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celibacy (abrahmacharya). (5) On giving statement accusing someone of impotency and (6) On giving statement accusing someone of being a fi slave (born of a slave mother).
After accusing someone of these six atonement-entailing transgressions, if some ascetic fails to irrefutably prove them then he is liable to get the same atonement. In other words, if the accuser is unable to prove the accusation, he himself has to suffer the formulated atonement.
विवेचन-साधु के आचार को कल्प कहा जाता है। प्रायश्चित्त की उत्तरोत्तर वृद्धि को प्रस्तार कहते है 卐 हैं। हिंसा, असत्य, ब्रह्मचर्य आदि के सम्बन्ध में यदि कोई साधु अन्य साधु को नीचा दिखाने, कलंकित
करने की नीयत से झूठा आरोप लगावे कि "तुमने यह पाप किया है', फिर मनगढन्त प्रमाण जुटाकर
उसे दोषी सिद्ध करने की चेष्टा करता है तब वह गुरु के सामने यदि आरोप सिद्ध नहीं कर पाता है, तो है ॐ वह स्वयं उसके प्रायश्चित्त का भागी होता है। पुनः वह अपने कथन को सिद्ध करने के लिए ज्यों-ज्यों असत् प्रयत्न करता है, त्यों-त्यों वह उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त का भागी होता जाता है।
Elaboration-Ascetic praxis is called kalp. Formulating and prescribing progressively intensifying atonement for specific and multiplying faults is called prastaar. When an ascetic accuses another ascetic of blames related to violence and other transgressions of ascetic praxis and collects imaginary and false evidences; after this prove his accusation then it is he who has to undergo the same prescribed atonement. If he continues to pile up false evidences by hook or crook to prove his point, he continues to be liable to progressively
severe atonement. म पलिमन्थु-पद PALIMANTHU-PAD (SEGMENT OF DETRIMENTS OF ASCETIC PRAXIS) ॐ १०२. छ कप्पस्स पलिमंथु पण्णत्ता, तं जहा-कोकुइते संजमस्स पलिमंथू, मोहरिए ।
सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खूलोलुए ईरियावहियाए पलिमंथु, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू, ॐ इच्छालोभिते मोत्तिमग्गस्स पलिमंथू, भिज्जाणिदाणकरणे मोक्खमग्गस्स पलिमंथू। सव्वत्थ भगवता
अणिदाणता पसत्था। म १०२. कल्प के छह पलिमंथु (साधु आचार के विघातक कारण) हैं-(१) कौकुचित -चपलता
संयम का पलिमंथु है, (२) मौखरिक-मुखरता या बकवाद सत्य का पलिमंथु है, (३) चक्षुर्लोलुप-नेत्र के
विषय में आसक्त, ईर्यापथिक का पलिमंथ है। (४) तिंतिणक-चिड़चिड स्वभाव वाला, एषणा-गोचरी 卐 का पलिमंथु है। (५) इच्छालोभिक-अतिलोभी, निष्परिग्रह रूप मुक्तिमार्ग का पलिमंथु है। (६) अभिध्या
निदानकरण-चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के भोगों का निदान करने वाला मोक्षमार्ग का पलिमंथु है। भगवान ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त (श्रेष्ठ) कहा है।
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षष्ठ स्थान
(261)
Sixth Sthaan
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