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१२३. नारक दस प्रकार के हैं, जैसे-(१) अनन्तर-उपपन्न-जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय ही हुआ ! 卐 है। (२) परम्पर उपपन्न-जिन्हें उत्पन्न हुए दो तीन आदि अनेक समय बीत चुके हैं। (३) अनन्तर-: + अवगाढ-विवक्षित क्षेत्र से संलग्न आकाश-प्रदेश में अवस्थित। (४) परम्पर-अवगाढ-विवक्षित क्षेत्र से । ॐ व्यवधान वाले आकाश-प्रदेश में अवस्थित। (५) अनन्तर-आहारक-उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ! ॐ ग्रहण करने वाले। (६) परम्पर-आहारक-दो आदि समयों के पश्चात् आहार ग्रहण करने वाले।।
(७) अनन्तर-पर्याप्त-जिनके पर्याप्त होने में एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ा। (८) परम्पर-पर्याप्तॐ दो-तीन आदि समयों के पश्चात् पर्याप्त होने वाले। (९) चरम-अन्तिम बार नरकगति में उत्पन्न होने ५ 卐 वाले। (१०) अचरम-जो आगे भी नरकगति में पुनः उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों में जीवों के दस-दस प्रकार है।
123. Naarak (infernal beings) are of ten kinds——(1) Anantarupapanna-those who have passed just one Samaya after birth. (2) Parampar-upapanna-those who have passed two, three or more Samayas after birth. (3) Anantar-avagadh-existing in the space-point adjacent to the point of reference. (4) Parampar-avagadh-existing in a space-point distant from the point of reference. (5) Anantar-aharak-those who have food intake during the first Samaya after birth. (6) Paramparaharak-those who have food intake after the first two Samayas of birth. (7) Anantar-paryapt-those who attain full development instantaneously without a lapse of even one Samaya. (8) Parampar-paryaptattain full development after a lapse of two, three or more Samayas. (9) Charam-those who are born in hell for the last time. (10) Acharamthose who will be born in hell in future as well. नरक-पद NARAK-PAD (SEGMENT OF HELL)
१२४. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए दस णिरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता। __१२४. चौथी पंकप्रभा पृथिवी में दस लाख नारकावास हैं।
124. In Pankaprabha Prithvi, the fourth hell, there are ten lac (one million) infernal abodes. Perfa-6 STHITI-PAD (SEGMENT OF LIFE SPAN)
१२५. रयणप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। १२६. चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। १२७. पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए जहण्णेणं णेरइयाणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता।।
१२८. असुरकुमाराणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। एवं जाव थणियकुमाराणं। | स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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