाओ दसमे मंडले चारं चरति। १६९. अणुराधाणक्खत्ते सव्वभंतराओ मंडलाओ दसमे चारं चरति। १६८. कृत्तिका नक्षत्र चन्द्रमा के सर्वबाह्य-मण्डल से दसवें मण्डल में संचार (गमन) करता है। १६९. अनुराधा नक्षत्र चन्द्रमा के सर्वाभ्यन्तर-मण्डल से दसवें मण्डल में संचार करता है।
168. Krittika nakshatra moves in the tenth orbit counted inwards i from the outer most orbit around the moon. ! 169. Anuradha nakshatra moves in the tenth orbit counted outwards
from the inner most orbit around the moon. ज्ञानवृद्धिकर-पद JNANAVRIDDHIKAR-PAD
(SEGMENT OF ENHANCEMENT OF KNOWLEDGE) १७०. दस णक्खत्ता णाणस्स विद्धिकरा पण्णत्ता, तं जहा
मिगसिरमद्दा पुस्सो, तिण्णि य पुवाई मूलमस्सेसा।
हत्थो चित्ता य तहा, दस विद्धिकराई णाणस्स॥१॥ (संग्रहणी गाथा) १७०. दस नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले हैं, जैसे-(१) मृगशिरा, (२) आर्द्रा, (३) पुष्य, (४) पूर्वाषाढा, (५) पूर्वभाद्रपद, (६) पूर्वफाल्गुनी, (७) मूल, (८) आश्लेषा, (९) हस्त, (१०) चित्रा।
170. Ten nakshatras are said to be enhancers of knowledge-- 4 (1) Mrigashira, (2) Ardraa, (3) Pushya, (4) Purvashadh, 5
E55555555555555555555 555555555 FFFFFFFFFFFFFFFF听听听听
दशम स्थान
(563)
Tenth Sthaan
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(5) Purvabhadrapad, (6) Purvaphalguni, (7) Mool, (8) Aashlesha, (9) Hast 4 and (10) Chitra. म . विवेचन-ज्ञान वृद्धि के दस नक्षत्रों का तात्पर्य यह है कि इन दस नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र
से यदि चन्द्र का योग लगा हो तो उस समय अध्ययन प्रारम्भ करने से वह ज्ञान वृद्धि में सहायक म होता है।
Elaboration - The ten knowledge enhancing constellations means that 4 if studies are commenced when any of these constellations is in
conjunction with the moon it helps enhancing knowledge. ॐ कुलकोटि-पद KULAKOTI-PAD (SEGMENT OF SPECIES)
१७१. चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दस जाति-कुलकोडि-जोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता।
१७२. उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दस जाति-कुलकोडि-जोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता।
१७१. पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक, स्थलचर चतुष्पद की जाति-कुल-कोटियाँ दस लाख हैं। १७२. पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक स्थलचर उरःपरिसर्प की जाति-कुल-कोटियाँ दस लाख हैं।
171. Panchendriya tiryagyonik sthalchar chatushpad (five-sensed terrestrial quadruped animals) have ten lac (hundred thousand) species (jati kulakoti) in their genuses (yoni pramukh).
172. Panchendriya tiryagyonik sthalchar uraparisarp (five-sensed terrestrial non-limbed reptilian animals) have ten lac (hundred thousand) species (jati kulakoti) in their genuses (yoni pramukh). पापकर्म-पद PAAP-KARMA-PAD (SEGMENT OF DEMERITORIOUS KARMA)
१७३. जीवा णं दसटाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा-पढमसमयएगिदियणिव्वत्तिए, (अपढमसमयएगिदियणिव्वत्तिए, पढमसमयबेइंदियणिवत्तिए, अपढमसमयबेइंदियणिबत्तिए, पढमसमयतेइंदियणिव्वत्तिए, अपढमसमयतेइंदियणिव्वत्तिए, पढमसमयचउरिंदियणिवत्तिए, अपढमसमयचउरिंदियणिव्यत्तिए, पढमसमयपंचिंदियणिबत्तिए, अपढमसमय) पंचिंदियणिव्वत्तिए।
एवं-चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव।
१७३. जीवों ने दस स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में संचय किया है, करते हैं ॐ और करेंगे। जैसे-(१) प्रथम समय-एकेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का। (२) अप्रथम समय-एकेन्द्रिय
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स्थानांगसूत्र (२)
(564)
Sthaananga Sutra (2)
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निर्वर्तित पुद्गलों का । (३) प्रथम समय - द्वीन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का । (४) अप्रथम समय-द्वीन्द्रिय 5 निर्वर्तित पुद्गलों का । ( ५ ) प्रथम समय - त्रीन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का । (६) अप्रथम समय - त्रीन्द्रिय निर्वतिर्त पुद्गलों का । ( ७ ) प्रथम समय - चतुरिन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का । (८) अप्रथम समयचतुरिन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का । ( ९ ) प्रथम समय-पंचेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का । (१०) अप्रथम
5 समय-पंचेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का । इसी प्रकार उनका चय, उपचय, बंधन, उदीरण, वेदन और निर्जरण किया है, करते हैं और करेंगे।
173. All beings did, do and will acquire (sanchit) karma particles in
卐
the form of demeritorious karmas in the past, present and future respectively ten ways-
(1) pratham samaya ekendriya nirvartit (earned as one-sensed beings
卐
卐 during the first moment of birth), (2) apratham samaya ekendriya
卐
nirvartit (earned as one-sensed beings after the moment of birth),
during the first moment of birth), (4) apratham samaya dvindriya
5 (3) pratham samaya dvindriya nirvartit (earned as two-sensed beings 5
nirvartit (earned as two-sensed beings after the moment of birth),
卐
फ (5) pratham samaya trindriya nirvartit (earned as three-sensed beings फ्र
nirvartit (earned as three-sensed beings after the moment of birth),
5 during the first moment of birth), (6) apratham samaya trindriya 5
फ
(7) pratham samaya chaturindriya nirvartit (earned as four-sensed
卐
beings during the first moment of birth), (8) apratham samaya chaturindriya nirvartit (earned as four-sensed beings after the moment
sensed beings during the first moment of birth) and (10) apratham
samaya panchendriya nirvartit (earned as five-sensed beings after the 5 moment of birth).
卐
In the same way all beings did, do and will augment (upachaya), bond
5 of birth ). ( 9 ) pratham samaya panchendriya nirvartit (earned as five - 5
फ्र 卐
卐
卐
फुं (bandh), fructify (udiran), experience (vedan) and shed ( nirjaran) the
acquired karma particles in the past, present and future respectively in haforesaid ten ways.
5
5 विशेष शब्दों का अर्थ
卐
फ्र
चय - कर्म पुद्गलों का ग्रहण । उपचय - निषेक-कर्मपुद्गलों द्वारा आत्म- प्रदेशों पर रचना विशेष ।
बंध - कर्म व आत्मा का दूध-पानी की तरह मिलना । उदीरणा-उदय में आने वाले कर्म पुद्गलों को प्रयत्न
卐
卐 करके उदय में लाकर भोगना । वेदन- कर्मों का फल भोगना । निर्जरण - जीव- प्रदेशों से कर्मपुद्गलों का
15 पृथक् हो जाना।
卐
卐 दशम स्थान
卐
卐
(565)
5555555
Tenth Sthaan
फ्र
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Chaya (acquisition)-acquisition of karma particles. Upachaya (augmentation)-specific patterns made by karma particles on soulspace-points. Bandh (bondage)-assimilation of karmas and soul like that of milk and water. Udirana (fructification)--fructification of karma particles, having tendency of fruition, with conscious effort. Vedan (experience)--to experience the fruits of karmas. Nirjaran (shedding)— the separation of karma particles from the soul-space-points. पुद्गल-पद PUDGAL-PAD (SEGMENT OF MATTER)
१७४. दसपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। १७५. दसपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। १७६. दससमयठितीया पोग्गला अणंता पण्णत्ता। १७७. दसगुणकालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। १७८. एवं वण्णेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता।
१७४. दस प्रदेशी पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं। १७५. दस प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं। १७६. दस समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त हैं। १७७. दस गुण काले पुद्गल अनन्त हैं। १७८. इसी प्रकार वर्ण तथा गन्ध, रस और स्पर्शों के दस-दस गुण वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं।
174. There are infinite das pradeshi pudgal-skandhs (aggregates of 11 ten ultimate particles). 175. There are infinite das pradeshavagadh
pudgal-skandhs (ultimate particles occupying ten space-points). 176. There are infinite das samayasthiti pudgal-skandhs (ultimate particles existing for ten Samayas). 177. There are infinite pudgalskandhs (ultimate particles) with ten units of the attribute of black appearance. 178. In the same way there are infinite pudgal-skandhs (ultimate particles) with ten units of each of the remaining attributes of smell, taste, and touch.
॥ दसम स्थान समाप्त ॥ • END OF THE TENTH STHAAN
॥ स्थानांग सूत्र समाप्त ॥ • END OF STHAANANGA SUTRA •
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स्थानांगसूत्र (२)
(566)
Sthaananga Sutru (2)
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ममममममममम5555555555
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फफफफफफफळ
परिशिष्ट-१
स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है।
आगमों का अनध्यायकाल
卐
( स्व. आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत) 卐
卐
स्थानांगसूत्र के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या । इस प्रकार बत्तीस अनध्यायकाल माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है :
मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वर - विद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी शास्त्रों में अनध्यायकाल वर्णित किया फ गया है।
आकाश सम्बन्धी दस अनध्याय
१. उल्कापात - तारापतन - यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्र - स्वाध्याय नहीं 5 करना चाहिए।
४.
२. दिग्दाह - जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी फ स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
ㄓ
३. गर्जित- बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे ।
विद्युत् - बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे ।
किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह गर्जन और विद्युत् फ
प्रायः ऋतु - स्वभाव से ही होता है। अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता।
卐
कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
५. निर्घात - बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर दो प्रहर तक अस्वाध्यायकाल है। 卐 ६. यूपक - शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक फ
फफफफफफफफफफफफ
८. धूमिका - कृष्ण - कार्तिक से लेकर माघ मास तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका - कृष्ण कहलाती है। जब तक वह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
卐
७. यक्षादीप्त - कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े-थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह फ यक्षादीप्त कहलाता है । अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
९. मिहिका श्वेत - शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्यायकाल है।
परिशिष्ट
( 567 )
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Appendix 卐
5
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गाना
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१०. रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूल छा जाती है। जब तक यह धूल फैली रहती * है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय
११-१३. हड्डी, माँस और रुधिर-पंचेन्द्रिय, तिर्यंच की हड्डी, माँस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आसपास के ६० हाथ तक इन : वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं।
इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, माँस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि ५ इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन । तक तथा बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है।
१४. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। १५. श्मशान-श्मशान भूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है।
१६. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय ॐ नहीं करना चाहिए।
१७. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना ॐ गया है। म १८. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र-पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाह-संस्कार न
हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ़ न हो, तब तक शनैः-शनैः स्वाध्याय करना चाहिए।
१९. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करे।
२०. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा १०० हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
२१-२८. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ़-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिक-पूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें ॐ स्वाध्याय करने का निषेध है।
२९-३२. पातः, सायं, मध्याह्न और अर्ध-रात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे, सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे, मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी पहले और एक घड़ी पीछे एवं अर्ध-रात्रि में भी एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार अस्वाध्यायकाल टालकर दिन-रात्रि में चार काल का स्वाध्याय करना चाहिए।
步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步步男男男%%%%%%%%%%%
परिशिष्ट
(568)
Appendix
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Appendix-1
INAPPROPRIATE TIME FOR STUDY OF AGAMS (Quoted from Nandi Sutra edited by Late Acharya Pravar Shri Atmaram ji M.)
Detailed description of anadhyaya kaal (time inappropriate for studies) is also included in Smritis (the corpus of Sanatan Dharmashastra) like. Manusmriti. Vedic people also mention about the anadhyaya kaal (time inappropriate for studies) of the Vedas. This rule is applicable to other Aryan holy books. As Jain Agams are sermons of the Omniscient, ensconced by the devas and phonetically composed, discussion about the anadhyaya kaal (time Finappropriate for studies) is also included in the scriptures. For example:
F
Scriptures should be studied only at the appropriate time as prescribed in the Agams. Study of scriptures at a 'time inappropriate for studies' (anadhyaya kaal) is prohibited.
According to Sthananga Sutra there are thirty two slots of time defined as Fanadhyaya kaal (time inappropriate for studies)-ten related to sky, ten related to the gross physical body (audarik sharira), four relating to mahapratipada F (the date following a specific full moon night), four relating to the date of the said full moon night and four relating to sandhya (the four junctions of parts of the day, viz. morning, noon, evening and midnight). They are briefly described as follows:
RELATING TO SKY
1. Ulkapat or Tarapatan-If a falling star or a comet is visible in the sky, scriptures should not be studied for three hours following the incident.
2. Digdaha-As long as the sky looks crimson in any direction, as if there was a fire, then study of scriptures should not be done.
3. Garjit-For three hours following thunder of clouds such studies are prohibited.
4. Vidyut-For three hours following lightening such studies are prohibited.
However, the prohibition related to thunder and lightening is not applicable during the four months of monsoon. This is because frequent thunder and lightening is an essential attribute of that season. Thus this prohibition is relaxed starting from Ardra till Svati Nakshatra (lunar mansion or 27/28 divisions of the ecliptic on the path of the moon).
6 परिशिष्ट
(569)
Appendix
2 95 95 95 95 5 555 5 5 5 5 55 55 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 55 5 5 5 5 5 5 5 5 95 95 96 95 95 95 95 2
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5. Nirghat--For six hours following thunder without clouds (demonic or otherwise) such studies are prohibited.
6. Yupak-The conjunction of solar and lunar glows at twilight hour on first, second and third days of the bright half of a month (Shukla Paksha) is called Yupak. During these dates such studies are prohibited during the first quarter of the night.
7. Yakshadeepti-Some times there is a lightning like intermittent glow visible in the sky. This is called Yakshadeepti. As long as such glow is visible in the sky such studies are prohibited.
8. Dhoomika-krishna—The months from Kartik to Maagh are months of cloud formation. During this period smoky fog of suspended water particles is a frequent phenomenon. This is called Dhoomika-krishna. As long as this fog exists such studies are prohibited.
9. Mihikashvet—The white mist during winter season is called Mihikashvet. As lorg as this exists such studies are prohibited.
10. Raj-udghat-High speed wind causes dust storm. This is called Rajudghat. As long as the sky is filled with dust such studies are prohibited. RELATING TO GROSS PHYSICAL BODY
11-13. Bone, flesh and blood-As long as bone, flesh and blood of five sensed animals are visible and not removed from sight such studies are prohibited. According to the commentator (Vritti) if such things are lying up to a distance of 60 yards the prohibition is effective.
This rule is applicable to human bones, flesh and blood with the amendment that the distance is 100 cubits and the effective period is one day and night. The period prohibited for studies is three days in case of a women in menstruation, seven days in case of male-child birth and eight days in case of a female-child birth.
14. Ashuchi-As long as excreta is visible and not removed from sight such studies are prohibited.
15. Smashan-Up to a distance of hundred yards in any direction from a cremation ground such studies are prohibited.
16. Chandra grahan--At the time of lunar eclipse such studies are prohibited for eight, twelve or sixteen hours.
17. Surya grahan-At the time of solar eclipse such studies are prohibited for eight, twelve or sixteen hours.
18. Patan-On the death of a king or some other nationally eminent person such studies are prohibited as long as he is not cremated. Even after that, the period of study is kept limited as long as his successor does not take over.
परिशिष्ट
(570)
Appendix
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19. Raaj-vyudgraha-During a war between neighbouring states such studies are prohibited as long as peace does not prevail. Studies should be resumed only 24 hours after peace is established.
20. Audarik Sharira-In case a five sensed animal dies or is killed in an upashraya (place of stay for ascetics) such studies are prohibited as long as the dead body is not removed. This prohibition also applies if a dead body is lying within 100 yards of the place of stay.
21-28. Four Mahotsavas and four Mahapratipada-Ashadh, Ashvin, Kartik and Chaitra purnimas (the full moon days of these four months) are called great festival days. The days after these festival days are called Mahapratipada. On all these days such studies are prohibited.
29-32. Morning, evening, noon and midnight-During the twenty four minutes preceding and following the four junctions of parts of the day, viz. morning, noon, evening and midnight such studies are prohibited.
Studies of scriptures or other holy books should be done avoiding all these anadhyaya kaal (time inappropriate for studies).
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॥ विश्व में पहली बार जैन साहित्य के इतिहास में एक नये ज्ञान युग का शुभारम्भ ,
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(जैन आगम, हिन्दी एवं अंग्रेजी भावार्थ और विवेचन के साथ। शास्त्र के भावों को
उद्घाटित करने वाले बहुरंगे चित्रों सहित) १. सचित्र उत्तराध्ययनसूत्र
मूल्य ५००/भगवान महावीर की अन्तिम वाणी। आदर्श जीवन विज्ञान तथा तत्त्वज्ञान से युक्त मोक्षमार्ग के सम्पूर्ण ।
अंगों का सारपूर्ण वर्णन। एक ही सूत्र में सम्पूर्ण जैन आचार, दर्शन और सिद्धान्तों का समग्र सद्बोध। २. सचित्र दशवैकालिकसूत्र
मूल्य ५००/जैन श्रमण की अहिंसा व यतनायुक्त आचार संहिता। जीवन में पद-पद पर काम आने वाले विवेक युक्त, संयत व्यवहार, भोजन, भाषा, विनय आदि की मार्गदर्शक सूचनाएँ। आचार विधि को रंगीन चित्रों
के माध्यम से आकर्षक और सुबोध बनाया गया है। ३. सचित्र नन्दीसूत्र
मूल्य ५००/मतिज्ञान-श्रुतज्ञान आदि पाँचों ज्ञानों का उदाहरणों सहित विस्तृत वर्णन। ४. सचित्र अनुयोगद्वारसूत्र (भाग १, २)
मूल्य १,०००/यह शास्त्र जैन दर्शन और तत्त्वज्ञान को समझने की कुंजी है। नय, निक्षेप, प्रमाण, जैसे दार्शनिक विषयों के साथ ही गणित, ज्योतिष, संगीतशास्त्र, काव्यशास्त्र, प्राचीन लिपि, नाप-तौल आदि सैकड़ों विषयों
का वर्णन है। यह सूत्र गम्भीर भी है और बड़ा भी है। अतः दो भागों में प्रकाशित किया है। ५. सचित्र आचारांगसूत्र (भाग १, २)
मूल्य १,०००/यह ग्यारह अंगों में प्रथम अंग है। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, सम्यक्त्व, संयम, तितिक्षा आदि आधारभूत तत्त्वों का बहुत ही सुन्दर वर्णन है। भगवान महावीर का जीवन चरित्र, उनकी छद्मस्थ चर्या का आँखों देखा वर्णन तथा जैन श्रमण का आचार-विचार दूसरे भाग में है। दोनों भाग विविध
ऐतिहासिक व सांस्कृतिक चित्रों से युक्त। ६. स्थानांगसूत्र (भाग १, २)
१,२००/यह चौथा अंगसूत्र है। अपनी खास संख्या प्रधान शैली में संकलित यह शास्त्र ज्ञान, विज्ञान, ज्योतिष, भूगोल-गणित, इतिहास, नीति-आचार, मनोविज्ञान, पुरुष-परीक्षा आदि सैकड़ों प्रकार के विषयों का ज्ञान देने वाला बहुत ही विशालकाय शास्त्र है। भावार्थ और विवेचन के कारण प्रत्येक पाठक के लिए
समझने में सरल और ज्ञानवर्धक है। ७. ज्ञाताधर्मकथा (भाग १, २)
मूल्य १,०००/भगवान महावीर द्वारा प्रवचनों में प्रयुक्त धर्मकथाएँ, उद्बोधक रूपक, दृष्टान्त आदि जिनके माध्यम से
तत्त्वज्ञान सहज ही ग्राह्य हो गया है। विविध रोचक रंगीन चित्रों से युक्त। दो भागों में सम्पूर्ण आगम। ८. सचित्र उपासकदशा एवं अनुत्तरौपपातिकदशा
मूल्य ५००/सप्तम अंग उपासकदशा में भगवान महावीर के प्रमुख १० श्रावकों का जीवन चरित्र तथा उनके श्रावक धर्म का रोचक वर्णन है। नवम् अंग अनुत्तरौपपातिकदशा में उत्कृष्ट तपःसाधना करने वाले ३३ श्रमणों की तप ध्यान-साधना का रोमांचक वर्णन है। भावों को स्पष्ट करने वाले कलात्मक रंगीन चित्रों सहित। ॐ
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९. सचित्र निरयावलिका एवं विपाकसूत्र
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निरयावलिका में पाँच उपांग हैं। भगवान महावीर के परम भक्त राजा कूणिक के जन्म आदि का वर्णन तथा वैशाली गणतंत्राध्यक्ष चेटक के साथ हुए महाशिलाकंटक युद्ध का रोमांचक सचित्र चित्रण तथा भगवान अरिष्टनेमि एवं भगवान पार्श्वनाथ के शासन में दीक्षित अनेक श्रमण- श्रमणियों का चरित्र इनमें है ।
१०. सचित्र अन्तकृदशासूत्र
विपाकसूत्र में अशुभ कर्मों के अत्यन्त कटु फल का वर्णन है, जिसे सुनते ही हृदय द्रवित हो जाता है, तथा सुखविपाक में दान- तप आदि शुभ कर्मों के महान् सुखदायी पुण्य फलों का मुँह बोलता वर्णन है। भावपूर्ण रोचक कलापूर्ण चित्रों के साथ ।
११. सचित्र औपपातिकसूत्र
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मूल्य ५००/तपोमय साधना
आठवें अंग अन्तकृद्दशासूत्र में मोक्षगामी ९० महान् आत्म साधक श्रमण - श्रमणियों के जीवन का प्रेरक वर्णन है। यह सूत्र पर्युषण में विशेष रूप में पठनीय है। विविध चित्र व तपों के चित्रों से समझने में सरल सुबोध है।
१२. सचित्र रायपसेणियसूत्र
मूल्य ६००/
यह प्रथम उपांग है। इसमें राजा कूणिक का भगवान महावीर की वन्दनार्थ प्रस्थान, दर्शन - यात्रा तथा भगवान की धर्मदेशना धर्म प्ररूपणा आदि विषयों का बहुत ही विस्तृत लालित्ययुक्त वर्णन है। इसी में अम्बड़ परिव्राजक आदि अनेक परिव्राजकों की तपःसाधना का वर्णन भी है।
१३. सचित्र कल्पसूत्र
मूल्य ५००/यह द्वितीय उपांग है। धर्मद्वेषी प्रदेशी राजा को धर्मबोध देकर परम धार्मिक बनाने वाले महान् ज्ञानी आचार्य केशीकुमार श्रमण के साथ आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म आदि विषयों पर हुई तर्कयुक्त अध्यात्म चर्चा प्रत्येक जिज्ञासु के लिए पठनीय ज्ञानवर्द्धक है। आत्मा और शरीर की भिन्नता समझाने वाले उदाहरणों के चित्र भी बोधप्रद हैं।
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मूल्य ६००/- फ्र
मूल्य ५००/कल्पसूत्र का पठन, पर्युषण में विशेष रूप में होता है। इसमें २४ तीर्थंकरों का जीवन चरित्र है। साथ भगवान महावीर का विस्तृत जीवन चरित्र, श्रमण समाचारी तथा स्थविरावली का वर्णन है । २४ तीर्थंकरों के जीवन से सम्बन्धित सुरम्य चित्रों के कारण सभी के लिए आकर्षक उपयोगी है। इस प्रकार १७ जिल्दों में १८ आगम तथा कल्पसूत्र प्रकाशित हो चुके हैं। प्राकृत अथवा हिन्दी का साधारण ज्ञान रखने वाले व्यक्ति भी अंग्रेजी माध्यम से जैनशास्त्रों का भाव, उस समय की आचार-विचार प्रणाली आदि को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं। अंग्रेजी शब्द कोष भी दिया गया है। पुस्तकालयों, ज्ञान भण्डारों तथा संत-सतियों, स्वाध्यायियों के लिए विशेष रूप से संग्रह करने योग्य आगमों का यह प्रकाशन कुछ समय पश्चात् दुर्लभ हो सकता है।
इस आगम माला के प्रकाशन में परम श्रद्धेय उत्तर भारतीय प्रवर्त्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज की अत्यन्त बलवती प्रेरणा रही है। उनके शिष्यरत्न जैन शासन दिवाकर आगमज्ञाता उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. द्वारा सम्पादित है, इनके सह-सम्पादक हैं प्रसिद्ध विद्वान् श्रीचन्द सुराना। अंग्रेजी अनुवादकर्ता हैं श्री सुरेन्द्र बोथरा तथा सुश्रावक श्री राजकुमार जी जैन ।
आगामी प्रकाशन : सचित्र श्री भगवती सूत्र ।
परिशिष्ट
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Appendix
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IN THE HISTORY OF JAIN LITERATURE BEGINNING OF A NEW ERA OF
KNOWLEDGE FOR THE FIRST TIME IN THE WORLD
(Jain Agams published with free flowing translation in Hind and English. Also included are multicoloured illustrations vividly
exemplifying various themes contained in scriptures)
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1. Illustrated Uttaradhyayan Sutra
Price Rs. 500/The last sermon of Bhagavan Mahavir. Essence of the ideal way of life and path of liberation based on philosophical knowledge contained in all Angas. The pious discourse encapsulating complete Jain conduct,
philosophy and principles. 2. Illustrated Dashavaikalik Sutra
Price Rs. 500/The simple rule book of ahimsa and caution based Shraman conduct 4 rendered vividly with the help of multicoloured illustrations. Useful at $ every step in life, even of common man, as a guide book of good behaviour,
balanced conduct and norms of etiquette, food and speech. 3. Illustrated Nandi Sutra
Price Rs. 500/All enveloping discussion of the five facets of knowledge including Mati
jnana and Shrut-jnana. 4. Illustrated Anuyogadvar Sutra (Parts 1 and 2)
Price Rs. 1,000/This scripture is the key to understanding Jain philosophy and metaphysics. Besides philosophical topics like Naya, Nikshep and Praman it contains discussion about hundreds of other subjects including mathematics, astrology, music, poetics, ancient scripts, and weights and measures. The complexity and volume of this could be covered only in
two volumes. 5. Illustrated Acharanga Sutra (Parts 1 and 2)
Price Rs. 1,000/This is the first among the eleven Angas. It contains lucid description of ahimsa, samyaktva, samyam, titiksha and other fundamentals propagated by Bhagavan Mahavir. Eye-witness-like description of the life of Bhagavan Mahavir and his pre-omniscience praxis as well as details abou ascetic conduct and praxis form the second part. Both parts contain
multi-coloured illustrations on a variety of historical and cultural themes. 45 6. Illustrated Sthananga Sutra (Parts 1 and 2)
Price Rs. 1,200/This is the fourth Anga Sutra. Compiled in its unique numerical placement style, this scripture is a voluminous work containing
45454545454545454545454545454545454545454 455
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(574)
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45 information about scriptural knowledge, science, astrology, geography, 56 mathematics, history, ethics, conduct, psychology, judging man and 4 hundreds of other topics. The free flowing translation and elaboration make the contents easy to understand and edifying even for common readers.
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Illustrated Jnata Dharma Katha Sutra (Parts 1 and 2) Price Rs. 1,000/Famous inspiring and enlightening religious tales, allegories and incidents told by Bhagavan Mahavir presented with attractive colourful illustrations. This works makes the abstract philosophical principles easy
to understand. This is the sixth Anga complete in two volumes. 8. Illustrated Upasak Dasha and Anuttaraupapatik Dasha Sutra Price Rs. 500/
This book contains the seventh and the ninth Angas. The seventh Anga, Upasak Dashi, contains the stories of life of ten prominent Shravak disciples of Bh igavan Mahavir with a special emphasis on their religious conduct. The ninth Anga Anuttaraupapatik Dasha contains thrilling description of the lofty austerities and meditation done by thirty three
specific ascetics. With colourful illustrations. 9. Illustrated Niryavalika and Vipaak Sutra
Price Rs. 600/Niryavalika has five Upangas that contain the story of the birth of King 41 Kunik, a devout disciple of Bhagavan Mahavir. This also contains the thrilling and illustrated description of the famous Mahashilakantak war between Kunik and Chetak, the president of the republic of Vaishali. Besides these it also has life-stories of many Shramans and Shramanis of the lineage of Bhagavan Parshva Naath. Vipaak Sutra contains the description of the extremely bitter fruits of ignoble deeds. This touching description inspires one towards noble deeds like charity and austerities the fruits of which have been lucidly described in its second section titled Sukha-vipaak. The colourful artistic illustrations add to the attraction.
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10. Illustrated Antakriddasha Sutra
Price Rs. 500/This eighth Anga contains the inspiring stories of the spiritual pursuits of ninety great men destined to be liberated. This Sutra is specially read during the Paryushan period: The illustrations related to austerities are
specially informative. 11. Illustrated Aupapatik Sutra
Price Rs. 500/This is the first Upanga. This contains lucid and poetic description of numerous topics including King Kunik's preparations to go to pay homage
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to Bhagavan Mahavir, Bhagavan's sermon and establishment of the religious order. This also contains the description of austerities observed
by Ambad and many other Parivrajaks. 12. Illustrated Raipaseniya Sutra
Price Rs. 500/This is the second Upanga. It provides an interesting and edifying reading of the discussions between Acharya Keshi Kumar Shraman and the antireligious king Pradeshi on topics like soul, next life and rebirth. This dialogue turned him into a great religionist. The illustrations of the examples showing the difference between soul and body are also instructive.
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13. Ilustrated Kalpa Sutra
Price Rs. 500/Kalpa Sutra is widely read and recited during the Paryushan festival. It contains stories of life of 24 Tirthankars with more details about Bhagavan Mahavir's life. It also contains the disciple lineage of Bhagavan Mahavir and detailed ascetic praxis. The illustrations connected with the 24 Tirthankars add to its attraction as well as utility. Thus till date 18 Agams and Kalpa Sutra have been published in 17 books. The English translation makes it possible for those with passing knowledge of Prakrit and Hind to understand the content of Jain Agams including the religious practices as prevalent in ancient times. Also included in some of these editions are glossaries of Jain terms with their meanings in English. Due to its demand by libraries, Jnana Bhandars, ascetics and lay readers this unique series may soon go out of print. The publication of this Agam series has been inspired by Uttar Bharatiya Pravartak Gurudev Bhandari Shri Padmachandra ji M. Its editor is his able disciple Uttar Bharatiya Pravartak Shri Amar Muni ji Maharaj. His team includes renowned scholar Shri Srichand Surana as associate editor, Shri Surendra Bothara and Sushravak Shri Raj Kumar Jain, as English translators.
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प्रवर्तक श्री अमर मुनि
प्रस्तुत सूत्र के सम्पादक श्री अमर मुनि जी, श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के एक तेजस्वी संत हैं। आपकी वाणी में जादू है। श्रोता जब आपश्री के मुख से जिनवाणी का रसास्वाद करते हैं तो झूमने लग जाते हैं।
जिनवाणी के परम उपासक गुरुभक्त श्री अमर मुनि जी का जन्म वि.सं. १९९३ भादवा सुदि ५ (सन् १९३६), क्वेटा (बलूचिस्तान) के मल्होत्रा परिवार में हुआ।
११ वर्ष की लघुवय में आप जैनागम रत्नाकर आचार्यसम्राट श्री आत्माराम जी महाराज की चरण-शरण में आये और आचार्यदेव ने अपने प्रिय शिष्यानुशिष्य भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज को इस रत्न को तराशने/सँवारने का दायित्व सौंपा। गुरुदेव श्री भण्डारी जी महाराज ने अमर को सचमुच अमरता के पथ पर बढ़ा दिया। संस्कृत-प्राकृत-आगम-व्याकरण-साहित्य आदि का अध्ययन करके एक ओजस्वी प्रवचनकार, तेजस्वी धर्म-प्रचारक तथा जैन आगम साहित्य के अध्येता और व्याख्याता के रूप में जैन समाज में प्रसिद्धि प्राप्त की।
आपश्री ने भगवती सत्र (४ भगा), प्रश्नव्याकरण सत्र (२ भाग), सूत्रकृतांग सूत्र (२ भाग) आदि आगमों की सुन्दर विस्तृत व्याख्याएँ की हैं। आगम साहित्य का सचित्र प्रकाशन करने की सुन्दर विस्तृत व्याख्याएँ की हैं। आगम साहित्य का सचित्र प्रकाशन करने की अभिनव अद्वितीय संकल्पना की है। PRAVARTAK SHRI AMAR MUNI
The editor-in-chief of this Sutra, is a brilliant ascetic affliated with Shri Vardhaman Sthanakvasi Jain Shraman Sangh. He is endowed with a maganetic style of oration. When masses listen to the tenets of Jina they are spellbound.
A great worshiper of the tenets of Jina and a devotee of his Guru, Shri Amar Muni Ji was born in a Malhotra family of Queta (Baluchistan) on Bhadva Sudi 5th in the year 1993 V.
He took refuge with Jainagam Ratnakar Acharya Samrat Shri Atmaram Ji M. at an immature age of eleven years. Acharya Samrat entrusted his dear granddisciple, Bhandari Shri Padmachandra Ji M. with the responsibility of cutting and polishing this raw gem. Gurudev Shri Bhandari Ji M. indeed, put Amar (immortal) on the path of immortality. He studied Sanskrit, Prakrit, Agams, Grammar and Literature to gain fame in the Jain society as an eloquent orator, an effective religions preacher and a scholar and interpreter of Jain Agam literature.
He has written nice and detailed commentaries of Bhagavati Sutra (in four parts), Prahsnavyakaran Sutra (in two parts). Sutrakritanga Sutra (in two parts and some other Agams. He is the one who came out with
For Private & Personal use
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________________ सचित्र दशवैकालिक सूत्र श्री अमरशनित सवित्र रायपसेणिय सूत्र RAI-PASENIYA SUTRA ShriAmr.Muni ज्ञाताधर्मकथाङ सूत्र सचित्र तराध्ययन थाअमवमनि FLEXISTIALIFIED LISTRATED Jnata Dh Dharma Kathanga Sutra DASAVAIKALIKA SUTRA संपादक श्री अगर जुटिश PHARMUNII विश्रीनन्दीसूत्र सचित्र निरयावालका विपाक सूत्र सचिव अनुयोगदारसूत्र IT It strated Illustrated Anuyog-dvar Sutra NIRAYAVALIKA AND VIPAAK SUTRA SRI AMAR MUNI श्रीकार मुनि SRI NANDI SUTRA COPIPRAVARTAKAYAMAMMONTH सचिन KALPASURES ILLAIRETTIAYEDAL आचारांगसूत्र ACHARANGA SUTRA O सवित्र औपपातिक सूत्र 11.POTRATTO AUPAPATIK SUTRES श्री कल्पसूत्र अनुयोगद्वार सूत्र 22ii अमर मुनि Anuyog-dvar Sutra श्रीअमरमुनि સાવિત્ર श्री उपासक दशा एवं अनुतरौषपातिकदशा सूत्र स्थानोगत प्रयांक अमरमुनि OPEDO Illustratedhida Llpasak Dasha and Anuttaraupapatik Dasha Sutra HERE सचित्र ज्ञाताधर्मकथा सत्र Theta Dharma Kathanga Sitra श्री अमल मुनि सावत्र We आचारांग सूत्र Tlustrated Acharnga Sutra(a)' SIHANANCA SUTRA D OWRY SHRI AMAR MUNI ( AAILY For PT & Personal Use Only www.jain .org