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955555555555555 $ $$$$$$$$$$$$ $$ 5555555g ॐ अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे-सव्वमिणं जीवा। संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-जीवा के
चेव, अजीवा चेव। जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। तस्स णं इमे चत्तारि जीवणिकाया णो सम्ममुवगता भवंति, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया। इच्चेतेहिं चाहिं के
जीवणिकाएहि मिच्छादंड पवत्तेइ, सत्तमे विभंगणाणे। म २. विभंगज्ञान (मिथ्यात्वी का अवधिज्ञान) सात प्रकार का है-(१) एकदिग्लोकाभिगम-एक ही
दिशा लोक को जानने वाला। (२) पंचदिग्लोकाभिगम-पाँचों दिशाओं में लोक को जानने वाला।
(३) क्रियावरण जीव-जीव के क्रिया का ही आवरण है, कर्म का नहीं। (४) मुदग्गजीव-जीव को मुदग्ग- 卐 (पुद्गल-) निर्मित ही मानने वाला। (५) अमुदग्गजीव-जीव को पुद्गल-निर्मित नहीं मानने वाला।
(६) रूपी-जीव-जीव को रूपी ही मानने वाला। (७) यह सर्वजीव-इस सर्व दृश्यमान जगत् को जीव ही 卐 मानने वाला।
(१) पहला विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न 3 हुए विभंगज्ञान से पूर्व या पश्चिम या दक्षिण या उत्तर दिशा को या ऊर्ध्वदिशा को सौधर्मकल्प तक, इन म पाँचों दिशाओं में से किसी एक दिशा को देखता है। तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे
क्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त हआ है। मैं इस एक दिशा में ही लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक पाँचों दिशाओ में है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह है के प्रथम विभंगज्ञान है।
(२) दूसरा विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस ॐ विभंगज्ञान से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध्वदिशा में सौधर्मकल्प तक देखता है। तब उसके मन
में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय (सम्पूर्ण) ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं पाँचों दिशाओं में ही ॐ लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक एक ही दिशा में है। जो ऐसा कहते ॥ म हैं वे मिथ्या कहते हैं। यह दूसरा विभंगज्ञान है। 9 (३) तीसरा विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस के म विभंगज्ञान से जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, अदत्त-ग्रहण करते हुए, मैथुन-सेवन करते
हुए, परिग्रह करते हुए और रात्रि-भोजन करते हुए देखता है, किन्तु उन प्रवृत्तियों के द्वारा होते हुए . ॐ कर्मबन्ध को नहीं देख पाता, तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन के म प्राप्त हुआ है। मैं ऐसा देख रहा हूँ कि जीव क्रिया से ही आवृत्त है, (क्रिया करने वाला है) कर्म से कर्म
का बंध करने वाला नहीं। जो श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव क्रिया से आवृत्त नहीं हैं, वे + मिथ्यावादी हैं। यह तीसरा विभंगज्ञान है।
(४) चौथा विभंगज्ञान-जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस । ॐ विभंगज्ञान से देवों को बाह्य (शरीर स्पृष्ट क्षेत्र से बाहर) और आभ्यन्तर (शरीर क्षेत्र के भीतर) पुद्गलों के
को ग्रहण कर विक्रिया-विभिन्न क्रियाएँ करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, इनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्न-भिन्न काल और विभिन्न देश में कभी एकरूप व कभी
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सप्तम स्थान
(277)
Seventh Sthaan
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