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६२५. नारक जीवों के शरीर चार कारणों से निवृत्त (निष्पन्न) होते है - (१) क्रोधजनित कर्म से, 5
((२) मान - जनित कर्म से, (३) माया - जनित कर्म से) (४) लोभ-जनित कर्म से । ६२६. इसी प्रकार
वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों के शरीरों की निवृत्ति (निष्पत्ति) उक्त चार कारणों से होती है।
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625. The body of an infernal being matures ( nishpatti) due to four reasons— (1) krodh janit karma (karma acquired through anger ), 5 (2) maan janit karma (karma acquired through conceit ), (3) maaya janit karma (karma acquired through deceit) and (4) lobh janit karma (karma acquired through greed). 626. In the same way bodies of all beings of all dandaks mature due the said four reasons.
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धर्मद्वार - पद DHARMADVAR-PAD (SEGMENT OF DOORS OF RELIGION)
६२७. चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ।
६२७. धर्म के चार द्वार कहे हैं - ( १ ) क्षान्ति (क्षमा या तितिक्षा ), (२) मुक्ति (निर्लोभता या सन्तोषवृत्ति), (३) आर्जव (निष्कपटता, मन की पवित्रता), (४) मार्दव (मृदुता या विनम्रता ) ।
627. There are four dvars (traits) of dharma (religion ) - ( 1 ) kshanti (forgiveness), (2) mukti (contentment or absence of greed ), ( 3 ) arjava फ्र 5 ( honesty or purity of mind) and (4) maardava (modesty or gentleness).
नरकायु-पद NARAKAYU-PAD (SEGMENT OF INFERNAL LIFE)
६२८. चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- महारंभताए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं ।
६२८. चार कारणों से जीव नरक आयुष्य के
योग्य कर्म उपार्जन करते हैं- (१) महा आरम्भ से 5 (जिस क्रिया में घोर हिंसा की जाती है), (२) महा परिग्रह से ( धन के प्रति अत्यासक्ति से), (३) पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से, (४) कुणप आहार से (माँसभक्षण करने से ) ।
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628. For four reasons a being acquires karmas determining infernal
life span—(1) through maha arambh (great sin or extremely violent act ), 5
5 (2) through maha parigraha (extreme covetousness ), ( 3 ) through 5
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panchendriya vadh (killing five sensed beings) and (4) through kunap
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ahar (meat eating).
तिर्यंचायु-पद TIRYANCHAYU-PAD (SEGMENT OF ANIMAL LIFE SPAN)
६२९. चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - माइल्लताए, णियडिल्लताए, अलियवयणेणं, कूडतुल- कूडमाणेणं ।
स्थानांगसूत्र ( २ )
(74)
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Sthaananga Sutra (2)
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