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ॐ विविधरूपों की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय
ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव पुद्गलों से ही बना हुआ है। कितनेक श्रमण-माहन - ऐसा कहते हैं कि जीव शरीर-पुद्गलों से बना हुआ नहीं हैं, जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्यावादी हैं। यह 卐 चौथा विभंगज्ञान है।
. (५) पाँचवाँ विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस 卐 विभंगज्ञान से देवों को बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किये बिना (पुद्गलों की सहायता लिए
बिना) ही विविध क्रियाएँ करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल उत्पन्न मकर, उनका स्फोट कर, भिन्न-भिन्न काल और देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं। यह देखकर + उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि म
जीव पुदगलों से बना हुआ नहीं है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव-शरीर पदगलों से 卐 बना हुआ है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह पाँचवाँ विभंगज्ञान है।
(६) छठा विभंगज्ञान है-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस ॐ विभंगज्ञान से देवों को बाह्य आभ्यन्तर पदगलों को ग्रहण करके और ग्रहण किए बिना विक्रिया करते फ़ हुए देखता है। वे देव पुदगलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्न-भिन्न
काल और देश में कभी एक प्रकार व कभी विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में म में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव रूपी ही ॥
है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी हैं। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह छठा विभंगज्ञान है।
(७) सातवाँ विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस ॐ विभंगज्ञान से सूक्ष्म (मन्द) वायु के स्पर्श से पुद्गल (पुद्गल स्कन्धों को) काय को कम्पित होते हुए,
विशेष रूप से कम्पित होते हुए, चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पन्दित होते हुए, दूसरे पदार्थों का
स्पर्श करते हुए, दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए विभिन्न पर्यायों में परिणत होते हुए देखता है। तब ॐ उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि ये म सभी जीव ही जीव हैं, कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव भी हैं और अजीव भी हैं। जो ऐसा
कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। उस विभंगज्ञानी को पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और ॐ वायुकायिक, इन चारों जीव-निकायों का सम्यक् ज्ञान नहीं होता है। वह इन चार जीव-निकायों पर
मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है। यह सातवाँ विभंगज्ञान है। 4 2. Vibhang jnana (avadhi-jnana of an unrighteous person) is of seven i kinds—(1) Ekadiglokabhigam-covering only one direction of the lok,
(2) Panchadiglokabhigam-covering fire sides of the lok, (3) Kriyavaran jiva-believes that jiva (being or soul) is involved only in kriya (action) and not in karma (bondage of karma), (4) Mudagga jiva-believes that jiva (being or soul) is made up of matter alone, (5) Amudagga jiva
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स्थानांगसूत्र (२)
(278)
Sthaananga Sutra (2)
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