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६२९. चार कारणों से जीव तिर्यंचगति के योग्य कर्मों का उपार्जन करते हैं- (१) मायाचार ( मन फ्र वचन कर्म की कुटिलता) से, (२) निकृतिमत्ता से अर्थात् कपट जाल फैलाने से । (३) असत्य वचन से, (४) कूटतुला - कूटमान से (घट-बढ़ तोलने - नापने से) ।
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629. For four reasons a being acquires karmas determining animal 5 life span—(1) through mayachar (crooked action through mind, speech and body), (2) through nikritimatta (spreading web of deception), (3) through asatya vachan (telling a lie) and (4) through kootatula (deceit फ्र in weights and measures).
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मनुष्यायु-पद MANUSHYAYU-PAD (SEGMENT OF HUMAN LIFE SPAN)
६३०. चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - पगतिभद्दताए, 卐 पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए ।
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चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक
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६३०. चार कारणों से जीव मनुष्यायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं - ( १ ) प्रकृति - भद्रता ( स्वभाव की सरलता) से, (२) प्रकृति विनीतता - ( स्वभावजन्य विनीतता) से, (३) सानुक्रोशता से ( दयालुता और फ्र सहृदयता से), (४) अमत्सरित्व से (मत्सर व ईर्ष्या भाव न रखने से )
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630. Due to four reasons a being acquires karinas determining human life span—(1) through prakriti bhadrata (natural simplicity), (2) through prakriti vinitata (natural modesty ), (3) through saanukroshata फ्र (generosity_and kindness) and (4) through amatsaritva (absence of 5 jealousy and hostility).
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Fourth Sthaan: Fourth Lesson
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देवायुष्य - पद DEVAAYU-PAD (SEGMENT OF DIVINE LIFE SPAN)
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६३१. चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, फ्र बालतवोकम्पेणं, अकामणिज्जराए ।
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६३१. चार कारणों से जीव देवायुष्क कर्म का उपार्जन करते हैं - (१) सरागसंयम से (रागसहित 5 दशा में संयम पालन करना । (२) संयमासंयम से, (श्रावक धर्म पालने से) । (३) बालतप अज्ञान पूर्वक तप करने से, (४) अकामनिर्जरा से - (निर्जरा की भावना के बिना तप, ब्रह्मचर्य आदि पालने से ) ।
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631. Due to four reasons a being acquires karmas determining divine 5 life span (1) through saraag samyam (observing ascetic discipline with 卐 attachment), (2) through samyamasamyam ( observing householder's 卐 code), (3) through baal tap (observing austerities without knowledge ) फ and (4) through akaam nirjara (observing ascetic code and austerities without a desire to shed karmas).
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विवेचन - हिंसादि प्रवृत्तियों के सर्वथा त्याग को संयम कहते हैं। उसके दो भेद हैं- सरागसंयम और वीतरागसंयम । जहाँ तक सूक्ष्म राग रहता है-ऐसे दसवें गुणस्थान तक का संयम सरागसंयम है और 5
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